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"इसिभासियाह" सूत्रपरिचय
दूसरे भाग में इसिमासियाई सूत्र पर संस्कृत टीका है। आगमों पर लिखी टीकाओं की भांति यह टीका भी संक्षिस है। हर गाथा पर टीका नहीं दी गई है। केवल क्लिष्ट गाथाओं की संस्कृत व्याख्या दी गई है । शेष को छोड़कर दिया गया है। इसे टीका की अपेक्षा संस्कृत अनुवाद कहना अधिक उपयुक्त होगा ।
द्वितीय भाग की भूमिका में बताया गया है ७७१२।१९५१ में आयोजित एक सभा में बोल्ड सीडट ने भाषण देते हुए कहा था
'इसिभासियाई' का मूल पाठ उपोदघात और संक्षिप्त टीका के साथ १९४२ में ' बॉल्युम के ' ४८९ से ५७६ में प्रकाशित हुआ है उसका अनुवाद भविष्य के लिये सुरक्षित रखा गया था । किन्तु बाद में उसका अनुवाद जर्मन भाषा में नहीं अपितु संस्कृत भाषा में किया गया है। ऐसा इसलिये किया गया कि भारतीय पाठक सूत्र के मूल पाठ से परिचित है। वे संस्कृत टीका के माध्यम से प्रस्तुत सूत्र का निकट परिचय प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद जर्मन भाषा में न करके संस्कृत भाषा में दिया गया है और भारतीय शैली के अनुरूप उसका संक्षिप्त अनुवाद दिया गया है }
जब यह पेरेग्राफ मैंने पढ़ा तो मेरा हृदय खिल उठा, कितना उदात्त दृष्टिकोण है । यह सूत्र भारतीय है, - इसलिये वे उसका अनुवाद भारतीय भाषा में दे रहे हैं, ताकि भारतीय जनता उसका उपयोग कर सके । समुद्र के उस तट पर बैठे वे पश्चिमी विचारक भारतीय जनता का जितना ख्याल रखते हैं, क्या भारतीय जनता भारतियों का उतना ख्याल रखती है ? आज तो हम भाषावाद और प्रान्तवाद के लिये झगड़ रहे हैं। कभी गुजराती और महाराष्ट्रीय लड़ते हैं | कमी मंगा और अगी जनता उकरती है । तो पंजाबियों को पंजाबी सुना चाहिये उसके लिये आमरण अनशन किया जाता है।
हमारे मानस कितने संकुचित हैं । इस धर्म पंथ और सम्प्रदाय के लिये झगड़ते हैं। आज का धर्म दो विरोधियों के बीच कड़ी नहीं बन सकता । हो, उसके नाम पर झगड़ सकते हैं। एक इंग्लिश विचारक हमारी इस धार्मिक अंधता पर व्यंग कसता हुआ बोलता है- We have just enough religion to make us late hut not enough to make us love another. एक दूसरे से घृणा करने के लिये हमारे पास धर्म पर्याप्त है, किन्तु एक दूसरे से प्रेम करने के लिये धर्म नहीं है। हमारा पीतल भी सोना हैं और दूसरे का सोना भी पीतल है। यह हमारी संकुचित वृत्ति हमें कहां ले जाएगी ?
आज हमारी यह हालत है कि यदि गुजराती में एक पुस्तक प्रकाशित होती है तो हिन्दी पाठक बोल उठते हैं यह तो गुजराती है हमारे किस काम की है । यही कहानी हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक की गुजराती माइयों के लिये हैं । जब दूसरे देश अन्तरिक्ष में पहुंच रहे हैं तब इस उपग्रह के युग में संकुचित घेरे में कब तक जीवित रहेंगे !
मैं बहुत दूर आ गया। हां, तो वह जर्मन प्रति मेरे हाथों में आई। अब एक समस्या और मेरे सामने आई, इसका अनुवाद कैसे करवाया जाय। इंग्लीस तो थोड़ी बहुत परिचित भी है, किन्तु जर्मन के लिये तो मैं एकदम अपरिचित था । अनुवाद आवश्यक था। अजन्ता इंटर नॅशनल के भाई जीतमजी संलेचा, सेठ नवनीत भाई सेक्रेटरी माटुंगा संघ (बम्बई ) तथा मूक सेवक प्रवीणचन्द्र भाई कोठारी के सुप्रयत्रों से अनुवाद कार्य में सफलता मिली । बम्बई स्थित इन्डो-जर्मन सोसायटी के द्वारा इंग्लिश अनुवाद होकर मेरे पास आया। जर्मन निवासियों द्वारा संचलित उस कम्पनी ने कहा यह पुस्तक जर्मन की है, अतः इसका अनुवाद चार्ज हम चालीस प्रतिशत कम लेंगे। इनका देश प्रेम भी आदर की वस्तु है।