SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तदश अध्ययन गुजराती भाषान्तर:આ આત્માના બન્ધન અને મોક્ષને તથા તેના ફળની પરંપરાને જે જાણે છે તે જ કર્મની સાંકળ (બેડી) ને તેડી શકે છે, आध्यात्मिक पथ में आगे बढ़ने के लिए बन्ध और मोक्ष का ज्ञान सर्वप्रथम आवश्यक है। वे कौन से हेतु है जिनके द्वारा प्रात्मा क्रमबद्ध होता है। जब तक उन हेतुओं का परिज्ञान नहीं होगा तब तक आत्मा बन्ध से मुक्त नहीं हो सकता। अतः बन्ध क्या है, द्रव्य बंध क्या है और भाव बंध क्या है। इसका परिझान सर्वप्रथम अपेक्षित है । आत्मा का सराग स्पन्दन भाव बंध है जिसके द्वारा कर्म द्रव्य आकर्षित होते हैं । सिद्धान्त चक्रवती आचार्य नेमिचंद्र बोलते हैं. किः बज्झदि कम्म जेण दुचेवणभावेण भावबंधो सो कम्मादपदेसागं अण्णोषण-पवेसण इदरो ध्यसंग्रहमाथा ३२ । आत्मा की बह दुश्वतन परिणति जो कर्म-बन्ध का हे। है वही भाव बंध है। क्योंकि उसी के द्वारा तो द्रव्य कर्म आत्मा से चिपक सकते हैं। कर्म और आत्मप्रदेशों का लोह पिंड में अमि प्रवेशवत् एक दूसरे में प्रवेश होना ही द्रव्य-इंध है। कर्म क्या है ? उसका वैध क्यों होता है ? और उससे मुक्ति कैसे संभव है ? इतना जान लेने के बाद ही आत्मा कर्मों को नष्ट कर सकता है। सावजजोगं णिहिलं विदित्ता तं चैव सम्म परिजाणिऊणं । तीतस्स गिलमुशिाह सावमा तिमाहेश ७॥ अर्थ:-साक्य योग को निखिल रूप में जान कर उसका सम्यक् प्रकार से परिज्ञान कर के अतीत की निन्दा के लिए उपस्थित आत्मा सावध वृति पर श्रद्धा न करे। गुजराती भाषान्तर:-- સાવદ્ય વેગને સંપૂર્ણ રૂપથી જાણીને તેનું જ્ઞાન મેળવી અતીત એટલે બની ગયેલાની નિંદા માટે પ્રાપ્ત થએલા આત્મા સાવદ્ય વૃત્તિ પર શ્રદ્ધા ન કરે. साधक सावध योग का विवेक करे। प्रथम चरण में सावध योग जान लेने के बाद द्वितीय चरण में उसके परिज्ञान के लिए कहा गया है 1 आगम में परिज्ञा के दो प्रकार बताए है-झपरिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिशा। ज्ञ-परिज्ञा के द्वारा साधक सावध प्रवृत्ति को जाने और प्रत्याख्यान-परिज्ञा के द्वारा उसका प्रत्याख्यान करे । अतीत काल में जो सावध योग की प्रवृत्ति हुई है उसके लिए आलोचना के लिए तत्पर रहे। क्यों कि वर्तमान सावध योम का ही त्याग हो सकता है। अतीत का नहीं, उसके लिए तो श्वासाप ही संभव है। किन्तु सायद्य वृत्ति की श्रद्धा का त्याग अवश्य करे, क्योंकि हिंसा से हिंसा का विश्वास अधिक पतन करता है। __ सज्झायझाणोवगतो जितप्पा संसारवासं बहुधा विदित्ता। सावज्जबुत्तीकरणे ठितप्पा निरयजवित्ती उ समाहरेज्जा ॥ ८ ॥ अर्थ:-बाध्याय-ध्यानरत जितेन्द्रिय आत्मा संसार वास को सर्व प्रकार से जान कर रिचतारमा सावध प्रवृत्ति के कार्य में निरवद्य वृत्ति को स्वीकार करे। गुजराती भाषान्तर: સ્વાધ્યાય અને ધ્યાનમાં તન્મય, અને ઈન્દ્રિય પર કાબુ મેળવેલ આત્મા સાંસારિક જીવનને દરેક રીતે, જાણીને સ્થિતામા થઈ સાવધ પ્રવૃત્તિના કાર્યમાં નિરવઘ વૃત્તિને સ્વીકારે. स्वाध्याय भी एक तप है। स्वाध्याय के माध्यम से साधक अतीत के महा पुरुषों से मिलता है। उनके दर्शन और चिंतन का साक्षात्कार करता है और वह जीवन और जगत् को पहचानता है। जितेन्द्रिय साधक सब दूर ख का ही अध्ययन करता है। पार्थिव संसार में अपार्थिव का दर्शन करता है। विध-व्यवस्था का सही दर्शन उसे स्वाध्याय के द्वारा ही होता है। किसी पुस्तक या अन्ध का पारायण कर जाना खाध्याय नहीं है। वह तो केयल वाचन ही है। किन्तु उसके साथ जब आत्मा का स्वरूप-दर्शन पाता है विश्व-व्यवस्था का अनुबंध केसे बिगडा? उसके प्रभंजक कौन से तत्व हैं ? इन सबका अनुचिंतन ही स्वाध्याय है। स्वरूप में लीन हो जाना ध्यान है। वृत्तियों को बहिर्मुखता से मोड कर अन्तर्मुख बना देना; आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार करना ध्यान है। स्वाध्याय और ध्यान साधक को जोवन और जगत् का सही दर्शन कराते हैं। स्वरूप दर्शन
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy