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अनुवाद की कहानी ताज की नगरी आगरा में दर्शन शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान श्रद्धेय कविरत्न उपाध्याय श्री अमरचन्द्र भी म० के पास जैन दर्शन के प्रौढ़ ग्रन्थ विशेषावश्यक माण्य एवं सन्मति तर्क का अध्ययन समास कर जब विदा होने लगे तन आशीर्वाद के स्वर में श्रद्धेय कवि रत्न श्री ने फरमाया ‘मुनि जी ! अध्ययन की एक सीमा तक तुम पहुंच गये हो, अब इस पल्लवित और पुष्पित करना तुम्हारा अपना काम है। इसके लिये तुम किसी आगम को चुनना, क्योंकि यह क्षेत्र अभी सूना पड़ा है।'
तभी से दिल एक विचार अंकुरित हुआ था । एक आगम का अनुवाद तथा सम्पादन अभिनन ढंग से किया जाए । उस समय नन्दी सूत्र के सम्पादन का विचार दिमाग में लिये चल रहा था । उसके लिये कवि श्री के विद्वान् शिष्य श्री विजय मुनिजी शास्त्री की प्रेरणा भी थी। जब आगरा से इन्दौर आ रहे थे मार्य में श्रद्धेय स्वर्गीय पं० श्री नगिनचन्द्रजी म० ने कहा-" नन्दी सूत्र सुन्दर है, किन्तु उस पर अनेको व्याख्याएं प्रकाशित हो चुकी हैं। किसी नई कृति का सम्पादन हो तो सुन्दर रहेगा।" किन्तु उस समय मेरे पास कोई नई कृति थी ही नहीं, अतः उसके सम्पादन का प्रश्न ही नहीं था । जब हम गुरुदेव की सेवा में इन्दौर पहुँचे । उन्होंने भी आगम अनुवाद की योजना को पसंद किया।
इसी बीच कोट संघ (बम्बई ) के उपप्रमुख सेठ मगनभाई कोट संघ की आग्रह भरी विनंती लेकर आये । उनके स्नेह भरे अनुरोध को स्वीकार कर प्रिय वक्ता पं० श्री विनयचन्द्र जी म. के साथ कोट चातुर्मास के लिये हम चल पड़े । जब बम्बई के उपनगर मांडुप में पहुंचे और वहां स्वाध्याय प्रेमी सेठ मणिलालभाई के द्वारा इसिभासियाई सूत्र (अषिभाषित सूत्र ) प्राप्त हुआ। उसका कुछ अंश देखा; मन बोल उठा काफी सुन्दर सूत्र है। उसका अनुवाद कर डाला जाए तो बहुत सुन्दर रहेगा। साहित्य भी नया है। मुमुक्षुओं के लिये उपयोगी रहेगा। इधर श्रद्धेय कवि श्री जी म० एवं पं० श्री नगीनचन्द्रजी म. दोनों की आज्ञा का पालन भी हो जाएगा।
इस कार्य के लिये प्रियवक्ता श्री विनयचन्द्र जी म० की भी खास प्रेरणा रही। प्रेरणा के साथ सुन्दर सहयोग भी रहा। कोट चातुर्मास में यथपि काम का बोझ काफी था। प्रवचन देने के अतिरिक्त प्रिय वक्ता श्री के सार्वजनिक प्रवचनों का सम्पादन भी करना था। इधर दोहपर को अध्ययन भी कराना था। फिर भी अवकाश के क्षणों में सूत्र का अनुवाद तथा सम्पादन कार्य करता रहा । पाठ संशोधन के लिये पाटण भंडार की प्रतियां भी आई, फिर भी कठिनाइयां पूरी हल न हो सकी । इस बीच जैनदर्शन के प्रौद विद्वान् पं० दलसुखभाई भी आये, उन्हें भी अनुवाद कार्य बताया। उसे देख उन्होंने भी सन्तोष व्यक्त किया। जैनागमों के विशेषज्ञ पं० श्री बेचरदास जी के द्वारा ज्ञात हुआ कि जर्मनी में डॉक्टर शुजिंग ने इसिभासियाई सूत्र को काफी अन्वेषण पूर्वक भूमिका और टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया है ।
इसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया गया, किन्तु उसमें सफलता न मिली और चातुर्मास समाप्त हो गया। माटुंगा चातुर्मास में इसके लिये फिर से प्रयत्न किया और वाराणसी से पं० दलसुखभाई के द्वारा जर्मन प्रति आई। फिर तो माटुंगा संघ के मंत्री श्री नवनीत भाई ने चाय की एजेन्सी के द्वारा एक्सपोर्ट के साथ सीधे जर्मन से ही वह प्रति मंगवा दी।
प्रोफेसर शुटिंग द्वारा सम्पादित यह प्रति काफी सुन्दर थी। इसके दो भाग हैं। प्रथम का परिचय इस प्रकार है। प्रारम्भ में तेरह पृष्ठों में खोजपूर्ण भूमिका दे रखी है । उसके बाद चालीस पृष्ठों में पाठ भेद के साथ इसिमासियाई सूत्र का मूल पाठ है । फिर चौवीस पृष्ठों में प्रत्येक अध्ययन पर संक्षिप्त टिप्पणियां दी गई हैं।
AKAT
१वे प्रवचन जीवन साधना के रूप में सम्मति प्रचारक संघ, बम्बई द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं।