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विलु अर्हतर्षि प्रोक्त
सप्तदश अध्ययन - “सा विद्या या विमुक्तये एक ऋषि की पट्ट वाणी विद्या का लक्ष्य बता रही है। जो मानवीय चेतनाओं को बंधन से मुक्ति की ओर ले जाए, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए, देह की संकीर्णताओं से उपर उठा कर आत्मा के विराट रूप का साक्षात्कार कराए और स्वार्थ, संप्रदाय तथा मिथ्यामिनिवेशों के घेरे को तोडने की पुनीत प्रेरणा दे वही विद्या है । इंग्लिश विचारकों की दृष्टि में ज्ञान का ध्येय है कि The great end of education is to discipline of the mind. विचार शक्ति को विकसित करना ही शिक्षा का महान् उद्देश्य है । विद्या और विज्ञान की व्याख्या आप प्रस्तुत अध्ययन में पाएंगे।
इमा विजा महायिजा सब्बविजाण उत्तमा ।
जं विज साहहत्ताणं सव्वदुक्खाण मुश्चति ॥ १॥ अर्थ:-वह विद्या महाविद्या है और समस्त विद्याओं में श्रेष्ठ है, जिस विद्या की साधना करके आत्मा समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। गुजराती भाषान्तर:
તે વિદ્યા મહાવિદ્યા છે અને સમસ્ત વિવાઓમાં શ્રેષ્ઠ છે, જે વિદ્યાની સાધના કરીને આમાં સમસ્ત દુખોથી મુક્ત થઈ જાય છે.
शिक्षा जीवन.मैं नई रोशनी देती है। शिक्षा और साक्षरता में बहुत बड़ा अंतर है । विशाल साहिब राशि को पढ़ लेना केवल साक्षरता है । साक्षरता शिक्षा नही, आशिक्षा का शरीर है। शिक्षा वही है जो मानव को बंधन से मुक्ति की ओर लेजाए । वह मंधन फिर विचार, समाज, प्रान्तीयता और राष्ट्रीयता का ही क्यों न हो बंधन अपने आप में बंधन ही है । वह मानव की बुद्धि, मन और चेतना को सीमित कर देता है । और यही अविधा है। अहंता और समता के क्षुद्र धेरों को तोड कर मानव मन को जो विराट बनाती है वही विद्या है। जो ज्ञान आत्मा की शान्ति-पिपासा को न बुझा सके, उसकी दुःखपरंपरा को समाप्त न कर सके वह शान नहीं अज्ञान है । आत्मा को दुःख से मुक करे वही ज्ञान है ।
जेण बंधं च मोक्वं च जीवाणं गतिरागति।
आयाभावं च जाणाति सा विजा दुक्खमोयणी ॥ २॥ अर्थ:-जिसके द्वारा आत्मा के बन्ध और मोक्ष गति और अगति का परिज्ञान होता है और जिसके द्वारा श्रात्मभाव का अवबोध होता है वही विद्या दुःख से विमुक्त करने में सक्षम है। गुजराती भाषान्तर:
જેની દ્વારા અમાના બધ, મોક્ષગતિ અને અગતિનું પરિણામ થાય છે અને જેની દ્વારા આત્મભાવનું જ્ઞાન થાય છે તે જ વિદ્યા દુઃખથી મુક્ત કરવામાં સમર્થ છે.
रोटी का सवाल हल करना विद्या का लक्ष्य नहीं है। रोटी की विद्या तो पशु संसार बिना सीखे ही जानता विद्या का लक्ष्य है कि वह मानव को मानव बना दे। दूसरे शब्दों में भात्मा को अपनी पहचान करा दे। जिसके द्वारा
आत्मा अपना परिज्ञान कर सकता है वही विद्या विमुक्ति की ओर ले जा सकती है आत्म-भाव का परिज्ञाता जब अपनी शुद्ध स्थिति का अभाव पाता है। तब वह बंधन को महसूस करता है और अगले क्षण मुक्ति की राह लेता है। जिसके द्वारा आत्मा परिश्रम का हेतु शोधता है । वही विद्या दुःख-विमोचक है।
टीका :- यया बंध च मोक्षं च जीधानां गत्यागतादात्मभावं च जानाति सा विद्या दुःखमोचनी । इर्य विद्यार भवति महाविद्या भवति सचिधानामुत्तमा, या विद्या साधयित्वा सर्वदुःखेभ्यो मुच्यते । गतार्थः ।
टीकाकार ने गाथा के क्रम में परिवर्तन किया है। दूसरी के बाद प्रथम गाथा का होना अन्वय की दृष्टि से वे उचित मानते हैं।