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________________ एकचालीसवाँ अध्ययन अर्थ:-इन्द्रनाग अहंतर्षि ऐसा बोले जो अज्ञानी सा महिने महिने में बुश म त खस्ता है, किन्तु ला श्रुताख्यात शाख निरूपित धर्म की सौवीं काला मी प्राप्त नहीं करता। गुजराती भाषान्तर: ઈન્દ્રનાગ અહર્ષિ એમ બોલ્યા: જે અજ્ઞાની માણસ હર મહિનામાં કુશાશમાત્ર ભોજન કરે છે પણ તેને કૃતાખ્યાત શાસ્ત્રનિરૂપિત ધર્મની શાંશ કુલા પણ મળી શકતી નથી, साधना का मूल प्राण है दृष्टि की विशुद्धि। साधना करते गये। कठोर साधना के द्वारा शरीर को सुख भी दिया परन्तु जब तक वृत्तियों पर विजय नहीं पाई तब तक वह साधना फल शून्य होगी । घाणी में जुता हुआ वेल भी दिन भर चलता है, सोचता है मैं आज लम्पी मंजिल तय कर चुका हूं नस नस ढीली हो गई है। सुबह से चल रहा हूं, पैरों ने जबाब दे दिया है, अवश्य आज पच्चीस कोस चल लिया होऊंगा, किन्तु जब पइटी खुली देखा जहां से चले थे वहीं हैं एक इंच भी आगे नहीं बढ़े। यही कहानी उन साधकों की है. जो बलना जानते हैं, कठोर तप करते हैं शरीर सुखकर काटा हो जाता है, किन्तु वे सोचते है हमारी साधना बहुत लम्बी चौड़ी है, हमने इतना त्याग किया है, इतने व्रत उपवास किये हैं, किन्तु जब विवेक दृष्टि का प्रकाश में देखा जाय तो ज्ञात होता है दुनियां की आंखों भले ऊँचे उठ चुके हैं किन्तु अध्यात्म के सही पथ पर अभी एक कदम भी आगे नहीं बढ़े। विवेव दृष्टि के अभाव में कठोर तप केवल काया-कष्ट मात्र रह जाता है। महीने महीने के उपवास के पारणे के दिन कुशाग्र जितना भोजन करनेवाला साधक भी सम्यग्दर्शन के अभाव में श्रुताख्यात धर्म की साची कला भी प्राप्त नहीं कर सकता। राजर्षि नमि ने देवेन्द्र को उत्तर देते हुए अजान साधना की व्यर्थता दिखाते हुए सरे विचार रखे थे वे यहां शब्दशः मिल जाते हैं; केवल इतना भेद है। वहाँ अज्ञान साधना को धर्म को सोलहवीं कला के तुल्य भी नहीं माना गया है, यहाँ सौवी कला से भी अल्प माना है। टीका:-यो बाल भाजीचको मासे मासे कुशाग्रेणैवाहारमाहरति स स्वख्यातधर्मस्य न शततमा कलामइति । गताः। माममं जाणउ कोयी माहं जाणामि कंचि पि । ऊण्णातेणत्थ अण्णात चरेजा समुदाणियं ॥ १५ ॥ अर्थः—कोई मुझे नहीं जाने और में किसी को नहीं जान । साधक अज्ञात के साथ अज्ञात होकर समाज में (भिक्षा के लिये ) विचरे। गुजराती भाषान्तर: કોઈ માણસ મને ઓળખે નહીં અને હું પણ કોઈને પિછાણું નહીં; સાધક (એજ પોતાને પરિચય કર્યા વગર રીતે) અજ્ઞાત માસુસ સાથે અજ્ઞાત બનીને (ભિક્ષા માટે) સમાજમાં હરે. साधक साधना के पर बल जिये । कुल गोत्र या अपने पिता के इतिहास पर जीवन म बिताए । साधक जन-संपर्क at में आता है तब जब कभी कोई परिचय मांगता है तब वह अपने गोत्रादि से अपना परिचय देता हैं, तो गलती करता है। त्रादि बताकर मिक्षा भी न ले, अन्यथा साधक की यह भी आजीविका हो जाएगी। गोत्रादि के परिचय से संभवतः कोई सका सगोत्री निकल आए और गोत्र-प्रेम को लेकर मुनि के लिये आहारादि बनाकर दे। - मुनि अपना परिचय क्या है ? । उसका परिचय वह स्वयं होता है । गृहस्थ दशा के परिचय पत्रों के आधार पर बह साधना के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकता । उनका उपयोग करने पर कदम कदम पर मोह उसे घेर लेगा । साधक की साधना बहिमुखी न होकर अन्तर्मुखी हो । उसकी पाचन क्रिया इतनी तेज हो कि वह साधना के रस को भी पचा जाए। १ माले मासे उजोबाले कुसग्गेण तु भुंजए ।न से तुयक्खायधम्मरस कलं अग्वेह सोलसिं 11 उत्तरा० अ० ६ गा० ४४ २ रागो य दोसो विय कम्मवीय कम मोइप्पभवं वयन्ति । कम्मं च जाई मरणस्त मूल दुम् च जाई मरण पयन्ति ।। उत्तरा० अ० ३२
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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