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________________ पंचदश अध्ययन अर्थ:-संसार में दुःख का मूल पूर्वभव मृत पाप है । कर्म के निरोध के लिए मिक्षु सम्यकू प्रकार से विचरण करे। गुजराती भाषान्तरः-- આ સંસારમાં દુઃખનું મૂળ પહેલા (પૂર્વે) કરેલા પાપ છે. પાપકર્મના અટકાવ કરવા માટે સાધુ સારી રીતે આચરણ કરે. सभावे सति कंदस्स धुवं वल्लीय रोहणं । बीए संबुज्झमाणमि अंकुरस्लेव संपदा ॥३॥ अर्थ:-वृक्ष के स्कंध का सद्भाव होने पर लता उस पर अवश्य ही चदेगी। बीज के विकसित होने पर अंकुरों की संपदा अवश्य आएगी। गुजराती भाषान्तर: વૃક્ષના ખભા( ડાળીઓ)નો સદ્દભાવ હોવાથી વેલો તેના ઉપર અવશ્ય ચઢશે. બીજના વધવાથી અંકુરી १२२टशे. ___ लता का स्वभाव ऊपर चढना है। यदि उसे वृक्ष-स्कंध का आश्रय मिल जाता है वह ऊर्वमुखी होकर प्रगति करती है। चीज में हलचल आना अंकुर संपनि का हेतु है। यदि पाप का स्कंध है तो दुःस की लता उस पर जरूर आरोहण करेगी और बीज है तो उसके विकसित होने पर नए अंपुर मावेंगे ही। टीका: स्कंधस्वैवं सति स्वभावे प्रवं निःशंक बहयारोहणं भवति। बीजे समुह्यमानेऽप्यकुरस्येव संपद भविष्यति । गतमार्थम् । सभावे सति पावस्स धुधं दुक्ख पसूयते । णासतो मट्टिया पिंडे णिवत्ती तु घडादिणं ॥ ४ ॥ अर्थ:-पाप का सभाष दोने पर निश्चित ही उसमें से दुःख की उत्पत्ति होगी। मृत्तिका पिंड के अभाव में घटादि की रचना संभव नहीं । मृरियड है इस लिए घटादि उत्पन्न हो सकते हैं। पाप है इसलिए दुःख की सृष्टि है । गुजराती भाषान्तर: પાપનું અસ્તિત્વ (હાજરી) હેવાથી ચોકકસ તેમાંથી દુઃખની ઉત્પત્તિ થશે. માટી જ ન હોય તે ઘડા વગેરે બનાવવાનું જ બનશે નહીં. ___दर्शन के क्षेत्र में पदार्थों की उत्पत्ति के संबन्ध में दो प्रकार की विचार-धाराएं हैं। प्रथम वह है जो कारण में कार्य का सद्भाव मानती है। इसे हम सत्कार्यवायी के नाम से पुकारते हैं। दार्शनिक जगत् सांख्य वादी दर्शन कहता है। उसका तर्क है कि कार्य अपने कारण में सत् रूप से उपस्थित है। किन्तु निमित्त उसको मूर्त रूप देता है । यह दर्शन कार्य और कारण में सभेद मानता है। कारण में कार्य पहले से ही उपस्थित है, पर वह अव्यक्त रूप में है। पट तेतु में उपस्थित है, वह अव्यक्त रूप में था; किन्तु संतुओं के संयोग से व्यक्त हो गया। यदि पट तंतुओं में घा ही नहीं तो आया कहां से। क्योंकि असन की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। ___ दुसरी और असत् कार्य बाधी नैयायिक दर्शन है। इसका अपना पक्ष है। कारण और कार्य दो भिक्ष वस्तुएँ हैं। कारण से कार्य होता है। दोनों पूर्वापरवर्ती है। अतः दोनों में भेद भी निश्चित है। तम्तुओं से पट बनता है, तो तंतु एक भिन्न वस्तु है और पट एक स्वतंत्र वस्तु है। लबा-निवारणादि जो कार्य पट से हो सकता है, वह तन्तुओं से नहीं हो सकता। यदि पट में तन्तु पहले से ही विद्यमान हैं तो फिर वह हमें दिखाई क्यों नहीं देता और उससे शरीराच्चदनादि किया क्यों नहीं होती? साथ ही तंतु में पट मौजूद है ही तो वस्त्र-निर्माण की प्रक्रिया ही ध्यर्थ जाएगी। जैन दर्शन दोनों के समन्वय में विश्वास रखता है, क्योंकि वह एकान्त का उपासक है। सत्कार्य-वाद की अपेक्षा कहा जा सकता है कि मृत्तिका के पिंड में यहा प्रकृति रूप में मौजूद है। आकृति का वहां अभाष है। इसी प्रकार जहां अशुभ वृत्ति है वुःख उसी में मौजूद है। किन्तु उसका सभाव मानना ही होगा, भले ही वह अध्यक रूप से ही क्यों न हो । अतः दुःख के मूलोच्छेद के लिए आत्मा को पाप प्रवृत्ति का ही भूलोच्छेद करना होगा । ११
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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