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________________ इस - भासियाई ११४ 1 नारी को नागिन बताना भारत की पवित्र सतियों का अपमान करना है। मशिनाथ भी तो नारी थे। नारी को नागिन कहनेवाले क्या तीर्थंकरदेव का अपमान नहीं करते ! नारी ने पुरुष को पतन के गड्डे में डाला है, तो क्या पुरुष नारी को कभी पतन की ओर प्रेरित नहीं किया हैं ? । सीता-सी सतियों की कहानी क्या कह रही है ? । इतिहास उठाइए तो नारी के चरित्रों से चमकते हुए चित्र आप को प्राप्त होंगे। नारी ने साधना से गिरते हुए साधक को ऊपर उठाया है। पुरुष को प्रतारण दे कर संयम के पथ पर स्थित करने वाली नारी ही है। राजनती का इतिहास इस बात का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है। हिन्दी के महाकवि बोल रहे हैं: नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पद त में । -जयशंकरप्रसाद कामासती पीयूष खोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ॥ - पुरुष विजय का भूखा है, तो नारी समर्पण की पुरुष लूटना चाहता है तो नारी छुट जाना चाहती है। जीवन के क्षेत्र में नारी पुरुष का साथ देना चाहती है, वह पुरुष की प्रेरणा हैं, किन्तु इस दौर में वह अपनी मातृत्व को न भुल सकती है। क्यों कि ममता सगता और करुणा की त्रिवेणी में नारित्व वहता है । वह सत्ता और संपत्ति की प्यासी बनती है तो उसमें उसका मातृत्व लुट जाता है। प्रस्तुत अध्ययन में नारी के दोनों चित्र दिए गए हैं । सिद्धि । परिसाड़ी कम्मे, अपरिसाडिणो बुद्धा, तम्हा खलु अपरिसाडिणो बुद्धा गोवलिप्यंति रणं खरपत्तं व वारिणा द्गभालेण अरहता इसिणा बुझतं । अर्थ :--- साधक कर्मों को पृथक करे। कर्मों का परिवादन न करने वाले अबुद्ध होते हैं। कर्मों को पृथक करने वाली प्रबुद्ध आत्माएँ कर्म रज से वैसे ही अलिप्त रहती है जैसे कि कमल पानी से । इस प्रकार दयाल अतर्षि बोले । गुजराती भाषान्तर: સાધકોએ કર્મોનું પૃથક્કરણ કરવું. કૌનું પૃથક્કરણ ન કરનારાઓ બુદ્ધિવગરનાં હોય છે. કર્મોને પૃથડ્ કરવા વાળા પ્રબુદ્ધ આત્માઓ કર્મ-રજથી તેવીજ રીતે અલિપ્ત રહે છે જેમ કે કમળ પાણીથી. આ પ્રમાણે ગભાઙ અહેાિબે ઓલ્યા. टीका :- परिशाति हिंसकं कर्म अपरिशातिनो बुद्धाः, तस्मात् खलु परिशातिनो बुद्धा नो या लिप्यन्ते रजसा पुष्करपत्रमिव चारिणा । कर्मों का परिशोधन और परिज्ञातन करना हर एक साधक का जीवन लक्ष्य है। जिसने कमों का परिशातन किया वह आत्मा संसार में रह कर भी संसार मुक्त है । कमल- पत्रवत् अलिप्त रहता है । पुरिसादीया धम्मा, पुरिसप्पारा पुरिसजेडा, पुरिसकप्रिया पुरिसपज्जोषिता पुरिससमण्णागता पुरिसमेव अभिउंजियाणं चिति । से जहा णामते अरती सिया सरीरंसि जाता सरीरंसि धड्डिया सरीरसमण्णागता सरीरं चेच अभिउंजियाण निट्टति । एवमेव धम्मा वि पुरिसादीया जाय चिद्वैति । अर्थ :- पुरुषादि का धर्म हैं वह पुरुष प्रवर पुरुष ज्येष्ट, पुरुषकल्पिक पुरुष प्रद्योतित पुरुष समन्वागत पुरुषों को आकर्षित करके रहता है। जैसे कि अलसिये अथवा ग्रंथि विशेष शरीर में पैदा होता है, शरीर से वृद्धि पाते हैं, शरीर में समन्वागत और शरीर में आकर्षित हो करके रहते हैं। इसी प्रकार धर्म आदि पुरुषादि को घेरे रहते L गुजराती भाषान्तरः પુરુષાદિનો ધર્મ છે તે પુરુષપ્રવર, પુરુષજ્યેષ્ઠ, પુરુષકલ્પિક, પુરુષપ્રદ્યૌતિત, સમન્વાગત પુરુષોને આર્ષિને જ રહે છે, જેવી રીતે કે અસિયા અથવા ગ્રંથિવિશેષ ( ગાંઠ) શરીરમાં પૈદા થાય છે, શરીરને સાથે વૃદ્ધિ પામે છે, શરીરમાં સમન્વાગત અને શરીરમાં આકર્ષિત થઈને જ રહે છે. તે જ પ્રમાણે ધર્મ આદિ પણ પુરુષત્વાદિને ઘેરીને રહે છે. दुगभाल अतर्षि महाराज पार्श्वनाथ की परंपरा के प्रत्येक बुद्ध हैं। अतः पुरुषादानी महाराज पार्श्वनाथ के धर्म की प्रस्तावना कर रहे हैं। जिस प्रकार से महाराज महावीर के लिए श्रमण विशेषण आता है उसी प्रकार महाराज पार्श्वनाथ के लिए पुरुषादानी विशेषण आता है। भगवान पार्श्वनाथ के लिए पुरुषप्रवर आदि विशेषण दिए गये हैं I
SR No.090170
Book TitleIsibhasiyam Suttaim
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharmuni
PublisherSuDharm Gyanmandir Mumbai
Publication Year
Total Pages334
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size10 MB
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