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चौबीसवां अध्ययन . जिसकी जड नष्ट हो गई उसका सब कुछ नष्ट है । पूर्वगाथा में इसके बहुत उदाहरण दिये गये हैं। उसी के अनुरूप यहां भी है। जो बीज नष्ट हो गया है फिर उसको चाहे कितना भी खाद और पानी प्राप्त हो वह ऊग नहीं सकता और धूमरहित अग्नि शीघ्र ही बुझ जाती है । यद्यपि यह उपमा सार्वत्रिक नहीं है जैसे कि लोहपिंड में अमि होने पर भी उसमें धुवो नहीं होता। फिर भी अन्य अग्निओं के लिए यह ठीक हो सकती है, साथ ही जिस उपदेशक की संज्ञा नष्ट हो चुकी है अर्थात् जो अफ्ना अनुभव आगम सब कुछ भूल चुका है वह भी विद्यार्थियों की ज्ञान-पिपासा शान्त नहीं कर सकता । इसी प्रकार जिस कर्म का मूल नष्ट हो चुका है वह आगे भवपरंपरा के रूप में फलित नहीं हो सकता।
टीका:-अमरोही यथा श्री धूमहीन इवानको नष्टसंज्ञो भ्रष्टोपदेश इव देशको गुरुस्तथा कर्म किनमूलम् । गतार्थः ।
जुजए कम्मुणा जेणं, वेसं धारेर तारिसं ।
वित्तकंतिसमत्था वा, रंगमज्झे जहा नडो ॥ २५ ॥ अर्थ:-जैसे कर्म होंगे वैसा ही वेष धारण करना उपयुक्त होगा और उसी के अनुरूप आत्मा सम्पत्ति सौन्दर्य और सामयं पाता है। जैसे रंगमंच पर नट विविध वेष धारण कर लेता है, अर्थात् जिस पात्र का जैसा कार्य होता है वैसा ही उसे देषधारण करना पड़ता है। गुजराती भाषान्तर:
પિતાનાં કમીને શોભે તે જ વેશ ધારણ કરવો યોગ્ય છે અને તેને જ અનુરૂપ આત્મા સંપત્તિ, સૌંદર્ય અને સામર્થ્ય પ્રાપ્ત કરે છે. જેવી રીતે રંગભૂમિ પર નટ વિવિધ વેષ લઈ પોતપોતાનો ભાગ ભજવે છે, અર્થાત જે પાત્રનું જેવું કાર્ય હોય છે તેને તેવોજ વેષ ધારણ કરવો પડે છે.
सूत्रधार के संकेत पर विाचंध वेष में अभिनेता जिस प्रकार से रंगमंच पर उपस्थित होता है उसी प्रकार से आत्मा कर्म के संकेत पर विविध शरीर को धारण कर लेता है। सम्पत्ति, शक्ति और सौन्दर्य की न्यूनाधिकता कर्मों पर निर्भर करती है। नाटक के पान की जैसी योग्यता है अथवा जैसा अभिनय उसको करना है वैसी ही वेष-भूषा उसको सजानी पड़ती
1 में कार्य के अनुरूप पान को वेष आदि प्राप्त होते हैं । उसी प्रकार आत्मा को भी कर्म के अनुरूप वस्त्र, संपत्ति, कान्ति और शक्ति प्राप्त होती है। कर्म के अनुरूप आत्मा को वस्त्र मिलते है, वन का एक अर्थ शरीर भी हो सकता है, क्योंकि भारतीय दर्शन शरीर को वस्त्र मानते हैं।
"वासांसि जीर्णानि यथा बिहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यम्यानि संपानि नयानि देही।" गीता अध्याय २ श्लोक २२ ॥
एक वर्ष के बाद मनुष्य पुराने वत्रों को छोड़कर नए वन ग्रहण करता है, ऐसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़ कर नए शरीर धारण करता है। अतः आत्मा कर्मानुरूप शरीर, वस्त्र, कान्ति और शक्ति को प्राप्त करता है। टीका :- येन कर्मणा युज्यते पुरुषः तादर्श बेषं धारयति नटो यथा रंगमध्ये वृत्तकान्तिसमर्थः । गतार्थः ।
संसारसंतई चिता, देहिण विविहोदया।
सवा दुमालया चेव, सब्वपुष्फफलोदया ॥२६॥ अर्थ:-विश्व संतति की विचित्रता देहधारियों को विविध रूप में उपलब्ध होती है। समस्त वक्ष और लता विविध पुष्प और फलों से युक्त होते हैं, क्योंकि उसके वीज विभिन्न है। गुजराती भाषान्तर :
આ ભવના અનેક પ્રાણએ બહુરંગી અનેક પ્રકારના વિવિધ રૂપોમાં મેવામાં આવે છે. સમસ્ત વૃક્ષ અને લતા તરહતના પુષ્પ અને ફળોથી યુક્ત છે; કારણકે તેના બીજ તદ્દન જુદા છે.
सृष्टि में विविधतासे भरा सौन्दर्य है। हर आत्मा के खऋत शुभाशुभ कर्म ही इस विश्व विचित्रता के मूल है। वृक्ष और लता के पुष्प और फल विविध होते हैं । विविधता का हेतु उनकी जड़ों की विमिलता है । बीज की विविधता फूल और फलों की विविधता का हेतु है।