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चतुर्थ अध्ययन ३ कण्टकलता-सिने पत्तों की सम्पत्ति सो पाई किन्तु आश्रय लेने वाले के पैर में हल बनकर घूभा ।
४ मेह (घुन)-किसी का हृदय मेघ जैसा होता है । खारे पानी को मीठा मनाकर देने की कला मेघ में है। ऐसे हृदय वाला व्यक्ति कटु प्रसंगों को भी मधुरता में बदल देता है।
५ लतामण्डप जिसने पत्र-पुप्पो का सौन्दर्य पाया है. वह कोमलांगी लता जेठ की तपती दुपहरी में स्वयं तप कर भी अपनी गोद में थाने वाले को शीतल छाया ही देता है 1 एक बह भी इदय है जो स्वयं तप कर भी दूसरे के जीवन में शीतलता प्रदान करता है।
भुजित्तु उचावए भोर, संकप्पे कडमापसे ॥
आदरणरपती पुरिसे, परं किंणि जाणति ॥ ७ ॥ अर्थ:-परिग्रह का पिपास मानव संकल्प पूर्वक उच्चतर भोगों का उपभोग ही चाहता है। दूसरी दात वह जानता ही नहीं है। गुजराती भाषान्तर
પરિગ્રહને ઉપાસક માણસ પોતાના મનમાં સારાં સારાં ભોગા સંકલ્પો જ કરતો હોય છે. ભોગથી હટીને ત્યાગ તરફ આવવું તેને ગમતું જ નથી.
अदुवा परिसामज्झे, अदुवा विरहे कडं ॥
ततो निरिक्ख अप्पाणं, पावकम्मा णिरुभति ॥ ८॥ अर्थ:-परिषद में बैठे हैं तब दूसरा रूप है, और एकान्त में है तब कुछ दूसरा रूप है। किन्तु सच्चा साधक आत्म निरीक्षण करके पाप कर्मों को रोकता है। गुजराती भाषान्तर:
જેને મન ત્યાગની તરફ આકર્ષાયો નથી એવો સાધુ સભામાં બેસે છે ત્યારે એનું રૂપ જુદું હોય છે ત્યારે એની વર્તણુક બીજી હોય છે. ત્યારે સાચો સંત પોતાની આત્માને જોઈને પાપકર્મથી પોતાને રોકે છે.
जनता के सामने रहें तब दूसरा रूप रखना और उनसे दूर होते ही दूसरा रूप अपना लेना यह बहुरुपियापन जीवन को ले हुयता है । यह धोखा-पी है। कोई देख रहा है तब इमारी चर्या में पूरा संयम उतर आता है और उनके दृष्टि से हटते ही अपना रूप बदल लेते है तो हम ईमानदार तो नहीं कहे जा सकते । बुनियाँ की आँखें देखें या न देखें साधक की अपनी ऑखें तो उसे देख रही है। दुनियाँ की आँखें हमें कब तक बुराई से बचाए रखेगी। असल में तो हमारी आँखें ही हमें बचा सकती हैं। वही जीवन का सबसे बड़ा सत्य है कि साधक हजारों के बीच में बैठा हो या धन के सूने एकान्त में हो उसकी साधना की धारा एक रूप में बहनी चाहिये । भगवान महावीर ने कहा है। -
से भिक्खू वा भिक्खुणी बा ।... विभावाराभो वा एगओ वा परिसागलो वा सुते वा जागरमाणे वा । दशवै० अ.४
भिक्षु या भिक्षुणी छोटे छोटे गावों में घूमती हों या बडे २ शहरों में हो, वे अकेली हो या जनता के समक्ष हो, स्वप्न - में हों या जागृति में उनकी साधना अपरिवर्तित रूप में रहे।
दुप्पचिपणं सपेहाए, अणायारं च अपणो ॥
अणुवहितो सदा धम्मे, सो पच्छा परितप्पति ॥९॥ अर्थ:--अपने दुष्प्रचीर्ण (दुर्वासना से अर्जित) कर्म और अनाचारों के प्रति देखता हुआ भी जानबूझ उपेक्षा करनेवाला और धर्म के लिये सदैव अनुपस्थित रहनेवाला व्यक्ति जीवन की संध्या में पश्चाताप करता है। गुजराती भाषान्तरः--
પોતાના દુષ્પચી (અશુભ વૃત્તિથી ભેગા કરેલાં) કર્મ અને અનાચારોને પ્રતિ જાણું જોઈને ઉપેક્ષા સેવનાર અને ધર્મના માટે કદી પણ તૈયાર નહિ રહુનારો માણસ જીવનની આખરી ઘડીમાં પશ્ચાત્તાપ કરે છે.