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________________ चौबीसवां अध्ययन १२७ रोग अस्त-मानव के लिए पौषधि पिय है, एक किसान के लिए खेत की मिट्टी प्रिय है। क्योंकि बही तो उसे जीवन का आधार है। इसी प्रकार जीवन में प्रकाश की प्रेरणा देने वाला धर्म मानव के लिए हितावह है। क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही धर्म है। आचार्य कुन्दकन्द ने धर्म की परिभाषा देते हुए लिखा है कि “वयु सहावो धम्म ।" पर भाज धर्म धर्मस्थानकों में है। मन्दिर और मस्जिदो में है, किन्तु वह आत्मा में नहीं है। जोकि उसका अपना स्थान है। इसीलिए धर्म की विडंबना है। सिग्घघट्टिसमायुत्ता, रचनाके जहा अरा। फडंता वल्लिच्छेया वा सुनुवरखे सरीरिणो ॥३॥ अर्थ :-जैसे रथ-चक्र में रहा हुआ शीघ्र घूमने वाला आरा सारे रथ को गति देता है अथवा जिस प्रकार से लता के छेद नष्ट होते हैं, इस प्रकार देहधारियों के सुख दुःख भी होते हैं। गुजराती भाषान्तर: જેવી રીતે રથના ચક્રમાં રહેલો ઝડપથી ઘુમાવતો આરો આખા રથને ઝડપથી લઈ જાય છે, અથવા જેવી રીત લતાનો છેદ નષ્ટ થાય છે, તે જ પ્રમાણે પ્રાષ્ટ્રિમાં સુખ-દુ:ખ પણ હોય છે. मुख एक ऐसा शब्द है जिसको समस्त देहधारी चाहते हैं। दुःख से सब कोई भागना चाहते हैं। सुख के पीछे प्राणी दौड़ता है और प्राणी के पीछे दुःख दौड़ता है। मुख की छाया में दुःख विश्राम करता है। भौतिक दुनिया में सुख अकेला ही नहीं आता है वह अपने साथी दुःख को भी अपने साथ छिपा कर ले आता है। मनुष्य सुख का स्वागत करता है, किन्तु उसके पीछे छिपे हुए दुःख की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं जाती है। अहंतर्षि इसी सभ्य को रूपक द्वारा प्रकट करते हैं। रथचक मैं आरा लकड़ी के खंड लगे रहते हैं। जब रथ चक देश से घूमता है तो आप भी एक के बाद एक आता रहता है। इसी प्रकार जीवन के चक्र में सुख और दुःख आरा है। जीवन रथ चलता है और सुख दुःख का आरा भी घूमता रहता है । लता के छेद से संबन्धित अर्थ समझ में नहीं आता है । सुखदुःखे शब्द संस्कृत में द्वि वचन के अनुरूप है । टीका:-वृत्तित्ति वृत्ति:-परिवर्तः, शीघ्रया तया समायुक्ता रथचके यथारा स्फटन्तो वा भंगुरा घल्लिच्छेदास्तथा शरीरिणः पुरुषस्य " सुदुःखे" ति द्विवचनं संस्कृतकापं । गताः । संसारे सध्यजीवाणं, गेही संपरियसते। उदुम्यकतरूणं वा, वसणुस्सषकारां ॥४॥ अर्थ:-संसार की समस्त आत्माएँ आसक्ति-को लेकर परिभ्रमण करती हैं। जैसे कि उदुम्बर वृक्षों का प्रसव दोहद व्यसनोत्सब का हेतु बनता है। गुजराती भाषान्तर: સંસારના બધાં પ્રાણ આસક્તિના કારણે વપરંપરામાં ફરે છે. જેવી રીતે ઉદુમ્બર વૃક્ષોના પ્રસવના દોહદ આફતને નોતરું આપવાનું કારણ બને છે, आसक्ति-भव-परम्परा का मूल है। जैसे सूत्रधार समस्त पात्रों को नचाता रहता है वैसे ही आसक्ति-समस्त आत्माओं को परिभ्रमण कराती है। संसार की व्याख्या करते हुए एक संत ने लिखा है कि "कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्तितः ।" हृदय में कामनाओं का वास ही संसार है। जैसे उदुम्बर वृक्षों का प्रसव-दोहद व्यसनोत्सव का कारण बनता है अर्थात् उदुम्बर को पुष्पित होने पर मदनोत्सव मनाया जाता है। उसका पुध्यित होना विकारोत्तेजक है। इसी प्रकार सासक्ति-भव-परम्परा का मूल कारण है। संसारे सर्वजीवाना गृद्धिः संपरिवर्तते। उदुम्बरतरण प्रसबदोहदो यथा म्यसनोत्सवकारणं मयंगचेष्टादीनां देतोः गावार्थः । अहि रवि ससंकंच, सागरं सरियं तहा। इंदज्र्य अणीयं च, सजमेहं च चिंतए ॥ ५॥ अर्थ 1-अभि, सूर्य, चन्द्र, सागर और सरिता इन्द्रध्वज सेना और नए मेघ का चिन्तन करना चाहिए।
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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