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पैतीसवां अध्ययन
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तह सुनिल मही नगरि निद्रा विश्राम के लिये आवश्यक है, क्योंकि विश्रान्तिकाल में नायुतंत्र नये काम करने के लिये शक्तिसंचय करता है, किन्तु टुसरी दृष्टि से निद्रा अल्पकालीन मृत्यु भी है। वह कोई सच्चा सुख
क्योंकि उसमें अज्ञान है। वधार्थसून जागृति में है, इसीलिये तो छ: या आठ घंटे निद्रा लेकर हम फिर से जागृति में आ जाते हैं।
टीका :-- हे नराः! जाग्रत नित्यं । जाग्रतो हि सुझं स्वप्नमेव जागर्ति । धर्मे जानतोऽप्रमत्तस्यालस्यं न विद्यते खनकरूपमित्यर्थः । यः स्वपिति न स सुखी, जानतु सुखी भवति ।।
अर्थात् - हे माननो : सदैव जागृत रहो। भाव जागृति के अभाव में जागते हुए भी सुप्त है। धर्म में जागृति है वही यथार्थ जागृति है। जो यथार्थतः जागृत होता है वह धर्माचरण में अप्रमत्त होता है। आलस्य उसके पास फटकना भी नहीं है। जो सोता है वह सुखी भी नहीं है, जो जागृत है वही सुखी है।
जागरंतं मुणिं वीर दोला वजेति दूरओ ।
जलं जातवेयं या चबुसा दाहभीरुणो ॥२३॥ अर्थ:-जामृत चीर मुनि को दोष उसी प्रकार दूर से छोड़ देते हैं जैसे कि जलने से डरनेवाले जाज्वल्यमान अग्नि को आंखों से देखते ही दूर हट जाते हैं। गुजराती भाषान्तर:
જાગૃત સાવધાન) રહેનાર મુનિને દોષ તેજ પ્રમાણે છોડી જાય છે જેમ કે અગ્રીને ભડકો જોઈને અગ્નિદાહની દહેશત જેને હોય તેવો (બીકણ) માણસ તરતજ નાસી જાય છે.
अहंतर्षि जागृत्ति का फल बता रहे हैं। जागृत आत्मा के निकट दोष कमी नहीं आते, वे उनसे उतने ही डरते हैं, जितना कि एक दाहमीस ज्वलंत अमि से। जिसकी आत्मा में तेज है दोष उसके निकट आने का साहस नहीं कर सकता। क्योंकि वह जानता है उनके निकट पहुंचा कितप की आग में भस्मदेह हो जाऊंगा।
विचार की दीपशिखा सदैव प्रज्वलित रहे तो बासना और मिया विश्वासों के जुगनू उनके निकट नहीं पहुंच सकते। प्रोफेसर शुकिंग प्रस्तुत अध्याय पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं। स्थानांगसूत्र के चौथे स्थानपर जीवन की भूलों के संबंध में जो चार उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं उनमें समर शब्द जिस समस्या को खडी करता है प्रस्तुत अध्यवन भी हमें उसी तरफ ले जाता है। धार्मिक नियमों के अनुसार जीवन में परिवर्तन हो सके तो इन मूलभूत दूषणों को रोका जा सकता है। इस विषय का स्पष्टीकरण प्रस्तुत विषय को पुष्ट करता है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपना घर साफ रखना चाहिये। जिससे कि बाहर की असर उसकी नैतिक निधि का अपहरण न कर सके।
अट्ठारही और बीसीं गाया में “ हिडा" कम्म शब्द आया है, उसके लिये शुर्बिम् लिखते हैं हित्यम की भांति ८ कर्म और अधस्तात् क्रर्म का अर्थ नीच कम होना चाहिये।
२१ वी गाथा में णाहिसि शब्द आया है वह नज्जसि का ही एक टुकड़ा लगता है। पउमवर्य (जेकोधी की भविस्सतकहा ६१) के ज्ञायते के अर्थ में प्रस्तुत कर्मणि वाच्य आया है। भविष्य के क्रमणि प्रयोग अथवा सामान्य भविष्य के विकल्प के रूप में भी ऐसा पाठ आता है। जाहिसि आरे को परम सूयगड़े" १२, १, ८ में भी पाहिति शम आता है। जेकोबी ने शिलाकाचार्य के अनुसरण कर इस पद की जरा भिन्न रूप में व्याख्या की है।
इसिभासियाई जर्मन प्रति पृ. ५६९ एवं से सिद्धे बुद्धे (गतार्थः) ।। इस अद्दालक अर्हतर्षिभाषित पंचत्रिंशत्तम अध्ययनं समाप्तम्
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