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तेतीसवां अध्ययन
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यद्यपि हमारे उत्थान और उत्थान का दायित्व हम पर ही है फिर भी निमित्त मी एक चीज है। अतः जब तक हमें जीवनधारा का सार्वभौम ज्ञान नहीं है तब राक अशुभ निमित्तों से बचना आवश्यक हो जाता है । अतः साधक सदैव कुत्सित 'युस्यों के संग से बचकर राज्जनों का साहचर्य करे। भले ही ये उपदेशन दें, किन्नु सजनों का संग ही शास्त्र है। महापुरुष वाणी की अपेक्षा जीवन से अधिक उपदेश दे देते है। और धर्माधर्म की चर्चा भी साधु पुरुषों के साथ ही करना योग्य है। क्योंकि नूखों के साथ की गई चर्चा में कभी तत्त्व नहीं मिल सकता। उनके पास अपशब्द एवं गालियों का अजस्त्र प्रवाह गेला रहता है और वह सबके लिये समानरूप से बहता रहता है। अतः उनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। विचारकों के साथ तत्वचर्चा में उनके मस्तिष्क का चिन्तन सिलता और नवे विचार मिलते हैं।
टीका:-साधुभिः संगमं च संस्तवं च धर्म च कुर्यादिति स्पष्ट, कुतस्तु धर्मस्य विपरीतमधर्म कुर्यादिति न झायसे ।
अर्थात् साधुओं के साथ संगम, संरतव और धर्म करे यह तो स्पष्ट है । किन्तु धर्म से विपरीत अधर्म क्यों किया जाय यह समझ में नहीं आता।
टीकाकार को सज्जनों के साथ धर्माधर्म करने में संदेह हो रहा है। यदि यह केवल धार्मिक क्रिया से सम्बन्धित बात हो तब तो यह प्रश्न योम्प है, किन्तु धर्माधम से यहां धर्म चर्चा के साथ अधर्म-चर्चा भी आवश्यक बताया गया है। क्योंकि जब तक अधर्म को न समझा जायेगा तब तक धर्म का स्वरूप भी पूर्णतः समझा नहीं जा सकता । अहिंसा स्वरूप शान प्राप्त करने के लिये हिंसा को समझ लेना भी आवश्यक हो जाता है तो धर्म के साथ अधर्म का प्रश्न भी लगा रहता है।
हेव कित्ति पाउणति पेशा गच्छह सोगति ।
सम्हा साधूहि संसम्गि सदा कुधिज पंडिप ॥ ८ ॥ अर्थ:-साधु स्वभाषी पुरुषों के संग के द्वारा आत्मा यहाँ पर यश प्राप्त करता है और परलोक में शुभ गति को प्राम करता है। गुजराती भाषान्तर:
સારા સ્વભાવના માનવોના સહવાસથી આત્માને આ લેકમાં ફી મળે છે અને પરલોકમાં પણ રદ્દગતિની आशियाय छे.
लन का मुन्दर साधी मानव को ऊर्यमुखी बनाता है। पानी नीग की जड़ों में पहुंचता है तो कट रूप लेता है और दृढ के खेत में पहुंचता है तो मधुर रस का रूप लेना है। न्वागी नक्षत्र की वे ही बूंदें सांप के मुख में निरकर विष बनती हैं तो गाय के दारीर में दूध के रूप में परिणत होती हैं । जब कि सीप उसे मोवी का रूप देनी है, साथी की अच्छाई और बुराई जीवन में भी अच्छाई और बुराई लाती है।
खइणं पमाणं वत्तं च देजा अज्जति जो धणं ।
सद्धम्म-वक-दाणं तु अक्खयं अमतं मतं ॥९॥ अर्थ:-जो मनुष्य धन एकत्रित करता है काल उसके लिये संदेश देशा है कि यह मर्यादित है और एक दिन नष्ट होनेवाला है । 'नय कि सद्धर्म का वाक्य का दान तो अक्षय और अमृत तुल्य है। गुजराती भाषान्तर:
જે માણસ દ્રવ્ય (પૈસા)ને સંઘરે છે તેને કાળ એવો સંદેશો આપે છે કે આ ધન મર્યાદિત (અમુક સમય સુધી જ ટકનાર) છે અને કોઈ એક દિવસે એનો નાશ તો થવાનો જ છે. જ્યારે સદ્ધર્મના વાળનું દાન તે લાંબા સમય સુધી ટકે એવું અને અમૃત જેવું મીઠું છે.
अहिईष्टि मानब के लिये प्रस्तुत गाथा में महत्वपूर्ण संदेशा है । वह धन एकत्रित करता है । मानता है अनंत काल तक के लिये यह मेरे साथ रहेगा । किन्तु वह बहुत बड़ी भूल करता है । संपत्ति मानव की छाया है, किस क्षण उसके पुण्य रूप सूर्य पर अगुभोदय के बादल आ जाएंगे यह कद्दा नहीं जा सकता, किन्तु बादल आते ही संपत्ति की छाया सर्व प्रथम
१ अलं नालस्स संग-आचारांग सूत्र । २ परिचरितव्याः सन्तो यथापि कथवन्ति नो सदुपदेशम् । यास्तेषां स्वैरकथा ता एव भवन्ति शारागि। ३पन्छा. ४ सद्धम्मचकदाणं ।