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युग प्रमुख चारित्रशिरोमणि सन्मार्गदिवाकर पूज्य आचार्यको विमलसागरजी महाराज की हीरक जयन्ती प्रकाशन मात्र
भगवजिनसेनाचार्य प्रणीत
पाांभ्युदयम्
[ योगिराट् पण्डिताचार्यकृत संस्कृत व्याख्या युतम् ]
हिन्दी अनुवादक एवं सम्पादक डॉ० रमेशचन्द्र जैन, जैनदर्शनाचार्य
एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, वर्तमान कालेज, बिजनौर
अर्थ सहयोग श्री अशर्फीलाल अशोककुमार जैन सर्राफ, इन्दौर
प्रकाशक
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्
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दो शब्द
भाचार्य जिनसेन ने संस्कृत के महाकवि कालिदास द्वारा रचित काव्य मेघदूत के श्लोकों के प्रत्येक चरण की और कहीं कहीं दो चरणों की समस्यापूर्ति के फलस्वरूप ३६४ श्लोकों में 'पास्वविय' की रचना की है। पार्श्वभ्युदय संस्कृत साहित्य की एक उत्कृष्ट रचना है। इसमें जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ की तपस्या के काल में अनेक पूर्व सर्वो के खेरी कमठ के जीव शम्बरासुर के द्वारा किये गये उपसर्ग को आधार बनाकर का का प्रारम्भ किया गया है । यद्यपि इसमें जैनधर्म या अंमदर्शन के किसी विशिष्ट सिद्धान्त का प्रतिपादन दृष्टिगोचर नहीं होता है तथापि संस्कृत साहित्य की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण रचना है |
मेघवृत श्रृंगाररस प्रधान काव्य है । यतः पाश्वभ्युदय मेघदूत के श्लोकों को आधार बना कर लिखा गया एक समस्यापूर्त्यत्मक काव्य ग्रन्थ है अतः उसमें मेवदूत की तरह ही शृंगाररस के दोनों पक्षों ( संयोग और वियोग श्रृंगार ) का होना स्वाभाविक है। इससे एक बात ज्ञात होती है कि जहाँ जैनाचार्य बोर रस या शान्तरस विषयक रचना कर सकते है वहीं वे शृंगाररस विषयक रचना करने मैं भी पूर्ण समर्थ हैं, फिर भी किसी तीर्थंकर की कथा में
'ज्ञाता स्वादो विवृत जननां को विहातुं समर्थः '
जैसे कथन पाठक के मन पर क्या प्रभाव डालेंगे, यह कहना कठिन है ।
श्री डॉ० रमेशचन्द्र जैन संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् हैं । वे जैनदर्शन, alaria आदि विषयों के भी अच्छे शाता है । वे अनेक पुस्तकों के सफल लेखक, सम्पादक तथा अनुवादक भी हैं। उन्होंने श्री योगिराट् पण्डिताचार्य की संस्कृत टोका सहित पायुक्ष्य का सम्पादन तथा उसके क्लोकों का अर्थ औौर संक्षिप्त व्याख्या लिखी है। इससे संस्कृत विद्वानों को लाभ तो मिलेगा ही, साथ ही साधारण जन भी पार्षाभ्युदय काव्य के काव्यत्व का आनन्द के सकेंगे। उनके द्वारा लिखित प्रस्तावना भी उपयोगी एवं पठनीय है।
प्रसन्नता की बात यह है कि ऐसी उत्कृष्ट कृति का प्रकाशन हो रहा है । इस कृति के सम्पादक और सार्थ व्याक्या लेखक तथा प्रकाशक बधाई के पात्र हैं ।
उदयचन्द्र जैन.
वाराणसी
१५ अगस्त १९९१
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प्रस्तावना
सन्देश काव्यों में पाश्र्वाभ्युदय का स्थान सन्देश काव्यों की परम्परा और पार्वाभ्युदय ___सन्देश मा दुतकाव्य लिखने की परम्परा बहुत प्राचीन है । उपलध सन्देश कायों में कालिदास का मेघदूत सबसे प्राचीन माना जाता है। उसी के आधार पर बाद में अनेक कवियों ने सन्देश काव्यों का प्रणयन किया । ८वीं-९वीं शताब्दी ईसवी के आचार्य जिनसेन ने अमोचवर्ष के शासनकाल में पायमियचय नामक काव्य की रचना की । यह काम्प ३६४ मन्दाक्रान्ता वृत्तों में मेघदूत के प्लोकों के चरणों की समस्या पूर्ति के लिए लिखा गया है। विक्रम का नेमिदूत ( ई० १३ वीं शती का अन्तिम चरण), मेस्तुग का जैनमेघदुत ( सन् १३४६. १४१४ ई.), परित्रसुन्दर गणिका शोलदूत ( १५वीं पाती), वादिचन्द्रसूरि का पवनदूत ( १७वीं शती ), विनयविजय गणिका इन्दुत ( १८वीं शती), मेघविजय का मेघदूत समस्या लेस ( १८वीं शतो) एवं अज्ञात नाम वाले कवि का चेतो दूस जैन परम्परा के प्रमुख दूत काव्य है । संस्कृत साहित्य में अब तक ५१ दूत काव्यों की रचना मानी गई है। इनमें बारहवीं शताब्दी के घोयो कवि का पवनदुत, तेरहवीं शताब्दी के वेदान्तदेशिक का हंससन्देश, पन्द्रहवीं पातान्दो के रूप गोस्वामी का हसत और सत्रहवीं शताब्दी के कृष्णानन्द सार्वभौम का पदाछूदुल अधिक प्रसिद्ध है। इनमें से भी बहुत से काव्य तो मेघदूत के श्लोकों अथवा उसके चरणों की समस्यापूर्ति के रूम में लिखे गए हैं तथा अन्य बहुत से काव्यों का प्रणयन्न स्वतन्त्र रूप में हुआ है, फिर भी इन पर कालिदास का गहन प्रभाव लक्षित होता है। जिनसेन का पारभ्युिदय इस परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है ।
पाभ्युदय में समस्मा पूर्ति के काव्य कौशल द्वारा समस्त मेघदूत को प्रथित कर लिया गया है। यद्यपि दोनों काव्यों का कथा भाग सर्वथा भिन्न है, तथापि मेघदूत को पंक्तियाँ पाश्र्वाभ्युदय में बड़े ही सुन्दर और स्वाभाविक ग से बैठ गई है। समस्या पूर्ति की कला कवि पर अनेक नियन्त्रण लगा देती है, तथापि जिनसेन ने अपनी रचना को ऐसी कुशलता और बहराई से संभाला है कि पाम्युिवम के पाठक को कहीं भी यह सन्देह नहीं हो पाता कि उसमें अन्य विषय व भिन्म प्रसङ्गात्मक एक पृथक काव्य का समावेश है । इस प्रकार पापाम्युदय जिनसेन के संस्कृत भाषा पर अधिकार तथा काव्यकौशल का एक सुन्दर
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पाश्र्वाभ्युदय प्रमाण है। उन्होंने जो कालिदास के काव्य को प्रशंसा की है, उससे तो उनका ग्यक्तित्व और मी ऊँचा उठ जाता है। महान कवि हो अपनी कविता में दूसरे कवि की प्रशंसा कर सकता है। इस काव्य के सम्बन्ध में प्रो० के० बो० पाठक का मत है कि पाम्युिदय संस्कृत साहित्य की एक अद्भुत रचना है । वह अपने युग की साहित्यिक रुचि की उपज और आदर्श है। भारतीय कवियों में सर्वोच्च स्थान सर्वसम्मति से कालिदास को मिला है, तथापि मेषदत के कर्ता की अपेक्षा जिनसेन अधिक प्रतिभाशाली कवि माने जाने योग्य है । पारभ्युिदय की कथावस्तु
जम्बुद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में सुरम्य नामक देश में पोदनपुर नगर था। वहाँ राणा अरविन्द राज्य करता था। उस नगर में विश्वभूति ब्राह्मण के दो पुष कमठ और मरुभूति रहते थे। ये दोनों राजा के मन्त्री थे। एक बार जब मरुभृति बाहर रामा के कार्य से गया हुआ था नन्न कमल ने उसकी स्त्री वसुन्धरा को बलात् अपनी पत्नी बना लिया। राजा को जन यह ज्ञात हुआ तो उसने कमठ को अपने राज्य से निष्कासित कर दिया। कमठ सिन्धु नदी के किनारे सपस्या करने लगा | बड़े भाई के निष्कासन से दुःखी छोटा भाई माभूति तलाप करते करते भाई के पास पहुँचा । उसे आया देखकर कमठ को बहुत क्रोध आया । उसने नमस्कार करते हुए मरुभूति पर पाषाण शिला गिरा दी । इस प्रकार कई जन्मों तक उन दोनों का आपस में बैर चलता रहा । अन्त में मरुभूति का जीव वाराणसी के काश्यप गोत्री राजा विश्वसेन की रानी ब्राह्मी के गर्भ में पारवनाथ के रूप में आया। देवों ने उसके यथासमप गर्भ, जन्म आदि महोत्सव फिए । अन्स में वैराग्य के कारण उन्होंने समस्त परिग्रहों का त्याग कर दीक्षा ले ली। एक बार जब वे तपश्चरण में लवलीन थे तो आकाशमार्ग से जाते हुए क्रमठ के जीव वाम्बरासुर का विमान छा गया। उसने निभंगावधि से सब वृत्तान्त जाना तो अपने बैरी को देखकर उसकी क्रोधाग्नि बढ़ गई। क्रोधवश उसने महागर्जना को और महावृष्टि करना शुरू कर दी। इस पर जब पाश्वनाथ अपमे धर्य से विचलित नहीं हुए तो वह उन्हें युद्ध करने की प्रेरणा देते हुए कहने लगा कि युद्ध में तुम मेरे हाथ मृत्यु प्राप्त कर अलकानगरी को प्राप्त करोगे वहाँ पर स्त्री आदि भोग सम्पदायें सुलभ होगी। अलका नगरी आदि के वैभव का
१. उत्तरपुराण (प्रस्ताविक ), पृ० ११ ( ज्ञानपीठ प्रकाशन ) २, जनल बॉम्बे ब्रांच, रॉयल एशियाटिक सोसायटो, संख्या ४९, बा० १८,
(१८९२ ) तथा पाठक द्वारा सम्पादित मेषत द्वि., सं० पूना, १९६६ भूमिका, पृ. २३ आदि
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प्रस्तावना
ALI
वर्णन कर वह उन्हें स्वर्ग प्राप्ति के लिए लालायित करने की चेष्टा करता है। इस प्रकार अनेक उपसर्गों के बीच जब भगवान् धैर्य से व्युत नहीं होते हैं तो वह उनको मारने के लिए एक पहाड़ उठाता है। इसी समय धरणेन्द्र और पगावती भगवान की पूजा के लिए आते है। धरणेन्द्र भगवान को घेरकर अपने फणों के ऊपर उठा लेते हैं और पठमावती वचमय छत्र तानकर खड़ी हो जाती है । इसी समय भगवान् को केवलजान हो जाता है। आकाश में सुरदुन्दुभि बजती है, दिशायें निर्मल हो जाती है। यह सब देखकर शम्बरासुर भागने लगता है। किन्तु धरणेन्द्र उसे अभय देकर रोकते है और उसके पूर्वजन्मों की याद दिलाते है । शम्बर अपने कृत्यों पर पश्चाताप करता है और तीर्थकर का गुणगान करता है।
इस काथ्य में शम्बर को यक्ष के रूप में चित्रित किया गया है। युग में मृत्यु को पात गाय को समापार मेल के मा में कल्पना करता है । भगवान् पाश्वनाथ को यह परामर्श देता है कि युद्ध में मृत्यु प्राप्त कर मेष रूप धारण कर वे अलकानगरी जॉय और अपने पूर्वजन्म की पत्नी वसुन्धरा जो कि इस समय किन्नरी हुई है. से जाकर मिलें तथा उसकी वियोगाग्नि को शान्त करें।
पाभ्युिदय में रामगिरि से अलका तक मेष के जाने के मार्ग का वर्णन किया गया है । रामगिरि से चलकर मंघमाल नामक क्षेत्र पर पाएगा। इसके बाद उत्तर को ओर चलकर उसे आम्रकूट पर्वत मिलेगा । यहाँ से आगे चलकर विन्ध्याचल के चरणों में फैली हई नर्मदा का दर्शन होगा। अनन्तर पर्वतोंपर्वतों पर होते हुए मेध का दशार्णदेश में प्रवेश होगा । दशार्ण देश में पहुंचने पर वह विदिशा नगरी में जायगा । विदिशा से क्रमशः नीच पर्वत, उज्यजिनी, देवगिरि, दशपुर, कुरुक्षेत्र, कनखल, क्रौञ्चद्वार तथा कैलाश पर्वत जायगा । ३. सद्यः सीरोकषणमुरभिक्षेत्रमालामालम् । पार्खाभ्युदय १६३ ४, बक्षत्यध्याश्रमपरिगसं सानुमानान्न फूटः । पावा० ११६६ ५. रेवां द्रक्ष्यस्यपलविषमे विध्यपादे विशोर्णाम् । पात २७५ ६. कालक्षेपं ककुभसुरभी पर्वते पर्वते ते । पाश्वी १८६
स्त्रस्यासन्ने परिणलफलश्यामजम्यूबनान्ताः । संपरस्यन्ते कतिपयदिनस्यायिहंसा
दशाणा । पार्वा १५९१, १२ ७. नीराख्यं गिरिमधिवसेः । पा० १२९७
सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूरुज्जयिन्याः ।। पार्वा० १५१०३ देवपूर्व गिरिम् । पार्श० २।३० पात्रीकुर्वन्दशपुरवधूने कौतूहलानाम् ॥ पाश्र्वा० २५४४
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पार्वाभ्युदय कैलाश पर्वत के अंक में अलकानगरी बसी हुई है। इस अलकानगरी का वर्णन कषि ने मुक्त के से किया है। मार्ग का उपयुक्त क्रम मेघदूत के अनुसार ही है। हो सकता है कि जिनसेन कोई अन्य मार्ग चुनते, किन्तु उन्हें मेघदूत के श्लोकों के सारे घरणों को अपने काव्य में समाहित करना था अत: मार्ग का यही क्रम उन्होंने चुना।
अनुशीलन-पाव भ्युदय विश्व के समस्त काव्यों में अप्रतिम है । आत्र्यात्मिक शक्ति के सामने संसार की सारी भौतिक शक्तियां तुच्छ है, वे उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती है, यह दर्शाना यहाँ कन्नि का अभिप्रेत है। पावं के प्रति दग्पनर शम्बरासुर सोचता है कि मेघ का दर्शन होने पर सूखी व्यक्ति का भो चित्त अन्य प्रकार की प्रवृत्ति वाला हो जाता है, अतः तिरस्कार करता हुआ मैं गर्जनाओं से भरकर ध्वनि गुन हित को न्यो: भी रामा शरीर वाले मेघों से इसके चिप्स में क्षोभ उत्पन्न करूंगा। मनन्तर प्रकल्पित धर्म वाले इस विचित्र उपाय से मार डालूंगा।' ऐसा सोचकर उसने उपद्रव प्रारम्भ कर दिया । जिनसेन उसकी मूढता का परिहास करते हुए कहते हैं
क्वाऽयं योगी भुक्नमहिते धुर्विलध्यस्वशायिनः, क्वाऽसौ क्षुद्रः कमठदनुजः क्वेभराजः क्व दशः । क्वाऽऽसद्ध्यान चिरपरिचितध्येयमाकालिकोऽसी,
घूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेषः । पाश्वा० १।१७ अर्थात् जिसकी आत्म शक्ति का उल्लंघन करना कठिन है ऐसा यह योगी कहां और अधम कमठ का जीव देस्य कहाँ ? कहाँ तो गजराज और कहाँ बनमक्खी, जिसका ध्येय चिरपरिचित है और पूर्णरूप से जिसका ध्यान शोभन हैं
ब्रह्मावर्त जनपदमथच्छायया गाहमानः । क्षेत्र क्षवप्रधनपिशन कौरवं तद्भजेथाः ॥ पार्वा० २१४५, ४६ तस्माद्गच्छेरनुकनखल शंकराजावतीर्णाम् । जह्नो फन्यां सगरतनयस्वगंसोपानपंक्तिम् । २।५१, ५२ इंसद्वार भगपतियशोवस्मै यत्कौञ्चरन्धम् ॥ मेघदूत ११६०, पा. २०६९ तस्योत्सङ्ग प्रणायिन इद सस्तगङ्गादुकूला
न्न त्वं दृष्ट्वा न पुनरलका ज्ञास्यसे कामचारिन् ।। पा० २१८१,८२ ८. मेघस्तावत्स्तनितमुखरविचक्षुद्योतहासः, . चित्तक्षोभान्द्विरदसौरस्य कुर्वे निकुर्वन् ।
पश्चाच्चैन प्रचलिमति ही हनिष्यामि चित्रं, मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्ति चेतः ॥-पार्खा १।११
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प्रस्तावना
ऐसा वह योगी कहां और घुऔ, अग्नि, जल तथा वायु का समुदाय यह मेष असामयिक ( शीघ्र नष्ट हो जाने वाला ) कहाँ ? ____वायु में धुमें के रूप में मृक्ष्मातिसूक्ष्म रजकण छाए रहते हैं। मात के संघर्ष से ये कण विद्युत् से परिगहीत हो जाते हैं। सप वाष्प रूप में अन्तरिक्ष में व्याप्त जल को वे अपने कार आकृष्ट कर लेते हैं। इस प्रकार मेध बनकर जलवृष्टि के योग्य हो जाते है। वास्तविक रूप में ऐसा मेष सन्देशादि के कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ नहीं है। किन्तु कालिदास यक्ष को कामुक के रूप में चित्रित करते है और कामुक व्यक्ति अपनी उत्कष्ठा के कारण चेतन अघेतान के विवेक में दीन हो जाते हैं अतः यक्ष उसी अचेतन मेघ से याचना करने लगता है। जिनसेन ने आत्मिक शक्ति के सामने मेंघरूप अचेतन पदार्थ की तुच्छता को पूरी तरह स्वीकार किया है अतः पार्श्वनाथ उसको शक्ति को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते । भौतिक शक्ति का आश्रय लेकर दूसरे को पराभूत करने की चेष्टा करने वाले को जिनसैन क्षुद्र कहने से नहीं चूकते। कालिदास अचेतन प्रकृति को भी मनोभावों के सम्पर्क से तन बनाने का कौशल व्यस्त करते हैं, जिनसेन आत्मिक शक्ति के सामने जड़ प्रकृति की तुच्छता के यथार्थ को स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचकते। सम्बर के माध्यम से मेव के रूपों तथा उसके प्रतिफलों को जिनसेन ने अत्यधिक विस्तार से कहलाया है किन्तु वे सारे रूप में सारे फल पाश्र्व को निस्सार दिखाई देते हैं। इस प्रकार पार्श्व का यापक रूप नहीं, समर्थ रूप सामने आता है । अपेतन को वेतन मानने का भाव बन्धन का भाव है और इसो मिथ्यापरिणति के कारण जीव इस संसारचक्र में भ्रमण कर रहा है । अचेतन को अचेतन और चेतन को चेतन मानने का विक जिसके अन्दर जाग्रत होता है, वह रत्नत्रय मार्ग के द्वारा मोक्ष के सम्मुख पहुँचता है । इस प्रकार की साधना का पथिक अनुपमेय है, दुर्जेय है, इस बात का विचार न कर दुष्ट पुरुष बुद्धि की उद्धप्तता से उससे माया युद्ध की याचना करता है। ऐसा व्यक्ति यदि देव भी है तो भी पशु के तुल्य है, जिसे जिनसेन ने 'गुरुसुरपशु' कहा है।
संसार में लोग वस्तुओं और घटनाओं को अपने अपने अभिप्राय और सामध्यं के अनुसार देखते हैं। शंबरासुर पावं के तप के अभिप्राय को समाम
१. वासुदेव शरण अग्रवाल, मेघदूत एक दृष्टि, पृ०६ १०. मायायुस मुनिपमुष्माक्षीणको दुर्जयोऽये,
योसुक्याव-रिगणयन् गुह्यकस्तं यया ॥ पार्खा० ११९ ११. वही ११८
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पाश्र्वाभ्युदय
नहीं पाया । अतः उन्हीं से पूछ बैठता है--मन को अपनी अन्तरात्मा में रखकर बाह ( व्यानी रूप में प्रसिद्ध) आप कहिए । क्या आप कर्मों के नष्ट हो जाने पर सिखावस्था को प्राप्त आत्मतव्य में मन को लगा रहे है अचदा ( आपके ) कण्ठ में आलिगन की इच्छा रखने वाली दूरवती प्रिया में मन लगा रहे है ? प्रायः शम्बरासुर यही सोचता है कि मुनि पापर्व सुन्दर-सुन्दर स्त्रियो पाने के लिए तपस्या कर रहे हैं। अतः वह बार बार उन्हें दिव्य स्त्रियों की प्राप्ति का प्रलोभन देता है। अप्सराओं के लोभ से सलवार के द्वारा मृत्यु प्राप्त करना भी वह एक बड़े सौभाग्य की बात मानता है। इस प्रकार बमवाद को सुनकर भी पार्षयोगी चुप ही रहते है, ध्यान से किचिम्मान भी युत नहीं होते हैं। उस समय उनकी धीरता देखकर यक्ष को भी आश्चर्य होता है लेकिन उसके अहं को यह स्वीकार करने में भी कठिनाई होती है और प्रत्युत्तर न देने के कारण पाश्च को स्त्रीम्मन्य मानता है : शक्षा को एकर जमा होता है कि नि: पार्श्व के कान उसके द्वारा कहे गए विशद अभिप्राय वाले समीचीन भाषण को नहीं मुनते हैं अत: वे निष्फुर वायुमों से दुषित है, स्त्रियों का गान इस प्रकार के कानों की अचूक औषधि है, अत: स्त्रियों का गान सुनने से प्रसन्न हुमा योगी अवश्य ही उसका प्रत्युत्तर देगा। इस प्रकार स्त्रीप्रलोभन के अनेक प्रसंगों से पामियूक्ष्य भरा पड़ा है, किन्तु अन्त में हमें ज्ञात होता है कि तीर्थकर पाखं को से प्रलोभन लुभा नहीं सके और प्रलोभन देने वाले बैरी को उनके समक्ष अफना पड़ा, उनकी शरण लेनी पड़ी। इससे यह अभिप्राय धोतित होता है
१२. ध्यायन्ने मुनिपमभणीनिष्ठरालाप शौण्डो,
भो भो भिमो भगतु स भवान् स्वान्तमन्तनिरुधन् । क्षीणक्ले सिषिषि मति किं निघत्तेङ्गितस्त्र,
कम्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनरसंस्थे । पाश्र्वा० ११२ ११. पाश्र्वाभ्युदम १॥२७, २९, ४॥२५, २४ १४. याचे देवं मसिहतिभिः प्राप्य मृत्यु निकारात् ।
मुक्तो वीरश्रिममनुभव स्वर्गलोकेसरोभिः ॥ पा० २६ १५. पाश्र्वा० १:३२, ४।१३ १६. मन्ये श्रोत्रं परुषपवनैटूषितं ते मदुक्तां,
व्यक्ताकूतां समरविषयां सङ्कथा नो शृणोति । तत्पारुष्यप्रहरणमिद भेषजं विद्धि गेयं,
ओष्यत्यस्मासरमवहितं सौम्य ! सीमन्तिनीनाम् ॥ पा. ४०१९ १७. पा . ४.
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प्रस्तावना
कि जिनसेम वासनाजन्य प्रेम के पक्षपाती नहीं है । वासनाजन्य क्षणभंगुर प्रेम का फल दुःस और क्लेश के अतिरिक्त और कुछ नहीं। कामवासनाओं को जलाए विना आत्मतरव की उपलबिध नहीं हो सकती। बिना तपस्या के आत्मस्नेह परिनिष्ठित नहीं हो सकता पाही पापर्वाभ्युदय का अमर सन्देश है 1 अन्य जैन सन्देश काव्यों में भी प्रायः यह सन्देश दिया गया है। इस प्रकार श्रृंगार के वातावरण में शान्त रस की अवतारणा हुई है। इसी की ओर लश्य कर स्वर्गीय डॉ० नेमिचन्द्रशास्त्री ने कहा था-शृंगार के वातावरण में चलने वाली काव्य परम्परा को अपनी प्रतिभा से शान्त रस की ओर मोड़ देना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। त्याग में विश्वास रखने वाले जैन मुनियों ने श्रमण संस्कृति के उच्च तत्त्वों का विश्लेषण पाश्र्वनाथ और नेमिनाथ जैसे महापुरुषों के जीवन चरितों में अंकित किया है। जन सन्देश कायों में साहित्यिक सौन्दर्य के साथ पार्शनिक सिद्धान्त भी उपलम्य होते हैं। विषय के अनुसार मन और शील को दूत नियुक्त करना पौर शीतलता तथा शान्ति का वातावरण उत्पन्न कर देना सर्वथा नवीन प्रयोग है। संयम, सदाचार एवं परमार्थतत्व का निरूपण काय की भाषा और शैली में ये काव्य सहृदयजन के आस्वाथ बन गए हैं।
धाप पाश्र्वाभ्युदय में नियम के किसी सिद्धान्त का पिर्शपरूप से प्रतिपादन नहीं किया गया है तथापि मेषदूत के अनेक प्रसङ्गों को आमाय जिनसेन ने जनमत के अनुकूल हालने का प्रयास किया है । उदाहरणतः मेघदूत में उज्जयिमी के महाकाल मन्दिर का वर्णन है तथा उसके अन्दर पशुपति शिव का अधिष्ठान बतलाया है। पाश्र्वाभ्युदय में महाकाल बन में कलकल नामक जिनालयका वर्णन किया गया है । पशुपति शब्द का अर्थ यहाँ पशु आदि प्राणियों के रक्षक भगवान जिनेन्द्र अर्थ व्यजित होता है। जैन ग्रन्थों में हिमबन आदि पर्वतों से गला आदि मदियों का निर्गम बतलाया गया है। पापर्वाभ्युदय में भारतवर्ष की गङ्गा आदि नदियों को उन नदियों की प्रतिनिधि कहा गया है । प्रतिनिधि होने के कारण उनमें स्नान करने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि तीर्थ के प्रतिनिषि भी पापों को नष्ट करने वाले कहे जाते हैं। मेघदूत में गङ्गा को जह्न, कन्या तथा सगर पुत्रों को जाने के लिए स्वर्ग की सीढ़ियों के रूप में चित्रित किया गया है । जैन परम्परा इन पौराणिक कहानियों का समर्थन नहीं करती है अतः
१८. १० मिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास मे जैन कवियों का योगदान,
पृ० ४७१-४७२ १९. पाम्युिधय २८ २०. पायाभ्युदय २०१५
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पाश्र्वाभ्युदय
कवि ने उसे इस रूप में दणित किया है कि वह लौकिक रूढ़ि के अनुसार जन्न, की कन्या के रूप में प्रसिद्ध तथा सगरपुत्रों को जाने के लिए स्वर्ग की सीढ़ियों के तुल्य है। लौकिक श्रुति के रूप में स्वीकार करने पर आपरम्परा से उसका कोई विरोध नहीं है। मेघदुत में गला का वर्णन करते हुए कहा गया है कि गङ्गा में गार्वती के मुख में स्थित भ्र भङ्ग को मानों फेनों से हंसफर तरङ्ग रूप हाथों को चन्द्रमा के ऊपर लगाकर शिष के केशों को पकड़ लिया ।" जैन परम्परा मानती है कि हिमवत पर्वत के प्रपात पर गङ्गाकूट है वहाँ भगवान् आदिनाथ की जटाजूट युक्त प्रतिमा है उसी के समीप गङ्गा बहती है । इसी परम्परा का पोषण करते हुए जिनसेन ने कहा है--जिस एवेतवर्ण वाली गङ्गर (हिमवान् पर्वत के पदम सरोवर से निकली हुई ) महानदी ने तरङ्ग रूप हाथों को चन्द्रमा के ऊपर लगाते हुए श्वेतवणं फेनों से भोंहो की टेढ़ी रचना से युक्त स्त्रियों पर मानों हंसकर अथवा गौरवर्ण स्त्रियों के प्रभङ्ग पर मानों हंसकर हिमवान् पर्वत के गहशिखर रूप कमलकणिका पर स्थित प्रतिविम्बात्मक अथवा सुख स्वरूप प्रपात पर गङ्गाकूट की निवासिनी देवी के त्रैलोक्याधिपति महन्त भगवान् आदिदेव के केशों को पकड़ लिया ( अर्थात् जिसने भगवान् आदिनाप की प्रतिमा के ऊपरी भागों में स्थित जटाजूटों को पकड़ लिया ) उसी इस नवी को जानों अर्थात् इस नवी को उस गङ्गा महानदी के समान आदर यो । २२ मेषदूत में चर्मण्यती नदी को गौओं के मारने से उत्पन्न तथा पृथ्वी में प्रवाह रूप से परिणत रन्तिदेव की कीर्ति कहा है ।२३ पापम्पदय में इन्हीं विशेषणों के साथ इसे रन्तिदेव की अकीर्तिस्वरूप कहा गया है ।२४ मेघवत में किन्तरियों द्वारा त्रिपुरविजय के गीत गाने का उल्लेख है । पाश्र्वाभ्युदय में त्रिपुर विजय से तात्पर्य औषारिफ, तैजस और कामं तीनों शरीरों के विजय का गीत है ।२५ मेघदूत में गौरी शब्द का प्रयोग पार्वती के लिए किया गया है, पावा.
२१. गौरीवत्रकुटिरचना या विहस्यैव फेनः,
शम्भोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोमिहस्ता । मेघदूत २२५३ २२. तामेवनां कलय सरिसं त्वं प्रपाते हिमाद्रेः,
गङ्गादेव्याः प्रतिनिधिगतस्यादिदेवस्म भतु: । गौरीवकध्रकुटिरपनां या विहस्पेव फेनैः,
शम्भोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोमिहस्ता ।। २।५३ ।। २३. कालिवास : मेघदूत १४५ २४. पा . २०३६ २५. भेषदूत ११५६, पारर्वाभ्युदय २०१७
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प्रस्तावना
स्त्री अथवा ईशान दिशा के स्वामी की पत्नी के अर्थ में मेघदूत में मेघ से कहा गया है कि वह शिवजी के हाथ
चलने वाली पार्वती के पैदल चलने पर
अपने भीतर जल
कर द
कारण पूजा करने की इच्छुक जैन शरीर को सीढ़ी के रूप में परिवर्तित
भ्युदय में मह गौरी यजित हुआ है । का सहारा देने पर प्रवाह को रोककर अपने शरीर की सीढ़ियों के रूप में म्युदय में गौरी के स्थान पर देव भक्ति के मन्दिर को आतो हुई इन्द्राणी के लिए अपने करने की मेघ से प्रार्थना की गई है । २७
जिनसेन का जिन भक्ति में अटूट विश्वास है । नागराज धरणेन्द्र तीर्थंकर पानाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं - हे भगवन् ! आपके विषय में थोड़ी भो भक्ति विपुल पुण्यको उत्पन्न करती है | २८ पूर्वजन्म में कमठ के जीवधारी तापस के द्वारा जलाए जाने पर हम दोनों नाग और नागिनी देवयोनि को प्राप्त हुए है इस प्रकार थोड़ी भी भक्ति अधिक फल को देती है । हम लोगों का और भी अधिक कल्याण हो ऐसी जिसकी भक्ति के प्रभाव से मुझे पत्नी के साथ यह कठिनाई से प्राप्त करने योग्य ( दुर्लभ ) नागेन्द्र पद प्राप्त हुआ और जिसके माहात्म्य से भक्ति के अनुकूल आचरण करने के लिए मैं बिहार छोड़कर रत्नत्रय धारी भगवान् ऋषभदेव के मन्दिर के शिखर से युक्त उस कैलाश पर्वत से लौटा हूँ | वह (घरणेन्द्र के पद को प्रदान करने वाली ) भक्ति, आनको सेवा करती हुई मेरे कल्याण के लिए हो । हे देव ! उतम सम्पदा को देती हुई यह आपके चरणों की भक्ति इस जन्म में और परलोक में भी मेरे लिए सब प्रकार से सुखदायी हो। इसी प्रकार पश्चातास्युक्त हृदय वाला शम्बरासुर भगवान् के प्रति अपने हार्दिक उद्गार व्यक्त करता है - हे भगवन् ! राशीभूल अथवा विनश्वर मेघ शब्द नहीं करके भी जैसे घातकों को जल देता है, उसी प्रकार प्रार्थना किए जाने पर मौन को धारण किए हुए भी आप हम लोगों को अभीष्ट
२६. मेघदूत १६०, पाव २७५
२७. मेघदूत ११६०, पावमुदय २२७६
२८. श्रेयस्ते भवति भगवन्भक्तिररुपाप्यनत्वम् ।। पाश्व० ४०५४
२९. सेवा सेवां त्ववि विद्यतः यसे में दुरापं,
यन्माहात्म्यात्वमधिगतं कान्तमामा ममेवम् । सवनुचरणेनाऽहमुज्झन्विहार,
यस्माच्चैन
O
तस्मादद्र स्त्रिनयनवृषोत्खातकुटान्निवृत्तः ॥ पाव ४२५५ १०. तम्मे देव श्रियमुपरिमां तन्वतीयं स्वपोभक्तिभूयाग्निखिलमुखया जन्मनोहाऽप्यमुत्र । पा० ४५६
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पाभ्युिदय
कल्याण प्रदान करते हो । पघि भव्यजीवों के एकमात्र मित्र मापसे भषत इष्ट फल निश्चित रूप से प्राप्त करता ही है तो अच्छा है अर्थात् यदि आप मौन होकर भी कुछ देते हैं और भारत इष्ट फल प्राप्त करना ही है तो आपका मौन श्रेयस्कर है। फरुपयक्ष बया संसार के लिए शब्दों से ( उत्तरों से ) फलते हैं ? पायकों के अभीष्ट प्रयोजन का सम्पादन करना ही सज्जनों का उत्सर होता है।" हे प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखने वाले ! विनम्र होकर मैं तुमसे आज पोनला सहित माधना करता है । सौहाद से अथवा पाप से भयभीत या दु:खाफुल होने से अथका मेरे प्रति अनुकम्पा भाव रखकर मशरण, निर्दय, अत्यन्त प्रौढ माया युषत, दुष्टाभिलाषी ( एयं ) पश्चाताप के कारण चरणों में गिरे हुए मुझे पापरहित करो।३२ हे मुनि मित्र पाई जिमेन्द्र ! मेरे भगवान के परण कमलों के प्रसाद से मूलता के कारण न्याय का उल्लङ्घन किए हुए मैंने जो वाणी से अनेक प्रकार की च की भक्ति से सरणी न झुके हुए मुमा बससुर की वह बेष्टा मिथ्या हो निन्दितास्मा मेरे पापकर्म मी मिथ्या हों । इस प्रकार मणभर भी मेरा आत्मस्वभावरूप शानसे घियोग न हो।
उपयुक्त विवरण से मषित के सम्बन्ध में निम्नलिग्नित का स्पष्ट होती है(१) थोड़ी सी भी जिनषित महुत पुण्य उत्पन्न करती है। (२) मषित उत्तम सम्पदा को देने वाली और कल्याणकारी होती है । वह
इस लोक और परलोक में सुखदायक होती है । ३१. श्रेयोऽस्मभ्यं समभिलषितं वारियाहो यथा स्वं, निःशब्दोऽपि प्रदिशसि बल याचितश्चातकेम्यः ।। प्रत्युत्तीर्णो यदि च भगवन्भब्यलोककमित्रात्, स्वतः श्रेयः फलमभिमत प्राप्नुयादेव भक्तः । प्रत्युवतैः किं फलति जगते कल्पवृक्षः फलानि ?
प्रत्युवतं हि प्रणयिषु सतामीसितार्थक्रियेव ॥ पा० ४।६०-६१ ३२. अत्राशं मामपघृणमतिौलमायं दुरीह।
पश्चात्तापाच्चरणपतितं सर्वसत्वानुकम्प । पापापेतं कुरु सकरुणं स्वाऽद्य साचे विनमः,
सौहाठिा विधुर इति का मप्यमुक्रोशबुध्या २ पापर्वा० ४।६३ ३३. यत्तन्मौदयातबहुविलसितं न्यायमुल्लङ्घ्य वायां,
तन्मे मिथ्या भवतु च मुने दुष्कृतं निन्दितस्वम् । भक्त्या पादौ जिन बिनमसः पार्श्व मे तत्प्रसादास्, मा भूदेवं क्षणमपि सखे विधुता विप्रयोगः ॥ पाश्वा० ॥१५
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प्रस्तावना
(३) भक्ति का फल स्वतः प्राप्त होती है। (४) भक्ति जीवों को पापरहित करती है । (५) भगवान से प्रार्थना करते समय व्यक्ति यह भाषना करता है कि क्षण
__ भर के लिए भी उसका आत्मस्वरूप ज्ञान से वियोग न हो 1 पार्वाभ्युदय में दो प्रकार के तपों का चित्रण प्राप्त होता है-(१) सांसारिक आकांक्षा की पूर्ति के लिए किया गया तप। (२) कर्म के क्षय के लिए किया गया तप । इन दो तपों में से जैनधर्म में दूसरे प्रकार के तप को स्वीकार किया गया है कि पहले पापमोजन संसार है और दूसरे तप का प्रयोजन मोक्ष है । आचार्य समन्तभद्र ने कहा है
अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया,
तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान् पुनः जन्म जरा जिहासया,
त्रयों प्रवृत्ति समधीरनारुणत् ।। हे भगवन् ! कितने ही लोग सम्मान प्राप्त करने के लिए, कितने ही धन प्राप्त करने के लिए तथा कितने ही मरणोसरकाल में प्राप्त होने वाले स्वर्गादि की तृष्णा से तपश्चरण करते है, परन्तु आप जन्म और जरा की बाधा का परित्याग करने की इच्छा से इष्टानिष्ट पदार्थों में मध्यस्थ हो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकते हैं । पाश्वम्युिदय में इस प्रकार के तप का आचरण करने वाले भगवान् पार्ष है, जिनके सामने कठिनाई के पहाड़ उपस्थित होते है, फिर भी जो जरा भी विचलित नहीं होते हैं। फलतः दाम्परासुर को विफल प्रयास वाला होना पड़ता है !३४ इसके विपरीत कमठ ऋपट मन से" तपस्या करता है। अपने भाई की पत्नी इत्वरिकातुल्य बसुन्धरा से अलग हुआ वह शुष्क वैराग्य के कारण, जिसके पत्थरों के तल भाग ऊँचे नीचे थे, जिसके प्रदेश धाबाग्नि से दग्ध थे, जहाँ वृक्ष शुष्क होने के कारण उपभोग के योग्य नहीं थे, अनेक प्रकार के कांटों से वेष्टित होने के कारण जो गमन करने योग्य नहीं था ऐसे पर्वत के शिखर पर गर्मी के दिन बिताता है। इतना सब करने के बाद ३४. एवंप्रायां निकृतिमसुरः स्त्रीमयीमाशु कुर्वन्,
व्यर्थोद्योगः समजनि मुनी प्रत्युताऽगात्स दुःखम् ॥ ४॥४५ ३५. वही ११३ ३६. यस्मिन् प्राया स्थपुटिततलो दावदग्धाः प्रदेशाः,
शुष्कर वृक्षा बिबिधवृतयो नोपभोग्या गम्याः। यः स्म श्रेष्मान् नयति दिवसशुल्कवैराग्यहेतोः, तस्मिन्नही ऋतिविश्वाविप्रयुक्तः स कामी ।। पापा. १६५
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पाश्र्वाभ्युष्य भी उसका अपने भाई के प्रति बैर शान्त नहीं होता है और वह भगवान पार्श्वनाय पर तरह-तरह के उपसर्ग करता है अतः कमठ के जन्म में किया गया तप उसकी आभत्राप्ति में कुछ भी सहायक नहीं होता है।
भारतवर्ष के साहित्य की एक प्रमुख विशेषता कर्म तथा उसके फल में विश्वास है । प्रत्येक पुरुष को अपने कर्म का शुभाशुभ फल भोगना ही पड़ता है। यहाँ के समस्त शास्त्र अन्धन से मुक्त होने का उपाय बतलाते हैं। पार्व पर किया गया दाम्बरार का उपसर्ग उनके पूर्वकुत कर्मों का फल था, जिसे खीर्थकर होने पर भी उन्हें भोगना अनिवार्य था। इनकी साधना बन्धन से मुक्त होने का उपाय थी । पाश्र्वाभ्युदय का मेष सांसारिक बाह्य आकर्षण का प्रतीक है । इस आकर्षण से सभी सांसारिक प्राणी आकर्षित होते हैं । शम्बरासुर चाहता है कि बाह्य आकर्षणों में पड़कर पावं अपनी तपः साधना को भूल जाय अतः मेघ के माध्यम से सांसारिक आकर्षणों, सृष्टि की उमंगों, तरङ्गों, कोमल संवेदनाओं और अभिलाषाओं को सामने रखता है। उज्जयिनी और अलका की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं, उद्यानों, दीपिकाओं, पण्यस्थलों, मनोहर अजनाओं, रास्ते के उद्दाम प्राकृतिक दृश्यों और लुभावनी वस्तुओं के ललित वर्णनों के बीच पाश्व के हृदय में शान्ति और मिरासक्ति की एक अपूर्व मालादमयी धारा है | आत्मा में निरन्तर जागरण का कार्य चल रहा है और इस जागरण का फल यह होता है कि उसकी शक्ति से अनुपम दिवम सुखों में लीन धरणेन्द्र जैसे देवों के आसन भी कंपायमान हो जाते हैं, शत्रु को पलायमान होना पड़ता है, उसे अपनी भूल मानकर हरम से क्षमा याचना करनी पड़ती है। इस प्रकार एक अपूर्व विजय की प्राप्ति होती है । अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग शत्रुओं का अब नाश हो गया है। जो कुछ भोगना था वह भोग लिया अब कुछ भोगना बाकी नहीं रहा, संसार के सारे आकर्षणों का अन्त आ गया और आस्मा में अपूर्व सुख की धारा बह रही है । संसार के प्राणी ऐसी महान् भात्मा के गुणानुवाद अथवा नाम मात्र लेने से भवोच्छेवन' की आशा बांध रहे है। भक्ति के रस का संचार हो रहा है । इस प्रकार पाम्युिदय के बाह्य रूप को अपेक्षा उसका अान्तरिक रूप करोड़ों गुना अधिक महत्त्व रखता है।
शम्बरासुर और पाश्र्व का संघर्षे इन्द्रियशान और असोन्द्रियज्ञान के बीच का संघर्ष है । शास्त्रकारों ने कहा है कि इन्द्रिय के द्वारा जो जानकारी प्राप्त होती है वह तुछ है, अतीन्द्रिय शान से जो जानकारी प्राप्त होती है वह विपुल है, पूर्ण है। एक में असमनता है, दूसरे में समानता है। असमग्र को सब कुछ ३७. स्वयंकृतं कर्मयबास्मनापुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।
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प्रस्तावना मानने वाला संसार की ऊपरी पाकविषय में ही रमण करता है, उसे चाहिए बाह्य प्रकृति का मनोरम वातावरण, काम का उद्दाम वेग और उसकी पूर्ति का साधन सुन्दर ललनायें और पुरुष । दूसरी ओर समग्रता की आराधना करने वाला इन वस्तुओं को वैराग्यशील भिक्षु की निगाहों से देखता है, उसकी दृष्टि में ये सब वस्तुयें और मनोभावनायें बाह्य है, शारीरिक है, मूर्तिमान हैं, क्षण भंगुर है, इन सबके बीच में जो अमूर्तिक आरमा विद्यमान है वह उसको खोष करता है । काम, क्रोध, मद आदि के आदेश से उस आरमत्व की उपलब्धि नहीं हो सकती है । कहा भी है
मदेन मानेम मनोभवन क्रोधेन लोभेन ससम्मदेन ।
पराजिताना प्रसभ सुराणां वृधंत्र सामाग्रजापरवाम् ।। काम्बरासुर काम, क्रोध और मद से युक्त है, उसकी दृष्टि सरागी है अत: इन्द्रिय प्रत्यक्ष से उसे जो कुछ दोल रहा है वहीं उसके लिए लोभनीय और अलोभनीय है। जो लोभनीय है वह वस्तु उसके लिए राग का कारण है और जो अलोभनीय है वह वस्तु उसके लिए वेष का कारण है। राग और द्वेष ये दोनों संसार छोड़ने के लिए विसर्जित करने पड़ते है, वीतरागी बनना पड़ता है, निश्छल समाधि की ओर बढ़ना पड़ता है। पार्श्व इसी वीतरागता और निकाल समाधि की ओर बढ़ रहे है अतः इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है उसकी तरफ उनका लक्ष्य नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति राग और द्वेष की जनक है। वीतरागता के पथ के पथिक को इष्ट वस्तु के प्रति न राग है और न अनिष्ट वस्तु के प्रति देष है । जहाँ राग और द्वेष है वहाँ संसार है । संसार छोड़ने के लिए आत्मतत्व का सहारा लेना पड़ेगा और अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि करनी होगी। अतीन्द्रिय ज्ञान जिसके पास है वही सच्चा योगी है। शिशपाल वश में माघ ने नारद को 'अती. न्द्रियशान निधि' कहा है । कालिदास ने पूर्व मेघ के ५५वें श्लोक में कहा है कि शिव के चरणों में भक्ति रखने वाले करणविगम के अनम्तर शिव के गणों का स्थिर पद प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । इस करणविगम शब्द का प्रयोग पायाभ्युदय में भी हुआ है। वहीं कहा गया है कि अर्हन्त भगवान के घरण चिह्नों को देखने पर जिनके पाप नष्ट हो गए है ऐसे भक्ति का सेवन करने वाले
३८. निवत्यं सोऽनुन्नजतः कृप्तानतीनतीन्द्रियज्ञाननिधिर्नभस्सदः । समासदत्सादितदैत्यसम्पद. पदमहेन्द्रालयचारुचक्रिणः।।
शिशुपालवध ११
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पार्वाभ्युदय करणविगम के अनन्सर सिद्ध क्षेत्र की स्थापना करते हैं । उपर्युक्त करणविमम शब्द का अर्थ प्रायः सभी टीकाकारों ने शरीर त्याग किया है। आचार्य हजारी साय द्विवेदी में इसकी 3ई माया का है । उनके अनुसार करणविगम का सोपा सादा अर्थ है-इन्द्रियों को उल्टी दिशा में मोलना, अर्थात् इन्द्रियों को बाहरी विषयों की ओर से मोड़कर अन्तर्मुखी करना ।५० पावाम्युल्य में पार्श्व भी करणविगम की इस प्रक्रिया में लगे हुए है। पाभ्युिदय में प्रकृति
पार्वाभ्युदय मानों एक दृष्टि से प्रकृति काव्य ही है। इसमें प्रकृति के ही एक रूप मेघ को दूत बनाया गया है और उसका जो मार्ग बतलाया गया है, वह भी मतः स्वाभाविक रूप से प्राकृतिक प्रदेशों में होकर जाता है, अतः इसमें स्वत: प्रकृति चित्रण को महत्वपूर्ण स्थान मिला है। मेघमार्ग में पड़ने वाले स्थलों की यथातथ्य प्राकृतिक दशाओं का वर्णन किया गया है, जिससे कवि का ऐसा प्रकृति सम्बन्धी सूक्ष्म निरीक्षण प्रकट होता है कि उसने स्वयं आकर इन स्थलों एवं उनकी प्राकृतिक दशाओं को ध्यान से देखा है। भूताचल पर्वत का तल भाग पत्थरों से ऊंचा-नीचा था। उसके प्रदेश दावाग्नि से दग्ध है, वहाँ वृक्ष शुष्क होने के कारण उपभोग के योग्य नहीं है। मालक्षेत्र र कृषि प्रधान है। आम्नकूट पर्वत के ऊंचे शिखर पर विद्याधारिया बैठा करती है। उसके शिखर सुन्दर तथा सिखों के द्वारा सेवन करने योग्य है । वही फूली हुई लताओं और गुरुमों की वृद्धि के योग्य स्थान हैं। उसका समीपवर्ती भाग पके हुए आमों से तुका हुआ है। आम्रकूट पर्वत पर जब मेष बैठता है तो भोली भाली विद्याघारियों को इस बात का सन्देह हो जाता है कि क्या कुण्डली मारे हुए सर्प पर्वत पर बैठा है अथवा पर्वत पर नीलकमल से बनाया गया शेखर सुशोभित हो रहा है। नर्मदा का जल जंगली हाथियों की सूड़ों के प्रताओं से निरन्तर मदित,
३९. यस्मिन्दष्टे करण विगमादूर्ध्वमुधूतपापाः,
सिद्धक्षेत्रं विदधति पर्व भक्तिभाजस्तमेनम् । दृष्ट्वा पूसस्त्वमपि भवता? पुनर्दूरतोऽमु,
कल्पिष्यन्ते स्थिरगणपदप्राप्तये श्रद्दधानाः ।। पा ० रा६६ ४०. कालिदास की लालित्य योजना, पु०१०७ ४१. जिनसेन : पाश्र्वाभ्युदय ११५ ४२. वही ११६३ ४३. वही श६९ ४४. बही ११७०
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प्रस्तावना
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वहीं स्वच्छ
जाम के कुजों से उपरुद्ध वेग वाला, ऊपर से गिरते हुए भरने के जल के तुल्य, तुरहित होने से मुनिजनों के द्वारा प्रार्थनीय, स्वाद, सुगन्धित और बोतल ४५ दशार्णं जनपद के अग्रभाग में विकसित केतकी के फूलों से पीले प्राचीर से युक्त बगीचों सहि, कलुषित जल से भरे हुए, शालिधान्य के उसति क्षेत्रों से युक्त तथा रमणीय उद्यानों वाले हैं । त्रिविशा नगरी में मनोहर धूप के धुएं से जिनका शरीर सुगन्धित है ऐसी वेदवाएँ सुरतक्रीड़ा में रत रहती हैं। और सुगन्धित बावड़ियाँ है ।४८ नोच नामक पर्वत पर सिद्ध स्त्रियाँ रति क्रीड़ा करती हैं। प्रोड़ पुष्पों वाले कदम्ब खिले हुए हैं तथा नागरिकों के लताओं से निर्मित बेकार मण्डप है । उसकी रमणीय अधिरिका में शिखर से गिरते हुए झरनों की शोभा बहुत सुन्दर लगती हैं। 40 उज्जयिनी की पोराङ्गनाओं के कटाक्षपातों से युक्त लोचनों से यदि मेघ रमण नहीं करता तो उसे नेत्रवान् होने का फल नहीं मिलेगा । निर्विन्ध्यानदी के किनारे बैठे हुए पक्षी उसकी करनी के समान लग रहे हैं। वह अपने नाभि के सदृश भंवरों को दिखला रही है । वह पत्थरों पर गिरने के कारण ननोहरता के साथ बहती है। सिन्धु नदी वेणी के समान थोड़ा जलवाली तथा किनारे पर उगे हुए वृक्षों के पत्तों के 'गिरने से पीले वर्ण वाली है। वह कामिनी के समान परित्यक्त वस्त्र वाली होकर हंसों की आवाजों से मानों मेघ को बुला रही हैं। 43 अवन्ति देश में बूढ़े लोग उनकी कथाओं के जानकार हैं । ५४ उज्जयिनी नगरी लक्ष्मी की निवासभूमि तथा घनियों को एकमात्र जननी है। महाकाल वन के मध्य कलकल नामक जिनालय है ।"" महाकालवन में श्वेतवस्त्रपारी सावकमूह ह्र फुंकार रूप
४५. जिनसेन पादभ्युदय १ ॥७८
४६. वही १८९
४७. वही १९४
४८. वही १९५
४९. वही १९८-९९
५०. वही १।१०१
५१. वहो १।१०४
५२. पाश्वभ्युदय १।१०५
५३. वही १।१०७
५४. वही १०१०१
५५. वही १।११०, ११५, ११६, ११७ ५६. वही २१९
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१६
पाश्वभ्युदय
भीजाक्षर मन्त्र का उच्चारण करता हुआ शूल लेकर भ्रमण कर रहा है ।१७ देवगिरि पर्वत पर गूलर के वृक्ष हैं। वहीं स्कन्ददेव का निवास है ।' ५९ से जाकर गिरने वाले भरनों के कारण चर्मण्वती नदी का जल मलीन हो जाता देवगिरि है। वहीं पर गायों का आलभन होने के कारण वह रतिदेव की अकीर्ति के तुल्य है ६० हिमालय पर्वत पर सरल (बीड़ के ) वृक्ष है ।" उसके शिखरों का अग्रभाग हिमसमूह से ढका हुआ है। इससे उसकी शोभा कवच से ढके हुए शरीर के समान होती है । वहाँ पर अष्टापद हैं जो मेघ को लाँघने की चेष्टा कर सकते हैं, उन्हें मेष घने ओलों की वर्षा कर तितर बितर कर देगा। क्योंकि निष्फल आरम्भ करने वाले कौन हैं जो तिरस्कार के पात्र न होते हों । 3 के तट के समीप में ही क्रौञ्चपर्वत का छिद्र है जो कि (चक्रवर्ती के) दण्ड से हिमालय खोले गये विजयार्धपर्वत के गुहावार के समान है। कोच पर्वत के गृहाद्वार से मेघ कैलाापवंत की ओर जायगा । कैलाशपर्यंत स्वच्छ स्फटिक के समान कान्ति से युक्त, चारों ओर बहने वाले जल प्रवाह सहित तथा कुन्द के समान शुभ कान्ति बाला है । कैलाश पर्वत की गोत्र में अलका बसी हुई हैं। पाश्वस्युदय में पद पद पर प्रकृति के विभिन्न रूप प्राप्त होते हैं, जिनमें से मुख्य रूप निम्नलिखित हैं-
१. विशुद्ध रूप यह यह रूप है, जिसमें स्वतन्त्र रूप से प्रकृति को ही भावमयी दृष्टि का मुख्य आलम्बन बनाया गया है और साथ ही उसका अनालङ्कारिक वर्णन करते हुए उस पर किसी प्रकार का आरोप नहीं किया गया है । जैसे - जंगली हाथियों की सूड़ों के प्रतान से जो मदित है, जामुन के कुजों से जिसका वेग अवरुद्ध है तथा पत्थरों पर गिरते हुए भरने के जल के कारण प्रकट रूप से जन्तु रहित होने से जो मुनिजनों के द्वारा प्रार्थनीय है । हे मेघ ! उस नर्मदा के स्वादयुक्त, सुमन्धित और शीतल जल को तुम लेकर जाना
५७. पाश्र्वाम्युदय २७
५८. वही २२३०
५९. वही २३१
६०. वही २०३६
६९. वही २१६०
६२. वही २/६१
६३. वही २/६३-६४ ६४. वही २०६७ ६५. वही २७२
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प्रस्तावना
सत्स्वावीथः सुरभि शिशिरं प्रार्थनीयं मुनीनां, निर्जन्तुत्वानुपलनिपतन्निराम्भः प्रकाशम् । तस्याः शुणं धनकरिकरघट्टने रम्यमत्र, जम्बूकुब्जप्रतिहतरयं तोयमादाथ गच्छे | पाइ० १२७६
देशान्तर में गमन करने वालों की स्त्रियों अर्धविकसित किंजल्कों से हरे और कृष्णलोहित वर्ण से युक्त स्थलकवम्ब पुष्प को देखकर मेघ को समीपता का अनुमान करती हैं अतः स्वयं प्रत्यक्ष से निश्चित कार्यरूप हेतु से कारण का अनुमान होता है, इस प्रकार का मत अधिक उपयुक्त है, मैं ऐसा मानता हूँकार्यालङ्गात् स्वयमधिगतात कारणस्याऽनुमानं भिमा युक्तरूपेति मन्ये । यमनुनिमते योषितः प्रोषितानां,
येषां
त्वत्सा नि
मीपं वृष्ट्वा हरितापिर्श केसरेरक । पा० १८१ हे मेघ | जहाँ वन में उत्पन्न शिलीन्ध्रपुष्पों को और जलप्राय प्रदेश में तुम्हारे जलबिन्दु गिरने में जिनमें कलियाँ पहले पहले प्रकट हुई है ऐसी भूकदलो को देखकर वे पर्वतीय मनुष्य तुम्हारे आगमन की जानकारी में समर्थ होते हैं । उस विन्ध्यपवंस के मध्य में स्थित बमभूमि को तुम्हें जाना चाहिए
मध्येविध्यं वनभुवमिया यत्र दृष्ट्वा शिलन्छन्, अध्याननुवनमभी पर्वतीया मनुष्याः । स्वामायातं कलवितुमल स्वत्पयो विन्दुपात:
आविभूत प्रथमुकुलाः कन्दली स्वानुच्छम् । पा० ११८२
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२. आलंकारिक आलम्बन रूप - यह वह रूप है, जिसमें प्रकृति को आलम्बन तो बनाया गया है, किन्तु उसका वर्णन आलंकारिक रूप में करते हुए उसे अन्य किसी अप्रस्तुत रूप में भी देखा गया है। पाश्वभ्युदय में प्रकृतिचित्रण का यह रूप अधिकता से मिलता है और इस रूप में यहाँ प्रकृति का चित्रण बहुत हो सजीव एवं सरस रूप में किया गया है। तेल से मादिकृत केशबन्ध के समान वर्णवाला मेघ जब आम्रकूट पर्वत के शिखर पर चढ़ता है तो आम्रकूट पर्वत स्था अपने शरीर को मण्डलाकार परिणमित करने वाला काला सर्प इस पर्वत के मध्य में बैठा है अथवा यह पर्वत का नीलकमल से बनाया गया शेखर है ? इस प्रकार की आशंका को भोली भाली विद्याधरियों के सामने उत्पन्न करता है
कृष्णाहिः किं वलयिततनुमध्यमस्यातिशेते,
कि वा नीलोत्पलविरचितं शेखरं भूभूतः स्यात् ।
इत्याशङ्कां जनयति पुरा मुग्धविद्याधरीणां त्वय्यारूडे शिखरमचलः स्निग्धवेणीसवर्णे ॥ पाव० १२७०
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पाभ्युदय
इन्द्रनीलमणि को रमणीय लक्ष्मी का हरण करने वाला मेघ आम्रकूट पर्वत के निकुंज में क्षणभर बैठकर स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी में आये हर सूक्ष्म आकाशखंड के समान लगता हुआ ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेगा कि देव युगल भी उसे देखने की इच्छा करेंगे
अध्यासीनः वाणमिव भवानस्य शैलस्य कुछ, लक्ष्मीं रम्यां मुहुरुपहरमिन्द्रनीलोपलस्य । मन्मुक्तो भुवमिव गतः श्लक्ष्णनिर्मोकखण्डो,
नूनं यास्यत्यमरमिथुन प्रेक्षणीयामवस्या | पावर्थी ० १।७१. निर्विन्ध्या नदी को पार कर मेघ के मार्ग में वेणो के समान थोड़ा जल बाली, तीर में उगे हुए वृक्षों से गिरने वाले सूखे हुए पत्तों से पीले वणं वाली सिंधु नामक नदी अविनीत, शिथिल अथवा परित्यक्त वस्त्र वाली कामिनी के समान हंसों की पंक्तियों की गम्भीर आवाजों से मानों मेघ का बुलाती हुई दिखाई देगीहंस श्रेणी कलविरतिभिस्त्वामियोपालपन्ती, घुष्टा मार्गे शिथिलवसनेषाङ्गना दृश्यते ते । वेणीभूत प्रतनुसलिला सामतीतस्य सिन्धुः,
पाण्डुच्छायातरुतरुणिभिजणं गणः । पाद० १।१०७
उद्दीपनरूप यह रूप है जिसमें प्रकृति का भावों के उद्देोपक रूप में चित्रित किया गया है। पाश्वभ्युदय में मेष को वियोगियों की प्रेम भावनाओं का उद्दीपक बनाया है । जो कोई उसे देखता हूं उसका मन कुछ और ही हो जाता है । कालिदास ने कहा है कि क्षेत्र के दर्शन से सुखी व्यक्ति का भी मन जब कुछ और हो हो जाता है तो फिर दूरवर्ती (वियोगी) व्यक्ति की तो बात ही क्या है ? वायुमार्ग से उड़ता हुआ मेघ पथिक और उनकी वनिताओं के लिए उद्दीपक है । शम्बरासुर मंत्र से कहता है- तुम्हारे गमन के समय आकाश मार्ग में दिव्ययान पर देवाङ्गनाओं द्वारा अलिङ्गित सुन्दर माणिक्यों के आभूषणों की किरणों से घोषित अङ्ग वाले, स्वर्गभूमि पर जाते हुए तुम्हें भूमिप्रदेश पर स्थित पथिकों की स्त्रियों नए मंध को आशंका से उत्पन्न प्रियागमन के विश्वास से आमन्दित होती हुई अवश्य देखेंगी । ७ प्रकृति के विभिन्न रूपों में प्रियतमा ६६. मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्तिचेतः
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कण्ठास्य प्रणयिनि जने किं पुनरसंस्थे ( मेत्र १/३)
६७. दिव्ये याने त्रिश्चिवनितालिङ्गितं व्योममार्ग, सम्माणिक्याभरण किरणद्योतिताङ्ग
तवानीम् । गां गच्छन्तं नवजलधराशयाऽधः स्थितास्स्यां प्रेक्षिष्यन्ते पथिकच निताः प्रत्ययादाक्य सन्स्थः ॥ पार्श्व० ११३०
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प्रस्तावना के विभिन्न मङ्गों एवं व्यापारों का दर्शन करने में भी प्रकृति उहोपन का कार्य करती है
योगिन् ! योगिप्रणिहितमनाः किंतरां ध्येयशून्य, ध्यायस्येवं स्मर ननु घियाध्यमवर्ष मतं नः । श्यामास्वङ्ग' चकितहरिणीप्रेक्षित्ते दृष्टिपातं,
पत्रच्छायां शशिनि, शिक्षिनो बहभारेषु फेशान् ।। पावा. १२१ पश्यामुष्मिन्नवकिसलये पाणिशोभा नखाना,
iयास्मिन् कुरमाने समस्ने स्मिkilip . लीलामुचकुसुमितलतामअरीध्वस्मदीया
मुत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु चूदिलासान् ॥ पावा. ४।३० अर्थात् हे योगी! ध्यान की एकाग्रता से चित्त को वश में करने वाले, इस प्रकार कौन सी ध्येयशून्य वस्तु का ध्यान कर रहे हो ? हे योगी! हम दोनों के द्वारा बहुत आवर को प्राप्त प्रत्यक्ष से जानने योग्य (सुन्दर स्त्री के) पारीर को प्रिमगुलताओं में, दुष्टिपातको गरी हई ममियों के नेत्रव्यापार में, मुख की कांति को चन्द्रमा में, केशों को मयूरों के पंखों में मन से यार करो, व्यामो हमारे (द्वारा जामने योग्य) हाथ की शोभा को इस नये पल्लव में, मौकी कान्ति इस पुष्पित मये कुरबक के बन में, मुस्कुराहट की शोभा उगते हुए फूलों से युक्त लतामारियों में, भौरों के विलास को नदी की पसली तरङ्गों में देखो, ( इस प्रकार ) में तर्कना कर रहा है।
संवेदनशील या मानवीय भावनाओं से युक्त रूप में इस वर्ग में ऐसे वर्णन आते हैं, जिनमें जड़ प्रकृति को भी संवेदनशील प्रदर्शित किया जाता है । इस प्रकार के वर्णन में प्रकृति मानव के सुख-दुःख से सुख-दुःख युक्त होती है या भावनामय मानव के समान व्यापार करती है। प्रियादर्शन के अवसर पर प्रेमी वारा की गई चेष्टाओं को देखकर वनदेविमों आँसू गिराती है
तां तां चेष्टां रहसि निहितां मन्मनाऽस्मदने, त्वत्सम्पर्क स्थिरपरिचयावाप्तये भाग्यमानाम् । पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलोदेवताना,
मुक्तास्थूलास्तरुकिसलये बथुलेशाः पतन्ति ।। पाश्च० ४।३८ मर्यात काम के द्वारा हमारे शरीर में एकान्त में प्रस्थापित, तुम्हारे सम्पर्क से स्थिर परिचय की प्राप्ति के लिए प्रकट की गई उस उस ( समस्त ) चेष्टा को देखती हई अनदेवियों की मोतियों के समान स्थूल आंसुओं को डू वृक्षों के पल्लवों में कई बार नहीं गिरती है, ऐसा नहीं है।
पाश्चभ्युिदय में श्रृंगार पापर्वाभ्युदय में संयोग और वियोग दोनों प्रकार का प्रकार मिलता है।
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पाभियुक्ष्य मेघ के मार्ग में सर्वप्रथम संयोग प्रकार के दर्शन तब होते हैं अब भौहों के विलास से अनभिज्ञ कृषक स्त्रियों मेघ को देख रही हैं---
जीमूतत्वं पदनुगतः क्षेत्रिणां दृष्टिपातः ।
स्खय्यायत्तं कृषिफलमिति अविनापानभिः ।। पावा० १६१ विद्युत्समूह के सम्बन्धो, दैदीप्यमान इन्द्र धनुष की शोभा के समान शोभा युक्त, प्रकट होती हुई गम्भीर गर्जना से मनोहर, तेल से आद्रीकृत अजन के समान कृष्ण वर्ण की प्रभा वाले मैध को गांव को स्त्रियां भी आदरपूर्वक देखती है। क्योंकि मेष ने वर्षा की है अतः जनपवधुओं को उसके साय प्रोति हो गई
विद्युन्मालाकृतपरिकरो भास्वदिन्द्रायुभश्रीयन्नन्मन्द्रस्तनितसुभगः स्निग्धनीलाञ्जनाभः । विषं थायाः कृतकजलदत्वपयोबिन्दुपात,
प्रीतिस्निग्वैननपदयधूलोचनः पीयमानः ।। पाश्चसि ॥६२ मेष को प्राणयात्रा के निमिस वेत्रवती नदी के चञ्चल तर युक्त जल के रूप में उसके भ्रूभङ्गयुक्त मुख का पान करने का उपदेश दिया जाता है
पातम्यं ते रसिक सुरमं प्राणयात्रानिमित, ती सासुस्तिशफरापट्टनरातपतम् । रोषः प्रान्ते विहङ्गकलभडिण्डोरपिण्र्ड,
सभ्रूभङ्ग मुखमिव पयो वेत्रकत्याचलोमि । पा. १३९६ मेघ को उस नीच पर्वत के सेवन का उपदेश दिया जाता है जिसको अषिस्यका सिद्ध स्त्रियों की रतिक्रीड़ा के समय उत्पन्न मालादि के गन्धों से सुगन्धित है।" वह पर्वत वेश्याबों से रतिक्रीड़ा में विदित पुष आदि को सुगनिन को प्रकट करने बाले ( पुष्प आदि ) उपहारों से मुक्त लताओं से निर्मित एमाकार मणपों ( लता गृहों ) से नागरिकों के भोगों की अधिकता को कहता है । मैथुन सेवन के समय जिन पर मालायें गिर गयी है तथा जिनके मध्य भाग फूलों को शय्या से च्याप्त हैं ऐसे विलागृह ( नागरिकों के ) उत्कट यौवन को प्रकट करते है ।" ६८. सिद्धस्त्रीणां रतिपरिमलीसितापित्यकान्तं ।। पा. १९८ ६९. भोगोद्रेक कथयति लसावेश्मक: सोपहारः
यः पश्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिगिरायाम् || पाना० २९९ ७०. मोमोत्सङ्ग परिमृजति वा पुष्पशय्याचितान्तीः ।
खस्तनभिनिधुवन विषो कोहतां दम्पतीनां उहामानि प्रथसि शिलावेश्मभिर्यावनानि ॥ पा० ॥१००
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प्रस्तावना
२१
मेष को लालच दिया जा रहा है कि वह उज्जयिनी में पौराङ्गनाओं के चंचल कटाक्षों का आनन्द ले जेवणः कुसुम धनुषो दुरवात रमोघः, मर्माविद्भिर्युपरिचिन अनुष्टिमुक्तः
विशुद्ध मस्कुरित चकितैयंत्र पौराङ्गमानां
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लोलापाङ्गेयंदिन रमसे लोचनवस्थितः स्याः ॥ पाइ० १११०४
कवि ने मेष को सलाह दी है कि अक्षरों के (उच्चारण के ) बिना भी व्यक्त के समान मेघ के विषय में जो उत्कण्ठा को व्यक्त कर रही हैं, कुछ कुछ लज्जा से जो अपने शरीर को वक्र बनाकर जो आप्त के आगमन को प्रकट कर रही है ऐसी निविन्ध्या नदी के पास जाकर वह उसके रस (श्रृंगार अथवा जल ) को ग्रहण करने में अन्तरङ्ग बने, क्योंकि स्त्रियों की प्रणयी जनों में वेष्टा ही प्रथम प्रणय वाक्य हो जाता है । ७
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सिन्धु नदी का एक ऐसी नायिका के रूप में वर्णन किया गया है जो वेणी के समान थोड़ा जल वाली तथा तीर में उगे हुए वृक्षों से गिरने वाले सूखे पत्तों से पीले वर्ण बाली है । दृष्टा वह परिश्यक्त वस्त्र वाली कामिनी के समान हंसों की पंक्तियों की गम्भीर आवाजों से मानों मेघ रूप नायक को बुला रही है । २ उज्जयिनी में तरङ्गों के मध्य भ्रमण करने से ठण्डा, जलकणों के समूह को बहा ले जाने वाला, उद्यान को कंपाने वाला, मद से युक्त भ्रमरों की मधुर गुंजार को प्रकट करता हुआ रमण की प्रार्थना में खुशामद करने वाले प्रियतम के समान शरीर को अनुकूल लगने वाला शिप्रा नदी का वायु स्त्रियों को रतिक्रीड़ा के परिश्रम को दूर करता है
कल्लोलान्तर्वलन शिशिरः
शोकरासारवाडी, धूतोद्यानो मदमधुलिहां व्यञ्जयन् सिञ्जितानि । यत्र स्त्रीणां हरति सुरतिग्लानिमङ्गानुकूलः, शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः ॥ १।११२ ।।
७१. स्वय्योत्सुक्यं स्फुटभित्र विनाऽप्यक्षरं व्यंजयन्त्याः, लज्जावलितभित्र सन्दशिताप्तागमाथाः । निर्विन्ध्यायाः पथि भव रसाम्यन्तरः सन्निपत्य
स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ॥ पादर्षा ० १ ११०६
७२. हंसश्रेणोकल विरुतिभिस्वामिवोपह्वयन्ती, वृष्टा मार्गे शिथिलवसनेवाङ्गना दृश्यते ते | वेणीभूततनुसलिला सामतीतस्य सिन्धुः पाण्डुच्छायातरुन शिभिकर्णवर्णः । पाश्वी० ११९०७
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पावभ्युदय
मेघ सुम्दर स्त्रियों के चरणों के लाक्षाराग से चिह्नित विशाळापुरी के पनियों के भवनों में दहकर मार्ग की थकान को दूर कर सकता है।' जिनालय में वैश्यायें मेघ से नवक्षतों को सुख देने वाले वर्षा के प्रथम बिन्दुओं
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कलकल
को पाती है ।" मद में उसकी गर्जना से हरकर स्तनों को कपाली हुई ये उसके ऊपर भ्रमरों की पंक्तियों के समान दोघं कटाक्षों को छोड़ती हैं। महाकाल वन के कलकल मिनालय में मेघ की सन्ध्याकालीन क्रियाओं को करने के बाद नगरी में रात्रिकालीन सम्भोग के लिए प्रियतम के निवास स्थान को जाने वाली देखते हुए भागे के मार्ग में गमन करने की
स्त्रियों की श्रृङ्गार लीलाओं को सलाह दी गई है।
२२
मेघ अम आकाशमार्ग को आच्छादित कर देगा और सड़क पर अत्यन्त अन्धकार हो जायगा उस समय पुरुष को पाने के लिए उत्कण्ठित मदन विवशा स्त्रियां सम्भोग कोड़ा के लिए सख्त स्थान पर जाने में समर्थ नहीं हो पायेंगी । अतः मंच से कहा गया है कि हे मेघ ! एक तो तुम ऊँचे स्वर से गरजना नहीं और दूसरे बिजली से उन स्त्रियों को मार्ग दिखा देना । * यदि मेष गरजने को ही उत्सुक है तो उसे चाहिए कि स्त्रियों के नूपुरों की ध्वनि के समान हृदयहारी, उन स्त्रियों की रतिक्रीड़ा के समय उच्चरित अमझरी ध्वनि विशेष के समान मनोहर मन्द मन्व गर्जना करे । धाराप्रवाह जल वृष्टि मौर गर्जना से शब्दशील नहीं बने; क्योंकि ये स्त्रिय! डरपोक होती हैं ।
७१. हम्र्म्येष्वस्याः कुसुम सुरभिष्वष्वखिन्नान्तरात्मा ।
मीत्वा खेद ललितमितापादरागाद्धितेषु || पाश्च० १।११८
७४. बद्दी २।११
७५. वही २।१२
७६. पा० २।१७
७७. गणेत्युच्चैर्भवसि पिहितव्योममार्गे रमण्यो, गाठोत्कण्ठा मदनविवशाः पुंसु सङ्केतगोष्ठीम् । एकाकिन्यः कथमिव रसो गन्तुमीशा निशी, रुवालोके नरपतिपथे सूचिभेदस्तमोभिः || पा० २०१० तस्मान्नोमिषु च भवाऽऽडम्बरं संड्राशु, प्रत्यूहानां करणमसतामायूस नोन्नतानां । कर्तव्या से सुजन विधुरे प्रत्युतोपक्रियाऽऽसां
सौदामन्या कनकनिकवस्मिन्धया वर्शयोर्वीम् ॥ पापव० २०१९
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प्रस्तावना
क्रीडाहेतोयदि छ भवतो गर्जनोत्सुकरवं, मन्दं मन्द स्तनय वनिता नूपुरारावहृतम् । तासामन्तभणितसुभगं सम्भृतासारधार,
सोयोत्सर्गस्तनितमुखरो मा च भूविक्लवास्ताः ।। पा० २०२० जब मेघ बीच में आ जायगा सो सूर्य दिखाई नहीं देगा । जब तक प्रकाश दिखाई नहीं देता है, तब तक दुःख बिनाषा नहीं होता है। सूर्योदय के समय खण्डिता नायिका के आंसुओं का शमन उनके प्रेमो करेंगे, अतः मेष ! सूर्य के मार्ग को पीन छोड़ दे
रुद्ध भानी नयनविषयं नोपयाति स्वयाऽसौ, भासो मङ्गादधनिरसनं मा स्म भूत्त्वग्निमित्तम् । तस्मिन्काले नयनसलिलं योषितां स्खण्डितामां,
शान्ति नेयं प्रणयिभिरतो वम भानोरयजाश ।। पाश्र्वा० २०२३ मेष के बीच में आ जाने पर सूर्य का उसकी प्रिय कमलिनी से परिचय कक षायगा । अतः कमलिनी के कमल रूप मुख से हिम रूप आँसू हटाने के लिए सूर्य मेष से किरण रूप हाथ के रोके जाने पर अधिक ईर्ष्या वाला होगा, अतः मेष सूर्य और कमलिनी के बीच वाघा न बने, मयोंकि मित्र का कर्तव्य है कि मह दूसरे की विपत्ति में दुःखी हो
अन्यमचान्यग्यसनविधुरेणाऽऽयमित्रेण भाव्यं सम्मा भानोः प्रियकमपिली संस्तवं त्वं निरुन्धाः । प्रालेयास्र कमलय दनात्सोऽपि हतु नलियाः
प्रत्यावृत्तस्त्वयि करषि स्मादनल्पाभ्यसूयः ॥ पार्खा० २।२४ आगे जाकर मेघ गम्भीरा नदी के रस ( प्रेम, जल ) का पान करेगा। गम्भीरा नदी के प्रेम को वह किसी भी प्रकार नहीं ठुकरा सकता। ध्वनि करते हुए पक्षि समूह के रूप में तेज से स्फुरेण करती हुई करपनी की मधुर ध्वनि सुनकर तथा ऊँचे रेतीले तटरूप फदिमाग से युक्त गम्भीरा नदी को देखकर मेघ को पता चलेगा कि ( नदी रूप नामिका के ) मैथुन सेवन का उद्रेक क्या है ? कवि कोरर है फि तट रूप नितम्ब को छोड़ने वाले, बेत की शाखा तक पहुंचे हुए और हाथ से कुछ पकड़े गए के समान नीले जल रूप वस्त्र को हटाकर विपुल अनुराग से झुक्स काम की अवस्था को इस प्रकार प्रकट करती हुई, फूली हुई विस्तृत लताओं से जिसका पर्यन्त भाग ढका हुभा है ऐसी गम्भीरा ७८. पा. २२५ ७९. वही १२६
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पाश्वभ्युदय
नदी का अवलम्बन लेकर विषय सुख का अनुभव करने के लिए अपने शरीर को बड़ा बनाने वाले मेघ का प्रस्थान जिस किसी प्रकार होगा, क्योंकि रस का अनुभव किया हुआ कौन पुरुष खुले हुए जघन वाली स्त्री का त्याग करने में समर्थ है
शास्वत्युच्चैः पुलिनजयनादुच्चरत्यक्षिमाला, मास्काच्चीमधुररणितास काम सेवाप्रकम् तस्याः किञ्चित्करघुतमिव प्राप्तवानीरशाख
हृत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तशेषोनितम्बम् ॥ पान २।२७
तामुत्कुरूळप्रततलतिकागूढपर्यन्तदेशां
कामवस्थामिति बहुरलां दर्शयन्तीं निषद्य |
प्रस्थानं ते कथमपि स लम्बमानस्य भाबि,
शातावादी विवृत्तजघनों को विहातुं समर्थः । पाश्र्व० २१२८
दशपुर की ओर जाने पर मेघ वहाँ की वधुओंों के काम को जीतने वाले बाणों के समान दीर्घ नेत्रों का पात्र बनेगा, किन्तु अधिक समय न होने के कारण वह शीघ्र ही वहाँ से चल देगा | कैलाश पर्वत पर पहुंचने पर देवाङ्गनायें मेष को अवश्य ही फुहारा बना डालेंगी ।" हो सकता है कि नीचे तालाब के जल से भरे हुए चमड़े के पात्र के समान मेत्र को इधर उधर खींचती हुई देवाङ्गनायें क्रीड़ा करें | जिसे घाम लग रहा है ऐसे मेघ का मंदि उन देवाङ्गनाओं से यदि छुटकारा न हो तो क्रीड़ा में आसक्त होने वाली उनको मेघ कानों को कठोर लगने वाली गर्जनाओं से डरा दे । इस प्रकार पाश्वभ्युदय में जिनमें संयोग श्रृंगार की झलक मिलती है ।
अनेक ऐसे प्रसज्ञ हैं,
पार्वायुदय में वियोग की व्यंजना मार्मिक ढंग से की गई है। मेव की स्त्री अपने प्रियतम के वियोग में निम्नलिखित कार्यों में से किसी एक कार्य में रत होगी क्योंकि प्रियतम के वियोग में स्त्रियों के कालयापन के प्रायः ये उपाय हैं
८३
१. देवपूजा में लगना |
२. वस्त्रोक्त व्रतों का सेवन करना |
३. प्रियतम की प्रतिकृति बनाना ।
८० पा० २४४
८१. पा० २७७
८२. वही २१७८ ८३. वही ३।३६-४१
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प्रस्तावना
४. मैना को प्रियतम का स्मरण दिलाना ।
५. वीणा को गोद में रख करुणरस प्रधान गीत को बनाते हुए प्रिय के नाम से युक्त गीत को ऊंचे स्वर से गाना अथवा गाने की इच्छा करना ।
६. देहली पर रखे हुए फूलों से पति के आने के अवशिष्ट दिनों आदि की
गणना करना |
२५
७. स्वप्न में मन के सरूप से प्रियतम के साथ सम्भोग करना ।
८. सखियों द्वारा भय पूर्वक विश्वास को प्राप्त होना ।
मेघ से इस प्रकार की वियोगिनी प्रियतमा के देखने की प्रार्थना की गई है
१. फैले हुए बङ्ग युक्त
२. फूलों को शय्या पर स्थित होने पर भी सुख रहित ।
३. भूमि पर शयन करने वाली ।
४. कामदेव की शरीरी अवस्था को धारण की हुई ।
५. मन की वेदना से क्षीण ।
६. विरह को शय्या पर एक करवट से लेटने वाली ।
७. चन्द्रमा की एक कला से अवशिष्ट मूर्ति के सदृश ।
८. विरहजनित ह के दाह को दूर करने के लिए वक्षःस्थल में स्थापित
हार को धारण करती हुई ।
९. गर्म आँसुओं की गिराती हुई ।
१०. गर्म साँस छोड़ती हुई ।
११. तैलादि से रहित स्नान के कारण कठोर स्पर्श वाले वालों को पुनः
पुनः दूर करती हुई ।
१२. वियोग के दुःख से दुःखी ।
१३. स्वप्न में प्राणनाथ के समागम को पाने लिए निद्रा को चाहती हुई । १४. प्रिय के द्वारा पहले बांधी गई शिखा की निश करती हुई ।
१५. वेणी को बिना कटे हुए नाखूनों से युक्त हाथ से गालों पर से बार
बार हटाती हुई 1
१६. चन्द्रमा की किरणों की ओर से नेत्रों को हटाती हुई ।
१७. नेत्रों को बरोनियों से उकती हुई ।
१८. मेघों से ढके हुए दिन में स्थल कमलिनी के समान न विकसित और न अविकसित |
८४. ० ३।४२-५३
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पाश्र्वाभ्युदय
१९. आहार का त्याग को हुई । २०. अलङ्कार स्यागी। २१. औमुओं से गोले किए हुए पाण्डु वर्ण के गालों से युक्त। २२. अत्यधिक दुःख से शय्या की गोद में अनेक बार शरीर को धारण
करती हुई। २३. अत्यधिक दुःख के कारण शय्या के पाश्य भाग में मछली के समान
लोटती हुई। २४. जिसमें कंपकंपी उत्पन्न हुई है ऐसी स्वांस से विवश कामपात्र के समानः
आचरण करती हुई। इस प्रकार की अवस्था वाली नायिका को देखकर कवि को विश्वास है कि मेघ अवश्य ही नूतन जल रूप आंसू बहायेगा, क्योंकि कोमल वृषय वाले सक लोग आई अन्तरात्मा वाले होते है ।
प्रियतम के वियोग में नायिकाओं के नेत्र की निम्नलिस्थित दशायें होती है१. अलकों ने कार अमाट पर जाता है।
२. नेत्र स्तिन्य अंजन से शुम्य हो जाते है तथा भय का निराकरण करने के कारण भूविलास को भूल जाते हैं।"
पाश्मिदय के कर्ता आचार्य जिमसन-जैसा कि कहा जा का है पापर्वाम्युदय पवल ग्रन्थ के कर्ता पंचस्तूपान्धमी स्वामी बौरसेन के पट्टशिष्य सेनसंघी. आचार्य जिनसेन स्वामी को अमर उपना है । बाचार्य जिनसेन के माता-पिता, जन्मस्थान आदि की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। जयपवला टीका की प्रदास्ति के अनुसार कर्णच्छेदन से भी पहले उन्होंने वीरसेन स्वामी के संघ में रहना प्रारम्भ कर दिया था। आसन्न भव्यता, मोजलक्ष्मी की समुत्सुकता और शानलक्ष्मी के वरण हेतु इन्होंने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया था। उनका शारीरिक आकार अधिक सुम्पर नहीं पा और न थे अधिक चतुर थे। श्री, शम और विनय उनके नैसर्गिक गुण थे, जिसके कारण विद्वज्जन भी उनकी आराधना करते थे, क्योंकि गुणों के द्वारा कौन व्यक्ति आराधना को प्राप्त नहीं होता है। वे यद्यपि परीर से कुश थे, किन्तु तपोगुण से ऋश नहीं थे। शरीर से दुर्बल व्यक्ति दुर्घल नहीं होता है, जो व्यक्ति गुणों
८५. पार्वा० ३०५३ ८६. पा . ३१५६
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प्रस्तावना
२७ से बुर्बल है वही वास्तव में दुर्बल है। शाम की आराधना में उनका समय निरन्तर व्यतीत होता था अतः तत्वदर्शी उन्हें ज्ञानमय पिण्ड काहा करते थे।
जिनसेन का समय-आचार्य जिनसेन ने अपने पाश्वर्याभ्यूदप के निम्नलिखित लोक में सम्राट् अमोघवर्ष का स्मरण किया है -
पति विरचितमेतस्काध्यमानेष्ट्य मेध, बहगुणमयदोष कालिदासस्य काव्यम् । मलिमितपरकाव्य तिष्ठतादाशशा',
भुवनमवतुदेवस्सर्वेवामोषवर्षः ॥ पाश्वा ४७० अमोघवर्ष का समय ८१४ ई० से ८७८ ई० तक का माना जाता है। अमोघवर्ष पराक्रमी राष्ट्र मुट राजा थे और जिनसेन के उपदेश से जैनधर्म में दीक्षित हो गये थे। ८५१ ई० में अरक सौदागर सुलेमान भारत आया था और उसने दीर्घायु बलहरा (वल्लभराय) नाम से अमोघवर्ष का वर्णन किया है और लिखा है कि उस समम संसार भर में जो सर्वमहान् चार सम्राट थे वे भारत का बल्लभराय (अमोषवई), चीन का मनाद, बगवाव का खलीफा और कम (कुस्तुस्तुनिया) का सम्राट् थे । अलइद्रिसि, मसूदी, इमहीकल आदि अरब सौदागरों ने ८७. तस्य शिष्योऽभवच्छूिमाजिनसेनः समिद्घधीः ।
अविद्यावपि पकणी विही जानशलाकया ।। २७ ।। यस्मिन्नासन्न भव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मी समुत्सुका । स्वयं वरीतुकामेव श्रौती मालामयूयजत् ।। २८ ।। येनानुबरिस बाल्यावह्मवतमखण्डितम् । स्वयंवर विधानेन चित्रमहा सरस्वती ॥ २९॥ यो नाऽतिसुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः । तथाऽप्यनन्यशरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ।। ३०॥ श्री शमो विनयश्चेति यस्य नैसर्गिका गुणाः। सूरीनाराधयन्ति स्म, गुर्ण राराध्यते न कः ।। ३१ ॥ यः कृशोऽपि शरीरेण न कृशोऽभूत्तपोगुणः । न कृशत्वं हि शारीरं गुणरेवकृशः कृशः ॥ ३२ ॥ घोनाग्रहीकपिलिकानाऽप्यचित्तयदजसा तथाऽप्यध्यात्म विद्याब्धेः परं पारशिश्रियत् ।। ३३ ।। जानाराषनया यस्य मातः कालो निरन्तरम् ।
ततो साममयं पिण्ड यमाहुस्तस्यविनिः ॥ ३४ ॥ ८८.डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास : एक दृष्टि पृ. २९५
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२८
पार्श्वाभ्युदय
अमोघवर्ष के प्रताप और वैभव तथा साम्राज्य की शक्ति एवं समृति की भरपूर प्रशंसा की है। उसका शासन भी सुचारु रूप से व्यवस्थित था। इसके अतिरिक्त यह नरंश विद्वानों और गुणियों का प्रेमी, स्वयं भी भारी बिद्वान् और कवि था । संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़ एवं तमिल के विविधविषयक साहित्य के सृजन में उसने भारी प्रोत्साहन दिया था, उसकी राजसभा विद्वानों से भरी रहती थी कुछ इतिहासकों के अनुसार आचार्य जिनसेन की मृत्यु ८४३ ई० में हो गयी थी । उस समय राजा अमोघवर्षं सिंहासनारूढ़ था । अन्त में उसे संसार से विरक्ति हो गयी और ८७८ ई० में उसने राज्य का परित्याग कर मुनि दीक्षा ले ली ।"
हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन मे पायुक्ष्य के रचयिता जिनसेन की स्तुति निम्नलिखित " शब्दों में को है
जिनसेन स्वामी ने पाश्वस्युक्ष्य की रचना की है- श्री पार्श्वनाथ भगवान् के गुणों की स्तुति बनाई है, वही उनकी कीर्ति का वर्णन कर रही हैं। इन जिनसेन के वर्धमान पुराण रूपी उदित होते हुए सूर्य की उक्ति रूपी रश्मियाँ विद्वत्पुरुषों के अन्तःकरणरूपी स्फटिक भूमि में प्रकाशमान हो रही हूँ ।
डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार उपर्युक्त सन्दर्भ में प्रयुक्त अवभासते १२, संकीर्तयति, प्रस्फुरन्ति जैसे वर्तमान कालिक क्रियापद हरिवंशपुराण के रचयिता जिनसेन का इनको समकालीन सिद्ध करते हैं। हरिवंशपुराण की रचना शक सं० ७०५ ( ई० ७८३ ) में पूर्ण हुई है । अतः जिनसेन स्वामी का समय ई० सन् की आठवीं पाती हैं। जयधवला टीका को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसकी समाप्ति जिनसेन ने शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमी के पूर्वाह्न में की थी। इस टीका को वीरसेन स्वामी ने पूरा किया था, पर वे चालीस हजार श्लोक प्रमाण ही लिख सके थे। अपने गुरु के इस अपूर्ण कार्य को जिनसेन ने पूर्ण किया था। जिनसेन ने आदि पुराण का प्रारम्भ अपनो वृद्धावस्था में किया होगा, इसी कारण वे इसके ४२ पर्व ही लिख सके। अतः जयपवला टीका के
८९. डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास एक दृष्टि पृ० ३०१ ९०. M. G. Kothari, पाश्वभ्युदय -- Introduction पृ० २३ ९१. यामिताभ्युदये पार्श्वे जिनेन्द्र गुणसंस्तुतिः | स्वामितो जिनसेनस्य कौसि सङ्कीर्तयत्यसो ११४०
मानपुराणोद्यदादित्योषितगभस्तयः प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिक भित्तिषु १।४१ ९२. हरिण ११५९
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प्रस्तावना
अनन्तर आदिपुराण की रचना मानने से जिनसेन का अस्तित्व ई० सन् की मबम शती के उत्तरार्ध तक माना जा सकता है ।३।।
भिमसेन की रचनाये--जिनसेन महुश्रुत विद्वान् थे। इनको चार रचनाओं (१) पाम्युिदय (२) जयघबला टीका (३) आदिपुराण (४) वर्धमान चरित की जानकारी प्राप्त होती है। इनमें से वर्धमान परित की प्रति सम्प्रति अनुपलब्ध है । अन्य तीन रचनाओं का परिचय निम्नलिखित है
1) पाश्वभ्युदय-कालिदास के मेन दूत के लोकों के एक चरण अथवा दो चरणों को लेकर शेष अपनी ओर से जोड़कर तीर्थकर पाश्वनाथ भगवान और उनके
जन्म के पत्र कह के जोद सम्सारामुर थे. हारा किये गये उपसर्ग को आधार बनाकर प्रस्तुत काव्य की रचना की गई है। इस प्रकार यह एक समस्यापूर्व्यात्मक काव्य है । इस काम्य की रचना को प्रेरणा प्राचार्य जिमसेन को श्री बीरसेन मनि के शिष्य विनयसेन नामक मुनिराज से प्राप्त हुई थी। जैसा कि निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट है
श्रीवीरसेनमुभिपादपयोजभृङ्गः श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरोमान् । तच्चोवितेन जिनसेनमनीवरेण,
काव्यं व्यधायि परिवेष्टित्तमेघदूतम् ।। पाश्र्वा० ४।७१ इस काव्य में चार सग हैं जिनमें क्रमपाः ११८,११८, ५७ और ७१ श्लोक है
(२) जयषवला ठोका-आचार्य वीरसेन कपायपाहुष्ठ के प्रथम स्कन्ध की चार विभक्तियों पर जयघवला नामक बीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखने के दाद स्वर्गवासो हो गए अतः उनके शिष्य जिनसेन ने शेषभाग पर चालीस हजार फ्लोक प्रमाण टीका लिखी । यह टीका जिनसेन ने राष्ट्रकूट राजधानी के निकट ही वाटनगर (वारमामपुर) में, जो कि पंचस्तूपान्वयो स्वामी वीरसेन का शानकेन्द्र था, पूर्ण हुई। शक संवत् ७५९ में लिस्लो हुई जयपबला टीका में स्वामी वीरसेन, जिनसेन तथा गजा अमोघवर्ष का नाम निर्देश किया गया है..
इति वीरसेनीया टीका सूत्रादशिनी मटग्रामपुरे श्रीमद्गुजरार्यानुपालिते ॥ फाल्गुनिमासि पूर्वाह्र वशम्यां शुक्लपक्षके प्रवर्धमानपूजायां नन्दीश्वरमहोत्सवे ॥ अमोघवर्षराजेन्द्र प्राज्य राज्य गुणोवया ।
निष्ठितप्रचयं यायायाकल्पान्तमनस्पिका ॥ ९३.० मिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित मारत पृ. ३१
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पाश्र्वाभ्युदय
पष्टिरेव सहस्राणि ग्रन्थानां परिमाणतः । एलोकेनानुष्टुमेनात्र निर्दिष्टान्यनुपूर्वशः ॥ विभक्ति: प्रथम स्कन्धो द्वितीयः संक्रमोदयः । उपयोगच शेषास्तु तृतीयस्कन्ध इष्यते ॥ एकान्नषष्ठि समधिक सप्त शताब्देषु शकनरेन्द्रस्य । समतीतेषु लागलाय गाथासूत्राणि सूत्राणि पूणिसूत्र तु वार्तिकम् ॥ टीका वीरसेनीमा शेषा पद्धतिपचिका ॥ श्रीवीरसेनप्रभुभाषितार्थघटना निर्लोठितान्यागम । न्याया श्री जिनसेनसन्मुनिवरैरादेशितार्थस्थितिः ॥ टीका जयचिन्तोषला सूत्राचं संधोतिनी । स्पेयादारविषन्द्रमुज्ज्वलतमा श्रीपालसंपादिता ॥
जयघवला पु०५१९ जयला टीका संस्कृत मिश्रित प्राकृतभाषा में लिखी गई है। इसका सम्पादन मुनि श्रीपाल ने किया था।
धाविपुराण – आदिपुराण महापुराण का एक अंग है। महापुराण में ४७ पर्व हैं । इनमें से ४२ पर्व और तेतालीसवें पर्व के तीन लोक जिनसेन द्वारा रचे गए हैं। शेष पर्वो के श्लोक जिनसेन के शिष्य आचार्य गुणभद्र ने रखे हैं । आदिपुराण में महाकाव्य के लक्षण पूरी तरह घटित होते हैं। इसके साथ ही साथ यह एक पुराण भी है । अतः श्री मो० गौ० कोठारी इसे पुराण और महाकाव्य दोनों कहते हैं | आदिपुराण के काव्यश्व की प्रशंसा में उन्होंने लिखा ४ है -
Adipurana is a store of Apophthemas. It can be said that Adipuran is a Purana as well as Mahakavya, for almost all the characteristics of Mahakavya are found in it. It is full of sentiments and figures of speech. The language and the ideas conveyed by the Language of Adipurana are very pleasant. The flow of the Language is very smooth like that of water having no hindrance. The wonderful imaginative capacity is inherent in the author of the work. "
अर्थात् " आदिपुराण सूक्तियों का भण्डार है । आदिपुराण तथा महाकाव्य दोनों हैं, क्योंकि इसमें महाकाव्य के भो लक्षण पाए जाते हैं। यह कल्पनाओं ९४. पाम्मुदय- भूमिका पृ० ३२
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प्रस्तावना
२१ और अलङ्कारों से परिपूर्ण है। आदि पुराण के द्वारा जो भाषा और जो विचार व्यक्त किए गए हैं वे बड़े सुहावने हैं। भाषा का प्रवाह अप्रतिरुद्ध जलप्रवाह को भौति बहुत शान्त अश्यना मौसम है । कृति के देखा में मार्गाननक कसना. पाक्ति स्वाभाविक है ।" आदिपुराण की कथावस्तु के प्रधाननायक तीर्थकर ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत हैं।
प्रायः विद्वान् यह मानते हैं कि आदिपुराण और पाश्र्वाभ्युदय में पार्वाभ्युदय प्राचार्य को प्रपम रखना और आदिपुराण असिम रखना है। किन्तु थी मो० गौ० कोठारो आविपुराण को कवि को प्रथम, अयपबला को द्वितीय और पाम्थिवय को तृतीय रचना मानते हैं। उन्होंने पाम्युिदय को भूमिका में वीरसेन से लेकर हरिवंशपुराणकार जिनसेन तक की रपमाओं को कालक्रमानुसार निम्नलिखित सूची दी ५- (१) पवल ग्रन्थ की पूर्णता का काल शक सं०६०३ (६८१ ई.) (२) आदिपुराण
प , ६१० (१६८०) (३) जयबदला
६२४ (७०२ ई.) (४) पापर्वाभ्युदय (४) उत्तर पुराण
, , ६६७ (७३५ ई.) (६) महापुराण (पुष्पदंत कृत),
६८० (७५८ ई.) (७) हरिवंशपुराण
७०५ (७८३ ई०) ___ उपर्युक्त मन्तग्य को पुष्टि में उन्होंने अपने तर्क पाश्र्वाभ्युदय की भूमिका में दिए है, जो दृष्टव्य है। जिनसेन ने पाश्र्वाभ्युदय और महापुराण की रचना मान्यखेट में की। जिनसेन का चित्रकूट से भी सम्बन्ध रहा है, क्योंकि इसी चित्रकूट में एलाचायं निवास करते थे, जिनके पास जाकर बोरसेनस्वामी ने सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था। चित्रकूट को पहचान लोगों ने चित्तौड़ से की हैं।
जिनसेन के शिष्य गुणभन्न-जिनमेन के पट्टशिष्य आचार्य गुणभद्र थे, जिनका अमोघवर्ष तथा उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय दोनों ही सम्मान करते थे। इन्हें अमोघवर्ष ने अपने पुत्र का शिक्षक नियुक्त किया था। इन्होंने गुरु द्वारा प्रारम्भ किए गए महापुराण को संक्षेप में पूरा किया। इनके द्वारा लिखा गया भाग उत्तरसुराण कहलाता है। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासन, जिनदत्तचरित आदि मन्थ भी उन्होंने रघे । उत्तरपुराण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अमोध९५. पाश्र्वाभ्युदय भूमिका पृ. २१ ९६.० ज्योतिरसाद जैन, भारतोप इतिहास : एक दृष्टि द्वि० सं० पु० ३०२
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पाश्र्वाभ्युदय वर्ष जिनसेन की परणवन्दना मे माने पडले किन गाना EME वीरसेन जिनसेन के गुरु पे
अभवदिवहिमायसिन्धुप्रवाहो ध्वनिखिसकलामात्सर्वशास्त्रकमूर्तिः । उदयगिरितटाद्वा भास्करो भासमानो मुनिसुजिनसेनो वीरसेनादभुष्मात् ।। यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरतारान्तराविर्भय पादाम्भोजरजः पिशक मुकट प्रत्यारस्ततिः संस्मर्ता स्वममोघवर्षनुपतिः पूतोहमय स्पलं स श्रीमान् जिनसेन पूण्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ।।
(उ०पु० प्रशस्ति ८-९) अर्थात् जिस प्रकार हिमवान् पर्वत से गंगानदी का प्रवाह प्रकट होता है अथवा सर्वशदेव से समस्त शास्त्रों की मूर्तिस्वरूप दिव्यध्वनि प्रकट होती है अथवा उदयाचल के तट से देदीप्यमान सूर्य प्रकट होता है, उसी प्रकार उन वीरसेन स्वामी से जिनसेन मुनि प्रकट हुए। श्री जिनसेन स्वामी के देदीप्यमान नखों के किरण समूह धारा के ममान फलते थे और उसके बीच उनके चरण कमल के समान जान पाते थे । उनके अचरण कमलों की रज से जब राजा अमोघवर्ष के मुकूट में लगे हुए नवीन रत्नों को कान्ति पीली पड़ जाती थी, तब वह अपने आपको ऐसा स्मरण करता था कि मैं आज अत्यन्त पवित्र हुवा हूँ। उन पूजनीय भगवान् जिनसेनाचार्य के चरण संसार के लिए मंगल रूप हों।
जिनसेन को काव्य और कवि विषयक मान्यता-कवि के भाव अथवा कार्य को काव्य कहते हैं । कवि काव्य में निम्नलिखित गुण होने चाहिए"--
(१) वह प्रतीतार्य { सर्वसम्मत अर्थ सहित ) हो। (२) ग्राम दोष से रहित हो । (३) अलंकारों से युक्त हो। (४) रस और अलंकारों से सजीर्ण ( अस्पष्ट ) न हो।
कवि ने बतलाया है कि कितने ही विद्वान् अर्थ को सुन्दरता को वाणी का अलक्षार कहते हैं और कितने ही पदों को सुन्दरता को, किन्तु कत्रि के अनुसार
९७. कवर्भावोऽथवा फर्म काव्य तज्ज्ञ निरुच्यते ॥ आदि--१४ ९८. आपिपुराण १२९४
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प्रस्तावना
अयं और पद दोनों की सुन्दरता ही वाणी का अलंकार है ।१५ कवि भारवि भी शब्द और अर्थ दोनों को महत्व देना सत्कवि के लिए आवश्यक मानते हैं । जिनसेन का कहना है कि जो काव्य अलङ्कार सहित, रसयुक्त, सौष्ठ युक्त तथा मौलिक ( अनुच्छिष्ट ) होता है यह सरस्वती देवी के मुख के समान शोभायमान होता है ।१०१ काव्य में निम्नलिखित दोष नहीं होना चाहिए
(१) अस्पृष्ट बन्ध... रीति को रमणीयता न होना ! (२) पदों का विन्यास ठीक न होना । (३) रसहित गिः
उपयुक्त दोषों से युक्त काव्य जिनसेन की मान्यतानुसार काम्य नहीं, अपितु कानों को दुःख देने वाली ग्रामीण भाषा है |10 जो प्राचीन इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला हो, जिसमें महापुरुषों का परित्र असित हो तथा जो धर्म, और काम के फल को दिखाने वाला हो, उसे महाकाव्य कहते है । किसी एक प्रकीर्णक विषय को लेकर कुछ इलोकों की रचना तो कवि कर सकते है, किन्तु पूर्वापर का सम्बन्ध दिखलाते हुए काग्य की रचना करना कठिन है।०३।
जो अनेक अयों को सूचित करने वाले पदविन्यास से सहित, मनोहर रीतियों से युक्त एवं स्पष्ट अयं से उद्भासित प्रगषकाव्यों की रचना करते है, ये महाकवि कहलाते है। सच्चे कवि को कविता करने में दरिद्रता नहीं करना चाहिए। इस संसार में शब्दों को राशि अपरिमेय है, वर्णनीय विषय अपनी इच्छा के साधीन है, रस स्पष्ट है और उत्तमोत्तम छन्द सुलभ है तब कविता करने में परिद्रता क्या है ? विशाल बाद मार्ग में अमण करता हुआ जो कवि अर्थरूपी सघन वनों में घूमने से खेदखिन्नता को प्राप्त हुआ है उसे बिनाम के लिए महाकविरूप वृक्षों की छाया का आश्रम लेना चाहिए । प्रज्ञा जिसकी जड़ है, माधुर्य, ओज, प्रसाद आदि गुण जिसकी उन्नत शालाएं है और उत्तम शब्द हो जिसके उज्जवल पत्ते हैं ऐसा यह महाकविरूपी वृक्ष यवारूपी पुष्पमाजरी को धारण करता है। प्रज्ञा ही जिसका किनारा है, प्रसाद आदि गुण ९९, वही १९९५ १००. शब्दार्थो सत्कबिरित्यं विद्वानपेक्षते ॥ किरातार्जुनीयम् १०१. वही १२९६ १०२. वही १९६ १०३. आदि. १/९९.१०० १०४, आदि. १/९८ १०५. वही १/१०१
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पाश्वभ्युदय ही जिसमें लहरें है, जो गुणरूपी ररनों से भरा हुआ है, उच्च और मनोहर शब्दों से मुक्त है तथा जिसमें मुरु-शिष्य परम्परारूप विशाल प्रवाह चला या रहा है ऐसा यह महाकवि समुद्र के समान आचरण करता है ।१०६ इस प्रकार कवि ने यहाँ महाकवि को वृक्ष के समान उन्नत और समुद्र के समान गम्भीर बतलाया है।
निनसेन का पविश्य आचार्य जिनसेन धर्मशास्त्र के ज्ञाता होने के साथसाथ भारतीय दर्शन, राजनीति, कला, तत्कालीन सामाजिक जीवन आदि के अच्छे ज्ञाता थे। उनका आदिपुराण एक आकर ग्रन्थ है जिसमें नौवीं शताब्दी के भारत का भौगोलिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक और सामाजिक रूप चित्रित करने के साथ-साथ काव्य का चरम रूप उपस्थित किया गया है। आदिपुराण में प्रतिबिम्बित सांस्कृतिक जीवन, क्रीड़ा विनोद, गोष्ठियां, उसक, प्रत, उपवास, शिक्षा तथा ललितकलावें जिनसेन के सूक्ष्मयाही दृष्टि को अभिव्यक्त करती है। आदिपुराण में की गई भूत चैतन्यवाद, विज्ञानवान, शून्यवाद, क्षणिकवाद, सांख्यदर्शन, न्यायदर्शन, योगदर्शन, अद्वैतवाद, द्वैतवाद आदि की समीक्षा से विदित होता है कि उन्होंने विभिन्न भारतीय दर्शनों का आलोहन किया था। कर्मसिद्धान्त जैसे सूक्ष्म और कठिन विषय पर उनकी चालीस हजार लोक प्रमाण जयघवला की अवशिष्ट टीका उनके तलस्पर्शी शानको सूचित करती है। इन सब कारणों से लोगों ने उन्हें ज्ञानपिण्ड कहा, उसमें आश्चर्य और अतिरंजना के लिए अबकाश नहीं है। उनकी एक-एक कृति उनके पाण्डित्य का मूढान्त निदर्शन है। अपनी विद्वत्तापूर्ण और शिक्षाप्रद कृतियों के द्वारा भारतीय साहित्य और समाज में ही नहीं, विश्व साहित्य और समाज में अग्नगण्य रहेंगे।
पाश्र्वाभ्युदय के टीकाकार-पारम्धुिदय की संस्कृत टोका के टीकाकार योगिराट् पण्डिताचार्य श्रवणवेलगोला के जैनमठ के गुरु थे। उन्होंने पार्खाभ्युदय के अन्तर्गत बाई हुई मेघदूत की पंक्तियों की व्याख्या करते समय अत्यधिक रूप से मल्लिनाथ का अनुसरण किया है । उन्होंने जैनेन्द्रव्याकरण और मानार्थरत्नमाला को भी बहुषा उद्धृत किया है। नानारत्नमाला की रचना इतपदण्डनाथ ने की थी, जो कि जैन थे और विजयनगर राज्य के राजा हरिहर द्वितीय (शक सं० १३२१) के आश्रित थे। इस प्रकार योगिराट् पण्डिताचार्य का समय १३२१ के बाद का बैठता है।०७ पण्डिताचार्य जी ने उपोषात में लिखा १०६. वही १४१०२-१०४ १०७. पाम्पुिक्ष्य-प्रस्तावना (ले. पन्नालाल वाकसीवाल)
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प्रस्तावना
है कि एक बार कवि कालिदास बंकापुर के राजा अमोघवर्ष की सभा में आए और उन्होंने बड़े गर्व के साथ अपना मेघदूत सुनाना सीपमा में जिम स्वामी भी अपमे सघर्मा विनयसेन मुनि के साथ विद्यमान थे। विनयसेन ने जिनसेन से प्रेरणा की इस कालिदास का गर्व नष्ट करना चाहिए | विनयसेन की प्रेरणा पाकर जिनसेन ने कहा यह रचना प्राचीन है, इसकी स्वतन्त्र रचना नहीं है, किन्तु चोरी को हुई है। कालिदास ने कहा कि यदि यह कृति पुरानी है तो सुनाइये । जिनसेन स्वामी को एक बार सुनने पर कोई लोक पाद हो जाता था अतः उन्हें कालिदास का मेघदूत याद हो गया । उन्होंने कहा कि यह प्राचीन अन्य किसी ग्राम में विद्यमान है अतः आठ दिन बाद लाया जायेगा। अमोघवर्ष ने आठ दिन बाब उक्त ग्रन्थ को लाने का आदेश दिया। जिनसेन ने अपने स्थान पर आकर ७ दिन में पाश्चाभ्युदय की रचना की और आठवें दिन लाकर उसे राजसभा में उपस्थित कर दिया। इस काथ्य को सुनकर सभी प्रसन्न हुए और कालिदास का मान भंग हो गया। बाद में जिनसेन स्वामी ने सब बात स्पष्ट कर दी।
पण्डिताचार्य का उपयुक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अनेक प्रमाणों के आधार पर कालिदास का समय जिनसेन से बहुत पहले का निर्धारित हो चुका है। ऐहोल आदि के शिलालेख तथा अन्य साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं । अत: उपयुक्त कथन विश्वसनीय नहीं है। पण्डिताचार्य जो का यह कथन वास्तव में सही है कि श्री पाश्र्वनाथ से बढ़कर कोई साधु, कमठ से बढ़कर कोई खल और पाश्चाभ्युदय से बढ़कर कोई काव्य नहीं है
श्रीवारिसावतः साधुः कमठारखलतः खलः ।
पाश्र्वाभ्युदयतः काव्यं न क्वचिदपोष्यते ।। पाम्युिदय को दूसरी संस्कृत टोका कुछ वर्ष पहले जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से प्रकाशित हुई है। इसके लेखक मो. गो. कोठारी है, जिन्होंने प्रस्तावना में समय १ अगस्त १९६५ दिया है। योगिराट् पण्डिताचार्य को अपेक्षा यह टीका अधिक विशद् और सुबोष है। इस टीका पर पण्डिताचार्य जी के प्रभाव के साथ-साथ लेखक ने भावों को अभिव्यक्त करने में स्वतन्त्र रूप से अच्छा प्रयास किया है और हर प्रकार से इसे उपयोगी बनाया है।
-रमेशचन्द्र जैन
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पार्वाभ्युदयकाव्य सटीकम्
टीकाकारस्य मंगलापरणावि श्रियं विदध्याद्विमला सतां स श्रीपार्श्वनाथो नतसेन्द्रनाथः । यद्देहमावेष्ट्य रराज भोगी क्षणभेषामितनोरलाहे ॥१
जिनसेनमुनीशेन कृतस्य कविवेधसा । पाश्र्वाभ्युदयकाव्यस्य टोकां वक्ष्ये स्वशक्तितः ॥२॥ नामूलमाश्रयन्तोषन्नापि प्रस्तुतमुत्सृजम् ।
सर्वमन्वयरूपेण विवृणोमि मुक्तिभिः ॥३॥ अथ कथावतारः कथ्यते
इन्हेंब भरतक्षेत्रे सुरम्यविषये पौदनपुरे अरबिन्दनृपतिः भुवं पूर्व पालयति स्म । तदा विश्वमूतिनाम्नो द्विजन्मनोऽनुदर्याश्च तनयो कमठमरुभूतिसंज्ञको तद्भपतेर्मविपदं प्राप्तौ । तयोः क्रमेण वरुणा वसुन्धरा च भार्य बभवतः। तयोः कनीयान् मरुभूतिः कदाचित् वजबीरिपुराजविजयाय निजस्वामिनारविन्दभूपनामा' जगाम । तवा लब्धावसरो दुराचारो ज्यायान् कमठ स्वभार्यावरुणामुखेन वसुन्धरां भ्रातपत्नीमङ्गीकारयामास किल । राजा विपक्षविजयाऽनन्तरं स्वपुरा. गमने तत्ति ज्ञात्वा भ्रातपत्नौमितस्य का वाजेति मरुभूत्ति पृष्ट्वा ( श्रुत्वा ) तद्वचनानुसारेण पुर प्रवेशात्पूर्वमेव भृत्यमुत्रेन दुःसहामानां कारयित्वा अस्मच्चक्षुविषयो माभूति पुरात्कमळं निर्धारयामास | सोऽपि भ्रातरि .दो वनं गत्वा तापसवृत्ति बभार । अथ मरुभूति रागत्य भ्रातृवार्तामाकलय्य पश्चात्तापाद्गस्था तमन्त्रिम तरकोपशमनाय पादयोरानमस्तेनैव क्रोधाग्धेनमस्तकस्थ शिलापातेन मारितः । एवं भवान्तरेप्यपि तेनैत्र मतिम् मत्वा कश्चिदभवे तीर्थंकरनाम सम्वाऽव काशी विषय वाराणसीनगर्यो विश्वसेन महाराजस्य ब्राह्मोदेयाश्च सूनुः पञ्चकल्याणाधिपतिः पार्श्वनाथनामा मरुभूतिचरस्तीर्थकरो बभूब । कमठचरस्तु चिर मसारे भ्रमित्या शम्बर नामा ज्योतिरिन्द्रो भूत्वा स्वरविहारसमये परिनिष्क्रमण कल्याणाऽनन्तरं प्रतिमायोगस्थितं तन्मुनीन्द्रं विलोम प्राक्तनविरोधेन घोरोपमर्ग चकारेत्यादि कथा सङ्गति विस्तरेण तरपुराणेऽवगन्सब्या । अत्र ज्योतिरिन्द्रस्य शम्बरस्यास्य दैत्यन्द्रत्वं पक्षन्द्रत्वं वा तस्यालकापुरवासित्वं वर्षमात्रानुभवनीय स्वभशापप्रभृति सर्वच परकाव्यानुसरणमात्रस्वातु काल्पनिकतयोपगम्म अतीतवर्तमानभवयोरभेदभावन प्रबन्योऽयं विरचिसो बुद्धिमद्भिरवसेयः ।।
अथ भगवान् जिनसे नाचायः प्रथम पावेष्टितान्युपक्रमन् आशोर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशी वा कृतेर्मुखम् इति वचनाद्वस्तुनिर्देशेन कथा प्रस्तौति१. अमा सहेत्यर्थः । २, निरकासयत् ।।
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पाश्र्वाभ्युदय
कथावतार
इसी भरतक्षेत्र के पोदनपुर नगर में राजा अरविन्द पृथ्वी का पालन करता था। उसके विश्वभूति नामक ब्राह्मण से उत्पन्न जिनका नाम क्रमशः कमठ और मरुभूति था, मंत्री थे। उन दोनों की क्रमशः वरुणा
और वसुन्धरा पत्नी थीं। उनमें से छोटा भाई मरुभूति एकबार वनवीर्य नामक शत्रु राजा पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने राजा अरविन्द के साथ गया । अवसर पाकर दुराचारी बड़े भाई कमठ ने अपनी पत्नी वरुणा से कहलाकर वसुन्धरा नामक भाई की पत्नी को अङ्गीकार कर लिया। राजा जब शत्रु पर विजय प्राप्त कर स्वदेश आया तो उसे कमठ का दुराचार मालुम हुमा । उसने मरुभूति से भाई की पत्नी को अङ्गीकार करने वाले का क्या दण्ड होता है, पूछकर मरुभति के नगर में प्रवेश करने से पहले ही सेवक के मुख से दुःसह आज्ञा दिलाकर, हमारी आँखों से ओझल हो जाय, ऐसा कहकर कमठ को नगर से बाहर निकाल दिया। कमठ भी भाई पर ऋद्ध हो वन में जाकर तापस का याचरण करने लगा। जब मरुभूति आया और उसे भाई का समाचार ज्ञात हया तो उसे बड़ा पश्चाताप हुआ । वह उसे खोजकर उसके क्रोध की शान्ति के लिए उसके दोनों चरणों में गिर पड़ा । कमठ ने क्रोधित होकर अपने मस्तक पर स्थित शिला उसके ऊपर गिरा दी, जिससे वह मर गया । इसी प्रकार दूसरे भवों में भी उसी के द्वारा मारा जाकर मरुभूति का जीव वाराणसी नगरी के विश्वसेन महाराष की पत्नी ब्राह्मी देवी के पाश्वनाथ नामक तीर्थंकर पद का धारी, पञ्चकल्याणाधिपति पुत्र हुआ। कमठ का जीव चिरकाल तक संसार में भ्रमण कर शम्बर नामक ज्योतिषी देव हुआ। एक बार जब पार्श्व दीक्षा मल्याणक के अनन्तर इच्छानुसार विहार करते हुए प्रतिमायोग में स्थित हो गए तो उन मुनीन्द्र को देख कमठ के जीव ने उन पर घोर उपसर्ग किया, इस प्रकार सम्पूर्ण कथा पुराणों से विस्तारपूर्वक जानना चाहिए। यहाँ पर शम्बर नामक ज्योतिषी देव का दैत्येन्द्र अथवा यक्षेन्द्र होना, अलकापुरी में निवास करना, अपने स्वामी के द्वारा एक वर्ष के लिए शाप दिया जाना आदि दुसरे काव्य का अनुसरण मात्र होने से कल्पित हैं। अतीत और वर्तमान जन्म में अभेद की स्थापना करते हुए इस प्रबन्ध की रचना की गई है, ऐसा विद्वानों को जानना चाहिए ।
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प्रथम सर्ग अब भगवान् जिनसेनाचार्य आशोर्वाद, नमस्कार अथवा वस्तुनिर्देश में से वस्तुनिर्देश के द्वारा कथा का प्रारम्भ करते हैं
श्रीमन्मूल मरकतमयस्तम्भलक्ष्मी वहन्त्या, योगैकाग्र्यस्तिमिततरया तस्थिवांसं निदध्यौ । पाइर्व देस्यो नभसि बिहरन्बद्धवरेण दग्धः,
कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकाराप्रमत्तः ॥१॥ श्रीमन्मूत्येत्यादि । भरकसमपस्तम्भलक्ष्मीम-मरकतस्य विकारों मरकतमयः । 'गारुत्मतं मरकतम्' इत्यमरः । मरकतमयरचासौ स्तम्भएन तथोषप्तस्तस्य लक्ष्मी शोभा हरितवर्णकान्तिमित्यर्थः । बहत्या-वहतीति वहन्ती। 'सलुङ्वत्स्यलुटो' इति शत प्रत्ययः । 'शप्स्यादिनभन्दुगिदंचोस्वादेः' इति । तथा विभ्रत्येति भावः । योगेकाम्यस्तिमिततरया-एकाग्रस्य भावः ऐकायमनन्यत्तिता । योगस्थ ध्यानस्यकायं तथोक्तम् । प्रकृष्टा स्तिमिततरा । "स्तिमितोऽचञ्चले क्लिन्ने' इति विश्वः । योगकाग्रमेण स्तिमिततरा तथोक्ता । योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु । एकतानोऽनन्यवृत्तिरेकाम्यंकायनावपि' इत्युभयत्राप्यमरः । तया ध्यानकतानता स्थिरतरयेति यावत् । श्रीमग्मा -पुष्पवतः पुरुषान् श्रयतोति श्री लक्ष्मीः श्रीरस्यास्तोति श्रीमती । 'अस्त्यर्थे मतुः' । 'नदुग' इति । वनषभनाराच संहननसमचतुरस्र संस्थानत्वसाण्टशतमहालक्षणलक्षितलादि महिमावतीति भावः । श्रीमती चासो मूत्तिरच तथोक्ता । 'स्त्रियां मूर्तिस्तनस्सनः' इत्यमरः । मानिस्त्र्यकार्ययोस्त्र्यन्यतोनः' इति पुंभावः । तया परमौदारिक दिव्यदेहेन । तस्थिवासम्तस्थाविति तस्थिवान् । 'लिटः नवसुकानों' इति स्वसुः । 'उगिचोवेधादेः' इति नम् । तस्थिवन्तमित्यर्थः । पाश्र्व-पाश्र्वनाथामिधानं प्रयोविंशतितम तीर्थकर परमदेवम् । मसि-आकाशे। 'नभोन्तरिक्षम्' इत्यमरः । विहरत-विहरतीति विहरन् । 'शतुसगिदचः' इति नम्। स्वरविहारोति भावः । फास्ताविरहगुरुणा-कान्ताया वनिताया जातो विरहो विप्रयोगः कान्ताविरहः । 'मयूरख्यसकादयः' इति समासः । तेन युवति विप्रलम्भेन । गुरुणा महदभूतेन । 'गुरुस्तु गीष्पत्ती घेण् गरी पितरि दुर्भर' इति शब्दार्णवः । बद्धवरेण-बध्यते स्म बद्धम तच्च तदरं घेतिकसः । जैनेन्द्रन्याकरणपरिभाषायां कस इति सम्ञा कर्मधारयस्य । वैर विरोधः इत्यमरः । तेन । पुरानुबद्भविद्वेषेण । सधः-दधते स्म दग्धः । 'क्तवतवतू' इति क्तः । करहृदय इत्यर्थः । स्वाधिकारात-स्वस्याधिकारः स्वाविकारः । 'स्वो ज्ञातावात्मनि' इत्यमरः । तस्मात् स्वकीय प्राधान्यात् । प्रमत्तः-- प्रमाद्यते स्म प्रमत्तः अनवहितः । 'प्रमावोऽनवधानता' इत्यमरः । 'अपायेऽव!' इति पञ्चमी। करिषद्बरपा-फोप्यसुरः। 'असाफल्ये तु किञ्चन' इत्यमरः ।
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४०
पार्वाभ्युदय पाम्बरनामा देव इति भावः । निवण्यो-प्रेक्षाञ्चक्रे । 'ध्यं स्म' चिन्तायाम् । कतरि लिट् । अत्र काव्ये सर्वत्र मन्दाक्रान्तानि वृत्तानि । 'मन्दाक्रान्ता कृहमदीदू' इति रत्नमञ्जूषिकायामुस्तत्त्वात् ।।१।।
अन्वय-कान्ताविरहगुरुणा बद्धवरेण: दानः स्वाधिकारात प्रमत्तः नसि बिहरन् कश्चित् दैत्यः मरकतमम स्तम्भलक्ष्मी वहन्त्या योगैकाग्रस्तिमिततस्या श्रीमन्मयां तस्थिवांसं पावं निदध्यौ ।
अर्थ-प्रिया के विरह से दुःस्ली, ( पूर्वभव में जिसका विरह हुआ था, वह धर्मपत्नी नहीं, अपितु भाई की पत्नी थी, भार्या के रूप में अङ्गीकृत किए जाने पर उसका उसके साथ राजा की आज्ञा से वियोग हुआ था। राजा के द्वारा दण्डित होने पर उस व्यक्ति ने अपने भाई से वैर बाँधा) पूर्वजन्म में बाँधे हुए वैर से प्रज्ज्वलित कोपाग्नि वाले, अपने ऐश्वर्य या सामर्थ्य ( देवसुलभ प्रभाव ) के कारण उन्मत्त, आकाश में विहार करते हुए किसी ( शम्बर नाम बाले ) दैत्य ने मरकतमणि निर्मित स्तम्भ की शोभा ( हरितवर्ण को कान्ति ) को धारण करने वाले, ध्यान की एकाग्रता के कारण अधिक स्थिर, शोभायमान शरीर से युक्त पार्श्वनाथ भगवान् को स्थित ( कायोत्सर्ग मद्रा में स्थित ) देखा ||१||
व्याख्या-किसी एक दैत्य ने जो कि अपने पुराने वैर के कारण कोपाग्नि में जल रहा था ( क्योंकि पूर्व जन्म की प्रेमिका से उसका विरह हो गया था) तथा जो वर्तमान देव पर्याय की सामर्थ्य के कारण उन्मत्त था, भगवान् पार्श्व को देखा । भगवान् पार्श्व ध्यान लगाए हुए कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित थे। उस समय उनको शोभा मरकतमणिनिर्मित स्तम्भ की शोभा के समान हो रही थी । गहन-समाधि में मस्तिष्क की एकाग्रता के कारण वे अत्यधिक अचंचल थे। बजवृषभनाराचसंहनन, समचतुलसंस्थान और १०८ महालक्षणों आदि को धारण करने के कारण उनका शरीर अत्यधिक शोभित हो रहा था ।।१।।
तन्माहात्म्यास्थितवति सति स्वे विमाने समानः, प्रेक्षाञ्चन भ्रकुटिविषम लब्धसंज्ञो विभागात् । ज्यायान्भ्रातुवियुतपतिना प्राक्कलत्रेण योऽभूअछापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ॥ २॥ तनमाहात्म्यादिति । तम्माहारम्यात्-महश्चिासावारमा प महात्मा तस्य भावो माहात्म्यम् । 'पतिराजान्तः' इति भावे टयण 'आरपोवादेः' इति आकारः । तस्य पार्श्वनाथस्य माहात्म्य तथोक्त तस्मात् । तत्तपोमहिम्न इति भावः ।
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प्रथम सर्ग
स्वकीये । स्वं विष्वात्मीय इत्यमरः । विमाने---व्योमयाने 'व्योमयानं विमानोस्त्री' इत्यमरः । स्थिति सति-तिष्ठति स्मेति स्थितवान् । 'क्तक्तवत' इति क्तवतुप्रत्ययः । तस्मिन् । स्तम्भित इत्यर्थः । अस्तीति सन् ‘शतृत्य नमरत्योः' इत्यरलुक् । तस्मिन् प्राक् पूर्वभवे । विद्युतपतिना विश्रुतो विमुक्तः पतिर्भर्त्ता यस्य तथेति वसः । तेन । भ्रातुः मरुभतेः कालनेण भायंया वसुन्धरया । 'कलनं श्रोणिभार्ययोः' इत्यमरः। भर्तः अरविन्दराजस्य। 'भर्ता धातरि पोष्टरि' इत्यमरः । वर्षभोग्घेण वर्ष भोग्योवर्षभोम्यः । 'कालावनोः' इति द्वितीया समासः । तेन शापेन आज्ञया अस्तंगमितमहिमा अस्तं नाशं 'अस्तमदर्शने' इत्थमरः । गमितः प्रापितो महिमा माहात्म्य यस्य सोऽस्तंगमिलमहिमा । मानेन सह वर्तते इति समानः 'चान्यार्थे' इति सहस्य सभावः । साहंकारः । गर्योऽभिमानोऽहंकारों मानश्चित्तसमुन्नतिः इत्यमरः । यो ज्याषान् अप्रजः । 'वर्षीयान्दशमीज्यायान्' इत्यमरः , कभू अजनिष्ः । ७ दम-fivirie प्रजा. विमान! स्मात् । विचारात् विभंगज्ञानादित्यर्थः । लम्पसंशः प्राप्तपूर्वभवरमरणः सन् । 'लम्ध प्राप्त विन्तम्' । 'सज्ञा स्याच्चेतना नाम' इत्युभयत्राप्यमरः । अकुटिविषम भ्रकुट्योः क्रोधोद्भुतभ्र विकारयोः विषमे कुटिलं यथा भवति तथा । 'प्रकुटि कुटिन कृष्टिः स्त्रियाम्' इत्यमरः । प्रेक्षाच अद्राक्षीत। ईक्ष दर्शने इति धातुः । 'दपाय' इत्याम् । कुमो योगे लिट् ॥२।।
अन्वय-तन्माहात्म्याम् स्वे विमाने स्थित वति सति विभागात् लब्धतंज्ञः समानः, प्राक् वियुतपतिना भ्रातुः कलत्रेण यः ज्यायान् ( शाः) मभूत् ( तेन ) वर्षभोग्येण भतु: शापेन अस्वङ्गमितमहिमा भ्रकुटिविषं प्रेक्षाञ्चक्रे ।।
अर्थ- भगवान पार्श्व के माहात्म्य से अपने विमान के स्थित हो जाने पर उसने विचार कर विभङ्गावधि ज्ञान से ) उन्हें पहिचान लिया । पूर्वजन्म में जिसका पति त्रियुक्त हो गया था या दूर चला गया था ऐमी भाई मरुभूति की पत्नी ( वसुन्धरा ) के कारण जिसे बहुत बड़ा बहिनिष्कासन रूप दण्ड मिला था और अनेक वर्षों में भोगे जाने वाले राजा अरविन्द के बहिनिष्कासन रूप दण्ड से जिसका गौरव नष्ट हो गया था, ऐसे उस अभिमानी देस्य ने उन्हें भयजनक दृष्टि से ( भौंह चढ़ाकर ) देखा।
व्याख्या-मरुभूति जब युद्ध के लिए गया था तन्त्र उसकी पत्नी के साथ उसके भाई ने सहवास किया था। जिसके कारण राजा ने उसे बाहर निकलने का दण्ड दे दिया था। इस दण्ड के कारण दैत्य के जीव का पूर्वजन्म में गौरव नष्ट हो गया था 1 अत: उस दैत्य ने जब अपने भाई को 'पार्श्वनाथ के रूप में देखा तो क्रोधजन्य विकार के कारण उस पर भौंहें चढ़ा ली। पार्श्वनाथ के माहात्म्य से उसका विमान आकाश में रुक गया
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पाश्र्वाभ्युदय था । जिनकी आत्मा महान होती है, वे महात्मा कहे जाते हैं । महात्मापर्ने के भाव को माहात्म्य कहते हैं ।
यो निर्भत्सैः परमविषमैर्घाटितो भ्रातरि स्वे, बद्ध्वा वैरं कपटमनसा हा तपस्त्री तपस्याम् । सिन्धोस्तोरे कलुषहरणे पुण्यपण्येषु लुब्धो,
यक्षश्चक्र जनकतमयास्नान पुण्योदकेषु ||३|| य इत्यादि । मः यक्षः भविष्यदेवः कमठः । परमविपर्मः परमाश्यते विषमाचतः । निर्भः धिक्कारैः । पारितः पुराग्निष्कासितः । स्वे स्वकीये । भ्रातरि सहोदरे । और विद्वेषम् । अथ्वा विधाय । सपस्वी तापसोभूत्वा ! तपोऽस्यास्तीति तपस्वी । 'तपस्नग्माया-' विन् 'त्यः स्तमत्वर्थः' इति पदसध्यायां भावात् रीत्वोत्वाभावः । पुण्यपण्येषु पुण्यमेव पण्यमापणयोग्यवस्तु येषां तेषु । 'स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यम्' "विक्रेयं पणितव्यं च पण्यं क्रय्यादयस्त्रिष' इत्युभयवाप्यमरः । बनकसनयास्नान् पुण्योदकेषु जनकस्य राज्ञः तनघा सीतादेवी तस्याः स्नानमभिषेचनम् तस्य पुष्पाणि पुण्यानीव पुण्यानि परमपतिवतासंस्पर्शात् पुण्यरूपाणि उदकानि जलानि तथोक्तानि तेषु । अत्रोदक शम्दस्य बहुवचनं कूपसरोपीषिकावितीर्थविशेष सूचयति । लुधष, अभिलाषकः । स्नानपानापयोगमिच्छन्नित्यर्थः । 'लुब्धोऽभिलाषुझः' इत्यमरः । कलुषहरणे पापापस रणनिमिते । 'कलुपं वृजिननोघमहो दुरितदुष्कृतम्' इत्यमरः । सिन्धोः सिन्धुनामनद्याः । तोरे कूले । 'कूलं रोघरच तीरं च' इत्यमरः । कपटमनसा कपटेन युक्ते मनस्तथोनतं तेन 'कपटोऽस्त्रो व्याजदम्भोपधयः' इत्यमरः । तपस्या 'नमोवरिवस्तपसः मयच्' इति क्यच त्यः । रुपस्या तपश्चरणम् । चक्रे विदधे । हा हन्त । हा विषादात्तिषु' इत्यमरः ॥३॥
अन्वय-यः परमविषमैः निर्भरः पाटितः । सः अर्य) यक्षः स्वभ्रातरि वर बवा पुण्यपण्येषु जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु लुब्धः सिन्धोः तौरे कलुषहरणे तपस्वी हा ! कपटमनसा सपस्यां चने । ___ अर्थ-जो अत्यधिक विषम धिक्कारों से अत्यधिक दुःख को प्राप्त हुआ था अथवा बाहर निकाल दिया गया था, ऐसे उस यक्ष ने अपने भाई से वैर बांधकर लोभयुक्त हो ( सकाम भावना से ) पुण्यवानों के द्वारा क्रय ( ग्रहण ) करने योग्य, सीता के स्नान करने से पवित्र जल का इच्छुक होकर सिन्धु नामक नदी के पापों का हरण करने वाले तीर पर खेद की की बात है, कामट मन से तपस्या की।
भावार्थ--राजा द्वारा निकाले जाने पर दुःखी होकर उस यक्ष के जीक ने तपस्या की।
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प्रथम सर्ग
४३.
तस्यास्तीरेमुद्हरुपलवान्नवंशोषं प्रशुष्यन्नुवाहस्सन्परुषमननः पञ्चतापं तपो यः । कुर्वन्न स्म स्मरति जडधीस्तापसानां मनोज्ञां, स्निग्धच्छायातरुषु यति रामगिर्याश्रमेषु ।। ४ ।। तस्या इत्यादि । कमठः जडनीः मन्दबुद्धिः । तस्याः सिन्धुनद्याः । तोरे माले i मः पुनः । बुदः शादी कर माः' इत्यमरः । उपलवान उपलोऽस्यास्तीति उपलवान् 'अस्यास्ति' इति मतुः । 'मान्तोकान्तः' इति वः । 'उगिदः' इति नम् । 'न्यक' इति दीर्घः । दृशदं धरन् । ऊध्वंशोषं प्रशुष्यन् । ऊर्ध्वशोष प्रशष्यतीसि ऊर्वशोषं प्रशष्यन् । 'शातत्यः ।' 'त्युिः शुषः' इति णम् | आतपेन सन्तप्यमानमस्तकाद्य वयवः सन् । उदाहः उद्गती बाहू यस्येति बहुव्रीहिः। उद्धृतभुजः । “भुजबाहू प्रवेष्टो दोः' इत्यमरः । परुषमननः पर्ष कठिनं मननं चिन्तनं यस्मेति बहबीहिः। 'निटरं कठिनम्' इत्यमरः । पञ्चतापं. पश्चतापाः यस्मिन्निति बहुब्रीहिः 1 तपः तपश्चरणम् । पञ्चाग्निमध्यस्थितिरूपं कायमानशोषणमिति यावत् । कुर्वन् करोतीति कुर्वन् स । म'धन् । 'शतृत्यः' 1 स्निम्वच्छायात स्निग्धाः सान्द्राः छायातरयः नमेरुवृक्षाः येषु नेषु । सुषवसतियोग्यस्त्रित्यर्थः । 'स्निग्यं तु ममणे सान्द्रे' 'छायावृक्षो नमेरुः स्यात्' इत्युभयत्र शब्दार्णवः । रामगिनिमेषु गिरिनामपर्वतस्थिततापसाय मेषु । तापसाना तपशि नियुक्तास्तापसारतेषाम् । मनोशा रम्याम् । 'मनोज्ञं मञ्ज मजलम्' इत्यमरः । वसति स्थानम् । म स्मरति स्म न ध्यायति स्म । 'स्मे च लिट्' हति भूतानथतनेर्थे लिट् । मनसाभि नास्मरदिस्यभिप्रायः ||४||
अन्वय--यः जड़धी : उपलवान् अवशोषं प्रशुष्यन्, तस्याः तीरे उद्वाहः सन् पश्चतापंतपः मुहुः कुर्वन् परुपाननः रामगिर्याश्रमेषु स्निग्धच्छायातरुषु तापसानां मनोज्ञां वसति न स्मरति स्म ।
अर्थ-जो जड़ ( मन्द ) बुद्धि वाला ( मूर्ख ) पत्थर को लिए हुए, शरीर के कारी भाग में स्थित मस्तक आदि अवयवों को आतप से सन्तापित करता हुजा, उस सिन्धुनदी के किनारे दोनों भुजाओं को ऊपर कर पञ्चाग्नि तप को बार बार बारता हुआ, कठोर निन्तन करता हुआ
१. अत्र तापसानां मिथ्यातपस्विनां सम्बन्धि पंचाग्निमध्यस्थितिरूपं तपः कुर्वन्
मनोशा सकलभोग्यद्रव्यजातरितत्वेन रमणीयां वसति सदन "बसती रात्रिवेश्मनोः" इत्यमरः ॥ नास्मरविश्यपि भाति ।
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पाश्वभ्युदय
धनी छाया वाले ( नमेरु ) वृक्षों से युक्त रामगिरि पर्वत पर स्थित आश्रमों में तपस्वियों के मनोहर निवास स्थान का स्मरण नहीं करता था ।
व्याख्या -- वह मूर्ख यक्ष प्रायः हाथ में पत्थर को लेकर दोनों भुजाओं को ऊपर कर मस्तक आदि ऊपरी अजों को सन्तापित करता हुआ पञ्चाग्नि तप करता था | रामगिरि पर्वत के आश्रम में स्थित धना छाना या वृक्षों से युक्त तपस्वियों के रमणीक निवास स्थान की याद नहीं करता था ।
रामगिरि पर्वत प्राचीन काल में तपस्वियों का मनोहर निवास स्थान था | रामगिरि की पहचान लोगों ने रामटेक से की है, जो कि नागपुर के समीप है । अन्य लोगों के मतानुसार रामगढ़ पहाड़ी मध्यप्रदेश में है 1 तपः साधना करते हुए कमठ ध्यान में इतना लवलीन रहता था कि उसे • अपने निवास स्थान की याद ही नहीं आती थी । वैदिक परम्परा के अनुसार अन्वाहार्य, पचन, गार्हपत्य, आहवनीय और आवसथ्य में पांच अग्नियाँ होती हैं । पञ्चाग्नि तप करने वाला गर्मी की ऋतु में अपने चारों ओर अग्नि जला लेता है और ऊपर से सूर्य के ताप का सेवन करता है।
यस्मिन्प्रात्रा स्थपुटिततलो बाववग्धाः प्रवेशाः, शुष्का वृक्षा विविधवृतयो नोपभोग्या न गम्याः । यस्माद् ग्रष्मान्नयति दिवसा०शुष्कवैराग्यहेतोस्तस्मिन्नौ कतिचिव बलाविप्रयुक्तः स कामी ||५||
यस्मिन्नित्यादि । यस्मिन् पर्वते । प्रावा उपलः । जात्यैकवचनम् | 'ग्रावाणी 'पोलपाषाणी' इत्यमरः । स्थपुटिततलः स्त्रपुटितं निम्नोन्नत तलमवः प्रदेशो यस्येति बहुब्रीहि 'स्थपुढं विषमोन्नतम्' इति घनञ्जयः । 'अधः स्वरूपयोरस्त्री तल स्यात्' इत्यमरः । प्रवेशा: अरण्यदेशाः । दावदग्धा दावाग्निना अस्मिताः । 'दवदावो वनारण्ये' इत्यभिधानात् । वृक्षा स्तरणः । शुष्यन्ति स्म शुक्काः । कल्पः " शुष्यचः क्म्' इति तस्य कः । विविषवृत्तयः विविधाश्च ताः बृतयश्चेति बहुव्रीहि: । 'विचित्रः स्याद्वविधम्' इति । 'प्राचीनं प्रान्तको वृतिः' इति च वचनात् प्रान्तावरणानीत्यर्थः उपभोग्या न स्थातुं योग्या न भवन्ति । गम्पाश्च न विहारयोग्याश्च न भवन्ति । तस्मिन् गहो तवामगिरी । यः अमला विप्रयुक्तः स्त्रीविमुक्तः सन् । शुष्कवैराग्यहेतोः निष्फलविरक्तिनिमितम् । कतिचित् कियतः ।
पान हमे ग्रष्मास्तान् । दिवसान् वासरान् । 'क्लीबे दिवसवासरी' इश्यमर | यति हम यापयति स्म । स कामी विषयाभिलाषुकः । कमठः सोसाविति नवमवृत्तेनाकाङ्क्षानिवृत्तिः ॥५॥
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प्रथम सर्ग
अम्बय-यस्मिन् मावा स्थपुटिततलः, प्रदेशाः दावदग्धाः, वृक्षाः, शुष्काः न उपभोग्याः विविधवृतयः न गम्याः तस्मिन् अद्रो यः अबलाविप्रयुक्तः स कामी शुष्कवैराग्यहेतोः कतिचित् अष्मान् दिवसान् नयति स्म। ____अर्थ-जिसमें पत्थर ऊँचे नीचे तल भाग वाले थे, जिसके प्रदेश दावाग्नि से दग्ध थे, जहां वक्ष शुष्क होने के कारण उपभोग के योग्य नहीं थे, अनेक प्रकार के काँटों से नेष्टित होने के कारण गामा करने योग्य नहीं थे उस भूताचल पर्वत पर अपनी भाई की पत्नी इत्वरिकातुल्य बसुन्धरा से अलग हुए उस कामी ने शुष्क वैराग्य के कारण कुछ गर्मियों के दिन बिताये। __व्याख्या-वह भूताचल पर्वत पत्थरों के पड़े रहने के कारण ऊँचा नीचा था । वहाँ गर्मी के कारण वृक्ष सुख गए थे। अतः उनसे फलादि की प्राप्ति नहीं हो सकती थी। उस प्रदेश में अनेक काटे आदि पड़े हुए थे, अतः वहीं गमन करना कठिन था। ऐसे स्थान पर कमठ तपस्या करता था, किन्तुं उसके वैराग्य का कारण शक था; क्योकि वह काम और क्रोध से अभिभूत होकर तपस्या कर रहा था । अपने भाई की पत्नी के साथ सहवास करने के कारण वह कामी था और चूंकि राजा अरविन्द ने उसे देशनिकाला दे दिया था, इस कारण वह क्रोधित था। यहां वसुन्धरा के लिए अबला शब्द प्रयुक्त करने का कधि का तात्पर्य यह है कि कमठ ने उसके पति की अनुपस्थिति में उसके साथ सहवास किया था और वह उसकी. योजना को असफल करने में असमर्थ थी, अतः अबला थी।
यं चान्विष्यन्धनमथ नदीमत्तरारोहशैलानित्युझान्तश्विरमनुशयाभ्रातृभक्तः कनीयान् । शोकाद्देहे कतिचिदवशावत्यनूचानवृत्त्या,
नीत्वा मासान्कनकवलय_शरिक्तप्रकोष्ठः ।।६।। यं चेत्यादि । अथ अमन्तरे। 'मङ्गलानन्तरारम्भप्रपनकात्सर्येष्वथो अथ हत्यमरः । भ्रातृभक्तः ज्येष्ठभ्रातृयत्सलः । कनीयान् मरुभूतिः। 'कनीयांस्तु युवाल्पयोः' इत्यमरः । वेहे शरीरे। मवशात् अनवीनात् । अपरिमितादित्यर्थः। बरकात दुःखात् । कनकवलय अंतरिक्तप्रकोष्ठः । कनकस्य वलय इति तत्पुरुषः । 'कटक वलयोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः सस्प । भ्रशाः पातः | 'षो अंशो यथोचिसात्' इत्यमरः । तेन रिक्तो विकला प्रकोष्ठः कुर्पराघः प्रदेशो यस्य स तथोक्तः सन् । 'कक्षान्सरं प्रकोष्ठः स्यात् । प्रकोष्ठ कूपरः' इति शाश्वतः । 'स्पात्लफो.
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पार्वाभ्युदय णिस्तु कूपरः । अस्योपरि प्रगामः स्यात्प्रकोष्ठस्तस्य चाप्यवः' इत्यमरश्च । अत्रोपलक्षणभूतेन वलयभ्रंपोन दुःखाधियं विरागश्च व्यज्यते । अस्पनूचामवृस्पा अत्यन्तविनीतवतंनेन । 'अनूचानो विनीते स्यात्साङ्ग वेदविचक्षणे' इति विश्वः । 'वृत्तिर्वर्तनजीवने' इत्यमरः । कतिचित् फियतः । मासान नौस्या यापयित्वा । अनुशयात् पश्चात्तापात् । 'अथाऽनुशयो घोघ द्वेषानुतापयोः' इत्यमरः । यं च भातरम् । गनिमाता अन्वयः ! TEEL : गोप काग | उत्तरारोहोलान् उत्तरः आरोहो येषां शैलानां ते तथोक्तास्तान् उपरिभाषप्रचारयोग्यामद्रीनित्यर्थः । 'उपर्युदीच्यश्रेष्ठेष्यप्युत्तरं स्वादनुस्तरम्' इत्यमरः। मन्त्र शैलस्य उत्तरारोहविशेषर्ण नरविहारोचितानाम-द्रीणां निरवशेषत्वं व्यजयति । चिरं बहवासरान् । 'चिरायचिररात्रायचिरस्याद्याशिवरार्थकाः इत्यमरः । उपभ्रान्तः परिचमति स्म ॥६||
अन्यय--पंच' अनुशयात् अन्दिष्यन् भ्रातृभक्तः अवशात् शोकात् देहे अत्यनृचानवस्या कनकवलय प्रशरिक्त प्रकोष्ठः कनीयान् कतिचित्त मासान् मीत्वा धनं, नदी अथ उत्तरारोहीलान् चिरं अत्युभ्रान्तः ।।
अर्थ-पश्चाताप के कारण जिसकी खोज में भाई का भक्त छोटा भाई अनधीन दुःख के कारण शरीर के प्रति तपस्वियों जैसे व्यवहार के कारण .सोने के कंकण के गिरने से रिक्त कलाई वाला हो कुछ माह बिताकर वन, नदी और ऊँची चढ़ाई वाले पर्वतों में चिरकाल तक अत्यधिक भ्रमण करता रहा।
ध्याख्या-भाई के चले जाने पर छोटे भाई को अत्यधिक पश्चाताप हमा । दुःख को सहन न करने के कारण उसने शरीर के प्रति ममता त्याग दी और केवल देह धारण के लिए हो ( रसद्धि के लिए नहीं} अन्नपान ग्रहण करने लगा। वह इतना दुर्बल हो गया था कि हाथ से सोने का कंकण गिर जाने के कारण उसकी कलाई सूनी पड़ गई। ऐसी हालत में वह कुछ मास तक तो घर पर ठहरा | अनन्तर अपने भाई की खोज में वन, नदी और ऊँचे-ऊँचे पर्वतों पर भ्रमण करने लगा।
यं चापश्यदिगरिवननदोः पर्यटन्सोपि कृन्ड्रादध्वनान्तः कतिपयकैसिरैरविकुजे । दूराद्धूमप्रततवपुषं नीललेश्यं यथोग्चै
राषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुम् ।। ७॥ यं चापश्यदिति । सोऽपि मरुभूसिरपि । गिरिवरनवी: पर्वतकान्तारसरितः । कृपक्रात कष्टात् । 'स्यात्कष्टं कुच्छूमाभीलम्' इत्यमरः । पर्यटन् पर्यटनीति
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प्रथम सर्ग
पर्यटन् । अट् गताविति धातोः शतृत्य: अध्यभारतः मार्गायस्तः । 'अयनं वमाध्वन्यातः पदवी सृतिः' इत्युक्तेः । आवाढस्य आषाश्या चन्द्रोपेतया युक्ता पौर्णमासी आपाठी 'चन्द्रोपेतात्काले' इत्यण । टिठणि इति ङी । आषाढी पौर्णमासी अस्यास्तीत्याबाठो मास: । 'सास्य पौर्णमासी' इत्यण् । लस्य प्रथमदिवसे प्रतिपहिने | आश्लिष्ट सानुम् आश्लिष्टम् आक्रान्तं मानुपर्वतस येन स तथोक्तस्तम् । 'स्नुः प्रस्थः सानुरस्त्रियाम्' इत्यमरः । उच्चः अनल्पम् | "महत्युच्चे:' इत्यमरः । मेधं वारिवाहम् । यथा येन प्रकारेण । यत्तदोनिस्पसम्बन्धात्तथेति गम्यते । यत्तद्वदितिशेषः । 'व वा यथा तथैवैवं साम्ये इत्यमरः । धूमप्रसवपुषं धूमेन प्रततम आवृतं वपुः शरीरं यस्य स इति बहुपदो बहुवी हि विस्तृतं प्रततमिति । 'गाये वपुः संहननम्' इत्यभिधानात् । पचाग्निमध्यगतत्वादिति भावः । मौललेश्यं नीला लेश्या परिणामविशेषो यस्य तम् । पंच कम च अतिकुपर्वतनिकुजे । अद्रिगोश गिरिप्रायाचलरील शिलोवयाः । 'निकुकुञ्जी वा क्लीवे' इत्युभयत्राप्यमरः । कतिपयथः कियद्भिः 'पटकति पयात् यत्' इति व्ययः । कतिपयानां पूरणाः कतिपयथाः त एव कतिपय'चकास्तैः । वासरेः दिवसैः । दूरात् दविष्ठप्रदेशात् । अपश्यत् ददर्श । दृशु प्रेक्षणे । इति घातलंडि " पालामा" इत्यादिना पश्यादेशः ३॥७॥
अन्वय --- गिरिवननदी: कृच्छ्रात् पर्यटन् अध्वश्रान्तः सः अपि आषाढस्य प्रथमदिवसे आरिष्टसानु मेघं यथा घूमप्रततवपुषं नीललेश्यं यं च कतिपयथः वासरे। -अद्रिकुजे दूरात् उच्चैः अपश्यत् 1
अर्थ - पर्वत, वन और नदियों में अत्यधिक कष्ट से भ्रमण करते हुए, घूमने से थके हुए उस मरुभूति ने भी आषाढमास के प्रथम दिन पर्वत की चोटी से सम्बद्ध मेघ के समान धूम से व्याप्त शरीर वाले, नीलवर्ण ( दुष्ट अभिप्राय वाले ) जिस कमठ को कुछ दिनों के बाद पर्वतकुञ्ज में दूर से ऊँचे स्थान पर देखा ।
धयाख्या -- पहाड़ चढ़कर, नदियाँ पारकर और जंगलों में भ्रमण कर मार्ग के अत्यधिक कष्ट को झेलते हुए उस मरुभूति ने कुछ दिनों बाद आषाढ मास के पहले दिन कमठ को देखा । धुर्ये से व्याप्त शरीर वाला बह कमठ पर्वत की चोटी से सम्बद्ध मेघ के समान लग रहा था। वह नील लेश्या वाला था । कषाय के योग से अनुरञ्जित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । ये लेश्यायें छह प्रकार की होती हैं- कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल । इनमें पूर्व पूर्व की अपेक्षा आगे आने वाली लेव्यायें विशुद्ध होती १. प्रशमदिवसे ।
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पाश्र्वाभ्युदय हैं। कमठ को यहाँ नील लेक्ष्या बाला कहा गया है। वर्ण की अपेक्षा उसे नीलवर्ण भी कहा जा सकता है। कमठ पर्वत के लताकुञ्जों से दूर ऊंचे स्थान पर तपस्या कर रहा था।
इस श्लोक में आषाढस्य प्रथमदिवसे के स्थान पर कुछ टीकाकारों ने आषाढस्य प्रशमदिवसे पाठ माना है । आषाढस्य प्रथमदिवसे का अर्थ होगाआषाक के प्रथम दिन । आषाढस्य प्रशमदिवसे पाठ मानने वालों का कहना है कि आगे 'प्रत्यासन्ने नभगि' के रूप में श्रावण मास की समीपता अतलाई गई है, जो कि प्रशमदिवसे पाठ मानने पर ही उत्पन्न हो सकती है, अतः प्रशमदिवसे पाठ मानना चाहिए । प्रथमदिवसे मानने वालों का कहना है कि ऐसा मानने पर भी मास की प्रत्यासत्ति तो रहती ही है, क्योंकि आषाढ के बाद अव्यवहित रूप से श्रावण मास ही आता है।
यश्चाबद्धभ्रकुटिफुटिलभूतटो जिलवक्रः, क्रोधावेशाज्ज्वलवपधनो भ्रातरं तं तदानीम् । स्नेहोद्रेकाच्चरणपतितं नापवृष्टिविरुधे,
वप्रक्रोडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।। ८॥ पश्चेत्यादि । सवामी तदर्शनावसरे । 'सदतह्म'धुनेदानीतानी सद्यः' इति काले साधुः यः कमठः । आषाभ्रकुटि कुटिलभूतहः भाबक्षा रचिता प्रकुटिदर्शनविकारजो भूभङ्गविशेषो यस्य तत् । 'भ्र वोएष कुटिकुस' हति हस्थः । कुटिले च ते बौ च तथोक्त नमोस्तटम् आबद्धं भ्रफुटिकुटिलभू तटं यस्य स तथोक्तः । 'आविद्धं कुटिल भुग्ने बेल्लितं वक्रमित्यपि' इत्यमरः । जिल्लावक्र: जिन्ह वक्र धनं मुखं यस्येति बहुवी हिः । 'जिह्नस्तु टिलेऽलसे।' वक्रास्ये वदनं तुण्द्वम् इत्युभयत्राप्यमरः । क्रोधावेशात् क्रोधस्य कोपस्थावेशात् अवतारात् । कोपक्रोधामर्षरोष' इत्यमरः । स्वलवपघनः ज्वलतीति ज्वलन् । 'शतृत्यः' ज्वलानपधनो यस्य स तथोक्तः । 'अङ्ग प्रतीकोऽवयवोपचनः' इत्यमरः । अपवृष्टिः विमुखदर्शनः सन् । स्नेहोरेकात् स्नेहस्य प्रेम्णः उद्रकात् प्रादुर्भावात् । 'प्रेम स्नेहः' इत्यमरः । वरणपतिसं चरणयोः पतित विनतम् । पदधिचरणोस्त्रियाम् इत्यमरः । वप्रक्रीडापरिणतन्त्रप्रेक्षणीयं बप्रक्रीडा उत्सातकेलयः । उत्खातकेलि. शृङ्गारबंप्रक्रीडा निगद्यते इति शब्दार्णवः । तासु परिणतः तिर्यग्वन्तप्रहारस्तु गषः परिणतो मतः इति हलायुधः। स पासो गजपति कर्मधारयः । प्रेलित योग्यः प्रेक्षणीयः वप्रक्रीडापरिणतगजश्वप्रेक्षणीयो दर्शनीयस्तम् । 'गौणस्तेन' इति समासः तत्पुरुषः कर्मधारयो वा । # मातर मरुभूति । भिवाम् विनष्टोस्कः
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प्रथम सर्ग
अप्रेम यथा भवति तथा शब्दप्रद इत्यादिनाऽञ्चयोभानः । सक्षस्वप्रेमध्यचिकणे' इत्यमरः । न वर्श नाऽपश्यन् । विमुखोऽभवति तात्पर्यम् ।।८।।
अन्वय–यटन आबद्धकुटिटिलभ्र तटः जिनववत्रः क्रोधावेशात् ज्वलदपधनः अपदृष्टि: विरूक्षं स्नेहोतकात् चरणपतिनं वप्रकी ड़ापरिणत गजप्रेक्षणीयंत भातरं तदानों न ददर्श ।
अर्थ-बँधी हुई भ्रकुटि से कुटिल भ्रूतट वाले, कुटिलमुख, क्रोध के आवेश से जलते हुए अङ्ग युक्त तथा अन्यत्र मुड़े हुए नेत्र वाले अथवा बुरी दृष्टि वाले जिस कमठ ने प्रेमयुक्त स्नेह के उद्रेक से चरणों में पड़े हुए वप्रक्रीड़ा में तिरछा दन्तप्रहार करने वाले हाथी के सदृश दर्शनीय उस भाई मरभूति को उस समय नहीं देखा।
व्याख्या-जिस समय मरुभूति कमठ के निकट आया, उस समय कमठ की भौंहें चढ़ गई, मुख कुटिल हो गया, क्रोध के आवेश से शरीर जलने लगा तथा उसने नेत्रों को दूसरी तरफ घुमा लिया । भरुभूति उसके चरणों में पड़ गया। उस समय उसकी शोभा वप्रक्रीड़ा में तिरछा दन्तप्रहार करने वाले हाथी के समान हो गई। कमठ ने ऐसी स्थिति में भी उसकी ओर नहीं देखा ! वाकोदर हाशी एवं साड़ सादि पशओं द्वारा को जाने वाली उस क्रीड़ा को कहते हैं, जिसमें ये पशु दाँत या मींगों से टीले आदि को मिट्टी को उखाड़ते हैं।
सोऽसौ जाल्मः कपटहृदयो दैत्यपाशो हताशः, स्मृत्वा वैरं मुनिमपघृणो हन्तुकामो निकामम् । क्रोधात्स्फूर्जन्नवजलमुत्रः कालिमानं दधान, स्तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः ॥ ९ ॥
सोऽसावित्यादि । सोऽसो स एग कमठचरः । सोऽसावित्युभयप्रयोगो भूप्त. वर्तमानभवेष्वात्म्कन साधकः । जाल्म, गुणदोषविचारशुन्यः । 'जाल्मोऽसमीप्यकारी स्यात्' इत्यमरः । कपटहुक्यः कपटेन युक्त हृदयं यस्यति बहुप्रीहिः । टिलताः । बैत्यपाशः निन्द्यदेवः । निन्द्ये पाशप्' इति पाशप्त्यः । हताशः हता दुष्टा आशा अभिलाषो यस्येति बहुमोहिः । 'आशा तृष्णापि पायता' इत्यमरः । वैरं प्राम्भव विरोधम् । स्मरवा ध्यात्वा ! अपघृगः अपगता घृणा यस्य सः । कारुण्यं करुणा घृणा इत्यमरः । क्रोषात् कोपात् । मुनि मन्यते केवलशामेन लोकालोकस्वरूपमिति मुनिस्तम् । भाविनि भूतवटुपचारः । पार्श्वनाथम् । मिकामं यथेष्टम् निकामेष्टा यपेप्सितम्' इत्यमरः । हन्तुकामः हन्तु कामयते
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पार्श्वभ्युदय इति हन्तुकामः । 'तुमो मनस्कामः' इति मकारस्य लुक् । स्फूनिवजालमुकः स्फूर्जतीति स्फूर्जन । टुबोरफूविनिर्घोष' इति शतृत्यः । जलं मुश्चतीति जलमुक । सन् मोक्षणे दिनप्त्यः । नवश्चासी जलमुक् च नव-जलमूक् । 'नूतने नवः' इत्यमरः । रफर्जेश्चामौ म चेति पुनः फर्मधारयः । तस्य प्रवनभिनवमंघख्य कालिमानं कालस्य श्यामलस्य भावः कालिमान श्यामलत्वम् । 'पृथ्वादेर्वेभन्' इति भावे इमन्त्यः । 'कालपामलमेनकाः' इत्यमरः । वषानः घसे इति दधानः दधत् । 'सन्दीति' आनशत्यः । कोतुकाधानहतो हर्षोपादान कारणस्य | अथवा जासर्गकारणेन स्वमनोहर्षोत्पादनिमित्तमिति हेती का। 'कौतुकं वाभिलाषे स्यादुत्मवे पमहायोः' इति विश्वः । तस्य मुनेः । पुरः अग्रे । 'स्यारपुरः पुरतोऽग्रतः' इत्यमरः । कथमपि गरीयसाप्रयत्नेनेत्यर्थः । 'शानहेतुबिठायामधिकथमित्य न्ययम् । 'कयमास्तिथाप्यन्तं यत्नगौरवबाघयोः' इत्यभिधानात् । स्वित्वा आस्थाय ।।९।।
किञ्चित्पश्यन्मुनिपमनघं स्वात्मयोगे निविष्ट, गाढासूयां मनसि निदधत्तद्वधोपायमिच्छन् । क्रूरो मृत्युः स्वयमिव वनस्वेदबिन्दून्सरोषा
वन्सपिश्चिरमनुचरो राजराजस्य वध्यो ||१०|| किञ्चिदित्यादि । स्वात्मयोगे स्वस्थात्मा तस्य योगस्तथोक्ता नस्मिन् स्वएकरूप याने 1 'आत्मा प्रस्नो धृतिबुद्धिः स्वभावो महवमं च' इत्यमरः । मिविष्टं निविशति स्म निविष्टस्तम् । अमचं न विद्यते अघं पापं यस्य सः सम् । 'कलुष वृजिनैनोत्रम्' इत्यमरः । अनेन निरपराधकत्वं सूख्यते । मुनिपं मुनीन्पातिमुनिपस्तम् हितोपदेशेन परमपद प्रापकमित्यर्थः । किष्मित ईषत् । 'किञ्चिदीषन्मनागल्पे' इत्यमरः । पश्यन् अवलोकयन् । मनसि मानसे । गावास्यां दृढाक्षान्निम् । 'गाव शतवानि च ।' 'असूया तु दोषारोपो गुणेष्वपि ।' इत्युभयत्राप्यमरः । निवपत् निदधातीति निदधत् स्थापयन् । स्वयम् आत्मब । 'स्त्रयमात्मनि' इत्यमरः । अध्ययत्वात्मर्वविभक्तिषु प्रयुज्यते । मृत्युरिव यमबत् । करः वानकः । 'नृशंसो घातकः क्रः इत्यमरः । षोपायम् सम्म मुनेः बषस्य हिमनस्य उपायः चिकित्सा तथोक्तस्तम् । 'उपायः कर्म चेष्टा प पिकित्सा च नवक्रिया' इत्यमरः । ज्छन् इच्छतीति इछन् । षु इच्छायामिति पातोः। यंगमिषोः शिच्छः' इलि शिमछादेशः तस्मात् शत्रस्यः। रोषात् क्रोधात् । स्व. बिन्दून धर्माम्दुलनान् । 'धर्मो निदाधः स्वेदः स्यात्' 'पृषन्ति बिन्दु पृषताः पुमांसो विनुषः स्त्रियाम्' इत्युभयत्राप्यमरः । वहाँ परन् । अन्तर्वाष्पा अन्तस्तम्भिताभुः राजराजस्य राजानो पक्षाः । 'राजा प्रभो नृपे चन्द्रे यो योशचन्द्रयोः'
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प्रथम सर्ग इतिविश्वः । राज्ञां रामा राजगजः कुबेरः । 'राजराको धमाधिपः' इत्यमरः । 'राणान्सझे इत्यद । तस्य अनुचरो यक्षः । सः कमठपरः। चिरं बहुकालम् । वघ्यो चिन्तयामास ! ध्ये स्मृ निम्नायाम् । इति धानो: निट् 'नो नोणमेकोशात प्रत्यौकारः । युग्मम् ।।१०।।
अन्वय----सः असौ जाल्मः कपटहृदयः दैत्यपाशः, हतशः, स्फून्निजलमुचः कालिमानं दधानः स्वात्मयोगें निविष्ट अनर्घ मुनिय किञ्चित् पश्यन्, मनसि गाठासूयां निदधत्. रोपात स्वेदविन्दून वहन स्वयंक्रूरः मृत्युः इब अपघृणः बैर स्मृत्वा मुनि निकामं हन्तुकामः क्रोषात् कौतुकापानहेतोः तस्य पुरः कथमपि स्थित्वातधोपायं इच्छन् अन्तभिः राजराजस्य अनुचरः ।।९-१०॥ ____ अर्म-कर ( गुण दोष के विचार से शून्य ), कपट हृदय, निन्दितदेव, निर्दय, चिरंदध्य गर्जना करते हुए नए मेघ के समान कालिमा को धारण करते हुए उस कमठ के जीव यक्ष ने ध्यानयोग में निमग्न, नियाप उन पार्श्वनाथ मुनीश्वर को कुछ देखकर मन में गाढ मसूथा ( असूयाः = दूसरे के गुणों में भी दोष देखना ) को धारण करते हुए, रोष से पसीने को बिन्दुओं को धारण करते हुए, स्वयं क्रूर मृत्यु के समान निर्दय हो, बैर का स्मरण कर मुनि को यथेष्ट रूप से क्रोधपूर्वक मारने की इच्छा की पूर्ति के लिए उनके समीप में जिस किसी प्रकार ( बड़े प्रयत्न से ) ठहरकर उनके वध के उपाय की इच्छा करते हुए आंसुओं को अन्दर छिपाकर कुबेर के सेवक के समान अधिक समय तक विचार किया।
व्याख्या-क्रूर और कपट हृदय वाले उस यक्ष ने पार्श्वनाथ मुनीश्वर को ध्यान योग में निमग्न देखा। उनके प्रति वह गाढ़ असूया को धारण कर रहा था । क्रोध के कारण उसके शरीर पर पसीना उभर आया था। वह यक्ष उस समय मृत्यु के समान निर्दम हो गया था। उसने पूर्वजन्म के वेर का स्मरण कर मुनि को मारने की इच्छा से उन्हें बहुत देर तक देखा । विरह व्यथा के कारण उसने नेत्रों में आँसू भरे हुए थे।। किन्तु प्रकट न करने के उद्देश्य से उसने उन्हें अन्दर ही अन्दर छिपा लिया था। उस समय वह यक्ष गर्जना करते हुए नूतन मेघ के समान कालिमा को धारण कर रहा था। कमठ वास्तव में कुबेर का अनुचर नहीं था, किन्तु अपने व्यवहार से वह कुबेर का अनुचर लग रहा था ।।९-१०।।
मेघेस्तावत्स्तनितमुखरैविधुदुद्योतहासश्चित्तं क्षोभान्तिरवसदृऔरस्य कुर्वे निकुर्वन् ।
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पाश्वभ्युदय
पश्चाच्चैनं प्रचलित धृति ही हनिष्यामि चित्रं, मेघालोके भवति सुखिनोप्यन्यथावृत्ति चेतः ॥ ११ ॥
मेरिश्यादि । सावत् प्रथमतः । यावत्तावपच साकल्येवनौ मानेऽवधारणे स्तनितमुखः स्तनितेन मजिनेन मुखरं चार्ट | 'स्वनितं गतिं मेनिर्घोषे ' इति । दुर्मुखे खराबखो' इति चामरः । द्विरवसदृशैः गजसमानः । मेघैः जलदः । अस्य मुनेः । चित्त क्षोभाम् स्वागतवेपथून् । कुर्वे करोमि । पश्चाच तदनन्तरम् । प्रतीच्यां चरमे पश्चात्' इत्यमर: । एवं मुनिम् । प्रचलितति प्रचलिता प्रकम्पिता वृतिः धैर्यं यस्य सः तम् । 'चलितं कथितं बुते ।' धृतिर्धारण मैयो:' इत्युभयत्राप्यमरः । मिकुष्म् निकरोतीति निकुर्वन् निराकुर्वन्तित्यर्थः । चित्रम् अद्भुतं यथा भवति तथा। हो दुःखहेतो 'हो दुःखताबुदिष्टो ही विस्मय विषादयो:' इति विश्वः । हनिष्यामि घातयिष्यामि । अत्र समर्थनमाह । लोके हिने सुखिनोषि मिश्र जनसङ्गतस्यापि । किं पुनरे का किन हृत्यपिशब्दार्थः । चेतः हृदयम् । 'चिसं तु देतो हृदयम्' इत्यमरः । अन्यथाबू सि अन्येन प्रकारेणान्यथाअन्यथाभूतावृत्तिर्वर्तनं यस्य तत् अन्यथावृत्ति वृत्तिर्वनजीवने' इत्यमरः । भवति जायते । प्रमाद्यत इत्यर्थः ॥ ११॥
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अन्वय- ( यतः ) मेघालोके सुखिनः अपि वेतः अन्यथावृत्ति भवति ( ततः ) तावत् निकुर्वन् (अहं) स्तनितमुखरं विद्युदुद्योतहास: द्विरदसदृशः मेघः स्य चित्तक्षोभान् कुर्वे, पश्चात् च प्रचलितधृति एवं ही चित्रं हनिष्यामि ।
अर्थ —चूँकि मेघ का दर्शन होने पर सुखी व्यक्ति का भी चित्त अन्य प्रकार की प्रवृत्ति बाला हो जाता है, अतः तिरस्कार करता हुआ में गर्जनाओं से भयङ्कर ध्वनि युक्त, विद्युत् के उद्योत से असमान शरीर वाले मेघों से इसके ( भगवान पार्श्व के ) चित्त में क्षोभ उत्पन्न करूंगा । अनन्तर प्रकम्पित धैर्यं वाले इसे ( बड़े हर्ष की बात है ) विचित्र उपाय से मार डालूंगा
व्याख्या - जब मेघ का दर्शन होने पर ( प्रणयी जनसहित ) सुखी व्यक्ति का चित्त भी विकृत हो जाता है तो एकाकी व्यक्ति का तो कहना ही क्या है ? अतः भयङ्कर गर्जनाओं तथा बिजली से प्रकाशमान शरीर वाले मेघों से में ( यक्ष ) इस पार्श्वनाथ के मन को शुब्ध करूँगा, जिससे इसका धैर्य स्थिर नहीं रहेगा और तब मैं बड़ी सरलता से विचित्र उपाय से इसे मार डालूंगा ।
ध्यायन्नेयं मुनिपसभणीन्मिष्ठुरालाप शौण्डो,
भो भो भिक्षोभणतु स भवान्स्वान्तमन्तनिर्मन्छन् ।
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प्रथम सर्ग क्षीणक्लेशे सिबिधुषि मति कि निधत्तेऽङ्गितत्वे, कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनरसंस्थे ॥ १२ ।।
ध्यायन्नित्यादि । एवं कथितरीत्या । ध्यायन् ध्यायतीति ध्यायन चिन्तयन् । मिछुरालापशीण्डः निष्ठुरश्चासौ आलापश्च निष्ठुरालापस्तस्मिन् शौष्टः मत्तः । 'मसे शोण्डोत्कटक्षीयाः' इत्यमरः । कठोरवचनपर इत्यर्थः। मुगिय पार्श्वनाथम् । अभणीत् अवोचत् । भो भो भिक्षो ! है हे मुने 1 'भृशाभीषणाविच्छेदे प्राक् दिः' इति भो शब्दस्य सिः प्रयोगः । 'अथ सम्बोधनार्थकाः । स्युः प्याट् षाडल ने नै भो'' इति । 'भिक्ष' परिवाद' इति चामरः । अथवा भोभी इत्येक पदम् । 'अ त्यामन्त्रणे हे हे भोभो इति च कथ्यते' इति हलायुधः । स्वास्तसन्तमिधामन् स्वान्तं चित्तम् । अन्तनिरुन्धन अन्तदंघानः । भवान् पूज्यस्त्वम् । भगतु जल्पतु । ब्रहीत्यर्थः । भवच्छन्दप्रयोगे प्रथमपुरुष इति वचनात् । 'सिषिषि सिषाथेतिसिषिधिवन ।' लिटवसु क्व स उस् इति उस् । तस्मिन् सिद्धे । शीणक्लेशे मीणो नष्टः 'क्षि क्षये' इति घातोः क्तः । 'भूत्वादेरिः' इति तस्य नः । 'क्षेरीतीकारः ।' क्षीणः क्लेशो अस्य तस्मिन् । अङ्गिसत्वे अङ्गमस्यास्तीत्पङ्गी जोवः स एव तत्त्वं पक्षार्थस्तस्मिन् आत्मद्रव्य इत्यर्थः । मति बुधि । किं निधसे किमयं निदधातीति प्रश्नः । अत्रार्थान्तरन्यासः । जने बंधुलोके । कष्ठाइलेवप्रणयिनि ग्रीवालिंगनानि सति । पुनः पश्चापि पुनरप्रथमें भेद' इत्यमरः । दूरसंस्थे दूरे विप्रकृष्टप्रदेश संस्था स्थितियस्य सस्मिन् वस्तुनि संस्थाचारे स्थिती मृती इत्यभिषानात् । कि किमर्थमभिलषमिति जुगुप्सा । "किं पृच्छायां जुगुप्सते' इत्यमरः । 'उक्तसिद्धयर्थमन्यार्थ न्यासोऽन्यार्थपुरः सरम् । कथ्यतेऽर्थान्तरन्यासः' इति वाग्भटः ॥१२॥
अन्वय- एवं ध्यायन् निष्ठुरालाप शोण्डः मुनियं अभणीत्-भो भो भिक्षो! स्वान्तमन्तनिसन्धन् सः भवान् भणतु । कि क्षीणफ्लेशे सिषिधुषि अजितत्त्वे मति निधत्ते, कि पुनः दूरसंस्थे कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने ( मति निघत्ते ) ?
अर्थ-उपर्यक्त रूप से सोचता हआ निर्दथ, भाषण में प्रवीण वह यक्ष मुनिराज से बोला हे हे मुनिराज ! मन को अपनी अन्तरात्मा में रखकर वह ( ध्यानी रूप में प्रसिद्ध ) आप कहिए । क्या आप दुःख देने वाले कमों के नष्ट हो जाने पर सिद्धावस्था को प्राप्त आत्मद्रव्य में मन को लगा रहे हैं अथवा ( आपके ) कण्ठ में आलिङ्गन की इच्छा रखने वाली दूरवर्ती प्रिया में मन को लगा रहे हैं।
व्याख्या-यह सोचकर कि पहले मैं बिजली की गर्जनाओं से युक्त भयङ्कर आवाज करने वाले मेघों से इसका ध्यान भंग करूंगा, अनन्तर
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पार्वाभ्युदय विचित्र उपायो से मार डालूंगा, कठार बात बोलने में निपुण वह यक्ष बोला- हे भिक्षु ! तुम कर्म से विमुक्त आत्मा का ध्यान कर रहे हो अथवा उस प्रिया का ध्यान कर रहे हो जो तुम्हारे कण्ठ में आलिङ्गन करने की इच्छा करती है, जरा अपने मन को टटोलकर यह तो बतलाओ ।
इत्युक्त्वादो मुहुरुपवहनिश्चितात्मोपसर्गोऽ, बद्धक्रोधः सरभसमसौ भीमजीमूतमायाम् । मागसाक्षोन्मुनिपमभितो नो मनागण्यपूरिः, प्रत्यासन्ने नभसि वयिता जीवितालम्बना । १३ ।। इत्युषत्वेत्यादि । इति प्रतिपावितप्रकारेण । 'इप्ति हेतुप्रकरणप्रकाशादिसमाप्तिषु' इत्यमरः । मा पुनः । श्रवः अदसो नपुंसकलिङ्ग वितीयकवचनम् । सवा एतदुच्यमान स्थरूपम् । उपवन घरन् । निश्चितारमोपसर्गः आत्मना क्रियमाण उपसर्गः आत्मोपसर्गः निश्चितः प्रारमोपसों येन स तथोक्तः । अनन्य क्लीवमुत्पात उपसर्गः समंत्रयम् इत्यमरः । अनुक्रोष: बद्धः क्रोधो येन सः कृतकोषः । असौ देश्मः । सम्भसं रभसेन सह वर्तते यस्मिकर्मणि तथोक्स सहर्षम् । सशीन वा 'रभसो वेगहर्षयोः' इत्यमरः । मुनिपं यमीश्वरम् । ममितः सर्वतः । 'हानिकसमया' इत्यादिना द्वितीया । भीमजीभूतमायां भीमञ्चासौ जीमूतश्च । 'घोर भीम भयानकम्' इत्यमरः । जीमूतोऽन्न बलाहकः 'इति धनम्बयः।' सस्य मायां कल्पनाम् । बाफ रभसेन । 'साक्षाटित्यजसाहाय प्राङ्भक्ष सपदि सुते' इत्यमरः । असामोत् सृष्टिमकरोत् । सृज विसर्गे । लुङ् । बत्र समर्थनमाह । नभसि श्रावणमासे । 'नभाः भावणिफश्च सः' इत्यमरः । प्रत्यासाने सन्निकृष्टे । 'समीपे निकटासन्नमलिकृष्टसनीबवत्' इत्यमरः । पिताजीवितासम्बनामों दयितायाः प्रियायाः जीवितं जीवनं तस्यासम्बनम् आधारः तदर्षत इत्येवं शील तथोक्तः । 'रमणी दथिता प्रिथा' इति धनञ्जयः । विमुक्तकान्तामीवमोपायाऽभिलाषी। मनागपि ईषदपि । 'किश्चिदीषन्मनागल्पे' इत्यमरः । अमरिकन सूरिः असूरिः अपण्डिसः 'पण्डितः सूरिराचार्यः' इति धनञ्जयः । नो न भवति । 'अमावे ना नो नापि' इत्यमरः । नभसो मासस्य विरहदुःखोद्रेकहेतुखात्स्वाभिप्रेलसिखये शोसको न भवेदेति सापर्यम् ॥१३॥
अन्वय-इति अदः उक्त्वा महुः उपवहन असो निश्चिताल्मोपसर्गः पवक्रोधः पयिताजीवितालम्बनार्थी नोमनाक् अपि असूरिः असो प्रत्यासन्ने नभसि मुनि अभितः सरभस भीमजीभूतमायां नाक मनाक्षीत् ।
अर्थ-ऐसा कहकर बार बार समीप में जाते हुए ( युद्ध के लिए कटि
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प्रथम सर्ग
५५ बद्ध होते हुए ) अत्यधिक मूर्ख उस कमठ के जीव यक्ष ने अपने द्वारा उपसर्ग करने का निश्चय कर, क्रोध में बँधकर, दया से युक्त उन पार्श्वनाथ भगवान् के मरण के उपाय की इच्छा से श्रावणमास के निकट आ जाने पर मुनि के चारों ओर पौर्वापर्य का विना वि बार किए शीन ही भयङ्कर मेघों की माया का सृजन किया ।
व्याख्या-अपनी कठिनाई को भी परवाह न कर उस यक्ष ने भगवान् पार्श्वनाथ को मार डालने को इच्छा से मेघमाया का सुजन किया। कुछ लोगों ने दयिताजीवितालम्बनार्थी का एक दूसरा अर्थ किया है । राक्ष अपनी प्रिया ( बसुन्धरा) के ज.पित हो का इदुर था। प्रियो वियुक्त होने पर उसके मरण की सम्भावना से वह डर गया था और मुनि को मारकर शीघ्र ही अपना सन्देश भेजकर वह प्रिया के प्राणों की रक्षा करना चाहता था।
विद्युन्मालास्फुरितरुचिरे मेघजाते नताशे, स्फुर्जद्वन्ने सटिति कमठो वृष्टिपातं ससर्ज । कालेनासौ किल जलभृतां योगिनं तं वितन्वन्, जीमूतेन स्वकुबालमयो हारयिष्याप्रवृत्तिम् ! १४ ॥ बिद्युन्मालेत्यादि । विद्युन्मालास्फुरितवधिरे विधुतां सौदामनीनां । तङिसौदामनो विद्युत' इत्यमरः। माला पंक्तिः । 'माला पक्तिः पुष्पादिवामान' इति भास्करः । तस्याः स्फुरितेन प्रकाशेन रुचिरं मनोहरं तस्मिन् । 'सुन्दर रुचिरं पारु सुषमं साधु शोभनम् इत्यमरः । स्फूर्ण स्फूर्जत् निर्घोषत् वजमनिर्यस्य तस्मिन् । 'वमोऽस्त्री हीरके पी' इत्यमरः । मेघजाते मेघानां जातं समूहस्तस्मिन् । 'उहान्नभूतयोर्जातं वृन्द जात्यो स्तु न द्वयोः' इस्यनेकाधरल्नमाला । नताशे न ता व्याप्ता आशा दिशो येन तरिमसति । 'बाशाश्च हरितश्च ताः' इत्यमरः । असौ कमठः । कालेम कृष्णेग। 'कालश्यामल मेचकाः' इत्यमरः । जोमूतेन भेघेन। 'जीमूती मेघपर्वतो' इत्यमरः। तं मुनिम् । जलभुता बलाहकानाम् । योगिर्न संसगिणम् । 'योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गति युक्तिषु' इत्यमरः । विसत्वन् बितनोतीति वितन्वन् । तनोतेः रातृत्त्यः । स्वकुमाखमयों स्व स्य फुशलमयीम् पुण्यमयीम् । 'कुशल क्षेममस्त्रियाम्' इत्यमरः । प्रवृत्ति प्रवर्तनम् । प्रवृत्ति प्रकृष्टां वृत्तिमित्यर्थः । 'वृत्तिर्वर्तनजीवने' इत्यमरः । अथवा प्रवृत्ति वृत्तान्तम् । 'वार्ता प्रवृत्तिवृत्तान्त उदन्तः स्यात्' इत्यमरः । 'वृतबिर्सने' स्त्रियां क्तिन् त्यः । हायिष्यन् हायिष्यतीति हारयिष्यन् । 'विहरतेघर्षातो. स्तासी लुरोरिति स्थत्यः। 'बलादेः' इतोट् । 'संल्लड्वत्स्योटो इति
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पार्थ्याभ्युदय शतृत्यः । नागायिष्यन् । उगसगंविधानादिति यावत् । वृष्टिपात वर्षपतनम् । झटिति शीघ्रम् । 'साझटित्यजसालाय' इत्यमरः । ससर्ज निमिमीते स्म । 'सज विसर्गे ।' लिट् । किल यातायाम् । 'वातासम्भाव्ययोः किल' इत्यमरः ॥१४॥
अन्न-जन्तुमाला रिलमिरे र वजारे नशे सती जीमूतेन स्वकुशलमयी प्रवृत्ति हारयिष्यन् सं जलभृतां कालेन किल योगिनं वितन्वन् असो कमठः रिति वृष्टिपातं ससर्ज ।
अर्म विद्युत् समूह के प्रकाश से दीप्तिमान् तथा वन जिसमें गर्जना कर रहे थे ऐसे मेघों के समूह द्वारा दिशायें व्याप्त कर लेने पर मेध के द्वारा अपनी कुशलवार्ता भेजने की इच्छा से उन मुनि को मेघों के कृष्णवर्ण से सम्बन्धित करते हुए उस कमठ के जीवधारी दैत्य ने शीघ्र वृष्टिपात की सृष्टि की थी।
व्याख्या-कमठ के जीवधारी दैत्य ने शीन वर्षा प्रारम्भ की। उस समय विद्युत् समूह के चमकने से वज जिसमें गर्जना कर रहे थे, ऐसे मेघों से दिशायें व्याप्त हो गई। अपना कुशल समाचार भेजने के लिए उन मुनि को मेघों के कृष्णवर्ण से सम्बन्धित करते हुए कमठ के जीवधारी दैत्य ने शीघ्र ही वृष्टिपात की, सृष्टि कर दी।
'स्वकुशलमयो प्रवृत्ति हारयिष्यन्' का दूसरा अर्थ होगा-अपना कल्याण करने वाले पार्श्व के प्रयत्न अथवा व्यापार को छुड़ाने का इच्छुक ।
एवं प्रायां निकृतिमधमः कर्तुमारब्ध भूयो, मायाशोलश्चिरपरिचिताद्वैरबन्धारप्रकुप्यन् । सिद्धस्तन्निष्क्रमणसमये योगिने भक्ति नः,
स प्रत्य. फुटाकुसुमैः कल्पिताय तस्मै ।। १५ ।। एवमित्यादि । भूयः पुनः। चिरपरिचितात चिरं बहुकालं परिरित्यते स्मेति परिचितः तस्मात् । बहुकालमभ्यस्तात् । वैरवयात् विरोषानुबन्धात् । प्रकुप्थन् प्रकोपितः सन् । मापासोमः मायया कपटेनयुक्स शील स्वभायो यस्य सः। 'शोलं स्वभावे सबुत्ते' इत्यमरः । अषमः निकृष्टः । निकृष्ट प्रतिकृष्टावरेफ याप्यावमाषमाः' इत्यमरः । स कमतः । तलिजक्रमणसारये तस्य मुनेः निष्कामणस्य परिनिष्क्रमणस्य समय काले। 'कालो दिष्टोप्यनेहापि समयोऽपि' इत्यमरः । भक्सिनः नमन्तीत्येवं शोला नम्रा: भक्त्या गुणानुरागेण नम्रास्तैः । सिद्ध देवविशेषः। 'पिशायी गुहाकः सिद्धो भूतोऽभीदेवयोममः' इत्यमरः । प्रत्य: म. 'प्रत्यग्रोऽभिनको नभ्यः' इत्यमरः । बुटकुसुमैः कुटजानां बममल्लिकानां
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प्रथम सर्ग कुसुमैः पुष्पैः । "कुटजो वनमल्लिका' इति हलायुधः । कहिपतार्घाय कल्यते रुम कल्पितः अर्घः पूजा त्रिवियस्य तस्मै 'मूल्यै पूजाविधावः' इत्यमरः । तस्म योपिने पार्श्वमूनयं एवं वक्ष्यमाणरोत्या । प्रायां बहुलाम् । 'प्रायो बहुत्ने मृत्यौ घ सुख्यानशनयोरपि' इत्यभिधानात् । प्रायो भूम्यन्तगमने इत्यमरः । पान्तपाठाच्यानध्ययोऽयं शब्दः । निति निराकृतिम् 'कुसृतिनिकृतिः शाट्यम्' इत्यमरः । 'निकृतिरसने क्षेपे वदन्ति शठशाठ्ययोः' इति विश्वः। कतु बिधातुम् । आरव प्रारमे । 'रभि राभस्ये' लुङात्मनेपदम् ॥१५॥
अन्वय-तन्निष्क्रमणसमये भक्तिनः सिद्धः प्रत्यग्रंः कुटजकुसुमैः कल्पितायि तस्मै योगिने चिरपरिचितात वैरबन्धात प्रकुप्यन् स मायाशील, अधमः एवं प्रायानिकृति कत्तु भूयः आरब्धः ।
अर्थ-मिन ' भगन के दीक्षा कल्याणक के लिए निकलते समय भक्ति से नम्र सिद्ध नामक देव विशेषों ने नए मल्लिकापुष्पों से पूजा की थी। उन योगी भगवान् के प्रति चिरकाल के अभ्यस्त बैर के बन्ध से कोप करते हुए उस मायाशील अधम यक्ष ने इस प्रकार का तिरस्कार करना पुनः प्रारम्भ कर दिया।
व्याख्या-प्राणी अपने चिरकाल के अभ्यास के वशीभूत होकर कार्य करता है। जिन भगवान् पार्च के दीक्षा कल्याणक के समय देवताओं ने भी गिरिमल्लिकापूष्पों से पूजा की थी, उन्हीं का कमठ का जीव यक्ष उपर्युक्त रीति से तिरस्कार करने लगा।
पर्जन्यानां निमनुसकः स्फावयन् सिंहनावानाक्रोशैः स्वर्मुनिपरिसरात्तजयन्नाशवत्यः । हा धिग्मूढ भगवति मुनौ पूर्वबन्धौ न चौच्चैः प्रोत: प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार || १६ ।। पर्जन्यानामिति । सक: कुत्सितः सः सकः कमञ्चरः । नाशवत्य: नाशेनप्रेरितो दैत्यः तथोक्तः पृषोदरादित्वात्समासः' आत्मनाशाहोऽसुरः। मुनिपरिसरा समीपभूमेः । 'पर्यन्तभूः परिसरः' इत्यमरः । पर्जन्यानां मेघानाम् । 'पर्जन्यो रसदन्देन्द्री' इत्यमरः । ध्वनिमन ध्वनिप्रतिभागिनि च । 'प्रतिपर्यनूभि' इति द्वितीया । सिंहनावान् सिंहध्वनीन् । स्फावमन् वर्धयन् । स्फावयतीति स्फावयन् । 'स्फायड वृद्धी' इति धातोः 'कथातिपातिस्फायोग्ललावमीति' वमागमः । शतृत्यः । स्वैः स्वकीयः । आक्रोशः शपनध्वनिभिः । तर्जयन् सर्जयतीति तर्जयन् भर्स्यतित्यर्थः । पूर्वमन्यो पूर्वभवानुजे । भगवति माहात्म्यवति । 'भगः श्रीकाम
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पाश्र्वाभ्युदय माहात्म्यवीय यल कि की तिर' इत्यमरः । मुनो मोगिनि उच्नः अधिकम् । प्रोतः सन्तुष्टः सन् । प्रीतिप्रमुखत्रचनं प्रीतिमुखाणि प्रीतिपूर्वाणि वनानि यस्मिन् तत् प्रीतिप्रमुखवचन यथा भवति तथा ] स्वागतं शोजनमागतं स्वागत क्षेमागमनम् । न प्याजहार न प्रवीति स्म । व्याङ्ग, पूर्वस्य हलो धालोलिट् । मूखं मूखम् त्वाम् । हा धिक् । प्राशिवबन्धोः स्वामिनो दर्शने प्रोत्या कुशलोदन्तं न प्रपन्छ किन्तु सिंहनादप्रभूति तर्जनमेव चकारेति भावः ॥१६॥
अन्वय-एक: नाशदस्यः पर्जन्यानां ध्वनि अनु सिंहनादान स्फावयन् मुनिपरिसरात् स्वः आशैः तजंयन् पूर्वबन्धौ भगति मुनी उच्चः प्रीतः सन् प्रोतिप्रमुखाननं स्वागतं न वाजहार ( इति ) मूई हा धिक् । ___ अर्थ-कुत्सिन ( तथा । नाश से प्रेरित उस दैत्य ने मेघों की ध्वनि के साथ सिंह के मा। गाय की वृद्धि करते हए मुनि के समीप से अपने आक्रोशों द्वार। भर्त्सना कर पूर्वजन्म के छोटे भाई, ( अत्यधिक ) माहात्म्य वाले मुसि. अत्यधिः न ही श्रीशिदरे वचनों से सामान नहीं किया । हा, उस मूढ को धिक्कार है।
व्यापा-वह कमठ का जीव यक्ष कुत्सित था और विनाश को प्रिय मानता था, अतः उस मुनि के सामने उसने जोरों से सिंहनाद किया, मेघों की आवाज कराई, उनकी तरह-तरह से भर्त्सना की। अत्यधिक प्रसन्न होकर प्रीति से भरे वचनों द्वारा उनका स्वागत नहीं किया । हाय, उस मूढ़ को धिक्कार है। माशदैन्यः का दूगरा अर्थ है-नाश है प्रिय जिसको । क्वायं योगी भुचनमहिती दुविलध्यस्वशक्तिः, क्वासौ क्षुद्रः कमठदनुजः क्वेभराजः क्व दंशः। क्या सध्यानं चिरपरिचितध्येयमाकालिकोऽसौ, धूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्य मेघः ॥ १७ ।। क्वामिति । भुवनमहितः भुवनंग लोकेन मह्यते स्म भुवनभहितः त्रिलोकपूजित इत्यर्थः । खिलध्यस्वशक्तिः दुनिलद्ध्या अनिवार्या स्वाधियस्पेति बहुपदो बहुव्रीहिः । अपं योगी एष मुनिः । व कुत्र । सम, नीचः । असो कमठवनुजः अयं कमठच रदत्यः । क्च इमराजः गजेन्द्रः। क्व दंश- दशनामा जन्तुः । 'दशस्तु नमक्षिका' इत्यमरः । कर असत् अशुभम् ध्यानं । पव चिरपरिचितम्येयं चिरात् परिचितगम्पस्तं ध्येयं ध्यातव्यं वस्तु यस्य तत् चिरेणाम्पस्त१. क्व इति महदन्तर।
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प्रथम सर्ग
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विषयमित्यर्थ: । ध्यानं शुभध्यान क्व । माकालिक: अकाल भवः आकालिका अनवसरजः। धूमज्योतिः सलिलमयतां घूमश्न ज्योतिश्च सरिलं च मरुच्च 'ज्योतिः सद्यातदृष्टिषु' इत्यमरः । तेषां सनिपातः सङ्पातः । असा मेघः कालमेघः क्व ।। १७ ॥
अन्वय-दुविलयस्वशक्तिः भुवनमाहितः अर्थ योगी क्व, असौ क्षुद्रः कमठदनुजः क्वः, वव इभराजः, क्व दंशः, चिरपरिचितध्येय आसध्यान क्व असौ धूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपाल' आकालिका मेघः क्व ।
अर्थ-जिसकी आत्मशक्ति का उल्लंघन करना कठिन है, ऐसा तीनों लोकों के द्वारा पूज्य यह योगी कहाँ और नीच कमठ का जीव दैत्य कहाँ, कहाँ तो गजराज और कहाँ वन मक्खा, जिसका ध्येय चिरपरिचित है और पूर्णरूप से जिसका ध्यान शोभन है ऐसा यह योगी कहाँ और धुआँ, अग्नि, जल तथा .. अनुदाम मा अजामति मी ना हो जाने वाला) मेघ कहाँ ?
व्याख्या-जिसकी आत्मशक्ति का उल्लंघन नहीं किया जा सकता ऐसे तीनों लोकों द्वारा पूज्य भगवान् पार्श्व के सामने यह दैत्य उसी प्रकार तुच्छ है जैसे गजराज के सामने मक्ती अथवा उगका मामर्थ्य तुच्छ है । भगवान् पाश्वनाथ उत्तम ध्यानों से सुशोभित हैं, उनका ध्ये। (आत्मतत्त्व। चिरपरिचित हैं, जबकि मेच धुंबा, अग्नि, जल तथा वायु से निर्मित एक भौतिक पदार्थ है। भौतिक पदार्थ उद्बुद्ध चेतन आत्मा बा कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता है।
क्वायं देवो विलसदणिमाद्यष्टभेदस्थितिधिः, क्वाल्पर्धित्वाद् गुरुसुरपशुः क्वाद्विराट् क्वोपलोधः । क्वास्योद्योगः क्य नु मुनिगुणा दुविभेदाः क्व मूकः,
सन्देशार्थाः क्व पटुकरणः प्राणिभिः प्रापणीयाः ।। १८ ।। श्वार्य देव इति । विलसणिमाघण्ट्रोवस्थिढिः अणोर्भायः अणिमा । 'पृथिव्यादे रिमन' इलोमन्त्यः । अणिमा आदिर्येषां ते तथोक्ताः। विलमन्तश्च से अणिमादयश्चेति मंधाग्यः । अष्ट च भेदाश्चाष्टभेदाः । विलसदणिमादयश्च ते अष्टभेवाश्च तथोक्तास्तः स्थितां नित्यतया वसन्त्यः ऋद्धयः तपः प्रभावोद्भूतगुणाः यस्येति बहुपदी बहवोहिः । अयं वेवः स्वामी बच | अल्पवित्वात स्तोकस्वयंत्वात् । गुरुसुरपशुः सुरः परिषेति सुरपशुः गुरुमहापंचासी सुरपशुरुच तथोक्तः क्व । अब अदिराठ अद्रोणां राट् तथोक्तः 'राशि राट्' इत्यमरः । अगेन्द्रः । क्व उपसौषः उपलानामरुमनामोघः समूहस्तथोक्तः। 'पाषाणप्रस्तरमावो
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पाभ्युदय पलायमानः शिल: दृषत् पति सोयोधरि करवातबारसवातसम्भया: इति चामरः । पब अस्य कमठवरस्य । उद्योगों व्यापारः । क्व 'न' विभेवाः भेत्तुमशक्त्याः । मुनिगुणाः योभिगुणाः । एव 'नु पृच्छायां वितर्के चइत्यमरः । मूक: अज्ञः। घक्तुं श्रीतुमशिक्षित इत्यर्थः। 'मुग्धोमूखोजकोऽनशेमूको मूर्खरच कद्वदः' इति धनञ्जयः । पर्व पटुकरण: पनि स्फुटानि करणानीन्द्रियाणि येषां तः विशदेन्द्रियरित्यर्थः। 'करणं साधकतम क्षेत्रगानेन्द्रियेष्वपि ।' 'वहार्मदा गदेषु च । पदुद्वी वाच्यलिङ्गो च' इत्युभयत्राप्यमरः । प्राणिभि प्राणाः सन्ति येषां तेजींवैः । 'प्राणा नु चेतनो जन्मी' इत्यमरः। प्रापणीयाः प्रापयितव्याः । 'भाल प्राप्ती' इति धातोरनी प्रत्यः । सम्वेशार्थाः सन्दिश्यम्त इति सन्देशाः । 'सन्देशः प्रिययोति" इति धनम्जयः । तेषाम् अस्ति व ॥१८॥
अन्वय-विलसणिमाटभेदस्थिसद्धिः अयं देवः बब अल्पद्धित्वात गुबसुरपशुः य? मव अद्रिराट् एव उपोषः ? अस्य उद्योगः क्व दुविभेदाः मुनिगुणाः नु पव ? मूकः क्व पटुकरणः प्राणिभिः प्रापणायाः सन्देशार्थाः क्य?
अर्थ-शोभायमान अणिमादि आठ प्रकार के ऋद्धि से जो युक्त है ऐसा यह देव ( भगवान् पार्श्व ) कहाँ और अल्पऋद्धि वाला होने से महा पशु के समान यह दैत्य कहाँ ? कहाँ तो सुमेरु और कहाँ पत्थरों ( ओलों) का समूह ? इसका उद्योग कहाँ और कष्ट से भेदन करने योग्य मुनियों के गुण कहाँ ? कहाँ तो मौनी और कहाँ समर्थ इन्द्रियों वाले प्राणियों द्वारा प्राप्त करने योग्य सन्देश के वचन ?
व्याख्या-अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति,प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ ऋजियो कही गई हैं। ये किसी श्रेष्ठतम योगी को उपलब्ध होती हैं। भगवान पार्श्वनाथ इन ऋद्धियों से युक्त थे। कमठ के पास ऋद्धियाँ अल्पमात्रा में थीं; क्योंकि देवताओं में ये आंशिक रूप से होती हैं। कमठ देवताओं में भी अत्यधिक नीची श्रेणी के देव के तुल्य था। जिनसेन ने इसीलिए उसे गुरुसुरपशुः कहा है। यहाँ पर गुरु शब्द से कमठ में पशता का आधिक्य व्यजित होता है। भगवान् पाश्च के सामने कमठ वैसा ही था जैसे मेरु के सामने छोटे-छोटे पत्थरों का समूह होता है । मूक पद देने का अभिप्राय यह है कि भगवान् चूंकि ध्यानमग्न थे, अतः उनकी इन्द्रियाँ अपना कार्य करने में असमर्थ थीं । यद्यपि दैत्य जोर से बोल रहा था, किन्तु भगवान् के कान उन शब्दों को ग्रहण नहीं कर रहे थे, देत्य के सन्देश का पाश्वं द्वारा ग्रहण सम्भव न था।
सत्यप्येवं परिभवपथे योजयन्स्वं दुरात्मा, मत्यौद्धस्यास्थयमुपवहन्वारिवाहच्छलेन ।
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प्रथम सर्ग
मायायुद्ध मुनिपमुपमाक्षीणको दुर्जयोऽय
मिस्यौत्सुक्याक परिंगणयन्गृह्यकस्तं ययाचे ॥ १९ ॥ सत्यप्येवमिति । एवं सत्यपि। दुरात्मा दुष्टस्वम्पः कमठः । स्वम् आस्मानम् । परिभवपणे परिभवस्यानादरस्य पन्थाः गागंस्तथोक्तस्तस्मिन् । 'ऋक्यू: पथ्यपात्' इति अत्यः । 'अनादरः परिभवः परीभावस्तिरस्क्रिया' इत्यमरः । योजयन् योजयतीति योजयन् । एजज योगे' इति शतत्यः । सम्बन्धयन् । भन्योखत्यात् उद्घृतस्य भावः औद्धत्य मतेशैद्धत्यं तस्मात् । बुद्धयहकारादित्यर्थः । 'सोन्मादस्तून्मविष्णः स्यादविनीतः समुद्धतः' इत्यमरः । स्वयम् आत्मा । वारिधाहन्छलेम मेघ व्याजेन । 'व्यपदेश निर्भ व्याज पदं व्यतिकरं छलम् । छप इति धनञ्जयः । मापायुझं मायारूप विग्रहम् । उपवहन् धगन् । प्रोत्सुण्मात् उत्सुकस्य भावः औत्सुक्यं तस्मात् स्वेष्ट्रारतत्वात् । 'इष्टार्थोयुक्त उत्सुकः' इत्यमरः । अयं मुनिः 1 अपमाक्षीणकः सुलारहितः । दुर्जयः दुःसाध्यः । इति एवम् | अपरिगणयन् अविचारयन् । गुह्यकः फमठचरः । 'गुहाताः सिद्धोभूतः' इत्यमरः । तं मुनिपं । यमाचे पाचति स्म ॥१९॥
अन्धय –एवं सति दुरात्मा स्वं परिभवपथे योजयन् मत्योद्धत्पात् स्वयं वारिवाहच्छलेन उपबहान् अयं उपमाक्षीणक: दुअंगः इति औत्सुक्यात् अपरिगणयम् गुहकः तं मुनिपं मायायुद्ध अमाचे।
अर्थ-ऐमा होने पर भी उस दुरात्मा यक्ष ने अपने आपको विनाश के पथ में लगाते हुए बुद्धि के प्रक्षोभ से स्वयं मेघ के बहाने समीप जाकर यह भगवान् अनुपमेय हैं, दुर्जेय हैं, इस बात का युद्ध के लिए उद्यत होने के कारण विचार न कर उन मनिराज से मायायुद्ध की याचना की। ___ व्याख्या-बिनाशकाल में प्राणियों की बुद्धि विपरीत हो जाती है। इसी विपरीत बुद्धि से प्रेरित हो यक्ष ने इस बात का विचार नहीं किया कि भगवान पार्श्व अनुपमेय तथा दुर्जय हैं। परिणामस्वरूप उसने उनसे मायायुद्ध की याचना की।
जाता रम्या सपदि विरलैरिन्द्रगोपैस्तका भूः, सेव्याः केकिध्वनितमुखरा भूभृतां कुञ्जदेशाः । योगिस्तस्मिजलबसमये प्रस्खलनात्मधैर्यात, कामात हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥२०॥
जातेति । तया तथाचन समये । भूः भूमिः । विरल: पेलवः 'पेलब विरल तनु' इत्यमरः । मागोपेः रक्तवर्णकमिविशेषः । सपवि सद्यः । 'सद्यः सपदि
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पाश्चाभ्युदय तत्क्षणे इत्यमरः । रम्या मनोहरा। 'रभ्यं सौम्य च सुन्दरम' इति धनञ्जयः । जाता जायते स्म । 'भूभृद्भुमिधरे नये' इत्यमरः। कुछ देशाः निकुम्जप्रदेशाः 'निकुञकुभलो वा क्लीबे लतादिपिहिलोदरे' इत्यमरः । केकिम्बनिसमुखराः के किनां मयूराणां ध्वनितेन ध्वनिना मुग्वराः शब्दयुताः 'दुर्मुखे मुखराबद्धमुखी' इत्यमरः । सेग्पाः सेवितुं योग्याः । माताः जायन्ते स्म । अपंवशाद्विभक्त्या विपरिणाम इत्युभयत्राप्यन्वयः । योगिन् मो मुने त्वं तस्मिन् जलदसमय तादृशे वर्षाकाले आरमर्यात स्थमनोबलात् । ' शौर्य च पौरुषम्' इति धनम्नमः । न प्रस्त्रले न चलेः । तथा हि ! कामार्ता हि वाञ्छितार्थपोडिता हि तनावेतनेषु चेतनाश्चाचेतनाश्च चेतनाचेतना इति द्वन्तः । तेषु विचिद्रूपपदार्थेषु । प्रकृतिकपणाः स्वभावदीनाः । स्वभावः प्रकृति. शोल निसर्गो विलस्रानिजम् ।' कीनाशः कृपणो लुषो गुन्नुर्दीनोऽभिलाषुकः।' इत्युभयत्रापि धनञ्जयः । हि स्फुटम् । 'हि हेताववधारणे' इत्यमरः । कामार्तानामेव जलदसमये चेतनाचेतनद्रव्येषु दैन्यं गमिते कामादेरिति तात्पर्यम् ॥२०॥
अन्वय-तदा भ- विरलै: इन्द्रगोपः सपदिरम्या जाता। भूभृतां किध्वनितमुखराः कुञ्जदेशाः सेव्याः ( जात्रा)। तस्मिन् जलदसमये आत्म यात् योगी न प्रास्सलत् । प्रकृतिकृपणा हि चेतनाचेतनेषु कामार्ताः ।
अर्थ-उस समय पृथ्वी सुकुमार इन्द्रगोपों से शीघ्र ही रमणीय हो गई। मोरों की ध्वनि से वाचालित ( शब्दयुक्त ! पर्वतों के कुलप्रदेश सेवन करने योग्य हो गए। उस मायानिर्मित वर्षाकाल में योगी आत्मवेर्य से स्खलित नहीं हुआ। स्वभाव से दोन अथवा कायर व्यक्ति चेतन और अचेतन पदार्थों में विकार को प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-मायानिर्मित मेघों के आगमन के फलस्वरूप पृथ्वी पर इन्द्रगोप ( लाल रंग के एक प्रकार के कीड़े ) उत्पन्न हो गए । पर्वतों के कुञ्जों में मोरों की ध्वनि होने लगी । ऐसे समय भी योगी अपने धैर्य से विचलित नहीं हुआ | जो स्वभाव से धीर होते हैं, उनका मन चेतन और अचेतन वस्तुओं में विकृति को प्राप्त नहीं होता है। जो स्वभावतः धैर्य से च्युत हो जाते हैं, उनके ही मन में विकृति का प्रादुर्भाव होता है भगवान् चूंकि स्वभाव से धीरोदात्त प्रकृत्ति के थे अतः उनके मन में विकृति नहीं हो सकती थी। इसी कारण वे आत्मध्यान में लवलीन रहे ।
ऊर्ध्वजु तं मुनिमतिघनैः कालमेघैः प्रयुक्तो, धारासारो भुवि नमयितुं नाशकद्दुःसहोऽपि ।
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प्रथम सर्ग
जास्याश्वानामिव बहुगुणे भूभृतामुग्रनाम्नां, जातं वंशे भुवनविविते पुष्कलावर्तकानाम् ॥ २ ॥ ऊवंशुमिति । अतिधर्नः परमसान्द्रः। घनं निरन्तरं सान्दम्' 'प्रकर्षे लानेप्यत्ति' इत्य भयत्राप्यमरः । कालमेघः कृष्णचनः। प्रयुमता विहितः । पारासारः धाराणामासारस्त थोक्नः । प्रकृष्टयष्टिरित्यर्थः। 'धाराम्बताने चोत्कर्षों' 'गागारो वेगवद्वपम्' इत्युभयत्राप्यमरः । भुकि भुबने । दुःसहोऽपि सोमो मुला मला : जावों गंषां तेषां देवमण्यादियोग्यावर्तकानाम् । जात्याश्यामा जातो भवाः जात्याः । 'जात: कुलजकान्तयोः' इत्यमरः । जात्याश्चते अश्वाट्च जात्याश्चास्तेषाम् । भुवनविदिते लोकप्रसिद्ध विशिष्ट वा । 'बुद्ध बुधिल विदितं मनितं प्रतिपन्नमय गताबसितम्' इत्यमरः । माणे बहवो गुणा अश्वयोग्या यस्मिन् तस्मिन् । वं अन्वये । 'वंशोऽन्यवायः सन्लानः' इत्यमरः । प्रातमिव सम्भूतमिर विशिष्टवाजिनमिवेत्यर्थः । पुष्कलायसकानां पृष्फल: विशुद्धः आवत: लक्षणविशेषो येषां तेषाम् । 'विशवे पुष्कलामलम्' इति धनम्जयः । उपनाम्नाम् उग्रवशाभिषातानाम् भूभुसां राज्ञाम् । बहुगुणे औदार्यादिबहुलगुणयुक्त । मुवनषिविते जिगद्विख्याते . वंशे गोमें। बात उत्पन्न । अर्श्व अर्वे जानुनी यस्येति ऊनजस्तम् ऊर्यजानु म 1 'वोऽवत्ति' इति जानुनो जुज्ञावादेशी । 'ऊर्ध्वशुरूर्वजानुः स्यात्' इत्यमरः । कायोत्सर्गस्थितमित्यर्थः । तं मनि पालयतीन्द्रम् 1 नमवित नसीकत नायकत् न शक्नोति स्म । तद्ध्यानवृत्ति चलयितु समर्थो नाभवनिति तात्पर्यम् ।।२१॥
अन्यय-अनियनः कालमैत्रै: प्रयक्तः पारासारः दुःसहः अपि पुग्लाबसकानो जात्याश्वानां भुवनविदिने बहुगुणे वंशे जातं ऊर्ध्वज इव पुष्कलावर्तकाना भवनविसि बहगणे वंशे जानं तं कज़' मुनि भुति नमयितु न अशकत् । ___ अर्थ-अत्यन्त घने काले रंग के मेघों से की गई वेगक्ती वर्षा कठिनाई से सहन करने योग्य होने पर भी निर्दोष आवर्त ( लक्षण विशेष वाले कुलीन अश्वों के सारे संसार में विदित बहुत गुण वाले वंश में उत्पन्न ऊर्ध्वजानु वाले अश्व के समान शुद्धात्मा का चिंतन करने वाले उग्र नामक लोक प्रसिद्ध अनेक गुणों वाले देश में उत्पन्न उन ऊर्ध्वजानु मुनि को भूमि पर नमाने में समर्थ नहीं हो सकी।
भूयः क्षोभे गमयितुमनाः स्थान्तत्तिमुनीन्दो
चाटत्वं प्रचिकटयिषु/रमेव ज शम्भ । भो भो वीर स्फुटमिति भवान् मय्यगावल्पमृत्यु, जानामि त्वां प्रकृतिपुरष कामरूपं मघोनः ॥ २२॥
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पार्वाभ्युदय भूय इति । भूयः पुनः । मुमीवोः इन्दुरित्र इन्दुः मुनीमामिन्दु सस्य मुनिचन्द्रस्येत्यर्थः । स्वान्तवृत्ति वित्तवर्तनम् । 'पत्तिवतनजीवने' इत्यमरः । शोभं सम्बलम् । गर्मायतुमनाः प्रापयितुमिच्छन् 'तुमो मनस्वामः' इति सुमो मकारस्य लोपः । वाचरटरवं बहुगावाक्यम् । 'वागा प्लाटो' इत्याटल्यः । 'स्याज्जल्लाकस्तु वाचालो याचाटो बगावाम्' इत्यमरः । प्रचियिषुः प्रकटयितुमिच्छुः 'समिक्षाशंस्विन्दिच्छादुः' इत्युत्यः । एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण धीरं धीरत्वम् यथा तथा जजम्भे जम्भते स्म भाणेत्यर्थः 'म' मानिनामे' लिट। भो भो वीर हे हे शूर । भवान् त्वम् । मयि कमठचरे । अल्पमस्थम् माल्पश्चासौ मृत्युश्चतम् । स्कृतं व्यक्तम् । 'स्फुट प्रत्यक्तमुषणम्' इत्यमरः । अगात् 'इणु मतो' इति धातोः लुड़ि गैत्योरिंगादेशः । अगमवित्यर्थः । इति एवम् । त्यो मुनिम् । मघोनः इन्द्रस्य । “इन्द्रो मरुत्वाम्मघया' इत्यमरः । कामरूप इच्छादानविग्रहम् । इच्छा मनोभवो कामी' इत्यमरः । दुर्गादिसञ्चारक्षममित्यर्थः । प्रकृतिपुरुष प्रधान पुरुषम् । 'प्रकृतिः सहजे पोनावमात्ये परमात्मनि' इति विश्वः । जानामि मन्ये ॥२२॥
अन्वय-मनीन्दोः स्वान्तवृत्ति भूमः क्षोभं गमयितुमनाः काबाटत्वं प्ररिकट. पिषुः भो भो वीर ! ( यः ) भवान् मयि अल्पमृत्यु स्फुटं अगात् । तं ) त्वां मघोनः कामरूपं प्रकृतिपुरुषं स्फुटं जानामि इति एवं धीर जम्मै ।
अर्थ-चन्द्रमा के समान मुनि का मन की प्रवृत्त को पुनः विकृति को प्राप्त कराने की इच्छा से अपनी वाचालता ( बकवादोपन ) को प्रकट करने की इच्छा करते हुए ( यक्ष ने ) हे हे वीर ! जो आप मेरे द्वारा अकाल मृत्यु को पहुँचाये गए थे, ऐसे तुम्हें इन्द्रतुल्य महाराज अरविन्द अथवा लोगों के द्वारा आदर को प्राप्त महाराज अरविन्द के कामदेव के समान रूपवाले प्रधान पुरुष के रूप में स्पष्टतया पहचानता हूँ । इस प्रकार धीरतापूर्वक कहने के लिए मुंह खोला |
व्याख्या-मुनि के मन को क्षुब्ध करने के लिए यक्ष ने पूर्वजन्म की स्मृति दिलाई कि तुम मेरे द्वारा पूर्व जन्म में असमय में ही मारे गए थे। तुम्हें राजा अरविन्द प्रधानपुरुष मानते थे । उस समय तुम्हारा रूप कामदेव के समान सुन्दर था।
येनाऽमुष्मिन्भवजलनिधौ पर्यटन्नैकथा मां, स्थ्यर्थेयर्थे परिभवपदं प्रापिपस्त्वं प्रमत्तम्। कुच्छाल्लब्धे पुनरिवि चिराद्धरनिर्यातनायां, तेनायित्वं त्वयि विधियशादूरबन्धुर्गतोऽहम् ॥ २३ ॥
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प्रथम सर्ग येनेति । येन कारणेन । अमुषिमन् भवजलभिषो जस्लानि निषीयन्तेऽस्मिन्निति जलनिषिः । भवः संसारः 'मावो भवश्च संसारः सरप्यं चैव संसृतिः' इति धनञ्जयः । स एवं जलनिधिस्तस्मिन् । पर्यटन मन् । स्वं भवान् । स्यर्थे व्यर्थे । भाभीक्षपये द्विः। स्त्रीनिमित्तम । प्रमत्त प्रमाद्यति स्म प्रमत्तः तं प्रमादअन्तम् । मां कमठचरम् । नेकधा अनेकप्रकारेण । न एकघा अनेकावेत्यलुषसमासः । परिभवपर्व परिभवस्य पदं तथोक्तम् । तत् तिरस्कृतिस्थानम् । 'पदं व्यवसिनबाणस्थानलक्ष्माझिवस्तु' इत्यमरः। प्रापिपः प्रापयसि स्मां 'आम्ल व्याप्ती' इति धातोः णिधि लुङ् । तेन कारणन । पुनः घिरात बहुकालान् । इति एवम् । कुच्छात् कष्टात् । स्यात्कष्टं कृच्छमाभीलम्' इत्यमरः । रूपये प्राप्त । स्वाय भवति । यिषिवशात् कर्मवशात् । 'नियतिविधिः' इत्यमरः । दूरबन्धुः दूरो विप्रकष्टो बन्धुबन्धिवो पस्येति बहुव्रीहिः । वियुक्तस्वजन इत्यर्थः । 'बन्धुः स्वस्वजनाः समाः' इत्यमरः । अहम् अरनियतिनायां वरविशुद्धिनिमित्तम् । 'वरशुद्धिः प्रतीफारो रनियतिनं च सा' इत्यमरः । अथित्वं याचकत्वम् । गतः प्राप्तोस्मि ॥२३॥
अन्यय-येन अमुष्मिन भवजलनिधी पर्यटन त्वं स्न्यथें स्थ्यर्थे प्रमत्तं मां परिभवपदं एकधा न प्रापिपः । तेन इति पुनः विधिवशात् कृच्छात चिरात् लब्ध त्वयि दूरबन्धुः अहं वरनियतिनायां अथित्वं गतः । ___ अर्थ-चूंकि इस प्रकार संसारसमुद्र में भ्रमण करते हुए तुमने स्त्री के लिए अत्यधिक जन्मत्त मुझे अपमान की अवस्था को एक हो प्रकार से प्राप्त नहीं कराया । उस कारण इस प्रकार पुनः दैववश अत्यधिक कष्ट से चिरकाल में प्राप्त होने पर तुम्हारा पुर्वभव का भाई मैं कमठ का जीव यक्ष वैर की शुद्धि के लिए याचकपने को प्राप्त हुआ हूँ ॥२३॥
भावार्थ--यक्ष याद दिलाता है कि पूर्वजन्म में स्त्री के कारण उन्मत्त हो मेरा तुमने अनेक प्रकार से अपमान किया था अतः उस वैर का बदला लेने के लिए मैं तुममे कुछ याचना कर रहा हूँ।
तस्माद्वीरप्रयमगणनामाप्तुकामस्त्वर्फ चे, त्पूर्वप्रीत्या सुभट सफलां प्रार्थनां मे विधत्स्व । कालाद्याचे परमपुरुषं त्वाभियायाध युद्ध',
याञ्चा मोघा बरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा ॥ २४ ॥ सस्मादिति । तस्मास फारणात् । परमपुरुष उत्कृष्टपुरुष । त्वां भवन्तम् । 'वामौ द्वितीयाया'। इति युष्मदस्वादेशः । कालात् कालवशात् । अभियाय
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पाश्वाभ्युदय अभिगम्य । मध इदानीम् । 'अद्यावानि' इत्यमरः । युखं सङ्ग्रामम् । याचे प्रार्थये । सुभट हे महावीर । पकं त्वमेव त्वकं भवान् । बोरप्रथमगणमाम् कोरेष शरेषु प्रथमामाद्याम् गणना सारूपाम् । आप्तुकाम: आप्तुमिच्छन् । चेत् यदि भवः । 'पक्षान्तरे चैद्यदि च' इत्यमरः । पूर्वप्रीत्या कमठमाभूतिमवप्रेम्णा । मे मम । 'ते मयायकत्ये' इति अस्मदो मे इत्यादेशः । प्रायमो याचनाम् । सफला फलसहिताम् । विषम फुहाव । 'डुवान धारणे' च लेट् । तथाहि । अधिगुणे अधिकगुणे पुरुषे याचा प्रार्थना मोघो निरर्थकापि । 'मो, निरर्थकम्' इत्यमरः । वरं सम्यक् । 'क्लीवे तु कुंकुम श्रेठेत्रिष्येतेष्वव्ययं वरम्' इति भास्करः । अषये निकृष्टे । लरुषकामा प्राप्ताभिलाषापि । 'कामोऽभिलाषस्तषश्च' इत्यमरः । न वरं न सम्पा .१७॥
अन्धय-तस्मात् ( है ) सुभट ! खक वीरप्रथमगणनां आप्तुकामः चेत् पूर्वप्रीत्या में प्रार्थना सफलां विधत्स्व । त्वं परमपुरुषं अब अभिप्राय कालात् सुद्ध याचे । अधिगुणे याचा मोत्रा न, अधमे लन्धकामा न । यहा अधिगुणे मोषा याचा वर, अधमे लवकामा वर न।
अर्थ-अतः हे सुभट ! दयालु यदि तुम यदि वीरों में प्रथम गणना प्राप्त करना चाहते हो तो पूर्वभव की प्रोति से मेरी प्रार्थना को सफल करो। तुम्हें महापुरुष जानकर आज समय पाकर युद्ध को प्रार्थना करता हूँ। अधिक गुण वाले व्यक्ति से की गई प्रार्थना विफल नहीं होती है, नोच व्यक्ति से की गई प्रार्थना सफल नहीं होती है। अथवा अधिक गण वाले व्यक्ति से की गई प्रार्थना विफल हो जाय तो भो अच्छा है, किन्तु नीच व्यक्ति के प्रति की गई प्रार्थना सफल भी हो जाय तो भी ठीक नहीं है।
व्याख्या--यदि वास्तव में तुम शूरवीर हो तो मेरी युद्ध की प्रार्थना को स्वीकार करो। मैं यक्ष तुम्हें बड़ा मानकर हो तुमसे याचना कर रहा हूँ, क्योंकि अधिक गुण वाले के प्रति की गई प्रार्थना विफल नहीं होती है। अथवा विफल हो जाय तो भी अच्छा है। नीच व्यक्ति के प्रति की गई प्रार्थना सफल नहीं होती है और सफल हो जाय तो भी ठीक नहीं है।
जेतुं शक्तो यदि च समरे मामभीक प्रहत्य, स्वर्गस्त्रोणामभयसुभगं भावुकत्वं निरस्यन् । पृथ्ख्या भक्त्या चिरमिह वहन राजयुद्ध्वेतिरूलिं, सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोवप्रियायाः ॥ २५ ॥
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प्रथम सर्ग
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जेतुमिति । अभीक न विद्यते भीमयं यस्येत्यभोकः तस्य सम्बोधनं हे सप्तभयविप्रयुक्त । 'अभीकः कामुके गरे कवी च भयवजिते' इति विश्वः । समरे रणे । 'अस्त्रियां :... ' मर | it : शहत्य वाया। जेतु जयनाय । यदि च वापत: त्वं समर्थोसि चेत् । 'यत्तय तस्ततो हेतो' इत्यमरः । बह अस्मिन जगति । राजपुष्वा राजानं योषितवानिति राजयुवा राजसहा 'कृष्यादिभ्यामिति कवनिप । कवी युगे भृगाङ्गे च शक्रे राजाविभापितः' इत्यभिधानात् । 'यमयोधकः' इत्यमरः । इति एवम् । संढ प्रसिद्धिम् । वहन् धरन् । सन्तप्ताना विरहसंज्वलितानाम् । 'सन्तापः सम्वरः समौ' इत्यमरः । स्वर्गस्त्रीर्णा देवस्त्रीणाम् । अभयसुभगम अभयेन त्वप्रापणधैर्येश मनोरमं । भावुकत्वं क्षेमत्वम् । "भावुक भबिक भव्यं कुशलं क्षेममस्त्रियाम्' इत्यमरः । निरस्यन् निराकुर्वन् । पपोवप्रियायाः पयोदस्य प्रिया तथोक्ता तस्याः पयोदनाम्मः स्वस्यासुरस्यकान्तायाः । 'रमणोदयिता प्रिया' इति धनन्जयः । पुरख्या महत्वा । भवस्या भजन भक्तिः तया अनुरागण । चिरं बहुकालम् । त्वं भवान् वारणं रक्षकः । 'शरण गहरक्षित्रोः' इत्यमरः । असि भवसि । मुनेजये भरणाभावायेब स्त्रीणामक्षेमता ! यक्षस्य हतौ नत्प्रियायामुनीन्द्रशरण्यता च भवतीति भावः ॥२५॥
अन्वय-(हे ) अभीक समरे ( मां ) प्रहत्य सन्तप्तानां स्वर्गस्त्रीणां अभयसुभगं भावुकत्वं निरस्यन् पुण्याभक्त्या राजयुद्ध्वा इति सहिं इह चिरं वह्न मां जेतु यदि शक्तः तत् पयोदप्रियाया त्वं शरणे असि । ___ अर्थ हे कामुक ! बुद्ध में मुझे अस्त्र से मार कर तुम्हारे विरह से जिन्हें दुःख उत्पन्न हुआ है ऐमी देवाङ्गनाओं से तुम्हारे समागम में किसी प्रकार का भय न होने से योभन मुखीपने का परिहार करते हुए अत्यधिक प्रेम से 'यक्ष के माथ युद्ध किया' इस प्रकार को प्रसिद्धि को इस पृथ्वी पर चिरकाल तक धारण करते हुए यदि मुझे जीतने में समर्थ होते हों तो भगवान पर उपसर्ग करने के लिए मेघ के आकार को धारण करने वाले मुझ याक्ष की प्रिया के आप रक्षक हो जायेंगे।
ब्याख्या-दिगम्बर वेष को धारण करने पर तुम मेरे ऊपर तलवार आदि का प्रहार नहीं कर सकते हो अतः तुम्हारा मरण अवश्यंभावी है। और मरकर दवाङ्गनाओं का सुख प्राप्त करोगे । किन्तु यदि तुम मुझे मारोगे और आपनो रक्षा करोगे तो तुम्हारे साथ समागम होने में किसी प्रकार का भय न होने से जिन्हें मुल उत्पन्न हुआ है ऐसी देवाङ्गनाओं के सुख का समागम तुम्हें प्राप्त नहीं होगा। यदि ऐसी स्थिति हो गई तो स्त्री की प्राप्ति न होने से तुम्हें दुःख ही होगा ।
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पार्वाभ्युदय याचे देवं मदसिहतिभिः प्राप्य मृत्यु निकारान्मुक्तो वोरश्रिपमनुभव स्वर्गलोकेऽप्सरोभिः । नैवं दाक्ष्यं यदि तव ततः प्रेष्यतामेत्य तूष्णी,
सन्देश में हर धनपतिकोषविश्लेषितस्य ॥२६॥ पाच इनि । देवं त्वाम् । याचे प्रार्थये । मसिहस्तिभिः मम चन्द्रहासपातः । 'चन्द्रहासालिरिष्टयः' इत्यमरः । मृत्यु मरणम् । प्राय गत्वा । निकारात् तिरस्कारात् । 'निकारो विप्रकारः स्पान्' इत्यमरः । मुक्तः त्यतत्सन् । स्वर्गलोके देवलोके । अप्सरोभिर्देवस्त्रोभिः सह । 'स्त्रियां बहुचप्सरसः' इत्यमरः । वीरधिम वीरवीग । तुम तुम किसी मई: म्यवा तक ते । एवम् इति । वाक्ष्य समर्थता । यवि न न भवति चेत् । ततः तस्मात् धनपतिकोवियतेविप्तस्य धनपतेः बेरस्य क्रोधेन कोपेन विश्लेषितस्य वनितया वियोजितस्य । मे मम । प्रेष्यतां भृत्यस्वम् । 'नियोज्पकिङ्करप्रेष्यभुजिष्यपरिचारकः' इत्यमरः । सूष्णी जोषम् । एश्य प्राप्य । सन्देश वार्ताम् । हर नय । प्रियां प्रतिप्रापयेत्ययः ॥२६॥
अस्वय-मदसिहतिभिः मृत्यं प्राप्य निकारात् मुक्तः (त्वं ) स्वर्गलोके अप्स. रोभिः वीरश्रियं अनुभव ( इति ) देवं याचे । यदि तक एन दाक्ष्यं न ततः तुष्णी प्रेष्यता एत्य धनपत्तिको विश्लेषितस्य मे सन्देश हर ।
मर्थ-मेरी तलवार के आघातों से मृत्यु को प्राप्त कर तिरस्कार में मुक्त हए तुम स्वर्गलोक में अप्सराओं के साथ वीर लक्ष्मो का अनुभव करो, ऐसी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। यदि तुममें इस प्रकार की सामर्थ्य नहीं है तो चुपचाप सेवकपने को प्राप्त होकर कुबेर सदृश अरबिन्द महाराज के क्रोध से वियोग को प्राप्त मा यक्ष के सन्देश को । मेरी प्रिया के पास ) ले आओ।
व्याख्या-दुमरे मत वाले यह मानते हैं कि युद्धस्थल में मरने पर मुक्ति होती है । यक्ष को सम्यनत्य उत्पन्न नहीं था, अतः पार्श्वनाथ भगवान् को प्रलोभन देता हुआ वह कह रहा है कि मेरी तलवार के प्रहार से मृत्यु हो जाने पर अप्सराओं के साथ वीरलक्ष्मी का उपभोग करोगे । यदि इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त करने की तुम्हारे अन्दर सामथ्र्य नहीं है तो मेरे मेवकपने को प्राप्त होओ, ताकि कुबेर के समान अरविन्द महाराज के क्रोध के कारण अलग हुआ मैं अपनी प्रिया के पास सन्देश भेज सकें ।
आद्यः कल्पः सव न सुकरो दुर्घटत्वान्नचान्त्यः, श्लाघ्यो दैन्यान्मुनिमत ततो मध्यकल्पाश्रयस्ते ।
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प्रथम सर्ग
श्रेयास्तस्मिन्सुखमनुभवेरप्सरोभिस्तदुच्चेगन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणाम् ॥२७॥ प्राक पलोकत्रयेण विकल्प त्रयं प्रतिपाद्य तदेव क्रमेण विवृणोति आध इति । मुनिमत मुनिभि नुन । तष ने । आध; आदी भवः द्यः प्रथमः । कल्पः विकल्पः । 'कल्पः स्यात्प्रसय न्याये शास्त्र ब्रह्मदिन विधी' इति विकः । पुर्षतरषात् दासायश्वात् । सुफर सुख कार्यो न न भवति । अश्याच चरमविकल्पदय । वैग्यात् बीनत्वात् । इलाध्यः पूज्य: न भवति । ततः नस्मात्कारणात् । वे नव । 'ते मयाकरवे' इति पुष्भवस्त इलादेशः । मध्यकाल्पामयः मध्यकल्लाश्रयणं । अंपान योग्यः । 'श्रेयाश्रेष्ठमुकल: स्यात्मसमवासिशोभते' इत्यमरः । तस्मिन् मध्यविकल्प । अप्सरोभिः देवस्त्रोभिः । उसः सुखं महासुखं । अनुभवः अनुभूयाः । तत् तस्मात् कारणात् । योधपराणाम् वनदेन्द्राणाम् । अलका माम अलकेति प्रसिद्धा । अलकापुरीप्ति नाम प्राकाश्यसम्भाव्यशोधोपगमकुत्सने' इत्यमरः । वसतिः स्थानम् । 'वसतो रात्रियश्मनाः' इत्यमरः । तत्र से । गन्तव्या यातव्या त्वया प्रापणीयेत्यर्थः ॥२७॥
यस्यां रात्रैरपि च विगमे दम्पतीनां विधत्ते, प्रीति प्राप्तस्तननिधुवनग्लानिमुच्चाहरन्ती । वृष्टा सालं सततविरहोत्कण्ठितैषचक्रवाके,
हिह्मोद्यानस्थितहशिरश्चन्द्रिका धौतहा ॥२८॥ पस्यामिति । यस्यामालकायां पुर्याम् । सततचिरहोरकण्वित: सततमनवरतं 'विरहेण वियोगेन उनकगिटतः पुत्कलितः । 'सतानारतानान्तसन्तताऽविरताऽनिशम् । 'उत्कण्ठात्कालिक समे' इत्युभयत्रायमरः । 'वियोगो मदनावस्था विरहोयल्लक विदुः' इति धनम् जयः । चक्रवाकैः रथाङ्ग पक्षिभिः 1 'कोकरपकना बाकोरमानावयमामकाः ।' उन्यमरः । सालम् अश्रुवातंन सह । 'रोदन धासमधु च' हन्यमरः । पुष्टा लक्षिता। धोतहम् छौनानि विमली कृतानि हम्याणि यया सा तथोक्ता । "हादि धनिना शासः' इत्यमरः । वाह्योद्यानस्थित शिवधगिका बहिवंबाह्य तच्च तान चेनि कर्मधारयः । वाशोथाने तिष्ठति स्म वाह्योचानस्थितः स बासौ रच तस्य ईशान दिगिन्दम्य शिरो मस्तकं तस्मिन् स्थिता चन्द्रिका ज्योत्स्ना । 'चन्द्रिका को दो ज्योत्स्ना' इत्यमरः । रात्र: निशायाः । विगोपि विरामेति । किं पुनः रात्राविपि शब्दार्थः । दम्पतीनां जायापनोनाम् । 'सम्पती
अम्पतो जायापप्ती भार्याफ्ती च ती' इत्यमरः । प्रातस्तमनिमुवमग्लानि प्रातभवा 'प्रातस्तना । 'सायं चिर्र प्राङ्गै प्रगेऽव्यात्' इति ननट् । निघुवनस्य रतम्प ग्लानि
रायासः तथोक्तः । "निधुवन रतम्' इत्यमरः । प्रातस्तमा चासो नियमग्लानिश्वेति कर्मचारयः । ताम् । उपः पर हरम्सी मोषयन्ती । प्रोति प्रमोबम् । 'मुत्प्रीतिः
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पाश्र्वाभ्यदाः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोद सम्मदात्यमरः । विषसे करोति । पनदस्य त्र्यम्बकसखत्यात् चैत्ररथमामबालोद्यानस्यातिरमणीय त्वेन क्रोडाहेतोरागतस्य शशिशेखरस्य परमदिक्पालकस्य तत्र वसतिरूपपन्नब सल्लाष्ठनात्मकस्य चन्द्रस्य चन्द्रिकया कोकदम्पतीविरहादिरुच्यते ॥२८॥
अन्धय-दुर्घटत्वात् आद्यः कल्पः तव सुकरः न, दन्यात् च अन्त्यः श्लाघ्यः न । ततः हे मुनिमत ! मध्यकल्पाश्रयः ते श्रेयान । तस्मिन् अप्सरोभिः उमचैः सुख अनुमत्रः । तत् यस्यां ( या ) रात्रै विगमे अपि दम्पतीनां प्रातस्तन निधुवनग्लानि उच्चः हरम्तो प्रीति विधत्ते सा घौतहा वाद्योद्यानस्थितहरशिररुचन्द्रिका सततविरहोस्कण्ठितः चक्रवाकः सान दृष्टा यक्षेश्वराणां अलका नाम वसति. ते गन्तव्या।
अर्थ- कठिनाई से सम्पन्न होने के कारण पहला प्रस्ताव तुम्हारे लिए आसानी से करने योग्य नहीं है। दीनता के कारण अन्त का प्रस्ताव भी प्रतिनाव नहीं है। अत है मुनियों के द्वारा माने गए ! तुम्हारे लिए मध्य के प्रस्ताव का आश्रय लेना कल्याणकर है। मध्य के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने पर अप्सराओं के साथ अत्यधिक सुख का अनुभव करोगे। अतः जिस अलका नगरी में रात्रि के व्यतीत होने पर भी दम्पतियों की प्रातःकालीन मुरत क्रीड़ा के परिश्रम को अत्यधिक रूप से हरती हुई प्रीति उत्पन्न की जाती है, वह प्रासादों को धवल करने वाली और बाहरी उद्यान में स्थित शिव के सिर की चाँदनी निरन्तर बिरह से उस्कण्ठित चक्रवाकों के द्वारा अश्रपूर्ण नयनों से देखी गई है। ऐसी उस यक्षेश्वरों की उस अलका नामक वसति ( निवास स्थान ) को तुम्हें जाना चाहिए ।
ध्याख्या हे पाव ! तुम मुझे मार सको यह कार्य तो कठिनाई से सम्पन्न हो सकने के कारण तुम्हारे लिए सुगम नहीं है | आप हमारे सेवक भी नहीं बन सकते हैं। क्योंकि उसमें आपको दीन होना पड़ेगा अत: मेरी तलवार से मृत्यु का वरण करने रूप जो मध्यवर्ती प्रस्ताव हैं वह आपके लिए श्रेयस्कर है; क्योंकि इससे तुम अलका नामक नगरी में देवामानाओं के साथ अत्यधिक सुख का अनुभव करोगे। अलका के बाहरी उद्यान में स्थित शिब के सिर के चन्द्रमा की चाँदनी जब प्रातःकालीन सुरतक्रीडा से थके हुये दम्पतियों पर पड़ती है तो वह उनके सम्भोगजन्य परिश्रम को नष्ट कर प्रीति को उत्पन्न करती है । रात्रि भर चकवियों से बिछुड़े हुए चकवाक आँखों में आँसू भरकर उस चाँदनी को देखते रहते हैं ।
मत्तोमृत्यु समधिगतवान्यास्यसोष्टा गति तां, यस्मिन्काले विधुतसकलोपप्लवस्त्वं सुखेन ।
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प्रथम सर्ग
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दृष्टाऽधोनियमितवृशो दिध्ययोषास्ततोषास्वामारुतं पवनपथवीमुद्गृहीसालकान्ताः ||२९||
मत्त इति । यस्मिन् काले समये । एवं भवान् मतः मत्सकाशात् । मृत्यु मरणम् । समधिगतवान् प्राप्तवान् । विद्युतसकलोपप्लवः विद्युतो निराकृतः सकल उप उपद्रवो येन स सथोक्तः । मुन आनन्देन । 'शशातसुखानि च' इत्यमरः । इष्टाम् अभोष्टाम् । इष्टं क्षेमा शुभाभावे' इत्यमरः । तां गतिम् उत्तरगतिम् । यास्यसि प्राप्स्यसि । 'या प्रापण' लृट् पप वचनस्य मी मार्गम् आकाशम् ' पन्थानः पदवी सुतिः' इत्यमर: । आरूढम् आक्रान्तम् । त्वाम् भवन्तम् 1 विव्योषाः देवस्त्रिय: । 'स्त्री योषिदडला योषा' इत्यमरः । सप्तोषाः सन्तोषेण सहिताः उद्गृहीतालकान्ताः उद्धृतकुन्तलायाः । अलकाश्चूर्ण कुन्तलाः' इत्यमरः । अयोनियमितवृशः अधः अधोभागे नियमिते निश्वलोकृते दृशौ याभिस्ताः तथोक्ताः सत्य: द्रष्टारः । दृशेर्लोट् प्रेक्षमाणाः भविष्यन्ति । त्वां लब्धुमुत्सुका द्रश्यन्तीत्यर्थः ॥ २९ ॥
अन्वय
-- मतः मृत्यृ समधिगतवान् विद्युतसकलोपप्लवः त्वं यस्मिन् काले तां इष्टां गति सुखेनयास्यसि ( तस्मिन् काले ) पवनपदवीं नातं त्वां उद्गृहीतालकान्ताः सन्तोषाः दिव्ययोषाः अधोनियमितदृशः (सत्य ) दृष्टारः ।
अर्थ- मुझसे मृत्यु को प्राप्त समस्त उपद्रवों का विनाश करने वाले तुम जिस समय उस इष्टगति को आनन्दपूर्वक जाओगे | ( उस समय ) पवन के मार्ग (आकाश) में आरूढ तुम्हें बालों के अग्रभाग को ऊँचाकर, सन्तोष से युक्त देवाङ्गनायें नीचे किए हुए निश्चल नेत्रों से अवश्य ही देखेंगी ।
व्याख्या - मेरे द्वारा मृत्यु को प्राप्त करने पर तुम्हारे सारे उपद्रव समाप्त हो जायेंगे और तुम स्वर्ग में जाओगे। उस समय आकाश में जाते हुए तुम्हें देवाङ्गनायें नीचे की ओर दृष्टि कर देखेंगी। अपने मुँह पर बिखरे हुए बालों के छोर को वे ऊपर करेंगी ।
दिव्ये याने त्रिदिवर्षानितालिङ्गितं व्योममार्गे, सन्माणिवयाभरणकिरणद्योतिता तदानीम् ।
गां गच्छन्तं नवजलधराशङ्कयाज्यः स्थितास्त्वां प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः प्रत्ययावाश्वसन्त्यः ||३०||
I
दिव्य इति । तदानीं गमनावसरे। 'तदा तदानीम् इत्यमरः । व्योममार्गे नभोवत्र्त्मनि । 'व्योम पुष्करमम्बरम्' इत्यमरः । विषये दिवि स्वर्गे भवं दिव्यं तस्मिन् । याने विमाने । त्रिविमितालिङ्गितं देवस्त्रीभिरालिङ्गितम् । सम्माणिक्याभरण
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पार्थ्याभ्युदय किरणलोतिसामाजिक र सामाभरणानि सन्माणिक्याभरणानि सन्ति च तानि चेति कर्मधारयः । 'सत्ये साधो विद्यमाने प्रशस्तेऽभ्यहितेऽपिसन्' 'अल हारस्त्वाभरणम्' इत्युभयत्राप्यमरः । सेषां किरणः मयूखा घोतितानि प्रकाशितान्यान्यवयवा अस्य तम् । गां दिवम् । 'स्वर्गषु पशुवाग्वनदिङ्लेत्र घृणिभूजले । लक्ष्यदृष्ट्या स्त्रियां सि गौः' इत्यमरः । गच्छन्तं प्रस्थित स्वाम् । नवजलधराशङ्कया नूतनजलधरसन्देहेन । अध: स्थिताः भमिष्ठाः । पथिकवनिताः पन्थानं गच्छन्तः पथिकास्तेषां अमिताः। 'पदष्ठट्' इति ठट् । 'पान्थः पथिक इत्यपि 'वनिता महिला तथा' इत्युभयत्राप्यमरः । प्रत्ययात् प्रियागमन विश्वासात्। 'प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञान विश्वासहेतुषु' इत्यमरः । आश्वसन्स्य: आङ,पूर्वकस्य श्वसधातोः शतृत्यः । प्रीणन्त्यः सत्यः । शिष्यन्तै द्रक्ष्यन्ति ॥३०॥
अन्यय-तदानीं व्योममार्गे दिव्ये याने त्रिदिवनितालिक्षितं सन्माणिक्याभरणकिरणद्योतिताङ्ग, गां गच्छन्तं भवः स्थिताः पथिकवनिताः नवजलधराशया प्रत्ययात् आश्वसरत्यः त्यां प्रेक्षिष्यश्ते ।
अर्थ-तुम्हारे गमन के समय आकाशमार्ग में दिव्य यान पर देवाङ्गनाओं द्वारा आलिगित, सुन्दर माणिक्यों के आभषणों की किरणों से द्योतित अङ्ग वाले स्वमं भूमि को जाते हुए तुम्हें, भूमिप्रदेश पर स्थित पथिकों की स्त्रियाँ नए मेघ की आशङ्का से उत्पन्न प्रिया गमन के विश्वास से आनन्दित होती हुई अवश्य देखेंगी।
व्याख्या-जब आप आकाशमार्ग में दिव्य यान पर सवार हो देवाङ्गनाओं से आलिङ्गित होकर जा रहे होंगे, उस समय तुम्हारा अङ्ग नए आभषणों की किरणों से घोतित हो रहा होगा । ऐसी अवस्था वाले आपको पथिकवनितायें नया मेघ समझेंगी। नए मेघ के आने पर प्रियागमन अवश्य होगा, ऐसा सोचकर आनन्दित होनेवाली पथिकवनितायें आपको अवश्य देखेंगी।
स्थादाकूतं मम न पूरतः स्वस्थवीरानणीर्यस्तिष्ठेवेक क्षणमिति न त साम्प्रतं हन्तुमीशः । नन्वेषोऽहं बव भटमतः कीर्तिलक्ष्मीप्रियो वा, क: सन्नवे विरहरिधुरी स्वप्युपेक्षेत जायाम् ॥३१॥ स्यादाकूतमिति ! मम यक्षस्य । पुरतः अग्रतः । यः कश्चन पुरुषः । स्वस्थवोरातमीः वीराणामग्रणीस्तथोक्तः भटाग्रेसरः । स्वस्थः परानपेक्षी स धासौ वीरामणीश्चेति कर्मधारयः । सङ्ग्रामरसिकः सन् । एक अणम् एकक्षणपर्यन्तम् ।
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जसिष्ठत न वसेत । तं तं पुरुषम् । साम्प्रतम् इदानीम् । एतहि सम्प्रतीदानीमधुना साम्प्रतं तथा' इत्यमरः । हन्तु हननाय । नेशः अहे कमठचरः में समर्थः । इत्याकूतं एतावानभिप्रायः । 'आकृतं स्यादभिप्रायः' इति व्यारिः। स्यात् तहि । एषोऽहं प्रत्यक्षभूतो पक्षः । भटमतः भटमन्यते स्म भटमतः वीरवर्यः । बा अथवा । 'उपमायां विकल्पे वा' इत्यमरः । कोतिलक्ष्मीप्रियः कीर्तिश्च लक्ष्मीश्च तयोः प्रियो बल्लभः तथोक्तः । ननु न किम् । 'प्रश्नावचारणानुज्ञाऽनुनयामन्त्रणे ननु' इत्यमरः । बब त्वं हि । त्वयि भवति । सन्नई सज्जीकृते सति । 'सन्नद्धो बर्मितः समः' इत्यमरः । विरहविषुरा विहरेण विधुरा विवशाम् । 'विधुरंतु प्रविश्लेषे' इत्यमरः । जायां कान्ताम् । 'भार्या जाया' इत्यमरः । का उपोत काकुः । न कोप्युपेक्षा कुर्यादित्यर्थः ॥३॥
अन्वय-यः स्वस्थवीरामणी- मम पुरतः एकः क्षणं तिष्ठेत् । साम्प्रतं हन्तु ईशः न इति न ( इति ) आकूतं (ते ) स्यात् ( चेत् ) एषः अहं ननु ! कः वा भटमतः कीर्तिलक्ष्मी प्रियः विरहविधुरां जायो त्वयि सम्नचे ( सति ) उपेक्षेत ?
अर्थ-जो धैर्यवान् ( दूसरों की अपेक्षा न रखने वाला ) शूरों में अग्रणी मेरे सामने एक क्षण ठहरे उसे शीघ्र ही मारने में मैं समर्थ नहीं हूँ, ऐसा नहीं है ( अर्थात् मैं अवश्य ही उसे मारने में समर्थ हूँ)। यदि आपका यह अभिप्राय हो तो यह मैं आपके सामने प्रत्यक्ष खड़ा है। श्रोष्ट योद्धाओं के द्वारा आदर को प्राप्त कौन कौति और लक्ष्मी को प्रिय मानने वाला व्यक्ति विरह से दुःखी कान्ता को तुम्हारे सज्जित ( युद्ध के लिए तैयार ) रहने पर उपेक्षा करेगा।
व्याख्या-मैं ( पाव श्रेष्ठ शुर को भी शीघ्र ही मारने में समर्थ हैं, यदि आपका यह अभिप्राय हो तो मैं आपके सामने खड़ा हूँ। आप जैसे लोगों के युद्ध के लिए सज्जित रहने पर कीति और लक्ष्मी को प्रिय मानने वाला मैं विरह से दुःखी अपनो कान्ता की उपेक्षा नहीं कर सकता हूँ।
श्रुत्वाप्येवं बहुनिगरितं जोषमेयायमास्ते, योगी योगान्न चलतितरां पश्य धोरत्वमस्य । स्त्रीमन्यो वा भयपरवशः सोऽयमास्ते धिगस्तु, न स्यावन्योऽप्यमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः ॥३२॥
श्रुत्वापीति । एवम् उक्त प्रकारेण । घनिधितं बहुना भाषितम् श्रुत्वापि श्रुतिविषयं करवापि । मयं योगी एष मुनिः । ओर्ष तृष्णीम् 'तूष्णीमर्थ सुखे जोषम् इत्यमरः । मारते वर्तते । पोयात् ज्यानात् । म बलतितराम न कम्पतेतराम् ।
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पाश्र्वाभ्युदय 'द्वयोविभज्ये व तरम्' इति तरयः । 'आधयोकितिजोसस्तयाम्'ि इति अस्यइन । अस्य मुनेः । धीरवं धैर्यम् । पश्य प्रेक्षस्व । वा अथवा । सोऽयं स एव मुनिः । स्त्रीमन्यः आत्मानं स्त्रियं मन्यते इति स्त्रीमन्यः । भयपरमशः भयाधीनः । मास्से वसते । विगस्तु निन्द्योऽस्तु । 'कु घिङ निर्भत्सन निन्दयोः' इत्यमरः । यः जनः यः कश्चन पुरुषः । पराधीनवृत्तिः परेषामधीना वृत्तिवंतनं यस्य तथोक्तः । 'परतन्वः पराधीनः परवान्नाथवानपि । 'वृसिर्वतन जीवने' इत्युभयत्राप्यमरः । स: अन्योपि जनः इतरोऽपि पुरुषः । अयमिव एतन्मतिरिय । न स्यात् न भवेत् । पराधीनजीवितेषु अयमपन्तपराधीन इति तात्पर्यम् ।
अन्वय-एवं बहुनिगदितं श्रुत्वा मपि अयं योगी जोषमेव आस्ते; योगात् न चलतितरा, अस्य धीरत्वं पश्य । स्त्रीम्मायः वा अयं । घिगस्तु । यः अर्य इव: पराधीनवृत्तिः सः अन्य; जनः भयपरवशः स्त्रीम्मन्यः वा आस्ते । घिगस्तु । यः अन्यः जनः पराधीनवृत्तिः अपि अयं इव न स्यात् ।
अर्थ-इस प्रकार अनेक प्रकार का कथन सुनकर भी यह योगी चुप. ही है, ध्यान से किञ्चित्मात्र भी च्युत नहीं हुआ है, इसकी धीरता को देखो । अथवा यह अपने आपको स्त्री मानता है। विक्कार हो। जो इसके. समान पराधीनवृत्ति है, वह अन्य मनुष्य ( क्या ) भयाधीन नहीं होता है ? अथवा बह यह भयाधीन अथवा अपने आपको स्त्री ( के समान ) मानने वाला है | उस अन्य व्यक्ति को धिक्कार हो जो पराधीन होते हुए भी इसके समान नहीं है। __ व्याख्या—यक्ष द्वारा विस्तार से दिए गए भाषण को सुनकर भी भगवान् पार्श्वनाथ चुप ही रहे, योग से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। यक्ष कहता है कि इसकी धीरता को तो देखो । संसार में जो व्यक्ति दूसरे के अधीन होता है, वह भवाधीन होता है। चूंकि यह ऐसा नहीं है अतः पराधीन व्यक्तियों को इसका अनुसरण करना चाहिए। पराधीन होने पर भी उन्हें भयाधीन नहीं होना चाहिए। अथबा यह पार्श्व भयाधीन होकर अपने आपको स्त्री के समान निर्बल मानता है। उस व्यक्ति को धिक्कार हो जो पराधीन होते हुए भी इसके समान नहीं है।
वित्तानिघ्नः स्मरपरवशां वल्लभां कांचिदेकां, ध्यानज्याजात्स्मरति रमणी कामुको नूनमेषः । अज्ञातं वा स्मरति सुक्ती या मया दूषिताऽसी
तां चावश्यं दिवसगणनासत्परामेकपस्नीम् ॥ ३३ ॥ वित्तानिन्म इति । एषः अयं मुनिः। वित्तानिघ्नः आसमन्तात् निम्नः
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प्रथम सर्ग
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जानिघ्नः वित्तेषु द्रव्येष्वाभिघ्नस्तथोक्तः । द्रव्यं वित्तं स्वापतेयम्' 'अधीमी निघ्न आयत्तः' इत्युभयत्राप्यमरः । 'आङीषदर्थेऽभिव्याप्तो' इति च । कामुकः विषयाभिलाषुकः सन् । 'कामुके कमितानुकः' इत्यमरः । व्यामव्याजात् ध्यान छात् 'व्याजोपदेश:' इत्यमरः । स्मरपरवशां कामार्त्ताम् । वल्लभां प्रियाम् 'वल्लभा प्रेयसी प्रेष्ठा' इति धनञ्जयः । रमण सुन्दराङ्गीम् । 'सुन्दरी रमणी रामा' इत्यमरः । काचिदेां कामध्ये स्त्रियम् । नूनं निश्चयेन ! 'नूनं तर्केऽर्थनिश्चये इत्यमरः 1 हमरति चिन्तयति । या अथवा मया कमठेन । या सुक्ती शोभना वन्ता यस्या इति सुदती 'स्त्रियां नाम्नि' इति दन्तस्य दतादेशः । नष्टुम् इति हो । बसुन्धराभिधा कान्ता । हूषिता निन्दिता आसीत् अभवत् । तां च प्रियां दिवस गणभातस्परम् अवशिष्ट दिवसानां गणनायां सङ्ख्याने तत्परामासक्ताम् । 'तत्परे प्रसितासक्ती' इत्यमरः । अरविन्दकृतशापकलिते परे अवशिष्ट दिनानामत्यये पतिरागमिष्यतीति चिन्तयन्तीत्यर्थः । एकपत्नोम् एक पतिर्यस्याः सा तथोक्ता तां पतिव्रताम् । 'सती पतिव्रता साध्वी पतिवल्ल्ये कपस्यति' इति धनञ्जयः । अवश्यं निश्चयेन । 'अवश्यं निश्चये जयम्' इत्यमरः । अज्ञात परंरबुद्ध यथा भवति तथा। स्मरति ध्यायति ॥३३॥
अन्वय - नूनं एषः वित्तानिघ्नः ध्यानव्याजात् कामुकः स्मरपरवशां काचित् एकां वल्लभां रमणी स्मरति । वा या सुदतो मया दूषिता आसीत् ता दिवस गणनातत्पराम् एकपरनी अज्ञात अवश्यं स्मरति ।
अर्थ -- निश्चित रूप से यह पाश्र्व सम्पत्ति के अधीन नहीं है और कामुक होकर ध्यान के बहाने काम के अधीन किसी विशिष्ट स्त्री को स्मरण करता है । अथवा सुन्दर दाँतों वाली जा मेरे द्वारा दूषित की गई थी, उस शाप के शेष दिनों की गणना करने में तत्पर पतिव्रता स्त्री के समान ( अपने की ) प्रकट करती हुई दूसरे को ज्ञात न हो, इस प्रकार निश्चित रूप से स्मरण करता है ।
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भावार्थ -- समस्त परिग्रह को छोड़ने पर भी ध्यान के बहाने यह पार्श्व किसी विकट प्रिया का स्मरण करता है अथवा पूर्वजन्म में जो स्त्री मेरे द्वारा दूषित की गई थी उसे अपने पतिव्रता के समान प्रकट करती हुई का ध्यान यह दूसरों से छिपाकर करता है ।
जानासि त्वं प्रथमवयसि स्वीकृतां तां नवोढा, त्यक्त्वा यास्यस्य निपतिना साकमेकाकिनों यत् । प्रत्यावृत्तः कथमपि सतों जीवितं धारयन्तीमय्या पन्नासविहतगतिर्द्धक्ष्यसि
भ्रातृजायाम् ॥ ३४ ॥
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'७६
पार्वाभ्युदय
जाना 'म यस्मान मारणान : मनात प्रथमवयति बाल्यावस्थायाम् । 'खगबाल्यादिनार्वयः' इत्यमरः । स्वोकृता प्रागस्वा इदानीं स्वा कृता स्वीकृता तां नयोताम् । उहयते स्म हा नवाचासो ऊदा च तयोक्ता ताम् । एकाकिनीम् असहायाम् ।' 'एकाकी वयेक एककः' इत्यमरः । तो वसुन्धराम् । त्यक्त्वा मुत्रत्वा । अबनिपतिना अरविन्दभूपतिना। साफ सह। 'साकं सत्रा समं सह' इत्यमरः । यास्यसि अगमः । अविहतगतिः सफलगमनः सन् । साचितवनवीयं रिपुनृपस्सन् इत्यर्थः । प्रत्यावृसः पुनरागतः । कथमपि केनापि प्रकारेण । जोदितम् आयुष्यम् । आयुर्जीवितकालो ना' इत्यमरः । धारयन्ती धारयतीति धारयन्तीताम् शतृत्यः । 'उगिदचः' इति नम् । 'नृदुमिति' डी । प्रियागमनप्रत्याशया जीवन्तोमित्यर्थः । अध्यापनाम अप्राप्तविपदम् | "आपन्न आपत्प्राप्तः स्यात्' इत्यमरः 1 अप्राप्तमू द्यवस्थामित्यर्थः । सती पतिव्रताम् । 'सती साथी पतिव्रता' इत्यमरः । भातमायो भ्रातुर्जायां भ्रातुमंम जाया प्रिया कमठस्याप्यनकलेल्याशयः । ताम् । अथवा भ्रातृजायां पुत्रवतीम् । 'प्रजावती भ्रातृजाया' इत्यमरः । सो बसुन्धराम् । प्रक्ष्यसि अपश्यः । जानासि मन्यसे । तत्पूर्वभवप्रपञ्च स्मरेत्यर्थः । अत्र यास्यसि प्रक्ष्यसीति घातुदयस्य स्मृत्यर्थे "यधि टूट्' इति भूतार्थस्मरणविषये स्मृत्यथंघातो नातेरूपपदत्वेन सृट् ॥३४॥
अन्धयजानामि वं प्रथमवसि स्वोकृतां नवोहां एकाकिनी त्यक्त्ता अवनिपतिना साकं यत् यास्यसि अविहतगतिः प्रत्यावृत्तः कथमपि जीवितं धारयन्ती ( अतएव ) अब्यापन्नां सती भ्रातृजायाम् वृक्ष्यसि ?
अर्थ-क्या तुम्हें स्मरण है ? बाल्यावस्था में स्वीकृत उस नवोढा (जिसका विवाह हुए अधिक दिन नहीं हुए ) को अकेला छोड़कर राजा अरविन्द के साथ तुम चले गए थे। सफल गमन वाले तुमने लौटकर किसी प्रकार प्राणों को धारण करने वाली, मत्यु को न प्राप्त हई, भाई के द्वारा पत्नी के समान स्वीकार की गई स्त्री को देखा था ।
व्याख्या कमठ याद दिला रहा है कि अपनी नवोढा परनी को, जिसकी बाल्यावस्था थी, छोड़कर तुम ( युद्धादि कार्य के लिए ) महाराज अरविन्द के साथ चले गए थे। तुमने लौटकर बड़ी कठिनाई से प्राणों को धारण करने वाली उस स्त्री को देखा था, जिसे भाई ने पत्नी के रूप में स्वीकार • कर लिया था।
चित्रं तन्मे यदुपयमनानन्तरं विप्रयुक्ता, त्वत्तः साध्वी सुरतरसिका सा तदा जीवति स्म । मन्ये रक्षत्यसुनिरसनाद्धातुमापद्गतानामाशाअल्पः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानाम् ॥ ३५ ॥
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प्रथम सर्ग
ওও,
चित्रमिति । पत् । तदा तद्भवे । उपयममानन्तरं विवाहानन्तरम् । 'विवाहोप यमी समौ' इत्यमरः । स्वसः भवतः । विप्रयुक्ता विमुक्ता । सुरतरसिका निभुवनप्रीता । साध्वी पलिनता। सा वसुन्धरा । जीवति स्म अजीवत् । तत् तदेतत् । मे मम । चित्रम् आश्चर्यम् । "विस्मयोद्भसमाश्चर्य चित्रम्' इत्यमरः । अवभासत इति शेषः । तथाहि । आपद्गतानाम् आपदं गच्छन्ति स्म तथोक्तास्तेषाम् । 'विपत्त्यां विपदापदी' इत्यमरः । असमाना नारोणाम् । आशावाध; बध्यते अनेनेतिबन्धः बन्धनमिति यावत् । आशेवबन्धस्तथोक्तः प्रायशः प्रायेण । प्रायशो बहुशः परम् । कुसुमसदृशमपि कुसुममूकूमारमपि अतिकोमलमित्यर्षः । षासुप्राणधातुम् । 'शवादी हरितालादी वातश्लेष्मादिकऽनि च । मनःशिला हिरण्यायो श्रोताचे भूतपठनके । भूवादिशब्द योनौ । स्याद्धातु रक्तरसादिके' इत्यभिधानात् । असुनिरसनात् असूनां प्राणानां निरसनं त्यजनं तस्मात् । 'दुटि यसरः गा: प्रत्यादेशो निराकृतिः' इत्युभयत्राप्यमरः । राति पालयति । 'पायेऽवघौ' इति पञ्चमो । प्राणान् गन्तुं न स्यजतीत्यर्थः। मम्ये एवमहं वेमीति यावत् ।
अन्वय-उपयमनानन्तरं स्वतः विप्रयुक्ता सा सुरतरसिका तदा सान्धी सति यत् जीवति स्म तत् मे चित्रं । आपद्गतानां अङ्गनानां हि कुसुमसदृशं धातु असुनिरसनात् प्रायशः आशाबन्धः रक्षप्ति इति मन्ये ।
अर्थ-विवाह के पश्चात् तमो वियुक्त वह सूरत में रसिक उस वियोगावस्था में सदाचारी होकर जीवित रही थी, वह मेरे लिए विस्मयावह है। आपत्ति को प्राप्त स्त्रियों के फूल सदृश मन की प्राण परित्याग से रक्षा प्रायः आशा का बन्धन हो करता है, ऐसा मैं मानता हूँ। ___ व्याख्या-विवाह के अनन्तर सम्भोग की अभिलाषा होने पर भी वह वसुन्धरा तुम्हारा विरह होने पर भी दुराचार का आचरण न कर जो जीवित रही, वह मेरे लिए विस्मय की बात है। विवाह के पश्चात् विरहकाल में काम से सन्तप्त होने पर भी वह मरण को प्राप्त नहीं हुई, यह बड़ा आश्चर्य है। उसी समय उसे दुराचारी हो जाना चाहिए था, किन्तु वह सदाचारी ही रही । अनन्तर कामाग्नि के दाह को महन में असमर्थ हो तुम्हारे निरन्तर वियोग के कारण उसने दुराचार का सेवन किया।
सच्चाश्चयं यदहमभजं त्वद्वियोगेपि कामान्, प्राणैरातः फिमनुकुरुते जीवलोको हताशः । पुंसां धैर्य किमुत सुहृदां किं पुनः सङ्गमाशा, सद्यः पाति प्रणयि हृदय विप्रयोगे रणद्धि ॥ ३६॥
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पार्खाभ्युदय तच्चेति । यत् अहम् । स्वनियोगेपि भवछि रहेऽपि । कामान् अभिलाषान् । *कामोऽभिलाषस्तषश्च' इत्यमरः । प्रभज सेवे स्म । तपन आश्चर्यम् अद्भुतम् । प्राणेः असुभिः । आतः दुःखितः । हताशः नष्ट्राभिलाषः । 'आशाप्तष्णापि जायते' इत्यमरः । जीवलोकः संसारिजनः । किभनुकुक्से कि कार्यमनुकूलं विदधाति च किमपीत्यर्थः । प्राणभयाकामानमभजदिति भावः । किमत अथवा । 'आहो उताहो किमुत विकल्पे कि किमूत च' इत्यमरः । पुंसां पुरुषाणाम् । 'स्युः पुमांसः पञ्चजनाः' इत्यमरः । धैर्य धीरखम् । स्यादिति शेषः । तथाहि । सुहवा मित्राणाम् । “अथ मित्रं सखा सहृद' इत्यमरः । विप्रयोगे विरहे । 'विप्रलम्भो विप्रयोगः' इत्यमरः । सङ्गमाशा संसर्गाभिलाषा । सधः पाति सद्यः पतति इत्येवंशीलं तथोक्तम् । पात्र प्रेमयुम् । प्रावणापत्यार एप जीवितम् । 'हवयं जीविते चित्त बाह्यस्याकूतजीवयोः' इति शब्दार्णवः । कि पुनः रुद्धि पुनः कथं स्तम्भयसीति प्रश्नः । कि पच्छायां जुगुप्सने' इत्यमरः । मित्रवियोगे काम विषयानु भवनं जीवितधारणं च धैर्यादेवेति तात्पर्यम् ।। ३६ ॥
अम्बय-पच्च अहं वद्वियोगेऽपि कामान् अभजं तत् आश्चर्य । प्राणः आत: हताशः जीवलोकः पुसा घेर्य कि अनुकुरुते ? किमुत सुहृदां ? विप्रयोगे पुनः सङ्गमाशा पाति प्राणिहृदयं सध्यः रुणद्धि किम् ।
अर्थ-जो मैंने तुम्हारे वियोग में भी काम का सेवन किया वह आश्चर्य है । मनोबल से दुःखी और जिसकी आशा विफल हो गई है ऐसा संसारी जन क्या सामान्य पुरुषों के धैर्य का अनुकरण करता है ? अर्थात् नहीं करता है, ऐसा व्यक्ति जब सामान्य पुरुषों के भी धैर्य का अनुसरण नहीं करता है, तब अच्छे मन वाले महापुरुषों के अनुसरण की तो बात ही क्या है ? वियोग में पुनः मिलने की आशा पतनशील प्रेमी के हृदय को क्या शीघ्र रोक सकती है ? अर्थात् नहीं रोक सकती।
व्याख्या-आपसे मिलने की आशा यद्यपि मेरे हृदय में उत्पन्न हुई थी, किन्त वह भी मेरे मन के अधःपात को रोकने में समर्थ न हो सकी। इस प्रकार कमठ का जीब यक्ष अपने दुराचार का समर्थन करने का प्रयत्न कर रहा है।
इत्युक्त्वाऽथो पुनरपि सुरः सामभेदो ध्यतानीछोन्तः स्नेहस्त्वयि घिरमभूत्पूर्वबन्धोस्तदा मे । धिक्कारस्तं तिरयतितरां त्वत्कृतोऽस्मान्स हन्तुं, मन्वं मन्दं नुवति पवनश्चानुकूलो यथा त्वाम् ॥ ३७ ।।
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प्रथम सर्ग
७९ इत्पुरत्वेति । इत्युक्स्था एवमभिधाय । अथो अनन्तरम् । पुनरपि भूमोपि । 'सुरः देवः सामभेवी सामभेवयचने । 'सामदाने भेददण्डावित्युगायचतुष्टयम्' इत्यमरः । उपसानीत विस्तारमकरोत । पूर्वबन्धोः प्राम्भवनातुः । मे मम । तया तज्जन्मनि । स्वयि भवति । यः अन्तः स्नेहः अन्तरले भवः स्नेहस्तयोक्तः । अन्तःप्रीतिः । “पिर स्थिरम् । अभूत् अभवत् । तं स्नेहम् । स्वस्कृतः भन्नता विहितः। धिक्कार: "तिरस्कारः । तिरयतितराम् अत्यन्त तिरस्करोति । पुमः अनुकूला अनुरूपः । पवनः वायुः । 'नभस्वद्वातपवन' इत्यमरः । मेघमित्याशयः । यथा च नुवति यत्प्रेरयसि । यत्तदोलित्यसम्बद्धत्वात् । तदरसः स्वत्कृतधिक्कारः । वो भवन्तम् । हन्तुहननाय । मादं मन्वं शनैः यान: अतिमन्दमित्यर्थः । अथ कथंचिद्वीप्सायां द्विरुषितः । अस्मान मः । नुरसि प्रेरयति । प्राग्भवस्नेहसावेपिस्वरयारविन्दनृपमुखेन कारितधिक्कार-थशात् त्वं हन्तव्य इति तात्रयम् ॥ ३७॥
अश्य-इति उक्त्वा सुरः पुनः अपि सामभेदी व्यतानीत अपो पूर्वबन्धो मे अन्तः यः स्नेहः त्वयि तदा चिरं अभूत् तं त्वत्कृतः धिक्कारः तिरयतितरां । म (1) अनुकूल: पवनः यथा त्वां हन्तु' अस्मान् मन्दं मन्द नुदति । ___अर्य-ऐसा कहकर शम्बरासुर ने पुनः साम और भेद का विस्तार किया । पूर्वभव के भाई मेरे मन में जो स्नेह आपके प्रति उस समय दीर्घकाल तक हुआ था उस स्नेह का तुम्हारा किया हुआ धिक्कार अत्यन्त तिरस्कार कर रहा है और वह अनुकूल पवन मन्द-मन्द गति से चल रहा है, मानों तुम्हें मारने के लिए हमें प्रेरित कर रहा है। ___ व्याख्या-तिरस्कार करने वाले तुम्हें शीघ्र ही मारना चाहिए, किन्तु पूर्वजन्म का स्नेह ऐसा करने से रोक रहा है। तुम्हें मारने के लिए यह वायु भी धीरे-धीरे चलकर प्रेरित कर रहा है ।।
तस्माद्योगं शिथिलय मुने देहि युद्धक्षणं मे, वानादन्यन्न खलु सुकृतं देहिनां इलाध्यमस्ति । शंसन्तीदं ननु वनगजा दानशीलास्तथान्दा, वामश्चायं नुवति मधुरं चातकस्ते सगन्धः ॥ ३८॥
तस्मादिसि । तस्मात् कारणात् । मुने भो योगिन् । योग ध्यानं शिथिलय शिथिलं कुरु । मे मम । युद्धक्षणं सङ्ग्रामोत्सवम् 'अबक्षण उवर्षो मह उद्धव उत्सवः' इत्यमरः । देहि वितर । देहिनां जीनाम् । बानात् त्यागात् । अन्यात भिन्नत् । श्लाघ्य पुण्यम् । सुकृतं पुण्यम् । न खलु नास्ति हि । तथाहि । बान१. नवति ।
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पार्खाभ्युदय शीलाः । 'वानं गजमदे त्यागे शुद्धिखण्डनपोरपि' इति नानार्थमालायाम् । दान गजजलं त्यागोवा सदेव शील स्वभावो येषामिति बहुव्रीहिः । 'शीलं स्वभाव सद्वृत्ते"
मगर बाग. ll :म: * नगअवत् । अम्बा अपो दवति इत्यब्दाः मेवारण । इदं दानमेव श्लाध्यमित्येतत् । शंसनित ननु स्तुबन्ति स्खलु । ते तव । सगन्यः सबन्धुरिति केचित् । 'गन्धो गन्धक आमोदे देखे सम्बन्धमर्वयोः' इति विश्वः । वामः वामभागस्थः । 'बामस्तु रुचके रम्ये सव्य वामस्थितेऽपि व इति पाहार्णवः । अयं चाप्तकरच पक्षिविशेषोऽपि । 'अब सारङ्गस्तोककश्चातकः समाः' इत्यमरः । मधुरं श्राव्य यथा तथा। नुवति प्रेरयति । वामभागे शासकध्वनि: शुभनिमित्तमित्यर्थः ॥ ३८ ॥
अन्वय तस्मात् ( है ) मुने ! योग शिथिलम, मै युद्धक्षणं देहि । दानात अन्यत देहिनां इलाध्यं सुकृत नास्ति खलु । इदं ममु पानशीलाः वनगजाः तथा (तादृशाः ) अब्दा- शंसन्ति । ( यः ) मधुरं नवति । सः ) अयं ते यामः सगन्धः चातकाच ( इदं शसत्ति )।
अर्थ-अत: है मुनि ! ध्यान को शिथिल करो, मुझे युद्ध का उत्सव { आनन्द ) दो । निश्चित रूप से प्राणियों का दान से भिन्न कोई प्रशंसनीय पुण्यकर्म नहीं है । इस बात को दानशील जंगली हाथी तथा दानशील मेघ प्रकट कर रहे हैं । जो मधुर शब्द करता है, वह यह तुम्हारी बायीं ओर स्थित आमोदयुक्त अथवा गभरा चातक यही बात प्रकट कर रहा है ।
यखें शौण्डो यदि च भगवान्वीरशय्यां श्रितः स्याः, स्वर्गस्त्रीणामहमहमिकां संविधास्यंस्तदा त्वाम् । विद्याधर्यो नभसि वृणते पुण्यपाकाद्विनङ्ख्यदाधिानक्षणपरिचयान्ननमाबद्धमालाः ।। ३९ ।। युद्धे चेति । यदि च यथा । भगवान् महात्मा लम् । युखे साम्पराये । शौण्डः भासक्तः । 'मसे शौण्डोत्कटक्षीत्राः' इत्यमरः । स्वर्गस्त्रोणो त्रिदिवनितानाम् । आहमहमिकाम् अहमधिकाऽहमधिकत्यकारोऽवास्ति तथोक्ता ताम् परस्पराहतारम् । 'अहमहमिका तु सा स्यात्परस्परं यो भवत्यहंकारः' इत्यमरः । संविधास्थन् सम्यक करिष्यन् मन् । वीरशय्यां वीरशयनीय षिस: आथितः। 'चिलादिभिः' इति द्वितीमातत्पुरुषः । स्थाः भवेः । तदा तत्समये । नभसि आकाशे । बाबमालाः विरचितपड़ क्तयः । विद्यापर्यः खेचरसीमन्तिन्यः । पुण्यपाकास् सुकर्मपाकात् । विना पयत् गर्भाधानक्षणपरिचयात् गर्भः कुक्षिस्थजन्तुः । 'गर्भे पञ्चक्रके नग्ने सुते पवनसखुटे। फुझौ कुभिस्थजन्ती च' इति यादवः । विनक्ष्यश्वासो गर्भक्ष तथोक्तः तस्माधानमुपादानं तदेव क्षणः उत्सवः । 'निर्व्यापारस्थिती कालविशेषोत्सवयोः क्षणः' इत्यमरः ।
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प्रथम सर्ग तस्मिम्परिचयावभ्यासात् । 'पुण्यपाकाविनळ्यद्गर्भावानक्षणपरिचयात्' इति पाठः सम्यक् । तत्पक्षे विन व्यतीति विनक्ष्यन् । 'ना प्रदर्शने' लट् । 'तास्यो लुलोः' इति स्पः । 'नस्भरजसोमम्' इति नम् । न विनइ क्ष्यन्नविनश्यन् पुण्यसाकेनाविनद्दयन् पुण्यपाकाबिनयन् । अन्यत्र पूर्ववियरतगमस्वीकारादित्यर्थः । नूनं निपचयन । स्वां भवन्नम् । वृगते मंबन्ने ।। ३९ ।।
अन्वय-यदि च युद्धं शौण्डः, स्वर्ग-त्रीणां अहमहमिका मंविधास्मन् भगवान् वीरमाच्या श्रितः स्थाः तदा पुण्यपाकात् बिनङ श्याद्गर्भापानक्षणपरिचयात नमि आवश्चमालाः विद्याधयः त्वां वृणते । ___अर्थ-यदि युद्ध में प्रवीण हो तो स्वगं की स्त्रियों में मैं पहले, मैं पहले इस प्रकार की स्पर्धा कराते हुए हे भगवान् यदि आप वीरशय्या का आश्रय प्राप्त करोगे तो आपके पुण्य के उदय में नष्ट होते हुए गर्भाधान के उत्सव में परिचय मे आकाश में पंक्ति बांधे हुए विद्यारियां तुम्हारी सेवा करेंगी।
व्याख्या-यदि आप युद्ध में प्रवीण हैं तो देवांगनाओं में आपको पहले पाने की स्पर्धा होगी । यदि बुद्ध करते हुए मरण को प्राप्त होगे तो आकाश में विद्यारियाँ आपकी सेवा करेंगी। उनसे सेवित होने पर आपको सुख होगा, जो कि आपकी तपस्या का उद्देश्य है। अतः समाधिभंग होने पर युद्ध भूमि में मरण होने पर सुख उत्पन्न नहीं होगा, ऐसा मत मानो, अपितु नमाधि के द्वारा जिस सुख को पाना चाहते हो, रण क्षेत्र में मरने पर वैसा हो सुख तुम्हें प्राप्त होगा।
योगिराट् पण्डिताचार्य ने पुण्यपाकाविनक्ष्यद्गर्भाधानक्षणपरिचयात् पाठ को ठीक माना है। ऐसा मानने पर अर्थ हांगा-( तुम्हारे ) पुण्य के परिणामस्वरूप नष्ट न होते हुए गर्भ के आधान का उत्सव मनाने की अभ्यासी विद्यापरियाँ आकाश में पक्तियां बाँध बाँधकर तुम्हारी सेवा करेंगी । तात्पर्य यह है कि गर्भाधान के बाद गर्भ का पहले पतन हो जाना था, किन्तु अब पार्श्व के दर्शन से गर्भ स्थिर हो गया है । अतः विद्याधरियों के आनन्द की वृद्धि हो रही है तथा आनन्दित होकर विद्यारियां सेवा कर रही हैं । यह सब पार्श्व के पुण्य की ही गहिमा है।
मूर्छासुप्तं विवशनिहिताम्लानमन्वार मालं, तूर्यध्यानस्तनितमुखरं दिव्ययानाधिरूढम् । खामुग्रन्तं सजलजलदाशवयाऽबद्धमालाः, सेविष्यन्ते मयनासुभग से भवन्तं बलाकाः ॥ ४० ॥
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पाश्र्वाभ्युक्ष्य मृति । मूस सुप्त मूच्छंया शयितम् । त्रिदशनिहितासामदारमार्स त्रिदर्शनिर्जरैः निहिता निक्षिप्ता सचोक्ता मन्दारस्य कल्पवृक्षस्य माला सफ तथोक्ता । 'मन्दारः परिजातकः । सन्तानः कल्पवृक्षश्य' इति 'माल्यं मालास्त्रजो' इति चामरः । अम्लाना चासौ मन्दारमाला च तथोक्ता त्रिदशानिहिता अम्लानमन्दारमाला यस्य मः तम् । तूर्यध्यानस्तानसमुखरं तूर्याणां नृत्यगीतवाधानाम् 'तौर्यत्रिक मृत्यगीतवानं नाट्यमिद त्रयम्' इत्यमरः । स्तनितं पयोषरस्वनः । 'स्तनितं गजितं मेघनिषे' इत्यमरः । मन मुस्वरः आबद्धमुखः तथोक्तस्तम् । 'दुर्मुस्खे मुखगवद्धमुखौ' इत्यमरः । तं विव्ययानाघिसकम् दिव्यं च तत् याने च दिव्ययानं तदधिरूसम् । दिवम् । छोदिवौ द्वे स्त्रियाम्' इत्यमरः । उद्यन्तम् उद्गच्छन्तम् । नयनसुभगं नयनानां नेत्राणाम् । 'लोचनं नयन नेत्रम्' इत्यमरः । प्रीतिसुभगम् आनन्दकरं । भवन्तं त्वाम् । खे आकाशे । 'अनन्त गुरवत्मं खं' इत्यमरः । मावमालाः विहितणयः । बलाका: पक्षिविशेषाः । 'बलाकाविसकाष्ठका' इत्यमरः । सजलजलवाशढ़या जनहितमेघाशड्या । सेविष्यन्त भजिष्यते ।। ४० ।
अन्वय-मच्छ सुतं त्रिदशनिहिताम्लान मन्दारमाल दिव्ययानाधिरून नयनसुभगं तुसंध्वानस्तनितमुखर द्यामुधरतं भवन्तं सजलजलदाशया आरमालाः बलाकाः से सेविष्यन्ते । ____ अर्थ-मूर्छा से सोए हुए, देवताओं ने जिसके गले में नवीन कल्पवृक्ष के फलों की माला रखी है। दिव्ययान पर आरूढ, नेत्रों के लिए सुन्दर लगने वाले, दुन्दुभितुल्य आनद्धवा की गर्जना से वाचालित, आकाश मार्ग में ऊपर की ओर जाते हुए आपकी जलसहित मेघ की आशंका से पंक्ति बांधे हुए बगुलियाँ सेवा करेंगी।
बाल्या--यक्ष कह रहा है कि हे पार्श्व ! मेरे प्रहार से उत्पन्न मर्छा के कारण सोए हुए, युद्ध भूमि में मृत्यु को प्राप्त करने के कारण देवों ने जिसके गले में माला पहिनाई है, नेत्रों को सुन्दर लगने वाले, दिव्य विमान पर आरूढ, आकाश में ऊपर की ओर जाते हुए आपको जलयुक्त मंघ समझकर बगुलियाँ पंक्ति बाँधकर सेवा करेंगी।
योगिन्यश्यस्त्वस्तुलधृतेर्भङ्गहेतून्पयोदास्तद्गम्भीरध्वनितमपि च श्रोतुमर्हस्यकाले । केकोद्ग्रोवाहिशखरिषु चिरं नर्तयेद्यन्मयूरान्, फत यस्च प्रभवति महीमुच्छिलोन्द्रामवन्ध्याम् ॥४१॥
योगिम्मिति । योगिन् भो यते । भकाले अनवसरे। स्वातुलते तक भसुला असमामा धृतिर्षीरता तपोक्ता तस्याः। 'तिर्धारणधैर्ययोः' इत्यमरः । भङ्गाहेशन
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प्रथम सर्ग
पराजयकारणभूतान् । पयोषान् स्तनयित्नुन् । पश्यन् प्रेक्षमाणः सन् । शिरिषु भूधरेषु । 'महीने शिवरिष्माभत इत्यमरः । केकोशीवान केफया स्वकोयवाण्या 'केका मास्त्र' हा ' समा गया येषा में तथोक्ताः 'अथ ग्रीवायो शिरोधिः कन्धरेत्यपि' इत्यमरः । तान् मयूरान् नीलकण्ठान् । चिरं नतंयेत् माटयेत् । यच्च मही भुवम् । अवन्ध्यां सफलाम् ! 'बन्थ्योफलो बकेषों च' इत्यमरः । उच्छिलीन्द्रो 'कन्दल्यामुच्छिलीन्द्रा स्यात्' इति शब्दार्णवः । उद्गताः शिलोन्द्राः अङ्गुरविशेषाः यस्याः सा तथोक्ता ताम् । उसन्नसस्थारामित्यर्थः । कत विधातम् । प्रभवति समर्थ भवति । तचन गम्भीरस्तनितमपि श्रोतु प्रवणाय अर्हसि योग्यो भवसि । इदं गजित ग्वित्यर्थः ।। ४१ ॥
अन्वय--अपि च योगिन् ! स्वदसुलघृतेः भङ्गतम् पयोदान पश्यन् यत् केकाद्ग्रीमान् मयूरान् शिवरिष चिरं नर्तयेत् च महीं उपिछलीन्नां अवन्ध्यां कतु प्रभवति तत् गम्भीरध्वनितं अकाले श्रोतुमर्हसि । ___ अर्थ--दुसरी बात यह है कि हे योगी! तुम्हारे अतुल धैर्य के नाश के कारण मेघों को देखते हुए जो ध्वनि करते हुए ऊँची गर्दन किए हुए मोरों को पर्वतों पर चिरकाल तक नचाएगो एवं पथ्वी को शिलीन्ध्र पुष्पों में बानत और सफल करने में समर्थ होगी उस गम्भीर ध्वनि को वर्षाकाल में भिन्न समय में सुनने योग्य हागे अर्थात् सुनोगे ।
माख्या--तम्हारे धैर्य को नष्ट करने में जो समर्थ हैं ऐसे मंघ को देखकर पर्वतों पर मार नाच उठेंगे । पृथ्वी शिलीन्द्र पुष्पों से युक्त होकर धन-धान्य से समृद्ध हो जायगी और मेघ को गम्भीर गर्जना को आप वर्षाकाल से भिन्न काल में सुनोगे।
पश्योत्स्ता धवलितदिशो मन्दमन्दं प्रयान्तो, दृश्यन्तेऽमी गगनमभितो मन्दसानाः स्वनन्तः । बद्धोत्कण्ठोद्विर्गालतमदाः प्रावृषेण्याम्बुदानां, तच्या ते श्रवणसुभगं जितं मानसोकाः ।। ४२ ।। पश्यति । प्रावृषेण्याम्बुबाना प्रावृपि भवाः प्रावृषेण्याः 'प्रावृषेण्यः' इति साचुः । "स्त्रियां प्रावट स्त्रियां भूम्नि बर्गः' इत्यमरः । वर्षाकालोद्भता इत्यर्थः । तं च ते अम्बुदाइच तेषाम् । श्रवणसुभगं थोत्रप्रियम् । तत् गजितं स्तनितं वा उस्त्रस्ताः भोताः । बोस्कण्ठोडिगलितमाः बद्धा उत्कण्ठा वियोगदुःखम 'उत्कण्ठोत्कालिके समे' इत्यमरः । तया उद्विगलितः शिपिलितो मदो हर्षो येषां ते तथोश्ताः । स्वारस्तः यमन्तः । मानसोकाः मानसे मानसाभिधाने उत्तरदिविस्थते सरसि उत्काः उन्म
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पाश्र्वाभ्युदय नसः । प्राप्तुमिच्छत इत्यर्थः । 'स्यादुत्क उन्मनाः' इत्यमरः । पचलितविश: शुभ्रीकृतककुभः । 'बलो धवलोऽर्जुन: ।' “दिशस्तु ककुभः काष्ठाः' इत्युभयत्राप्यमरः । धवलवर्णा इत्यर्थः । गानं व्योम । अभितः समसात् । मधमर्च शनैः शनैः । प्रयान्तः गच्छन्तः । तेऽमी मन्वसामाः । ते एने हंसाः वृश्यन्ते प्रेक्ष्यन्ते । पश्य अवलोकय ।
अन्वय--प्रावृषेण्याम्बुदानां श्रवणसुभगं तत् गजित श्रुत्वा मानसोकाः बद्धोकण्ठोडिगलितमदाः उस्वस्ता- मन्दमन्दं प्रयान्तः पालसदिशः अमी मन्दसाना: गगन आभतः स्थमगाः दृश्यात गश्य ।
अर्थ-वर्षाकालीन मेघों की कानों को सुन्दर लगने वाली उस गर्जना को सुनकर मानसरोवर को जाने के लिए उत्कण्ठित, उत्कण्ठा के कारण नष्ट हरा आनन्द वाले, भयाकुल, मन्द मन्द गलि से जाते हए, दिशाओं को धवलित करते हए ये हंसविशेष आकाश में चारों और ध्वनि करते हुए दिखाई दे रहे हैं ( इन्हें । देखो।
भावार्थ-वर्षाकाल होने पर हंस मानसरोवर की ओर जाने लगते हैं। कृत्रिम मेघ को देखकर वर्षाकालीन समय जानकर हंस मानसरोवर की ओर जाने लगे।
ते चावश्यं नवजलधरैरुन्मनीभूय हंसा, मत्प्रामाण्यात्तव जिगमिषोर्धाम यक्षेश्वराणाम् । साच्छन्ते पथिजलमुचामापतन्तः समन्तादाकैलासादिबसकिसलयच्छेवपायवन्तः ।।४३||
से चेति । मप्रामाण्यात् प्रमाणस्यभावः प्रामाष्पं 'प्रमाणं हेतुमर्यादाशास्त्र यत्ताप्रमातृषु' इत्यमरः । ममैत्र प्रामाण्ये मत्प्रामाण्यं तस्मात् । मचनप्राधान्यात् । रक्षेश्वराणाम् गुपकानाम् । वाम स्थानम् । 'गृहदेहत्विट्प्रभावा घामामि' इत्यमरः । जिगमिषोः गम्सुमिमहतीति जिगमिषुः तस्य । सब ते । जलमचां तनित्वताम । पथि वर्मनि ज्योम्नीत्यर्थः । आलासात् 'मर्यादायामाइ,' इति पञ्चमी । 'भाहीषद ऽभिभ्याप्ती सीमा घातुयोगजे' इत्यमरः । कैलासनामपर्वतमर्यन्तम् । समन्तात् सर्वतः । आपतरतः गच्छन्तः । विसकिसलयच्छेदपायेयपन्त. निसकिसलयानां मुणालाग्राणाम् 'नालो नालमया स्त्रियाम् । मृणालं बिमम्' इति पल्लवोऽस्त्री किसलयम्' इत्यध्यमरः । छेत्रः शकालं स एव पपि साधु पाथेयम् । 'पण्यादण' इति हत्यः । तदस्त्येषामिति विसक्रिसलयच्छेदपायवन्तः । ते च हंसाः मरालाः । नवाजलधरे. नुसनाम्बुधरैः । उम्ममीभूष प्रागनुम्मनसः इदानीम् उन्मनसो भवनम् उन्मनीभवनम् तत्पूर्व पश्चाकिचिदित्युन्मनीभूय क्लेशिनो भूत्वेत्यर्थः । अवश्य निश्चयेन् । साच्छन्ते सङ्गता भवन्ति । 'संविप्रायात्' इति तङ ॥४३॥
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प्रथम सर्ग
अन्वय----मात्रामाण्यात यक्षेश्वराणां धाम जिगमिषोः तव आसमन्तात् जलमुचां पथि आपतन्तः विकिसलयछेदपाश्रेयवन्ता से च हसाः नवजलधरः सामनीभूय आकेलासात् सङ्गच्छन्ते । ___अर्थ-मेरे प्रति विश्वास के कारण कुबेर के निवास स्थान को जाने के इच्छक तुम्हारे चारों ओर मेघों के रास्ते में आ पड़ने पर मार्ग में खाने के लिए ममाल के अनभाग के टुकड़ों को मार्ग के भोजन के रूप में लिए हए वे हम नए मेत्रों से उन्कण्ठित होकर कैलाश पर्वत तक आपके साथी हो जायेंगे।
स्फोतोस्कण्ठा विगलितमदा मन्दमन्दायमाना, मूकीभूताः स्खलितगतयोऽनुन्मुखास्सन्तताशाः । स्वामन्येते पवनपदधीमाश्रयन्तोऽनुरूपाः, सम्पत्स्याले ति मतो राजहंसा: मनायाः ॥४४॥ स्फीतेति । स्फीतोत्कण्ठा: प्रवासाबले शाः । विगलितममाः कृशीभूतप्तोषाः । भन्नमन्वायमानाः मन्दमन्दमाचरन्तीति तथोक्ताः । मूकोभूताः प्रागमूकाः इदानीं मूका भवन्ति स्मेति तथोक्ताः । 'अबाचि मूकः' इत्यमरः । स्खलितगतप: कम्पितगममाः । भमुग्मुखा: उद्गतं मुखं येषां से उन्मुखा: न उन्मुखाः अनुन्मुखाः अधोमुखा इत्यर्थः। सन्तप्तायाः सन्लता विस्तृता आशा अभिलायो दिम्वा मेपां यैर्वति बहुव्रीहिः । 'विस्तृतम् ततम्' । आशा तृष्णापि चायता' इत्युभमत्राप्यमरः । भवतः तव । अनुरूपाः अनुकूलाः । एते राजहंसा: हंस विशेषाः। राजहंमास्तुते पन्चुचरणोंहितः मिताः' इत्यमरः । स्वामनु भवन्तं परि । 'भागिनी च प्रतिपर्यनुभिः' इति द्वितीया । 'पश्चारसादृश्ययोसु' इत्यमरः । पवनपदयोम् अम्बरम् । भाभयम्तः प्राप्नुवन्तः । नभसि खे। भरत ते सहायाः सयात्राः। 'सहायस्तु सयाने स्यात् इति शब्दार्ण । सम्परस्पाते रस्मते ।।४।।
अन्वय-स्फीतोत्कण्ठाषिगलिममदा: मन्त्रमन्दायमानाः मूकीभूताः स्खलितगतयः अनुन्मुखाः सन्नताशाः त्वां अनु पवनपदवी आधवन्तः अनुरूपाः एले राजहंसाः भवतः महायाः मम्पत्स्यन्ते । ___ अर्थ-वृद्धि को प्राप्त उत्कण्ठाओं से नष्ट मदवाले, मन्द मन्द गति वाले, मौन हुए, मालित गति वाले, ऊपर की ओर मुख न किए हुए (नीचे की ओर मुख किए हुए मब ओर से दिशाओं को व्याप्त करने वाले, तुम्हारे साथ आकाशमार्ग का आश्रय लेने वाले, तुम्हारे अनुरूप ये राजहंस आकाश में आपके साथी हो जायेंगे।
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पायाभ्युदय व्याख्या-इस समय पार्श्व और हंसों की स्थिति एक सी है । हंस वृद्धि को प्राप्त उत्कण्ठाओं से नष्ट आनन्द वाले हैं और भगवान् पाश्वं भी मोक्ष की प्राप्ति हेतु उत्कापठत होने के कारण काम क्रोधादि मदों को नष्ट कर चुके हैं। भगवान् ने मोक्ष के लिए मुनिव्रत धारण कर रखा है अतः वे सांसारिक क्रियाओं के प्रति अत्यधिक मन्द उद्यम वाले हैं। हंस भी कामोन्माद के कारण मन्द मन्द गति वाले हैं। ध्याननिमग्न होने के कारण भगवान् वचनव्यापार से विरत हो चुके हैं अथवा उन्होंने इन्द्रियव्यापार का त्याग कर दिया है और राजहंस काम सन्तप्त होने के कारण शब्दों को व्यक्त नहीं कर रहे हैं। भगवान् मोक्षसमीप होने के कारण नारकादि गतियों को नष्ट कर चुके हैं, उसी प्रकार राजहंस कामोन्माद के कारण स्खलिल गति वाले हैं। भगवान ध्यान में लवलीन होने के कारण ऊपर की ओर मुख नहीं किए हैं। राजहंस हतवीर्य होने के कारण नीचे का ओर मुख किए हुए हैं। भगवान् ने परिग्रह को छोड़ दिया है। अतः उन्होंने आशा तृष्णा का त्याग कर दिया है। इस राजहंसों ने दिमण्डल को व्याप्त कर दिया है। जैसे भगवान् ने रत्नत्रयरूप शुद्ध मोक्षमार्ग का आश्रय लिया है, उसी प्रकार इन राजहंसों ने भी आकाश का आश्रय लिया है। इस प्रकार कवि ने श्लेप के माध्यम से राजहंस और भगवान् में समता दिखलाई है । तुल्यगुणवाले होने के कारण अनुरूप राजहंस आकाश में भगवान के सहायक हो जायेंगे, यक्ष के कहने का यह अभिप्राय है ।
भोक्तुं दिव्यश्रियमभिमतां यातुकामो शुलोक, कालक्षेपाबुपरम रणे माक्षु सन्ना भिक्षो । पेनामुत्र स्पहसि दिवे यश्च संरक्षति त्वा, मापृच्छस्व प्रियसखममुं तुङ्गमालिङ्गय शैलम् ॥४५॥ मोक्तुमिति : भिलो हे वाचयम् । अभिमताम् अभिलषिताम् । विव्यभियं देवसम्पत्तिम् । 'सम्पत्तिः श्रीश्चलक्ष्मीश्च' इत्यमरः । भोक्तुम् अनुभवनाय । धुलोक विदितम् । यातुकाम: पासुगन्तु' कामयते इति तथोक्तः सन् । मेन अमुत्र भवासरे। 'प्रेत्यामुत्र भवान्तरे' इत्यमरः । विवे स्वर्गाय । 'सुरलोको गोदिवी द्वे' इत्य. मरः । स्पृहयसि बाञ्छति । यसदोनित्यसम्बन्वादिति । तस्मिन रणे । मंग्रामनिमित्त हतो । 'हत्वर्थे सर्वाः प्रायः' इति सप्तमी । मभु शीघ्रण । सम्बाह्य सञ्जीकृत्य । मालपात् समययापनात् । उपरम अहि कालविलम्बनं मा कुवित्यर्थः । यः स्वा भवन्तम् । सरलति पालयति पाश्रयो भवतीत्यर्थः । सं सुङ्गम् उन्नतम् । प्रियसखं प्रियमित्रम् । 'राजन् सम्नेः' इत्यद समासान्तः । अमुंशलम् एतचित्रकूटाबयं पर्वतम् ।
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प्रथम सर्ग
आलिङ्ग्य आलिष्य । प्राच्यस्थ साथयामिन वेति । सभाजय 'अथ वे आनन्दन सभाजने आपृच्छलम्' इत्यमर: । 'नुदाञ् प्रच्छ' ह्यात्मनेपदम् ॥४५॥
अन्वय- हे भिक्षो ! दिव्यथियं नतु धुलो
र म
कालक्षेपात उपरम । येन अमुत्र दिवे स्ह्यसि यश्च त्वां संरक्षति ( तं ) अम् प्रियसखं तुङ्ग शैलं आलिङ्ग्य आप स्व
अर्थ- हे भिक्षु ! दिव्य लक्ष्मी का भोग करने के लिए स्वर्गलोक को जाने के इच्छुक (तुम) युद्ध के लिए शीघ्र हो तैयार होकर बिलम्ब से विरत होओ अर्थात् विलम्ब मत करो। जिसके द्वारा तुम अगले जन्म में स्वर्ग की अभिलावा करते हो और जो तुम्हारा संरक्षण करता है उस इस प्रियमित्र ऊँचे चित्रकूट नामक पर्वत से गले मिलकर जाने के लिए पूछो या विदा लो ।
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भावार्थ - हे पार्श्व ! जिस पर्वत का आश्रय लेकर तुम स्वर्ग में जाने के लिए तपस्या कर रहे हो और जो पर्वत निवास देकर मनुष्यों की भीड़ से उत्पन्न कोलाहल से प्रादुर्भूत मन के क्षोभ से तुम्हारी रक्षा करता है, उसका आलिङ्गन कर स्वर्गगमन की आज्ञा लो |
भूयश्चानुस्मर सिषिषः कार्यसिद्ध्यै प्रयत्य, प्रायेणेष्टा महति विधुरे देवताऽनुस्मृतिनः । सिद्धिक्षेत्रं शरणमथवा गच्छतं रामशैलं, वन्धेः पुंसां रघुपतिपदेलं मेखलासु || ४६ || भूयति । कार्यंसिध्ये संग्रामविजय निष्पत्तये । प्रयत्थ प्रयत्नं कृत्वा । सिविक्षुषः सिद्धा देवताविशेषाः । भूयश्च महुरपि । अनुस्मर अनुचिन्तय । मः अस्माकं । महति विधुरे महाविपदि । देवतानुस्मृतिः मिनेन्द्रस्मरणम् । प्रायेण बाहुल्येन । इष्टा अभिमता । स्यादिति शेषः । अथवा नो चेत् । पुंसां वन्यः । 'बानाकः' इति षष्ठी। सत्पुरुषस्तुत्यैरित्यर्थः । रघुपतिपदे: रामस्य पादन्यासः । कटके 1 'मेखला श्रेणिकटके कटिबन्धनिबन्धने' इति यादवः । अङ्कितम् सिद्धिक्षेत्रं श्रेयः स्थानम् । तं रामशैलम् । राममियं पराभिधानं चित्रकूटम् । शरणं शरण्यम् । गच्छ याहि । संग्रामभीरुश्चेत्तत्पृष्ठतो भवेत्यर्थः ॥४६॥ स्नातो धौताम्बरनिवसनो दिव्यगन्धानुलिप्तः, खग्वी
दन्तच्छदविरचितारक्तताम्बूलरागः ।
खड्गी युद्धे कृतपरिकरः क्षालितागः परागः, काले काले भवति भवतो यस्य संयोगमेत्य ॥ ४७ ॥
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पाम्युिदय समान इति । यस्य युद्धस्य । संयोग सम्बन्धम् । एत्य प्राप्य । काले काले सममे समये । भवतः नव । कुतपरिकरः कृतः परिकरः प्राभवम् येन सः । 'वृन्द प्राभवयोश्चय पर्पलू परिवारयोः । आम्मे च परिस्तार भवेत्परिकरस्तया' इत्यभिघानात् । गुणगण इति वा पाठः । गुणगणः गुणसमूहः । मालितागः परागः आमः दोषः । 'आगोरायः' इत्यमरः । तदेव पगगः रजः । 'धन्दने पुष्वरजसि धूलिस्नानीचर्णयोः । उपग़गेऽस्त शेले च परागः परिकथ्यते' इत्यभिधानात् । क्षालितः परिशोधितः आगः परागो यस्यासौ तथोक्तः । भवति । तस्मिन् युद्धे संग्रामनिमित्तम् । स्नालः कृतम लमजनः । पोसाम्बरनिवसनः परिशुद्धवस्त्राच्छादनः ! 'अम्बरं वाससि ज्योम्नि कापीसे च सुगन्धके ।' 'वसन छादनेशुके' इत्युभयवापि विश्त्रः । विव्यगन्धानुलिप्त: मलयजकल्केनानुचितः । नको नयस्यास्तीति सग्यो मालाबान् । 'माल्यं मालास्त्रजौ' इत्यमरः । वस्ताद विरचितारक्सताम्बूलरागः दन्तच्छदयोरोष्ठाधरयोः 'ओष्टाधरौ तु रखनच्छदी' इत्यमरः । विरचितः विहितः आरक्तः ताम्बूलस्य रागो यस्यासो तथोक्तः । खड्गी खड्गोऽस्थास्तीति । भव त्वम् युद्धसम्नदो भवेत्यर्थः ।।४७॥
अन्वय-भूयश्च कार्यसिद्ध्यं प्रयत्य सिमिधुषः अनुस्मर । नः महति विधुरे । प्रायेण देवतानुस्मृतिः इष्टा अथया काले काले भवतः यस्य संयोगं एत्य युद्धे कृतपरिकरः खड्गी लालिसागः परागः स्तातः धौताम्बर निवसनः दिव्यगन्धानुलिप्तः स्रग्बी दन्तच्छदविरचितारपसताम्बूलरागः भवति तं पुंसां वंद्यः रघुपतिपदैः मेखलासु अति सिद्धिक्षेत्रं तं रामशैलं शरणं गच्छ।
अर्थ-पुनः कार्य की सिद्धि के लिए प्रयत्न कर सिद्धों का ध्यान करो। महान् विपत्ति आने पर हम लोगों को प्रायः तुम्हारे लिए देवताओं का अनुस्मरण इष्ट है अथवा समय समय पर जिसके संयोग को पाकर मनुष्य युद्ध में बद्धपरिकर खड़ग धारण करने वाला, पाप रूप पराग का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय करने वाला, स्नान किया हुआ, धोए हुए ( स्वच्छ ) वस्त्रों को पहिने हुए, दिव्य गन्धों से अनुलिप्त अङ्गों वाला, मालाधारी तथा अधरोष्ठ में लगे हुए कुछ लाल रंग से सुशोभित हो जाता है, उस लोगों के वन्दनीय, राम के चरणों के द्वारा तुलानों पर चिह्नित सिद्धिक्षेत्र रामगिरिपर्वत की शरण में जाओ।
पश्चात्तापाव्युपरतिमहो मय्यपि प्रीतिमेहि, भ्रातः प्रौद्ध प्रणयपुलको मां निगृह स्वदौाम् । तत्ते स्निाधे मयकि जनिता श्लाघनीया जनःस्तात्, स्नेहव्यक्तिश्चिरविरहों मुञ्चतो बाष्पमुष्णम् || ४८ ॥
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प्रथम सर्ग
पश्चात्तापादिति । अहो भौः। भ्रातः सहोदर । पश्वासापात् वपुपरति विरामम् । अपादाने पञ्चमी । भयि प्रातरि । प्रीतिमपि स्नेहं च । एहि गम्छ । प्रौढप्रणयपुलकः प्रौदेन प्रणयेन जातः पुनकः रोमाञ्चो यस्याऽसो तथोक्तः सन् । स्वदोभ्यां निजभुजाम्बाम् ! मां ज्येष्ठभ्रातरं निगह 'गह संबो' लटि 'गोहोचेतृत्यू' आश्लेषय । तत् तस्माद्धेनोः । चिरविरहज बहुकालवियोगसम्भवम् । उ कमाणम् । बाष्पं नेत्रजलम् । 'बाष्पं नेत्रजलोष्मणोः' इत्यभिधानात् । मुख्यतः पातयतः । ते तव । सिनग्धे विश्वस्त अन्धौ मकि । तिङ् सदिरशान्त्यात्सूबोंगिरयकत्यः ।' जमिता उत्पन्ना। स्नेहव्यक्तिः प्रेमाविर्भावः । जने: लोफैः । श्लाघनोया श्लाषितुं योग्या कीर्तनीयेत्यर्थः । स्तात् अस्तु । स्निग्धानां हि चिरविरहारसङ्गताना बानपानादिर्भवतीति भावः ॥४८॥
अन्यय-अहो भ्रातः पश्चात्तापात् युररति एहि, मयि अपि प्रीति (गहि) प्रौढप्रणयपुलकः (लं) स्वदोभ्यां मां निगृह 1 तत् चिरबिर हिज उष्णं वायं मुश्चतः ते स्निग्ये मनकि जनता स्नेहयक्तिः जनः श्लाघनीया स्यात् । ___ अर्थ-हे माई ! पश्चाताप से बिराम लो अर्थात् पश्चाताप मत करो। (तुम्हारी पत्नी के साथ समागम करने को अपकार से गहित ) मेरे प्रति भी प्रीति को धारण करो। उत्कृष्ट रूप से वृद्धिंगत प्रणय से उत्पन्न रोमाञ्च वाले तुम अपनी दोनों भुजाओं से मेरा आलिङ्गन कारो। चिरकाल के विरह से उत्पन्न, गर्म श्वास छोड़ते हए तुम्हारा स्नेहो मेरे प्रति उत्पन्न हुआ स्नेह का प्रादुर्भाव लोगों के द्वारा प्रशंसनीय हो । सम्प्रति तस्य गन्तव्यपदानि वक्तुमुपक्रमतेकिया वैरीन्धनदहि मयि प्रौढमानस्त्वमेत,
नाभिप्रेयाः किमपरमहो नो विलम्बेन तिष्ठ । स्वामचैवान्तकमुखबिलं प्रापयामि स्वकं मे, मागं मत्तः शृणु कथपतस्वरप्रयाणानुरूपम् ।। ४९ ।। कि वेति । वैरीन्धनयहि वैरिण एव इन्धनानि काठानि 'काष्ठं दाविधनम्' इत्यमरः । तद्दहतीति वरोधिनधक् नास्मिन् । मयि यशेन्द्रे । त्वं भवान् प्रौहमान: प्रवृद्धगर्वः सन् । मानश्चित्तममुन्नतिः' इत्यमरः । एतत् एतावदुदितं सर्वम् । किं वा नाभिप्रेयाः किमिति नाभिजानीयाः । अहो भो मुने । अपरं किम अन्यत् किम् वक्तव्यमस्ति । विलम्बन कालहरणेन नो तिष्ठ र वस । स्वा भवन्तम् । अांप इदानीमेव । अन्तकमुत्रविलं कृतान्तस्य वक्र विवरम् प्रापयामि नयामि । त्वत्प्रयायानुरूपं तव गमनानुकूलम् यथा तथा कधपतः ब्रुवतः । मत्तः मत्सकाशात् । स्थक
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पाश्र्वभ्यः
निन्दितस्त्वं स्वकम् । मे मार्ग मम पन्थानम् । 'मार्गो मृगवधे मासे सोम्यर्थेध्वनि' इति यादवः । शृणु श्रुतिविषयं विधेहि ॥४९॥
अन्यय- वा प्रौढमानः मयि वैरीन्धनदि एतत् न अभियाः कि? कि अपरं ? नो विलम्बेन तिष्ठ । त्वां अद्य एव अन्तकमुख बिलं प्रापयामि । मे कथयतः त्वत्प्रयाणानुरूपं मार्ग मत्तः त्वकं शृणु ।
अर्थ -- अथवा वृद्धिगत मान वाले आपको वैरी रूपी ईंधन को जलाते वाले मुझमें क्या इष्ट नहीं है ? और क्या ? विलम्ब मत करो। तुम्हें आज ही यम के मुख रूपी बिल में पहुँचाता हूँ। मेरे कहे हुए तुम्हारे प्रयाण के अनुरूप मार्ग को तुम मुझसे सुनो।
श्रेयोमार्गान्निहि जिनमताभ्रंशितस्यैक एव, मार्गोऽसह्यावसुखविषन्तरिकात्तारको यः । तं मुक्त्या ते श्रुतिसुखपरं बच्मि यत्र प्रियायाः, सन्देशं मे तक्तु जलद श्रोष्यसि श्रव्यवन्धम् ॥ ५० ॥
श्रेय इति । जलब भो पयोद योगिन् । जिनमतात् मन्यते स्म मतः जिनेन अर्हता मतः जिनमतस्तस्मात् । श्रेोमशर्गात् रत्नत्रयात्मकात् मोक्षमार्गात् । भ्रंशितस्य व्वंसितस्य । मिथ्यादृष्टेरित्यर्थः । मार्गः स्वाभिप्रेतप्रदेश |प्तेरुपायः । एक एव नहि न भवति हि । यः मार्गः । असह्यात् दुःसहात् । नारकात् नरकस्यायं नारकस्तस्मात् । असुखविषधे न मुखम् असुखम् दुःखविषाणि जलानि 'नीरं जीवनमन्त्रिम्' इति धनञ्जयः । तानि घोयल्लेऽस्मिन्निति विषभिः विषधिरिव विषधिः असुखमेवविपषिस्तस्मात् । तारकः उत्तरणहेतुः भवेदेति शेषः । तं मार्ग मुक्त्वा विमुच्यते तव । श्रुतिसुखपर्व श्रीश्रानन्दास्पदम् । यथा तथा । अच्मि ब्रवीमि तदनु पश्चात् । यत्र सत्मार्गे । मे मम प्रियायाः कान्तायाः । श्रवबन्धं श्रम्यः श्रवणीयो बन्धः शब्दरचना यस्येति तथोक्तस्तम् । सन्देशं वाचिकम् 1 'सन्देशवाग्वाचिक स्पात्' इत्यमरः । श्रोष्यसि श्रवणविषयं करिष्यसि । स्वस्य मिथ्यादृषत्वात् स्त्रयोग्यं भुवनत्रयमानं ब्रवातीति तात्पर्यम् ||५०११
अन्वय हे जलद | जनमतात् श्रेयोमार्गात् भ्रंशितस्य यः असह्मात् ते नारकात् असुखविषयेः तारकः ( सः ) मार्गः एकः एव न हि । तं मुल्ला श्रुतिसुख ( मार्ग ) वच्मि म तदनु मे प्रियायाः श्रव्यवन्धं सन्देशं श्रोष्यसि । अर्थ -- हे मेत्र ! तीर्थकर भगवान् के द्वारा अभिमत श्रेयोमार्ग से पतित १. श्रोत्रयम् इत्यपि पाठः ।
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प्रथम सर्ग
व्यक्ति के असह्य नरक जन्य दुःख रूपी विए सागर से पार उतारने वाला वह मार्ग एक ( अद्वितीय ) ही नहीं है। उमे छोड़कर । उपसे भिन्न ) तुम्हारे कानों के सुख के कारणभूत मार्ग को कहता है. जिस मार्ग में प्रस्थान के अनन्तर मेरी प्रेयसी के सुनने योग्य शब्दविन्यास से युक्त सन्देश को सुनोगे।
व्याख्या-यक्ष का विश्वास है कि भगवान् पार्श्व मरकर अवश्य ही मेषाकार को धारण करेंगे। इस कारण नैगम नय अथवा द्रव्य निक्षेत्र की अपेक्षा भगवान के लिए जलद ( मेघ ) विशेषण लगाया है। जिनोक्त मार्ग से भिन्न जैनेतरों के कल्याण भाजहत हैं। सयभरका के दुख से तारने वाले उनमें से किसी एक धर्ममार्ग का उपदेश देता हूँ। जिनोक्त माग को छोड़कर मेरे कहे हुए मार्ग से चलने पर तुम्हारे दुःख का परिहार अथवा सुख की प्राप्ति होगी । म जिनोक्त मार्ग को छोड़कर युद्ध के लिए सन्नद्ध होओ। तुम्हें युद्ध में मरने पर भी कल्याण की प्राप्ति होगी, यह शम्बरासुर का अभिवाय है।
तत्राप्येकोऽनुजुऋजुरतः कोपि पन्यास्तयोर्यो, वक्रोऽपि त्वा नयति सुखप्तस्तं शृणु प्रोच्यमानम् । नानापुष्पद्रमसमनसां सौरभेणाततेष. खिन्नः खिन्न: शिखरिषु पदं न्यस्य गन्तामि यत्र ! ५१ ।। तत्रातीति । तत्रापि मन्मार्गेकि । एकः पन्थाः । अनुजः वक्रः । कोपि न्याः ।' अतः अस्मात् । ऋजुः सरलः । भवतीतिशेषः 1 तयोः तदध्वनोः । य: मार्गः । वक्रोपि असरलोपि । त्वा त्वाम् । 'स्वामी द्वितीयायाः' इति त्वादेशः। सुखतः अनायासैन । नयति प्रापयति । प्रोच्यमानं वधमुपक्रान्तम् । तं पन्या भ्रूण । यत्र मानापुष्पनुमसुमनसा नानाविवामि पुष्पाणि येषां द्रमाणां नयोक्तास्तेषाम् । सुमनसः कुसुमानि । स्त्रियः सुमनसः पुष्पं प्रसूनं कुसुम सुभम्' इत्यमरः । तासां सौरभण सुरभिरेव सौरभ 'मुभिताणतर्पणः इत्यमरः । तेन साततेषु निचिनेषु । शिखरिषु पर्यतेषु । जिन्न: खिन्नः सीणवाला सन् क्षोणवलः लन् । वोप्सायां द्विगविः । पर्ष पादम् । न्यस्य गिभिप्य | गन्तासि गमिष्यामि । 'तास्यौलुस्त्रोः' इति लुटि सास् ॥५१॥
यस्मिन्म्याः कृतकगिरयः सेव्यसानुप्रदेशा, नानावीरुतिततिसुभगाः पुष्पशयाचितान्ताः । तेन प्रज्या तव सुखकरी तत्र यायाः सुखेन, क्षीणः क्षीणः परिलधुपयः स्रोतसां चोपभुज्य ।। ५२ ।।
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पाभ्युदय
यस्मिन्नति । यस्मिन्मार्ग सेभ्यसानुप्रवेशाः सेव्याः सेवितुं योग्याः सानूनां तानां प्रदेशा येषां ते तथोक्ताः । मानावीरुद्विततिसुभगा : विविधाः वीरुधः गुल्माः 'लता प्रतानिनी वीरुद्गुल्मिस्लप इत्यपि इत्यमरः । तासां वित्ततिः मङ्घातः 'सङ्घातः समितिस्ततिः' इति धनञ्जयः । तया सुभगा : रुचिराः तथोक्ताः । पुष्परा याचितान्ताः पुष्यैः कृताः शय्याः शयनतस्यानि ताभिराचिताः प्रसारिताः अन्तः अन्तर्भागाः येषां ते तथोक्ताः । 'मृतावसिते रम्ये समाप्तावन्ते' इति शब्दार्णवे । 'अन्सी व्यवसिते मृत्यो स्वरूपेनिश्चयेन्तके' इति वैजयन्ती । रम्याः रन्तु योग्या: मनोहरा इत्यर्थः । कृतकगिरयः क्रीडाद्रयः । सन्तीति शेषः । तेन पथा । व्रज्या गतिः । ' व्रज्याशयापर्यटनम्' इत्यमरः । तवसे सुखकरी सौख्यकारिणी स्यात् । स्रोतसां प्रवाहानाम् । 'स्रोतोऽम्बुसरणं स्वतः' इत्यमरः । परिघु गुरुत्वदोषरहितम् । उपलास्फालन के लित्वात् पष्यमित्यर्थः 1 पयः पानीयम् । उपभुज्य उपयोगं कृत्वा । सुखेम अश्रमेण 1 यायाः गच्छेः । ' या प्रापणे' लिङ् ॥५२॥
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अन्वय-तत्र अपि एकः पन्थाः अनृजुः । कः अपि अतः ऋजुः । तयोः वक्रः अपि यः वा सुखतः नयति । यस्मिन् तेभ्यसानुप्रदेशाः नानावोरुद्रिततिसुभगाः पुष्पशयावितान्ताः रम्याः कृतकगिरयः यत्र च खिन्नः खिन्नः नानापुष्पद्रुमसुमनसां सौरभेण आतेषु शिखरिनु पदं न्यस्य गन्तासि तं प्रोष्यमानं शृणुतेन त व्रज्या सुखकरी (स्यात्) तत्र क्षीणः क्षोण: ( त्वं ) स्रोतसां परिलघु पयः उपभुज्य सुखेन यायाः
अर्थ - जिनोक्त मार्ग से भिन्न मागं यद्यपि अनेक है; किन्तु उनमें एक मार्ग कुटिल है। कोई एक दूसरा मार्ग इस कुटिल मार्ग से सरल है। उन दोनों मार्गों में से एक मार्ग वक्र होने पर भी तुम्हें सुखपूर्वक अभीष्ट स्थान में पहुँचायेगा । जिस मार्ग में सेवन करने योग्य शिखरों के प्रदेश अनेक प्रकार की लताओं की पंक्तियों से मनोहर पुष्पों से बनाई हुई शय्याओं से ढके हुए प्रान्त प्रदेश वाले मनोहर कीड़ा के लिए बनाए गए पर्वत हैं और जहाँ अत्यधिक थककर अनेक प्रकार के पुष्पपादपों के फूलों की सुगन्ध से चारों ओर व्याप्त पर्वत प्रदेश में चरण रखकर जाओगे। उस कहे हुए कठिन मार्ग के विषय में सुनो। कुटिल उस मार्ग से तुम्हारा (पार्श्व का ) गमन सुखकर होगा। उस कुटिल मार्ग में अत्यधिक क्षीण झरनों के जल का उपभोगकर (तुम) सुखपूर्वक जाओ ।
कामं यायाः पथि निगविते कामगत्या विमानं, प्रीत्यारूढः प्रथितमहिमा वारिवाहीय बन्यो ।
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प्रथम सर्ग
बृष्टोद्योग मसिह
रनेः शृङ्गं हरति पवनः किंस्विवियुमुखीभिः ॥ ५३ ॥
काममिति । बन्धी महोभ्रातः । पवमः त्वत्सहचरो वायुः 1 म चित्रकूटस्य । उमर्चः तुङ्गम् । भृङ्गम् शिखरम् 1 'कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गम्' इत्यमरः । हरति किस्चित् उत्पाप्यति किम् । किं पुच्छायां जुगुप्सने ।' स्वित्प्रश्ने च वितकें व इत्युभयत्राप्यमरः । इति एवम् शङ्कयति शेषः । उन्मुखीभिः उद्गतं मुखं यासां तास्तथोक्ता स्ताभिः उन्नमितय क्राभिः । खेचरीभिः विद्याधरवनिताभिः । दृष्टोद्योग : ईक्षितव्यापारः । नभसि आकाशे विहरन् । विमानं व्योमयानम् । प्रीत्या प्रमादेन । आरूढः आरूढवान् । प्रतिमहिमा प्रसिद्ध सामर्थ्यः । त्वम् । प्रतीते प्रथितख्यातवित्तविज्ञातविश्रुताः' इत्यमरः । वारिवाहीय मेघवत् निगविते मया कथिते । पथि मार्गे । कामगस्या अभीष्ट गमनेन 'इच्छा मनोभवाँ काम' इत्यमरः । कार्म स्वैरंम् । 'कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम् इत्यमरः । यश्वाः गच्छेः ॥५३॥
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अन्य -- बम्बो ! पत्रनः मद्रेः शृङ्गं हरति किस्वित् ? इति उन्मुखीभिः रोभिः दृष्टोद्योगः स्वं कामगत्या विमानं बारूहः प्रथितमहिमा वारिवाही इव नभसि विहरत् निगदिते पथि कामं मायाः ।
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अर्थ- हे बन्धु ! वायु पर्वत के शिखर को क्या उड़ा ले जा रहा है ? इस प्रकार ऊपर की ओर मुख की हुई विद्याधरियों के द्वारा जिसका ऊर्ध्वगमन देखा गया है ऐसे तुम इच्छानुसार गति से विमान पर आरूढ़ होकर प्रसिद्ध महिमा वाले होकर मेघ के समान आकाश में बिहार करते हुए पूर्वप्रतिपादित मार्ग में इच्छानुसार जाओ ।
भावार्थ - - तुम्हें आते देखकर विद्याधरियां यह सोचकर कि क्या पवन पर्वत की चोटी को उड़ा ले जा रहा है ? तुम्हारी ओर देखेंगी । इस प्रकार प्रसिद्ध कीर्तिबाले आप आकाश में अपनी इच्छा के अनुसार बिहार
करना ।
मय्या मुक्तस्फुरितकवचे नीलमेघायमाने, मन्ये युक्तं मदनुकृतये वारिवाहाथितं ते ।
मेघीभूतो व्रज लघु ततः पातशङ्काकुलाभिः, वृष्टोत्साहश्चकितश्वकिसं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः ॥ ५४ ॥
मयीति | आयुक्त स्फुरितकायचे आमुक्तः सन्नद्धः स्फुरितः प्रस्फुरम् कवचो यस्य तस्मिन् । 'मुक्तः प्रतिमुक्तवपिनद्धश्चापिनद्धवत्' इश्यमर । —उरच्छदः
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पाश्र्वाभ्युदय कछुटकोऽजगरः कवयोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः। मयि पक्षे । नीलमेधा यमामे नौलचासो मेघश्च स इवापरतोति नीलमेघायमामस्तस्मिन्सति । भवनुकूतये मम स्वरूपानुसरणाय । ते तन । बारिवाहायितं वारिवाह वाचरतीति वारिवाहायते वारिवाहायसे स्म तथोक्तम् । युक्तं योग्यम् । मग्ये जाने । तसः तस्मात् । मेघीभूतः पयोधरूपं वहन् । पातशङ्का कुलाभिः पतनसन्देहव्याकुलितात्मभिः । मुग्धसिद्धान नाभिः मुग्धाः मूढाः सिद्धानां देव विशेषाणाम् अङ्गनास्ताभिः । 'मुग्धः सुन्दरमूवयोः' इत्यभिधानात् । चकितचकित भयचकितप्रारं यथा तथा 'रिद्गुणः सदृदोन' इति द्विर्भावः । वृष्टोत्साह: अबलोकितस्वारम्भः सन् दृष्टोद्योग इति वा । 'उत्साहोऽयवसायः स्यात्सवीर्यमतिशक्तिमाक्' इत्यमरः । लघु शीघ्रम् । प्रम गच्छ १५४॥ ___अन्वयः-आमुक्त स्कुरितकवचे मयि नीलमेघायमाने ( सति ) मदनुकृतये ते वारिवाहायितं युक्तं मन्ये । ततः मेघीभूतः पातशङ्काकुलाभिः मुगलसिवाननाभि चक्तिचकितं दृष्टीस्साहः वज। ___ अर्थ-बँधे हुए चमकदार कवच वाले मेरे नौल मेष के समान आचरण करने पर मेरा अनुकरण करने के लिए तुम्हें मेघ होने के योग्य मानता हैं। इस कारण मेघ होकर तुम्हारे गिरने की आशा से व्याकुल भोलीभाली सिद्ध स्त्रियों के द्वारा आश्चर्यपूर्वक देखे गए उत्साह वाले तुम शीघ्र ही जाओ।
तस्माद्विद्युत्प्रसवसमये प्राप्यसिद्धि वधूनां, सद्यः कृत्वा समुचितमदो दिव्यजीमूतरूपम्। दिव्याभोगान्समनुभवितु कामुकः कामचारे, स्थानादस्मात्सरसनिचुलादुत्पतोवमुखः खम् ॥ ५५ ॥ तस्मादिति । तस्मात् तप्तः। विचरमसबसमये तजिवुत्पत्त्यबसरे । बधूनां योषिताम् । सिद्धि साधनं सिद्धिहस्त मनोविजयम् । प्राप्य लाना । विद्युत्पत्तेर्योषिन्मनोविकारहेतुत्वादित्यर्थः । अबः एतत् । समुचित सुयोग्यम् । दिव्यजीमूतरूप दिव्यमेघाकृतिम् । सद्यः तदेव । 'सधः सपदितत्क्षणे इत्यमरः । कृत्वा विधाय । शिव्यान् दिविभवान् । भोगाम् विषयान् । 'भोगः सुखं स्ट्याविभूतानहेश्च फणकाययोः' इत्यमरः । खं व्योम 1 उत्पत उद्गम्छ । अलकापुर्या उदोश्यत्वादुत्तरमुखो भूत्वा गच्छेति भावः ॥५५॥
अन्वय-तस्मात् अधः समुचित दिग्धजोमूतरूम कृत्वा विद्युत्प्रसबसमय बधूनां सिद्धि प्राप्य दिग्यान् भोगान समनुभवितुं कामबारे कामुकः सरसनिचुलात् • अस्मात् स्थानात् उदङ मुखः ( सन् ) खं सद्यः बसत ।
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प्रथम सर्ग अर्थ-अतः प्रोक्त सुयोग्य दिव्य मेघरूप आकार बनाकर बिजली की उत्पत्ति के समय ( कान्ता की इच्छुक ) वधुओं के सङ्केताभिप्रापण रूप कार्य को निष्पत्ति कराकर दिव्यांगों का भोग करने के लिए इच्छानुसार विहार के भिवर्ष तुम जहा वेल फेहरे पड़ वाले इन स्थान से उत्तर को ओर मुख करके आकाश में शीघ्न हो उड़ जाओ।
भावार्थ-दिव्यरूप मेघ बनकर तुम बिजली के द्वारा अभिसारिकाओं को उनके प्रेमियों के मिलने का स्थान दिखलाओ। पश्चात् दिव्यभोगों का भोग करने के लिए अपनी इच्छानुसार विहार करने की अभिलाषा वाले तुम उत्तर दिशा की ओर आकाश में उड़ जाओ।
दिग्भ्योऽबिभ्यत्कथमिव पुमान्भीलुफस्तत्र गच्छेदुल्लध्याद्रोन्विषमसरितो दुर्गमांश्च प्रदेशान् । तन्मारोवीन ज सुनिपुणं व्योममार्गानुसारी, विङ्नागानां पथि परिहरन्स्थूलहस्तावलेपान् ॥ ५६ ॥ दिम्य इति । तत्र मागें । भोलुक: 'मः क्रुक्रुकवालुकत्यः 'मीरुभीरुक मोलुकाः इत्यमरः । पुमान् पुरुषः । दिग्भ्यः ककुम्भ्यः । बिभ्यत भीतिममच्छस् । प्रोन पर्वतान् । विषमसरितः वैषम्ययुपता नदीः । दुर्गमान गन्तुमवाक्यान् । प्रवेशाश्व कान्तारादिस्थानान्धपि । उरलाध्य अतीत्य । कमिव वेन प्रकारेण । इव साम्दो वाक्यालङ्कारे । गच्छेत् प्रजेत् । तत् तस्मात्कारणात् । मा रोबी: रोदनं मा कुरु । पथि मार्गे। विङ्नागानां विगजानाम् । स्थूलहस्तावलेपान् पीवराणां शुण्डानां दर्यान् । 'अबलेषस्तु गर्व: स्याललेपने दूषणेऽपि च' इति विश्वः । परिहरन् दुरीकुर्वन् । योममार्गानुसारी आकाशमार्गानुयायी सन् । सुनिपुर्ण सुष्ठुचतुरो यथा भवति तथा । बज गच्छ । तन्मार्गे पुमान्भोरुपचेद्गन्तुन समर्थः । तस्मासोरों भवन् युक्त्या बजेति तात्पर्यम् ॥५६॥ __ अन्वय-दिग्भ्यः बिभ्पत् भीलुकः पुमान् अद्रीन् विषमसरितः दुगंमान् च प्रदेशान् उल्ला घ्य तत्र कथमिव गच्छेत् : तत् मा रोक्षोः । व्योममार्गानुसारी ( त्वं ) पयि दिङ नागानां स्थूलहस्तावलेपान् परिहरन् सुनिपुणं धज । ____ अर्थ-दिशाओं से डरता हुआ भीरु मनुष्य पर्वतीय विषम नदियों और दुर्गम प्रदेशों का उल्लङ्घन कर वहां जाने में किसी प्रकार समर्थ होता है ? अर्थात् किसी भी प्रकार समर्थ नहीं होता है अतः मत रोओ । आकाश मार्ग का अनुसरण करते हुए तुम रास्ते में दिग्गओं की बड़ी-बड़ी सूड़ों के आक्रमण से बचते हुए निपुणता पूर्वक गमन करो।
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पााभ्युदय व्याख्या--यद्यपि डरपोक होने के कारण उस दुर्गम मार्ग में चलने में आप असमर्थ हैं, तथापि आप आकाशगामी हैं अतः किसी भी प्रकार से उस मार्ग में भय नहीं हो सकता । केवल इतना प्रयत्न करना कि दिग्गजों की बड़ी-बड़ी सूड़ों के आक्रमण से अपने आपको बचाना और जिस प्रकार से कल्याण हो उसी प्रकार जाना ।
प्रस्थाने ते विरचितमितस्तोरणं नूनमुच्चैः, काञ्चीदाम इलथितमथवा स्वर्गलक्ष्म्याः किमेतत् । वर्णोपघ्नं धनुरुत समाविर्भवत्यत्युदग्नं, रलच्छायव्यतिकर इस प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्तात् ।। ५७ ॥ नूनं भूम्यान्तरितविसर भोगिमूर्धन्यरलज्योतिश्चक्रं वियति किमिती वृश्यते भूमिरन्ध्रात् । प्रायेणेदं दिनकरफराश्लिष्टमेघाश्रितं यद्वल्मीकागात्प्रभवति घन: खण्डमानण्डलस्य ॥५८॥ प्रस्थान इति । वल्मीकानात् वामलूरविवरात् । वामलूरश्च नाश्च यमकं पुनसकम्' इत्यमरः । प्रायेण बाहुल्येन । 'प्रायो भूमन्यन्त गमने' इत्यमरः । दिमकरकराश्लिष्टमेघाश्रितं सूर्यकिरणसमानान्तबारिवाहाश्रितम् । यविध यदेतत् । बामण्डलस्म इन्द्रस्य धनुः खण्डं चापदण्डम् । प्रभवति आविर्भवति । एतत इन्द्रधनुः खण्डम् । ते तत्र । प्रस्थाने प्रमाणे । 'प्रस्थान गमनं गमः' इत्यमरः । इतः पुरः । विरचितम् आरचितम् । उसमें महत् । नभं निश्चयेन । तोरणं भवतीति शेषः । अयथा न त् । स्वर्गलम्याः स्वः धियः । इलथितम् कालस्तम् । काम्धीबाम रशना । कि भवेद किमिति प्रश्नः । उत अथवा । 'विकल्प कि किमत च' इत्यमरः । एतत् इन्द्रधनुः । रतन्छायथतिकरे रत्नानां छायाः रत्नछायाः 'अन तत्पुरुष सेनाछायाशाला मुरानिशा' इति वैजयन्ती स्त्री नपुसक शेषः । रत्नपछामानां पारागादिकिरणानाम् । 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनात इत्यमरः । व्यतिकरो मिश्रणं तस्मात् । आधुवनम् अस्युलसम् । 'उपप्रांशून्नतोदग्रोन्छितास्तु' इत्यमरः । वर्गोपल्न 'स्यादुपनोन्तिकाश्रयः' इत्यमरः । धनुः चापः । समाविर्भवतीव प्रादुर्भवतीय । पुरस्तात् पुरोभागे । 'प्राच्या पुरस्तात्प्रथम इत्यमरः : प्रक्य दर्शनीयं स्यात् । इतः सबनः । भूमिरम्मात् तस्माद्भगिलात् । १. स्वर्गलक्ष्मीः तवागमनमालक्ष्य त्वदीयपरिरम्भणाम्यवहितोप्सरक्षण एवासमशर
कलिरारंभ णीयेति कांचीदाम पलथायिता वर्तत इव भाति अतस्वया लघुगन्समिति प्रेरणाकृतेत्यापायः ।
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प्रथम सर्ग भूम्या भूतलेन । अन्तरितविसरम् अन्तरितः व्यवहितः विसरः प्रसारणं यस्य तत् । भोगिमूर्वन्यरत्नज्योतिश्चक्रम् नागेन्द्रस्य मस्तकस्थरत्नानां कान्तिवन्दम् । मुनि भवानि मूर्द्धन्यानि । 'हिंगाचंशाधः' इति यत्यः । ज्योतिस्ताराग्निभाज्वालादृक्षुत्रार्थाध्वरात्मसु 'चक्रं सैन्ये बलावर्ते रथाङ्ग चयराष्ट्रयोः' इत्युभयत्रापि वैजयन्ती । वियति व्याग निकम दृश्यते 'कम् अवलोड कि-युप्रंक्षा। ॥५७-५८ ॥ पुग्मम् ।
अन्वय--( यत् ) एतत् पुरस्तात् रत्नश्चछाया व्यतिकर इव समाविर्भवति तत् से प्रस्थान उच्चः विरुचितं नुन तोरणम् ? अथवा एतत् स्वर्गलवम्याः एलीयत्तम् काम्धीदाम किम् ? उत ( एतत् ) अत्युषमं वर्णोपनं धनुः नूनं ( यत् ) इतः भूमिरम्नात वियति दृश्यते ( तस् ) भूम्या अतरितविसरं भोगिमूर्धन्यरत्नज्योतिश्चक्र किम् ? यद इदं वल्मीकापात् प्रभवति तत् प्रायेण दिनकरफराक्लिष्टमेधाधित आखण्डलस्य धनुः खण्डम् । ___अर्थ--यह आगे मणियों की कान्तियों के मिश्रण के समान जो प्रकट हो रहा है, वह तुम्हारे प्रस्थान के समय ऊँचा बनाया गया क्या तोरण है ? अथवा यह स्वर्ग लक्ष्मी की शिथिलीभूत माला के समान मेखला है अथवा यह अत्यन्त ऊँचा अनेक प्रकार के रंगों वाला धनुष है । निश्चित रूप से जो यहाँ भूमि के बिल से आकाश में दिखाई देता है क्या वह भूमि के द्वारा रोका गया है प्रसार जिसका ऐसा फणीन्द्र के मस्तक के रत्नों के तेज का समूह है ? जो यह बाँबी के अग्रभाग से उत्पन्न हो रहा है। वह बाहुल्य से सूर्य की किरणों से आक्रान्त मेघ पर आश्रित इन्द्र का धनुषस्लण्ड है।
भावार्थ-रत्नों की कान्तियों के सम्मिश्रण के समान दर्शनीय वस्तु दिखाई देने पर जिसे संशय उत्पन्न हो गया है, ऐसे जिज्ञासु के ये प्रश्न हैं ।
खङ्गस्यकं कथमपि दृढं मे सहस्व प्रहारं, वक्षोभागे कुलिशकठिने प्रोच्छलद्रक्तधारम् । विद्युद्दण्डस्फुरितरुचिना बारिवस्येव भूयो,
येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते से ॥ ५९॥ खड्गस्येति । विद्युयस्फुरितचिना विद्युद्यस्टिवत् प्रज्वलितकान्तिना । येन खड़गेन । वारिवस्थेव मेघस्येव । ते तव । श्याम नीलहरितम् । वपुः तनुः । भूयः पुनरपि । अतितराम् प्रकृष्टाम् । कान्ति शोभाम् । 'शोभाक्रान्ति तिश्कविः' इत्यमरः । भापत्स्यते प्राप्स्पति । मे मम । सङ्गस्य करवालस्य । दृढ निष्ठुरम् । 'कठोर निष्ठुरं दृढम्' इत्यमरः । एक प्रहारं घातम् । कुलिशकठिने वनकशे । "ह्लादिनीवसमस्त्री स्यात् कुलिश विदुरं पविः' इत्यमरः । बसोमागे बमः स्थले ।
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पार्वाभ्युदय 'उरो बरस घ वक्षश्च' इत्यमरः । प्रोपचलनक्सपारं प्रोच्चलन्ती रक्तस्य धारा यथा भवति तथा । कथमपि महता कष्टेनापि सहस्व क्षमस्व ।। ५९ ।।
अन्वय-कुलिशकठिमे वक्षोभागे प्रोग्छलद्रक्तधारं मे खड्गस्य एक दृढं प्रहारं कथं अपि सहस्व, येन ते श्यामं वपुः विद्युइण्डस्फुरितरुचिना वारिदस्य वयुः व अतिसरा कान्तिम् आपत्स्यते ।
अर्थ-वच के समान कठिन वक्षःस्थल पर निकल रही है रक्त की धारा जिससे ऐसी मेरी तलवार के एक प्रहार को किसी प्रकार सहन करो, जिससे तुम्हारा श्यामल शरीर दण्डाकार बिजली के प्रज्वलित तेज के कारण मेघ के शरीर के समान अत्यधिक शोभा प्राप्त कर लेगा।
शङ्कोरेवं प्रहतमथवा धत्स्व शूराग्रणोर्मे, पिच्छोपाग्रप्रततिरुचिरं येन शोभाऽधिका से । क्रीडाहतोविरहिमोरिन्द्रनीलस्विक्षः स्या,
हेणेव स्फुरिसरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः ॥ ६ ॥ शङ्कोरिति । अथथा । क्रोडाहेतो: लीलानिमित्तम् । विरचिततनोः निर्मितशरीरस्य । इन्द्रनीलरिवषः इन्द्रनीलरतस्येच विद् कान्तिर्यस्य तस्य । गोपवेषस्म गोपालवेषवतः 1 विष्णोः कृष्णस्य । स्फुरितचिना प्रोच्चलबुतिना । बहेंगेव पिच्छेनेय पिण्डवह मपुसके' इत्यमरः । येन घटना । ते तद । अधिका उत्कृष्टा। शोभा कान्तिः । स्यात् भवेत् । शूराप्रपीः भो वीरानेसर। ये मम शो नाराचस्प । 'वा पुसि शल्य शङ्कः' इत्यमरः । प्रहर्स प्रहारम् । पिन्छोपापप्रततिरुचिरं पिच्छस्य शल्यानस्थितबहस्य अग्रस्य समीपभुपान तस्यः प्रततिः प्रतानम् 'प्रततिविस्तुती बल्याम्' इति विश्वः । तया रुचिरं सुषमं यथा भवति तथा। एवं दर्यमानप्रकारेण | धरस्य धेहि ॥ ६० ।।
अन्धय--अथवा शूराग्रणोः पिछोपाप्रतीतरुचिर मे पायोः एक प्रहृतं यत्स्व, येन स्फुरितषिमा महेण क्रीडाहेतोः विरचिततनो: इन्द्रनील त्विषः गोपवेषस्य विष्णोः इव ते अधिका शोभा स्यात् ।
अर्य--अथवा हे शूराग्रणी ! पिच्छों के अगले भाग के समीपवर्ती प्रदेश के समान विशिष्ट रचना से शोभायमान मेरे बाग के एक प्रहार को धारण ( सहन ) करो; जिससे उज्ज्वल कान्ति युक्त मयूर पंख से कोडा के लिए जिनका शरीर बनाया गया है और जिनकी वान्ति इन्द्रनीलमणि के समान है ऐसे गोपवेषधारी विष्णु के समान आपकी अधिक शोभा हो जायगी । १. शोरेक।
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प्रथम सर्ग
आस्तां तावत्पहरणकथा स्वर्ययाज्यं तवाऽयं, मार्गः स्व| वियदभिपतेः प्रागमुष्मात्प्रदेशात् । जीवमूतत्वं दधदनुगतः क्षेत्रिणां दृष्टिपासस्स्वय्यायत्तं कृषिफल मिति श्रूविलासानभिज्ञैः ।। ६१॥
आस्तामिति । पथा कथ या स्वः स्वर्ग: 'स्वर्ग परे च लोके स्त्रः' इत्यमरः । अयं सम्पद्यं भवति सा प्रहरणकथा प्रघातोक्तिः। अथवा प्रहरणकथा आयुधवार्ता । 'आयुधं तु प्रहरणम्' इत्यमरः । तावदास्तां तदा तिष्ठत् । तव ते । अर्य दृश्यमानः । स्वर्जः स्वर् स्वर्गे जायते इति तयोक्तः । स्वर्गप्रापक इत्यर्थः । मार्गः गन्याः भवति । जीमूतत्वं मेघस्वरूपम् । वयत् वहन् । कृर्षहलकर्मणः फलं सस्पम् रवयि भवति । अधिकरणविवक्षायां सप्समो । आपसं 'अधीनी निघ्न आयत इत्यमरः । इति अस्मात् हेतोः । 'इति हेतु प्रकरणप्रकाशादिसमाप्तिषु' इत्यमरः । क्षेत्रिणां कृषोवल.माम् । अधिलासानभिः भूविकाराणां ध्रुवोविलासानाम् अनभिः प्रशात्रिकालेः । पामरत्वादिति यावत् । दृष्टिगतैः दुग्व्यापारैः। अनुगतः अनुयातः सन् । अमुष्मात् प्रदेशात् एतत्स्थानात् । प्राक् पूर्वम् । वियत् व्योम । अभिपते: अभिगच्छेः ।। ६१ ।।
अश्यय-या स्त्रः तत्र अज्यं सा प्रहरणकया तायत आस्तां । अयं स्वर्जः मार्गः । कृषिकलं वयि आयत्तं इति अघिलासानभिः क्षेत्रिणां दृष्टिपावैः अनुगतः जोमूतत्वं दधत् अमुष्मात् प्रदेशात वियत अभिपतेः ।
अर्थ--जिसके द्वारा तुम्हें स्वर्ग का अर्जन होगा, वह युद्ध को कथा इस समय रहने दो। यह तुम्हें स्वर्ग पहुंचाने वाला मार्ग है। 'कृषि का फल तम्हारे आधीन है' इस प्रकार भौंहों के बिलास से अनभिज्ञ कृषक स्त्रियों के दृष्टिपातों से अनुसरण किए गए और मेघपने को धारण करते हुए इस प्रदेश से पहले आकाश प्रदेश की ओर अभिमुख होकर जाओ।
विद्युन्मालाकृतपरिकरो भास्वविन्द्रायुधश्रीरुद्यन्मन्द्रस्तनितसुभगः स्निग्धनीलाञ्जनाभः । शीघ्र यायाः कृतकजलद त्वत्पयोबिन्दुपात
प्रीतिस्निग्धैनपववत लोचनैः पोयमानः ॥ ६२ ॥ विद्युन्मालेलि । कृतज ला भी विकल्पितमेघ । त्वं विद्युन्मालाकृतपरिकरः सौदामिनीभिः कृतारिबारः । 'नडिसोशामिनोविद्युत्' 'परिकरः पर्यशपरिवारयोः' इत्युभयप्राप्यमरः । मास्वविनायुषी: भास्वन्तो इन्द्रायुधस्य श्रीर्यस्य सः । 'इन्द्रा
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पार्वाभ्युदय युघंशनधनुः' उपग्मास्तमितसुभगः मन्नं च तत्स्तनितं प उद्यद्भवच्च तस् मन्द्रस्तनितं च तेन सुभगः रुचिरः । स्निग्पनीलामनामः स्निग्धं मसृणं तच्च नीला
जनं च तविध आमा यस्येति तथोक्तः । 'चिकणं मसूर्ण स्निग्धम्' इत्यमरः । स्वल्पयोचिन्छुपातप्रीतिस्निग्धः तव जलबिन्दपतनेन जात प्रमोदेन विश्वस्तः । जनपववधूलो चमः देशस्त्रीणां नेत्रः पीयमानः पीयते इति पीयमानः अतितृष्णया निरीक्ष्यमाणः सन्नित्यर्थः । शीघ्रं त्वरितम् । यायाः गच्छे: ।। ६२॥
अन्वय है कृतजलद ! विद्युन्मालाकृतपरिकरः स्निग्धगेलाजनाभः, स्वल्पयोविन्दुपातप्रीतिस्निग्धः जन पदवधूलोचनैः पीयमानः (स्वं) शीघ्र यायाः ।
अर्थ हे कृत्रिम मेघ ! विद्युत् की माला से आपने शरीर का सम्बन्ध करने वाले देदीप्यमान इन्द्र धनुष की शोभा के समाम शोभा से युक्त, प्रकट होती हुई गम्भीर गर्जना से मनोहर, तैल से आकृत अञ्जन के समान कृष्णवर्ण को प्रभा वाले तुम्हारे जल की वर्षा से उत्पन्न प्रीति के कारण जिनमें प्रेम उत्पन्न हो गया है ऐसे गाँव की स्त्रियों के नेत्रों से आदरपूर्वक देखे जाते हुए ( तुम ) शीन ही जाओ ।
भावार्थ हे कृत्रिम मेघ ! चूंकि गांव की स्त्रियाँ अपने लोचनों से तुम्हारा आतिथ्य करेंगी, अतः तुम वहाँ पर अधिक समय न बिताकर शीघ्न ही आगे बढ़ना ।
वृश्यान्देशाञ्जलद सफलारप्रेक्ष्य सिंहावलोकातत्रत्यानां जनपदभुवां तापमाहुत्य पश्चात् । प्रत्यासलं जनपदमिमं लध्याऽलं विलम्ब्य, सधः सोरोस्कषणसुरभि क्षेत्रमारहामालम् ॥ ६३ ॥ दृश्यानी ति । जलब मेष । दायान् द्रष्ट योग्यान् । सकलान देशान् सर्वत्रिषयान् । सिंहावलोकात् सिंहदषलोकनात् । प्रेक्ष्य दृष्ट्वा । तत्रत्याना तत्रभवास्तत्रत्यास्तेषाम् । "क्वेहामुतस्नात्यच् । जनपदभुषां जनपदे भवन्तोति अनपदभुवस्तेषां जनानाम् । तापं सन्तापम् । शाहृत्य परिहत्य । पश्चात् अनन्तरे। घिसम्व्य कालमापनं कृत्वा 1 अलं पर्याप्तम् । 'अलं भूषणार्याप्तिशक्तिवारणवाचकम्' इत्यमरः । कालक्षेपो मा भूदित्यर्थः । भालं शंलबदुन्नतस्थलम् । 'मालमुन्नत क्षेत्रम्' इत्युत्पलः । 'मालमुन्नतभूः' इति नानार्यरत्नमालायाम् । क्षेत्रं भूप्रदेशं । 'क्षेत्रं शरीरेकेदारे सिखस्थानकलत्रयोः' इति विश्वः । सद्यः तत्क्षग एव । सोरोत्कषणसुरभि सीरहले रुल्कपणेन सुरभि प्राणतर्पणः मथा भवति तथा । ईषद्वृष्टि वितन्यन्निति भावः । मारह्मा उत्प्लव । प्रोत्या प्रमोदेन आसन्न समोप
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प्रथम सर्ग गतम् । इमं जनपदम् एतद्देशम् । 'नोवृजनपदो देशविषयो' इत्यमरः। समय अत्यहि ।। ६३ ॥
अन्वय-हे जलद् ! सकलान् दृश्याम् देशान् सिंहावलोकात प्रेक्ष्य तत्यामा जनपद भुवां तापं आहुत्य पश्चात् सद्यः सीरोत्कषणसुरभि क्षेत्र मालं आरुह्य इम आसन्न जनयद मीराच्य विलय जलम् ।।
अर्थ-हे मेष ! देखने योग्य समस्त देशों ( प्रदेशों) का सिंहावलोकन कर तथा उन स्थानों के देशवासियों के आतप का निवारण करने के बाद तरक्षण हल चलाये जाने से खुशबूदार माल नामक क्षेत्र पर आरोहण कर इस समीपवर्ती देश ( प्रदेश ) को प्रीतिपूर्वक पार करो, इसमें विलम्ब मत करना।
यौरसुक्यं तव जनपवप्रेक्षणे दीर्घकालं, प्रत्यावृत्तस्वविषयरतेरस्ति भिक्षा कदाचित् । तत्पपीयस्व परिसरितं दक्षिणाशां भ्रमित्या, किञ्चित्पश्चावन्न लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण ।। ६४ ।। यदिति । तव भवतः । वीर्घकाल बहुकालपर्यन्तम् । अनपवप्रेक्षणे देशवशंने । औत्सुक्य लाम्पट्यम् । यवि भवति चेत्तहि । प्रस्याप्तस्वविषधरते: प्रत्मावृत्ता पुनरागता स्वविषयरतिश्चक्षुरादोन्दियासक्तिस्तस्या इति कर्मधारयः । सारतिर्यस्येति बहुमोहि । यबाचित् चित्काले । भिक्षा प्राप्तिः अस्ति । तत् तस्मात् । पश्चात् पुनः । किञ्चित् कियत् । वक्षिगाशाम् अवाचोधिशम् । भ्रमित्या पलिया। परिसरितं सग्ति सग्निं परि तथोक्तम् । पीयस्व अत्यधं पान विधेहि । 'पी पाने' इति धातोः यडिलेट् । भूयः पुनश्च । उत्तरेणेव उत्तरमार्गेणैव । लघुगतिः प्राक् तत्र निव॒ष्टयान क्षिप्रगमनः मन् । 'लघु क्षिप्रमरं घृतम्' इत्यमरः । प्रज गच्छ ॥ ६४ ॥ ___ अन्वय-भिक्षा, यदि दाधकालं प्रत्यावृत्तस्वविषयरतेः सब जनपवप्रेक्षणे कदाचित् औत्सुक्यं अस्ति तत् परिसरित निश्चित भ्रमित्वा दक्षिणाशा पेपीयस्व । पश्चात् लघगतिः भूय. उत्तरण एव अज ।
अर्थ-हे भिक्षु ! यदि अधिक समय तक विषयाकांक्षा बिनष्ट होने से तुम्हारी जनपद को देखने को कदानित उत्सुकता है तो नदी को छोड़कर कुछ भ्रमण कर दक्षिण दिशा का चक्षु के द्वारा पुनः पुनः पान करो ( देखो ) । पश्चात् शीघ्रगामी होकर पुनः उत्तर दिशा की ओर ही जाओ । १. भिक्षो।
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पाश्र्वाभ्युदय वक्ष्यत्युच्चैः पथगतपरिश्रान्तितान्तं नितान्तं, तुङ्गोऽद्रिः स्वैर्बहुविलसितैनिहरैरात्तकान्तिः । प्रत्युद्यातो धुततटबनोपान्तदेशैमद्भिः , स्वामासारप्रशामितवनोपद्रवं साधुः भूर्ना ॥ ६५ ॥ वक्ष्यतीति । उम्म: पथगतिपरिमाप्तितान्तम् उच्चः पथगत्या व्योमगमनेन जाता परिश्रान्तिः परिश्रमः तया तान्तः खिन्नस्तम् । मासारप्रधामितवमोपद्रवम् मासारेण वेगवद्वर्षणेन 'आसारो वेगवर्षम्' इत्यमरः । प्रशमितो वनोपद्रवोवनाग्निर्येन सं कृतोपकारमित्यर्थः । त्वां भवन्तम् । सुङ्गः उन्नतः । अविः भूभृत् । कोप्यद्विरितिवा पाठः । स्वः स्वकीयः । बह विलसितैः बहुधा निमितः निरैः जलप्रवाहैः। 'प्रवाहो निझरो झर' इत्यमरः । वासकान्तिः पततिः । धुततटबनोपान्तवेश: घुत्ताः कम्पिताः सटवनस्य उपान्तदेशा यस्तैः । मद्भिः वायुभिः । प्रायुधात: प्रत्युदगतः सन् मितान्तं गालम् । 'तीवकान्तनितान्तानि गाढवाढवानि च' इत्यमरः । साष सम्यक् । मुना शिरसा । वक्ष्यति उचरिष्यति । 'यहि प्रापणे' लट् । दत्तपासः कृताऽभ्यागतप्रतिपत्तिः सन् मानयिष्यतीति तात्पर्यम् ॥ ६५ ।।
अन्धय-बविलसितः स्वः निर: आत्तकान्तिः घुलतटबनोपान्तदेशः मद्धिः प्रत्युद्यातः नितान्तं तुङ्गः अद्रिः आसारप्रशमितघनोपद्रव पथगतिपरिश्रान्तितान्तं स्वा मुर्मा उत्रः साघु वक्ष्यति । ___ अर्थ अनेक प्रकार की शोभाओं से युक्त अपने जल प्रवाहों से प्राप्त कान्ति वाला, किनारे के वन के समीपवर्ती प्रदेशों को कंपाने वाली वायुओं के द्वारा आदर सत्कार के लिए उठा हुआ, अत्यधिक ऊँचा ( कोई ) पर्वत दावाग्नि से उत्पन्न दुःख को ( अपनी) धाराप्रवाह जल वर्षा से दर करने वाले तथा मार्ग में गमन करने से उत्पन्न परिश्रम के कारण थके हुए तुम्हें शिर से ऊंचाई पर भली प्रकार धारण कर लेगा।
भावार्थ-सज्जन लोग किए हुए उपकार को नहीं भूलते हैं। किसी पर्वत पर दावानल जल रही थी । उमे मेघ अपनी धाराप्रवाह जल वर्षा से बुझा देगा। इस कारण कृतज्ञ पर्वत अवश्य ही उस मेघ की भलीभांति अगवानी करेगा और उपकारी को जिस प्रकार लोग अपने सिर पर उठा लेते हैं, उसी प्रकार जो पर्वत भी मंघ को (जो मार्ग में चलने को थकान के कारण दुःस्त्री है ) भलीभाँति अपने ऊपर धारण कर लेगा।
त्वय्यासन्ने बिरलविरलान्प्रावृषेण्योदबिन्दून्, वस्त्रक्नोपं विसृजति तथाऽप्यश्मवेश्मोदरीषु।
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प्रथम सर्ग
___१०३ सिद्धवन्द्वं सुरतरसिकं प्रान्तपर्यस्तवीणं,
वक्ष्यत्याध्यश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकटः ॥६॥ त्वयोनि । आसन्ने समीपगने । त्वयि भवति । यिरलविरलान् मानरसान्तगन् । श्रीप्तायां द्वि: । प्रावृषेण्योवचिन्तून् प्रावट कालभवजनकणान । वस्त्रक्लोपं यावता वस्त्र बनोपितमा भवति तायत विसृजति वर्षति सति । 'चलार्थात् क्नोपीः' इति विकल्पितो णम् । तथापि आम्रकूट: आम्रान्ता: वृदेषु शिखरेषु यर य मः । आनकूटो नाम सानुमान्पर्वतः । अश्मवेश्मोदरी शिलासामध्येषु गृहास्वित्यर्थः । सुरतरसिकं निघुवनप्रीतम् । प्रारतपर्यस्तषीणम् प्रान्ते समीपे पर्यस्ता विस्टा वीणा यस्य तप्त । अध्यापरिगतं प्राप्तम् सिंह देविशेषामियनम् । वक्ष्यति भणिव्यक्ति । मेघागमनस्य रतिहेतुत्वात् मुरतप्रियं सिद्ध मिथुनं सूचयतीति भावः ॥६६॥
अन्धय-तथा अपि आसन्ने त्वयि विरलविरलान प्रारूपेण्योदबिन्दुनु वस्त्रफ्नोग विसृजति सति आरकूट: सानुमान अष्वक्षमपरिगतं प्रान्तार्यस्तवीणं मुरतरसिकं सिद्वन्तुं अपमत्रेश्मोदरेषु वक्ष्यति ।
अर्थ-उसी प्रकार तुम्हारे समीप में जाने पर तथा अत्यधिक विरल धर्षाकाल के समान जलविन्दुओं को बस्त्र को गीला करने मात्र वर्षाने पर आम्रकूट पर्वत मार्ग के परिश्रम से व्याप्त ( अर्थात् मार्ग के परिश्रम से खिन्न), समीपवर्ती प्रदेश में वीणा नामक वाद्य को स्थापित किए हुए. सुरत के रसिक सिद्धों के जोड़े को शिलाग्रह के मध्य धारण कर लेगा।
स्वामुत्तु शिखरतरुभिः सङ्ग्रहीष्प्रत्यवश्यं, विश्रान्त्यथं प्रियमुपगतं सोऽचलस्तुल वृत्तिः । प्राप्तं काले प्रणयिनमहो कर्तुमर्हत्यपाशं, न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय ॥ ६७ ॥ स्वामिति । तुङ्गवृत्तिः तृङ्गावृत्तिर्गस्य सोऽनलः स आम्रकूटः । विश्रान्त्यर्थ विश्वमणाय । उपगतं समीपगतम् । प्रिय मित्रम् । त्वां भवन्तम् । उत्तुङ्गः उन्ननः । शिखरतरभिः कूटस्थवृक्षः । अवश्य निश्चयेन ! सङ्ग्रहोष्यति मन्मानं करिष्यति । तथाहि । काले सम्ये । संश्रयाय आथयाय । प्राप्तम् आगतम् । प्रणयिनं विश्वस्तम् । क्षुद्रोऽपि कृगणो शुदा दरिद्रे हाशे नृशंगे' इति यायः । कि पुनरुदार इत्यपि शब्दार्थः । प्रथमसुकतापेक्षया पूर्वोपचार पर्यालोचनया । अपाशं निष्फलाभिलायम् । कतु विधातुम् । नात्यही योग्यो न भवति हि। किन्तु मम्मानयत्येवेति तात्पर्यम् ।।६७।।
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पाश्वभ्युदय
अन्वय - विश्रान्त्यर्थं उपगतं त्वां प्रियं सः तुङ्गवृत्तिः अनल: उत्तुङ्ग शिखरतरुभिः अवश्यं सङ्ग्रहीष्यति । काले संश्रयाम प्राप्तं प्रणयिनं अहो ! शुत्रः अपि प्रथम सुकृतापेक्षया अपाशं तु न अर्हति ।
अर्थ - विश्राम के लिए प्रियमित्र आपको पाने पर उन्नतावस्था को प्राप्त ( महापुरुषों के आचार के समान जिसका आचार है ) वह आम्रकूट पर्वत ऊँचे अपने शिखर पर उगे वृक्षों द्वारा अवश्य ही स्वागत करेगा । योग्य समय में आश्रय हेतु प्राप्त शिव को अहो !
के
उपकारों की अपेक्षा निराश करने योग्य नहीं होता है ।
१०४
व्याख्या - मेघ ने दावानल बुझाकर आम्रकूट पर्वत का उपकार किया है। इस पूर्व उपकार को याद कर आम्रकूट पर्वत अवश्य ही मेघ को अपनी चोटी के ऊपर स्थित वृक्षों पर जगह देकर अगवानी करेगा । क्षुद्र व्यक्ति भी अपने उपकारी को समय पड़ने पर कभी निराश नहीं करता है, उन्नतावस्था को प्राप्त आम्रकूट पर्वत की तो बात ही क्या है ? महापुरुषों के समान आचार वाला वह अवश्य ही मेघ का स्वागत कर आशान्वित करेगा । मन्ये मैत्रीं गुरुभिरचलैर्वारिदाना महायाँ, यं प्रत्येते विदधति पूति तस्यते बन्धुकृत्यम् । कुर्यादद्रिर्भूशमसुहृदोऽप्युत्तम स्निग्धवृत्तिः,
प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः ॥ ६८ ॥
मन्य इति । जरिवानां मेघानाम् । गुरुभिः महद्भिः । अञ्चले गिरिभिः । आहार्याम् अतिस्निग्धाम् । मंत्री मित्रत्वम् । मन्ये जाने । तथाहि । एवे वारिदाः । यं प्रति यमुद्दिश्य । घृति सन्तोपम् । 'योगान्तरे धारणे च सप्ततन्तौ सुखेपिच ।
सन्तोषयोश्वत्र प्रतिशब्द उदाहृतः । इत्यभिधानात् । विदधति कुर्वन्ति । ते अचलाः । तस्य वारिदैः सन्तोषितस्यैत्र । बन्धुकृत्यम् । सुशम् अत्यन्तम् 'अतिवेलभृशात्यर्थातिमात्रोद्गात निर्भरम्' इत्यमरः । कुर्यात् विदध्यात् । सा तेन प्रकारेण । उच्च महति । मित्रे सुहृदि । प्राप्ते आश्रिते सति । यः पुनः यः कश्चन । भवति किम् पराङ्मुखो न भवत्येवेत्यर्थः ॥ ६८ ॥
अन्वय-वारिदानां गुरुभिः अचल मंत्री आहार्यां मन्ये । यं प्रति एतं धृति विदधति, तस्य ते असुहृदः अपि उत्तमस्निग्धत्तिः अद्रिः भृशं बन्धुकृष्यं कुर्यात् यः पुनः तथा उच्च ( स ) मित्रे भवति प्राप्ते विमुखः किम् ?
अर्थ- मैं मानता हूँ कि मेघों की बड़े-बड़े पर्वतों के साथ जो मित्रता है, उसका परिहार करना शक्य नहीं है अर्थात् वह अत्यन्त स्नेहमयो है |
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प्रथम सर्ग
१०५ जिस आपके प्रति ये पर्वत सन्तोष को धारण करते हैं, मित्रभाव को अप्राप्त उस आपका महापुरुषों के समान स्नेहाचरण करने वाला आम्रकूट पर्वत
त्यधिक रूप से बन्धु के द्वारा करने योग्य स्वागत सत्कारादि के कार्य को करेगा । जो आम्रकूट पर्वत पुनः पूर्वोक्त प्रकार से उन्नत है, वह मित्र के रूप में आपको पाकर क्या विमुख होगा ?
भावार्थ - चूंकि मेघों की उन्नतकाय वाले पर्वतों के साथ मित्रता है, अतः वे पर्वत मेघ जैसे व्यक्तियों का अवश्य ही स्वागत करेंगे। आम्रकूट पर्वत जो शत्रुओं के प्रति भी महापुरुषों के समान व्यवहार करता है, मित्र के रूप में आपको पाकर अवश्य हो स्वागत करेगा | तात्पर्य यह कि आम्रकूट पर्वत यदि आप मित्र न भी होते तो भी आपका स्वागत करता, मित्र होने पर तो करेगा ही ।
सेव्यः सोऽद्रिः खचरवनिताध्यासितोवग्रशृङ्गस्त्वविधान्ये त्वरयति पुरा रम्यसानुप्रवेशः । सिद्धोपास्यः कुसुमितलतावीरुधां सन्निवेश्यः,
छन्मोपान्तः परिणतफलद्योतिभिः काननात्रैः ॥ ६९ ॥
सेव्य इति । खचरवनिताध्यासितप्रभृङ्ग विद्याधरस्त्रीभिरधिष्ठित मुन्नतशिखरं यस्य सः । रम्यसानुप्रदेश: रम्यः सानूनां प्रदेशो यस्य राः । सिद्धोपास्प: सिद्धदेव राराध्यः । कुसुमितलतावोरुघां पुष्पितलतागुल्मानाम् । द्राक्षादयो लताभेदाः । धुस्तकादयो गुल्मभेदा इति यावत् । सन्निवेश्यः आश्रयणीयः । परिणतफलद्योतिभिः परिणतैः परिपषः फलैः द्योतन्त इति द्योतिनस्तैः । आपाढे व वनभूताः फलन्ति पच्यन्ते च मेघवास्थावादः । काममात्रैः वनचूतैः । म्नोपान्तः समावृत पादः । 'सेवपः सेवितुं योग्यः । सोतिः आम्रकूटाचलः । पूरा अग्रतः । निकटागामिके पुरा seaमरः । विध्वान्त्यै विश्रमणा । भवन्तम् । वरयति सम्भ्रमयति ॥ ६९ ॥ अन्वय - खचरवनिताध्यासितोदयशृङ्ग रम्यसानुप्रदेशः सिद्धीपास्यः कुसुमितलता arari मन्निवेश्यः परिणतफलयोतिभिः काननाम्रै छन्नोपन्तः सेव्यः स अद्रिः पुरा वां विधान्ये खरयति ।
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अर्थ – विद्याधरियां जिसके ऊँचे शिखर पर बैठा करती हैं, सुन्दर शिखरों के अग्रभाग से युक्त सिद्धों के द्वारा मेबन करने योग्य फूली हुई लताओं और गुल्मों के आश्रय के योग्य पके हुए फलों के द्वारा द्योतित वन के आमों द्वारा जिसका समीपवर्ती प्रदेश ढका हुआ है ( इस प्रकार ) • सेवन करने योग्य वह पर्वत तुम्हें निकट भविष्य में विश्राम करने के लिए जल्दी कराएगा |
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१०६
पार्वाभ्युदय कृष्णाहिः किं बलयिततनुमध्यमस्यातिशेते, किं वा नीलोत्पलविरचितं शेखर भूभृतः स्यात् । इत्याशङ्कां जनयतिपुरा मुग्धविद्याधरीणां, त्वय्यारूढे शिखरमचलः स्निग्धवेणी सवर्णे ॥५०॥
कृष्णाहिरिति । स्निग्धवेगोसवणे मणकेशन्धनसच्छाये यामवर्ण इत्यर्थः । 'वेणी तु केषाबन्धने । जलसृती' इति याइवः । स्वपि भवति । शिखर शृङ्गम् । मारले सति । 'यद्रावो भावलक्षणम्' इति सप्तमी । अचल: सोद्रिः । मुग्धविधापरगः मुन्धान विपर बिल अलविरासन परिकामायः । कृष्णाहिः कृष्णसर्पः । अस्य पर्वतस्य । मध्यमस्याधिशेते कि मध्ये मिष्ठति किम् । 'वीस्थासोधेराधारः' इत्याधारे द्वितीया । अथवा भूभृतः गिरेः । नीलोत्पलविरचितं कुवलय पटितम् ! शेखरं मास्यम् । 'शियास्वापीर शेखराः' इत्यमरः । स्यातिकम् । इत्पाशाखा एवम् आशङ्काम् । पुरा अग्रे । जनयति उत्पादयति ॥
अन्क्य-स्निग्यवेणी सवर्ण यि शिसरं आरूले { मति ) अचल: बलपिसतनुः कृष्णाहिः अस्य मध्यं अधिशेते किम् ? वा भूभुतः नीलोतालविरचितं शैखरं स्यात् किम् ? इति आपाया मुग्धविद्याधरीणां पुरा ननयति ।
अर्थ-तेल से आर्द्राकृत केशबन्ध के सदृश वर्ण बाले तुम जब ( आम्रकूट पर्वत के ) शिखर पर चढ़ोगे तो आम्रकूट पर्वत क्या अपने शरीर को मण्डलाकार परिणमित करने वाला काला सर्प इस पर्वत के मध्य में बैठा है अथवा यह पर्वत का नीलकमल से बनाया गया शेखर है ? इस प्रकार की आशंका को भोली भाली विद्यारियों के सामने उत्पन्न करता है।
भावार्थ-जब मेघ पर्वत के मध्य विराजमान हो जाता है तो तेल युक्त केशबन्ध के समान काले वर्ण वाले मेघ को देखकर भोली भाली विद्यारियों के मन में यह शङ्का हो जाती है कि क्या यह कुण्डली मारे हाए काला सर्प पर्वत के मध्य में बैठा है अथवा नीलकमल से बनाया गया यह पर्वत का हार है ?
अध्यासीनः क्षणमिव भवानस्य शैलस्य कुज, लक्ष्मी रम्या मुहुरुपहन्निन्द्रनीलोपलस्य । खेनोन्मुक्तो भुमिव गतः श्लक्ष्णनिर्मोकखण्डो, नूनं यास्यत्यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्थाम् ।। ७१ ॥
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प्रथम सर्ग
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अध्यासीन इति । भवान् त्वम् । अस्य शैलस्य भानकूटस्य । कुज निकुञ्ज । मणमिव । इत्र शवो वाक्याऽलङ्कारे । अध्यासोमः । 'जोङ्स्थामोः' इति द्वितीया। निकुजनिविष्टः सन् इत्यर्थः । महः पुनः । इनमीलोपलस्य इन्द्रनीलमशः । रम्य लक्ष्मी । शोभा तुलामित्यर्थः । उपहारन् उपवहन । खेन गगनेन 'अनन्तं सरकर्म खम्' इत्यमरः । उन्मुक्तः व्यक्तः सन् । भुवं भूमिम् । गतः प्राप्तः । इलक्षणनिर्मोकखण्ड एष दभ्रकञ्चुकलेशवत् । 'इलणं उभं कुछ तनु 'समौ कञ्चकनिर्मोको' इत्यमरः । अमरमिथुनप्रेक्षणीयां देवमिश्रुनैदर्शनीयां । अवस्था दशाम् । नूनम् अवश्यम् । यास्यति गमिष्यति । भवच्छन्दप्रयोगात् प्रथमपुरुषः ।।७।।
अन्वय-इन्द्रनीलोपलस्य रम्या लक्ष्मी महः उपहरन् अस्य शलस्य कुञ्ज क्षण इव अध्यासान: भवान् खेन उन्मुबलः भुवं गतः श्लक्षणनिकालण्हः एक अमरमिथुनप्रेक्षणीयां अवस्था नून यास्यति ।
अर्थ-पुनः इन्द्रनीलमणि की रमणीय लक्ष्मी ( कान्ति ) को बार बार धारण करते हुए इस पर्वत निकुञ्ज में क्षण भर बैठकर स्वर्ग से परित्यक्त होकर पृथ्वी में आए हुए सूक्ष्म आकाश-खण्ड के समान आप देव युगलों के द्वारा देखने योग्य अवस्था को अवश्य प्राप्त करोगे।
स्वय्यानीलत्विषि गिरिरसौ शेखरत्वं दधाने, शोभामेष्यत्यमरमिथुनश्लाघनीयां तदानीम् । नानापुष्पद्रुमशनलितोपत्यकः सोऽतिमात्र, मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः ॥७२॥ स्वयोति । तवामों तत्समये । आनोलविषि नीलघुती । स्वपि भवति । शेखरत्वं पोखरताम् । "शिखास्वापाडशेखरौं' इत्यमरः । वधाने दहमा सप्ति पर्वतस्य शिखरोपमे सतीत्यर्थः। मानापुष्पगुमशवलितोपत्यका नानाविधानि पुष्पाणि येषां ते ते व ते द्रुमाश्वत: शवलिता मिश्रिता "चित्र किर्मीरकल्माष शबलताश्च कर्बुरे' इत्यमरः । उपत्यकानगासन्न भूमिर्यस्य सः । 'उपत्यकाबेरासन्ना भूमिः' इत्यमरः ! मध्ये श्यामः मध्ये शिखरे श्यामः कृष्णवर्णः । 'अलुक्ममामः' । शेषविस्तारपाण्डुः मध्यादन्यत्रविस्तारे परितः प्रदेशो 'विस्तारो विग्रहो व्यासः' इत्यमरः । असो गिरिः एष आम्रकूटः । भुवः वसुन्धरादेव्याः' । स्तन इन पयोधर इन । अमरमिथुनालाघभोयां निर्जरद्वन्द्वैः स्तुत्याम । शोभां छविम् । 'शोभाक्रान्ति
१. भूशब्दस्यलक्षितलक्षणया वसुन्धरत्यर्थकरणेन भवदभिमतायाः भूतपूर्वभवेनु
मुक्तामाः मदीयपल्याः स्तन इवाम्रकूटगिरिरय भासते कोलेति मर्मतोदकवचनम् ।
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पाश्वभ्युदय
द्युद्धिविः' इत्यमरः । अतिमात्रं निर्भरम् । 'अतिमात्रोद्गाढ निर्भरम्' इत्यमरः । एष्यति यास्यति ।
अन्वय- मध्ये श्यामः नानापुष्पद्रुमशन लितोपत्यकः शेषविस्गरपाण्डः मानीलविष त्वयि शेखरस्य दवाने भुवः स्तनः इव सः असो गिरिः तदानीं जमरमिथुन- श्लाघनीयां शोभा अतिमात्रं एष्यति ।
अर्थ -- मध्यभाग में कृष्णवर्ण, अनेक प्रकार के पुष्प वृक्षों से चित्रित ( मिश्रित ) पर्यन्त प्रदेश बाले अवशिष्ट भूव्यास में पाण्डुवर्ण वह पर्वत चारों ओर से नीलवर्ण ( मेघाकार परिणत ) तुम्हारे शेखरपने ( माल्यावस्था ) को धारण करने पर पृथ्वी के स्तन के समान प्रतीत होता हुआ यह आम्रकूट पर्वत उस समय देव युगलों के द्वारा प्रशंसा के योग्य शोभा को अत्यधिक रूप से प्राप्त कर लेगा |
भावार्थ- पर्वत के मध्यभाग में मेघ होने के कारण उसका वह भाग काला काला दिखाई देगा। अनेक प्रकार के पुष्पों से चित्रित निचले भाग में पाण्डुवर्ण होगा। इस प्रकार उसकी शोभा देवयुगलों के द्वारा भी प्रशंसा - करने योग्य हो जायगी ।
रम्यश्रोणीविकटवशनाः प्रोथिनीर्वीर्घघोणाः, पीनोत्तु स्तनतटभरान्मन्दमन्दं प्रयान्तोः । ग्रावक्षुण्णप्रशिथिलमखा वाजिवक्रा : प्रपश्येस्तस्मिस्थित्वा वनचरवधूभुक्त कुः खे मुहूर्तम् ॥ ७३ ॥
रम्यश्रेणीति । अनचरवधूभूमतकुजे बमे चरन्तीति वनचरास्ते वधूभिः भुक्तः अनुभूतः कुब्जः लतारूयो यत्र तस्मिन् । एतेन तत्र विनोदोस्तोत्यर्थः । तस्मिन्नानफूटे | मुहूर्तं स्वलाकालम् । न तु चिरकालं स्वकार्यविरोधादिति भावः । ' मुहूर्तः स्व पकाले स्यादुद्घटिका द्वितयेऽपि च' इति शब्दार्णवे । स्थित्वा विश्रम्य । रम्यक्षोणी: रम्या मनोहरा श्रोणिः कटियसां ताः । कटिनितम्बः श्रोणिश्च जघनम्' इति धनञ्जयः । विकटवशनाः विकटा : असदृशाः दशनारदना यासां ताः । ' रदना दशना दन्ताः' इत्यमरः । प्रोविनीः प्रोथोस्त्यासामिति तथोक्तास्ताः लम्बोष्ठीः । वीर्घघोणा : दीर्घनासा: । 'घोणा नासा च नासिका' इत्यमरः । पोनो
स्तनतट
भरात् उत्तुङ्गी च तो स्तनौ च तथोक्तों पोनों स ताबुलुङ्ग स्तनौ च तथोक्ती 'पीन पौन्मी तु स्थूलपोवरे' इत्यमरः । 'उच्च रुच्चावचं तुङ्गमुच्यमुन्नतमुच्छ्रितम्' इति घनञ्जयः । तयोस्तटं प्रदेशस्तस्य भरो भारस्तस्मात् 'भरोऽतिदाय भारयोः ' इति भास्करः । मन्दमन्वं शनैः शनैः । प्रयान्तोः गच्छन्तोः
प्रावरणप्रशिथिल
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प्रथम सर्ग
१०९
H
मखा: ग्राम्णा शिलया क्षुण्णाः कविता अतएव प्रशिथिलः अदृढाः नखाः नखरा यासां ताः । वाजिवका: वाजिम इव क्क्क' यासां ताः मुरविशेषकान्ताः । प्रपश्येः प्रेमस्व ॥ ७३ ॥
अन्वय-वनश्वरयभूमुक्त जे तस्मिन् मुहूर्त स्थित्वा रम्य श्रोणी: विकटदशनाः प्रोथिनो दीर्घघोष्णाः पीनोसुङ्गस्तनतटभरात् मन्दमन्दं प्रयान्तीः ग्रावणप्रशिथिलनवा वाजिवस्त्राः प्रपश्यैः ।
अर्थ - वनचर वधुओं के द्वारा भोगे गए कुब्ज वाले उन आम्रकूट पर्वत पर क्षणमात्र ठहरकर मनोहर नितम्बों से युक्त, विशाल दांतों वाली, घोड़े की नाक के समान लम्बी नाक वाली पुष्ट और उन्नत स्तनतटों के भार से मन्द मन्द जाती हुई, पत्थर से कुचले जाने के कारण शिक्षित नत्रों वाली अश्वमुखी किन्नरियों को देखोगे ।
तस्माद ः कथमपि भवान्मुक्तकुञ्जः प्रयायात्, रम्यस्थानं स्वजति न मनो दुविधानं प्रतीहि । कालक्षेपं विसृज गरिमालम्बनं याहि सचस्तोयोत्सर्गद्र ततरगतिस्तत्परं वस् तीर्णः ॥ ७४ ॥
तस्मादिति । तस्मरवधः आम्रकूटात् । भवान् खम् । कथमपि कष्टेनापि । मुक्तकुञ्जः मुक्लः कुजो येन सः सन् प्रयायात् गच्छेत् । मनः चित्रम् | दुविधानं कर्तुमशक्यम् । लब्धुमशक्यमित्यर्थः । रम्यस्थानं मनोहर प्रदेशम् । न त्यजति न जहाति । इति प्रतीहि जानीहि । 'इण् गती' लेट् । कालक्षेमं वेलाविलम्वनम् । विसूज त्यज तोयोरतर्गत रणसिः जलमोचनेन शीघ्रगमनः सन् लघुभूत इति भावः । तत्परः आम्रकूटादुत्तरम् । वर्त्म अध्वानम् । तो: प्रस्थितः / गरिमालम्बनं गुरोर्भाव गरिमा 'पृथ्व्यावेविमन्' इति मावे इमन् । 'प्रियस्थिर' इत्यादिना गुरु पादस्य गरादेशः । गरिम्णः आलम्बनम् आश्रयो यथा तथा । तोयोत्सर्गेण लघुत्वेपि माहात्म्यमनुत्तमं नौयमित्याशयः । सद्यः सत्क्षण एवं | यह
गच्छ ॥७४॥
अन्य – मुक्तकुञ्जः भवान् तस्मात् अद्रेः कथं अपि प्रयायात् । दुविधानं मनः रम्यस्थान त्यजति ( इति ) प्रतीहि । तोयोत्सगं द्रुततर गतिः तसरं नत् तीर्णः गरिमालम्बनं कालक्षेप विसृज । सद्यः याहि ।
अर्थ - ( आम्रकूट पर्वत के ) कुखों को छोड़कर आप उस पर्वत से जिस किसी उपाय से आगे बढ़ना। जो दुःख से वश में किया जाता है ऐसा मन रमणीय स्थान को नहीं छोड़ता है, ऐसा जानो । जल की वृष्टि
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पार्वाभ्युदय
से अतिशीघ्र गति वाले होकर आम्रकूट के अनन्तरवर्ती मार्ग को पार करते हुए अपने भारीपन के कारण विलम्ब को छोड़कर शीघ्र हो जाना
गत्वोदीचीं भुव इव पृथुं हारयष्टि विभक्ता,
वन्येभानां atri
रदनहतिभिभिन्नपर्यन्तवप्राम् । वृन्देर्मधुरविरुतैरात्ततीरोपसेवां,
पर्णाम् ॥ ७५ ॥
1
गति । उदीचीं कौबेरों दिशम् । उत्तरा दिगुदीची स्यात्' इत्यमरः । गया । भुवः भूदेव्याः । विभक्तां विद्विश्विताम् ? पृथु महतीम् हारयष्टिमिव उपलविषमें उपलं: पाषाणे 'पाषाणप्रस्तरभावोपलाश्मानः ' हारलतावत् । इत्यमरः । विवमे विकडे विन्ध्यपवे विन्ध्यनाम्नोऽद्धेः पादे प्रत्यन्तपर्वत । पादाः प्रत्यन्त पर्वताः' इत्यमरः । विशीणां समन्ततो विस्तृताम् । एते न कस्याश्चित् कामुक्याः प्रियतमचरणे पातोऽपि स्वन्यते । वन्येभानां कान्तारमतङ्गजानाम् रनतिभिः दन्तावाः । भिन्नपर्यन्तवना स्फुटिस समीपकूलाम् । मधुरविचतैः श्रुतिसुभगध्वनियुतैः वीनां दक्षिणाम् । 'विपक्षिपरमात्मनोः' इत्यभिधानात् । वृन्दैः निकरैः । 'स्त्रियां तु संहत्तिवृन्दम्' इत्यमरः । आसतोरोपसेवां व्याप्ततीरप्रदेशाम् । रेवा नर्मदा नदीम् । 'रेवा तु नर्मदा सोमोद्भवा मेकलकन्यका' इत्यमरः । ब्रदयसि प्रेक्षिष्यते ॥१७५॥
I
अवय- उदीचीं गत्वा वन्येभानां रथनतिभिः भिन्नपर्यन्तवत्राम् बीनां मधुकरविरुतैः वृन्दैः आत्ततीरोपसेवां उपलविषमे विन्ध्यपादे विशीण रेवा भुवः feet पृथु हारयष्टि इव पति ।
अर्थ -- उत्तर दिशा की ओर जाकर जंगली हाथियों के दांतों के प्रहारों से फटे हुए समीपवर्ती किनारे वाली, जिसके किनारों पर मधुर ध्वनि करने वाले पक्षियों ने निवास बना लिया है, पत्थरों से ऊँच-नीच विन्ध्याचल के चरणों में फैली हुई रेवा नदी को भूदेवी की विशिष्ट रचना स्वरूप ( भूदेवी के द्वारा विशेष रूप से रचे गये ) विशाल हार के समान देखोगे |
तां तस्यापतटबर्न विप्रकीर्णप्रवाहां, तीरोपान्तस्खलनविषमोवृत्तफेनां समीनाम् । पश्य प्रीत्या गिरितटगजक्षोभ भन्नोमिमालां, भक्तिच्छेवैरिव विरचितां भूतिमङ्ग गजस्यः ॥ ७६ ॥ तामिति । तस्याः विन्ध्यस्यानलस्य उपलटननं तटवनस्य समीपम् उपतट
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प्रथम सगं
वनम् तस्मिन् । 'अदन्ताव्ययीभावत्वात्सप्तम्याः" इति अम् । तटवननिकटे हृत्यर्थः । विप्रकीर्णप्रवाहाम् अतिविस्तृतनिर्झराम् । 'प्रवाही निर्झरी झरः' इत्यमरः । समीनां मीनैर्मत्स्यैः सह वसंत इति ताम् । गिरिगजशोभभिन्नोमिमालाम् गिरेः नगस्य सदस्य गजानां च क्षोभेण सङ्घहनेन भिन्ना विदारिता ऊर्मिमाला तर पंक्तिर्यस्यास्ताम् । तां नर्मदा । गजस्व नागस्य । अङ्गं शरीरे | भक्तिच्छेः भक्तम रचना रेखा इति यावत् 'भक्तिनिषवणे भागे रचनायाम्' इति शब्दार्णवे । तासा छेदः भङ्गिभिः । विरचितां भूतिभिय श्रृंगारमिव भस्मेव वा । "भूतिमतिङ्ग
जातीसम्मति सम्पति' इति विश्वः । प्रतोषेण पश्य प्रेक्षस्य ||७६ || अन्वय--तस्य अद्रेः उपवनं विप्रकीर्णप्रवाहा तीरोनान्सस्खलनविषमोद्-वृत्तफेना, सीमाना गिरितटगजक्षोभ भिन्नोमिमाला भक्तिच्छेदः गजस्य अङ्गे विरचितां भूति इव ( लक्ष्यमाणां ) तां श्रीच्या पश्य ।
J
अर्थ - विन्ध्याचल के तट के वन के समोप अतिविशाल प्रवाह वाली, किनारे के समीपवर्ती भाग में ( पत्थर आदि की रुकावट से उत्पन्न ) स्खलन से ऊपरी भाग में प्राप्त विषम फेन वाली मछलियों से युक्त पर्वत के किनारे अथवा हाथियों ( अथवा पर्वतीय तट पर उत्पन्न हाथियों ) के क्षोभ से विरचित तरङ्गों की परम्परा वाली, रंगों से निर्मित मनोहर चित्राकृतियों के विभागों से हाथी के शरीर पर विनिर्मित शृंगार के समान उस नर्मदा नदी को प्रीतिपूर्वक देखोगे ।
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व्याख्या- मुझे आशा है कि तुम प्रोतिपूर्वक उस नर्मदा नदी को • अवश्य देखोगे, जिसका प्रवाह विन्ध्यपर्वत के किनारे अत्यन्त विशाल है, 'पत्थर आदि की रुकावट के कारण जिसके ऊपरी भागों में फेन उत्पन्न होते रहते हैं, जिसमें मछलियाँ रहती हैं, जो पर्वतीय किनारे और हाथियों ( अथवा पर्वतीय किनारे पर उत्पन्न हाथियों ) द्वारा किए गए क्षोभ से तरों को उत्पन्न करती है तथा जो अनेक प्रकार के मनोहर रंगों से ऐसी मालूम पड़ती है जैसे हाथी के शरीर पर शृंगार किया गया हो ।
दत्तं वन्येरिव कलभकैः पुष्करेणोत्क्षिपद्भिः, प्रायोग्यं ते मुनिमतचिरं वासनावासितस्थ | ग्रावक्षुण्णोच्चलितमथवा त्वं हरेवर्यवार्य, तस्यास्तिक्तैवं नगजमदैर्वासितं वान्तवृष्टिः ॥७७॥
दत्तमिति । मुनिमल भी सुनिभिः सम्मत । चिरं बहुकालिन । वासमाषासितस्य वासनया संस्कारेण साम्यतयेति यावत् । वासितस्य संस्कृतस्य । से तव । प्रयोग्य
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पाश्र्वाभ्युदय मिध प्रयोगयोग्यमिव । पुष्करेष पुष्करानेण । 'पुष्कर करिहस्ताने वाचभाले मखे जले' इत्यमरः । उत्मिपति उपरिसेचभिः । असमित्यभिज्ञायते । बम्यः बने जातः । कलभकः कलभा एवं कल भकास्त: । स्वार्थक: । हस्तियो त । 'कलभः करिशावकः' इत्यमरः । वत्त वितीणम् । अथवा न चेत् । प्रायशुण्योमचलित ग्राणिजपलेक्षुण्णम् आस्फालितं तच्च सदुच्चलितमुद्गतं च तमोक्तम् । तिक्तः सुगन्धिभिः तिक्तरसवादिभश्च 'सिक्तो रसे सुगन्धौ च' इति विश्नः । बनगममवे: धन्येभमदजलः । वासितं सुरभीकृतम् । 'भावित वासित त्रिषु' इत्यमरः । अवार्य परैरहायम् । तस्या. नमानधाः । वारि अभः । त्वं भवान् । वान्तवृष्टिः उद्गीर्णवर्षः सन् । प्राक्तनं जलं परिहरग्निस्यर्थः । अनेन प्रमो व्यज्यते । हरेः स्वीकुरु । लिङ । प्रकारान्तरेणाप्यन्वयक्रियते-मुनिमत भो यतीन्द्र । घिरं बहकालम् । चासनाबासितस्य संस्कारण संस्कृतस्य । ते तव । प्रायोग्यं प्रयोगोचितम् । पुष्करेण निजकराग्रेण । उत्क्षिपद्धिः उत्सेषभिः । वन्यः कलभकः बनकरिशावकः । बत्तमिव वित्तीर्णवत । प्रावलण्णोच्वलितं शिला स्फालितोद्गतम् । अत्र साम्य लक्ष्यते । अथवा न चत् । तिक्तः सुगन्धिभिः शिरसादय : गतः विपिनकरिमदजलैः । बासितं भावितम् । अवार्य निरूपद्रवम् । तस्याः नर्मदायाः । वारि उदकं । रखं भवान् ! वान्तवृष्टिः उद्गीर्णवर्षः सन् । हरेः गृहाण ! उभयत्रापि प्रासुकत्वं व्यज्यते ।। ७७ ॥
अन्वय-भो मुनिमत ! तिक्तः वनगजमदै धासितं पुष्करण उरिक्षभिः धन्यः लभकः दत्तं इत्र (वारि ) चिरं दासनावासितस्य ते प्रायोग्य । अथवा ग्रावक्षुण्णोचलिन अवार्य तस्याः वारिः वान्तवृष्टिः त्वं हरेः । __ अर्थ-हे मुनि के रूप में माने गए अथवा है मुनियों के द्वारा माने गए । सुगन्धित वन्य हाथियों के मदों से उत्पन्न सुगन्ध वाला (सुगन्धित) तथा सूड़ों के अग्रभाग से जल ऊपर की ओर उछालने वाले वन्य हाथियों के बच्चों द्वारा मानों दिया गया (जल) चिरकाल से वासना को दूर किए हए ( अथवा चिरकाल से जल की अभिलापा किए हए) तुम्हारे योग्य है अथवा ( वह भी ग्राह्य न हो तो) पत्थरों द्वारा विदित किए जाने से ऊपर की ओर उछलता हुआ निरुपद्रव उस नर्मदा नदी का निर्दोष जल ग्राह्य है अतः उसके जल को वर्षा किए हुए तुम ग्रहण करो।
भावार्थ-हे माने हुए मुनि ! चूंकि (मेघ के रूप में ) वर्षा करने के कारण तुम खाली हो गए होंगे। अतः जंगली हाथियों के मद से सुगन्धित और हाथियों के बच्चों द्वारा सँड़ से उछाले गए जल को उन्हीं के द्वारा दिया गया मानकर ग्रहण कर लेना। चूंकि बिना दी हुई वस्तु का लेना
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प्रथम सर्ग
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के बच्चों द्वारा दिए गए नर्मदा के इस यदि यह जल भी न लेना चाहो तो उछले हुए जल को अवश्य ही ग्रहण
आपके लिए निषिद्ध हैं अतः हाथी जल को लेने में कोई दोष नहीं है। चट्टानों से टकराने के कारण ऊपर कर लेना ।
तत्स्वादीय: सुरभि शिशिरं प्रार्थनीयं भुनीनां, निर्जन्तुत्वावुपलनिपतन्निर्झराम्भः प्रकाशम् । तस्याः क्षुण्णं वनकरिकराधट्टनैरप्यजत्रं, जम्बूकुजप्रतिहतरयं तोयमादाय गच्छेः ॥ ७८ ॥
तदिति । स्थानीयः प्रकृष्टं स्वादु । 'त्रिविष्टं मधुरं स्वादु' इत्यमरः । सुरभि सुगन्धि । शिशिरं शीतलम् । 'सुषीमः शिशिरो जयः' इत्यमरः । उपलनिपतनिराम्भः प्रकाशम् उपले दृषदि निपततीति निपतत् निर्झरस्य प्रवाहस्याम्भः जलम् उपलनिपतच्च तद् निर्भरम्भश्च तस्य प्रकाशो व्यक्तिर्यस्य तत् । वनकरिकराष्ट्टमः विपिनद्विरदकरा स्फालनः | अक्षन्नम् अनबरतम् । 'नित्यानवरताजनम्' इत्यमरः । क्षुण्णं मद्दतम् । जम्बूकुजप्रतिहतरयं जम्बूनां जम्बूवृक्षाणां कुजैः प्रतिहतः प्रतिबद्धो रथो वेगो यस्य तत् । 'रंहस्तरसी तु रयः स्यवः' इत्यमरः । सुखवेगमित्यर्थः । अनेन लघुत्वं कषाय भावना च व्यज्यते । निर्जन्तुत्वात् निर्गता जन्तवः प्राणिको यस्मात् तत् तथोक्तम् । तस्यभावो निजन्तुत्वं तस्मात् प्राकत्वात् । मुनीनां यतीनाम् । प्रार्थनीयं प्रार्थितुं योग्यम् । तस्याः नर्मदानद्याः । ततोयं नीरम् । 'अम्भोस्तोयपानीयनी रक्षोराम्बु शम्बरम्' इत्यमरः । आषाय गृहीत्वा गच्छे
याया: ।। ७८ ॥
अन्वय-वनकरिकरघट्टनैः अजस्र क्षुण्णं अपि जम्बूकुजप्रतिहतरयं उपलनिपतन्निर्क्षराम्भः प्रकाशं निजेतुत्वात् मुनीनां प्रार्थनीयं तस्याः तत् स्वादीयः सुरभिशिशिरं तोयं मादाय गच्छेः ।
अर्थ — जंगली हाथियों की सूंड़ों के प्रताड़नों से निरन्तर मर्दित, जामुन के कुखों से उपरुद्ध वेग वाले, पत्थर पर गिरते हुए झरने के जल के तुल्य, जन्तु रहित होने से मुनिजनों के द्वारा प्रार्थनीय उस नर्मदा नदी के स्वादयुक्त (मधुर), सुगन्धित, शीतल जल को लेकर जाना । हृत्वा तस्या रसमपहृताशेषमार्गश्रमस्त्वं, व्योमव्रज्यां पुनरवितप्रक्रमां संवधीथाः । प्राप्तस्थैर्यं सपदि जलवानप्यसौ यद्गरीयान् बन्तः सारं धन तुळयितुं नानिलः शश्यति स्वाम् ॥ ७९ ॥
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पाश्र्वाभ्युदय हृत्वेदि । धन हे मेध । यत् यस्मात् । असावनिल: एष पवनः गरीमान् बलवानपि बलिष्ठोपि । प्राप्तस्थय प्राप्त स्थर्य स्थिरत्वं येन तम् । अन्तःसारं अन्तःसारं बलं यस्य तम् । वा भवन्तम् । तुलयितु चलयितुम् । सपनि शीनण । 'द्वाग्मक्षु सादि द्रुते' इत्यमरः। न शक्ष्यति शक्तो न भविष्यति । 'शफ्लू शक्ती' टुट् । तस्मात् कारणात् । तस्या रेवायाः । रसं तोयम् । 'शृङ्गारादौ विषे वोयें गुणे रागे द्रवे रसः' इत्यमरः । हूत्वा स्वीकृत्य । अपहताशेषमार्गममः मार्गे जातः नमस्तयोक्तः 1 अपहृतोऽराकृतः अशेषो मार्गश्रमो येन सः। त्वं भवान् । पुनः पश्चात् । अविहत प्रक्रमाम् अविहतः अप्रतिबद्धः प्रक्रमः आरम्भो यस्यास्ताम् । 'प्रक्रमः स्यादुपक्रमः' इत्यमरः । व्योमबज्याम अबरगतिम् । 'ज्याटट्या पर्यटनम्' इत्यमरः । संरषीयाः सम्यक् धत्स्व ! अयमबनिः-आदी बमनशोधिप्तस्य नरस्य पश्चात् मानः कोय .. युनिकतावासलावला बाप्तप्रकोपोपि न स्यादिति भावः । यदाह वाग्भटः। कषायाः । स्नेहमास्तस्य विशुद्धे एसष्मणोः हिताः । किम तिक्ताः कषाया वा येन संभाः कषावहाः' इति । 'कृतास: क्रमाशितपेयादेः पथ्पभोजनः । वातादिमिनिषितः स्यादिन्द्रियरिव मोगिनः' इति ॥ ७९ ॥
अग्ययहे पन ! अपहृताशेषमार्गप्रमः स्वं तस्याः रसं हत्वा अविहत प्रकमां व्योमवजयां पुनः सन्दधीधाः, पत् जलवान् गरीयान् अपि असौ अनिल: अन्सःसारं प्राप्तस्थय त्वां सपदि तुलयितुं न शश्यति । ___ अर्थ-हे मेघ ! मार्ग की समस्त थकान को नष्ट कर तुम उस नर्मदा नदी के जल को लेकर ( पीकर ) निरन्तर शीघ्रगमन वाली आकाशगति को पुनः भली प्रकार धारण करो, क्योंकि जल से युक्त भारी ( बलवान् । भी वह वाय भीतर सार (बल) वाले ( जल युक्त) तथा स्थिरता को प्राप्त तुम्हें शीघ्र ले जाने में समर्थ नहीं होगी।
मार्गे मार्गे पुनरपि जलान्याहरेस्स्वं धुनीनां, येन स्थमा भवति भवतो वोर दूरं प्रयातः। उत्सृज्यालं लघिमघटितां रिक्ततामेधि पूर्णो, रिक्तः सर्यो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय ॥ ८०॥ मार्ग इति । बीर भो गर ! वूरं प्रकुष्टदेशम् । प्रातः प्रघातीति प्रयान् तस्य प्रयातः । भवत स्तव 1 बेन स्थेमा। 'प्रियस्थिर इत्यादिना स्थिरशब्दस्य स्थादेशः । 'पृथ्व्यादेविमन्' इति त्रिमन्त्यः । स्थिरत्वमित्यर्थः । भवति । तेन प्रकारेण । मार्गे मार्गे पपि पथि । 'चोप्सामा ति:' पुनरपि मुहः । धुनोनाम् नदी
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प्रथम सर्ग
११५ नाम् । 'तटिनि ह्रादिनीधुनी' इत्यमरः । जलानि अपः । त्वम् । भारेः स्वीकुर्याः । लघिमघटिता लघोभत्रिः लघिमा तेन घटितां रचिताम् । रिक्ततां दरिद्रत्वम् । उत्सभ्य त्यक्त्वा । अलं शवत्या । 'अलभूषणपर्याप्तिशक्तिवारणवाचकम्' इत्यमरः । पूर्ण: पुष्टः । एघि भव । 'अस भुवि' इति घातोलेंटि । 'साध्येचिजह' इति निपातनादेधिभावः । मध्यमपुरुर्षकवचनम् । रिक्तः अन्तःसारवान्यः । सर्व । लघुः अगुरुः । भवति । प्रकम्प्योः भवतीत्यर्थः । पूर्णता सारवत्ता । गौरवाय अप्रकम्प्यत्वाव भवतीत्यर्थः ।। ८ ।। __ अन्यय-बोर ! मार्गे मागें त्वं पुनः अपि शुनीनां जलानि आहरेः, लघिम'घटितां रिक्ततां अलं उत्सृज्य पूर्णः एघि, येन दरं प्रयातः भवतः स्थमा भवति । -सर्वः रिक्तः हि लघु भवति, पूर्णता गौरवाय भवति ।
अर्थ-हे वीर । प्रत्येक मार्ग में दुन पुत: ननियों के जल को ग्रहण करना, लघुता से रचित रिक्तता को पर्याप्त रूप से छोड़कर परिपूर्ण जल वाले होओ; जिससे दूर किए जाने वाले आपकी स्थिरता होगी, क्योंकि सभी रिक्त पदार्थ ( साररहित पदार्थ ) हलका ( गौरव शून्य ) होता है और पूर्णता ( सारवत्ता ) गौरव के लिए होती है ।
कार्याल्लिङ्गास्थयमधिगतात्कारणस्याऽनुमानं, रूढ़ येषां तवियमभिमा युक्तरूपेति मन्ये । स्वत्सान्निध्यं यवनुमिमते योषितः प्रोषिताना, नीपं दृष्ट्वा हरितकपिशं केसरैरपस्टः ॥ ८ ॥ कार्यादिति । यत् यस्मात् । अव एकदेशोद्भवः । सरैः किंजल्कः । मिजल्क: केसरोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः । हरिसकपिणं हरितं हरितवर्ण श्यात्रम् अरुणमिति भावः। 'पाहाणो हरितो हरित' 'श्यावः स्यात्करिशः' इति चामरः । हरितं च तत्कपिशं च हरितक्रपिशम् । 'वर्गणः' इति समासः । नीर्ष स्थलकदम्ब कुसुमम् । अथ स्थलकदम्बके । नीपः स्यात्पुलका श्रीमान्प्रावृगण्यो हरिप्रियः' इति शब्दार्णवे । दृष्ट्वा खादिन्या । प्रोषितानां योषितः नार्यः स्वत्सानिध्यं त्वत्सामीप्यम् । अनुमिमसे अनुमानयन्ति निश्चिन्वन्तीत्यर्थः । कारणस्प कारणरूपस्य साध्यस्य । अनुमा परिशानम् । रुहं प्रसिद्धम् । येषां ताकिमाणां स्वयं स्वन अधिगतात्' निश्चितात कार्यलिंगात कार्यरूपालिङ्गान् कार्य हेतोरित्यर्थ: । भवतीति शेषः । तत् तस्मात् । इयमभिमा अयमभिमानः । युक्तरूपति विशिष्टेति । मन्ये जाने।
अन्वय-यत् प्रोषितानां योषितः अधरूद: फेसरैः हरितकपि शं नीपं दृष्ट्वा
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पाश्वभ्युदय
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मत्सारंगध्ये अनुमिते तत् स्वयं अभितात् कार्यात् लिङ्गात् कारणस्य अनुमानं येषां रूढं तेषां इयं अभिमा युक्तरूपा इति मन्ये
अर्थ - चूँकि देशान्तर में गए हुए लोगों की स्त्रियाँ अर्धविकसित किब्जल्कों से हरे और कृष्णलोहित वर्ण से युक्त स्थलकदम्बपुष्प को देखकर तुम्हारी समीपता का अनुमान करती हैं, अतः स्वयं ( दूसरे हेतु के आश्रय के बिना अर्थात् प्रत्यक्ष हेतु से साध्य के अविनाभाव का स्वयं निश्चय करके ) प्रत्यक्ष से निश्चित कार्य रूप हेतु से कारण का ( कार्य को उत्पत्ति के हेतु का) अनुमान होता है, इस प्रकार का मत जिनके यहाँ प्रसिद्ध है, न्यायशास्त्रविदों का यह अभिप्राय अत्यधिक युक्त है, ऐसा मैं मानता हूँ ।
मध्येविन्ध्यं वनभूतमिया यत्र दृष्ट्वा शिलोन्द्रानध्यारूढानऽनुवनममी पर्वतीया मनुष्याः । स्वामायातं कलयितुमलं स्वत्पयो बिन्दु पातेराविभूतप्रथममुकुलाः कन्वलोश्चानुकच्छम् ॥ ८२ ॥ मध्येविन्ध्यमिति । यत्र पर्वले । अमी एते । पर्वतीयाः पर्वते भवास्तथोक्ताः 'पर्वतादन्तरः' इति वत्यः । मनुष्याः मानुषाः 'मनोर्याण्यक् स' इति पगागमयुक्तो यस्ययः । पयोवन्दुपतेः तव सोयबिन्दूनां पतनैः । अवनम् वतंत्रमनु तथोक्तम् । 'भागिनीय प्रतिपर्यनुभिः' इति वीप्सायां द्वितीया । अध्यारुवान् उत्पन्नान् शिलीखान् अङ्कुर विशेषान् । 'कन्दल्या मूच्छिलन्द्रस्यात्' इति शब्दार्णवे । अनुकच्छम् कष्वनूपेष्वनु अनुकरणम् । 'दीर्घेनुः' इत्यब्दवी भावः । 'जल प्रायमनूप रूपात्पुसि कच्छस्तथाविधः' इत्यमर: । आविभूतप्रथममुकुलाः आविर्भूताः प्रादुभूताः प्रथमः प्रथमोत्पन्नाः मुकुला यासां ताः । कुड्मलो मुकुलोस्त्रियाम्' इत्यमरः । कम्बली भूकन्दलीरपि । 'द्रोणपर्णीस्निग्धकन्धी कन्दली भूकवत्यपि' इति शब्दार्णवे । सुरक्षा प्रेक्ष्य आयातमागतम् । स्वां कलयितु निश्चेतुम् । कल इति धातुः कवीनां कामधेनुरिति वचनात् प्रकृतार्थप्रदः । अ समर्था भवन्ति । सत्र मध्येविन्ध्यं विन्ध्यस्यमध्यं तथोक्तम् । 'पारं मध्येन्तः षष्ट्याः" इत्यव्ययीभावे निपातः । वनभुवं वनभूमिम् । इयः यायाः ॥८२॥
अन्वय-यत्र अनुबनं अध्यारुहान् शिलीन्दान् अनुच्छं च त्वत्पयो बिन्दुपतैः आविभूतप्रथममुकुलाः कन्दली दृष्ट्वा अभी पर्वतीयाः मनुष्याः त्वा आयात कलयितुं अलं (सां) मध्येविन्ध्यं वनभुवं इमाः ।
१. शिलीन्घ्रान् ।
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प्रथम सर्ग
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अर्थ-जिस विन्ध्याचल पर्वत पर वन में उत्पन्न शिलीन्न पुष्पों को और जलप्राय प्रदेश में तुम्हारे जल विन्दु गिरने से जिनमें कलियों पहले पहले प्रकट हुई हैं ऐसी भूकदली को देखकर वे पर्वतीय मनुष्य तुम्हारे आगमन का अनुमान करने में समर्थ होते हैं ( तुम्हें ) उस बिन्ध्यपर्वत के मध्य में स्थित वनभूमि को जाना चाहिए।
स्थामासन्नं सपदि पथिका ज्ञातुमर्हन्त्यकाले, श्रुत्वा केकाध्वनिमनुवनं के किनामुन्मदानाम् । बर्हक्षेपं नटितमपि च प्रेक्ष्य तेषां सलोलं, दग्धारण्येष्वधिकसुरभि गम्धमानाय चोाः ॥८॥ ल्वामिति ।। अनुवनम् अनुवनान्यनुवनम् अनुवनेषु । उम्मधाम सन्तुष्टानाम् । केफिनां मयूराणाम् । कानि केका इति ध्वनिस्तं केकारवम् । 'केका बागी मयूरस्य इत्यमरः । अश्वा तेष मयूराणाम् । सलील लीलया सह प्रति हति तथोक्तं तत् । होपं वहाणांक्षेपः प्रसारणं यस्मिन् सत् । नटितमपि नर्तनमपि । प्रेक्य च दृष्ट्वा । ग्यारण्येषु बग्धानि च तान्यरण्यानि च तेषु । उा: 'दु : अभिकरगिः अधिक प्रमाण | परिजरन् । आनाथ व गृहीत्वा च । एथिकाः पान्थाः । 'पान्यः पथिक' इत्यमरः । अकाले अनवसरे । आसन्न समीपगतम् । त्वां भवन्तम् । सपदि मङ्क्षु । ज्ञातुम् अहन्ति योग्या भवन्ति जानपतीत्यर्थ: ।। ८३ ।।। ___ अन्वय-अनुवनं उन्मदाना केकिनो केकाध्वनि श्रुत्वा अपि च तेषां सलीस बहोप नटितं प्रेक्ष्य दाधारण्येषु च उाः अधिक सुरभि गन्ध आवाय त्वां अकाले आसन्नं सपदि ज्ञातु पथिकाः अहन्ति । ___ अर्ष–वनों में उन्मत्त मयूरों की वाणी सुनकर तथा उनके लीलापूर्वक पिच्छों के फैलाने से युक्त नृत्य को देखकर और दग्ध जंगलों में पृथ्वी को अधिक सुगन्धिन गन्ध को सूचकर असमय में ही आए हुए तुम्हें (मेघ को) पथिक शीघ्र ही जानने के योग्य होंगे।
पुष्पामोदेरविरलममी सम्पतन्तो बनान्ते, बद्धौत्सुक्यात्सरसविवलत्कन्दलैश्चानुकुज्जम् । दग्धारण्यस्थलपरिमलैश्चानुकृष्टा यथास्वं, सारङ्गास्ते जललषभुवः सूचयिष्यन्ति मार्गम् ।।८४॥ पुष्पामोदैरिति । पुस्पामोदेः पुरुषाणामामोदैः परिमलैः । 'आमोदः सोक्तिनिहारी' इत्यमरः । सरसबिवलस्कन्दलेइच सरसः विवादः कन्दलंरङ्करविशेषः ।
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पाश्वभ्युदय
'कन्दली वृक्ष मदयोः कन्दस्तु नवाङ्कुरे' इति नानार्थमालायाम् । कषारण्यस्थलपरिमले वग्धकानन प्रदेशगन्धैश्च । यथास्वं यथास्वरूपम् । अनुकृष्टाः आकृष्टाः । ब्वौत्सुक्यात् संबद्धलाम्पद्यात् । वनाले वनमध्ये । 'अन्तोऽस्त्रीनिश्चये नारी स्वरूपेऽग्रे ऽन्तिकेन्तरे" इति भास्करः । अनूकुजं कुञ्जाननु अनुकुञ्जम् तेषु 'देर्ष्यानु:' इति समासः । 'सप्तम्याः' इति वाम् अविरलं निबिडम् । पेलवं त्रिरलं तनु' इत्यमरः । सम्पतन्तः गच्छन्तः । अनी सारङ्गाः मातङ्गा कुरङ्गाः वा 'सारङ्गश्चातके भृङ्ग कुरङ्ग े च मतङ्गजे' इति विश्वः । जललवमूचः जलस्य लवान् कणान् मुञ्चतीति जललवमुक्तस्य । ते तव । मार्ग पदवीम् । सूचयिष्यन्ति द्योतयिष्यन्ति । यत्र यत्र वृष्टिकार्य भीमकुसुमादिकं सत्र तत्र वृष्टिरिति विष्टिविभिसुमीयत इति तात्पर्यम् ॥ ८४ ॥
अन्वय-वोत्सुक्यात् पुष्पामोदः ( अनुकृष्टाः ) वनान्तं अविरले सम्पतन्तः अमी सारङ्गाः अढोत्सुक्यात सरसविदलत्कन्दले (अनुकृष्टा ) अनुकुब्जं ( अविरलं सम्पतन्तः अमी सारङ्गाः ) बढोत्सुक्यात् दग्धारण्यस्थलपरिमल ( अनुकृष्टाः दग्घ (रण्यस्थलेषु अविरले सम्पतन्तः अमी सारङ्गाः ) जललवमुषं तं मार्ग यथास्व. सूचयिष्यन्ति ।
:
अर्थ - औत्सुक्य उत्पन्न होने के कारण फूलों की गन्ध मे आकृष्ट बन के मध्य प्रदेश में निरन्तर उड़कर जाते हुए ये भ्रमर, सरस ( तथा ) प्रादुर्भूत हुए नए अंकुरों से आकृष्ट ये मृग, दावानल से जले हुए बन के स्थलों की सुगन्धि से आकृष्ट होकर जले हुए अरण्यस्थलों में निरन्तर 'उड़कर जाते हुए ये पपीहे जलकणों की वर्षा करने वाले तुम्हारे मार्ग को यथोचित रूप से सूचित करेंगे ।
गम्भीरत्वं यदिदमधुना लक्ष्यते ध्यानहेतोः, संक्षोभाणां विरचनशतैरप्यदृश्यं मदीयः । तद्दृष्ट्वाऽहं तव धनतया मान्यमेवातिषैर्यायुत्पश्यामि द्रुतमपि सखे मत्प्रियार्थं यियासोः ॥८५॥
गम्भोरत्वमिति । सब्बे भो मित्र । अधुना इदानीम् । मजीर्घः मया कृतैः ॥ पानहेतोः योगनिमित्तस्य । संक्षोभागाम् संचलनानाम् । विरचभशतं विरंचनान करणानां शतैरपि अनेकैरपि । मदृश्यम् अयोचरम् । यदिवं गम्भीरएवं गाम्भीर्यम् । लक्ष्यते दृश्यते । तत् गम्भीरत्वम् । दृष्ट्वा । मत्प्रियार्थं मद्वनितनिमित्तम् । व्रतं शीघ्रम् मियासोप यातुमिच्छोरपि । सव ते । यतिधीरात् बहुधीरत्वात् । घनतपा
१. अषृष्यं ।
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प्रथम सर्ग
जड़तया । 'चनो मेधे मूत्तिगुणे त्रिषु मूते निरन्तर' इत्यमरः । मान्यमेव मन्दत्यमेव । अहम् उत्पश्यामि अहं तक्रयामि १८५।।
अन्वय-सखे ! ध्यान हेतोः यत् इद गम्भीरत्वं अधुना लाया त जोया संक्षोभाणां विरश्चनशतः अधि अधृष्यं दृष्ट्वा मत्प्रियार्थ घनतया अतिधैर्यात् द्रुतं अपि यियासोः तव मान्द्यं एव अहं उत्पश्यामि । ___ अर्थ-हे मित्र ध्यान के लिए जो यह गम्भीरता इस समय लक्षित हो रही है, वह मेरे विचलित करने के सैकड़ों प्रयोजन के द्वारा भी तिरस्कार न होने योग्य देखकर मेरी प्रेयसी के लिए मेघरूप धारण करने से अत्यन्त धैर्यपूर्वक शीघ्र जाने के इच्छुक होने पर भी आपकी जडता ( मन्दता ) हो है, ऐसी मैं मम्भावना करता हूँ।
भावार्थ-हे मित्र ! आपको विचलित करने के सैकड़ों प्रयोजन हैं, इनका तिरस्कार नहीं किया जा मकता है। यह जानकर मेरी प्रेयसी के पास मेघरूप धारण कर अत्यन्त धैर्यपूर्वक शीघ्र जाने के इच्छुक भी आप देरी कर रहे हैं, यह आपकी ध्यान की गम्भीरता से पता चल रहा है।
भूयश्चाहं नवजलधराधौतसानुप्रदेशे, नृत्यत्केकिध्वनिमुखरिते स्वागतं तन्वतोव' । पाचं चोच्चैर्वहति शिरसा निर्झराम्भोऽभिशङ्के, कालक्षेपं ककुभसुरभी पईते पर्वते ते ॥८६॥
भूय इति । भूयश्च पुनरपि । नवजलपराधोतसानप्रदेशो नवधारिवाहेणाधीत: सानोर्वप्रस्य प्रदेशो यस्य तस्मिन् । नत्यत्वेकिध्वनिमुखरिते नृत्यन्मयूरारवेण मुखरिते वाघाटिते । निराम्भ: प्रवाहोदकम् । पाई च पादोदकम् । 'पाधं पादाय वारिणि' इत्यमरः । शिरसा मस्तकेन । उमः परम् । वहति बहतीति वहन तस्मिन् । ककुभसुरभी अणुनवृक्षपरिमले । 'रुददुः ककुभोऽर्जुनः' इत्यमरः । स्वागतम् अभ्यागत प्रतिपत्तिम् । सन्मति तनांतीति सन्वन् तस्मिन् । इव यथा तथा । पर्वते पर्वते गिरौ गिरी । ते तत्र । कालोपं कालविलम्बनम् । अहम् अभिशक आशङ्कां करोमि ।। ८६ ॥
अन्य- भूयः च नवजलधराधौत सानुप्रदेशे नृत्यत्केकि ध्वनिमुखरिते स्वागतं तन्वति इव शिरसा च पाद्यं निझसम्भः उचन: वहति ककुभसुरभी पर्वते पर्वते ते कालक्षपं अभिवाछु।
१. उत्प्रेक्षा।
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काभ्युदय
अर्थ -- पुनश्च नवीन मेघ के द्वारा जिसके शिखर का भूभाग धोया गया है, नाचते हुए मोरों की ध्वनि से वाचालित मानों स्वागत करते हुए, पैर धोने के लिए झरने के जल को शिर पर धारण किए हुए, अर्जुन के फूलों से सुगन्धित ऐसे प्रत्येक पर्वत पर आप समय बितायेंगे, इस प्रकार की मैं शंका करता हूँ ।
भावार्थ - हे मेव ! जब नए-नए जलधरों के द्वारा पर्वतों के शिखर धोए जायेंगे तब तुम्हारे पहुँचने पर प्रत्येक पर्वत पर आपका स्वागत होगा । पर्वत मोरों की ध्वनि से स्वागत करेंगे। पैर धोने के लिए झरने के जल को मानों सिर पर धारण कर पर्वत तुम्हारा स्वागत करेंगे। इस प्रकार अर्जुन के फूलों से सुगन्धित प्रत्येक पर्वत पर आप कुछ न कुछ देर अवश्य करेंगे, ऐसी मैं सम्भावना करता हूँ ।
निःसङ्गोऽपि व्रजितुमनलं तत्र तत्र क्षिति, लब्धातिथ्यः प्रिय इव भवानुद्यमानः शिरोभिः | अभ्युद्यातैस्त्वदुपगमनादुन्मनीभूय भूयः,
शुक्लापाङ्ग सजल नयनैः स्वागतीकृत्य केकाः ॥ ८७ ॥
निःसङ्ग इति । भूयः पुनरपि । स्वदुपगमनात् तब समोपगतात्। अभ्युद्यातेः प्रत्यागतैः । सजलनयनैः वाorter सहित लोचनः शुक्लापाङ्गः शुक्लोऽपाङ्ग कटाक्षो येषां तैः मयूरेः । केकाः तद्वनीन स्वागतीकृत्य सुक्षेमागमन प्रदन कृत्वा । उन्मतींभूय उत्क्रीभूय । 'स्यादुरक उन्मनाः' इत्यमरः । शिरोभिः मस्लकैः । उद्यमानः उद्यत इति उह्यमानः अहेरानश् । त्रियमाणः । भवान् त्वम् - सङ्गरेऽपि निर्धारिग्रहोऽपि । प्रिय इव सुहृदिव । तत्र तत्र क्षिसिधे क्षितिं प्रतीति क्षितिस्तस्मिन् पर्वते । 'महीघ्रः शिखरिक्ष्माभृत्' इत्यमरः । लम्बातिय्यः प्रातिथ्यर्थमातिथ्यं लब्धमातिथ्यं येन सः 'थ्यो तियेः' इति ध्यः । प्राप्तातिथिकार्यः सन् । 'अतिथिर्ना गृहागते' 'क्रमादातिथ्यातिथेये अतिथ्यर्थेऽत्र साधुनि ' इत्यमरः । श्रजितु ं गन्तुम् । अनलम् असमर्थः । श्योपचारत्वात् तत्र तत्र कालक्षेपो भविष्यतीति सात्पर्यम् ॥ ८७ ॥
अन्वय-- भूयः तत्र तत्र क्षिति लधातिष्यः त्वदुपगमात् उन्मनोभूम केकाः स्वागतीकृत्य अभ्युद्यातैः सजलनयनः शुक्लापाज प्रियः इव शिरोभिः उद्यमानः भवान् निःसङ्ग सन् वजितु अनलम् ।
अर्थ - पुनः प्रत्येक पर्वत पर आतिथ्य प्राप्त कर तुम्हारे समीप में आने से उत्कण्ठित होकर जिनकी आँखों से अश्रु निकल रहे हैं ऐसे मोरों द्वारा
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प्रथम सर्ग
१२१ प्रियमित्र के समान मस्तक पर धारण किए हुए आप ( बाह्य और आभ्य. न्तर परिग्रह का त्याग करने के कारण ) निरासक्त होने पर भी आगे बढ़ने में समर्थ नहीं होंगे।
तस्योत्कण्ठाविरुतिमुखरस्योत्पतिष्णोः कथञ्चित्, प्रत्यासन्नत्वयुपगमनस्यान्सरा स्वभावे । स्नेहव्यक्ति स्वयि घनयत: केफिवृन्दस्य मन्ये, प्रत्युचातः कथमपि भवानास्तुमाशु व्यस्येत् ॥ ८८॥
तस्येति । अन्तराई स्वभावे अन्तर्भावस्वभावे । अन्तमादस्वभावे इति वा स्वयि भवति । स्नेहयषित प्रेमव्यक्तिम् । घायसः घन करोतीति बनयन सस्य एडयसः । सामावं बद्धपत इत्यर्थः । उरकण्ठाविरुतिमुखारस्प दुःखारवेण वाघाटस्म । जत्पतिष्मो- उत्ततितु मिश्छुः उत्पत्तिष्णुः उत्सतनशीलस्य । कथंचित् केनचित्प्रकारेण । प्रत्यासम्मस्वरूपगमनस्य तव उपगमनं तथोक्तम् । प्रत्यासन्न समीप त्वदुपगमन यस्य तस्य । फेकिवस्य मनिकायस्य । प्रत्युद्यातः प्रत्यागतः । भवान् खम् । कयमपि नेनापि प्रयुक्तेन । आना शीघ्रण । 'अषिलम्बितमाशु प' इत्यमरः । गन्तुगमनाम । व्यवस्थेत निश्चिनुपात । भवछन्दप्रयोगात् प्रथमपुरुष इति । मये जाने ।
अन्वय-उत्कण्ठाविरुतिमुखरस्य कश्चित् उत्पतिष्णोः प्रत्यासन्न त्वक्षगमनस्य तस्म केकिधुन्दस्य आस्वभावे त्वधि स्नेहयमित चनयत: प्रत्युद्यात: • ( सतः ) अपि भवान् आशु गन्तु व्यवस्पेत् ( इति ) कथं मन्ये ।
मर्थ-- उत्सुकता से उत्पन्न ध्वनि से वाचालित जिस किसी प्रकार ऊपर उड़ने का इच्छुक मोरों का समूह तुम्हारे समीप में पहुंचने पर मृदुस्वभाव वाले तुम्हारे प्रति प्रेम के आविर्भाव को घना करता हुआ स्वागत के लिए जब तुम्हारे समीप में आयगा, उस समय भी आप शीघ्र ही जाने का निश्चय करेंगे, यह में कैसे मान लूँ ? __व्याख्या-हे मेघ ! जब तुम समीप में पहुँचोगे तो मोरों का समूह ध्वनि करता हुआ कोमल स्वभाव वाले तुम्हारे प्रति प्रेम को गाढ़ करता हुआ स्वागत के लिए आयगा । उसका अनादर करके तुम शीघ्र ही जाने का निश्चय करोगे, यह मैं नहीं मान सकता हूँ।
विध्योपान्तासब गतवतो नाऽतिदूरे दशार्णाः, रम्यारामा नयनविषये संपतिष्यन्ति सद्यः ।
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१२२
पार्वाभ्युदय स्वत्सान्निध्यात्कलुषितपयः पूर्णशालेय वप्राः,
पाण्डुल्छायोपवनवृत्तयः केतकै; सूचिभिन्नैः ॥ ८९ ॥ विन्ध्योपान्तादिति । विस्योपान्तात् विन्ध्याचलसमीपात् । गतवतः यातयतः । तक भवन्तः । सूविभिन्नः सूच्या भियन्ले स्म सूचिभिन्नानि तैः निविचभूतरित्यर्थः । केतक केतककुसुमैः । पाछायोपवनवृतयः उपवनानां तयस्तयोक्ताः 'प्रान्तती वृतिः' इत्यमरः । पाण्वीछाया कान्तिः यासा सास्तथोक्ताः पाण्डुच्छाया उपवनवृतयो येषां तें तथोक्ताः । त्वत्साग्निधात् तव मेघस्म सामीप्यात् । कलुषितपयः पूर्णशालेय अभा: कलुषितपयसा पता विनोदकेन पूर्णाः शालोनामुद्भबोचिताः शालेयाः 'श्रीहि झालेर्दण' ते च ते बनाः बाराश्च तथोक्तास्ते येषां ते कलुषितपयः पूर्णशालेयवप्राः । 'फलषोऽनच्छ आविलः' 'क्षेत्र पहेयशालेय प्रोहियाल्यु
भयोचितम् ।' पुनपुसक्योवनः क्षत्रं केदार इत्यपि' इत्यमरः । रम्पारामाः रम्या आरामा उपवनानि येषां ते तथोक्ताः । 'आरामः स्यादुपवनम्' इत्यमरः । बशोर्णा: दशाणख्यिा देशाः । नातिवूरे समीपे। अलुक्समासः । नयनविषये नेरगोचरे । सच: तदेव । संपतिष्यन्ति संप्राप्स्यन्ति ।। ८९ ।। ____ अन्वय-सूधिभिन्नः केतक: पाण्डुमछायोपवनवृतयः त्वत्सान्निध्यात् कलुषितपयः पूर्णशालेयत्रप्रा: रम्यारामाः दशार्णाः विध्योपान्तात् अप्तिदुरै न गतवतः तव नयनविषये सद्यः सम्पतिष्यन्ति ।
अर्थ-अग्रभाग में विकसित केतको के फूलों के द्वारा पोले प्राचीरों से युक्त उपवन बाले तुम्हारी निकटता के कारण कलुषित जल से भरे हुए शालिधान्य के उत्पत्ति क्षेत्र तथा रमगीय उद्यानों वाले दशार्ण नामक जनपद विन्ध्याचल के समीपवर्ती प्रदेश से अत्यन्त दूर न गए हुए तुम्हारे नयन विषय को शीघ्र ही प्राप्त होंगें (तुम्हें दृष्टिगोचर होंगे )।
तेषामाविष्कृतजललवे त्वय्युपासन्नवृतौ, सीमोद्देशा नयनसुभगाः सामिसंस्कृतस्याः । सज्जायेरनवपरिकरा मूकपुंस्कोफिलापत्र, नीडारम्भंगुहबलिभुजामाकुलपामत्याः ॥१०॥ तेषामिति । तेषां दशार्णानाम् । माविकृतजललवे प्रकटीकृतजलकणयुषते ।। त्वयि भवति । उपासन्नवृत्ती उपासन्ना वृत्तिर्यस्य तस्मिन् अत्यासन्नवृत्त यति । सोमोशाः सीम्नां प्रदेशाः । 'सामान्त उपशल्यं स्यास्सीमसीमे स्त्रियामुभे' इत्यमरः । नयनसुभगाः नेत्र गोधराः । सामिसंहासस्याः ईषत्समुत्पन्नसस्याङ्कराः । मूकस्कोकिलाः पुमांश्यते कोकिलाश्च तथोक्ताः । 'अवाचि मूकः' इत्यमरः ।
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प्रथम सर्ग
१२३ मूकाः पुस्कोकिलाः येषां ते तथोक्ताः । वर्षाकाले कोकिलाना मुकभावत्वादिस्यर्थः । गृहलिभुजां गृहकाकानाम् 'मलिभग्वायसा अपि' इत्यमरः । नोडारम्भः कुलायप्रारम्भैः 'कुलायो नोडमस्त्रियाम्' इत्यमरः । आकुलप्रामस्याः आकुलाः आकीर्णाः ग्रामाणां त्याः रथ्यावृक्षाः येषु ते तथोक्ताः 'चैत्यमायतने जनबिचे चोद्देशपादपे' इति विश्वः । नवपरिकराः नवः परिकरः प्रोक्तरूपः परिवारो येषो ते तथोक्ताः । नवीनो नूतनो नवः । परिकरः । 'पयंजपरिवारयोः' इत्युभयत्राप्यमरः । संजायेरन् सम्भवेयुः ।। ९० ॥
अन्धय- सन्गवृत्ती वय आयितजसपा सोनोई, समिसंरूहसस्याः मूकपृस्कोकिला: गृहबलिभुजां नीडारम्भः माकुलयामचंत्याः छ नयनसुभगाः नवपरिकराः मजायेग्न् । ___ अर्थ-तुम्हारे दशार्ण प्रदेश के निकट पहुँचने पर तथा जलकणों की वर्षा करने पर दशार्ण देश के सीमान्तप्रदेश किञ्चित् उत्पन्न धान्याङ्करों से युक्त, मूक कोयलों वाले, काक आदि ग्राम पक्षियों के घोसलों की रचना से सङ्कीर्ण वृक्ष वाले नेत्रों को आकर्षित करने वाले और नए परिवार वाले हो जायेंगे।
भूयस्तेषामुपवनभुवस्तुशाखाग्रघृष्टव्योमोत्ससैनिजतरुवरैरात्तशोभाः फलादयाः । सम्पद्येरन्विविधविहगराकुला नोडकृभिः, त्वय्यासन्ने परिणतफलश्यामजम्बूवान्ताः ॥ ११ ॥ भूय इति । भूयः पुनः । तेषां दशार्णदेशानाम् । त्वपि भवति । मासाने समोप गते सति 'समीपेमिकटासन्न' इत्यमरः । टुङ्गशाखाग्रघृष्टप्पोमोत्सङ्ग उन्नत शाखा : घृष्टः व्योमोत्सङ्गो गगनतलं येषां तः । निमसरवर, स्वकीयवृक्षोसमः । 'देवाबृत्त वरः श्रेष्ठे विषु क्लीवे मनाक प्रिये' इत्यमरः । शासशोभाः प्राप्तद्युतयः । फलाढ्याः फलभरिताः । उपवनभुवः आगमभूमयः । आरामः स्यादुपवनम्' इत्यमरः । मोजकृभिः नोखं कुर्वन्तीति नीस्कृतस्तैः । विविधषिहमैः नानापक्षिभिः । 'खगे विहङ्गविहगविहङ्गमविहायसः' इत्यमरः । आकुलाः सङ्कीर्णाः। परिगतफलश्यामजम्भूबनान्सा: परिणतः परिपक्वः फलंः श्यामानि पानि जम्बूवनानि तैरन्तारम्याः । 'मृतावसिते रम्ये समाप्तावन्ते' इति शब्दार्णवे ।। सम्पधेरन् भवेयुः ।। ९१ |
अन्वय-भूयः त्वयि आसन्ने परिणतफलश्यामजम्बूबनान्ताः, तुङ्गशाम्बान घृष्टव्योमोत्सङ्ग निजतरुवरः आत्तशोभाः, फलाढ्याः तेषां उपवनभुवः नौजकृभिः विविषविहगः आकुलाः सम्पोरन् ।
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पार्श्वाभ्युदय
अर्थ - पुनः तुम्हारे समीप में पहुँचने पर पके हुए फलों के कारण श्यामवर्ण वाले जामुनों के वृक्षों से रमणीय, ऊँची शाखाओं के अग्रभाग से आकाश के तल प्रदेश को छूने वाले अपने श्रेष्ठ वृक्षों से प्राप्त शोभा वाली दशार्ण देश की उद्यानभूमियाँ घोंसला बनाने वाले अनेक प्रकार के -पक्षियों से व्याप्त हो जायँगी ।
इत्यभ्यर्णे भवति विलसद्वामहासे मुक्तासारप्रकटितरवे के किनामुत्मदानाम् । नृत्यारम्भं घटयति मुहुर्नू नभूतपङ्काः, सम्पत्स्यन्ते कतिपय दिनस्थाहिंसा दशार्णाः ॥१२॥
इतीति । विलसद्विषुद्दामहासे विलसद्विद्युदेव उद्दाम उत्कटो हासो यस्य तस्मिन् । मुक्तासारप्रकटितर मुक्तः पातितः आसारो घारावृष्टिः तेन प्रकटितो वो ध्वनियंस्म तस्मिन् । 'आसारो वेगवतुर्षम् ।' 'ध्वनिष्यान रखस्वनाः' इत्यप्यमरः । उन्मवानां सन्तुष्टाना । केकिनां मयूराणां । मुश्यारम्भम् नर्तनव्यापारम् । 'स्यादभ्यादानमुद्धात आरम्भ:' इत्यमरः । मुहः असकृत् । घटयति घटयतीति घटयन् तस्मिन् सम्बन्धं कुर्वति । भवति त्वयि । इति एवं प्रकारेण ॥ अभ्यणं समीपगते । दशार्णाः देशाः । उष्भूतः उत्तम्नकर्दमाः । पङ्कोऽस्त्री शादकर्दमी' इत्यमरः । कतिपय विनस्थाहिंसाः कतिपयेष्विव दिनेषु स्थायिनो वर्तनशीलाः हंसाः येषां ते तथोक्ताः । 'पोटायुवतिस्तोककतिपय' इत्यादिना कतिपयशब्दस्योत्तरत्वेपि विनशब्दस्योत्तरत्वमत्र शास्त्रस्य प्रायिकत्वात् । नूनं सत्यम् । सम्परस्यन्ते भविष्यन्ति ।। ९२ ।
१२४
अन्य – इति विलसद्विद्युदुद्दामहासे मुक्तासारप्रकटितरवे उन्मदानां के किना नृत्यारम्भं मुहुः घटयति भवति अभ्यर्णे ( सति ) उद्भूतपङ्काः दशार्णाः नूनं कतिपयदिनस्याहिंसा सम्पत्स्यन्ते ।
T
अर्थ - इस प्रकार शोभायमान बिजली ही जिसका हास्य है, वेगवती वर्षा को छोड़ने के कारण जिसके द्वारा ध्वनि प्रकट की जा रही है तथा जिसने सन्तुष्ट मयूरों के नृत्यकार्य को बार बार सम्पन्न कराया है, ऐसे आपके ( मेघ के ) समीपवर्ती होने पर कीचड़ युक्त दशार्ण देश में हंस निश्चय ही ( वर्षा के प्रारम्भ को देखकर ) कुछ ही दिनों तक ठहरेंगे । गत्वा पश्येः पवनविचलत्केतु' हस्तैरभोक्षणं, दूरादुर्भवन शिखरे राष्ट्र्र्यन्तीमिव स्वाम् ।
१. के तुहस्तैरित्यत्र रूपर्क । २. उत्प्रेक्षालंकारः आह्वयतीमिवेत्यत्र, श्रियमिवेत्यत्रापि च ।
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प्रथम सर्ग
१२५.
सालोक्य़ां श्रियमिव भुवों रूपिणी नाभिभूतां, तेषां विक्षु प्रथितविविशालक्षणां राजधानीम् ।।९३॥ गत्वेति । पवाविसलत्केतुहस्तः वायुना विचलकेतव एव हस्ता येषां तः । 'ग्रहभेदे ध्वजेकेतुः' इत्यमरः । उच्चभंचनशिखरैः उन्नतागारशृङ्गः। अभीषणम् अनवरतम् । दूरात् दविष्ठदेशतः । त्वां भवन्तम् । आपरतीमिव आकारयन्तीमित्र । हे अ स्पर्धायाम्।' 'वाचि धातोः' शतृत्यः । 'नुदुग्' इति डी । मसात् इति नम् । सालोषना प्राकारोलतां । 'प्राकारो बरणः सालः' इत्यमरः । रुपिणी रूपमस्यास्तीति रूपिणी तां । मत्वर्थ छन् । 'ग्' इति हो। भुवः भूमेः । रूपिणी मूर्ती । श्रियमित्र सम्पत्तिमिव । 'सम्पत्तिः श्रीश्च लक्ष्मीच' इत्यमरः । तेषां दशाणानाम् । नाभिभूतां नाभिभवति स्येति तथोक्ता ताम मध्यगतामित्यर्थः । विनु आशासु । प्रथितषिविशालक्षण प्रथितं प्रसिद्ध विदिशाला मामधंय यस्यास्ताम | 'लक्षणं नाम्नि पिल्ले च' इति विश्वः । राजधानी धीयते स्म पानी राज्ञां धानी तथोक्ता । करणाघारे चानट् । 'टिट्ठ' इति डी । कुद्योगाचच षष्ठी। तां प्रधाननगरीम् । 'प्रधान नगरी रामा राजधानीति कथ्यते' इति शब्दार्णथे । गत्वा प्राप्य । पश्येः अवलोक्यः ।।९३॥
अन्वय-पवनविचलकेतुहस्तः भवन शिखरः त्वां दूरात अभीड़ा उच्च: आह्वयन्ती इव, भुवः रूपिणी इव सालोदना श्रियं, नाभिभूतां दिक्षु प्रथितदिविशा लक्षणां तेषां ( दशार्णानां ) राजधानी गत्वा पश्यैः ।
अर्थ---(जो) वायु के द्वारा हिलाए हुए ध्वजा रूप हाथों से युक्त भवन के शिखरों द्वारा तुम्हें दूर से निरन्तर मानों ऊँचे स्वर से बुला रही है, जो पृथ्वी की प्रशस्त आकृति के समान प्राकार से उन्नति को प्राप्त शोभा अथवा लक्ष्मी है, शरीर स्थनाभिकमल के समान दशार्ण देश के मध्य में स्थित सभी दिशाओं में विदिशा नाम से प्रसिद्ध ( उस ) दशारें की राजधानी में जाकर उसे देखना।
सौथोत्सझे क्षणमुपनिषत्तृष्ण तूष्णीं निषण्णो, जालोदगीणैः सुरभिततनु पधमैमनोज्ञैः। वारस्त्रीणां निधुवनरति प्रेक्षमाणस्त्वमेना,
गत्वा सद्यः फलमपि महस्कामुकत्वस्य लब्धा ।। ९४ ॥ १. राजधानी शब्दस्य काकाक्षि गोलकन्यायेन गस्वेति स्वाप्रत्यये 'पश्यः' इत्यत्र .
चक्रमरवेनालयः ।
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पाश्वभ्युदय
सौध इति । उपनिषत्तृष्ण उपनिषन्ती तृष्णा यस्यासौ तस्य सम्बोधनम् है सम्भव मनोरथ | कोतुकार्थालोफनाभिलाषिन्नित्यर्थः । त्वं भवान् । एनां विदिशापुरीम् । गषा प्राप्य सोधोत्सङ्गे राजभवनप्रदेशे 'सोधोऽस्त्री राजसदनम्' इत्यमरः । क्षणं क्षणपर्यन्तम् । 'कालायोप्सी' इति द्वितीया । सूष्णीं जोषम् । निषण्णः निषीदति स्म निषण्णः उपविष्टः सन् । जालोद्गीर्णेः जालात् गवाक्षात् 'जालं समूह आनामो गवाक्ष आरकेष्वपि इत्यमरः । उद्गीर्णेः निर्गतः । मनोज्ञः मनोहरैः । धूपधूमैः यक्ष धूमैः सुरभिततनुः परिमलितशरीरः । ' संजातं तारकादिभ्यः' इति इतस्त्यः । वरस्त्रीणां गणिकानाम् । वारस्त्री गणिका बेश्या' इत्यमरः । निधुवनति सुरतकीडाम् । प्रेक्षमाणः पश्यन् । कामुकत्वस्य विलासितत्वस्य । 'बिलासी कामुकः कामी स्त्री परी रति लम्पट : 1' इति शब्दाणं महत् फलमपि उ प्रयोजनमयि । सद्यः तत्काल एव । लब्धा प्राप्स्यसि । 'डुलभष् प्राप्तौ लुट् ।। ९४ ।।
अव्यय - उपनिषत्तृष्ण त्वं एनां गत्वा सोघोत्सङ्गं क्षणं कृष्णी निषण्णः जानोक्षीर्णे भाजी विधुवर प्रेक्षमाणः कामुकत्वस्य महत् अपि फलं सद्यः लब्धा ।
अर्थ ---- समुत्पन्न अभिलाषा वाले आप विदिशा नामक राजधानी में जाकर भवनों के ऊपरी भाग में थोड़े समय मौन बैठकर खिड़की से निकलते हुए मनोहर धूप के घरों से जिसका शरीर सुगन्धित है ऐसी वेश्याओं को सुरतक्रीड़ा को देखते हुए कामुकपने के बहुत बड़े भी फल को शीघ्र हो प्राप्त कर लोगे ।
विश्रान्तिस्ते सुभग विपुला तत्र यातस्य मन्ये, कलाराङ्कं सुरभि शिशिरं स्वच्छमुत्फुल्लपद्मम् । वाताकीर्णेः कुवलयदलैर्वासितं दीर्घिकाम्भस्तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यत्र ॥ ९५ ॥
विश्रान्तिरिति । सुभाष भो मनोहराङ्ग । यत्र पुर्य्याम् । कह्लाराङ्कां कारा- देव अङ्क चिह्न यस्य तत् । 'सौगन्धिकं तु कलारं हल्ल के रक्तमन्ध्य कम् 'उत्सङ्गचिह्नमोर' इत्युभयत्राप्यमरः । सुरभि प्राणतर्पणम् । शिशिरं शीतलम् 'सुबीम: शिशिरो जहः । तुषाः शीतलः शीतो हिमः सप्तान्यलिङ्गकाः' इत्यमरः | स्वच्छ्रं सुष्ठु अच्छे निर्मलम् । त्रिष्वायाधात्प्रसन्नोऽच्छः' इत्यमरः । उत्फुल्लपद्मम् उत्फुल्लानि विकसितानि पद्मानि यस्मिन् तत् । वाताकीर्णेः मारुताकुलितैः । कुवलधवलैः । 'दलं पर्णं छदः पुमान्' इत्यमरः । वासितं परिमलितम् ।
ין
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प्रथम सर्ग
१२७
'भाषितं वासितं त्रिषु' इत्यमरः । स्वावु मधुरम् । दीर्घिकाम्भः क्रीडा सरः खलिलम् । 'बापी तू दीधिका' इत्यमरः । तीरोपान्तस्तनितसुभगं कूलसमीपे स्वनितेन गर्जितेन सुभगं मनोहरं यथा भवति तथा पास्यसि पानं करिष्यसि । तत्र विदि शार्थ्याम् । यातस्य गतस्य । ते तत्र विपुला महतो विभान्तिः विश्रामः । · स्यादिति शेषः । मन्ये एवमहं जाने ।। ९५ ।।
अन्वय - ( है ) सुभग ! यत्र कह्लाराङ्क सुरभिशिखिरं स्वच्छं उत्फुल्लपद्मं वाताकीर्णैः कुवलयदः वासितं स्वादुदीर्घिकाम्भः तीरोपान्त स्तनित सुभगं पास्यसि - तंत्र यातस्य ते विपुला विश्रान्तिः ( इति ) मन्ये ।
अर्थ - हे सुन्दर यश अथवा माहात्म्य वाले ! जिस विशालनगरी में सफेद कमलों से चिह्नित, सुगन्धित, शीतल, स्वच्छ, विकसित पद्मकमलों से युक्त, वायु से व्याप्त, नीलकमलों के समूह से सुगन्धित ( एवं ) स्वादयुक्त बावड़ी के जल को किनारे के समीपवर्ती प्रदेश में गरजने में सुन्दर लगते हुए पियोगे । वहाँ ( विदिशा नगरी में ) जाने पर तुम्हें बहुत विश्राम मिलेगा, ऐसा मैं सोचता हूँ ।
पातव्यं ते रसिक सुरसं प्राणयायानिमित्तं, तस्यां लीलास्फुरितशफरा घट्टनैरात्तपङ्कम् ।
रोषः प्रान्ते विहगकलभे द्वडिण्डोरपिण्डं,
:
सभ्रूभङ्ग मुखमिव पयो वेत्रवरयाश्चलीयः ॥ ९६ ॥
पातव्यमिति । रसिक भो सरस तस्यां राजघान्याम् । लोम्र्म्याः चला ऊर्मयोगी यो यस्याः सा तथोक्ता तस्याः । 'भङ्गतरङ्ग ऊर्मिक स्त्रियां वीचिः ' इत्यमरः । भवस्थाः वेत्रवतीनाम नद्याः । रोषः शते तीरनिकटे । लोलास्फुरितफराने: लीलया स्फुरितः प्रबुद्धः शफराणां मत्स्यानामाघट्टनैः सङ्घर्षणैः । 'शकरो निमिषः स्लिमिः' इति धनञ्जयः । आत्तपङ्क प्राप्तकर्दमम् । विकलभै: पक्षिपतैः । बद्ध डिण्डीरपिण्डं बद्धो रचितः डिण्डीराणां फेनानां पिण्डः यस्य तत् । 'डिण्टीरोऽधिकः फेनः' इत्यमर: । सुरसं सुशोभमो रसः स्वादु शृङ्गारादिर्वा यस्य तद् 1 पयः तोयम् । पयः क्षीरं पयाम्बु च' इत्यमरः । श्रूभङ्गे बोन रचना सहितम् । मूखमित्र आननवत् । ते तव । प्राणपात्रानिर्मितं प्राणरक्षार्थम् । यात पानाहि भवतीति शेषः । कामिनाम घरास्वादनं सुरतादतिरिच्यत इति तात्पर्यम् ॥ ९६ ॥
अन्वय - ( भो ) रसिक ! सुरसं लीलास्फुरितशफराघट्टने आतपङ्क, १. चलोमिः ।
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पाश्र्वाभ्युदय विगकलर्भ रोधःप्रान्तै बडिण्डीपिण्डं वेत्रवत्याः सभ्र भङ्ग मुखं इव पलोमिः पयः तस्यां प्राणमात्रानिमित्त से पासण्यम् । __ अर्थ- हे रसिक! अच्छे आस्वाद वाले, क्रीड़ा करने के लिए उत्पन्न चंचलपने वाली मछलियों के संघर्ष से कीचड़ युक्त, पक्षियों के बच्चों से किनारे के समीपवर्ती प्रदेश में विरनित फेन समह वाले, बेत्रवती (नदी) के भ्रकुटी वाली नायिका के मुख के समान चंचल तरंगों वाले जल को उम वेत्रवती नदी में अपनी प्राण-रक्षा के लिए तुम्हें पीना चाहिए ।
पोत्वा तस्यां सलिलममलं जीविकांकृत्य किञ्चि, न्नीत्वाऽहस्त्वं क्वचिदनुमते हर्म्यपृष्ठे निषण्णः । दृष्ट्वा दृश्यं विलसितमदो नागराणां दिनान्ले, नोचैराख्यं गिरिमधिवसंस्तत्र विश्रामहेतोः ॥१७॥ पाल्वेति । तस्या देवत्याम् । अमले निर्मलम् । 'मोऽस्त्रोपापपङ्कयोः' इत्यमरः । सलिलं जलम् । 'सलिलं कमले जलम्' इत्यमरः । पीत्वा पानं कृत्वा । किञ्चित् ईपत् । जोविकां कृत्य जीवनं कृत्वा । 'जीविकोपनिषदिव' इति ति सम्मा । 'क्ता नन; प्यः' इति प्यादेशः । अनुमते सम्मते । क्वचित् करिमश्चित् । हर्म्यपृष्ठे घनिनामावासपृष्ठभागे । 'हयादि धनिनां वासः' इत्यमरः । निषण्णः उपविष्टः । महः दिनम् । विघाहदिवसे' इति वनजमः 1 नीत्वा यापयित्वा । मागराणां नगरे भवाः नागरास्तेषां नागरजनानाम् । दृश्यं दृष्ट योग्यम् । अद: एतत् । बिलासतं वर्तनम् । दृष्ट्वा प्रेक्ष्य । सिमान्ते सापाले । तत्र विदिशानगरी समीपे 1 विधामहेतोः विधान्तिनिमित्तम् । 'विश्रमो धन' इति वा दीर्घः । पथनमापनयनार्यमित्यर्थः । नीरामयं नोरिति आख्या यस्य तम् । गिरि अद्रिम् | त्वं भवान् । अधिबसेः 'सोनूपाध्याङ्' इति आधारे कर्म । गिरी वसेत्यर्थः ॥१७॥
अन्वय-नं तस्यां अमलं सलिलं जीविकांकृत्य किश्चित् पीस्वा क्वचित अनुमते हयंपृष्छे निषण्णः अहः नोवा नागराणां अदः दृश्य विलसितं दृष्ट्वा दिनारते विश्रान्ति हेतोः नौचराव्य गिरि अघिबसेः ।
अर्थ-तुम उस वेत्रवती नदी में निर्मल जल को जीवन के साधन के समान मानकर कुछ पीकर अपनी इच्छानुसार किसी धनी के निवास के ऊपरी भाग में बैठकर दिन बिताकर नागरिकों के उस देखने योग्य विलास को देखकर दिन की समाप्ति के समय विश्राम के लिए नीच नामक पर्वत पर निवास करो।
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प्रथम सर्ग स्वं सेवेथाः शिखरिणममुतां निशां मुक्तशको, विद्युद्दामस्फुरितचिमदीपिकायोतिताशः। सिद्धस्त्रीणां रतिपरिमलासिताधित्यकान्तं, त्वत्सम्पर्कास्पुलकितमिव प्रौतपुष्पैः कम्दवः ।। ९८॥ त्वमिति । विशुद्दामस्फुरितचिमहीपिकायोतिताशः स्फुरिता चासौ रूधिश्च तथोक्ता सास्पास्तीति स्फुरित रुचिमती सा चासौ दीपिका च तथोक्ता विद्युतां तविता दाम माला विद्युदामब स्फुरितत्रिमद्दीपिकेति फर्मधारयः । तमो द्योतिताः प्रकाषिताः माशः दिशो यस्मेति बहुव्रीहिः । मुक्तशा मुक्ता त्यक्ता शङ्का भाशा मेना साविति बहुव्रीहिः । त्वं भवान् । स्वरसम्पति भवत्सङ्गमात् । प्रोडपुष्पः प्रवृत कुसुमः । 'प्रवृद्धं प्रौढमेषितम्' इत्यमरः । करम्य) नीपवृक्षः । 'नोपधियफ कम्पास्तु हरिप्रियः' इत्यमरः । पुलकितमिव पुलकानि अस्य सम्मातानोलि पुलकिशमिय सम्आतपुलकवत् । सिबास्त्रीणां सुरयोषिताम् । रतिपरिमले भोगोचितगन्धद्रव्यवासनाभिः । 'विमर्दोत्ये परिमलो गन्धे जनमनोहरे' इत्यमरः । वासिताधिरपकारतम् अधित्यकायाः पर्वतोवभूमेः अम्तीवसानस्तथोक्तः । 'भूमिरूवमपित्यका' इत्यमरः । 'अन्तोऽस्त्री निश्चये नाशे स्वरूपेऽन्तिकेऽस्तके' इति नानार्थमालायाम् । वासितोऽधित्यकान्तो यस्येति बनीहिः । प्रमु' शिखरिणम् । मोरभि, भूधरम् । तां मिशा रात्रिम् । 'निशा निशोधिनी रात्रिः' इत्यमरः । सेवाः भजस्व ।। ९८ ॥
अन्वय---सिवस्त्रीणां रतिपरिमल, वासिताधित्यिकान्तं प्रौठपुष्पैः कदम्ब: स्वत्सम्पति पुलकित इव अमुशिखरिणं विशुद्वामस्फुरितरुचिमदीपिका घोत्तिताशः मुक्तशतवं तां निशा सेवेथाः ।
अर्थ-सिद्ध स्त्रियों की रति क्रीड़ा के समय उत्पन्न मालादि के गन्धों से सुगन्धित पर्वत के ऊपरी भाग से युक्त प्रदेश वाले, प्रौढ पुष्पों वाले कदम्बों द्वारा मानो तुम्हारे सम्पर्क से पुलकित इस पर्वत को विद्युन्माला के चमकाने से कान्तियुक्त दीप से दिङ्मण्डल को प्रकाशित करने वाले तुम निःशङ्क होकर उस रात्रि का ( पूरी तरह ) सेवन करो। नोट-इस पर्वत को उस रात सेवन करो।
सोऽसावद्रिर्भवतु नितरां प्रीतये ते समग्रग्रावोपाग्नैर्ग्रहगणमियोपगृहीतुं खमुद्यन् । भोगोद्रेकं कथयति लतावेश्मः सोपहारैयः पण्यस्थीरतिपरिमकोवगारिभिनगिराणाम् ॥१९॥
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पार्श्वभ्युदय
1
सोसादिति । यः भोरभिख्यो गिरिः । पण्यस्त्रीरतिपरिमलोवृणारिभिः पण्यस्त्रियो ने 'बारस्त्री गणिका वेश्या स्त्री रूपजीविनी' इति शब्दार्णवे । तासां रतिपरिमलो गन्ध विशेषस्तं 'विमर्दोत्थे परिमल:' इत्यमरः । गत्या विर्भवन्तीतिरनिरिमलोद्गारोणितैः । सोपहारैः पुष्पहारादियुतः । लसान लतामयानि वेश्मानि तथोक्तानि रुसावेदमान्येव छतावेश्म कानि तैः लतागृहः । नागराणां नगर जमानाम् । भोगोई कं भोगोत्वम् । कपयसि ब्रवीति | सोडलावद्रिः स एष नोचैरद्रिः समग्रग्राषोपानं सम्पूर्णलाम भागैः । 'समग्र सफल पूर्णम्' इत्यमरः । प्रहृगणं नवग्रहृनिकायम् । उपग्रहो स्वीकरणाय । एवं व्योम | उद्यन् उद्गच्छवि । ते तव । प्रीतये प्रेम्णे । नितराम् अधिकम् । भवतु अप्युन्नतत्वात् प्रेमकरोस्तिवति तात्पर्यम् । अत्री दुगारिवाब्दस्य गौणार्थस्वात् न जुगुप्साबहवं प्रस्तुत काव्यस्यायं शोभाकरण एव । तदुषलं दण्डिना 'निष्ठ्यूतो गोवा न्तादि गौणवृत्तिव्यपाश्रयम् । अतिसुन्दरमन्यत्र आभ्यां कक्षां विगाहते' इति ॥९९॥
अन्य – पपस्त्रीरतिपरिमाद्गारिभिः सोपहारः छतावेश्मकैः नागराणां भोगोद्रेकं कथयति सः समापारी ग्रहगणं उपगृहीतु श्व खं उधन् असो अह्निः से नितरां प्रोये भवतु ।
अर्थ – जो नीच नामक पर्वत वेण्याओं से रतिक्रीड़ा में विमंदित पुष्प आदि की सुगन्धि को प्रकट करने वाले ( पुष्प आदि ) उपहारों से युक्त लताओं से निर्मित बेश्याकार मण्डपों (लता गृहों) से नागरिकों के भोगों की अधिकता को कहता है, समस्त पत्थरों के अग्रभागों से मानों तारागणों को बन्दी बनाने के लिए ही आकाश में ऊपर की ओर जाता हुआ यह पर्वत तुम्हारे अत्यधिक आनन्द के लिए होगा अर्थात् तुम्हें अत्यधिक आनन्द देगा ।
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प्रेमामुष्मिस्तव समुचितं विद्धि शैले शिलाप्रे,
मोत्सङ्गं परिमुजति वा पुष्पशय्या चितान्तैः । त्रस्तत्र ग्र्भािनधुवनविधौ क्रीडतां दम्पतीनामुद्दामामि प्रथयति शिलावेश्मभिर्जीवनानि ॥ १०ou प्रेमेति । शिलाप्रेः पापाणाः । योमात्सङ्गम् आकाश प्रदेशम् । परिमृजति परिमाष्टीति परिमृजन् तस्मिन् । 'सूजी शुखी' शतृस्य या अथवा | श्री विहरताम् 1 वम्पतीनां स्त्रीपुरुषमिथुनानाम् । 'दम्पती जम्पती जायापती' इत्यमरः । निषुवनविधौ सुरतविधानं । 'निषुयनं रतम्' इति 'विधिविधाने देखे च' इत्यप्यमरः । वस्त्र विभः स्रस्ताः शिथिलताः स्रजो मालायेषु तानि स्त जितैः । 'स्तं ध्वस्त भ्रष्ट स्कल्तं पयुतं गलितम् इत्यमरः । पुष्पवाय्या
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प्रथम सर्ग
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पितात: पुष्पशय्याभिरिचतो निचितोत्तो मध्यप्रदेशो येषां तानीति बहुधोहिः । है: 'शिलामभिः गुहाभिः । उवामानि उत्कटानि । 'गृहभेदविट्प्रभावाधामनि' इत्यमरः । योवनानि यूनां भावान् । प्रथयति प्रथमसीति प्रथयन् तस्मिन् प्रकटयति । अमुषिमन् शैले नीचरगे । सव भवतः । प्रेम स्महः । समुचितं सुयोग्यमिवेति । विद्धि एवं जानीहि । उत्कटयौवनाः क्वचिदनुरवता वाराङ्गना विधभव्यबहारकाहिसण्यो मात्रादिभयात् निशीथसममें विविक्त समय देशमाश्रित्य रमत इति बहुलमस्ति प्रसिद्धिः ।।१०।।
अन्षय-शिलानः म्योमोत्सन परिम्रजति क्रीडा दम्पतीमा निधुवनविधी सस्तस्त्रग्भिः पुष्पशयाचितान्तः शिलाश्मिभिः उद्दामानि यौवनानि प्रथयति वा अमुस्मिन् शैले तब समुमितं प्रेम विद्धि ।
अर्थ-पाषाणों के अग्रभाग द्वारा आकाश प्रदेश को छने वाले, अथवा क्रीडा करते हुए दम्पतियों की मैथुनको सिधि में हुई माला वाले तथा जिनके मध्यभाग फूलों की शय्या से व्याप्त हैं ऐसे शिलागहों के द्वारा ( पर्वत की शिलाओं में उकेरे गए गृह ) उत्कट ( अमर्यादित ) यौवन को प्रकट करने वाले इस पर्वत पर तुम्हें समुचित प्रेम का अनुभव हो अर्थात् इस पर्वत पर तुम्हारे लिए प्रेम प्रकट करने का अवसर है। अथावेष्टितानि
रम्योत्सने शिखरनिपतन्निर्झरारावहुचे, पर्यारूढ द्रुमपरिगतोपत्यके सत्र शैले। विधान्तः सन्त्रज बननदीतीरजानां निषिञ्चन्नुधानानां नवजलकर्णपिकाजालकानि ॥१०॥
रम्योत्सङ्ग इति । शिखरनिपतग्मिराराबहाचे शिवरान्निपतन्निति कासः । सचासौ निझरएवेति कर्मधारयः । तस्यारात्रो ध्वनिरिति तत्पुरुषः । हृदयस्य प्रियो हृद्यः 'पपथ्य' इत्यादिना यत्यः । 'हृदयस्य हुधापलासः' इति हृदादेशः । तेन हृद्य इति भासः । तस्मिन् । पर्यारूढगुमपरिगतोपत्यके परितः बाल्दाः प्रवृद्धास्ते च ते दुमात्र कर्मधारयः । तैः परिगता परित्सा उपत्यका उपरिभूमियस्यति बहुमोहिः । तस्मिन् । रम्योत्सले रम्य उत्सङ्ग पार्यो यस्येति बहुधोहिः । तस्मिन् । तत्र शैले नीचर चले । विश्रान्तः सन् अध्वश्रमरहितः सन् । वमनवीतीरसानां बने अरण्ये या नद्यः तासां तीरेषु जातानि रूहानि अतिक्रमणेत्यर्थः । उद्यानानाम् १. कास इति सूतीया सत्पुरुषस्य संज्ञा । २, भास इति तृतीया तत्पुरुषस्म संज्ञा ।
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आमाणाम् । पिकाजासवानि मागत्रीमुकुलानि । 'मय मागधरे । गनिकाः यूपिकावष्ठा' इत्यमरः । 'कोरकलालककलिका कुमलमुकुलानि तुल्फ्रानि' इस हलायुधः । नवझलकणेः नूतनजलविन्युमिः । निषिञ्चन् आकुर्वन् । व्रज गच्छ ।
अग्नय-रम्प्रोत्सङ्गे शिख निपतग्निर्मराराधहृवं पर्यारूद्रुमपरिमतोसत्यके तव शैले विश्रान्तः सन् वतनदीतीरजाना उद्यानानां पिकाजालकानि नबनलक: सिकान बज । ___ अर्प-रमणीय उपरितन प्रदेश वाले, शिखर से गिरते हुए झरनों की ध्वनि से मनोहर, सब ओर से उगे हुए वृक्षों द्वारा सब ओर से व्याप्त पर्यन्त भूमि वाले उस नीच नामक पर्वत पर विश्राम करके क्न की नदियों के तटों में उत्पन्न बगीचों के जुही के मुकुलों को नए जल के विन्दुओं से सेचन करते हुए जाओ।
अध्यारो लपति तपने पुष्पगुल्मावकोणाँ, तस्यास्तोरक्षितिमतिपतेातिधेगाहयालुः । गण्डस्वेदापनयनरजाक्लान्तकोस्पलाना,
छायावानाक्षणपरिचितः पुष्पलायोमुखानाम् ।।१०२॥ अध्यात इति । अध्यासे उपर्याल्ले । सपने सूर्ये । तपतोतिसपन् तस्मिन् । इति शतृत्यः । यसपनयनवजाक्सातकर्णोत्पलानाम् गण्डयोः क्रयोलयोः स्वेवस्यापमयनेन प्रमार्जनेन वा पीडा तया क्लान्तानि मलानानि कर्णोत्पलानि येषां तेषाम् । पुष्पलायोग्रजानां पुष्पाणि लुनन्तीति पुष्पलाग्यः पुष्पावधायिकाः स्त्रियः 'कर्मणोऽण' "टिट्ठण्ठे' इत्यादिना की। सासा भुवानि तेषाम् । छायाबानास अनातपस्य दानात् । कान्तिवानाम्यति ध्वन्यते । 'छाया स्वनाप्लये कान्ती' इस्यमरः । कामुकदर्शनाकामिनां मुखविकासो भवतीति भावः । अपरिचितः झणं संस्पृष्टः । बयालुः कारुण्यशीलः सन् । “निद्वासन्द्रा' इत्यादिना दयाशवाबालुत्यः । तस्याः नद्याः । नद्या इत्येव का पाठः पुष्पगुल्माश्कीर्णा पुष्पयुता गुरुमास्तः लतासातः अबकीणी विकोणम् । तीरक्षित सटभुवम् । नासिवेगात् मन्दगमनात् । अतिपसेः गच्छ ।।१०२।।
अवय-बध्यारूढे तपने तपति ( सति ) गणुस्वंदापनयनरुलालान्तकोंत्पलानां पुष्पलावीमुखानां छायादानात् क्षणपरिचितः वयालुः () तस्या पुष्पगुल्मावशीणी तीरक्षिति नातिवेगात् अतिपतेः । ___अर्थगनमण्डल के मध्य में स्थित सूर्य के तपने पर ( प्रखर किरणों से युक्त होने पर ) गालों पर पसीना हटाने से उत्पन्न पीड़ा से जिनके
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प्रथम सर्ग
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कर्णभूषण कमल मुरझा गए हैं ऐसे फूलों को तोड़ने वाली उन स्त्रियों के मुखों को छाया देने से समय तक एवं ममालु होते हुए हुन उस बन नदी की पुष्प, लता, तृणादि से आच्छादित तटभूमि पर अत्यन्त वेग से नहीं जाना ।
वक्रोऽप्यध्वा जगति स मतो यत्र लाभोऽस्यपूर्वी, धातुं शक्यं न वनपथात्का सिकाग्रार्जु नान्तात् ।
वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्यो तराशां, प्रणमुख मा स्म भूरुज्जयिन्याः ॥१०३॥
वन इति । यत्र मार्गे । अपूर्व: अलब्धपूर्वः लाभः प्राप्तिः । अस्ति वर्तते । सः अध्या मार्गः । वोऽपि आजवर हितो पि । जगति लोके । मतः अङ्गीकृतो भवति । फासिकाग्राजु मान्तात् कासिका एवं अग्रम् आदिर्यस्य कासिकाः अर्जुन एवं अन्तो यस्य अर्जुनान्तः का सिकाग्रश्चासावर्जुनान्तश्च तथोक्तस्तस्मात् मार्गःविशेपात् । वनपथात् अनस्य पन्थाः वनपथस्तस्मात् 'ऋषपूपथ्यवोदित्यश्समासान्तः' कान्तारमार्गात् । यातुं गन्तुम् । ननु भवषयम् । धलं भवतीति शेषः । सरा कौबेरीदिशम् | प्रस्थितस्य गन्तुमुद्यतस्य । भवतः तव । पश्याः उज्जयिनी मार्गः । - अनुजुः । यदपि यद्यपि भवति चेदीत्यर्थः । उज्जयिन्याः विशालानगरस्य 'विशालोज्जयिनी समे' इत्यमरः । सोधोत्सङ्ग प्रणयविमुखः सौधानामुत्सङ्गेषुपरिभागेषु प्रणय- परिचयः तस्य विमुखः पराङ्मुखः । मा स्म भूः न भवेत्यर्थः । 'लट् च स्मेन' इति धातोर्मास्मयोगेन लुङ् । 'लङ लुङ च' इत्यादिना माहीत्यमनिषेधः । अलका प्रस्थितस्य उज्जयिनोगमने मार्गो वक्रोऽपि उज्जयिन्यां प्रेक्षक सम्भवादवश्यं गन्तत्यमेवेति भावः ॥ १०३ ॥
I
अन्वय-पत्र अपूर्वः लाभः अस्ति स मन्या वक्रः अपि जगति मतः । उत्तराणां प्रस्थितस्य भवतः पन्थाः यद्यपि वक्रः ( तदपि ) कासिकाग्रार्जुनान्तास् वनपथात् ननु यातु ं शक्यम् । ( ततः ) उज्जयिन्याः सौवोत्सङ गप्रणयविमुखः माल्मभूः ।
अर्थ -- जिस मार्ग में अपूर्व लाभ है वह मार्ग टेढ़ा होने पर भी संसार में आदर को प्राप्त है। उत्तर दिशा की ओर जाते हुए यद्यपि तुम्हारा मार्ग टेढ़ा होगा, फिर भी कासों का अग्रभाग जिसका प्रारम्भ है तथा अर्जुन वृक्ष जिसके अंत में हैं ऐसे जंगल के रास्ते से जाना सम्भव है । ( जंगल पार करने के ) अमन्सर उज्जयिनी के प्रासादों के ऊर्ध्व भागों से परिचय करने में (तु) पराङ्मुख न होना ।
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पाश्र्वाभ्युटर जत्रैणिः कुसुमधनुषों दूरपातैरमोधेमर्माविभिठपरिचितभ्रूधनुर्यष्टिमुक्तैः । विद्युदामस्फुरितचकितैयंत्र पौराङ्गनानां, लोलाऽपाङ्ग यवि न रमसे लोचनैर्वञ्चितः स्याः ॥१०४॥
रिति । य: ओपन्याम् । कुसुमधनुषः कुसुमान्यव धनुमंस्य तस्य मन्मथस्प । 'पुष्पधन्वा रतिपति' इत्यमरः । क्षेत्र: जयनशीलर्माणैः । दूरपतिः दुरपातः पतनं येषां तैः । अमोध: न मोषाः अमोधास्तः । 'मोघं निरर्थकम्' इत्यमरः । सफलैरित्यर्थः । मर्माविद्भिः मर्मस्थानम् आसमन्ताभेदद्भिः । दृढपरिचितभूषन: यष्टिमुक्सः दुई गाई परिचितगभ्यस्त भ्र वावेवधनुः दृढपरिचितं च तत् धनुश्व तपोक्त । तदेव वा यष्टिदण्डस्तस्या मुक्ता नं: मदनावस्थोद्रेकरित्यर्थः । विशुहामस्फुरितचकितैः विद्युद्वाम्नो विद्यमालामाः स्फुरितं स्फुरणं तेन चकित : कम्पितः। लोलापाड्ने लोलएकञ्चलोपाङगो येषां यैः 'लोलश्चलसतष्गयोः' बपाङ्गो नेत्रयोरङ्गे' इत्युभयत्राप्यमरः । पौराङ्गनाको पूरे भवाः पौराः पौराणामलानास्तथोक्ताः । पौराश्च ताः बङ्गनाश्चेति वा तासां । लोचनः नयनः । यदि म रमसे न क्रायसि । चेतहिं । वञ्चित: प्रतारितः । स्याः भवेः । सदपाङ्गनिरीक्षणाभावे जन्मवैफल्यं भवेदेति तात्पर्यम् ।। १०४ ॥
अन्वय-यत्र पौराङ्गनानां विद्युद्दामस्फुरितचकितः लोलापान कुसुमधनुषः दृढपरिचितभ्र धनुष्टिमुक्तः मर्माधिभिः अमोघः दुपात: जैनः बाणः यदि न रमसे ( तया ) लोपनः बञ्चितः स्याः ।
अर्थ-जिस उज्जयिनी नगरी में नागरिकों की सुन्दर स्त्रियों के बिजली के चमकने से प्रदीप्त चंचल नेत्रान्त वाले, कामदेव के अत्यन्त परिचित भ्रकुटि रूप धनुर्यष्टियों से छोड़े गए, ममं का छेदन करने वाले, अचक, दूर गिरने वाले और जयनशील बाणों से यदि रमण नहीं करते हो तो नेत्रों से वञ्चित हो जाओगे अर्थात् दोनों नेत्रों के होने का फल तुम्हें प्राप्त नहीं होगा।
भावार्थ-यहाँ बाणों का अर्थ स्त्रियों के नेत्रों से है। इदानीमुजयिनी गच्छतस्तस्मान्तरे निविन्ध्यासरितः सम्बन्धमाहस्रोतः पश्यन्वज पथि लुठन्मोनलोला यताक्ष्याः, निविन्ध्यायाः किमपि किमपि व्यज्जिताकृतवृत्तिः । वोषिक्षोभस्तनितविहगणिकाचीगुणायाः, संसर्पस्पाः स्खलितसुभगं वर्शितावर्तनाः ॥ १०५ ॥
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प्रथम सग
स्रोस इति । पपि विशालापुरीमार्गे । लुटग्मीमलोलापताश्याः लुठन्तः स्फुरतः मीना एवं लोले चम्पले आयले दीर्षे अक्षिणी यस्याः सा तस्माः । श्रीविक्षोभस्तनितविहगणिकाचीगुणाया: बोचिक्षोभेन तरङ गवलनेन जातं स्तनितं घोषणं विहगानां पक्षिणां श्रेणिः पंक्तिः 'घणो रेखास्तु राजयः' इत्यमरः । वीचि क्षोभ
नितेन सहिता विहगणिस्तथोक्ता सैव काञ्चोगुणो रसनादाम यस्यास्तस्माः ! 'स्त्रीकट्या मेखला काञ्ची सप्तकीरसना तथा' इत्यमरः । स्वलिससुभगं गमन. स्खलनेन सुभगं यथा तथा । संसपंन्त्याः गच्छन्त्याः । दशितावर्तनाभेः दर्शितः आवतोंमोभ्रमः स एव नाभियस्याः सा सस्या 'स्यादावर्ती भासा भ्रमः' इत्यमरः । निविम्यायाः बिध्यादचलात् निष्क्रान्ता निविनध्या नाम नबी । 'गतादिषु प्रादयः' इति समासः । तस्याः स्रोतः । 'स्रोतोम्वुसरणं स्वतः इत्पमरः । प्रवाहमित्यर्थः । किमपिकिमपि बीप्सायां द्विः। यत्किमनि । प्यम्मिताकतवृत्तिः पञिता प्रकरिता आकृतस्ये अभिप्रायस्य बत्तिर्वर्तनं यस्य तथोक्तः सन् । 'आफूतं स्पावभिप्रायः' इति ध्यालिः । पश्यन् अवलोकयन् । ब्रज गच्छ ।
अन्यय-पथि लुबमीनलोलायताक्ष्याः वीचिक्षोभस्तनितविहगणिकान्धी गुणायाः दर्शितावर्तनामः स्वलितमुभर्ग संसर्पस्याः निविष्यायाः किमपि किमपि भ्यजिसाकूतवृत्तिः स्रोतः पश्यन प्रा ।
अर्थ--(आप) रास्ते में लोटती हुई मछलियाँ ही हैं नेत्र जिसके, तरङ्गों के चलने से शब्द करने वाले पक्षियों की पंक्ति ही है करधनी जिसकी, दिखलाई है आवत रूपी नाभि जिसने तथा जो स्खलित गति से मनोहर रूप से जा रही है ऐसे निर्विन्ध्या नदी के प्रवाह को देखते हुए, कुछ अपने अभिप्राय को भी प्रकट करते हुए जाओ ।
स्वय्यौत्सुक्यं स्फुटमिव विनाप्यक्षरेय जयन्स्याः, किचिल्लज्जावलितमिव संवर्शितामागमायाः । निविन्ध्यायाः पथि भव रसाम्पतरः सलिपल्प, स्त्रीणामाचप्रणयवचन विभ्रमो हि प्रियेषु ॥ १०६ ॥ त्वयोति । पथि उज्जयिनीमार्गे । त्वयि भवति । औस्मुक्य लाम्पट्यम् । प्रारः विना अणेः उच्चारणमन्तरेणापीत्यर्थः । 'पृथग्नितान्तरेणतें हिरुङ्नाना च वर्जने' इत्यमरः । स्फुट व्यक्तम् 'स्फुटं प्रध्यक्तमुत्त्रणम्' इत्यमरः । व्यक्जयत्या इव व्यक्तीकुर्वन्त्या इव । फिञ्चिालजावलित किञ्चिदीषत् लज्जया हिया आवलितं वनसनस्वं यथा भवति तथा । संशिसाप्तागमायाः संशितः व्यजितः आप्तस्य प्रियस्थ आगमः आगमनं ययेति बहुमोहिः । तस्या इघ । एवं भासमानायः निविष्यायाः वनिताया इति ध्वन्यते । समिपत्य समीपं गत्वा । रसाभ्यन्तरः रसो
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पाश्र्वाभ्युक्य जलं शृङ्गारादिवी अभ्यन्तरे यस्य सः । 'शूलारादो जले वीये सुवर्ण विषशुक्लयोः । आस्वादे रमने अहः' इति शब्याणये । भव सम्यक सद्ररामनुभवेत्यर्थः । अत्रार्थान्तरन्यासमाह । स्त्रीणां प्रियेषु वल्लभेषु । विभ्रमो विलासः । 'स्त्रीणां विकासवियोकविभ्रमाललितम्' इत्यमरः । स एवाचमादिमम् । प्रणयवचनं प्रिय वाक्यम् । हि स्फुटम् । स्यादिति निर्देवाः । विभ्रमरेब रतिप्रकाशनं न तु वचनतः । विनमश्चात्र नाभिसन्दर्शनादिरेवेति तात्पर्यम् ॥१०६।।।
अन्वय-पथि सन्निपस्थ अक्षरः विना अपि स्फुटं इत्र स्वयि औत्सुक्यं व्यमजयन्त्याः किञ्चिल्लज्जावलित इव सन्दशिलाप्तागमायाः निर्विाध्यायाः सन्निपत्य रसाभ्यन्सरः भव, हि ( यतः ) स्त्रीणां प्रियेषु विभ्रमः आद्य प्रणयवचनम् ।
अर्थ-उज्जयिनी के मार्ग में उस निविन्ध्यानदी को पाकर अक्षरों के (उच्चारण के ) विना भी व्यक्त के समान आपके विषय में उत्कष्ठा को व्यक्त करती हुई कुछ कुछ लज्जा से अपने शरीर को बक्र बनाती हुई आप्त ( विश्वस्त व्यक्ति) के आगमन को प्रकट करती हुई निविन्ध्या नदी के पास जाकर उसके रस (जल अथवा शृङ्गार) को ग्रहण करने में अन्तरङ्ग बनो, क्योंकि स्त्रियों की प्रणयीजनों में श्रृंगार चेष्टा ही प्रथम प्रणय वाक्य हो जाता है।
भावार्थ- कामिनी अपने प्रेमी के प्रति अभिप्राय को बचन के बिना ही व्यक्त कर देती है, निविन्ध्या ने भी नाभि प्रदर्शनादिरूप विलासों से अभिप्राय को व्यक्त कर दिया है। उसने यद्यपि मेघ से वचन द्वारा प्रार्थना नहीं की, फिर भी उसके रस (जल, श्रृंगार ) का अनुभव मेघ को अवश्य करना चाहिए, क्योंकि नाभि आदि दिखलाने से अपने अभिप्राय को वचनादि के उच्चारण बिना ही उसने प्रकट कर दिया है।
हंसश्रेणोकलविरुतिभिस्वामिवोपाह्वयन्ती, धृष्टा मार्गे शिथिलबसनेवासाना दृश्यते ते । वेणीभूतप्रतनुसलिला तामतीतस्य सिन्धुः, पाण्युच्छायातटरूहतरुभ्रशिभि|र्णपणः ।।१०७। हंसश्रेणीति । ता निविन्ध्यानदोम् । अतीतस्य अतिक्रान्तस्म । ते तव । मार्गे पथि । तटसहतरुनाशिभिः तटयोरुहन्तीति तटम्हाः 'ज्ञाकृप्रिगुपान्त्यात्कः' इति क प्रत्ययः । तीरखमो अवास्तरदः तेम्यः भ्रंशतीत्येवं शीलानि भ्रशानि तैः पतनशीलः। जोर्गपणेः शुष्कदलः । पाण्डछाया पाण्डुवर्णा विरहावस्थयेति १. सलिलासाबतीतस्पेति पाठः ।
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प्रथम सर्ग
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ध्वन्यते । वेणीभूत प्रतनुसलिला प्रागधेणो इवानी वेणी भवति स्मेति तथोक्त घेण्याकार पलितप्रवाहं प्रतन प्रकर्षेण स्तोकं सलिन यस्याः सा तथोक्ता । सिम्युः सिन्भुनाम नदो । 'नदे सिन्धुशभद' इति वजन्ता। शिथिलवसना विश्लिष्ट वस्था । पृष्टा निर्लज्जेति यावत् । अङ्गनेव वनितावत् । हंसश्रेणीकलाविपतिभिः ईसानां श्रेण्याः सजे. कला: 'कलो मन्द्रस्तु गम्भीरे इत्यमरः । विरुतयः शब्दास्ताभिः । त्वां भवन्तम् । उपाडपंतीय समीपमावारयन्तीचे । दृश्यते लक्ष्यते 1 अत्र स्वल्पजलस्वात शिथिलवमनमुत्प्रेक्ष्यते इति तातगर्यम् ।।१०७
अन्वय-तां असीनस्य से मार्गे वेणीभूनप्रतनुमलिला तटरुहतरुम मिभि: जीर्णपणैः पाण्डुच्छाया सिन्धुः धृष्टा शिथिलवसना अङ्गना इव हंसश्रेणी कस्ट विरुतिभिः त्वां उपाहयन्ती इव दृश्यते ।
अर्थ-निविच्या मदी को पार करने वाले, अथवा पारकर जाने वाले तुम्हारे मार्ग में थोड़ा जल ही है वेणी जिसकी, तीर पर उगे हुए वृक्षों से भिरने वाले सुखे हुए पत्तों से पीले वर्ण वाली सिन्ध नामक नदी अविनीत तथा शिथिल वस्त्र अथवा परित्यक्त वस्त्र वाली कामिनी के समान हंसों की पंक्तियों को गम्भीर आवाजों से मानों तुम्हें बुलाती हुई सी दिखाई देगी।
क्षामापाण्डुः प्रतनुसलिला वेणिकां धारयन्ती, हंसस्वानरिव विदधती प्रार्थनाचाटुमेषा । सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती, काश्य येन त्यजति विधिता स त्वयोपपाचः ॥१०॥
क्षामेति । हे सुभग मनोरमाङ्ग। मामा कृशाङ्गी। पागः पाण्डुरवर्णा । 'हरिणः पाण्डुर पाण्डः' इत्यमरः । प्रतनुसलिला स्तोकतोया। बेणिका बण्याकारं धारयन्तीति वेणीकृतफेशपाशा वा ।णी च वेणी बन्धे जललनों' इति वैजयन्ती । धारयन्तो हंसस्वानेः मन्द सानरः । प्रार्थनाचा प्रार्थना प्रियवचनम् । अस्त्री नाः चटु श्लाघा प्रेम्णा' इत्यमरः । विवधतीव विदधली । तत्पः । 'नदुग्धति हो। 'अच्छोशतुः' इति नम् । कुर्वनीव विरहावस्थया यल्लकदशनया 'वियोगो मदनासस्था निहो यल्लक बिदुः' इति धनञ्जयः । 'दलावस्थाने निधा' इत्यमरः । ते तत्र । सौभाग्यं सुभगत्वम् । 'हृद्भगगिन्धोः' । उभयपद स्पारच् । ज्य
जयन्ती प्रकाशयन्तो । एषा सिन्धुः बामिनीति वन्यते । येन विधिना येन १. अभूततदभावे नि: 'पी' इति योघः । २. पाण्डः।
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पाभ्युिदय विधानेन । 'विधिविधाने दैवेपि' इत्यमरः । कार्यम् धात्वम् । त्यति जहाति । स: विधिः । स्वयंव भवतैष । उपपायः कर्तव्य इत्यर्थः । इयं पञ्चम्यवस्था सक बिधिरेक वृष्टिरन्यत्र सम्भोगः । तत्काश्यस्य तदभाव निबन्धमत्वादिति भाषः ।
अन्वय-हे सुभग ! क्षामा आपाण्डुः प्रतनुस लिला वेणिका घारमन्ती हेसस्वानः प्रार्थना चा? विवधती इव विरहाबस्थया ते सौभाग्यं यजयन्ती एषा येन विधिना काय त्यति सः त्वया एव उपपायः । ___ अर्थ-हे मनोहर अङ्ग वाले ! दुर्बल शरीर वाली, कुछ-कुछ पाण्डुवर्ण, थोड़े जल रूप वेणी को धारण की हुई हंसों की आवाज से रमण हेतु प्रार्थना रूप चाटुकारी सो करती हुई विरह की अवस्था से तुम्हारे सौभाग्य को प्रकट करने वाली यह सिन्धु नदी जिस विधि से कृशता को छोड़े, उस विधि को तुम्हें ही करना चाहिए।
सत्यप्येवं पथि बहुविधे संविधानानुषड़े, मुख्य स्वार्थप्रतिहतिभयादाशु गत्यावशेषम् । प्राप्याषन्तीनुवयनकथाकोविवग्रामवृद्धान्, पूर्वोद्दिष्टामुपसर पुरीं श्रीविशाला विशालाम् ।।१०९॥
सतीति । पपि मागें। भविषे अनेक प्रकारके । एवं कथितरीत्या । संविधा. मानुषङ्ग अनुषजनमनुषङ्ग सम्पर्कः संविधानस्य कार्यान्सरस्य अनुषन स्तस्मिन् । सत्यपि तथापि । मुख्य स्वार्थप्रतिहतिभपात प्रधानभूत स्वप्रयोजनभाभीते । 'अर्थोभिधेयरैव स्तुप्रयोजन निवृत्तिषु' इत्यमरः । अवशेषम् अबशिष्टमार्गम् । आशु शीघ्रम् । गया। उपयनकथाकोषिवनामवृद्धान् विम्दतीति विक्षाः 'शाकुगप्रीगुपान्त्याकः' इति क प्रत्ययः । ओकसो घेद्यस्यानस्थ विधाः कोविदाः 'पृषोदरादित्वादोकारो लुप्तः साधुः ।' उदयनस्य वत्सराजस्य कथानां वासक्यतापहरणाधुपाश्याना कोविधाः परिज्ञानिन: ग्रामेषु में श्रद्धा वीर्घवयस्काः तपोक्ताः उदयनकथाकोविदाः ग्रामवृक्षाः पेषु तान् । अवम्तीम अवन्तीनाम जनपवान् । प्राप्य गत्वा । पूर्वोद्दिष्टा प्रागुक्ताम् । भीषिक्षालो सम्पतिशालाम् । विशाला उज्जयिनी पुरीम् । 'विशालोजयिनी समा' इत्यभिधानात् । उपसर ग्रज ॥१०९।।
अन्धय-पथि एवं बहुविचे संविधानानुषहगे सति अपि मुख्यस्वार्थ प्रतिहतिभयात् अवशेष आशु गत्वा उदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान् अवन्तीन् प्राप्य श्रीविशाला पूर्वोद्दिष्टां पुरौं। उपसर ।
अर्थ–रास्ते में इस प्रकार के अनेक करने योग्य कार्यों में लगे रहने पर भी प्रधानभूत अपने प्रयोजन का नाश होने के भय से शेष रास्ते की
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प्रथम सर्ग
१३९. जल्दी पार कर जहाँ के गांव के बूढे लोग उदयन की कथा के जानकार हैं, ऐसे अवन्ति देश में पहुँचकर विशाल सम्पत्ति वाली पूर्वोक्त उज्जयिनी को जाओ।
ध्यावालं भुवनहितां तां पुरीमुत्तद्धि, लक्ष्म्याः शश्वन्निवसनभुवं सम्पदामेकसूतिम् । स्वरुपीभूते सुचरितफले स्वर्गिणां गांगतानां, शेषः पुण्यैः कृतमिव विवः कान्तिमत्खण्डमेकम ॥११॥ ध्याषणेति । स्वणि देवानाम् । सुचरितफले सम्बरितफन रखोपभोगलक्षणे । स्वस्पीभूते अल्पे सतीत्यर्थः। गो गतानाम् इलामितानाम् । पुनरपि भूलोकभाजानि त्यर्थः । 'गरिलाकुम्भिनी क्षमा' इत्यमरः । यो स्वर्गोपभोगावशिष्टः । पुण्यैः सुकृतः । कृतं विहितम् । कान्तिमत् कान्तिरस्यास्तीतिकाम्तिमत् सारभूतमित्यर्थः । एक मुख्यम् । 'एके मुख्यास्यकेवलाः' इत्यमरः । निवः स्वर्गस्य मणमिव भागामिवेत्युत्प्रेक्षा । प्रतिभासनानामिति शेषः । भुवनहितां लोकपूजिताम् । उत्तमद्धिम् उत्तमाऋदिमवर्य यस्यास्ताम् 1 लश्म्याः रमायाः । शश्वग्निवसनभुवम् अनवरतनिवासभूमिम् । सम्पदा सम्पत्तीनाम् । एकसूति मुख्यप्रसव स्थानम् । तां पुरोम् विशालाक्यनगरीम् । व्यावर्ण्य वर्णयित्वा । भलं पर्याप्तम् । भवागोचर महिमत्वात निःोषं वर्णयितु न शक्येत्यर्थः ॥११०॥
अन्वय-तां भुवन महिना उत्तमद्धिं लक्षम्याः शश्वन्निवसनभुवं, सम्मका एकमूति, सुपरितफले स्वरूपीभूते गां गतामा स्वर्गिणां पोषः पुष्पः दिवा हृत एक कान्तिमत् खण्डं इव तां पुरी व्यापमं अलम् ।
अर्थ-लोकपूजित, उत्तमऋशि वाली, लक्ष्मी का सदाकालिक निवासस्थान, सम्पत्तियों का अद्वितीय उत्पत्ति स्थान, पुण्यफल के क्षीण हो जाने पर पृथ्वी पर आए हुए देवों के अवशिष्ट पुण्यों द्वारा स्वर्ग से लाए गए, स्वर्ग के एक उज्ज्वल टुकड़े के समान उस उज्जयिनी नगरी का वर्णन ( इतना ही ) पर्याप्त है।
पस्यामुफचरुपवनतनामयन्मातरिश्वा, वीचिक्षोभावधिकशिशिरः सञ्चरत्यकणौधः । वोघोकुर्वन्पटु मवकलं कूजितं सारसानां,
प्रायूषेषु फुरितकमलामोवमैत्रीकषायः ॥१११।। १. हमिव ।
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पार्वाभ्युदय यस्यामीति । यस्था पूर्याम् ! उच्च उदग्रान् । उपवनतरून आरामदुमान् ! मानयन् संश्लेषं वितन्वन् । आनमन्निति इति पाठे समंता संपतन उच्च नमिपेन् प्रहीकुर्वन् । बौधिक्षोभात् तरङ्गकम्पनात् । अधिकशिशिरः अतीवशीतलः । सारसानां पक्षिविशेषाणाम् 'सारसी मैथुना कामी गोमी पुष्कहयः' इति यादवः । अथवा सारसानां हंसानाम् । 'पक्रसारसयोहंसः' इति शब्दार्णवे पटुमयकलं पटु प्रस्फुटं मदेनाब्यक्तमधुरम् । 'ध्वनौ तु मधुरास्फुटे कलः' इत्यमरः । कूजितम् । अकगौर्यैः जलबिन्दुनिचर्यः । दीर्घाकुर्वन् सम्भावयन् । प्रत्यूषेषु प्रभातेषु । 'प्रत्यूषोहमुखम्' इत्यमरः । स्फुटितकमलामोधमत्रोकषायः स्फुटितानां विकसिसाना कमलानाम् आमदिनपरिमलेन मैश्या संसर्गेण कषायः सुरभिः । रागद्रव्ये कषायोऽस्त्री नियासे रसे' इति यादवः । 'मातरिश्वा सदागतिः' इत्यमरः 1 सम्वरसि विहरति ॥११॥
अन्धय---उच्च: अवनतरून नामयत् धीनिक्षोभात् अषिकशिशिरः सारसानां पटुमदकलं कूजितं दीर्घाकुर्वन् स्फुटितकमलामोदमैत्रीकवायः मातरिश्वा यस्यां प्रत्यूषेषु अकणोधः सञ्चरति । ___ अर्थ-ऊँचे उपवन के वृक्षों को झुकाता हुआ तरङ्गों के क्षोभ से अत्यधिक ठंडा, सारसों के स्पष्ट और भद अध्यषत मराज को फैलाता हआ और विकसित कमलों के परिमल के सम्पर्क से सुगन्धित वायु जिस उज्जयिनी नगरी में प्रातःकाल भी जल विन्दुओं के समूह से युक्त होकर बहता है।
कल्लोलान्तर्यलनशिशिरः शोकरासारवाही, धृतोद्यानो मदमधुलिहां व्यञ्जयन्सिजितानि । पत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिमानुकूलः, शिप्राबातः प्रियतम इव प्रार्थना चाटुकारः ॥ ११२ ।। कल्लोलान्तरिति । यत्र पुर्याम् । कल्लोलान्तवलनशिशिरः तरङ्गमध्येबलनेन भ्रमणेग शिशिरः शीतलः । शोकरासारवाहो शीकराणामासारं वेगवद्वषं बहतीत्येवं शीलस्तथोक्तः धूतोचानः याम्पितोद्यानपवनः ! मदमधुलिहां मत्तमधुकराणाम् । सिजिलानि अन्यरतध्वनीन् । पम्मपन् प्रकाशयन् । शिप्रावासः शिप्रानाम् तत्पुरिकाचित् समीपगता नदी तस्याः बातः । प्रार्थना चाटुकारः प्रार्थना सुरत्तयाचना तत्र चाटूनि प्रियवचनानि करोतीति तथोक्तः । पुनः सुरतार्थ प्रियवचनयोजक इत्यर्थः । 'कर्मणोऽम्' इत्यण्त्यः 1 प्रियतम इव वल्लभ इव । स्त्रीण अङ्गनानाम् । अङ्गानुकूल: शरीरस्य सुखस्पर्शः । अन्यत्र गाहालिङ्गन स्पर्श सुखप्रद इत्यर्थः । सुरसग्लानि प्राक्तननिथुबनरवेदम् । हरति नुमति ॥ ११२ ॥
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प्रथम सर्व
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अस्य यत्र कल्लोलान्तसम्म शिशिरः शीकरासारखाही भूतोद्यानः मदमधुलिहतानि व्यजयम् प्रियतमः इन प्रार्थनाचाटुकार : अङ्गानुकूलः शिप्रावातः स्त्रीणां सुरतग्लानि हरति ।
जिसके
करने से ठण्डा, aari के समूह को बहा ले जाने वाला, उद्यान को कंपाने वाला, मतवाले भौरों की मधुर जारको प्रकट करता हुआ रमणको प्रार्थना के लिए प्रियवचन बोलने वाले प्रियतम के समान और शरीर को अनुकूल ( सुखकर स्पर्श से युक्त ) लगने वाला शिप्रानदी का पवन स्त्रियों की रतिक्रीड़ा के परिश्रम को दूर करता है ।
draणयाक्स किल कलहे युद्धशौण्डो 'मुरुण्डः, प्रचोतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजोऽत्र जल्ले । हैमं ताल भवनमभूत्र तस्यैव राज्ञो, हासालापैरिति रमयति स्त्रीजमो यत्र बालान् ॥ ११३ ॥
I
तीक्ष्णस्येति । अत्र दृश्यमान प्रदेशे । युद्ध शौण्ड: युद्धे मत्तः । 'मस्ते क्षौण्डोत्कट क्लीखाः' इत्यमरः । सुदण्डः सः वत्सराजः । 'वंशराजः' इत्यपि पाठान्तरम् । उदयनराज इत्यर्थः । कलहे रणे । प्रद्योतस्य प्रद्योतनाम्नः उर्जायनीपतेः । तीक्ष्णस्य क्रूरस्य । मरेः शत्रोः प्रियदुहितरं वासवदत्ताभिधां प्रियपुत्रीम् । जलं किल जहार किल । मत्र एतत्प्रदेशे । तस्यैव राज्ञः वत्सराजस्य । हेमं सुवर्णमयम् 'हेमादिभ्योऽञ्' इति अनृत्यः । तालब्रुमवर्भ तालवृक्षारण्यम् । अभूत् अभवत् । इति एवमुपाख्यानेन । यत्र उज्जयिनी नगर्थ्याम् । स्त्रीजनः । बालान् अर्भकान् । 'बालस्तु स्यान्माणवकः ' इत्यमरः । ह्रासालापैः ह्रास्यवचनेः । रमयति क्रीडयति ॥ ११३ ॥ शैलं शैलप्रतिमवपुषा पोडयन्तुन्मदिष्णू, निघ्नन्व्याला कुपित समवर्तीय मेघं मरुत् । अत्रोभ्रान्तः किल नलगिरि: स्तम्भमुत्पाटय दर्पादिव्यागन्तून् रमयति जनो यत्र बन्धूनभिज्ञः ॥ ११४ ॥
शैलमिति । अत्र स्थले । शैल प्रतिमवपुषा क्ष्माभृत्सदृश शरीरेण बलवदे हेमेध्यर्थः । गिरिम् । पीडयन् मर्वयन् । उम्मविष्णून् उन्मदितुमिव उन्मदिष्णवस्ताम् । अतिमत्तानित्यर्थः । ' जन्मदिष्णुस्तुन्मदिता' इत्यमरः । कालान् दुष्टभृगान् । 'व्यालः सर्वे दुष्ट गजे श्वापदेना शठे त्रिषु' इति नानारत्नमालायाम् । कुपितसमदर्शी कुपित्तान्तकवत् । 'समवर्ती परेतराद्' इत्यमरः । निघ्नन् निहितन् १. नरेन्द्र इति पाठान्तरं ।
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१४२
पार्वाभ्युदय मेघं वारिवाहम् । मञ्जत् वायुरिव । नलगिरिस्तम्भ नलगिरिनाम शिलास्तभं । दर्यात् बलवत्त्वाहंकारात् । उत्पाट्य मामलुदधृत्य । उद्धांसः किल उद्भमति स्म किल । भूतानिहायकथाभिरिति शेषः । यत्र विशाला पुर्याम् । अभितः कथाकोविदः । अनो लोकः । आगन्सून आगम्मते हठावनेनागन्तुः 'स्थावावेशिक आगन्तुः' इत्यमरः । वेशान्तरादागतान् । बन्धून बान्धवान् । रमयति विनोदयति ॥ ११४ ।।
अक्षय-प्रिय ! सः युद्ध शौण्ड: मुरुण्डः वत्सराजः कलहे प्रद्योतस्य तीक्ष्णस्म अरे दुहितर मन्त्र किस जह्न । यत्र स्त्रीजन: बालान् हासालापः रमपति (तस्मिन्) अत्र ( प्रदेशे ) सस्य एव राज्ञ: हेमं तालद्रुमवनम् अभूत, इति शैल प्रतिमवपुषा शल पीड्यन् मेघ मरुद्धत् उन्मदिष्णून् ज्यालान् कुपित समवर्ती एव निम्नन नलगिरिः दर्यात् स्तम्भ उत्पादन अन्न उद्घान्तः किल 'इति च यत्र अभिज्ञः जनः आगन्तून् बन्धून् रमयति' ।। ११३-११४ ॥
अर्थ-हे प्रिय मित्र! वह युद्ध में प्रवीण महण्डों और वत्सों के राजा (पाश्वनाथ वो समय का कोई कौशाम्बी का राजा उदयन ) ने युद्ध में प्रकृष्ट तेज वाले उग्र शत्रु की पुत्री को इसो उज्जयिनी में हरण कर लिया था । जहाँ स्त्रियाँ हास्य और वार्तालाप द्वारा बालकों का विनोद करती हैं इस प्रदेश में उस राजा का सुनहरा ( अथवा शीतयुक्त ) तालवृक्षों का वन था । यहाँ पर्वत के समान शरीर द्वारा पर्वत को पीड़ा पहुंचाता हुआ वायु के समान मेघ को नष्ट करता हुआ उन्मत्त दुष्ट हाथियों को क्रोधित यम के समान नष्ट करता हुआ नलगिरि नामक हाथी अभिमान से बन्धनस्तम्भ को उखाड़कर घूम रहा था। इस प्रकार से कथा का जानकार पुरुष ( दूसरे देश से ) आए हुए बान्धकों का मनोविनोद करता है।
व्याख्या-नलगिरि एक पर्वत का भी नाम है। दमयन्ती की खोज में घूमते हुए राजा नल के चरणविन्यास से यह पवित्र हुआ था, अतः इसकी नलगिरि नाम से वैसी ही प्रसिद्धि हो गई जैसे राम के चरणविन्यास से रागगिरि की प्रसिद्धि हो गई थी। यहाँ नलगिरि का तात्पर्य है नलगिरि के शरीर के आकार रूप आदि को धारण करने वाला गजविशेष । नलगिरि इन्द्र के हाथी का भी नाम है, उसके समान नलगिरि नामक गज विशेष से यहाँ तात्पर्य है।
यस्यां बिभ्रत्यवनिपपथा रत्नराशीनुक्नाम्, शूर्पोन्मेयाजलधय इवापीततोया युगान्ते ।
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प्रथम सर्ग हारांस्तारांस्सरल 'घुटिकान्कोटिशः स शुक्तोः, शष्पश्यामान्मरकतमणीनुन्मयूख प्ररोहान् ॥ ११५ ॥
यस्यामिति । यस्याम उज्जयिन्याम् । अवनिपपया: राजमार्गाः । समासत्वादृक्पूः पध्ययोदित्यदन्तखम् । युगान्ते कालावसाने । 'पानाधङ्ग युगः युसि युग युग्मे कृतादिषु' इत्यमरः । आपीसतोया आपीत तोयं येषां ते शुभकजला इत्यर्थः । जलमय इव जलानि धोयन्ते येष्विति जलश्रयः समुद्राः । उचनान् उच्छितान् । 'उच्चप्रांशून्नतोदग्रोजितास्तु" इत्यमरः । शूर्पोन्मेयान् शूः प्रस्फोटनः उन्मातु योग्याः उन्मेयास्तान् प्रमाणाहन् ि । 'प्रस्फोटनं शूर्पमस्त्री' इत्यमरः । एकादिगणनया सङ्ख्यातुमशक्यामित्यर्थः । रत्नराशीन् मणिपृथ्जान् । 'पुजराशी तूकरः' इत्यमरः । तारान् शुद्धान् । 'तारो मुक्तादिसंशुधौ तरले शुञ्जमौक्तिके' इति विश्वः । तरलघुटिंकान् तरला धुटिका येषां तान मध्यमणिभूतमहारत्नवुतान् । 'तरलो हारमध्यगः' इत्यमरः । 'पिण्डे मणी महारत्ने घुटिकानदवारणे' इति शन्यार्णवे । हारान् मुक्तावलीन् । कोटिशः अनेकशः । कोटिः प्रकर्षचारानसंख्या पक्षान्त रेषु' इति भास्करः । शङ्ख शुक्तीः शङ्खश्च शुस्तयश्य तथोक्तास्ताः । उन्मयूख प्ररोहान् उदगतकिरणाकुरान । शष्पश्यामान शष्पवनद्धयामवर्णान् । 'शष्य बालतृणं चास:' इत्यमरः । बिभ्रति घारयन्ति ।। ११५ ॥
अन्वय-मस्यां अवनिपपथाः युगान्ते आपीततोमाः जलधयः इव शूर्पोन्मेयान सदग्रान् रत्नराशीन तरलगुटिकान् तारान् हारान् कोटिशः पाशशुस्तीः उन्मयूख'प्ररोहाम् शभश्यामान् मरकतमणीन् विभ्रति । ___अर्थ-जिस उज्जयिनी नगरी में राजमार्ग प्रलयकाल में शुष्क जल वाले समुद्रों के समान सूपों से नापने योग्य ऊँचे ऊँचे रत्नों के ढेरों, मध्यमणिभूत महारत्नों, शुद्ध मोतियों, हारों, करोड़ों शंख और सीपियों तथा ऊपर की ओर जाने वाली किरणों से सम्पन्न नवोन घास के समान हरे वर्ण वाले मरकतमणियों को धारण करते हैं !
भूयोनानाभरणरचनायोग्यरत्नप्रवेकाञ्, ज्योतिलेखारचितरुचिमच्छकचापानुकारान् । दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान्तिद्रुमाणां च भग्नान, संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस्तोयमात्रावशेषाः ॥ ११६ ।।
भूम इति । यस्यां विशालायाम् । भूयः पुनः । विपणिनितान् विपणिषु पग्यवीथिका सु रचितान् प्रसारितान् । 'विपणिः पायबीपिका' इत्यमरः । ज्योति- .. १. तरलगुटिकान् !
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पायाभ्युदय लेखारमितचिमच्छकचापानुकारान् ज्योतिखारचितं च तत् शक्रया प तयोक्स तदनुकुर्वन्तीप्ति तथोक्तास्तान् 'ज्योतिभियोलदृष्टिषु' इत्यमरः । नानाभएपरचना योग्यरत्नप्रक्षेकान नानाभरणानां विविधालङ्काराणां रचनाया निर्माणस्य योग्यानि सानि च तानि रत्नानि च तेषां प्रवेका उत्तमास्तान 'प्रवेकानुत्तमोत्तमाः' इत्यमरः । विमाणां प्रवालानाम् । 'अय विद्मः पुसि प्रवाल पुनपुंसकम्' इत्यमरः । भांश्च खण्डानपि । अष्ट्वा प्रेक्ष्य । तोयमात्राकोषाः तोयमात्रेण अवशेषाः सहिताः । सलिलनिषयः समुद्राः । संलक्ष्यम्से जनरूपमीयन्ते रस्नसम्पद्भिरत्नाकराप्यतिरिच्यते इति भावः ।। ११६ ॥ ___ अन्वय-भूयः यस्यां विगिरचितान ज्योतिलखारचित रुचिमच्छावापान कारान् नानाभरणरचनायोग्यरत्मप्रकान् विद्रुमाणां भङ्गाम् च दृष्ट्वा सलिणनिधयः तोयमात्रावशेषाः संलक्ष्यन्ते । ____अर्थ---पुनः जिस विशाला नगरी में बाजारों में रखे गए ज्योतिलेखामों से रचित, कान्तिमान् इन्द्रधनुष का अनुसरण करने वाले अनेक प्रकार के आभूषणों की रचना के योग्य रत्नोत्तमों को तथा मूंगा के टुकड़ों को देखकर समुद्रों में रालो जस पानशे? र नाम, ऐसा पसूम पड़ता है।
भाषार्थ- उस उर्जायनी के बाजारों में जब लोग अनेक प्रकार के रत्नों और मूगों आदि को देखते हैं तो ऐसा मालूम पड़ता है कि रत्नों आदि का अपहरण हो जाने के कारण समुद्र में केवल जल ही रह गया है।
विश्रम्योपर्वलभिषु पुरीं प्राप्य तामुत्तद्धि, स्वर्गावासप्रणयमुरीकृत्य सोधस्तथाऽस्पाः । जालोगीणरुपचितवपुः केशसंस्कारधूपैबन्धु प्रीत्या भवनशिखिभिदंत्तनुत्तोपहारः ॥११७ ।। विश्रभ्येति । उसमबिम् उत्तमा ऋद्धियस्यास्ता प्रवृद्ध सम्पत्तिम् ता पुरीम् विशालाम् । प्राय गत्वा । वलभिषु भवनाच्छादनेषु 'आच्छादनं स्यातुलभिहोगाम्' इति हलायुषः। उच्चः परम् । विश्वम्य मार्गश्रममपनीय । सौधः राजसवनः । 'सौधोऽस्त्री राजसदनम्' इत्यमरः । स्वर्गावासप्रणयं स्वगंनिलयवत्प्रमोदम् । उररी. कृत्य अङ्गीकृत्य । "करसूरी घोररी च विस्तोरङ्गी कृते त्रयम्' इत्यमरः । तथा तद्वत् ! जालोन्गौणैः गवाक्षमार्गनिर्गतः । 'जालं गवाक्षमानाये जालके च भटागणे' इति यादवः । केशसंस्कारधूपैः युवतिकेशवासना प्रयुक्त धुपघूमः । उपचितवपुः सञ्चितशरीरः । 'तिदिग्धोपषिते' इत्यमरः । भवनशिखिभिः गृहमयूरैः । 'पिखाबल: शिखी केकी' हत्यमरः । 'मन्यु प्रोत्या बन्धोः बन्धुरिति वा प्रीत्या बन्धुप्रीत्या । १. शुक्लापानसन्तोषफरत्वान्मेघस्य बन्धुत्व मुक्त ।
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प्रथम सर्ग
१४५ वत्सनसोपहारः यसो नृत्समेव उपहारी उपायनं यस्मै तथोक्तः । उपायनमुपग्राह्यमुपहारस्तथोपदा' इत्यमरः । स्याः भवेः ॥ ११७ ॥
स्वः सौधेषु प्रणयमचिरात्संहरिष्यस्यवश्यं, मन्द्रातोद्यध्वनिषु सततारब्धसङ्गीतकेषु । हर्येष्यस्याः कुसुमसुरभिष्यध्वखिन्नान्तरात्मा, नोत्वा' खेदं ललितवनितापादरागाडूितेषु ॥ ११८ ॥ स्वः सौष्विति । अस्था: उज्जयिन्याः । मन्द्रातोचण्वनिषुमन्द्रो गम्भीर आतोयानां ध्वनिः शम्यो येषु तेषु । सततारप्रसङ्गीतकेषु सततमारब्धं सङ्गीत येष तेषु । कुसुमसुरभिषु सुमनः सुगन्धिषु । ललितवनितायावरागास्तेिषु ललित. वनिताः सुन्धरस्त्रियः 'ललितम् सुन्दरम्' इति पाब्दार्णवे । तासा पादरागंण लाक्षारसेन अङ्कितेषु चिह्नितेषु हयेषु सोधेषु । अध्वन्मिन्नान्तरात्मा अध्वना मार्गेण खिन्नः अन्तरालमा यस्य सः तथोक्तस्त्वम् । खेवं श्रमम् । नीत्वा अपनीय । स्वः सौधेषु स्वर्गहम्र्येषु । प्रणयं स्नेहम् । अचिरात् शीघ्रात् । अवश्यं निश्चयेन । संहरिष्यसि अपहरिष्यशि : स्वर्ग सोधेभ्योपि विशापाराणि परमोत्कृष्ट नीति तात्पर्यम् ।। ११८ ।। __इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरु श्रीजिनसेनाचार्यविरचितमेघदूतवेष्टितर्वोष्टते पायाभ्युदये तवान्यायां च सुबोधिकाख्यायां प्रथमः सर्गः ॥१॥
अम्बय–ता उत्तमद्धि पुरीं प्राप्य, बलभिषु उच्च ः विनम्घ तथा अस्याः सौधः स्वर्गवासप्रणयं उररीकृस्य जालोद्गीर्णैः केशसंस्कारधूप : उपचितवपुः, भवनशिखिभिः अन्धुप्रीत्या दत्तनृत्तोपहारः मन्द्रातोयध्वनिषु सततारब्ध सङ्गोतकेषु कुसुमसुरभिषु ललितवनितापादराहिशेष अस्याः हम्मेषु अवखिन्लान्तरात्मा ( त्वं ) खेद नीत्रा स्वः सोधेषु प्रणयं अचिरात् अयश्यं सहरिष्यसि ।। ___अर्थ- उत्तम ऋद्धि वाली उस विशाला नगरी में जाकर भवनों के उपरितन भागों पर पूर्ण विश्राम कर तथा इस उज्जयिनी के मफेद प्रासादों से स्वर्ग में निवास करने की आकांक्षा स्वीकार कर गवाक्षों से निकले हए स्त्रियों के केशों को सुगन्धित करने बाले, धूपों से परिपुष्ट शरीर वाले तथा बन्धु के आगमन की प्रीति से भवन के मयूरों नत्यरूप उपहार प्राप्त करते हुए, मृदङ्गों की गम्भीर ध्वनि वाले, जिनमें सदा सङ्गीत होता रहता है, फूलों से सुगन्धित, सुन्दरियों के चरणों के लाक्षाराग से चिह्नित इस विशालापुरी के धनियों के भवनों में मार्ग पर चलने के परिश्रम से खिन्न मन वाले तुम श्रम को दूर कर स्वर्ग के भवनों में तीव्र आकांक्षा का परिहार निश्चय से शीघ्र करोगे ।
इति प्रथम सर्गः। १, अध्वक्षेदं नयेथा इत्यपि पाठः । २. लक्ष्मी पश्यन्, इत्यादयोऽपि पाठः ।
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अथ द्वितीयः सर्गः
इतः पादवेष्टितानिविश्रम्याथ क्षणमिव भवान्पर्यटेसंदिवृक्षुः, शोभा तस्याः शतमखपुरी हेपयन्त्याः स्वभूत्या । स्निग्यश्यामं वपुरुपवहन्नागराणां फणाभू
द्भः कण्ठसविरिति गणैः सादरं वोक्यमाणः ॥ १॥ विश्रभ्येति । अथ उज्जयिनीगमनानन्तरे । भवान् त्यम् । मणमिय अल्पकाल मिव । इन शब्दो वाक्यालङ्कारे । विषम्य श्रममपनीय । स्निग्यश्यामं मसृणश्यामलम् । वपुः गात्रम् । उपवहन स्त्रीकुर्वन् । मागराणां नगरजनानाम् । गणे: समहः । 'समवायश्च यो गणः' इत्यमरः । फगाभृभर्तुः फणां विभ्रति ते फणाभुतस्तेषां भनाथस्य 1 कण्ठम्छविः कण्ठस्य गलस्य छविः कान्तिः । 'भाएछबिद्युतिवीप्तयः' इत्यमरः । इति एवम् अभिप्रायेण । सावरम् । बीपमाष: दृश्यमानः सम् । शतमापुरीं शतमलस्य पुरी नगरीममरावतीम् । 'नगरी वमरावती' इत्यमरः । स्वभूत्मा निजसम्पया । भूतिभंसितमम्पदि इत्यमरः । पयारयाः विशम्बयन्त्याः तस्याः विशालायाः । शोभा कान्तिम् । संबिलः संदृष्टुमिच्छुः । पर्यटेत परितः समाचरेत् । भवादप्रयोगा वं विहरेत्यर्थः ॥ १॥
अम्बय-अथ क्षणमिव विनम्य स्निग्धश्याम वपुः उपवहन् फणाभृद्भतुः कण्ठच्छविः इति नागराणां गणेः सावरं वोक्ष्यमाणः स्वभूत्या पातमनपुरी हपयन्त्याः तस्याः शोभं संदिवृक्षुः भवान् पर्यटेत् ।।
अर्थ-अनन्तर क्षणभर विश्राम कर तेज से यक्त श्यामवर्ण शरीर धारण करते हुए नागों के स्वामी के कण्ठ की छवि के समान है छवि वाले इस प्रकार नागरिक समूहों के द्वारा आदर पूर्वक देखे जाते हुए, अपने ऐश्वर्य से इन्द्र नगरो अमरावती को लज्जित करने वाली उस उज्जयिनी की शोभा देखने के इच्छुक आपको नगर के चारों ओर भ्रमण करना चाहिए।
पूर्वं तावद्धयलितनभोभागमभ्रंलिहाग्रं, कैलासाविधियमिव हसन्मोहशत्रोनिहन्तुः ।
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द्वितीय सर्ग
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कर्मारीणां विजितमदनस्यार्हतः संचिचीषुः,
पुण्य यायास्त्रिभुवनगुरोर्धाम चण्डेश्वरस्य ॥२॥ पूर्वमिति । पूर्व नाथत् प्रथमं तावत् । तावच्छन्दो विधिवाचकः । याक्त्तावच्च साकल्येऽवधी मानेऽवधारणे' इत्यभिधानात् । कारीणां कर्माण्यष्टविधानितान्येवारयः शत्रस्तेषाम् । मोहशत्रोः मोहापरनामक कमवशवस्तस्य । निहन्तुः विनाशथितः । विजिसमवनस्य विजितो मदनो मन्मथों येन तस्य । मजेश्वरस्य ईष्टं जगदुद्धरणे समर्थों भवतीतोश्वरः नायकः मंडः कार्यातीतकः तीक्ष्ण इत्यर्थः । 'चंडस्त्वत्यंत कोपनः' इत्यमरः । चाचासावीश्वररुचेति कर्मधारयः । अथवा चण्डान्तम् उसतपोदीप्ततपस्तप्त तपोधोरतपोमहासपः प्रतिनिरुपमतपः शूराणां महामुनीनामीश्वरः प्रभुस्तस्य । त्रिभुवनगुरोः त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुवनम् । "दिगधीति' सज्ञा तद्धितोत्तरपदसमासः । 'पावसमितादयः' इति स्त्रीत्वनिषेश्वः । त्रिभुवनगुरोस्त्रिलोक नाथस्य । अर्हतः सहजाद्यतिशयविशेषमनन्त चतुष्टयं प प्राप्तुमहतीरमहन् शतृत्यस्तस्य जिनेन्द्रस्य । पलितनभोभागं धवलितो नभस आकाशस्य भागो मेन तत् । अलिहापम् अहितीत्यन लिहम् । 'बहानाहिलाहः' इति स्त्रम् । अन लिहमग्रं यस्य तद । कैलाशानिशियम अष्टापदगिरिसम्पदम् । हरिव उपहास कुबदिव । धाम स्थानम् । बैत्यालयमित्यर्थः । पुण्यं सुकृतम् । 'स्थानमम स्त्रिया पुण्यधेयसी सुकृतं वृषः' इत्यमरः । संचिती: सञ्चेतुमिच्छुस्सायोक्तः । सम्पादनरतः सन् । यायाः गलेः । अत्राहत: कर्मागेणां निहन्तुरिति सामान्यविशेषणेन सिद्धमपि मोहाक्रान्तेश्वराध विषयं मोहशत्रुनिहस्तृत्वं पराजितेश्वरादेर्मदनस्य विजयमपि विशेषेण प्रकटीकतु पुनर्विशेषणद्वयमाहेति भावः । कर्मारीणां मोहबोश्च निहन्तुषिजिलमदनस्याहतः चण्डेश्वरत्वं न दुर्घटम् । तदुक्तं समन्तभवस्वामिभिः'स्वदोषमूल स्वसमाधितेजसा निनाय यो निर्वयभस्मसारिकयाम् । जगाव तर जगतेऽपिमेनसा बभूव च ब्रह्मपवामृतेश्वरः' । यो म च याति विकार युवतिजनकटाक्षबाणवितोऽमि । स त्येव शूररो रणशूरो नो भवेच्छूर' इति ॥ २॥
__ अन्यय-पुण्यं सचिचोषः (स्वं ! पूर्व तावत् कारीणां मोहशत्रोः त्रिभुवनगुरोः अर्हतः धलितनभोभागं अभ्र लिहान कलासादिनियं हसत् इव धाम यायाः । ____ अर्थ -पुण्य का संचय करने के इच्छुक ( तुम ! पहले कर्म शत्रुओं में मोहात्रु के नाश करने वाले, काम को जीतने वाले, उन तप करने बालों में अग्रणी तीनों लोकों के गुरु अर्हन्त भगवान के मंदिर में जाओ, जो मन्दिर आकाश को बचल करने वाला है, जिसका अग्रभाग आकाश को छू रहा है और जो कैलाश पर्वत की शोभा पर मानों हँस रहा है। १. चण्डीश्वरस्पेत्यपि पाठः ।
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पाभ्युिदय व्याख्या-टीकाकारों ने चण्डेश्वर के कई अर्थ किये हैं जैसे--(१) उग्र तप करने वालों में अग्रणी । (२) क्रोधादि द्रव्यकर्म तथा भावकर्म का नाश करने वाले । (३) चण्ड (कषायों) का ईश्वर जीतने वाला (४) शीघ्र गामी मेघ का स्वामी । (५) तीक्ष्ण रूप से जगत का उद्धार करने में समर्थ ।
त सेवेथाः कृतपरिगतियाकिरन्पुष्पवर्ष, स्तोत्रीकुर्वन्स्तनितमभितो दुन्दुभिस्वानमन्द्रम् । वातोद्धृतरनिभुततरैरुत्तङ्गः पयोभि- . धूसोयानं कुवलयरजोगन्धिभिर्गन्धवस्थाः ॥ ३॥ तमिति । कुवलपरशोविनिः जसल ग इ। गोतानात्' इगि इ प्रत्ययः । थातीयूतः वायुना कम्पितः । अनिभृततरैः अततरः। उत्तरङ्ग उन्नततरङ्गो येषां तैः । गण्यवत्याः गन्धवतोनामनद्याः । पयोभिः वारिभिः । पूतोधामं धूतमुखानं यथा भवति तथा । कुतपरिगतिः परिलो गमनं परिगतिः । प्रदक्षिणम् कृता परिगतिर्येन सः। पुष्पवर्ष पुष्षाणां वर्ष पुष्पवर्ष वा पुष्पवृष्टिम् ज्याफिरन् प्रकिरन् । अमितः सर्वतः । 'समीपोभयनः शोघ्नसाकल्याभिमुखेऽभितः इत्यमरः । युभिस्थानमन्द्रं दुम्नुभोमा भेरीणां स्बान इव मान्द्रं गम्भीरम् । 'भेरी स्त्री दुन्दुभिः पुमान्' इत्यमरः । स्खनितं गजितम् । स्तोत्रीकुर्वन् प्रागस्तोत्रम् इवानी स्तोत्र करोतीति स्तोत्रीयन् स्तुति दधानः सन् । तम् अहंन्तम् । सेवेयाः भधाः ।। ३ ॥
अन्वय-(स्त्रं ) कृतपरिगतिः पुष्पवर्ष व्याकिरन् दुन्दुभिस्वानमन्द्रं स्तनित स्तोत्रीकुर्वन् गन्धदरयाः वातोद्भूसः अनिभसतरैः उत्तरङ्गः कुवल्यरजोगन्धिभिः पयोभिः तं तोद्यान सेवेथाः ।
अर्थ-(तुम ) प्रदक्षिणा देकर फूलों की तरह पानी की वर्षा करते अथवा उद्यान को हिलाकर पूथ्यों को वर्षा करते हए, भेरी को ध्वनि के समान गम्भीर गर्जना से स्तुति करते हुए, गन्धवती नदी की वायु से प्रेरित अत्यधिक चंचल तरङ्गों से युक्त, नीलकमलों को पराग से सुगन्धित जलों से उस उद्यान को कम्पित कर अर्हन्त भगवान् की सेवा करना ।
सत्यन्यस्मिन्सुरभिशिशिरस्वच्छतोयलवावी, नानास्वादौ पयसि पविते पोतिनस्त्वद्विनोदः । ध्याधूतस्तैः कथमिव भवेद्वारिभिर्गन्धवत्यास्तोयक्रीडानिरतयुदतिस्नानतिक्तमरुदिभः ॥४॥
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हितीपत
सतीति । अन्यस्मिन्नपरस्मिन् । सुरभिशिशिरस्वच्छतोयलवावी सुरभि सुगन्धि शिशिर शोतल स्वच्छ निर्मलं सुरभि च तत् शिशिरं व सुरभिशिशिरं च तत् स्वच्छ व सुरभिशिशिरस्वच्छ ख्रजकुंडादिवदन्यतर प्राधाम्येन विशेषणं व्यभिचारे कार्यमिति कर्मधारय । तोयं यस्य स तथोक्तः लंद आदिर्यस्य स हवादिः स बासौ हृदादिश्च तस्मिन् । नानास्वायो नानावित्रः स्वादुर्यस्य तस्मिन् । नानारस इत्यर्थः । पविते पवित्रीभूते । पूङ, पबने । 'श्लशोः' इति विविकल्पः । पूत पवितमिति विवासिद्धमित्यर्थः । सति योग्ये । पसि सलिले। पोतिनः पीतमनेन पूर्व पीती पीतवानित्यर्थः। तस्यपोतिनस्तद। क्तिनोडमोः सुबित्ति पयसः सप्तमी । तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतियते: तोयक्रीडासु निरतानाम् आसवतानां युवतीनां स्नानं स्नानीयं चन्दनादि द्रव्यं । 'स्नानीयभिषवे स्नानम्' इति यादवः । तेन तिषतः सुरभिभिः । कटुतिक्त कषायाद्याः सुरभीप्ति प्रकीर्तिताः' इति हलायुधः । मरुद्भिः पवनैः। व्याधूतः आकम्पितः । गन्धवस्याः सरितः सेवारिभिः सलिलेः । सलिनोवः जलक्रीडाघिनोदः । कमिव भवेत् किंवत्स्यात् । पश्यति शेषः ॥ ४॥
अन्बय --अन्यस्मिन् सुरभिशिशिरस्वच्छतोयलदादी नानास्वादौ पविते सति पनि पोतिनः स्वत् व्याधुतः तोयक्रीडानिरतयुवति स्नानतिक्तैः तः गन्धवत्याः पारिभिः विनोदः कथमिव भवेत् ।
अर्थ-गन्धवती मे भिन्न दूसरे सुगन्धित, पीतल तथा स्वच्छ जल वाले सरोवर आदि में अत्यधिक स्वादयुक्त, पवित्र तथा समीचीन जल का पान करने वाले तुमको वायुओं से अत्यधिक कम्पित, जलक्रीड़ा में आसक्त, युवतियों द्वारा प्रयुक्त स्नान की वस्तुओं से उत्पन्न सुगन्धों से युक्त गन्धवती के उन जलों में सन्तोष कैसे होगा? अर्थात् किसी भी प्रकार से नहीं होगा ?
भावार्थ-तुम्हें वहाँ विलम्ब नहीं करना चाहिए। द्रष्टुवाञ्छा यदि च भवति प्रेतगोष्ठी विचित्रां, तिष्ठातिष्ठन्नुपरिनिपतद्गध्रबन्धाधिकारे । दोषामन्येप्यहनि नितरां प्रेतगोष्ठीति रात्रेरयस्मिञ्जलपर महाकालमासाझ काले ॥५॥
दृष्टुमिति । हे जलधर हे मेघ । विचित्रो विविधाम् । प्रेसगोष्ठो परेतगोष्ठीम् । *परत प्रेतसंस्थिताः ।' समज्यापरिषद गोष्ठी' इत्भयत्राप्यमरः । वृष्टु अवलोकितुम् । भवत: तव । वाञ्छा अभिलाषः । यदि भवति चेत् तहिं 1 महाकाल महाकालाभिधानम् तत्पुरोसम पगतमरणम् आसाब गरवा । अन्यस्मिन्नपि काले
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पार्वाभ्युदय अपरस्मिम्मिति सममे । असिष्छन् अबसन् सन् । उपरिनिपत भयवान्धकारे उपरि निपतन्ति तथोमताः ते च ते प्रधाश्च तर्बद्धो रचितोन्धकारो यस्मिन् तस्मिन् । नितराम अत्यन्तम् । बोकामन्यपि रात्रिसदशेोप । 'कस्सखः' इति सत्यः । सिस्वातश्यः । अनम्यमस्मेति वचनान्न मम हस्यौ । महनि विवसे । 'स्रो दिनाहमी' इत्यमरः । रात्रे निशायाः । प्रेतगोष्ठीति परेतगोष्ठीति बुध्वेति शेषः । सिष्ठ आस्स्व । निशाया अतिभयङ्करस्वात् तदा अवसन् दिवस एवं स्थित्वा पश्येति भाव ।। ५ ॥
अन्यय-हे) जलघर | यदि च विचित्रां प्रेतगोष्ठी दृष्टु वाञ्छा भवति उपरिनिपसद्गुध्र बान्धकार दोषामन्य अहनि अपि नितरां प्रतगोष्ठी इति रात्रे अन्यस्मिन् अपि काले महाकाले आसाथ अतिष्ठन् तिष्ठ ।
अर्थ-हे मेघ ! यदि आश्चर्य को उत्पन्न करने वाली प्रेतों की गोष्ठी देखने की इच्छा है तो महाकाल बन के ऊपर आकाश में उड़ते गीधों के द्वारा किया गया है अन्धकार जिसमें इस कारण रात्रि समान दिन में भी अत्यधिक रूप से प्रेत गोष्ठी होती है अतः रात्रि से भिन्न समय में भी महाकाल वन को पाकर ( अधिक ) समय न बिताते हुए ठहो ।
तस्माज्जीर्णद्रुमशत बृहत्कोटरान्तः प्रबद्ध, ध्वानोलक प्रतिभयरवे प्रेतशोकातिरौद्रे । तस्योपान्ते परिणतशिवारब्धसांराविणोग्ने, स्थासष्य ते नयनविषयं यावत्येति भानुः ॥६॥ तस्मादिति । तस्मात् कारणात् । जोणंद्रुमशतवृहत्कोटरान्तः प्रबद्धवानोलकाप्रतिभयरके जीर्णानां द्रुमाणां वृक्षाणाम् अनेकानाम् बृहतः पृथुलाः कोटरा: निष्कुहास्तेषामन्तमध्यं तत्र प्रबद्धो ध्वानो येषामुलूकानां तेभ्यः प्रति भयो भयङ्करो खो ध्वनियस्मिन् तस्मिन् । 'निष्कुहः कोटर वाना' 'उलूकस्तु वायसारातिपेचको । 'भयधुरं प्रतिभयम्' इत्यमरः । प्रेतयोफातिरो प्रेतानां शबानां शाफेन एवमथुना 'शोफस्तु स्वयथुः शोशः' इत्यमरः । अतिरौद्रे 'रौद्रं तूयम्' इत्यमरः । परिणतशिवारस्पसाराविणोप्ने शिवाभिः क्रोष्ट्रोभिः आरम्प कृतं साराविणं निः सपूर्वस्म
शब्दस्य इति पातोः व्याप्ती भावे नजिनिति जिन् । 'अजिनोऽण्' इत्यण् । 'ञ्णिस्पस्या' इत्यात् । 'आरबोदवादेः' इत्यारे । 'दिवा हरीतको क्रोष्ट्रो शमीनद्यामलक्युमा । शिवो घोरे पद्मरागें हरकोलं शिवं जले' इति वैजयन्ती । सस्य महाकालबनस्म । उपास्ते समीपे प्रेतबने । यावत यावत्कालेन । भानुः सूर्यः । नयनविषयं दृष्टिगोचरम् । अत्यति अतिक्रमति अस्त गन्तीत्यर्थः । उत्तदोनित्य सम्बन्धात्।
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द्वितीय सर्ग
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तावत् आसमयात् । 'पावत्तावन साफल्य बघौमानेवधारणे' इत्यमरः । ते स्थातव्यम् । वानाकक्त ध्यप प्राप्तः कतु रिति विकल्पिता षष्ठी। स्वया स्थातव्यमित्यर्थः ॥६॥
अत्यय-तस्मात् यावत् भानुः ते नयनविषयं अत्यति ( तावत् ) तस्य जीणंद्रुमशतबृहस्कोटरान्तः प्रयुद्ध्यामोग्लूकप्रतिभयरवे प्रेत शोफातिरौद्रे परिणत शिवारब्धसाराविणोये उपान्ते स्थातव्यम् ।
अर्थ-अतः जब तक सूर्य तुम्हारे नेत्रों के विषय का उल्लंघन करता है अर्थात् जब तक सूर्य अस्त नहीं होता है तब तक उस महाकाल बन की पुराने सैकड़ों ( बहुत से ) बड़े कोटरों के मध्य रुके हुए उल्लुओं के शब्द से युक्त भयोत्पादक शवों के सूजने से अत्यन्त भयङ्कर शृगालिओं द्वारा की गई वृद्धिंगत दिगन्तव्यापी ध्वनियों से भयानक समीपवर्ती भूमि में तुम्हें ठहरना चाहिए।
विद्यासिद्धि प्रति नियमिनो धौतवस्त्रस्य मन्त्रहूं फुकारैः पितृवनमभिभ्राम्यतः स्वैविशग्दै । पूजामाप्तास्यनधमधुरैः साधकौघस्य तस्मिन्, कुबंन्संध्या बलिपटहतां शूलिनः श्लाघनीयाम् ॥७॥ विद्यासिद्धिमिति । तस्मिन् महाकाले । विद्यासिद्धि मन्त्रादिसाधनम् । प्रति उहि श्य नियमिनः नियमोऽस्यास्सीति तस्य । 'नियमोनतम्' इत्यमरः । षोतवस्त्रस्य धौतं यस्त्र यस्य तस्य । हूपुकारैः एवंभूतबीजाक्षर संयुक्तः मन्त्रैः । पितृवर्म श्मशानम् । अभिभ्राम्यतः परितचलतः। शूलिनः त्रिशूलवतः । 'अस्त्री शूलं रुगायुधम्' इत्यमरः । सापकोषस्य मन्त्रसापकसमुदायस्य कापालिकनिवहस्येत्यर्थः । अनघमधुरैः निरवप्रियः । स्वः स्वकीयः । विशम्वैः ध्वनिभिः । 'क्षुब्धस्वान्तध्वान्त' इत्यादिना श्वनो विशब्देसि क्तान्ते साधुः । सम्पायलिपटहा सन्ध्यायां यो भूतबलिस्तषीयते तस्य परहतां भेरीनिनादरूपम् । कुर्वन् सम्भावयन् । श्लाघनीयो प्रशस्याम् पूजा सम्मानम् । आप्तासि लब्धासि । 'आप व्याप्ती' लुट् मध्यमपुरुषः ॥७॥
अन्वय---तस्मिन् विद्यासिद्धि प्रति नियमिनः धौतवस्त्रस्य हफकार मन्त्रः पितृवनं अभिन्नाम्यतः शूलिनः साधकीचस्व स्वैः अनघमधुरैः विरिधः सन्ध्याबलिपटतां कुर्वन् लाधनीयां पूजां आप्तासि ।
अर्थ-उस महाकाल वन में विद्यासिद्ध करने रूप व्रत में लगे हुए, १. विरिब्धः।
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पाश्र्वाभ्युदय श्वेतवस्त्रधारी, ह्रकार बीजाक्षर स्वरूप मन्त्रों के साथ श्मसान में भ्रमण करते हुए, शलधारी साधक समूह के अपनी निर्दोष और प्रिय ध्वनियों द्वारा सन्ध्यापूजा के अवसर पर मृदंग का काम करते हुए तुम प्रशंसा के योग्य सम्मान प्राप्त करोगे।
भावार्थ हे मेघ ! उस महाकाल बन में मृदंग के समान ध्वनि करते हुए आप साधक समूह द्वारा प्रशंसनीय पूजा प्राप्त करेंगे। साधक समूह उस समय विद्या सिद्ध करने रूम व्रत में लगा हुआ ह्रफुकार स्वरूप बीजाक्षर मन्त्रों के साथ उमसान में भ्रमण करता हुआ तथा त्रिशूलधारी होगा।
तत्रास्त्यन्तर्वणमपभियामासितं सन्मुनीना, जनं वेवम स्तुतिकलकलादात्ततन्नामरूढि । तं सेवित्वा स्तनितपटहैरुच्चरब्रिस्त्वमुच्चै -
समन्द्राणां फलमविकलं लपस्यसे गजितानाम् ॥८॥ तति । तत्र अन्तर्वणं महाकालवनस्य मध्यप्रदेदो । वनस्यान्तः अन्तर्वणम् "पारेमध्यान्तः षष्ठयाः' इत्यव्ययीभावः । 'प्रान्तः' इत्यादिना बनशब्दस्य णत्वं निपात्यते । अपभियाम् अवगता भीभये येषां तेषाम् । 'भीतिभॊः साध्वसं भयम्' इत्यमरः । सम्मुनीनां सन्तश्च ते मनमश्च तेषाम् । आसितम् । ‘फ्तस्य सदादारस' इति षष्ठी । मनिभिः संश्रितमित्यर्थः । स्तुतिफलकलात् स्तोत्रकोलाहलात । 'स्तवः स्तोत्रं स्तुतिर्नु तिः । 'कोलाहल; कलकल:' इत्यु भयत्रायमरः । आत्तसम्मामहडि आत्ता प्राप्ता तन्नाम फलकलजिनालय इत्यभिधानस्य रूढ़ि: प्रसिद्धियेन तत् । जैन बिनस्येदं जनम् अहंदीश्वरसम्बद्ध । वेश्म आलयम् । अस्ति वर्तते । उपचभिः ध्वद्भिः । स्तनितपटहें। स्तनिताये पटहास्तः। जिनम् । सेवित्या आराध्य । त्वं भवान् । आमाहाणाम् ईषद्गम्भीराणाम् । गजितानां स्तनितानाम् । अविकलं अखण्ठम् । फलम् इष्टप्राप्तिम् । उचः स्फुटम् । लप्स्यसे प्राप्स्यसि । 'मुलभिष् प्राप्ती' इति धातोलृट् । 'यरलाभ्यः' इतीण निषेषः ॥ ८॥
अन्वय-- अन्तर्वणं अपभियां सन्भुनीनां आसितं स्तुतिफल कलात् आत्ततन्नामहहिं जैन वेश्म अस्ति । तं उच्च रभि स्तनितपरह: सेवित्वा गजितानां अविकलं फल लास्यसे ।
अर्थ-महाकाल वन में वन के मध्यभाग में निर्भय और आगम के अनुसार आचरण करने वाले मुनियों का निवासस्थान तथा मुनीश्वरों की स्तुति जनित कलकल ( कोलाहल ) को ध्वनि से 'कलकल' इस नाम
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द्वितीय सर्ग
१५३ से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ जैन मन्दिर है । उन जिनेन्द्र भगवान् का उच्चारण करते हुए जित ध्वनि रूप मृदङ्गों से सेवाकर गंभीर गर्जनाओं के सम्पूर्ण उत्कृष्ट फलों को तुम प्राप्त बार लोगे।
सायाह्न चेत्तदुपगतवान्मार तत्कालपलासङ्गीतान्ते श्रमजलकर्णराचितानीः सुकण्ठीः । मन्दं यान्तीश्चतुरगणिकाः शोकरैः सन्नयेस्त्वं, पावन्यासक्य णितरसनास्तत्र लीलावधूतः ॥९॥
सायात इति । तत्र वने सायाले सायं च तत् अहरच' साया तस्मिन् । 'संख्याव्ययसाशात्' इति अट् । अलादेशश्च तबाम । तजितनश्म ! उपगतवान् गतश्चेत् यदि तीहं । तत्कालपूजा सङ्गीतान्ते स बासौ कालच तस्मिन् कृता था पूजा तस्याः सङ्गीतस्पान्त सन्ध्यापूजावसाने। श्रमजलकर्णः स्वेदजललवः । आचिताङ्गीः भाजितं व्याप्तमङ्ग' यासां नाः । मन्दं शनैः । यान्तीः पान्तीति यारयस्ताः । शतृत्वः । “नदुग्' इति ड्रो पावभ्यालणितरसना: पादम्यासे: चरणक्षेपः क्वणिता रणिता रसना काञ्चीदाम यासां लाः । 'स्वीकट्या मेखलाकाञ्ची सप्तकी रसना तथा 'इत्यमरः । क्वणन्तरतत्कर्मत्वात् 'गत्यकर्मण्याधारे' इति कतरिक्तः । सुकण्ठी: चतुरगणिकाः प्रौढदेश्याः । त्वं भवान् । लीलावतः विलासावकीणे: । 'हेलालीलेत्यमी हावाः' इत्यमरः । शोकरः अम्मणः । सम्नः लालयेः ।।९।।
अन्वय-तत्र सायाह्न तत् धाम उपगतवान् चेत् तत्कालपूजा सङ्गातान्ते श्रमजलकर्णः आषिताङ्गी: सुकण्टी; मन्दं यान्तीः पादन्यासक्यगित र सनाः चतुरगणिकाः लीलावधूतः शीकरः त्वं सन्नयेः ।
अर्थ--महाकाल वन में सन्ध्या के समय वह कलकल जिनालय नामक मन्दिर यदि तुम्हें प्राप्त हो तो सन्ध्याकालीन पूजा के सङ्गीत के अन्त में श्रम के जलकणों में व्याप्त अङ्गों वाली, सुन्दरकण्ठों से युक्त, धीरे धोरे. गमन करने वालो तथा चरणनिक्षेपों में जिनको करनियों का शब्द हो रहा है ऐसी चतुरगणिकाओं को क्रोड़ा के लिए प्रक्षिप्त ( विकोणं ) जल बिन्दुओं से सिक्त करो।
भावार्थ-हे मेघ ! महाकाल वन में यदि संध्या के समय तुम जैन मंदिर में पहुँचो तो संध्याकालीन पूजा के बाद स्वेदबिन्दुओं से भोंगो हुई, धीरे धीरे चलती हुई, अपने चरणनिक्षेप के साथ करधनी का शब्द करती हुई, कोमल कण्ठ बाली चतुरगणिकाओं को तुम लीला में बिखरे हुए जलकणों से सिक्त करना ।
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पार्वाभ्युदय तास्तत्राहर्मणिमयरणन्नपुराः पण्ययोषाः, प्रोद्गायन्तीः सुललितपदन्यासमुद्भूविलासाः । पश्योत्पश्या नवजलकणद्विसिक्ता विलोला, रत्तच्छायाचितवलभिश्चामरैः फ्लान्तहस्ताः ॥ १० ॥ ता इति । तत्र जिनालये । अहः त्वद्गमनसमयो दिवा चेदित्य स्याहियते । मणिमयरणन्नपुराः रणन्नश्चते नुपुगश्च तथोक्ता: मजीरो नूपुरोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः | मणिमया रणनपुगः यास ताः। सुललितपदन्यासं पदानां शब्दरूपाणी चरणानां वा । 'पदं व्याजानित घिसत्राणलक्ष्मसु' इति भास्करः । न्यास: रचनाविशेषः तथोक्तः । सुललित: पदन्यासो यस्मिन्कर्मणि तत् । प्रोगायती: गानं कुर्वन्सीः । उद्धृषिलासा: 5 बोबिलासः सूविलासः उद्गतो 5 विलासो थासां ताः। रत्नच्छायाखमितालीम यासरः रवाना कमाना छाया यत्या खचिता मिश्रिता वलयश्यामरदण्डा येषां तेः । 'बलिश्चामरद चर्मणि इति विश्व: । चामरैः प्रकीर्णकः । 'चामरं तु प्रकीर्णकम्' इत्यमरः । पलाम्तहस्ताः श्रान्तपाणयः । एतेन देशिकन शितम् । तदुवतं नुत्यसर्वस्वे-'खगफन्दुकवस्त्रादिण्डिका चामर वजः । द्रोणादि धुत्वा यत्कुर्यान्नत्यं तद्देशिक भवेत्' इति । नवजलकणविसिक्ताः नवीनलिलशीकराणां हो वा त्रयो वा द्वित्राः 'सृज्वार्थः' इति समासः । 'प्रमाणे सत्यान्तः' इति उप्रत्ययः । 'डित्यन्त्याप्रादे:' इत्यन्त्योदलकतैः सिक्ताः । स्त्रयति शेषः। विलोला: चञ्चलाः। उत्पश्या: उत्पश्यन्तीति तथोक्ताः । 'पानाध्मा' इति पक्ष्यादेशः । ताः पथ्ययोषितः गणिकाः । पश्य अवलोकय ॥१०॥
अन्वय-तत्र अहर्माणमयरणन्नूपुराः सुललितपदन्यासं प्रोद्गायन्तीः उद्ध् - विलासाः उत्पश्याः नवजलकणिकाद्विअसिक्ताः विलोलाः रत्नच्छाया खचितवसिभिः चामरः क्लान्तहस्ताः ताः पण्ययोषाः पश्य |
अर्थ-महाकाल बन के अंदर स्थित कलकल जिनालय में सूर्यकान्तमणि से निर्मित शब्द करते हुए नूपुरों वाली, मनोहर पदन्यास से युक्त, ऊँचे स्वर से गान करने वाली, चरमसीमा को प्राप्त भौहों के बिलास वाली, कार की ओर देखने वाली, नए जलकणों से दो या तीन बार सींची गई, चञ्चल अथवा अत्यधिक शोभायमान, रत्नों से खचित दण्ड वाले चामरों द्वारा जिनके हाय थक गए हैं, ऐसी उन नृत्य करने वाली वेस्याओं को देखो।
भावार्थ--हे मेघ ! यदि तुम जिन मंदिर में पहुंची तो तुम्हें वहाँ मणियों
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द्वितीय सर्ग
१५५ से युक्त तथा बजते हुए नूपुरों वाली, सुललित पदन्यास के साथ गाती हुई, भ्रूविलासयुक्त, रत्नजटित दण्ड वाली, चामरों से थके हुए हाथों वाली, वर्षा के नवीन बिन्दुओं से सिक्त तथा चंचल और ऊपर की ओर देखती हुई गणिकाएँ देखने को मिलेंगी।
त्वां तत्राहद्भवनवलभेरूज़भागे निषण्णं, सन्ध्यारागच्छुरितवर्ष विधुदुभासिवण्डम् । ब्रक्ष्यन्ते ता विरचितमिव ब्योम्ति लीलावितानं,
वेश्यास्वत्तो नखएवसुखान प्राप्य वर्षाग्रनिन्दन ॥ ११॥ स्वामिति । तत्र जिनालये । स्वसः स्वत्सकाशात् । नक्षपद्सुखान् नक्षपदेषु. सुरतजनितनखक्षतेषु सुखानु सुखकरान् । 'सुलहेतो सुखकरः' इति शब्दार्णवे । वर्षागजिन्दून घृष्टि प्रथमजलकणान् । प्राप्य लब्ध्वा । एताः वेश्या: पण्यस्त्रियः । भाई-बबनवलभः जिनालयस्यबलभेः बक्रदारण: । 'गोपानसौतुवलभी छादने वक्रदारुणि' इत्यमरः । ऊभा और मागे 1 अण्णम् पनि । सासन तवपुर्ष सन्ध्याया रागेण छुरित मिश्रितं वपुः शरीरं यस्य तम् । विद्युकुद्भासिदा विधुदेवोभासी प्रभास्वरो दण्डो यस्य तम् । व्योम्नि आकाशे। विरचितं निमितम् । लोलावितरनमिव बिलासष्यमिव । 'अस्त्रीवितानमुल्लोचो दुष्पाञ वस्त्रवैश्मनि' इत्यमरः । प्रक्ष्यन्ति प्रेक्षिष्यन्ते ।।११॥
अन्वय--तत्र ताः वेश्याः त्वत्तः न रखपदसुखान् वर्षान विन्दुन प्राप्य अर्हवनबलभेः ऊर्च भागे निषण्णं सम्ध्यारागसरितवर्ष विचमासि दण्डं लां योम्नि विरचित लीलाविसानं इव दयन्ति ।
अर्थ-कलकल नामक जिनालय में नृत्य करती हुई वे वेश्यायें तुमसे नखक्षतों को सुख देने वाले वर्षा के प्रथमविन्दुओं को पाकर अर्हन्त भगवान् के मंदिर की छत के ऊपरी भाग में बैठे हुए संध्या की लालिमा मिश्रित शरीर वाले, विद्युत के द्वारा अपने शरीर को प्रकाशित करने वाले तुम्हें आकाश में रचे गये लीला मण्डा के समान देखेंगी।
भूयश्च स्वस्तनितचकिताः किस्विदित्यात्तशङ्काः, किञ्चित्तिर्यग्वलितवदनास्तत्र पण्याजनास्ताः । बद्धोत्कम्पस्तनतटलुठल्लोलहाराः सलीलानामोक्ष्यन्ति त्वयि मधुकरणिवीर्घान्कटाक्षान् ॥ १२ ॥ भूय इति । भूयश्च पश्चात् । तत्र जिनालये। स्वास्तमित अषिताः सव
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पार्वाभ्युदय गजितेन कम्पिताः । किस्विविति किमिदमिति । आत्तशा गृहीता शङ्का याभिस्ताः। किञ्चित् ईगत् । लिम्वलितबदनाः तियंग्वलित वनितं वदनं यासां ताः । बडो. कम्पस्तनतटलुइल्लोलहाराः बद्धो रचित उत्क्रम्पी ययोस्ती च तो स्तनौ च तयोश्वलसतृष्णयोः' इत्यमरः । सलोलाः लीलया सह वर्तन्त इति तथोक्तास्तान् । ता: पण्यामनाः । स्वपि भवति । मधुकरश्रणियोर्धान् मधुकराणा भूशाणां श्रषिः मालेब दोस्तान् । कटाक्षान् अपाङ्गान् ।'अपाङ्गोमत्रयोरन्ते कटाक्षोपाङ्गदर्शने" इत्यमरः । आमोश्यन्ति आवजिलि । पौरुषकृताः सत्यः समः प्रत्युपकुर्वन्तीति भावः । ___ अन्वय-भूयश्च तत्र वस्तमितचकिताः किस्वित् इति आत्तशङ्काः किञ्चित्तिर्यग्वलितबदनाः बद्धोत्कम्पस्तनसटलुठल्लोलहारा ताः पण्याङ्गनाः त्वयि सलीलान् मधुकरणिवीन् कटाक्षान् आमोक्ष्यन्ति ।
अर्थ-पुनश्च उस कलकल नामक जिनालय में तुम्हारे गरजने से डरी हुई यह क्या है ? इस प्रकार शङ्का को प्राप्त हुई। मुंह को कुछ तिरछा घुमाए हुई. भव से उत्पन्न कपपी के कारण जिनके स्तन के तटवर्ती हार लोटने से चंचल हो रहे हैं ऐमी वे वेश्यायें तुम्हारे ऊपर भ्रमरों की पंक्तियों के समान दीर्घ कटाक्षों को छोड़ेंगी।
इत्यं भक्तिप्रकटनपटुस्तत्र चातोयगोष्ठी, कृत्वा मन्द्रस्तनितमुरवरध्वानमाविवितत्वन् । वन्दारूणां शृणु सुनिभूतस्तोत्रपाठं मुनीनां, पश्चाबुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः ॥ १३॥
इत्यमिति । इत्यम् अनेन प्रकारेण । तत्र चैत्यालये । भक्सिप्रकटनपटुः भक्तेगुणानुरागस्प प्रकटन प्रकाशे पश्चतरः । मन्दस्तनितमुखवानं मन्द्र स्तनिता मेत्र मुखस्य मुरजस्य धाने ध्वनिम् । आधिवितम्वन् प्रादुः कुर्वन् । 'प्रकाशे प्रादुर्णवः स्पात' इत्यमरः । आसोधगोडी च वाघ्रगोष्ठीमपि । कृत्वा विधाय । पश्चात बाध गोष्ठ्यनन्तरम् । उच्चः महत् भुजत हवनं भुजतरूणां वृक्षविशेषाणां वनं सदुपवनम् । मण्डलेन मण्डलाकारेण | अभिलीनः अभितो व्याप्तः सन् । कर्तरि क्तः । वारूणा बन्दनशीलानाम् । ‘वम्दारुः' इत्यामः । मुनीनां यतीनाम् । सुनिभूतस्तोत्रपाठं सुनिश्चलस्तुतिपठनम् । शृणु अति विषय विधेहि ॥ १३ ॥
अन्यय-पश्चात् च तत्र इत्यं भक्ति प्रकटनपट्टः आतोधगोष्ठी कृत्वा मन्द्रस्तमितमुरवरध्वानं आविवितन्त्रन् उच्च जतरुवन अभि मण्डलेन लीनः बन्दारणा मुनीनां स्तोत्रपाठं सुनिभृतः ( सम् ) शृणु ।
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द्वितीय सर्ग
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अर्थ - अनन्तर उस कलकल नामक जिनालय में इस प्रकार भक्ति को प्रकट करने में समर्थ बीणा आदि चार प्रकार के वादित्रों के संलाप को करके गम्भीर गर्जना बाली मृदंग की ध्वनि को प्रकट करते हुए ऊँची डालों से युक्त वृक्षों के जंगल को मण्डलाकार व्याप्त करते हुए वन्दना करने वाले मुनियों के स्तुति पाठ को चुपचाप तुनों
तस्मिन्काले जलधरपथे स्वं वितत्य प्रहर्षा, द्विद्युद्दीपजिनमुपहरन्भक्तिभारावन त्रः द्रष्टासे त्वं दधदिव मुहुः स्वामिसेवानुरागं, सान्ध्ये सेजः प्रतिनवजपापुष्प रक्तं वधानः ॥ १४ ॥
जिने
तस्मिन्निति । तस्मिन्काले स्तोत्र अत्रणसमये । जलधरपथे आकागे । प्रहर्षात् सन्तोषात् । स्वं स्वरूपम् । वितर विस्तृत्व | भक्तिभारावनः भक्त्यतिशयेनावनम्रः नमनशीलः | नमकम्यजस्कन इति रः । विद्युदीपैः विद्युत् एव दीवास्तः । एनं प्रत्यग्रजपाकुसूमारुणम् । सान्ध्यं संध्यायां भवं सान्ध्यम् । तेजो दीप्तिम् । 'तेजः प्रभावं दीप्ती च बले शुक्तस्त्रिषु' इत्यमरः । वघानः वहन् । मुहुः पुनः । स्वामिसेवानुरागं स्वामिनः जिनेश्वरस्य सेवानुरागं प्रीतिम् । दधविव दधातोति दधतु दधान इव । त्वं भवान् वृष्टासे दक्षिन्यसे । कर्मणि लुट् ॥ १४ ॥
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अन्वय - तस्मिन् काले जलधरपथे स्वं वितत्य भक्तिभारावनम्रः प्रत् विद्युद्दीपैः जिनं उपहरन् प्रतिनवजपापुष्परक्तं सान्यं तेजः दधानः स्वामिसेवानुरागं दधत् इव मुहुः दृष्टासि |
अर्थ-स्तोत्र सुनते समय अपने आपको आकाशमार्ग में फैलाकर, भक्ति के भार से नम्र होकर अत्यधिक हर्म के कारण विद्युत् रूपी दीपकों द्वारा जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करते हुए नए जपाकुसुम के समान लाल सन्ध्याकाल के तेज को धारण करते हुए मानों भगवान् जिनेन्द्र के प्रति सेवा के अनुराग को धारण किए हुए के समान तुम पुनः पुनः दिखाई दोगे ।
भक्ति कुर्वऽशतमख इवाविर्भवाद्दव्यरूपचित्रां वृत्ति स्वरसरचितां शैखिनों वा मनोज्ञाम् । कण्ठच्छायां स्ववपुषि वन्मास्मयन् साधुवाद, नुतारम्भे हर पशुपतेराईनागाजिनेच्छाम् ॥ १५ ॥ १. दृष्टासि ।
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पाश्वभ्युदय
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भक्तिमिति । शतमत व देवेन्द्र इव । श्राविर्भवदिष्यरूपः दिवि भवं दिव्यं तच्च तत् रूपं च तथोक्तम् आविर्भवतीति प्राधिर्भवत् दिव्यरूपं यस्य सः तथोक्तः । भक्त गुणानुरागम् । कुन् । स्वरसरथितां स्वसामर्थ्यंकृताम् । शृङ्गारादी विषे बीमें गुणे रागे द्रवे रसः' इत्यमरः । चित्रां नानारत्नविशिष्टाम् । सि वर्तनम् । वा अथवा | शैखिनों शिखिनो मयूरस्येयं शेखिनी ताम् । मनोशां मनोहराम् । कण्ठच्छायां ग्रीशचुतिम् । केवलनीकान्तिमित्यर्थः । वपुषि निजशरीरे । वहन् श्ररन् 1 साधुवादं प्रेक्षकजनश्लाघनोक्तिम् । 'जनोदाहरणं कीर्ति साधुवादं यशो विदु:' इति धनन्जयः । मास्मयन् अकुत्सयन् । पशुपतेः ईशानदिक्पतेः रुद्रस्य नृतारम्भे जिनेन्द्रदर्शनान्तरकृते आनन्दनर्तनप्रारम्भे । आर्द्रभागाजिनेच्छाम् आर्द्रा शोणिताद यन्नागाजिनं गजवमं । 'अजिनं चर्मकृत्तिः स्त्रीः इत्यमरः । तत्रेच्छां काङ्क्षाम् । हर व्या . भवेति तात्पर्यम् ।। १५ ।।
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अन्वय- शतमखः इव पशुपतेः भक्ति कुर्वन् आविर्भवद्दिव्यरूपः स्वरस रचितां दिव्यां वृत्ति मनोशां शेखिनीं कण्ठच्छायो वा स्ववपुषि वहन् नृत्तारम्भ साधुवाद यन् आनागाजिनेच्छामा स्म हर अथवा शतमत इव आविर्भवदिव्यरूरः भक्ति कुर्वन् स्वरस रचितां चित्रां वृत्ति वा दखिनों मनोशां कण्ठच्छायां स्वयपुषि बहुन् भास्मयन् पशुपतेः नृतारम्भे भाद्रंनागाजिनेाम् हर ।
अर्थ -- सौधर्मेन्द्र के समान मृग आदि प्राणियों के रक्षक भगवान् जिनेन्द्र की भक्ति करते हुए, दिव्य रूप को प्रकट कर अपनी इच्छा से रची गई दिव्य अवस्था अथवा मनोज मयूर के कण्ठ की कान्ति को अपने शरीर में धारण करते हुए नृत्य के आरम्भ में प्रशंसा को प्राप्त कर अपनी नए नागकेसर के फूलों (से जिन पूजन करने ) की इच्छा को विफल मत करो अथवा नए नागकेसर के वृक्षों की जो तुम्हें ( मेघ को ) प्राप्त करने की इच्छा है, उसे विफल मत करो या तुम्हारे सदृश अन्य मेधों की जो जिनपूजा की अभिलाषा है, उसे विफल मत करो। अथवा देवेन्द्र के समान जिसका दिव्यरूप प्रकट हुआ है ऐसे तुम भक्ति करते हुए अपनी सामर्थ्य से रत्री मई नाना रत्नों से विशिष्ट अवस्था को या मोर की मनोहर कण्ठ की द्युति को अपने शरीर में धारण करते हुए, बुरे भाव न कर ईशान दिशा के स्वामी रुद्र की रक्त से गीले गजचमं को धारण करने की इच्छा को दूर करो अर्थात् उक्त गजचर्म के समान होकर तुम्हीं उसका स्थान ग्रहण करी ।
नाट्यं तन्वन्सुरुचिरतनुर्नाटय व्योमर, सारापुष्पप्रकररुचिरे सौम्यविद्युन्नर्टी ताम् ।
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द्वितीय सर्ग
नायं रौद्रो मुरिति चिरं साधुवादैः प्रियान्ते, शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्ति धान्या॥ १६ ॥ माट्यमिति । भवान्या भवस्य परल्याः । 'वरुणेन्द्रभव' इत्यादिना की आनचागम- अपम् एषः । रौद्रः सद्रसम्बन्धः । अथवा भयङ्करः । न न भवति । किन्तु । मधुरिति मदल इति । 'कोमलं मृलं मृदुभत्यपरः । चिरं दोधकालम् । साधुधावः बलाघोंक्तिभिः । प्रियान्ते प्रियस्येश्वरस्य दिनिन्द्रस्प अन्ने समोपे । शान्तोछैगस्तिमिलनयनं शान्तः उद्वेगो गजाजिनदर्शन भयं ययोस्तं अतएव स्तिमिते निश्चिते नयने यस्मिन्कर्मणि तत् । 'उद्वेगस्त्वरिते क्लेशे भय मन्थरगामिनि' इति कामदाणवे । वृष्टभक्तिः भक्तिः पूज्येष्वनुरागः दृष्ट्रा भक्त्रिस्य सः 1 सुचिरतनः सुरुचिरा मनोहरा तनुर्यस्थ सः तथोक्तः सन् । तारापुष्पश्कररुचिरे तारा एव पुष्पाणि सेषां प्रकरः समूहस्तेनरुचिरं तस्मिन् । अनेन प्राक् पुष्पा मलि विधायेति ऽवम्यते । व्योमरों व्योमैवरङ्ग नाट्यस्थानं तस्मिन् ‘रङ्गयुणि रङ्गो ना रोगे नृसस्थले रणे' इति भास्करः । नाट्यं नर्तनम् । तन्वन् कुर्वन् । तां प्रसिद्धाम् । सोम्यविद्युम्नटों सौम्या रम्या विद्युत् तडित् सैव नटी नतंकी ताम् । तां नादय नतंय ।। १६॥
अन्वय-नाट्य तत्वन् न अयं रौद्रः (अपितु) मृदुः इति प्रियान्ते साधुवादः 'भवान्याशान्तोद्वेगस्तिमितनयनं चिरं दृष्ट भक्तिः सुरुचिरतनुः तारापुष्पप्रकर रुचिरे व्योमरङ्गे ता सौम्पविद्युन्मीं नाटय ।
अर्थ-गीत और वाद्य से युक्त नृत्य करते हुए यह नृत्य करने वाला भयंकर नहीं, अपितु मृदु है, इस प्रकार अपने पति के समीप में प्रशंसा परक वचनों से इन्द्राणी से भय रहित और निश्चल नेत्रों से जिसकी भक्ति चिरकाल तक देखी गई है, ऐसे मनोज शरीर वाले तुम तारारूप बिखरे हुए फूलों के समूह से मनोज्ञ आकाशरूप रङ्गस्थल में उस प्रसिद्ध मनोज्ञ या मनोहर बिजलो रूपी नटी को नचाओ।
आलोक्यैवं श्रियमथमहाकालदेवालयानां, कृत्या सान्ध्यं समुचितविधिं धात्र भूयो नगर्याम् । लोलां पश्यन्विहर शनकै रात्रिसम्भोगहेतोगच्छन्तीनी रमणवसति योषितां तत्र नक्तम् ॥ १७ ॥
आलोक्येति । अप आनन्दनर्तनानन्तरम् । एवमुक्तप्रकारेण । महाकालदेवालयामां महाकालवनस्पत्यालयानाम् । धियं सम्पत्तिम् । आलोय प्रेक्ष्य । अत्र चैत्यालयनिकटदेशे । सान्ध्यं सन्ध्याकाल सम्बन्धिनम् । समुचितविधिम् - स्वयोग्या
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पाश्वाभ्युदय नुष्ठानमपि कृत्वा विधाय । भूयः पश्चात् । तन्त्र नया विशालायाम् ! नासं रात्री । 'नक्तं च रजनाविति' इत्यमरः । रात्रिसम्भोगहेतोः रात्री क्रियमाणसम्भोगः तथोक्तः तस्य हेतुः तस्मात् । रमणवसति प्रियसदनम् । 'वसतिः स्थाननिशमोनिजोक्मनि वेश्मनि' इत्ति नानार्यरत्नमालायाम् । गच्छन्तीनां गच्छन्तीति गच्छन्त्यस्तासाम्
तृत्यः । 'मृदुग्' इति छी। घोषितो नारीणाम् । लोला शृङ्गारादिभावम् । पश्यन् पश्यतीति पश्यन् सन् । शवकः मन्दगर्जनादिरहितः सन्नित्यर्थः । विहर सञ्चर ॥ १७ ।।
अन्वय--अथ एव महाकालदेवालयानां श्रियं आलोक्य अत्र भूयः साध्यं समुचितविधि च कृत्वा तत्र नगर्या नक्तं रात्रिसम्भोगहेतोः रमणवसति शनकैः गच्छन्तीनां योषितां लीलां पश्यन् विहर ।
अर्थ-नृत्य के बाद पूर्वोक्त प्रकार से महाकाल वन में स्थित जिनेन्द्र मन्दिरों को शोभा देखकर यहाँ ( जिनमन्दिर में ) पुनः सन्ध्याकालीन भगवान् अर्हन्त के योग्य ( स्तुत्यादिक क्रिया करके उस नगरी में रात्रि के समय रात्रिकालीन सम्भोग के लिए प्रिय के निवासस्थान को धीरे { धीरे ) जाने वाली स्त्रियों की शृङ्गारादि क्रीड़ाओं को देखते हुए
विहार करो।
गर्जत्युच्चैर्भवति पिहितव्योममार्गे रमण्यो, गाढोत्कण्ठा मदनविवशाः पुसु सकेप्सगोष्ठीम् । एकाकिन्यः कथमिव रतौ गन्तुमीशा निशीथेस्वालोके नरपतिपथे सूचिभेस्तमोभिः ।। १८ ।। गर्जन्तीति । पिहितव्योममार्ग आच्छादिताकाशमार्गे ।' दान नापेरुपसर्गस्या कारस्य लक' भवति लगि । उच्चाधिकम् । गर्मति घोषयति ससि । निशीथे रात्रौ । सूधिभेद्यरति सान्दरित्यर्थः । तमोभिरन्धकारैः। लालोके रूद्धदृष्टिप्रसार । नरपतिपथे राजमार्गे । एकाकिन्यः निःसहायाः । 'एकादाकि स्वासहाये' इति आकिन् प्रत्ययः । 'नृदुम्' इति हो। गावोत्कण्ठाः प्रियसमागम चिन्ताकलिताः । मवन विवशा: मन्मथवशगताः । 'विवशोरिष्टदण्टनीः' इत्यमरः । रमन्यः नाव्यः । रतो सुरतनिमित्तम् । 'हेतो हेत्वर्थः सर्वाः प्रायः' इति सप्तमी । पुसु पुरुषेषु । सतगोष्ठीम् उद्देशस्थानम् । 'संतस्तु समयः' इत्यमरः । कथमिव केन प्रकारेण । गन्तु' यातुम् । ईशाः समर्थाः समर्था न भवन्तीति यावत् ।। १८ ॥
अश्वय- पिहितव्योममार्ग भवति उपचः गर्जति निक्षीथे नरपतिपणे सूविभवः तमोभिः सद्धालोके पुसु गाढोत्कण्ठाः मदनविवशाः रमभ्यः रतौ सकतगोष्ठी एकाकिन्यः गन्तुं कथमिव ईशाः ।
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अर्थ-जिसने आकाशमार्ग को आच्छादिन कर दिया है ऐसे तुम्हारे द्वारा ऊँचे स्वर से गर्जना करने पर रात्रि में राजमार्ग पर अत्यन्त गहन अन्धकार के द्वारा प्रकाश के रोके जाने पर पुरुषों के विषय में जिन्हें तीन उत्कण्ठा उत्पन्न हो गई है ऐसी काम से शिवािँ सम्भोग कीड़ा के लिए सङ्केत स्थान पर अकेली जाने में कैसे समर्थ होंगी? अर्थात् समर्थ नहीं होंगी।
तस्मान्नोच्चे+निषु च भवाडम्बरं संहराशु, प्रत्यूहाना करणमसतामादृतं नोन्नतानाम् । कर्त्तव्या ते सुजनविधुरे प्रत्युतो पक्रिया सा, सोदामन्या कनकनिकस्निग्धया वयोवीम् ॥ १९ ॥ तस्मादिति । तस्मात् कारणात् । ध्वनिषु गजितेषु । उम्पैः महान् । न भव त्वं मा भूः । आजम्बरं गजितम् । 'आडम्बरोऽस्त्रीसंरम्भे गजित तूर्वनिस्वने' इति भास्करः । आशु शीघ्रण । संहर निवर्तय । असतां दुर्जनानाम् । प्रस्मूहानां विघ्नानाम् । "बिघ्नोन्तरायः प्रत्यूहः' इत्यमरः । फरक विधानम् । श्रावृतं प्रियं भवति आदृत सादराचितम्' इत्यमरः । उन्नताना सज्जनानां न मावृतं न भवति प्रत्युत कि तहि । सुजन भी सज्जन । थासां वनितानाम् । विधुरे विपदि । उपक्रिया उपकृतिः । ते तव । कर्तण्या विधया। 'चा नाकस्य' इति वा षष्ठी । त्वरण विधातव्येत्यर्थः। कनकनिकषस्निग्घया कमकस्य निकषो निष्यत इति व्युत्पत्त्या निकषोपलगतरेखा तस्येव स्निग्धं तेजो यस्यास्तया । "वियु स्निग्धं तु मसूर्ण सान्द्रे क्लीड तु तेजसि' इति शब्दार्णवे । सौदामाया सुदाम्नोऽद्रिणः एकदिक सौदामनी विद्युत् 'एकदिशा' इत्यण् । तया उवा मागंभुन्नम् । वर्शय प्रकाशय ।। ११ ।।।
अन्धध-तस्मात् ध्वनि उच्च न भव, आडम्बरं च आशु संहर । प्रत्यूहानां करणं अमतं आदृतं न उन्नतानां । प्रत्युत (हे ) सुजन बासा विधुरे उपकिया त कर्तव्या । कनकनिकषस्निग्धया सौदामित्या उनी दर्शय ।
अर्थ-अतः ध्वनि उच्चारण के विषय में ऊंचे न होओ अर्थात् मन्द स्वर से गर्जना करो । विघ्नों का करना दुर्जनों को प्रिय है, उन्नतों (ऊँचे) या महान् व्यक्तियों को नहीं । बल्कि हे सज्जन ! इन स्त्रियों की आपत्ति के समय तुम्हें उपकार करना चाहिए । सोना जाँचने की कसौटी की रेखा के समान तेज वाली बिजली से भूमि ( मार्ग ) दिखलाओ।
क्रीडाहेतोर्यदि च भवतो गर्जनेनोत्सुकत्वं, मन्दमन्दं स्तनय वनितानूपुरारावहृद्यम् ।
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पाश्र्वाभ्युदय तासामन्तमणितसुभगं सम्भृतासारधारस्तोयोत्सर्गस्तानतमुखरो मा च भूयिषलवास्ताः ॥ २० ॥ क्रीठाहेतोरिति । यदि च पक्षान्तरे । 'पक्षातरे चेदि च' इत्यमर । भवतः तव । क्रीडाहेतोः विलासनिमित्तम् । गर्जनेन स्तनितेन । उत्सुकरवं लाम्मट्यम् । 'इष्टार्थोयुक्त तत्सुकः' इत्यमरः । तहि ! वनितानपुरारावहुधं वनितानां नारीणां नपुरस्याराव इस इवनिरिद 'आरवारावसंरावविरावा' इत्यमरः । हृद्यं हृदयस्य प्रियम् तथीवतम् यया भवति तथा । 'पश्यपथ' इत्याविना निपातना प्रत्ययः । 'हृदयस्प हृद्यापलास' इति हृदावेशः । 'अभीष्टेभीप्सितं हृद्यम्' इत्यमरः । तासा मारीणाम् । अन्तमणितसुभगम् अन्तर्मणिमिव अनक्षितकूजितमिय सुभगं मनो। हरं यथा भवति तथा । मन्दमन्द शनैः शनैः । वीप्सायामिति द्विः' । स्तनय गजंय । ताः स्त्रियः । चिालवा: भीरवः । विषलवोविह्वलः' इत्यमरः । भवतीति तप्त इति शेषः । सम्भूतासारधारः सम्भृता आसारस्य धारा वेगववर्षस्य धारा मेन सः । तोपोत्सर्गस्तनितमुखरः सोमस्य उत्सर्गो वर्षणं तम्निमित्तं यत् स्तनितम् उच्चगजितमित्यर्थः । न मुखरो वाचालः | मा पभूः न भवेत्यर्थः ।। २० ।।
अन्वय-यदि व क्रोगहेतोः भवतः मर्जनेन उत्सुकवं वनितानपुरारावष्य तासां अन्तर्मणित सुभगं मन्वं मन्दं स्तनय सम्भृतासारधारः तोयोत्सर्गस्तमितमुखरः कमा भूः ताः विवलयाः । ___ अर्थ-यदि क्रीड़ा के लिए आपको गरजने की उत्सुकता है तो स्त्रियों के नूपुरों की ध्वनि के समान हृदय को प्रिय, उन स्त्रियों की रति क्रीड़ा के समय उच्चरित अक्षररहित ध्वनि विशेष के समान मनोहर मन्द मन्द गर्जना करो। वेगवती वर्षा की धारा को निष्पत्ति करने वाले तुम जल वृष्टि के लिए किए जाने वाले गर्जन से शब्दशील मत बनो, क्योंकि वे स्त्रियाँ डरपोक होती हैं। इतोवेष्टितानि- .
भ्रान्त्वा कृत्स्ना पुरमिति चिरं रात्रिसम्भोगधूपैलेब्धामोदः सुखमनुभव स्वं गरीयानशेषाम् । तां कस्यांविनवलभी सुप्तपाराबताया, नीत्वा रात्री चिरविलसनास्सिन्न विद्युतत्कलनः ॥ २१ ॥ भ्रान्त्येति । रात्रिसम्भोगधूपैः रात्री निक्षिप्तसम्भोगधूपः । लब्धामोयः सन्धः आमोदो मनोहरपरिमलो यस्य सः । गरीपान् प्रकृष्टो गुरुः 'गुणाङ्गात्' इति ईयस् । 'प्रियस्थिर' इति गरादेशः । वं भवान् । nt सकलाम् । 'विश्वमशेक कृत्स्नम्
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द्वितीय सर्ग
इत्यमरः । पुरं पुरीम् । 'पू: स्त्रो पुरीनगयौं वा' इत्यमरः । इति एवम् । चिरम् । भ्रान्त्वा बिकृत्य । चिरविलसमात् चिरस्फुरणात् । बिनविद्युत्कलनः खिम्ना मलान्ता विद्युदेववाल कान्ता यस्प मः । 'कलयं श्रोणिभाध्ययोः' इत्यमरः । हुप्सपाराबतायो मुप्ताः पारात्रता परस्परवियुक्ताः कलरवाः यस्यां तस्याम् । 'पारावतः कलरमः' इत्यमरः । अनेन पारायतकान्तायां सुखानुभवो ध्वन्यते । कस्यचित् क्वचित् । भवनवलभी भवनस्य बलभावाच्छाम ने उपरिभाग इत्यर्थः । 'आच्छादन स्मादलभिः गृहाणाम्' इप्ति फ्लायुधः । अशेषां सम्पूर्णाम् । तां पत्री निशाम् । नौत्वा यापयित्वा । सुखं विषयसुखं । अनुभव अनुभूयाः ।। २१ ।।
अन्वय-रात्रिसम्भोगधूपैः लम्धामोदः चिरविलसनात खिन्न विद्युत्कालत्रः गरीयान् त्वं इति कृत्स्ना पुरं भ्रान्त्वा सुप्तपाराबतायां कस्याञ्चित् भवनवलभी तो अशेषां रात्री नीत्वा सम्व अनुमव ।
अर्थ-रात्रिकालीन सम्भोग के समय प्रयुक्त धूपों ( धूप, चन्दन, अगुरु आदि सुगन्धित द्रक्ष्यों के चूपों ) से प्राप्त सुगन्धवाले बदत देर तक चमकने के कारण थको हुई बिजली रूप पत्नी वाले गुरुतर आप इस प्रकार सम्पूर्ण नगर में भ्रमण कर सोए हुए कबूतरों से युक्त किसी भवन की छत पर उस सम्पूर्ण रात्रि को बिताकर सुख का अनुभव करो।
पद्यप्यस्यां क्षणपरिचयः स्वर्गवासातिशायी, तत्रासक्ति सपदि शिपिलीकृत्य बरं च योगाम् । दृष्टे सूर्य पुनरपि भवान्याहयेवध्वशिष्ट,
मन्वायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेताकृत्याः॥ २२ ।। पवीति । अल्पाम् उज्जयिन्याम् । अगपरिषयः क्षणस्योत्सवस्य परिषयः परिचर्या । कालविशेषोत्सवयोः क्षण:' इत्यमरः । स्वर्गवासातिशापी स्वर्गवासावयासशयेत इत्येवं शील तथोक्तः । स्वर्गसुखादपि प्रकृष्टः । मद्यपि भवति घेतमापि । सत्र नगर्याम् । आसक्ति लाम्पट्यम् । इष्टे उदिते । सूर्ये भानौ । योगात् सञ्जतेः । सदुदृये भोगविगमादित्याशयः । 'योगः सन्नहनोपायध्पानसङ्गतियुक्तिषु' इत्यमरः । वरं च विरोधमपि । सपदि शीघ्रण । शिथिलीकृत्य परिहत्य । पुनरपि भयोपि । भवान् त्वम् । अवशिष्टम् अवशेषमार्गम् । वाह्येत् गच्छेत् । तथाहि मुहवा मित्राणाम् । 'अथ मित्रं सखा सुहृत्' इत्यमरः । अभ्युपेतार्थकृत्याः अभ्युपेता अङ्गीकृता अर्थस्य प्रयोजनस्य कृस्मा क्रिया यस्ते तथोक्ताः । अङ्गीकृतमित्र प्रयोजना इत्यर्थः । 'अर्थोभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु इत्यमरः । 'कृत्या क्रिया देवतयोः कार्येस्त्रीकुपिते त्रिषु' इति यादवः । न खल मंगायाते मंदान भवन्ति हि मंत्रम् इव माचरतीति मंदायते । सुन्धातुः 'निषेधवारपालंकारजिशासानुनये सलु' इत्यमरः ॥२२॥
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पाश्वभ्युदय
अन्वय- यद्यपि अस्यां क्षणपरिचयः स्वमंत्रा साविशायी ( तथापि ) तक्र आसक्ति योगात् वैरं च शिथिलीकृत्य पुनरपि सूर्ये दृष्टे भवान् अध्वशिष्टं वाहयेत् ३. सुहृवां अभ्युपेतार्थं कृत्याः न खलु मन्दायन्ते ।
अर्थ- यद्यपि इस नगरी में क्षणभर का परिचय स्वर्ग में दीर्घ समय तक ) निवास करने का भी अतिक्रमण करता है तथापि उस नगरी में आसक्ति (तीव्र अनुराग ) को शिथिल ( कम ) करके तथा मेरे साथ मित्रता के कारण शत्रुभाव को छोड़कर पुनः सूर्य दिखाई देने पर आप शेष मार्ग को पार करें, (क्योंकि) मित्र के कार्य को अङ्गीकार करने वाले सज्जन विलम्ब नहीं करते हैं ।
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भावार्थ - इस नगरी में एक क्षण का निवास स्वर्ग में सागरों पर्यन्त निवास से अधिक अच्छा है ।
रुद्धे भानौ नयनविषयं नोपयाति त्वयाऽसौ मासो' भङ्गादघनिरसनं मा स्म भूयन्निमित्तम् । तस्मिन्काले नयनसलिलं योषितां खण्डितानां, शान्ति नेयं प्रणयिभिरतो व भानोत्यजाशु ॥ २३ ॥
रुद्ध इति । त्वया भवता भानो सूर्ये । रु तिरोहिते सति 'संत्रोतं स्वमावृत्तम्' इत्यमरः । असौ भानुः । नयनविषयं जनानां नेत्रगोचरम् । नोपयाति नोपगच्छति । मासः मासस्य पद्दन्नोमास्' इत्यादिना मासशब्दस्य मासित्यादेशः । भङ्गात् अपूरणात् । स्वन्निमित्तं त्वमेव निमित्तं कारणं यस्य तत् तथोक्तम् । अधनिरसनं दु:खनिवारणम् । 'अहो दुःखभ्यसनेष्वधम् । 'प्रत्याख्यानं निरसनं प्रत्यादेशो निराकृति' इति चामरः । मा स्म भूत् मा जनिष्ट । सूर्ये अदृष्टे दिवसगणनाया अभावः । तदभावे मासपूर्तिज्ञानाभावः । तदभावे कान्तायाः संवत्सर प्रमितस्य विरहदुःखस्य निवारणम् । त्वत्सम्पर्कादि नाभावि न भवतु । किन्तु मासपूरणादेव जायतामिति तात्पर्यम् । किन्तु । तस्मिरकाले प्रागुक्ते सूर्योदयकाले खण्डितानां योषिताम् नायिकाविशेषाणाम् । 'ज्ञातेऽन्यासंगचिकृतेप्याकषायेति' दशरूपके । नधनसलिलम् अनजलम् । प्रणयिभिः प्रियतमैः । शास्ति शमनम् । नेयं नेतत्र्यम् । णीञ् धातुः विकर्मकः । अतः कारणद्वयात् । भानोरकस्य । वत्मं मागंम् । आशु शीघ्रम् | त्यज मुञ्च । तस्य रोघको मा भूदित्यर्थः ।
I
अन्वय ---वमा भान रुद्ध े असौ नयनविषयं न उपयासि । त्वन्निमित्तं भासः भङ्गात् अपनिरसनं मा स्म भूत् । तस्मिन् काले खण्डितानां योषितां नयनसलिल प्रणयभिः शान्ति नेयम् । अतः भानो वरमं आशु स्यज ।
१. मासो ।
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द्वितोय सर्ग अर्थ--आपके द्वारा सूर्य रुद्ध हो जाने पर यह ( सूर्य ) नेत्रों के विषय को प्राप्त नहीं होता है अर्थात आँखों से दिखाई नहीं पड़ता है। आपके कारण प्रकाश का विनाश हो जाने से दुःख का विनाश नहीं होगा ! उस समय अर्थात् सूर्य दर्शन के समय खण्डिता स्त्रियों के नेत्रों का जल प्रणयी व्यक्तियों के द्वारा शान्ति को प्रा ..या जाना हए । दूध के मार्ग को शीन ही छोड़ दो।
व्याख्या-जब मेघ बीच में आ जायगा तो सूर्य दिखाई नहीं देगा। जब तक प्रकाश दिखाई नहीं देता है, तब नका खण्डिता नायिकाओं का दु:ख विनाश नहीं हाता है। सूर्योदय के समय खण्डितानायिका के आँसुओं का शमन उनके प्रेमी करेंगे। अतः है मेघ ! तुम सूर्य के मार्ग को शीघ्र छोड़ दो।
भासो भङ्गात् के स्थान पर मामो भङ्गात् पाठ मानने पर अर्थ इस प्रकार होगा-हे मेघ ! आपके द्वारा सूर्य तिरोहित होने पर यह । सूर्य ) लोगों को दृष्टिगोचर नहीं होता है । मास के पूर्ण न होने से तुम्हारे कारण दुःस्व का निवारण न हो अर्थात् सूर्य जब दिखाई नहीं देगा तो दिवस की गणना का अभाव होगा । दिन की गणना के अभाव में माह की समाप्ति के ज्ञान का अभाव होगा । इस अभाव के कारण कान्ता के एक वर्ष प्रमाण विरह दुःख का निवारण होगा, किन्तु यह तुम्हारे द्वारा न होकर मास पूरा होने पर ही हो । सूर्योदय के समय खण्डिता नायिका के आँसुओं का शमन उनके प्रेमी करेंगे, अतः हे मेघ ! तुम सूर्य के मार्ग का शीघ्र ही छोड़ देना । खण्डिता नायिका का लक्षण माहित्यदर्पणकार ने इस प्रकार दिया हैपार्श्वमेति प्रियो यस्या अन्यसम्भोगचिह्नितः ।
सा खण्डितेति कथिता धीररीकिषायिता ।। ३।७५ ।। अन्य स्त्री के संमर्ग-चिह्नों से युक्त नायक जिसके पास जाय वह ईर्या से कलुषित स्त्री खण्डिता कहलाती है।
अन्यच्चान्यव्यसनविधुरेणाऽऽर्य मित्रेण भाव्यं, तन्मा भानोः प्रियकमलिनी संस्तव त्वं निरुन्धाः । प्रालेयास्त्र कमलयवनात्सोपि हतु नलिन्याः, प्रायवृत्तस्त्वयि करधि स्यादनल्पाभ्यसूयः ।। २४ ॥ अन्यच्चति । अन्यन्त्र तन्मार्गरांधे दूषणान्तरमित्यर्थः । आर्य भी पूज्य । मित्रेण 'भानुना । सुहृदा वा । 'सुहृदावित्यशास्त्रग्रन्ध निर्देशेषु मित्र' इति नानाथरत्नमाला
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पार्श्वभ्युदय याम् । अन्यम्यसनविधुरेण अन्यदुःखदुःखितेन । भाष्यम् अवश्यम् । 'ओरावस्यके इति पण । तत् तस्मात् । मानोः अरुणस्य 1 प्रियकलिनी संस्तवं प्रिया चासो कमलिनी च तस्याः नलिन्याः संस्तवं परिचयम् । 'संस्तनः स्थायरिचयः' इत्यमरः । त्वं भवान् । मा निवन्धाः मा स्म निवारयस्व । सोपि इनः । नलिन्याः नलानि अम्बुजामि अस्याः सन्तीति नलिनी पद्मिनी ! तूणेऽम्बुजे नल नातु राशि काले तु न स्त्रियाम्' इति शब्दावे । तस्याः कान्तायाः । कमलबदनात् क्रमलं स्वकुसुममेव वदनं मुखं तस्मात् । भालेयानं प्रालेपमेव अखं नाम्बु । 'रोदनं चानम्' इत्यमरः । हम् अपनयनाय । प्रत्यावृत्तः प्रत्यागतः । भानोर्देशान्तरागमनाम्मलिन्या- खपिडत
अमिति भावः । त्वयि भवति । करधिकरानशून हस्तान्या रुणद्धि इति कर विवप् । तस्मिन् करधिकरनिवारके सति । 'बलिहस्तां शमः कराः' इत्यमरः । अमल्पाभ्यसूयः अधिकद्वेषः । स्यात् भवेत् ।। २४ ॥
अन्वय-अन्यत् । आर्य मित्रेण अन्यश्वसनविधुरणभाव्यं, तत् त्वं भानोः प्रियकमलिनी संस्तव मा निरुन्धाः । नलिन्याः कमलयपनात् प्रालेयान हत प्रत्यापृतः सः अपि त्वयि कररुधि अनल्पाम्पसूयः स्यात् । ___ अर्थ हे आर्य ! दूसरी बात यह है अर्थात् सूर्य का मार्ग रोकने पर दूसरा दोष यह है कि मित्र को दूसरे की विपत्ति से दुःखी होना चाहिए। अतः तुम सूर्य का प्रिय कमलिनी से परिचय मत रोको । कमलिनी के कमल रूप मुख से हिमरूप आंसू को हटाने के लिए पुनः आया हुआ वह सूर्य भी तुम्हारे द्वारा किरणों के रोके जाने पर अधिक ईर्ष्या वाला होगा ।
गम्भीरेति स्थमपि सुभमां सां धुनी मानमंस्था, गत्वा तस्या रसमनुभवत्वय्यतिस्वच्छवृत्तः । गम्भीरायाः पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने, छायात्मापि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते प्रवेशम् ॥ २५ ॥ गम्भीरनि । गम्भीरायाः सरितः गम्भीरानामतटिन्याः उदात्तनायिकायाश्चेति ध्वन्यते । प्रसन्ने अनुरक्तवान्मलशन्ये । चेतसीय मनसीव । प्रसन्ने निर्मले । पति पदके । प्रकृति सुभगो प्रकृश्या स्वभावेन सुभगः सुन्दरः । 'सुन्दरेऽधिक भाग्यांश उक्लेिं तटवासरे । तुरीयांशे धीमति च मुनमः' इति शब्दार्णवे । ते तव । छायास्मापि छायारूप आत्मा तथोक्तः सोऽपि । बिम्बं शरीरं च । प्रवेशम् । लप्स्यते प्राप्स्यति । साक्षात्प्रवेशनमनिच्छोरपि । छायाद्वारा वा तद्रसानुप्रवेशस्यावश्यं भाविवादित्याशयः । स्वमपि भवानपि । सुभगा मनोहराम् । तो धुनीम् गम्भोराख्यां नबोम् । गस्था प्राप्य । गम्भीरेति निम्नवतीति गाम्भीर्यगुणवतीति वा । मावस्थाः अवस
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वितीय सर्ग
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मा कुरु । त्यपि भवति । प्रतिस्वच्छवृत्ते अतिस्वाछा निर्मला पुत्तिराधरणम् अम्भसा प्रमो वा यस्यास्तस्याः । तस्याः गम्भीरायाः । रसम बदकम् । शृङ्गाराविरस वा। अनुभव अनुभवः ॥२५॥
अन्वय-वं अपि ना सुभगा धुनी गम्भीरा इति मा अवस्थाः । गत्वा स्वयि अतिस्व कछवृत्तेः तम्याः रस अनुभव । गम्भीरायाः सरितः घेतसि इव प्रसम्ले पसि तं प्रकृतिसुभगः छायास्मा अपि प्रशं लाते । ___अर्थ-तुम भी उस मनोहर नदी की अत्यधिक गहरी होने के कारण : अवज्ञा मत करो 1 ( वहाँ ) जाकर तुम्हारे विषय में अत्यन्त निर्मल बुद्धि वाली अथवा सुनिर्मल आचारवाली उस गम्भीरा नदी के रस (जल-प्रेम') का अनुभव करो । गम्भीरा नदी के मन के समान निर्मल जल में तुम्हारा स्वभाव से सुन्दर छाया रूप प्रतिविम्ब ( परछाहीं) भी प्रवेश को प्राप्त करेगा।
तस्मादेवं प्रणयपरतां स्वय्यभिन्यज्जयन्ती, लोलाहासानिव विदधती सा धुनी शीकरोस्थान् । तस्मावस्याः कुमुदविशवान्याहसि त्वं न धैर्या
मोघीकतु बटुलशफरोतमप्रेक्षितानि ।। २६ ॥ तस्माविति । तस्मात् नतः । शीकरोस्पान जलकोत्पन्नान् लौलाहासानु लीलामुकता हासास्तान् । विपतीव कुर्वतीव सा मी सा नही । स्वपि भवति । एवम् उक्त प्रकारेण । प्रणयपरतो राग परत्वम् । अभिष्यम्जयम्ती प्रकाशयन्ती । भवेदेति शेषः । तस्मात् प्रणयपरत्वम्यनादेव । अस्या: गम्भीरायाः । अब विनावानि कुमुवानीक विपादानि कुवलयनिर्मलानि । बटुलशफरोनिक्षितानि चढ़कानि शीघ्राणि फराणां मीनानाम् उदत्तनापुलवितान्येव प्रेक्षितानि लोपनानि । 'पाश्ववंचटल शीघ्रम् ।' इधि । एतदेव गम्भीरायाः स्वयि अनुरागम् । बात पाट्यात् । मोधीत निरर्थककरणाय । एवं भवत् । माहाँस योग्यो न. भवति । सफला कुविति भावः ॥ २६ ॥
अन्वय तस्मात् शीकरोत्थान लीलाहासान् विवरती इव साधु नी एवं स्वपि प्रणयपरता कमजयन्ती ( भवेत् ) तस्मात् अस्माः कुमुपविशवानि चटुलमाफरोद्वतनप्रेक्षितानि धैर्यात् मोधीकातुन अहसि ।
अर्थ-प्रेम प्रकट करने के कारण जलकणों को उत्पत्ति द्वारा मानों लीलापूर्वक हास्य करती हुई वह नदी इस प्रकार यदि तुम्हारे प्रति प्रेम को व्यक्त करे तो ( तुम) गम्भीरा नदी के कुमुदों के समान उज्ज्वल और
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पाश्र्वाभ्युदय मछलियों के चंचलतापूर्वक लोटने रूप अवलोकनों को धृष्टता के कारण निष्फल करने के योग्य नहीं हो ।
ज्ञास्यस्युच्चैः पुलिनजघनादुच्चरत्पक्षिमालाभास्वत्काञ्चीमधुररणितात्कामसेवाप्रकर्षम् । तस्याः किञ्चित्करधृतमिव प्राप्तवानोर शाख,
हुत्वा' नीलं सलिलवसनं मुक्तरोपोनितम्बम् ॥ २७ ॥ ज्ञास्मसीति । तस्याः नद्याः । किञ्चित् करतमित्र किञ्चिदोषत् करेण घुतं हस्तावलम्बितमिव । प्राप्तवानोरशास्त्र प्राप्ता व्याप्सा वानीरस्व वृक्षविशेषस्य शाखा पेन तत् । मुमतरोधोनितम्यं मुक्तस्त्यक्ती रोषस्तटमेव नितम्बः । 'पश्चिमणिभागे वे कटीकटी' इति यादयः । नील कृष्णम् । सलिलवसनं सलिलमेव वसनम् । वस्त्र नीलाम्बरधरणं विरहतापनिवारणमिति प्रसिद्धिः । हुस्खा अपनीय । उसबरस्पक्षिमालाभास्वरकाञ्चीमवरणितात उपदरतां स्वनसा पक्षिणा माला सैव भास्वस्काञ्ची स्फरन्मेखला तस्या मधुरं अतिप्रियं रणितं निर्यस्य सत् तस्मात् । पुलिन जघनात् पुलिनमेव जवन तस्मात् । 'तोयोस्थित तत्पुलिनम्' इत्यमरः । कामिसेवाप्रकर्ष मन्मथसेवनोत्कर्षम् । उच्चैरधिकम् । शास्यसि मनिष्याग ।
तामुत्फुल्लप्रततलतिकागूढपर्यन्तवेशां, कामावस्थामिति बहुरसां दर्शयन्ती निषध । प्रस्थानं ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भाषि, ज्ञातास्वादो विवृतजघना को विहातु समर्थः ॥ २८॥ तामिति । सखे हे मित्र । बहरसा बहुलो रसो जलं शृंगारादिरमो यस्यास्ताम् । कामावस्था मन्मयावस्थाम् । इति एवं रोत्या । वर्शयन्तीम् प्रकटयंतीम् । उत्फुल्ल प्रततलतिकागजपर्यन्तकेशाम् उद्गतानि फल्लानि पुष्पाणि यामां तास्ताभिः । प्रततामितिकाभिः वल्लरीभिः गढ़ः संवृत्तः पर्यन्तदेशी सस्यास्साम् । 'प्रततिविस्तृती वल्ल्याम' इति विश्वः । तो गम्भीर नदीन् । निषध आश्रित्य । लम्बमानस्य अवलम्म्यमानस्य । जघनमारुह्य स्थितस्यैलि दम्यते । ते तव । प्रस्थान प्रयाणम् । 'प्रस्थान गमनं गमः' इत्यमरः । कथमपि कृणापि । भाषि भविष्यति । अत्रकृच्छ्रवे कारणमाह । नातास्वादः अनुभूतरसः । विवृतजघना विवृतं प्रकटिस जधन करिस्तपूर्वभागोवा यस्यास्ताम् । 'जपनं स्यात्कटि पूर्व श्रोणीतांगावरा स्थात्' इति मादयः । विपुलअपनामिति पाठः । विहातु त्यक्तुम । कः पुमान् । समय: दक्षः । कोपि न शाक्त इति भावः । १. नीस्वत्यपि पाठः।
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द्वितीय सर्ग
अन्वय--उच्चरत्यक्षिमालाभास्वरकाम्चीमपुराणितात् उच्च: पुलिनजधनात् यस्याः कामसेवाप्रकर्ष ज्ञास्यसि । सखे! मुफ्तरोधोनितम्ब प्राप्तवानीरशाख किञ्चित् करत इव नीलं सलिलवसन हुत्या बहुरसां कामावस्यां इति दर्शयन्ती उत्फुल्लप्रतसलतिकागृतपर्यो सनिषद्य भबमानस्य से प्रस्थान कथपि भावि ? कः शासास्वादः विवृतजघनां बिहातु समर्थः ? ___ अर्थ-ऊपर उड़ते हुए अथवा ध्वनि करते हुए पक्षि समूह के रूप में तेज से स्फुरण करती हुई करधनी की मधुर ध्वनि से ( तथा ) ऊंचे रेताले तट रूप कटिभाग (पक्ष में-ऊँचे तट के तुल्य कटि प्रदेश से युक्त) गम्भीरा नदी के संभोग क्रीड़ा के प्रकर्ष को जानोगे। हे मित्र ! तट रूप नितम्ब को छोड़ने वाले, बेत की शाखा तक पहुँचे हुए और हाथ से कुछ पकड़े गए के समान नीले जलरूप बस्त्र को हटाकर विपुल अनुराग से युक्त काम की अवस्था को इस प्रकार प्रकट करती हुई, फली हुई विस्तृत लताओं से जिसका पर्यन्त भाग ढका हुआ है ऐसी गम्भीरा नदी का आश्रय पाकर जल को ग्रहण करने के लिए अपने शरीर को लम्बा बनाने वाले ( पक्ष में-विषय सुख का अनुभव करने के लिए अपने शरीर को बड़ा बनाने वाले ) तुम्हारा प्रस्थान किसी प्रकार होगा ? संभोग श्रृंगार रस का अनुभव किया हुआ कॉन पुरुष जघन को प्रकट करने वाली स्त्री का त्याग करने में समर्थ है ?
भावार्थ-यहाँ गम्भीरा नदी की नायिका के रूप में कल्पना की गई है। जिस प्रकार किसी नायिका के प्रेम में अनुरक्त व्यक्ति वस्त्र को छोड़कर अपने नितम्बों का प्रदर्शन कर काम की अवस्था को व्यक्त करने वाली उस नायिका को नहीं छोड़ सकता है, उसी प्रकार मेघ भी जलरूप वस्त्र को छोड़ती हुई, तटरूप नितम्ब का प्रदर्शन करने वाली गम्भीरा नदी को छोड़ने में समर्थ नहीं होगा।
उत्तीर्या कथमपि ततो गन्तुमुद्यच्छमानं, स्वामुन्नेष्यत्यनुवनमसौ गन्धवाहः सुगन्धः । त्वनिष्पन्दोच्छवसितबसुधागन्धसम्पर्करम्यः,
स्रोतोरन्ध्रध्वनितमधुरं दन्तिभिः पीयमानः ॥२९॥ उत्तासि । त्वग्निव्यन्योछ्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः तव निष्पन्दो निष्पन्दन तन वर्षणेन उच्छ्वसितायाः उज्जृम्भितायाः वसुधायाः भूमेर्गन्धस्य परिमलस्य सम्पर्कण संगेन रम्मः मनोहरः । पन्तिभिः गजैः । स्रोतोरन्ध्रध्यमितमधुरं स्रोत
शब्देनेन्द्रियवाधिनातद्विशिष्टं घ्राणं लक्ष्यते । 'स्रोतोम्वुवैगेन्द्रिययोः' इति विश्वः । सोसोल्नेषु नासाकुहरेषु । यद्यनित शल्यः तेन सुभगं रुधिरं यथा भवति तथा ।
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पाश्वभ्युदय
श्रीयमानः पीयते इति तथोक्तः । वसुधागन्धलोभादात्रायमाण इत्यर्थः । सुगन्धः सुरभिः । त्वत्सुहृद्वा । 'गन्घोगन्धकसम्बन्धामोदलेशस्मयेषु च' इत्युभयत्रापि
भास्करः । असो गम्धवाहः एषोऽनिलः । अमू गम्भीरा नदीम् । कथमपि कष्टेनापि । उत्तो उल्लङ्घ्य । ततः तस्प्रदेशात् । गन्तु ं यातु । उद्यच्छमानं प्रयतमानम् । भवन्तम् । अनुषनंदनदर्येण । 'दंयेऽतुः' इत्यत्ययीभावः । उन्नेष्यति. गमिष्यति ॥२९॥
अन्वय- अ कथमपि उत्तीयं ततः गन्तु उद्यच्छमानं स्वां त्वन्निध्यन्दो. च्छ्वसित वसुगन्धसम्पर्क रम्य दन्तिभिः स्रोतोरन्ध्र नितमधुरं पीयमानः असौ. सुगन्ध गन्धवाहः त्वां अनुषन उन्नष्यति ।
अर्थ-उस गम्भीरा नदी को किसी प्रकार ( बड़े कष्ट से ) पारकर वहाँ से जाने का उद्यम करनेवाले आपको, तुम्हारे बरसने से भूमि के गन्ध के सम्पर्क से सुगन्धित हाथियों से सूड द्वारा शब्द पूर्वक अच्छी तरह संघा गया यह सुगन्धित वायु बन में पहुंचा देगा |
गत्वा किचिच्छ्रमपरिजुषस्तयत्मलमच्छेदक्षः, प्रियसुहृदियारूद सौगन्ध्ययोगः । गिरि ले, शीतो वातः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम् ॥३०॥
प्रत्युद्यासुः नीचैर्षास्यत्युष जिगमिषोर्वेव
गल्वेति । किचित् कियद्दूरम् । गत्वा यावा । श्रमपरिजुषः श्रमयुक्तस्य । प्रियसुहृदिव प्रियमित्रमिव । प्रत्युवासुः प्रत्युद्यातुमिच्छुः अभिगन्तुमिच्छुः । वपूर्ण देव पूर्वे यस्थतम् । गिरि देवगिरिमित्यर्थः । उपजिगमिषोः उपगन्तुमिच्छुः उपजिगमिषुस्तस्य समोपं यातुमिच्छो: । ते तव । प्रियसुहृदिव प्रियमित्रवत् । स्वस्वलमच्छेयः तक क्लमस्थ अमस्य छेदे निवारणे दक्षः समर्थः । आस्वसन्ध्य योगः शोभनो गन्धः सुगन्धः सुगन्धस्य भावः सौगन्ध्यं तस्य बन्धुत्वस्य सुरमित्वस्य वा योगः सौगन्ध्ययोगः आरूड : सौगन्ध्ययोगो येन सः । गन्धो गन्बक आमोदे लेशे . सम्बन्धगर्वयो:' इत्युभयत्राप्यमरः । काननो दुम्बरराणां काननेषु वनेषु विद्यमानानां उदुम्बराणां जन्तुफलानाम् । 'उदुम्बरी अन्सुफलो यक्षाङ्गो हेमदुग्धकः' इत्यमरः । परिणतिर परिपक्वं कारयिता । शीतो वातः शीतलोवायुः | 'तुषारः शीतलः शीतः इत्यमरः । नीर्यः शनैः । 'अल्पे नीर्घः' इत्यमरः । वास्यति 'वा गतिगन्धनयो:' लुट् ॥३०
अन्वय - किञ्चित् गत्वा देवपूर्वम् गिरि उपजिग भिषोः श्रमपरिजुषः ते १. शोतो वायुरित्यपि पाठः ।
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द्वितीय सर्ग
प्रिय सुहत् इव प्रत्युद्यासुः स्वत्वसमच्छेदपक्षः आरूढ सौगन्ध्ययोगः काननोतुम्नराणां परिणमयिसा शीतः वातः नीचः बास्यति । ___ अर्थ--कुछ दूर जाकर देवगिरि को जाने के इच्छुक, श्रम से युक्त तुम्हारे प्रिय मित्र के समान प्रयत्न करता हुआ तुम्हारी थकान को नष्ट करने में दक्ष, जिसका सुगन्धि के साथ सम्बन्ध समुत्पन्न हुआ है तथा जो. जंगल के गूलरों को पकाने वाला है, ऐसा शीतल वायु धीरे-धीरे बहेगा।
ईशोमाभ्यामपचितपदं तं पुपुत्रीयिषुभ्यां, पूजा जैनी विरिरचयिषु स्वौकसि प्राज्यभक्त्या । तत्र स्कन्दं नियतवसति पुष्पमेघीकतारमा,
पुष्पासारैः स्नपयतु भवान्थ्योमगङ्गाजलानः ॥३१॥ इशोमाम्मामिति । तत्र देवीगिरी स्वीकास स्वाश्रये । 'औकः समाश्रयः' इत्यमरः। नियतवसति नियता निीता वसतिः स्पिप्तिर्यस्य तम् । तमेष । पुपुत्रीयिषम्या पुत्र कतुंम् पुत्रयितु वा इच्छू पुपुत्रोयिष ताभ्याम् । ईशोमाभ्याम् अष्टदिषपतित-पत्नयाम पावसोया ! 'हामरोशः पतिः ।' मा कास्यायनी गौरी' इत्युभयत्राप्यमरः । अपवितवम् अपचिते अघिते पदे चरणे यस्य सम् । 'स्या दहिते नमस्थितनमसितमपचायिताचि तापचितम्' इत्यमरः । अनीम अर्हत्सम्बन्धिनीम् । पूजा अर्चनाम् । प्राज्यभक्रया भजनं भक्तिः प्राज्या चासो भक्तिश्च तया । बिरिरचयिषु विरचयितुमिच्छु: विरिरचयिषुः तं कर्तु मिश्छुस् । स्कन्वं स्कन्दाभिषानं कचिदेवविशेषम् । भवान् स्वम् । योमगङ्गाजलाई आकाशगङ्गानद्याः जलेना:। पुष्पासार: कुसुमसम्पातः । 'धारासम्पात आसारः' इश्यमरः । पुष्पमेधोकतारमा पुष्पाणां मेषस्तथोक्त: पुष्षमेघोकृतः आत्मा स्वरूपं यस्य तथोक्तः सन् । स्नपपतु अभिषिचतु ।।३१।। __ अन्वयः-- पुपुत्रीयिषुम्यां ईशोमाभ्या अपचितपदं स्वीकसि प्राज्यभक्त्या जनी पूजां विरिरीय तत्र नियतवसति स्कन्द पुष्पमेधीकताल्मा भवान् व्योमगङ्गाजलाने: पुष्पासारैः स्नायतु ।।
अर्थ-( स्कन्ददेव को ) अपना पुत्र बनाने की इच्छा वाले ईश ( उत्तर पूर्व दिशा के पति ) तथा उसकी स्त्री उमा के द्वारा जिसके चरणों की पूजा की गई है, अपने भवन में अत्यधिक भक्ति से जो जैनी पूजा को करने का इत्रछुक है तथा देवगिरि पर जिसका निश्चित निवास है। ऐसे स्कन्ददेव पर फूलों की वृष्टि करने वाले मेघ के समान शरीर को धारण करते हुए आकाशगङ्गा के जल से भीगे हुए फूलों की वृष्टि से अभिषेक करें।
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पार्वाभ्युदय पूज्यं देवैजिनपतिमजं पूजयन्तं सदैनं, वृष्ट्वा पूतं त्वमपि भवितादेववन्दे दिवानयम् । रक्षाहतानाशभूता वासयोना चनामत्यादित्यं हुतवहमुखे सम्भृतं तद्धि तेजः ॥३२॥
पूज्यामिति । वेवैः दिविजः । पूज्यम् अय॑म् । अज न जायत इत्यजः जन्मरहितस्तम् । उपलक्षादलकादिरहितत्वमनुमोयते । जिनपतिम् अनेक भवगहनविषमव्यसनप्रारणहेतून् दुर्जयकर्मठकर्मागप्तीन् जमन्तीति जिनाः प्रमतादिगुणस्थानबत्तिनः । एदेजिनास्तेषां पतिस्तम् । अहंदीश्वरम् । सदा सर्वस्मिन्काले । पूजयन्तम् । पूतं सत्पूजनादिव पवित्रम् । 'पूर्त पवित्रं मेध्यं ध' इत्यमरः । एनं स्कन्दम् । त्वमपि दृष्ट्वा अवलोक्य नवशक्षिमता नवं नूतनं शशिनं बित्ति अथवा पाशिनं विभीति शशिभत सोमविश्वाल: नवः शशिभत यस्याः सा तथोक्ता तया । विवा आकाशेन अथवा स्वर्गेण 'चोदिवों द्वे स्त्रियामभ्रम्' द्यो विवो के स्त्रियां क्लीवम्' इत्युभयत्राप्यभरः । वासबोभो पासवस्येन्द्रस्यमा वासब्यः 'प्रारिजतावण' तामां शक्रसम्बन्धिनीनाम् । 'वासको दहा पृषा' इत्यमरः । चमना सेनानाम् । रक्षाहेतोः रक्षाया हेतुः तस्मात् । पालनार्थमित्यर्थः । इतवमुखे हुत बहतीति हुतवहः 'बुल्बल्लिहावेभ्यः' इत्यन् । तस्य वहमुख अग्निमुखे । अथवा अग्नीद. मुखे । सम्भतं सञ्चितम । अस्यानित्यम् आदित्यमतिकान्तम् आदित्यादपि प्रकृष्टम् । 'गतादिषु प्रादपः' इति समासः । रेवन्द अमरनिकाये । अयम् अग्ने भवमग्र्य श्रेष्ठम् । 'परााग्रप्राग्रहर प्राग्राम्याग्रीयमनियम्' इत्यमरः । ततः तत् प्रसिहं तेजोरूपं पैतन्यम् । हि स्फुटम् । भविता । 'त्र' इति प्रत्ययान्तः तत्सामर्थ्य'रूपो भवितासीत्यर्थः । विश्रेषप्राधान्यान्ननपुंसकनिर्देशः ।। ३२ ।। ___ अन्वय-देवः पूज्यं अजं जिनपति सदा पूजयन्तं पूतं एनं दृष्ट्वा ( यत् ) देववृग्दे अग्रये ( यत् ) हुतवहमुखे ( विद्यते ), ( यत् ) वासवीनां पमूनां रक्षाहेतोः नवशशिभूता दिवा सम्भूत तत् अत्यादित्य तेजः त्वं अपि भवतात् ।
अर्थ-देवताओं के द्वारा पूज्य, जन्म रहित जिनेन्द्र भगवान की सदा पूजा करते हुए पवित्र स्कन्ददेव को देखकर जो देव समूह में उत्कृष्ट है तथा जो अग्नि के मुख में विद्यमान हैं एवं इन्द्र के सैन्थों की रक्षा के लिए अथवा पृथ्वी के प्राणियों की रक्षा के लिए नए चन्द्रमा को धारण करने वाले आकाश के द्वारा संग्रहीत हैं, ऐसे सूर्य को भी अतिक्रमण करने वाले अथवा देवताओं के तेज को भी अतिक्रमण करने वाले तेज आप में होवें।
१. भवताद्देववृन्दे ।
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द्वितीय सर्ग
१७३ व्याख्या अनेक भवों में दुःख पहुँचाने के निमित क्रमठ आदि तथा कर्मशत्रुओं को जीतने वालों को ही जिन का मा है : पंताड गुणस्थानवर्ती हैं, उन एकदेश जिनों के स्वामी जिनपति हैं।
सोऽपि त्वत्तः श्रुतिपथसुखं गजितं प्राप्य बी, तुष्टः केकाः प्रतिषिकुरुते वाहनं तस्य भर्तुः । ज्योतिर्लेखावलयि गलितं यस्य वह भवानी, पुत्रप्रेम्णा फुवलयदलप्रापि कर्णे करोति ॥३३।। सोपोति । यस्य मयूरस्य । पोसिलेखावलीय ज्योतिषां तेजसा लेखा राजयः सासां क्लयं मण्डलमस्यास्तीति तथोक्तम् । गलितं च्युतम् । स्वयं निपतितमित्याशयः । बह पिच्छम् । 'पिच्छबर्हे नपुसके' इत्यमरः । भवानी पार्वती । पुनप्रेम्णा सुतस्नेहेन । कुवलयपनप्रापि कुवलयस्य दलं पत्र तयोगित्प्रापि यथा तथा । कणे श्रोग्रे । करोति विवधाति । दालेन सह वारयतीत्यर्थः । यद्धा दलप्रापि दल प्राप्नोति दलपाप तस्मिन् । एलहि कर्णे करोति । क्विबन्तात्सप्तमो । पलं परिहत्य तस्थाने बह धत्ते इत्यर्थः । सो पि स च तस्य भर्तुः स्कन्दाभिधानस्य विभोः। वाहनम् आविशिष्टलिङ्गत्वात् नपुंसकश्यम् । मानभूट: यहाँ मयूरः । त्वत्त: भवतः सकाशात । श्रुतिपयमुखं श्रुल्योः श्रोत्रयोः गथस्य विवरस्य सुखं यथा तथा । गजितं स्तनितम् । प्राप्य लध्दा । तुष्टः सन्तुष्टः सन् । केकाः केवारवान् । प्रतिविकुरुते गजितस्य प्रतिध्वनीम् कुरुते ॥ ३३ ॥
अन्वय-अस्य गलितं ज्योतिर्लेखावलपि माँ भवानी पु प्रेम्णा कर्ण कुवलयप्रापि करोति सः अपि तस्य भतु: वाह्न बहीं त्वत्तः श्रुति सुखं मजितं प्राप्य तुष्टः केकाः प्रतियिफुरुते ।
अर्थ-जिसके । शिखा कलाप से) गिरे हुए तज की रेखाओं से युक्त मण्डलाकार पंख को रुद्र की पत्नी भवानी पुत्र के स्नेह से कान में स्थित नीलकमल के पत्तों से संयुक्त करती हैं अथवा कान में जहां नीलकमल स्थापित किया जाता है, वहाँ रखती है वह स्कन्द नामक देव के स्वामी का वाहन मार तुमसे श्रोत्रविवर को अच्छी लगने वाली गर्जना पाकर सन्तुष्ट होता हुआ प्रत्युक्ति के रूप में ध्वनि करता है।
यः सद्धर्मात्सकलजगतां पावकाल्लब्धजन्मा, तस्य प्रीत्या प्रथममुचितां सत्सपर्याम् विहि । धौतापांग हरशशिस्था पावकेस्तं मयूरं, पश्चावद्रिग्रहणगुरुभिजितेनंतयेथाः ॥३४॥
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य इति । सकलजगतां सर्वलोकानाम् । तास्थ्यात्तद्वयपदेशोस्त्रलोक्य भन्य जनानाम् इति यावत् । पायकात् पुनीत इति पावकस्तस्मात् । 'पूञ् पवनेष्वनच्' हवः । सद्धर्मात संश्चासौ धर्मश्च तस्मात् । सहिशेषणादहिंसादिलक्षणवं लक्ष्यते । यः । लन्धजन्मा प्राप्तोदयः । सस्य साथंकनाम्नः पावकेः पावकात् भवः पावकस्मस्य । 'अत इज्' झीन् । प्रथम प्राक् । उचिता योग्याम् । सत्सपर्या समीचीन पूजाम् । 'सपश्चिाहणाः समाः' इत्यमाः । प्रोत्या अनुरागण । विधेहि कुरु । पश्चात् तदनु । हाशिरचा ईशानचन्द्र किया । धौतापाङ्गं सस्वोपिश्चत्यादिति घलिते नेत्रान्त यस्य तम् । तं मयरं तद्यानभूतं शिखिनम् । अविग्रहणगुभिः मद्रेः देवगिरेः ग्रहणेन गुरुभिः महद्भिः प्रतिध्वानप्रवृतरित्यर्थ: जिस स्तनितः । मतंयेषाः नाटयः । माङ्गिकभावन नतंयेत्यर्थ : ३३ ३४ ॥
अन्वय-यः सकलजगतां पावकात् सद्धर्मात लब्धजन्मा सस्य प्रीत्या उधितां सत्सपर्या प्रथमं विधेहि । पश्चात् हरपाशिरुचा धौतापाङ्ग पावके तं मयूर पश्चादद्रिग्रहणगुरुभिः गजितः नतयेथाः । ___ अर्थ--जो स्कन्द नामक देव संसार के समस्त प्राणियों को पवित्र करने वाले सद्धर्म से उत्पन्न हुआ है, उस देव की अनुराग के साथ योग्य समीचन पूजा को पहले करो। अनन्तर मनोहर चन्द्रमा के उद्योत अथवा शिवजी के सिर को चाँदनी या पूर्वोत्तर दिशा के स्वामी के चन्द्रमा की कान्ति से उज्ज्वल नेत्र प्रान्तों से युक्त धर्मपुत्र ( स्कन्द ) उस मोर को देवगिरि की गुफा में प्रतिध्वनित होने से दीर्घ ( अपने ) गर्जनों से नचाओ।
हृद्ये स्वच्छे सरसि विपुले धर्मसम्झे भवत्वाल्लब्धाभिख्यं भुवनजनतामाननीयं बजाशु । आराध्यैनं शरवणभवं देवमुल्लयसाध्या, सिद्वन्द्वैजलकणभयाद्वीणिभिमुक्तमार्गः ॥३५॥
हृद्य इति । हुये मनोहरे । 'अभीप्टेऽभीप्सितं हृधम्' इत्यमरः । स्वच्छ निर्मलं विमले । विपुले रुण्डे । 'इण्ड्रोविपुल पोनम्' इत्यमरः । धर्मसम्शे धर्म इति सञ्जा नाम गस्य तस्मिन् । 'सज्ञा स्याच्येतना नाम हस्ताश्चार्थसूचना' इत्यमरः । सरसि सरस्पाम् । भवत्वात उदभूतत्वात् । लब्धाभिस्यं प्राप्ताभिधानम् । 'अमिघानम् । अभिख्या नामशोभयोः' इत्यमरः । शरवणभषं शराणामुदकानां वनं संधयः शरवणम् । 'प्रान्तन्नियोः' इत्यादिमा णत्वम् । 'शरो दध्यायनसारे बाणे
१. वीणिभिरित्यपि पाठः ।
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काखे तृणान्तरे । परं तु नीरे' इति नानार्थरत्नमालायाम् । 'प्रवप्रवासनिवास्वारिकान्तरेषु वनम्' इति नाना रत्नमालायाम् । भुवन जनतामाननीयं भुवनानां जगतां जनास्तेषां समूहो भुवनजनता 'ग्रामजन' इत्यादिना तल । तथा माननीय पूजनीयम् । एवं प्राक्कथितम् । वैवं स्वामिनम्। आराध्य पूजयित्वा । उल्लयिताध्या उचलितमार्गः । वेणिभि वीणास्त्येषामिति तयोक्तास्तं वोणया कलितः । सिद्धः सिद्धमिथुनः । जलकणभयात् खन्नीरबिन्दुपतनभीतः । जलसंक्रस्य वीणा
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प्रतिबन्धकत्वादित्याशयः । मुक्तमार्गः त्यक्लाभ्वासन् । आशु शीण ब्रज गन्छ | अत्र चतुर्व्वप्यतीतेषु पद्येषु परपक्षप्रतिपक्षतया तत्त्वर्थानुसारेण कल्पनाकथा काचित्कल्पनीया वादार्थपरत्वादस्य काव्यस्येत्यभिमन्तव्यम् ।। ३५ ।।
अन्यय---हुये स्वच्छे विपुले धर्मसजे सरसि भवत्वात् लब्धाभिख्यं भुवनजनतामानमीयं एनं शरवणभवं देवं आराज्य उल्लङ्घिताच्या जलकणभयात् वीगिभिः सिद्धद्वन्द्वः सुषमार्गः आशुव्रज ।
अर्थ- हृदय के लिए सुखकर, स्वच्छ, अगाध, धर्मनामक तालाब में जन्म लेने से प्रसिद्धि को प्राप्त करने वाले, संसार के जलसमूह द्वारा माननीय, झरने में उत्पन्न इस ( स्कन्द ) देव की आराधना कर, कुछ आगे जाकर जलकणों के गिरने के भय से वीणा से युक्त सिद्धदम्पतियों द्वारा मार्ग को छोड़ देने पर शीघ्र जाओ ।
गत्वा तस्मादविरलगलन्निर्झरान्तर्मलां तां प्राप्याकीतिं जनवदनजां क्षालयन्पुण्यतोयेः । *पालम्बेथाः सुरभितनयालम्भ मामयिष्यन्, लोतोय भुवि परिणता रन्तिदेवस्य कीर्तिम् || ३६ ||
गत्येति । तस्माद्देवगिरेः सकाशात् । गत्वा चलित्वा । अविरलगलनिर्झरातलाम् अविरलं निरखतरं गलन् निर्गच्छन् निर्भरेण प्रवाहेणान्तर्मलामन्तः कलु षिताम् । तां प्रसिद्धां चश्वतोनामनदीम् । प्राप्य आसाच । सुरभितमव्यालम्भज सुरभितनयानां गवाम् आलम्भनेन सपनेन जायते इति जाताम् । 'आलम्भपिजविशरबातोन्साय वा अपि' इत्यमरः । भुवि लोके स्त्रोतोमूर्त्या प्रवाहरूपेण । परिणत मान्तरमवाप्ताम् रन्तिदेवस्यतदभिधानस्य । ददापुराणामधिपस्य नृपस्य । कीर्ति यशः । जनवदननां एवं लोकमुखजनिताम् अकीति रन्तिदेवस्यायशः । - पुष्पतोय: तीर्थोदकैः । क्षालयन् प्रक्षालयत् । मानयिष्यन् पूजयिष्यन् । विशुद्धयनन्तरम् समानं करिष्यन इत्यर्थः । व्यालम्बेषाः आश्रयेथाः अवतरेत्यर्थः ।। ३६ ।।
अन्वय--तस्मात् गत्वा अविरऊगलग्निर्स राम्तलां सुरभितन पालम्भ
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पाश्र्वाभ्युदय जनवदनजां भूवि स्रोतोमा परिणता रन्तिदेवस्य अतिता प्राप्य पुण्यतोयः क्षालयन ( तi ) कौति मानयिष्यन म्यालम्बेथाः ।
अर्थ—देवगिरि से जाकर निरन्तर गिरते हुए झरनों से अन्दर काई आदि मल वाली, गायों के मारने से उत्पन्न, लोगों के मुखों से उत्पन्न, पृथ्वी में प्रवाहरूप से परिणत राजा रन्तिदेव की अकीर्ति स्वरूप उस चर्म
वती नदी को पाकर पुण्यजलों से प्रक्षालन कर ( उसे ) रन्तिदेव की कीर्ति मानते हए उस नदी का आश्रय लो। इतः पादवेष्टितम्--
तस्या मध्येजलमुपचिताम्भोनिकाये मुहर्त, छायां कृष्णाजिनमदहरां सन्दधाने समग्नाम् । मन्ये युक्तं सरिति सुतरां तत्र चर्मण्वतीति, त्वय्यावातुजलमबनते शाङ्गिणो वर्णचोरे ॥ ३७ ॥ तस्या इति । उपचिताम्भोनिकाये सक्रियतजलप्रजे "निदग्धोचिते' इत्यमरः । इदमेवकृष्णवसापकत्वम् | कृष्णाजिनमबहरी कृष्णाजिनस्य अमितचर्मणः मदहा भङ्गफीम् । तस्मादप्यतिकृष्णत्वान्मदहरत्वम् । समग्रो सम्पूर्णाम् । छायां क्रान्तिम् । 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः' इत्यमरः । सम्वषाने सम्यक् मिश्चति । पाङ्गिणः कृष्णस्य । 'पीताम्बरोऽच्युतः शाङ्गों' इत्यमरः । वर्णधोरे वर्णस्य कान्तश्चोरः । औचित्यादर्थनिर्णय इति । प्राही तस्मिन् तरसमानवर्ण इत्यर्थः । त्वपि भवसि 1 जलम् उदकम् । आरस्तु' ग्रहीतुम् । तस्याः चमण्यातीनशः । मध्येमलं जलस्य मध्य मध्येजलम् । 'पारमध्यषष्ठ्याः ' इत्यव्ययीभाव निपातनादेल्वम् । 'सप्तम्याः ' इति वाम् । जलस्य मध्यप्रदेश इत्यर्थः । महत महतपर्यन्तम् । अवनते अवलम्बिते सति । तत्र सरिति सम्नद्याम् । चर्मण्यती चर्मास्या अस्तीति चर्मण्वती। 'मष्ठीवत' इत्यादिना मतेमिकारस्य वत्वम् । नदुग्' इति की। इति एवं नामति शेषः । युक्तं व्युत्पत्तियोग्यम् । सुतराम अत्यन्त मध्ये जाने ॥ ३७ ॥
अन्वय-तत्र सरिति शाङ्गिणिः वर्णधारे त्वयि जल आदातु' अवनते तस्याः मध्येजलं उपचिताम्भोनिकाये कृष्णाजिनमबहरां समनां छाया मुहूतं सन्द पाने (सति तस्याः) चर्मण्वती इति [अभिधान) सुतरां युक्तं मन्ये ।
अर्थ-उस चर्मण्वती नदी में श्रीकृष्ण के वर्ण को चुरानेवाले तुम जब जल को लेने के लिए झुकोगे तो उस धर्मण्वती के जल के मध्य में जल समूह के संचित होने पर कालेवर्ण के चमड़े के मद को हरने वाली सम्पूर्ण छाया या प्रतिबिम्ब को क्षण भर के लिए देने पर अर्थात् जल में अपने को
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१७७ प्रतिबिम्ब करने पर उस नदी का चर्मण्वती यह नाम अत्यधिक योग्य मानता हूँ।
स्वय्यभ्यर्णे हरति सलिलं तत्र राहोस्सवणे, नूनं ज्योत्स्नाक्सिरविमलं तर्कयेयुर्नभोगाः । मध्ये नील सितमिव दुकूलोतरीयं पृथिव्या. स्तस्याः सिन्धोः पृयुमपि तनुदूरभावात्प्रवाहम् ।। ३८ ॥ त्वपीति । राहोः राहुग्रहस्य । सवर्णे नमानो वर्णो यस्य तस्मिन् । सः समानस्य धर्मादिम्मिति समानस्य सकारादेशः । अभ्यर्णे समीपगते । त्वपि भवति । तत्र नद्याम् । सलिलं जलम् । हरसोलि हर । तस्मिन् सीकुवंति सति । नभोगाः नभसि गच्छन्तीति नभोगाः खेचराः । पृथमपि पलमपि । इरभावात् द्वरत्वात् तनु सूक्ष्मतथा प्रतीयमानम् । तस्याः सिन्योः तन्नद्याः । प्रवाहं निर्झरं । ज्योत्स्ना विसर विमल ज्योत्स्नाचन्द्रिकायाः विसर इन प्रसरवत् विमलं निर्मलम् । मध्ये मध्यप्रदेशे । मीलं कृष्णम् । सितम अन्यत्र धवलवर्णम् । पषिष्याः भूदेव्याः । कुकूलोत्तरीयमिव क्षौमसंख्यानवस्त्रमित्र 1 'क्षामं बुकूलं संव्यानमुन्नरीयं च' इत्यमरः । नूनं निरुपयेन । तर्फयेयुः जहमेयुः ॥ ३८ ॥
अन्वथ- -राहो: सवर्ण त्वयि तत्र अभ्याणे सलिलं हरति (सति) तस्याः सिन्धोः पृथु अपि दूरभावात् तनु ज्योत्स्नाबिरलविमल प्रवाह नभोगाः पृथिव्याः मध्ये नीलं सिते दुकूरलोत्तरोयं इव नूनं तययुः । ___ अर्थ-राहु के समान वर्ण वाले तुम्हारे चर्मण्वती नदी के समीपवर्ती प्रदेश में जल को ग्रहण कर लेने पर उस नदी के बहुत बड़े होने पर भी दुरी के कारण छोटे दिखने वाले प्रवाह को विद्याधर पृथ्वी के मध्य में नीले ( तथा अन्यत्र । सफेद रेशमी वस्त्र के दुपट्टे के रूप में निश्चित रूप से सम्भावना करेंगे।
विद्युत वित्ततवपुर्ष कालिकाकर्बुरागं, स्वामामन्द्रध्वनितसुभग पूर्यमाणं पयोभिः । क्रीडाहेतोः सितमिव दति स्वर्वधर्भािवमुक्तां,
प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नुनमावयं दृष्टीः ॥ ३९ ॥ विद्युदिति । विद्वध्रीविततवर्ष विशुदेव यौनप्रीतमा विततं नई वपुः शरीरं यस्य तम् । 'नधी वधी वरत्रा स्यात्' इत्यमरः । कालिकाकयुराङ्ग कालिन वैन मेघमालेच कालिक-या या कबुरं शवलं अङ्ग यस्य तम् । 'मेघमाला व
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पारभ्युिदय काकिका ।' 'शबलताश्च काबुरे' इत्यमरः । सामन्त ध्वनिससुभग ईषद् गम्भीरध्वनिनासुन्दरम् । पयोभिः नीरः । पूर्वमाणं पर्यत इति पूर्यमाणस्तम् । जल स्वीकुर्वन्तमित्यर्थः । त्यो भवनम् । स्वर्वभिः त्रिविष्टपकालाभिः । कोडाहेतोः लीलानिमित्तम् । विमुक्ता भुवं क्षिप्तां। सिति मेचकवर्णाम् । 'सिती धवालमेको' इत्यमरः । वृसिभित्र धर्मपात्रमिय 'दृतिश्चर्मघण्टे रूपे' इति विश्वः । गगन गतयः गगने न्योम्नि गतिर्गमनं येषां ते तथोक्ताः विद्यापरादयः । दृष्टीः नेत्राणि । आवज्यं आसमन्तादुभील्यः । नूनम् अवश्यं । प्रेक्षिष्यन्ते द्रक्ष्यन्ति ॥३९॥
अन्वय–विशुद्वीविततवपुर्य कालिकाकबुगङ्ग आमन्द्रध्वनितसुभगं पयोभिः पूर्यमाणं सां स्वबंधुfi: क्रीडाहेतोः विमुक्तां सितिं दृति हर गगनगतयः दृष्टोः आवज्यं नून प्रेक्षिप्यते । ____ अर्थ-बिजली रूपी चमड़े की पट्टी से ब्याप्त शरीर से युक्त, कालेपन के कार” नारे शरीर नाने, कल गभीर ध्वनि से मनोहर और जलों से भरे हुए तुम्हें स्वर्ग की स्त्रियों के द्वारा कोड़ा के लिए छोड़ा गई, काले वर्ण की चमड़े की मशक के समान आकाश में विचरण करने वाले सिद्ध विद्याधरादिक नेत्रों को नीचे लगाकर अवश्य देखेंगे।
अध्यासीने त्वयि कुघलयश्यामभासि क्षणं वा, सिन्धारस्याः शशधरकरस्पद्धिनं तत्प्रवाहम् । द्रक्ष्यात्यग्नाध्रुवनिमिषा दूरभावज्यं वृष्टीरेफ मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम् ॥ ४० ॥ अध्यासीन इति । अस्याः सिन्धोः । चर्मण्वस्याः । शशधरफरस्पषिनं चन्द्रकिरणविजयिनं तस्मादप्यतिम्रवलमित्यर्थः । तत्प्रवाहं स चासौ प्रवाहश्च तम् । कुवलयश्याम भासि नोलोत्पलस्पेव श्यामा भाः यस्य तस्मिन् । 'नीलोत्पलं कुवलयम भाश्छविचतिदीप्तयः' इत्यमरः । त्वयि भवति । क्षणं वा क्षणपर्यन्तमपि । अध्याप्तीने आस्थिते सति । शोङ्स्थासोऽधेगधारिण' इति आधारे ई । अनिमिषाः सुराः । 'सुरमत्स्यावनिमिषी' इत्यमरः । भुवः भूकान्तायाः। स्थूलमध्येन्द्रनील स्थूलो महान् मध्यो मध्यमणिभूतः इन्द्रनीलोमणियंस्यतम् । एकात् एकयाष्टिकम् । मुक्तागुणपिव मुस्ताहारवत् । अपात उपरिभागात् । 'अग्रं पुरः शिखामानश्रेष्ठादिक फ्लादिषु' इति भास्कर: । दृष्टीः नयनानि । दूरम् आभूपर्यन्तम् । आषय व्यापार्य । प्रवम् अवश्यम् । व्रक्ष्यन्ति लोकिप्यन्ते । अत्र नोलमेघसङ्गतस्य प्रवाहस्य भूकण्ठगतमुक्तागुणत्वेनोत्प्रेक्षेमिय शब्देन व्यज्यते ॥४०॥
१. समीक्षा
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अन्यय-अस्याः सिन्धोः शशघरकरस्पधिन तस्प्रवाहं कुवलयश्यामभासि स्त्रयि क्षणं वा अध्यासीने स्थूलमध्येन्द्रनीलम् भुवः एक मुक्तागुणम् इव अनिमिषाः दृष्टोः दरं आवर्य अनात् ध्रुवं द्रक्ष्यन्ति ।
अर्थ-इस चर्मण्वती नदी के चन्द्रमा की किरणों से स्पर्धा करने वाले उस प्रवाह में नीलकमल के समान स्वामकान्ति बाले तुम क्षणमात्र के लिए बैठने पर मध्य में स्थूल इन्द्रनीलमणि से युक्त पृथ्वी की एक लड़ी वाली मोतियों से बनाई गई माला के समान ( तुमको ) देव दृष्टि को दूर से डालकर ऊँचे आकाश प्रदेश से निश्चित रूप से देखेंगे। ___ व्याख्या-नीलकमल के समान कान्ति वाले हे मेघ ! जब तुम उस चर्मण्वती नदो के प्रवाह के मध्य कुछ क्षण के लिए बैठोगे तो उस समय नदी एक लड़ी वाली मोतियों की माला के समान दिखाई देगी और तुम स्थूल इन्द्रनीलमणि के समान मालम पड़ोगे । ऐसी स्थिति होने पर आकाश से देव अवश्य ही तुम्हें इस रूप में देखेंगे ।
एवम्प्रायां सलिलविह्नति तत्र कृत्वा मुहूर्त, वारां पुण्यां सुरगज इव व्योममार्गानुसारी। लीलां पश्यन्प्रजविपवनोद्धृतवीचीचयानां, तामुत्तीर्य व्रज परिचितभूललाविभ्रमाणाम् ॥ ४१ ॥
एवमपि । तत्र नद्याम् । एवं रोस्पा । प्रायां बटुलाम । वारामुक्कानाम् । "वारि जलम्' इति धनञ्जयः । पुण्या पुण्यमिव पुण्या ताम् । तीर्य विशेषत्वात्सुकृतरूपाम् । सलिलावाति विहरणं विहतिः सलिलाना वितिस्तां जलक्रीडाम् । सुरगज इस ऐरावत इ । मतं स्वल्पकालपर्यन्तम् । कृत्वा विरच्य । व्योममार्मानुसारी आकाशमार्गानुसारी। परिचित भूलताविभ्रमाणां अबोलता इव 5 रूताः उपमित समासः । तासो विभ्रमाः विलासाः परिचिताः क्लत्ताः ध्र विलासाः पेषु तेषाम् । प्रजविपयनोबतधीचीचयानां प्रजाविमा प्रवेगवता पवनेन वायुना उलूताः उत्कम्पिता: 'प्रजवीजबनो जवः' इत्यमरः । धीचीनां च्याः बीचीचयाः ते च ते वीसीचयाश्च तेषाम् । लोला विलासम् । पश्यन् अवलोकयन् । तां धर्मपत्रतीम् । उत्तीयं उल्लङ्य । बज गच्छ || ४१ ।।
अन्वय–सत्र एवम्प्रायां सुरगज इव सलिल विहति मुहूर्त कृत्वा व्योममार्गानु-सारी प्रजाविपवनोमृतबोपीचयानो परिचित लताबिभ्रमाणां पारा पुण्यां लीला पश्यन् तां उसीय अज।
अर्थ-चर्मण्वती नदी में इस प्रकार ऐरावत हाथी के समान जलकोड़ा
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पाश्वभ्युदय
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कुछ क्षण करके आकाशमार्ग से जाते हुए अत्यधिक वेगवती पवन के द्वारा जिसके तरङ्गों को उड़ाया गया है तथा भ्रूलता के विलासों को जानते हैं ऐसे जलों के सुन्दर बिलास को देखते हुए उस चर्मण्वती नदी को पारकर जाओ ।
लायाः खियोस्तुमुलभाजां लतानामुत्फुल्लानां ततमधुलिहां मुक्तधारं प्रवर्धत् । सीतापुरं व्रज लघु ततो जातहार्दस्तु मानात्, पक्ष्मोत्क्षेपापरिविलसत् कृष्णसार प्रभाणाम् ॥४२॥
तस्या इति । तस्याः सिन्धोः तन्नद्याः । अनुषनं वनदेध्येम् 'श्रीऽनुः' इत्यध्ययीभावः । उवस्तोरभाजाम् उत्सरतीराश्रितानाम् । उत्फुल्लानां विकसितानाम् । ततमधुलिह तता आवृता मधुलिहो यामां तासाम्। 'मधुमिलितः' इत्यमरः । लतानां वरुलरीणाम् । 'बल्ली तु व्रततिलंता' इत्यमरः । मुक्तधारं मुक्ताधानराजलसम्पातो यस्मिन्कर्मणि तत् प्रवर्ष वृष्टि वितन्वन् । जातहार्वेः हृदयस्य भाष: हार्दम् 'हृदयपुरुषा दसमान' इत्यण् । 'हृदयस्य हुद्यानीस:' इति हृदावेश्च 'प्रेमाना प्रिया हाई प्रेम स्नेहः' इत्यमरः । जातं हर्दि यस्य सः तथोक्तः सन् । ततः तत्प्रदेशात् । पक्मोत्पात् पश्मणि मंत्रलोमानि 'पक्ष्मसूत्राणि सूत्रांदी किल्के नेत्रलोमनि' इति शाश्वतः । तेषामुत्क्षेपात् उन्नतमनाद्धेतोः । उपरिविलसत्कुष्ठष्पसारप्रभाणाम् । कृष्णाश्च ताः साराश्च कृष्णसाराः नीलशबलाः । वर्णेः वर्णः' इति समासः । ' कृष्णरमतसितः सारः' इति यादवः । उपरिक्लिसन्त्यः कृष्णसाराः प्रभास्तासाम् । सारवादादेव सिख कार्ये पुनः कृष्णशब्दोपादन] काव्यंप्राचान्याथंम् । मानात् प्रभाणात् । 'मानः स्त्रीणां कोरभेदे गविचिसोग्नतादपि 'माने प्रमाणे प्रस्थानम्' इति भास्करः । पदमत्क्षेपणा स्थितने तीनाम् । उत्सर्पणापसर्पणप्रमितकालादित्यर्थः । लघु शीघ्रम् । सीतापूरं मीतानदीप्रवाहं । व्रज गच्छ ।
।
अन्वयः -- तस्याः सिन्धोः उदकु अनुचनं तीरभाजां उत्फुल्लानां ततमधुलिहां लतानां मुखसाधारं सोलापूरं प्रवर्धम् ततः तु पक्षमोक्षेपात् उपरि विलसर कृष्ण सारप्रभाणां मानात् जात हार्दः लघु व्रज ।
अर्थ--- उस मण्वती नदी की उत्तर दिशा के बन में तट प्रदेश में उत्पन्न, विकसित भ्रमरों के विस्तार से युक्त लताओं पर जल धारा छोड़कर, जिसमें खेतों के कूंड भर जायँ ऐसी वर्षा करते हुए उस स्थान से पलकों के ऊपर उठाने से ऊर्ध्वं भाग में जिनके लोचनों की कृष्ण, रक्त और स्वेत प्रभा शोभायमान है ऐसी दशपुर की स्त्रियों के मान को पाकर आनन्दित हो शीघ्र ही जाओ ।
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द्वितीय सर्ग
१८१ विशेष-योगिराट पण्डिताचार्य की टीका के अनुसार सीतापुर का अर्थ सीता नदो का प्रवाह है। उन्होंने मेघ को सीता नदी के प्रवाह की ओर जाने का निर्देश किया है।
गच्छामार्गे प्रियमुपहरेः प्राणनाथोपधान, प्रत्याश्वासाद्वियति सुदृशां कृष्णसारोदरागाम् । लक्षीकुर्वन्पथिकवनितालोचनोल्लासकानां, कुन्दक्षेपानुगममधुकरश्रीमुषामात्मबिम्बम् ।। ४३ ।। गच्छम्निति । विर्यात योनि । मार्ग पथि । गच्छन् प्रयान् । कृणसारोबरा कृष्णसारस्येव मृगत्रिशे रस्येव उदरं यासा तासाम् । 'कृष्णसाररुरुन्मकरङ्क शम्बर रोहिषाः' इत्यमरः । तलोपरीणामित्यर्थः । सृवा शोभने : शो यास तासांकान्तानाम । 'दग्दष्टिः' इत्यमरः । प्राणनाथोपवामप्रत्यारवासात् प्राणनाथस्य भत: उपथान मागमनं लस्य प्रत्याश्वापो विश्वामः तस्मात् । प्रियं प्रोतिकरम् । 'दयिस बल्लभ प्रियम्' इत्यमरः । आत्मबिम्बं निजप्रतिबिम्बम् । कुम्मक्षेपरनुगममधुकरश्रीमषां कुन्दानि माध्यसमाति 'माध्य नन्दम' इत्यमरः । तेषां क्षेपः इतस्ततश्चलनं तस्य अनुगम अनुमारिणो ये मधुरा सैषां श्रियं शोभा मुष्णन्ति अपहरन्तीति तथोक्तानाम् । पथिकवनितालोचनोल्लासकानां पथिकवनिताना पान्थस्त्रीणां लोचनानां चक्षुषाम् उल्लास एव उल्लासकास्तेषां विलामालाम् । समीकुर्वन् विषयीकुर्वन् । 'लक्ष लक्ष्यं शरठ 'घ' इत्यमरः । उपहरेः उपनय ॥ ४३ ॥
अन्वय-वियति मार्गे गच्छन् कृष्णसारोदराणां कुन्दक्षपानुगममधुकरश्रीमुषां पथिकवनि नालोचनोल्लासकानां आत्मबिम्ब लक्षोकुर्वन् सदशा प्राणनापमानप्रत्याश्वासात् प्रियं उपहरेः ।
अर्थ-आकाश मार्ग में जाते हुए जिनके मध्य भाग काली और रंगविरंगी कान्ति से युक्त हैं अथवा कृष्ण सार नामक मृग के उदर के समान जिनका उदर है तथा जो बन्द पूष्प के चारों ओर धमने वाले भ्रमरों की शोभा को चुरातो हैं ऐसी पथिकों को स्त्रियों के नेत्रों के विलासों से अपने ( मण्डलाकार ) शरीर को लक्ष्य बनाते हुए प्रोषितभर्तृका स्त्रियों को प्राणनाथ के आगमन का विश्वास दिलाकर (उनका) अभीष्ट कार्य करें।
तस्मिन्नध्वन्यनतिचिरयन्नध्वनीनः प्रयाया, यस्मिन्यात्राफलमविकलं लप्स्यसे दैवयोगात् । जश्रेषणामिव हुदिशयस्यायत्तानां स्वबिम्बं, पात्रीकुर्वन्दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानाम् ॥ ४४ ॥
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पार्वाभ्युदय तस्मिन्निति । यस्मिन्मार्गे । दैवयोगात् विधिवशात् । 'दैवं दिष्ट भागघेर्म भाग्य स्त्री नियतिविधिः' इत्यमरः । अविकल सम्पूर्णम् । यात्राफल प्रयाणप्रयो। जनम् । 'यात्रा स्थाधारने गौ' इत्यमरः । सप्स्यसे प्राप्स्यसि । तस्मिन्नध्वनि तन्मार्गे । अमतिचिरयन् अतिचिरं करोत्पतिचिरयन् न अलिचिरयन् अनतिचिरयन् । अध्वनीनः पान्धः । 'आध्वान यम्बो' इति खप्रत्ययः । 'अध्वनीनोऽश्वगोडयन्यः पान्यः पथिक इत्यपि' इत्यमरः । हृविशयस्य हुदिशेते इति हृदिशयस्तस्य मन्मथस्य । आयसानां दीर्घाणाम् । 'सुदुरे दीर्घमायतो' इत्यमरः । मेषूणामिव जयशीलाना बाणानामिव । 'जनस्तु जेता । कलंबमार्गणाराः पत्री रोग इषुईयोः' इत्यमरः 1 बशपुरवधूनेत्रकोतहलाना बशपुरं रन्तिदेवपत्तनम् तत्र विद्यमाना वध्वः स्त्रिय स्तासां नेत्र कौतूहलाना नेत्राभिलाषाणाम् 'कुतुकं च कुतुहलम्' इत्यमरः । साभिलाषष्टीनामित्यर्थः । स्वबिम्ब स्वमूर्ति पात्रीकुर्षन् विषयोकुर्वन् । 'योग्य
नोः पात्र' ल्यमरः Iशमा सात !! ४४ !! ___अन्वय-हृदिशयस्य श्रेषूणां इव पायतानां दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानां स्वबिम्ब पात्री कुर्वन् यस्मिन् दैवयोगात् अविकलं यात्राफलं लप्स्यसे तस्मिन् अचनि अध्यनोतः ( वं) अनसिचिरयन् प्रमायाः ।
अर्थ-काम को जीतने वाले बाणों के समान दीर्घ दशपुर की स्त्रियों के नेत्रों के कुतूहल का अपने शरीर को पात्र बनाते हुए जिस मार्ग में भाग्योदय से ( शुभ कर्मोदय से ) सम्पूर्ण यात्रा के फल को पाओगे, उस मार्ग में शीघ्रगामी तुम अधिक देर न करते हुए जाओ।
इतः पादवेष्टितानि पश्चादर्धा वेष्टितानिरम्यान्देशानिति बहुबिधान्सादरं धीक्षमाणो, वेशातिथ्यं धजतु स भवांस्तत्र तत्रापि वर्षन् । सस्यक्षेत्रे गिरिषु सरितामन्तिके च स्थले च, ब्रह्मावतं जनपवमझायया गाहमानः ॥४५॥
रम्यानिति । इति एवं प्रकारेण । बहुविधान् बहुप्रकारान् । रम्यान् मनोहरान् । वेशान् जनपदान् । सावरं प्रीतिसहितं यथा तथा । वीक्षमाणः बोझते इति बीक्षमाणः अवलोकयन् । तत्र तत्र तस्मिन् तस्मिन् । सस्थक्षेत्रे केदारादी । गिरिषु पर्वतेषु । सरिता नदीनाम् । अन्तिके समीपे च स्थले प। अन्यत्र भूतलेऽपि । अभिवर्षन् अभिषिञ्चन् । अथ अनन्तरम् । ब्रह्मावतं ब्रह्मावत्तमपि । जनपवं देशम् । 'नीजनपदो देशविषयौ' इत्यमरः । छाक्या अनासपमण्डलेन । गाहमानः प्रविशन् न तु स्वरूपेण । स भवान् गम् । शातिथ्यं देशप्रत्यागत प्रतिपतिम् । व्रजतु गच्छतु ॥ ४५ ॥
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द्वितीय सर्ग अन्वय-अथ इति बहविधान रम्यान् देशान् सादरं वीक्षमाण : तत्र तत्र अपि सस्पक्षेत्रे, गिरिषु सरिता अन्तिके च स्थले च वपन ब्रह्मावतं जनपदं छायया गाहमानः स भवान् देशातिथ्यं व्रजतु ।
अर्थ-अनन्तर इस प्रकार अनेक प्रकार के रमणीय देशों को आदरपूर्वक देखते हुए उन उन खेतों, पर्वतों तथा नदियों के समीपवर्ती स्थलों में बरसते हुए ब्रह्मावर्त जनपद में छायारूप से प्रवेश करते हुए ( वह ) आप (ब्रह्मावर्त ) देश के अतिथि सत्कार को प्राप्त हों।
यस्मिथः तमालपाः कौरवोण चमूनां, प्रावर्तन्त प्रतियुयुधिरे यत्र चामोघशस्त्राः । पाण्डोः पुत्राः प्रतिहननतः पापभीताः सशस्त्र,
क्षेत्र क्षत्रमधनपिशुनं कौरवं तदभजेथाः ।। ४६ ।। यस्मिन्निति । यस्मिन् कुरुक्षेत्रे । कौरयीणां कुरुसम्बन्धितीनाम् । 'घमूना सेनानाम् । अतजकलुषाः रक्ताविलाः । 'रक्त क्षतर्ज शोणितम्' इत्यमरः । मद्यः सरितः प्रावर्तन्त प्रवर्त्तन्ते स्म । पत्र च कुरुक्षेत्रे । अमोषशस्त्राः सफलायुधाः । प्रतिहननस: प्राणिहिसनात् । पापभीताः पापभीनाः । पाण्डोः पाण्डुराजस्य । 'पाण्डः कुन्तीपती सिते' इति विश्वः । पुत्राः धर्मादितनयाः । सश शरूया सह वर्तते मस्मिन्कमणि तत् । प्रतिषिरे प्रयुध्यन्ते स्म । तत् सनप्रधनपिशुनम् । क्षत्रियसग्रामसूचकम् । 'प्रधनं धारण युद्ध' इति भास्करः । 'पिशुनो झलसूचको' इत्यमरः । कौरवं कुरूणामिदं तथोक्तम् । क्षेत्रं विषयम् । भनेपाः सेवेथाः ।।४६॥
अन्यय-यस्मिन् फौरवीणां चमूनां क्षतजकलुषाः नद्यः प्रावतन्त, यत्र च अमोघशस्त्राः प्रतिहननतः पापभीताः पाण्डोः पुत्राः सशङ्क प्रतियुधिरे तत् मत्रप्रधनपिशुनं कौरवं क्षेत्र भजेषाः । ___ अर्थ-जिसमें कौरवों की सेना के रुधिर से कलुषित नदियों प्रकट हुई, जहाँ पर सफल आयुधों वाले, प्राणिहिंसा के पाप से भयभीत पाण्डवों ने शङ्का युक्त होकर युद्ध किया उस क्षत्रियों के युद्ध की सूचना देने वाले कुरुक्षेत्र को (तुम ) जाओ।
वीरक्षोणी भुवनविदितां तां क्षणेन व्यतीयाः, क्षात्रं तेजः प्रतिभयभटस्तम्भनैः सूचयन्तीम् । राजन्यानो शितशरशतैर्यत्र गाण्डीवधन्वा, धारापातस्त्वमिव कमलान्यभ्यवर्षन्मुलानि ||४||
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पार्वाभ्युदय वीरक्षोणीमिति । पत्र रणभूमौ । गाडीवधन्य गाण्डीयमिति धनुर्मस्य सः गाण्डीप्रधन्वा अर्जुनः । 'अजुनस्मा की मानलका यार । धनुश्चापो धन्वशरासन कोदण्डकामंत्र म् 'इत्यमरः । शितशरशानिशितबाणबहुलः । "शितो बाणतनूकृती' इति वैजयन्ती । राजन्यानां राजामपस्यानि राजन्याः । 'जातो रामः' इति यः । ये नोव्ये' इत्यनोनलुक् । तेषां राजपुत्राणाम् । 'मूर्धभिषिक्तो राजन्यः' इत्यमरः । मुखानि वदनानि । त्वं भवान् । धारापातः धाराणामुदकघाराणां पात: प्रवर्षणः । कमसानोष पखुमानीव । अभ्यवर्षयत् अपातयत् । अभिमुखं दृष्ट्वा शरवर्षेण शिरांसिच्छेदयित्वा तवभिम शरवष्टिमतनोदिति वार्थ: प्रतिभयभस्तम्भनेः भदानां स्तम्भनानि निश्चलीकरणानि तथोक्तानि प्रतिभयानि भयङ्कराणि भटस्तम्भितानि तेः । भात्र क्षत्रसम्भवम् । तेक प्रभावम् । 'तेजः प्रभाये वीप्तौ च बले शुक्रष्यत स्त्रिषु' इत्यमरः । श्रयम्ती दर्शयन्तीम् । भुवनविविता लोक प्रसिद्धाम् । स बोरक्षोणों रणभूमिन् । शणेन क्षणमात्रेण । व्यतीयाः उल्लय: भमसूरत्वादिति भावः ।।४७||
अन्वय-यत्र धारापात:कमलानि त्वं च गाण्डोवपन्या शितशरशतः राजन्यानां मुखानि अभ्यमषंत, तां प्रति भयभटस्तम्भनेः क्षात्रं तेजः सूचयम्ती भवनविदितां वीरक्षोणी क्षणेन व्यतीमाः ।
अर्थ-जिस प्रकार कमलों के ऊपर तुमने प्रवाह रूप से वर्षा की थी, उसी प्रकार जिस कुरुक्षेत्र में गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन ने तीक्ष्ण सैकड़ों बाणों से क्षत्रियों के मुखों के ऊपर वर्षा की थी अर्थात् मुखों का छेदन कर दिया था। उस भयंकर योद्धाओं के आगे बढ़ने को रोकने से क्षत्रिय जातिविषयक तेज को सूचित करती हुई पृथ्वी मण्डल में प्रसिद्ध वीरों को उत्पत्ति स्थली को क्षण मात्र में पार करो।
पुण्यक्षेत्रं तदपि भजनीयं हि तस्योपकण्ठे, यस्मिन्सोस्थात्तपसि हलभृत्प्रात्तराषिवृसः। शाङ्गिण्यस्तं गतवति महीनिःस्पृहो मन्मयीयां, हित्वा हालामभिमतरसां रेवतीलोचमाङ्काम् ।।४।। पुण्यक्षेत्रमिति । तस्य कुरुक्षेत्रस्य । उपकण्ठे समीपे । 'उपण्ठिकान्तिकाभ्यम्यिना' इत्यमरः । पस्मिन् प्रदेशे । शादिमणि वासुदेव । अस्तं गतपसि मरणं गते सति । सः प्रसिद्धः । हलभूत पद्मबलदेवः । 'रेवतीरमणो रामः कामपालो हलायुधः' इत्यमरः । महोनिस्पृहः भूमौ निर्गताभिलाषः । रेवतीलोसमा रेवत्याः १. वरिवस्पेसि पुस्तकांतरे।
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द्वित्तीय सर्ग
स्वभार्यायाः लोचने एव मङ्क यस्यास्ताम् । अभिमतरसार अभिमतो:भीष्टो रमः शृङ्गारादिर्यस्यायास्ताम् मन्मथीयां मन्मथस्येयं मम्मथीया नाम् । हालां सुराम । 'सुरा हलिप्रिया हाला' इत्यमरः । मन्मथावरथव सुरेति फुत्सितोपमा । हित्या त्यवा। प्रात्तराषिवृत्तः राजा चासो ऋषिश्च राजर्षि : प्रात्तं प्राप्त गजर्षेमुनीन्द्रस्य वृत्तं वर्तनं येन तोक्सः सन् । तपसि ताश्चरणे । अस्यात् अतिष्ठत् । तदपि पुण्यक्षेत्रम् । ततोर्यस्थानमपि हि स्फुटम् । भजनीयं भोवतु वोम्यं भजनीयं सेवनीयम् । त्वयेति शेषः ।।४८॥
अन्वय-शाङ्गिणि अस्प्तं गतयति सः महोनिः स्पृहः प्रान्त राजपिवृतः हलभूत अमिमसरसा रेवतीलोचनावां मन्मथीयां हालां हित्वा यस्मिन् तसि अस्थात् सत् तस्य ज कण्ठे पुण्यक्षेत्रं अपि हि भजनीयम् । ___ अर्थ-नारायण ( कृष्ण ) के विलय को प्राप्त हो जाने पर वह पृथ्वी के प्रति निःस्पह, मनीन्द्र के आचार को स्वीकृत करने वाले बलराम के अभीष्ट स्वाद वाली रेवती के नेत्रों के प्रतिबिम्ब से युक्त, कामुक मदिरा को छोड़कर जिस ( पुण्य क्षेत्र ) में तप के लिए बैठे, प्रसिद्ध उस कुरुक्षेत्र के समीप में विद्यमान ( वह ) पुण्यक्षेत्र अवश्य ही सेवन करने योग्य है ।
तास्ते पुण्यं विवधति पुरा भूमयो दृष्टमात्राः, वन्याः पुंसां परिगमनतस्त्वां पुनन्त्येव सद्यः । पृथ्वोमेन स किल विहरन्नात्तबीक्षः प्रजासु 'बन्धुस्नेहात्समरविमुखो लाडली याः सिधेवे ।।४९||
ता इति । सः साङ्गली पबलदेवः । प्रजासु जनेषु । 'प्रजा स्यात्सन्तती 'जने' इत्यमरः । बन्धुस्नेहात् बन्नाविध स्नेहस्तस्मात् । समताभावावित्यर्थः । समरविमुखः साम्परामपराक मुखः जीवहिंसाविमुख इत्यर्थः । आत्तवोक्षः स्त्रीकृत परिव्राज्य: एना पुचोम् एतमि । विहान् पर्यटन् । याः भूमीः। सिषेवे से इते स्म किस ताः । पुसा पुरुषः बन्याः वन्दनीयाः । 'वानाकस्य' इति करणे षष्ठी । भूमयः भुवः । पुरा पूर्वम् । दृष्टमात्राः दृष्टा एव इष्ट मात्राः । 'मात्र कात्स्यत्रपारणे' इत्यमरः । ते तव । पुण्यं श्रियः विदर्यात कुन्ति । परिगमनतः तत्र गमनात् । त्वां भवन्तम् । सयः सपदि पुनस्येवं पवित्री कुर्वन्त्येति निर्धारणम् ।।४९||
अन्वय-प्रजासु बन्धुस्नेहात् समरबिमुख: आत्तदीक्षः एनां पृथ्वी। यिहरन् सः लागली याः सिषेवे ताः पुसां बन्धाः भूमयः दृष्टमायाः पुसते पुण्यं विदधति परिंगमनतः त्वां सद्यः पुनम्ति एव । १. बन्धप्रीत्येस्पपि पाठः ।
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पाश्वभ्युदय
अर्थ - प्रजाओं के प्रति बन्धु के समान स्नेह के कारण युद्ध से विमुख.. मुनि दीक्षा को ग्रहण किए हुए इस पृथ्वी मण्डल पर बिहार करते हुए उन बलराम ने जिनका सेवन किया व पुरुषों के द्वारा वन्दनीय भूमियाँ दिखाई देते ही पहले तुम्हारा कल्याण करेंगी और प्रदक्षिणा करने से तुमको अवश्य पवित्र करेंगी ही ।
सद्भिस्तीर्णाः प्रविमलतराः पुष्कलाः सुप्रसन्नाः, हृद्या सद्यः कलिमलमुषो याः सतीनां सवृक्षाः । कृत्वा तासामधिगममपां सौम्यसारस्वतीनामन्तःशुद्धस्त्वमसि' भविता वर्णमात्रेण कृष्णः ||५०||
सद्धिरिति । श्राः आप | सतीनां पतिव्रतानां स्त्रीणाम् । सक्षाः समानाः 'सदृक्षः सदृक्' इत्यमरः । सद्भिः सत्पुरुषः तीर्णाः प्लाविताः । प्रभिलतराः प्रकृष्टाः प्रमिला : प्रविमलतराः पुष्कलाः पूज्याः । 'पूर्ण श्रेष्ठौ तु पुष्कलः' इति भास्करः । सुप्रसन्नाः द्या हृदय प्रियाः । हृद्यं दधितं वल्लभं प्रियम्' इत्यमरः । सः तत्काल एव । कलिमलमृषः दुष्टपापहराः । तासाम् । सौम्य सारस्वतीनां सरस्वस्याः सर स्वतोनामनञ्चाः इमाः सारस्वत्यः सौम्याः सुन्दराः 'सौभ्यं तु सुन्दरे सोमदेवते' इत्यमरः । सौम्यादच ताः सारस्वत्यश्व तामाम् । अपाम् अम्भसाम् 'आपः स्त्री भूनि वारि' इत्यमरः । अधिगमं सेवाम् । कृत्वा विधाय एवं भवान् ॥ वर्णमात्रेण वर्णनं कृष्णः श्यामः । न तु पायेनेत्याशयः । अन्तः शुद्धः अन्तः आत्मनि शुद्धः निर्मली निर्दोषः । भविता । ''वुललिहादिभ्यः' इति कृत्यः । असि भवसि । स एव पवित्रभूतो भवष्यसोत्यर्थः । 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा इति वर्तमान प्रत्ययः ॥ ५० ॥
अन्वय- सद्भिः सीर्णाः अविमलतराः पुष्कलाः सुप्रसन्नाः हृचाः सः कमलमुषः सतीनां सदा या तासां सारस्वतीनां अपां अधिगमं कृत्वा ( है ) सौम्य वर्णमात्रेण कृष्णः अपि त्वं अन्तः शुद्धः भविता ।
अर्थ - सज्जनों ( ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक तथा तारा आदि के प्रतिबिम्बों) से व्याप्त, अत्यधिक निर्मल, अत्यधिक श्रेष्ठ, अत्यन्त विशद, प्रिय, तत्क्षण हो कलिकाल के मल को हरण करने वाली तथा जो सतियों के समान हैं, ऐसी (उन) सरस्वती नदी के जल का सेवन कर हे सुन्दर ! वर्णमात्र से काले होने पर भी तुम अन्तःकरण से शुद्ध हो जाओगे ।
१. त्वमपि ।
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द्वितीय सर्ग यास्ता नशाः कुलगिरिभधाः स्वधुनीरूहिभाजस्तासामेताः प्रतिनिधितथा तत्समाख्याः कुनद्यः । तीर्यालोके त्वमुपसर तां जाह्नवीं यन्मयोक्तं,
तस्मावगच्छु नुकनखलं शैलराजावतीर्णाम् ।।५१॥ या इति । याः कुलगिरिभाः कुलपर्वत समुभूताः । नमः तरङि गण्यः । लाः ता एव । स्वधुनीरुसिभाजः देवनाः इति रूवि त्राप्ताः। तासां नदीनाम् । प्रतिनिषितया उपमानतया । 'प्रतिनिधिापमोषमान स्यात्' इत्यमरः । तत्समाख्याः तासां समाख्या नाम यासां साः। एता: इमाः । कुन: क्षुल्लकनद्यः । भवन्तीति घोषः। तीर्थालोके तीर्थस्थान संदर्यो । त्वं भवान् । मया कमठघरदैत्येन । यत् कुरुक्षेत्रम् । उपतं प्राऽभाषितम् । तस्मात् तत्क्षेत्रात् । अनुकनखलं कमाखलस्य तन्ताम्नोद्रेः समीपे अनुकनखलम् । 'समीपे' इत्यव्ययीभाषः । मार्ग सूचनमिदम् । गन्छः यामाः । शेल राजावतोणी शैलराजास हिमवदभिधानात् क्षुल्लक गिरेः अवतीर्णा प्रवृत्ताम् । क्षः जाहवीं गङ गानदीम् । उपसर गच्छ ।।५।।
अन्धय-याः नद्यः कुलगिरिभवाः ताः स्वधुनीरूहिभाजः । एताः कुनधः तासां प्रतिनिधितया तत्समाख्या: । 'तीर्थालोके त्वं उपसर' इति यत् मया उक्तं तस्मात् अनुकनखलं वीलराजावतीणी सां जाह्नवी गठः ।
अर्थ-जो नदियाँ हिमवन' नामक कूलाचल से उत्पन्न हुई वे स्वर्ग नदियों के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हुई। ये छोटी नदियाँ उन नदियों की प्रतिनिधि होने से उनके समान नाम बाली हुई। तीर्थ के दर्शन के लिए तुम जाओ, यह जो मैंने कहा उस कारण कनलख के समीप हिमालय से उतरी हुई उस गंगा की ओर जाओ।
मोपेक्षिष्ठास्त्वमुपनदिकत्याशगत्वा प्रविश्य, प्राहुस्तीर्थप्रतिनिधिमपि क्षालनं कश्मलानाम् । सा सेवेथाः सुभग सुरसा लोकरूः प्रतीतां, जहोः कन्या सगरतमयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम् ॥५२॥
मेति । सुभग हे सुमहिमन् । त्वं भवान् । उपनबिकेति नदीति घोपैक्षिष्ठाः उपेक्षा मा कृथाः । तीर्थप्रतिनिधिमपि तीर्थप्रतिकृतिमपि । कइमलानो पापानाम् । काल मिघार!णमिति । पाद: अवन्ति । प्राशा इति शेषः । पाशु शीघ्रण | गरवा प्रविष्य । लोकल लौकिक जनप्रसिद्धः । प्रतीतो स्याताम् । सगरतनयस्वर्ग
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पार्थ्याभ्युदय सोपानपवित सगरस्य राज्ञः तनयानां स्वर्गसोपानं पंक्ति स्वर्गारोहणराजिम् । "आरोहणं स्यानोपानम्' इत्यमरः । स्वासानभूमाभित्यर्थः । जलीः जहं नुराजस्य । कन्यां सुनाम् । सुरसा शोभनो रसो जलं शृङ्गारादि यस्यास्ताम् । तां गङ्गानदीम् । सेवेस: आराधय । लोकः प्रसिद्धामित्वनेन रागरतनयस्वर्गसोपानपं कि त्वम् जह नुकन्यात्वं च परसममप्रसिद्धमित्य गन्तव्यम् ।।५२।।
अन्वय(हे) मुभग ! उपनदिका इति प्रविश्य आशु गत्वा त्वं मा उपेक्षिष्ठा- ( यतः ) तीर्थप्रतिनिधि अपि कश्मलानां क्षालनं प्राहः । लोकरूढः प्रतीतां जह नोः कन्यां मगरतनयस्वर्गसोपानपक्ति सुरमा ता सेवेथाः ।
अर्थ-हे सुन्दर शोभावाले ! ( स्वर्ग नदी के सादृश्य को धारण करने पर भी महत्त्व की अपेक्षा छोटी यह ) उपनदी है, ऐसा मानकर प्रविष्ट हुए (प्रतिबिम्ब पड़ने से अवगाहन किए हुए ) आप शीघ्र जाकर ( उस नदी की) उपेक्षा मत करो; क्योंकि तीर्थ के प्रतिनिधि भी पापों को नष्ट करने चाले कहे जाते हैं । लोकरूढ़ि से जह नु की कन्या के रूप में प्रसिद्ध तथा सगर पुत्रों को जाने के लिए स्वर्ग की सदियों के तुल्य अच्छे जल वाली उस गंगा की सेवा ( आराधना ) करो।
तामेवैनां कलय सरितं स्वं प्रपाते हिमान्नेगङ्गादेव्याः प्रतिनिधिगतस्याविदेवस्य भतुः। गौरीवकनकुटिरचना या विहस्येव फेनैः, शम्भोः केशप्रणमकरोबिन्दुलग्नोमिहत्ता ॥५३॥ तामिति । हिमाद्रेः हिमवत्पर्वतस्य । प्रपाते निर्झरे । 'प्रपातो निझरो भृगौ" इत्यमरः । प्रतिनिधिगतस्य गङ्गादेवीगृहशिक्षरकमलकर्णिकास्थितस्य प्रतिबिम्बात्मकस्य । शम्भोः शं सुखम् अस्मात्सर्वेषां भवतीति शम्भुः । शं सुखस्वरूपो भवतीति वा शम्भुस्तस्य । "अहीत्पन्नकिनी शम्भूः" इति धनलयः । भतु: त्रिजगत्स्वा. मिनः । “भर्ता दातरि पोटरि" इत्यमरः । आविदेवस्य आदिब्रह्मणः । "हरिणीरोहिणी शोणी गौरी श्येनी पिशङ्गयपि" इति धनञ्जयः । या महागङ्गानदी । गङ्गादेवी नाम हासिदेवतायाः । वक्रमकुटिरचना वका या भ्रफुटिरचना भूभङ्गकरणं ताम् । फेः डिण्डीरैः । डिण्डोरोऽधिकफः फेनः इत्यमरः । विहस्येव हमित्वेद । फेनानां धावल्याहासत्वेनोत्प्रेक्षणम् । इंदुलानोनिहस्ता इन्दौ चन्द्रे लग्नाः सम्बद्धाः ऊर्ममः वीचयः एव हस्ताः यस्याः सा तथोक्ता मती । केशग्रहणं शिरोरुह स्वीकृसिम् | अकरोत् अरचयत् । तामेव सरितम् तन्महागङ्गांनदीमेव । एका सरितम् एतल्लघुगङ्गा नदीम् त्वं भवान् । कलप भावयां तयोर्भेदबुद्धिर्माभूदित्याशयः ॥५३॥
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द्वितीय सर्ग
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अन्वय-या इन्दुलग्नोभिहस्ता गौरी फेर्ने चक्र कुटिरचनां विहस्य इव हिमाद्रेः प्रपाते गङ्गादेव्याः प्रतिनिविगतस्य शम्भो आदिदेवस्य भतुः केशग्रहण अकरोत् तां एव एवं मरितं कलम ।
अर्थ -- जिस श्वेतवर्णवाली गंगा नामक ( हिमवान् पर्वत के पद्म सरोवर से निकली हुई ) महानदी ने तरंग रूप हाथों को चन्द्रमा के ऊपर लगाते हुए, फेनों से भौंहों की टेढ़ी रचना से युक्त स्त्रियों पर मानों हँसकर अथवा गौरवर्ण स्त्रियों के भ्रूभङ्ग पर मानो हँसकर हिमवान् पर्वत के प्रपात पर गंगाकूट की निवासिनी देवी के गृहशिखर रूप कमलकणिका पर स्थित प्रतिबिम्बात्मक अर्हन्त भगवान् अथवा सुखस्वरूप त्रैलोक्याधिपति आदिदेव के केशों को पकड़ लिया ( अर्थात् जिसने भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा के ऊपरी भाग में स्थित जटाजूटों को पकड़ लिया ) उसी इस गंगा की प्रतिनिधिस्वरूप ) नदी को तुम जानो अर्थात् इस नदी को उस गंगा नामक महानदी के समान आदर दो ।
स्वादु स्वच्छं शुचि हिमशिलासम्भवं हारि नोरं प्राप्तामोदं सटवनपतत्पुष्प किञ्जल्कवासैः । अध्वश्रान्ति इलथयितुमधः प्राप्तमात्रोऽध्ययस्ये
तस्याः पातु सुरगज इव व्योग्नि पश्चाधंलम्बी || ५४||
स्वाद्विति । तस्याः गङ्गायाः । स्वा मधुरम् । स्वच्छं निर्मलम् । शुचि पवित्रम् | हिमशिलासम्भवम् । हिमा चासो विला च हिमशिला " तुषारः शीतः शीतो हिम:" इत्यमरः । यद्वा । हिमयुक्ता शिला हिमशिला तवां सम्भवं सम्भू तम् । हारि मनोहरम् । " हारि मनोहरं च रुचिरम्" इति हलायुधः । लष्टवनपतपुष्प कि जल कवारी: तटे तीरे विद्यमानाद्वनात्पततां पुष्यकिखकानां कुसुमकेसराणां बासै मिनाभिः । "किञ्जल्कः कैमरोऽस्त्रियाम्" इत्यमरः । प्राप्तामोवं लब्धपरिमलम् । नोरंजलम् । अध्ययान्ति मार्गश्रभम् । इलययितु ं शिथिलीकर्तुम् । सुरण व देवदन्तिवत् । व्योम्नि अन्तरिक्षे पश्चार्धलम्बी पश्चार्धमिति पृषोदरादित्वात्माधुः । तेन लम्बते इति परचार्जलम्बी । अषः अधस्तात् । प्राप्तमात्रः प्राप्त एव प्राप्तमात्रः सन् । पूर्वभागेन व्योम्नि स्थित्वा अग्रभागेन जोन्मुखः सन्नित्यर्थः । पातु पानाय । अध्यवस्येः निश्चिनुयाः ||१४||
अन्वय---अश्वश्रान्ति श्ययितुं तस्याः स्वादु, स्वच्छ, शुचि, हिमशिला सम्भवं हारि तटवनपतत्पुष्यकिञ्जल्कवासः प्राप्तामोदं नीरं अः प्राप्त मात्रः योनि परचा लम्बी सुरगंजः इव पातुं अध्यक्षस्येः ।
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पाश्र्वाभ्युदय अर्थ--मार्ग के परिश्रम को शिथिल करने के लिए गंगा नदी के स्वादयुक्त, स्वच्छ, पवित्र, हिमशिलाओं से उत्पन्न, मनोहर, किनारे के वन से गिरते हए फूल के परागों की गन्ध से प्राप्त सुगन्धि वाला जल जिस क्षण नीचे से प्राप्त हो उसी समय आकाश में पिछले आधे भाग को लम्बा कर ऐरावत हाथी के सनान पोने का निश्चय करो।
तीखोदन्याश्रमपरिगतो न स्वकं घेत्तदानीं तुष्णों स्थित्वा क्षणमिव गताचश्रमो जासवर्षः । मध्येग हुदमधिवसेभूरि तस्याः प्रपातु, त्वं चैवच्छस्फटिकविशदं तर्कस्तिर्यगम्भः ॥५५॥ तीनति । तदानी तत्समये । स्वकं त्वमेव त्वकम् । 'युष्मदस्मदीः सुपोऽसोभीत्पक" मालमपतिया बोटापामाश्रय पारेगा: प्रात.। "शत्तुडशनोदन्यदनायम्' इति तुजाणं उदन्या इनि नायुः । 'उदग्या तु पिपासा तृट् तपा" इत्यमरः । न चेत् भवेच्चत् । क्षणमिव क्षणापर्यन्तम् । तूष्णी जोषम् । स्थित्वा मास्थाय । गसावधमः विगतमार्गक्लमः । जातवर्षः जातं वर्ष यस्मात्मः कुनवर्षः सन् इत्यर्थः । त्वं भवान् । तस्याः गङ्गायाः । अचशस्फटिकविशद निर्मलस्फटिकविशुद्धम् भूरि बहुलम् । 'अदनं भूरि भूयिष्ठम्' इति धनञ्जयः । अम्भः नोरम् । तिर्यक् तिरश्चीनं यथा नथा प्रपातु प्रकर्षण पानाय । लकंघेश्वेत निश्चिनुयाश्चेत् । मध्येग गङ्गाया मध्ये मध्येगङ्गम् | अव्ययीभावत्वात्सप्तमी । हुवम् अगाधजलम् | "तत्रागाधजलो हदः' इत्यमरः । "वसोनूपाध्याङ्" इति आघार हिलीया | सन्मध्याहूदे लिष्ठत्यर्थः ।।५५||
अन्वय-वकं तीनोदन्याश्रमपरिंगनः न चेत्, क्षणं इव तृष्णी स्थित्वा गताम्वनमः जातवर्षः त्वम् तस्याः अच्छकटिकशिदं भूरि अम्भ: निर्यक् प्रपात तकयेः चेत् तदानीं मध्येगङ्ग हद अधिवसेः ।।
अर्थ-तुम यदि तीन प्यास से उत्पन्न दुःख की बेदना से आक्रान्त न हो तो क्षणभर चुप बैठकर मार्ग को थकान को दूर करने वाले तुम बर्षा का गंगा के निर्मल स्फटिकमणि के समान उज्ज्वल विपुल जल को तिरछे होकर (पानी) पीने का वित्रार यदि करे तो उस समय गंगा के बोच के अगाधजल ( ह्रद् ) में ठहरना ।
तिष्ठत्येक क्षणमिव भवानिन्द्रनीलस्य लक्ष्मीमातन्वानः स्ववपुषि भृशं पीततोयोपि येन । संसर्पन्त्या सपदि भवतः सोततिच्छायवा सा, ल्यावस्थानोपगतयमुनासमेवाभित्तमा ॥५६॥
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द्वितीय सर्ग तिष्ठत्विति । येन कारणेन । खोतीस प्रवाहे । सपदि शीघ्रम् । संसपनत्या संक्रामन्त्या । भवतः तप । छापया प्रतिबिम्बेन । सा गङ्गा । अस्थानोपगतयमुना सकमेव अस्थाने प्रयागात' अन्यत्र उपगतः प्राप्तो यमुनागङ्गमो पयासा नथाक्ता तद्वः कोमा मन हो । स न् : शेन -रणे शम् अत्यर्थम् । "अतिबेलभनाल्यर्थातिमात्रोद् गहिनिभरम्' इत्यमरः । पीनतोयोपि गृहीतमलिलोपि । इन्द्रनीलस्य इन्द्रनी लरलस्य | लक्ष्मी शोभाम् । स्ववणि निजविग्रहें । आतन्वानः विरचयन् । भवान् स्वम् । एकक्षणमिथ एकक्षणपर्यन्तम् । इश्वशब्दो वाक्यालसारे । तिष्ठतु आस्ताम् ।।५६||
अन्यय-स्ववपुषि इन्द्रनीलस्य लक्ष्मी आनन्वानः भवान् भृशं पीत्ततोराः अपि एक क्षणं एव तिग्टतु येन स्रोतमि मपदि समर्पन्न्या भवत्तः छायया सा अस्थानोपगतयमुनासङ्गमा इव अभिरामा स्मात् । ____अर्थ-अपने शरीर में इन्द्र नीलमणि को लक्ष्मी की रचना अथवा विस्तार करते हुए आप अधिक जल दिए हुए होने पर भी एक क्षणभर के लिए ठहरें, जिससे गंगा नदी के प्रवाह में तीन पड़ती हुई छाया ये वह प्रयाग से भिन्न स्थान में यमुना से मिली हुई के सदृन मनोहर प्रतीत हो।
पुष्याम्बूनामिति भृतितरं चर्मपूरं प्रपूर्णः, किञ्चिद्गत्वा हिमवदचलस्यानुपादं निषीद । तत्पर्यन्ते वनपरिकरं प्रेक्षणीयं प्रपश्यग्लासोनानां सुरभितशिलं नाभिगन्धंगाणाम् ॥५७॥
पण्येति । इप्ति एवंप्रकारंण | पुण्याम्बून पुण्योदकानाम् । भूतितरं प्रकृष्टं भरणं यथा तथा । बर्मपूरं चर्म पूरयित्वा । प्रपूर्णः मम्पूर्णः । “चर्मोदरात् पूरे." इनि णम् । हिमवत्रलस्य हिमवत्यवतस्य । अमुपागम् अनुपादात् प्रत्पन्नुपर्वतादायतमित्यनपादस् । 'वैवर्षेनुः" इत्यव्ययीभावः । कियित् कियद्रम् । गत्वा हिमवत्पर्वत ममीपे । आलितानाम् उपविष्टानाम् । मृगाणां वस्तुरीमृगाणाम् । अन्यथा नाभिगन्धानपपतेः । नाभिगन्धः कस्तूरीगन्धः । तेषां नअल्वात । अतएव मगनाभिसंज्ञा च मृगनाभिभूगमदः कस्तूरी" इत्यमरः । अथवा नाभयः कस्तूर्यः । 'नाभिः प्रघाने कस्तूयाँ मदे न काचिदौरिता'' इति विश्नः । तामा गन्धः । सुरभिततलं सुरभिताः शिलाः यस्य तम् । प्रेक्षणीय दर्शनीयम् । वनपरिकरम् अग्गयप्राभवम् । 'वृन्दप्राभवयोश्चैव पर्यव परिवारयोः आरम्भे च परिस्तारे भवे परिकर स्तथा" इत्यमरः । पश्यन् प्रेक्षमाणः। निवीद तिष्ठ । षल विशरणगत्यव सादभेषु “इति धातोः" पात्रामा इति सीदादेशो लेट् ॥१७॥
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पाश्र्वाभ्युदय अन्वय-इति पुष्याम्भूनां भृतितरं चर्मपूरं प्रपूर्णः किञ्चित् गत्वा हिमवदचलस्य अनुपावं तत्पर्यन्ते आसीनानां मृगाणां नाभिगन्ध- सुरभितशील वनपरिकर प्रपश्यन् निषीद।
अर्घ-इस प्रकार पुण्यजलों से भरे हुए चर्मपात्र के समान तुम पूरे भरकर कुछ ( आगे ) जाकर हिमालयपर्वत के चरण प्रदेश में बैठे हुए कस्तूरी मृगों की कस्तूरी की गन्ध से सुगन्धित शिलाओं वाले वन के बिसार को देखते हुए बैं।
विश्रभ्याथो घन घनपथोल्लङ्घिकूटं हिमात्र, पश्योगः शिखरतरुभिस्त्वामियोपान्तयन्तम् । स्वस्याः कोरिव विधुरुधोनाकभाजां स्त्रवन्त्यास्तस्या एव प्रभवमानलं प्राप्य गौरं सुषारैः ॥१८॥ विश्रम्पेति । अथो अनन्नरे । अथक्षा अथो पुनः । पन भो मेघ "भङ्गलानन्तरारम्भ प्रश्नकार्येष्वथो अथ" इत्युभयत्राप्यमरः विश्रभ्य अञ्चश्रममपनीय । पनपथोल्लखिकूटम् आकाशाला शिखरं यस्थतम् । 'छोराकाशमन्तरिक्ष मेधवायुपथेऽपि'' इनि धनकजयः । उपप्रैन्नतः । "उच्चप्रांगरन्नतोदग्रोन्छिताः" इत्यमरः । शिखरतरुभिः शिम्बरस्थवृक्षः । त्वां भवन्तम् । उपान्तयन्तमिव उपान्तं समीपम् एतीति अन् तमिव ममी गच्छन्तमिव । यद्वा उपान्तं करोतीति उपान्तयत्ति उपान्तययीति उपान्नयन तमिव समीपमावसन्तभित्र । स्वस्या: स्वकीयायाः विघुरुषः विधोरिव रुक कान्तिर्यस्यास्तस्याः । “स्युः प्रभीतरुचिस्त्विहभा" इत्यमरः । कीर्तरिय यशस इव । तस्याः प्रसिद्धायाः । माफभा देवानाम् । श्रयम्स्या एव । "सदन्ती निम्नमापगा' इत्यमरः । आप गाया एव । प्रभवं प्रभवत्यस्मादिति प्रभवस्तम् उद्धब स्थानम् | "स्याज्जन्महेतुः प्रभवः स्थानं चाधोपलब्धयः” इत्यमरः । गौरं शुभ्रम् । "सितो गौरी बलक्षः' इत्यमरः । हिमा हिमनामधेयम् । अचलं नगम् प्राप्य : पश्य प्रेक्षस्व ॥५८||
अन्वय-अयो घन ! विश्रम्य घनपथोलफूिट उद: शिखरतरुभिः स्वं उपान्तयन्तं इव स्वस्याः कीर्तेः इव विधुरुचः तस्याः नाकभाजां सवन्त्याः एव प्रभवंसुपारः गौरं हिमा अपलं प्राप्य पश्य ।
अर्थ-अनन्तर हे मेन ! विश्राम कर आकाश का उल्लंघन करने वाले शिखर से युक्त, ऊँचे शिखर के वृक्षों से तुम्हें मानों समीप बुलाते हुए अपनी क्रीति के समान सफेद वर्णवाली प्रसिद्ध देवनदी गङ्गा के उत्पत्ति स्थान, हिमसमुह से गोरे रंग वाले हिमालय पर्वत पर जाकर (उसे देखो) ।
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द्वितीय सर्ग
आरुह्माधिर्मदकलमयूरारवैः कृष्यमाणः, कुञ्जकुज्जे दधि घनमिव प्रेक्षमाणो हिमानीम् । पक्ष्यस्यध्वश्रमविनयने तस्य शृङ्गे निषण्णः, शोभा शुभ्रत्रिनयनयषोस्वातपजोपमेथाम् ॥५॥
आरुहोति । माश्र्मिवफलमयूरारदै आविर्भूतः मदः आधिमंदः तेन कल: मधुरात्यक्ततरैः । "स्वनौ तु मधुरास्फुटे कलः" इत्यमरः । मयूराणाम् आरवः शब्दः । कृष्यमाणः प्रेर्यमाणः गन् । आव उपरि गत्वा । तमिति शेषः । कुन्ने कुब्ने
नाभवन लताभवने । वीपमायां द्विः । धर्म पिण्डीभूतम् । वाव दधिवत् । हिमानों मि संहतिम् । 'हिमारण्यादृरो" इति ही । आन्चान्नादेशः । प्रेक्षमागः अवलोकन मानः । अध्वश्रमविनयनेनेति बिनयनम् । करणाघारे चानट् । अध्यनमस्प विनयने । तस्य हिमाद्रेः । शृङ्ग शिखरे । निषग्णः निविष्टः सन् । शुभत्रिनयनपूषोखासपनोपमेयाम् शुभ्रो यः विनयनस्य ईशान दिगौशस्य वृषः वृषभः । 'सुकृते वृषभे वृषः' इत्यमरः । तेनोत्थातन अवत्तारितेन पङ्कन शृङ्गाग्रस्थेन । तं हिमाद्र । महोपमेयाम् उपमातुमहीम् । वृषभङ्गाग्रलग्नपलवदित्यर्थः । शोभी कान्तिम् । वक्ष्यसि दोहासि । बहतेलु । त्रिनयने त्यत्र "पूर्व पदात्संज्ञाया मित्ति" णत्वं न क्षुम्नादिषु निषेधात् ॥५९॥
सम्बय-आविर्मदकलमयूराक्षः कृष्यमाणः कुजे कुम्जे घनं दघि इय हिमानी प्रेक्षमाणः अध्वश्रमबिनयने तस्य शृङ्गे आम्ह्म निषण्णः शुभ्रत्रिनयनगोत्सातपोपमेयां दोभा वक्ष्यसि ।
अर्थ-प्रकट होते हुए आनन्द से मधुर और अव्यक्त शब्द करने वाले मयूरों के शब्दों से आकर्षित प्रत्येक कुंज में पिण्डीभूत दही के समान हिम के समूह को देखते हुए, मार्ग के परिश्रम (थकावट) को दूर करने के लिए हिमालय पर्वत की चोटी पर चढ़कर बैठे हुए तुम रुद्र नामक ईशानदिक्षा के इन्द्र के सफेद साँड़ से विदारित कीचड़ के समान ( अर्थात् साड़ के सींग की नोंक में लगी हुई कीचड़ के समान ) शोभा को धारण कर लोगे।
अध्यक्षार्म शिथिलिप्ततनु शैलमार्गाधिरोहास्वामौल्लङ्घये घयित्तुमसौ शक्नुयादेव-वलिः । धूमैः सान्र्वनविपिजातिवर्षन्नुपेयास्त्वं चेद्वायौ सरति सरलस्कन्धसङ्धजन्मा ॥६॥ अध्वक्षाममिति---बायौ पवने । सरसि मरतीति सरन् तस्मिन् राति वाति
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पाश्र्वाभ्युदय मति । अतिवर्षन् अतिवृष्टि कुर्वन् । त्वं नोपेयाश्चेत् नगच्छेदि तहिं । अथवा नातिवर्षम् इत्यलुक्समासः । ईषतर्पन्नित्यर्थः । उपेमाश्चेत् यदि या यास्तहि । अतिवर्षस्याग्निप्रतिबन्धकत्वादिति भावः सरलस्कन्धसबद्वजन्मा सरलानां देवदारविशेषाणाम् स्कन्दाः प्रदेशविशेषाः "अस्त्रीप्रकाण्डः स्कन्धः स्यान्मूला चाखावघिस्तरोः इत्यमरः । तेषां सादृतेन सङ्घर्षणेन जन्म यस्य स तथोक्तः । जन्मोतरत्वाद्वर्याप्रकरणोपि बहुव्रीहिः साधुरित्युक्तम् । असोवह्निः दावानल । वनकिपिजैः फान्तारतरुप्रभवः । "विटपी फलिनोनगः" इति धनञ्जयः । सान्द्रः निरन्तरैः 1 ''घन निरन्तरं सान्द्रम्" इत्यमरः । धूमः घूमपटलः । अश्वसामं मार्गाथा सकशीभूनम् । शैलमार्गाधिरोहात् गिरिपथारोहणात् । शिथिलतातन श्लथित शरीरम् । त्यो भवन्तम् । मौलाध्ये उल्लंघस्य भावः औल्लङ्घ्यं तस्मिन् उच्चलनीयरये । घटस्तुि' रचयितुं । शयनुयावेष समर्थो भवेदेव । मेघस्य धूमयोनित्वाद्ध मेन पुष्टि विदयादित्यर्थः ।।६०।। ___ अन्वय-स्त्र धायौ सरति अतिवर्षन् न उपेयाः चेत् सरळस्कन्धसंघट्टजन्मा असौ वह्निः बन विट पिजः सान्द्रः धूमः अध्यक्षामं शैलमार्गाधिरोहान् शिथिलितसन त्वां औल्लङ्ये घटयितुं शक्नुयात् एव ।। ___ अर्थ-तुम वायु के बहने पर अत्यन्त वर्षा करते हुए यदि हिमालय पर्वत के समीप में न पहुँचो तो सरल ( चोड़ ) वृक्षों के तनों की रगड़ से उत्पन्न यह आग जंगल के वृक्षों से उत्पन्न धने कुओं से मार्ग के प्रयाण से क्षीण शरीर एवं पर्वतोय मार्ग पर चढ़ने से दुर्बल शरीर वाले तुम्हें अवश्य उल्लंघन करने योग्य मार्ग में प्रेरणा देने में समर्थ होगी हो ।
आशृङ्गाग्नं कवचितमिवारूढभूति हिमान्या, स्वत्सान्निध्यादुपहितरसैश्चौषधीनां सहस्रः। आफोन्तिं सरसगहनं शैलराजं न चेनं, बाधेतोल्काक्षपितममरीबालभारो दवाग्निः ॥६॥
आशृङ्गामिति । हिमान्या हिममहत्या । आपापम् आशृङ्गादाश्रृंगायम् । कचितमिव करचुकितमिव । आरूखमूत्तिम् आसमन्ताद् व्याप्तदेहम् । स्वस्सान्निध्यात् तत्र सामीप्यात् । उहितरसैः उपधृतार्दीभावः । ओषधीनां फलपाकान्तद्रुमादीनाम् । सहस्र से हैः । आकोर्गान्तं व्याप्तपर्यन्तम् । सरसगट्टनं सरसं ररायुतं गहनंदनं यस्यतम् । 'गहन काननं वनम्" इत्यमरः । एनं शैलराजम् एन शैलराजम् हिमवन्तम् । उल्कापापितममरीबालभारः उल्काभिः स्कुलिङ्ग क्षपिता; निर्दग्याः चमरीणां मृगाणां बालभाराः केशपमूहाः येन स तमोक्तः । “कुन्तली
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द्वितीय सर्ग
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चालः कचः खः" । इत्यमरः । ववग्निः दव इत्यमिः दवाग्निः वन वह्निः । धने नवौ च देवो दाब इवेष्यते " इति शाश्वतः । न च बाधेत न पीडयेत्" । अन्वय- हिमान्या आश्रृङ्गाग्रं कन्नचितं इव आरूढमूर्ति उपहितरः औषबीनां राह व आकीर्णान्ति, गरगहनं न एनं शैलराजं उनका क्षपित नमरीबालभार: दत्राग्निः त्वम्मान्निध्यात् न बाधते ।
अर्थ - हिम ममूह से शिखर के अग्रभाग को व्याप्त करने वाले कवच से ढँके हुए के समान चारों ओर से व्याप्त देह वाले तथा जल को धारण करने वाली हजारों औषधियों से व्याप्त पर्यन्त प्रदेश वाले और सरस तथा गहन इस पर्वतराज को उल्कामों से चमरी गायों के बाल समूह को जलाने वाली बन की आग तुम्हारी समीपता के कारण पीड़ित नहीं करेगी ।
त्वत्तो निर्धन्स यदि सहसा विद्युतो जातवेदाः, प्रालेयाद्रि सतुहिनवनं निर्दिषक्षेत्तवा स्वैः । अर्हस्थेनं शमयितुमलं वारिधारासहस्रे
रापन्नातिप्रशमनकलाः सम्पदो ह्यत्तमानाम् ॥६२॥
I
वत्त इति । स्वतः स्वन्मकाशात् । सहसा सीध्रेण नियंत्र निर्गच्छन् । सः प्रसिद्धः । विद्युतः तडितः । जासदेवाः अग्निः । " जातवेदास्तनूनपात" इत्यमरः । मंत्रज्योतिरित्यर्थः । सतुहिनवनं महिन्नं हिमराहिलं वनं यस्य तम् । प्रालेयाद्रि हिमम् । यदि निषिक्षेत् निर्दग्धुमिच्छेच्वेत् । "दह भस्मीकरणे " इति धातोः मन्नन्ताल्लिङ् । तवालत्समये । स्वः स्वकीर्यः । वारिधारा सहस्रं वारिधाराणां सहरकैः । एवं वह्निम् । शमयितुं उपशमनाय | अशक्त्या अर्हसि योग्यो भवसि । उक्तं चदित्याह । उत्तमानां महताम् । सम्पनः समृद्धयः । अपन्नातिप्रशमनफला आपन्नानाम् आनीनाम् अतः पीडायाः "त्तिः पीडानुकोटधो: " इत्यग्गरः । प्रामनम् उपशमनमेव फलं यामां ताः तचोक्ताः । हि स्फुटम् । भवेश्रुरिति शेषः । अतो हिमाचलस्य दावानलस्त्वया शमयितव्य इति भावः ॥ ६२॥ अन्वय-त्वतः सहमा निर्यन विद्युतः जानवेदाः यदि निदिविक्षेत् तदा स्वः वारिधारामहः एनं अलं शर्मायनं उत्तमानां सम्पदः आपन्नीतिप्रशमनफलाः ।
तुहिनवनं प्रालेयाद्रि अर्हम (हि) यतः
अर्थ - तुम्हारे निकट से शीघ्र निकलती हुई बिजली को आग यदि तुषार युक्त वनों वाले हिमालय को पूरी तरह जलाना चाहे तो (तुम ) अपनी हजारों पानी की धाराओं से इस हिमालय को अत्यधिक रूप से
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पाश्र्वाभ्युटर ( जंगल की आग से ) शान्त करने के योग्य हो; क्योंकि श्रेष्ठ व्यक्तियों की सम्पदायें आपद्ग्रस्तां की पोढ़ायें दूर करने म्प फलों से युक्त होती हैं । इतोऽर्धवेष्टितानि
मोच्चस्तत्र स्तनिनिनवाननिकुञ्ज तथास्त्वमैषां त्ववभूभयमसुहरं शौर्यदर्पोधुराणाम् । ये संरम्भोत्पतनरभसास्वाङ्गभङ्गाय तस्मिन् । मुक्ताम्यानं सपदि शरभा लमयेयुभवन्तम् ।।६३॥ मोच्चति । तस्मिन् हिमवनि । संरम्भोस्पतनरभसाः संरम्भः कोपः "सरम्भः मम्भ्रम का' इति शब्दार्णव । तेन जानने उच्चाटने रभगो वंगी येयां ते नथोफाः । "रभगो बैंगतर्पयोः" इत्यमरः । ये शरभाः अष्टापदमृगाः । "भरभोल्टापद मृगान्तर'' इति विदवः । स्वाङ्गभङ्गाप स्त्रगां गरीरावमदनाय । मुसादानं मुक्कोवा मार्गो येन मम् । भवन्तम् त्वाम् । सपरिणीतम् । लययुः उल्लङ्घनं कुर्युः । सम्भावनायां लि । शौर्यरोदरागां भीयगर्बोदघुतायाम् ! एका धारभमृगाणाम् । स्वत् भन्नतः मकाणात् । असुहरण प्राणहाणम् । ''मि भून्यसवः प्राणाः' इत्यमरः । भयं भीतिः । मा भूत न भवतु | तस्मात् सत्र तन्नगे | अग्निकुम्ने पर्वताललावण्डे | त्वं भवान् । स्तनितनिनवाल गर्जितध्वनीन् । "शब्द निनादनिनदध्वनिध्यान रदस्वमाः' इत्यमरः । उपः अधिकम् । मा सपा: मा कृथाः । "तन विस्तार "लात्मनेपदम् । "तन्भ्यस्त्रास्थः" इमि सेर्वालुक् । "हन्भयम्' इति न लुक् । 'लुङ्लुडिइत्यदागमनिषेधः ।।६३।।
अन्धप-स्मिन् संरम्मोत्पत्तनरममाः ये शरभाः मुक्तावान भषन्त स्वाङ्ग भङ्गाय सपदि लखयेयुः ( तेषां ) शौर्योधुराणां एषां स्वत् अमुहर मयं मा भन ( इति ) सत्र अनि कुरुज उज्वः स्तनिनिमदात् त्वं तथाः ।
अर्थ-हिमालय पर्वत पर कोप पूर्वक वंग से उछलने वाले जो अनापद नामक मृग हैं, वे उनके मार्ग को छोड़ने वाले आपको अपने अङ्गों का विनाश करने के लिए शीघ्र ल न करें तो शोर्य के अभिमान से उद्धृत आष्टापदों को तुमसे प्राणघातक भय न होवे अतः हिमालय को पर्वतोय. गुफा में तुम गम्भीर गर्जन को ध्वनि मत मरना।
यथप्येते स्तनितरभसावुत्पतेयुभवन्तं, तैर्यग्योना भृशमपधियः स्वाभकनिष्ठाः । तान्कुर्बोथास्तुमुलकरकावृष्टिपासावकीर्णान्, केवो न स्पुः परिभवपद निष्फलारम्भयत्नाः ॥६४॥
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द्वितीय सर्ग
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यदीति । यद्यपि यदा कदाचित् । तैर्यग्योन्नाः निर्यग्योनिभवाः । अपषियः अपगता येषां ते तथोक्ताः । स्वाङ्गभङ्ग कमिष्ठा स्वाङ्गानां भङ्गतेन मर्दनेन निष्ठा उद्युक्ताः । "निष्टा नितिनागांना:" इत्यमरः । एते गरभाः । स्तनितरमसात् त्वद्गजितगात् । उभयो बेगहर्षयोः" इत्यमरः । भवन्तम् स्वां । भृशं अत्यर्थं । उत्पतेयुः लङ्कमेयुः । तान् वरभान् । तुमुलकरकावृष्टिपाताकीर्णान् तुमुलाः करका पगलानामा वृष्टिस्तस्याः पातीन अवकीर्णान् अधः क्षिप्तान् कुर्वीथा कुरुष्व । विध्यर्थेन्ड् ि। क्षुद्रोप्यविचिपन् विपक्षम्मदयः प्रक्षेप्य इति भावः । तथाहि निष्फलारम्भयत्नाः आरम्यत इत्य रंभा कर्माणि नेषु उद्योग रा निष्फलो येषां ते तथोक्ताः त्रिफलकार्योपक्रमा इत्यर्थः । केषां पुंसां । परिभवपर्व तिरस्कारास्पदं । न स्युः न भवेयुः । भवेयुरित्यर्थः । "घनोधनस्तु करकः" इति यादवदचनात् करकशब्दस्य नियत पुल्लिमाभिप्राये करकाणामवृष्टिरिति केषां चिन्मतं । तदन्येनाप्यनु मन्यते " वर्षोपलस्तु करका" इत्यमरः । तद्व्याख्याने " कमंडलौ च करकः" इति नानार्थे पुंस्यपि वचनात् पुल्लिंगताविधाने तात्पर्य न तु स्त्रीलिंग निषेधयति । न तद्विरोधः । करकस्तु करंडे स्यादाक्रोशे च कमंडल | पक्षिभेदे करे चारित करका च धनोपले" इति विश्वप्रकाशचनेन तूभयलिंगता प्युक्तवेति न विरोधः ||६४११
अन्य -- यदि तेस्तै अपधियः स्तनितरभसात् भवन्तं उलतेयुः अपि ( तथा ) तान् सुमुलक रकावृष्टिपातावकोन कुर्वीथाः । निष्फलारम्भयत्नाः केपां परिभवपदं न स्युः ।
अर्थ - अपने अङ्गों को नष्ट करने रूप अद्वितीय व्यापार से युक्त तिर्यंच योनि में उत्पन्न ये शरभ ( अष्टापद | यदि अत्यधिक हतबुद्धि होकर ( तुम्हारी ) गर्जना के वेग के कारण आपके कमर उछलें तो उन अष्टापदों को पर्याप्त रूप से ओलों की दृष्टि कर तितर बितर कर देना । निष्फल कर्म में प्रयास करने वाले कौन पुरुष तिरस्कार के पात्र नहीं होते हैं ।
तत्र व्यक्तं वृषदि चरणन्यासमर्धेन्दुमौलेरच्यं भतु स्त्रिभुवनगुरोरर्हतः सत्वपयः । शरसिद्ध रुपहृतबल भक्तिनम्रः परीयाः, पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव ॥ ६५ ॥
त ेति । तत्र हिमवति । वृपछि शिलायां । " शिला दुपद्" इत्यमरः । त्रिभुवनगुरोः त्रिभुवनानां गुरुहितोपदेशकस्तस्य भर्तुः स्वामिनः । अम्बुमोले इन्दोर अद् दुः समेर्धमिति तत्पुरुषसमासे सुकृत्वात्पूर्वनिपातः मौलिखि मौलि: अन्दोमौखि
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पार्वाभ्युदय
तस्य । "चूडाकिरीटकेवाश्व संयतामौलयस्त्रयः ।'' इत्यमरः । उपाहतमलिम् उपहतः कृतः बलिः यस्मै नयोक्तस्तम् । अाम् अचिन, योन्यस्तं पूजनीयम् । व्यक्तं व्यज्यते स्म व्यक्तस्तं निवृत्तम् । चरणभ्यार्भ न्यानं न्यासः चरण योन्यगिस्नम् ! 'पदडिनचरणोऽस्त्रियाम् ।" इत्यमरः पादन्यामप्रतिबिम्बमित्यर्थः । भक्तिनम्रः भक्त्या नमनशीलः सन । 'नमकम्यजस्कंपोर: २' परीक्षिणी 'रिपूर्वादिणगौ" इति बातोलिङ् । तदाहि पापापाय कर्मनिवारण । भक्तिरेव गुणानुराग एवं । प्रथम मुख्यम् । कारणं निदानम् । उवितं भाषितम् । उपनं भापित्तमुदितम्' इत्यमरः । एकांतरितार्यवेष्टितमिदं ।। ६५||
अन्वयनत्र, दृपदि, व्यक्तं, अर्घन्दुमौलेः, नच्यं सत्यपर्व: मिद्धः शश्वत् उपहन बलि भर्तुः त्रिभुवनगुरोः अर्हतः चरण न्यासं भक्तिनम्रः । मन् ) परीयाः ( मतः ) पापापाये भक्तिः एव प्रथम कारण उदित ।
अर्घ-हिमालय पर्वत पर शिला पर प्रकट अर्धचन्द्र के चिह्न से अंकित मुकुटधारी देव विशेष के पूज्य समचीन परिचर्या अथवा सुश्रूषा करने वाले सिद्ध नामक देवताओं से निरन्तर पूजित तीनों भुवनों के गुरु, स्वामी अहंन्त भगवान के प्रतिष्ठित दोनों चरणों में भक्ति से नम्र होकर प्रदक्षिणा करो, क्योंकि पाप का नष्ट करने में भक्ति ही प्रथम. कारण कही गयी है।
यस्मिन्दृष्टं करणविगमाध्वंमुधूतपापाः, सिद्धक्षेत्रं विदधति पर्व भक्तिभाजस्तमेनम् । दृष्ट्वा पूतस्त्वम् भवताद्वै पुन(रतोऽमु, कल्पिष्यन्ते स्थिरगणपत्र प्राप्तये श्रद्दधानाः ॥६६॥ यस्मिन्निति । यस्मिन् चरणन्यासे । दृष्टे प्रेक्षिते सति । भक्तिभाज; भक्तिकपना- । उपतपापाः निर्मूलिनपापाः सन्तः । करणविगमात् करणस्य गात्रस्य विगमात् त्यागात् । ऊर्ध्वम् अनन्तरम् 1 "करणं साधकतमक्षेत्रगा।न्द्रियेष्यपि" इत्यमरः । सिद्धक्षेत्र मुक्तिस्थानम् । विवति कुर्वन्ति । त्वमपि भवानपि । तमेनं पर्व तदेव चरणम् न्यासम् । दृष्टया अबलोक्य । पूतः पवित्रः । "पूतं पवित्र मयं छ" इत्यमरः । भवतात् भव । पुनः पश्चात् । अमुचरणन्याराम् । अथवधानाः अविश्वसन्नः पुरुषाः । स्पिरगणपक्षप्राप्तये स्थिरं शाश्वत यद्गणानां पदं स्थाने समवधारणं तस्य प्राप्तये लब्धये । अत्र गणपदस्य स्थिर विशेषणं मप्रस्थजीवानां अधादिदोषा भावात्परमस्वास्थ्यं सूचयति । दूरतः दविष्ठदेशात् । वै स्फुटम् ।
१. श्रद्दधानः ।
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द्वितीय सर्ग
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कहि पयले समर्था भविष्यन्ति । "क्लपोडि सामर्थ्ये । कर्मणि लुट् । तच्चरणन्याममाभावे मिध्यादृष्टित्वं स्यात् समवशरणं प्राप्तुं समर्थान भवन्तीति तात्पर्यम् । इदं प्रपन्नग्निर्भवेष्टितं ॥ ६६ ॥
अन्वय-स्मिन् दृष्टे उद्यूतपापाः भक्तिभाजः करणविगमात् ऊम्बे मित्रक्षेत्रं विवति । एतं पदं दृष्ट्वा त्वं अभितः भवनात् । न दूरतः श्रद्दधानाः स्वाद प्राप्तयं कल्पिष्यन्ते ।
अर्थ – जिन चरणचिह्नों के देखने पर जिनके पाप नष्ट हो गये हैं ऐने भक्त शरीरत्याग के अनन्तर सिद्धक्षेत्र को स्थापना करते हैं अर्थात् सिद्ध क्षेत्र को प्राप्त करते हैं। इस अर्हन्त भगवान के चरणचिह्न से युक्त स्थान को देखकर तुम भी पवित्र होओ। इन चरणचिह्नों के प्रति अत्यन्त श्रद्धा करने वाले लोग ( तीव्र तपस्या करने वाले ) मुनियों के स्थिर स्थान (मोक्ष) को पाने में समर्थ होंगे।
अतरेवगोष्ठी वादित्रगोष्ठीम् ॥
तस्योपान्ते रिरचषियो नूनमातोय गोष्ठी, शब्दायन्ते मधुरमभि: कीचका: पूर्यमाणाः । तत्रासेषां दितितनुषुभिर्लोकभतु जिनस्य, संरक्ताभिस्त्रि पुरविजयो गीयते किन्नरोभिः ॥६७॥ सरूप चरणन्यासस्य । उपान्ते समीपे । "चतुविधमिदं वाद्यं वादित्रात्तोघनामकम् इत्यमरः । नूनं निषयंन । रिश्वयिवय: रचितुमिच्छवः । अनिल वायुभिः । पूर्यमाणा ध्यायमानाः । कोषका : वेणुविशेषाः । धनिले वायुभिः । पूर्यमाणा ध्यायमानाः । कीमकाः वेणुविशेषाः । "वेणयः कीचकास्तेस्वर्ये स्वनन्त्य निलोद्धताः" इत्यमरः । मधुरं मनोहरं यथा तथा । शाप दाददं कुर्वन्ति अनन्तीत्यर्थः । " शब्दादि कृङि चा" इति क्यङ् । अनेन वंशवाद्यसम्पत्तिता । तत्रपवित्रस्थाने । लोकभ त्रिलोकस्वामिनः ॥ जिनस्य अर्हतः । असिवाम् आराधनाम् । वितितमुषुभिः वितनितुमिच्छुभिः विस्तरितुमिच्छुभिरित्यर्थः । संरक्ताभिः रजकण्ठीनिरिति वा संमतभिरिति वा पाठ: । वाद्यानुरक्ताभिः किन्नरीभिः किन्नरस्त्रीभिः । त्रिपुरविजयः त्रयाणां पुराणाम् भौदारिक तेजमकार्मणशरीराणां समाहारः त्रिपुरम् । 'दिधिकमाद्वितोत्तर पद" इत्यादिना समाहारसमासः । " पुरं पाटलिपुत्रे स्याद् गृहोपरिगृहे पुरम् ।" "पुरं पुरे शरीरे व गुग्गुले कथितः पुरः | पुराव्ययं पूर्वकाले" इति विश्वः । तस्य विजयोऽभिरचः गोयते स्तूयते । एकान्तरितार्थवेष्टितमिदम् ।।६७।।
१. संमनभिरिति वा पाठ: ।
"
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पार्वाभ्युदय
अन्वय-नस्य उपाने आताद्यगोष्टी रियिषवः अनिल: पूर्यमाणाः कोषकाः नूनं मधुरं गन्दापन्त। नत्र लोकभतु : जिनस्य आमेवा विनिननुपुभिः संग्काभि किन्नरीभिः पिरविजयां गीयते ।
अर्थ- भगवान के चरणन्यास के समीप में वादागोष्ठी को रचने के इच्छुक, वायुओ से भरे हुए बाँस निश्चित रूप से मधुर पशब्द करते हैं। वहां पर लोकाधिपति अर्हन्त भगवान की भक्ति करने की इच्छुक रक्त. फण्ठी अथवा सातिशयक्ति वाली किन्नरियों के द्वारा औदारिक, तेजस और कार्मण इन तीनों शरीरों के विजय ( मोक्ष ) का गीत गाया जाता है।
वेणुष्वेषु स्फुटमिति तवा मन्त्रतारं वनस्सु प्रोद्गायन्तीष्वतिकलकलं तज्जयं किन्नरोषु । मिहावी' ते मुख व स्कन्वरीषु ध्वनिः स्यात् सङ्गीतार्यों ननु पशुपतेस्तवभावी समस्तः ॥६॥ वेणुष्विलि । तवा तत्समय । एप पे । तेव वशेषु । "शतपर्वा यवफलो वेणुमस्करतेजनाः' इत्यमरः । स्फुट व्यक्तम् । मगातारं गम्भौरोचः स्वरवयं यथा तथा । 'मन्द्रस्तु गम्भीर तारोत्युच्चः" इत्युभयत्राप्यमरः । इति: उक्त प्रकारेण । प्वालानु फूजत्सु मस्सु । किन्नरोप किन्नरस्त्रीषु । तन्नय त्रिपुरणपम् । अतिकलाल प्रकृष्टकलकलध्वनि यथा तथा । प्रोगायम्सी गायनं कुर्वन्तीषु सतीषु । कन्दरीषु वरीषु । "दरोतु कन्दरो वा स्वी" इत्यमरः । ते तक बनिः शब्दः मिल्लविी ध्वनिभान् । ''स्वाननिर्घोषनिहावनादनिस्वान निस्वनाः" इत्यमरः । मुरन प मुरजवत् । स्यात् यदि भवेत्तहि । तत्र मच्चरणममीपे । पदापतेः पशून मन्दबुद्धीन् पानि रक्षनि इनि पदापतिः । तस्य हिनोपदेष्टुः जिनेश्वरस्येत्यर्थः । कथमर्हतः पशुपनिनामनि नामाङ्कनीयम् । ''सर्वशः सुगलो जिनः पशुपतिः" इति बहुलमपलम्भात् । समस्तः सकल: । सङ्गीताः सङ्गीतवस्तु "अर्थोऽभिधेमरंवस्तु प्रयोजननिवृत्तिषु'' इत्यमरः । ननु निश्चर्यन । भावि भविष्यन् । गम्यादिर्वत्स्यत्तीनि माधुः । इदमनन्तरिता वेष्टितं ।।६८।।
अन्वय-तदा एप. बंगुषु इति स्फुटं मन्द्रसारं ध्वनत्सु, किन्नरीषु लज्जयं १. मारुनरंधपूर्णवेणुयोधककीरफपदेनैव विशेषणजन्यार्थलामे विशेषणस्य
वयर्यमिति नैयायिका विषिष्टवाचकामा पदानां सति पृथग्विशेषणे विधोष्य
भावपरस्त्र मिलि न्यायादिति वदन्ति । निहादस्ते इत्यपि पाठः । २. मुरज इत्यपि पाठः ।
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द्वितीय सर्ग
२०१ अलिकलकलं प्रोद्गायतीषु ते ध्वनिः मुख, इव, कन्दरीषु निर्बादी स्थात् चेत्, तत्र, पशुपतेः सङ्गीतार्थः ननु समस्तः भावी । ___ अर्थ-भगवान के चरणचिह्नों की आराधना के अवसर पर इन बाँसों को इस प्रकार स्पष्ट, गम्भीर और उच्च ध्वनि करने पर तथा किन्नरियों द्वारा त्रिपुरविजय अत्यन्त कोलाहल पूर्वक गाने पर यदि मृदंग के समान तुम्हारी ध्वनि कन्दराओं में प्रतिध्वनित होगी तो प्राणियों की रक्षा करने वाले भगवान् अर्हन्त का संगीत पूर्ण हो जायगा ।
प्रालयानेरपस्टमासिकम्प तांस्ताविशेषान्, तस्यादूरे कुकधिकविताकल्पितं तत्प्रतीयाः । हंसवारं भगुपतियशोवर्म यत्कोचरन्ध्र, दण्डेनाविष्कृतमिव गुहद्वारकं वैजयार्धम् ॥६९॥ शालेयाद्रेरिति । प्रालया: हिमवद्गिरेः । उपसट तटसमीपे । "शब्दप्रया" इत्यव्ययीभावः । सांस्तान प्रदेशान् । 'वीप्सायाम्" इति द्विरुक्तिः । विशेषान् प्रष्टव्यार्थान् | "विशेषोऽवयव द्रव्ये प्रष्टव्योत्तमवस्तुनि ।" इतिशब्दार्णवे । अतिकम्प दर्शदर्श गत्वा । तस्य हिमाद्रेः। भकूरे समीपे । पत् भगपति पशोवरन भृगुपतेः जामदग्न्यस्य यशसः कोर्तेः वर्त्म प्रवृत्तिकारणमित्यर्थः । हंसदारं हंमानां द्वारं मानसप्रस्थायिनो हंसाः क्रौञ्चरन्ध्रण सञ्चरन्तीति सदागमः । कोचरन क्रौञ्चस्पादेः रन्ध्र विवरं तत् कुकविकषिताकल्पितम् कुत्सितकवित्वरचित लौकिकजनः कल्पितमित्यर्थः । बंजमार्य चक्रिणां विजयस्य अर्थ विजयाथः रजताद्रेः विजयस्मार्थस्थेदं वजयार्धम् | गुहाद्वारक मिव बारमेक द्वारक गुलायाः द्वारक कन्दरद्वारमिव । प्रसोयाः प्रतिविशेः । अत्र क्रौञ्चरन्यमिति क्वचिद्गुहाविबास्म विजया गुहोपमया महत्त्व लक्ष्यते ।।६९।३।।
अन्वय-प्रालयाद्रेः उपतट तान् तान् विशेषान् अतिक्रम्य तस्य अदूरे कुकविकविताकल्पितं, हंसद्वार, भूगुपतियशोवर्म यत् क्रौश्नरन् तत् दण्डन आविष्कृत बैजया गुहाद्वारकं इन प्रतीयाः । ____ अर्थ-हिमालय पर्वत के तद के समीप में सब देखने योग्य पदार्थों का अतिक्रमण कर उसके ( हिमालय के समीप में कुकवि की कविता से कल्पित हंसों का द्वारभूत और परशुराम की कीर्ति का मार्ग स्वरूप जो कोचपर्वत का छिद्र है उसे ( चक्रवर्ती के ) दाड से खोले गये विजया पर्वल के मुहावार के समान आनो।
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पार्वाभ्युदय एकान्तरितार्धवेष्टितानीतःबह्वाश्चर्ये हिमवति कृतालोकनत्वावसमस्तेनोदीची विशमनुसरेस्तिर्यगायामशोभो । कृष्णः सर्पो गुरुरिव गिरेगह्वरान्निध्यताशु,
धामः पादो बलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः ॥७०॥ बल्लिति । बहाश्वर्य बहु आश्चर्य यस्मिन् नस्मिन् । हिमवति हिमाचले । कुसालोकनत्वात् विहिलदर्शनत्वात् । असङ्गः मङ्गहीनः । तिर्यगायामशोभो तिर्यगायामेन क्षिप्रप्रवेशार्थ तिरश्चीनदैच्चण शोभत इति तिर्यगायामशोभी मन् । ताच्छील्ये धिनञ् । "देध्यमाणा म आरोहः" इत्यमरः। गिरेः क्रौञ्चगिरेः । गवरात् गुहाद्वारात । “दरी तु कन्दरो वा स्त्री रेवसातबिले गुहा । गह्वरम्" इत्यमरः । गुरुमहान् । कृष्ण: सर्प इव कालोरग इव । बलिनियमनाम्युद्यतस्य दलिनियमने बले: बलिनामविप्रस्य नियमने बन्धने । अभ्युद्यतस्य प्रवृत्तस्य । विष्णो: विष्णुमुनेः ।। श्यामः कृष्णवर्णः । पार इव चरण इद | आशु शोघ्नम् । निष्पत निर्गच्छ ॥७०।।
अन्वय-वह्वाश्च हिमयति कृतालोकनत्वात् ममङ्गः तिर्यगायामशोभी (त्वं ) तेन उदीची दिशं अनुसरेः । गुरुः कृष्णः सर्प इव बलिनियमने अम्युध तस्य विष्णोः ट्यामः पादः इव गिरेः गह्वरात् आशु निष्पत् ।
अर्थ-बहुत से विस्मयावह दृश्यों से सम्पन्न हिमालय पर्वत को प्राप्त करने का निश्चय करने के कारण निरासक्त तिरछे विस्तार से शोभित तुम क्रौञ्च नामक पर्वत के विवरमार्ग से उत्तर दिशा का अनुसरण करो। बिल से निकलने वाले महाकाय काले सर्प के समान तथा बलि को बांधने के लिए तत्पर विक्रिया ऋद्धि को प्राप्त विष्णु कुमार नामक मुनिराज के काले वर्ण वाले पैर के समान तुम पर्वत की गुफा से शीघ्र निकल जाओ।
तस्माद्धमप्रचय इन निःसृत्य शैलस्य रन्ध्रायुगरवा चोर्ध्वं वशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्थसन्धेः। शुभ्रादभ्रस्फटिकघटनाशोभिगण्डोपलस्य, कैलासस्य त्रिवशवनितादर्पणस्याऽतिथिः स्याः ३७१॥
तस्मादिति । शैलस्य क्रौनाचलस्य । तस्मात् रस्मात् तद्विघरात् । धूमप्रचय पद धूमसमूह इव । मिःसृत्य निष्क्रम्य | ऊचं व्योममार्गम् । गत्वा च चलिस्वापि । वशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्थसन्धेः दशमुखस्य रावणस्य भरुच्छ्वासिताः विश्लेषिताः प्रस्थानां सानूनाम् "कटकोन्त्री नितम्बोऽः स्तुः प्रस्थः सानुरस्त्रियाम्" इत्यमरः । सन्धयो यस्य तथोक्तस्य । "रन्ध्र संश्लेषयो सन्धिः" इति धनञ्जयः । एतत्कथाव
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तारः पुण्यानवे दृष्टव्यः शुभ्रास्फटिकटमा शोभि गण्डोपलरूप शुभ्राणां निर्मलानाम् अवभ्राणां स्थूलानां स्फटिकानां घटनया शोभिनो मनोहराः गण्डोपलाः यस्य तथोक्तस्य । " अदनं भूरि भूयिष्ठम्" इति धनञ्जयः । गण्डशैलास्तु च्युताः स्थूलोपा गिरेः" इत्यमरः । त्रिदशवनितावणस्य विदेशस्य स्वर्गस्य वनितानां दर्पणम् यदर्थं तस्य । स्वस्सीमन्तिनीनां संमुखीनीनो पमस्व राजत्वाद्विम्बग्राहित्वाद्वेदमुक्तम् । कैलासस्य अष्टापदगिरैः कैलासाचलस्व प्रान्तं व्रजेति तात्पर्यम् ||३१||
क्षीरावच्छच्छविभिरभिसः प्रोच्चलग्निर्झरौघैः, कुमुदविशदेय वितत्य स्थितः खम् । नूत्तारम्भे प्रतिकृतिगतस्यादिभर्तुः पुरस्ताव्राशीभूतः प्रतिवितमिद बकस्यादृहाः ॥७२॥
क्षीरादिति । यः कैलाशाचलः । क्षीरात्पयसेोपि । अच्छ छविभि: निर्मल-कान्तिभिः । त्रिष्वागाधात्प्रसन्नोच्छः' इत्यमरः । अभितः परितः । प्रोन्चलन्निर्शरौघैः प्रोच्चतां उद्गच्छतां निर्भराणां प्रवाहाणाम् ओघः समूहः । कुमुदविशवैः । "सिते कुमुदकर विशदश्येतपाण्डराः" इत्यमरः । शृङ्गोच्छ्रायः शिखराणामुन्नतिभिः । "नगाद्यारोह उच्छाय उत्सेवदत्रोच्छ्रयश्च सः इत्यमरः । खम् आकाशम् । "सुरवर्त्म स्वम्" इत्यमरः । वितथ्य व्याप्य । प्रतिकृतिगतस्य । प्रतिमात्मकस्य ।. "प्रतिकृति रवी पुंसि प्रतिनिधिः " इत्यमरः । आविभर्तुः आदिजिनेश्वरस्य । पुरस्तात् मग्रतः । त्र्यम्बकस्य ईशान दिश्पतेः । नृतारम्भे आनन्दनर्तनप्रारम्भे । "शास्त्रं नृत्तं च नर्तने" इत्यमरः । अट्टहास हा सभेदः । " मट्टोऽतिशयभूमी" इति यादव: । " अट्टहासो महत्तरे" इति विदग्धचूडामणी । हामादोनां घावल्यं कवि समय सिद्धम् प्रतिदिनं दिनं प्रति । राशीभूत इव पुञ्जीभूत इव । स्थितः तिष्ठति
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स्म ॥७२॥
अन्वय---- शैलस्य तस्मात् रन्नात् धूमप्रचय इव निःसृत्य ऊर्ध्वं च गत्था क्षीरात् अच्छच्छदिभिः अभितः प्रोच्वलन्निर्शरोत्रः कुमुदविशदेः शृङ्गोच्छ्रायः प्रतिकृतिगत्तस्य आदिभर्तुः पुरस्तात् प्रतिदिनं नृत्तारम्भ राशीभूतः व्यम्बकस्य अट्टहासः इव खं वितत्य यः स्थितः तस्य दशमुखभुजो न्वासितप्रस्थसन्धेः शुभ्रादस्रस्फटिकघटनाशोभि गण्डोपलस्य, त्रिदशवनितादर्पणस्य कैलाशस्य अतिथि
,
स्याः ।
अर्थ — क्रौञ्च नामक पर्वत के उस विवर से धुर्वे के समूह के समान निकल कर तथा ऊपर (आकाश मार्ग में) जाकर दूध से भी अधिक स्वच्छ
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पाश्वभ्युदय
स्फटिक के समान कान्ति वाले चारों ओर बहते हुए फेन से युक्त जल प्रवाहों तथा कुमुद के समान शुभ्र कान्तिवाली ऊँची चोटियों द्वारा (जो कैलाश पर्वत) आदि जिनेश्वर की मूर्ति के आगे प्रतिदिन नृत्य के आरम्भ में पुजीभूत होकर ईशान दिशा के रुद्र के अट्टहास के समान आकाश को व्याप्त कर जो स्थित है उस रावण की भुजाओं से वियोजित प्रस्थसन्धियों से युक्त शुभ्र वर्ण और स्थूल स्फटिक के संसर्ग से शोभित स्थूल पत्थरों वाले और देवस्त्रियों के दांण के समान कैलाश पर्वत के आंतथि हो जाओ।
उत्पश्यामि त्वयि तटग स्निग्धभिन्नामनाभे, शोभामनेटतरुमतो मण्डलभाजितस्य । सधः सहिरवस्तमम्वरस्थ तस्य, प्रालयांशोग्रंसितुमनसा राहणेवानितस्य ॥७३॥ उत्पश्यामीति । लिभिन्नाम्जमा स्निग्धं मसृणं भिन्नं मदितं च यदञ्जन नस्य आभेव आभा यस्य तस्मिन् । त्वपि भवति । सहगते सानुगते सति । बटतकमतः वटवृक्षवतः । मलभ्राजितस्प बिम्बेन वृत्तेन राजितस्य । "बिम्बोऽस्त्री मण्डल विषु" इत्यमरः । स द्यः नत्मणे । तिरिवरवमगारस्य कृत्तस्य शिवस्य विरदरदनस्य गजदन्तस्य छंदवत् भागवत्गौरस्य शुभ्रस्य । “अवदातः मितो गौरोवलक्षो धवलोऽर्जुनः इत्यमरः । इदं विशेषणत्रयमुभयत्राप्यन्वीयते । प्रसिमनसा ग्रसितुं मनो यस्य तेन राणा स्वर्भानुना । बामितस्य संयुक्तस्य । प्रासयाशोनि चन्द्रस्येव । तस्याः बलाशस्य । बोमा द्युतिम् । उत्पश्यामि उत्प्रेक्षे । शोभा भविष्यतीति तर्कयामीत्यर्थः ।।७३।।
अन्धय-स्निग्धभिन्नाञ्जनाभ त्वयि तटगते (मति) वटतरुमतः मण्डलभाजितस्य, सद्यः कृतद्विरदनच्छेदगौरस्य, प्रसितु मनसा राहुणा आथितस्य प्रालेयांशोः इव तस्य अः शोभा उत्पश्यामि ।
अर्थ-सुधम और पीसे गए काजल के समान तुम जब हिमालय के तट प्रदेश में पहुंचोगे तो वटवृक्ष से युक्त परिधिमत भूप्रदेश से शोभित (पक्ष में प्रभामण्डल से शोभित) उसी क्षण काटे हुए हाथी दाँत के टुकड़े के समान सफेद और ग्रसने के इच्छुक राहु द्वारा आश्रित (संयोग वाले) चन्द्रमा के समान उस हिमालय की शोभा हो जायगी, ऐसी में सम्भावना करता हैं।
भावार्थ-मेघ राहु के समान है और हिमालय चन्द्रमा के समान है । जब मेघ हिमालय पर पहुँचेगा तब वह ऐसा प्रतीत होगा जैसे राहु ने चन्द्रमा को ग्रस लिया हो।
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द्वितीय सर्ग
त्वय्यारूठे शिखरमभितोऽधित्यका तस्य मन्ये, पाश्र्वाग्रे वा पुनरपि वशास्यावतारप्रपञ्चम् | लीलामस्तिमितनयनप्रेक्षणीयां भवित्रीमंसन्यस्ते सति भूतो मेखके वाससीय ॥७४॥
२०५
त्वयति । तस्य कैलासस्य शिवरमभितः शिखरस्य सर्वतः "हाधिक्समया" इत्यादिना द्वितीया । अविश्वकान् ऊर्श्वभूमिम् उपत्यका रामन्ना भूमिमधित्यका" इत्यमरः । स्वयि भवति । आके निविष्ठे सति । पुनरपि प्रागिव पश्चादपि । दशास्यावतारप्रपत्रं दशास्यस्य रावणस्य अवतारस्य प्रपञ्चं विस्तारम् | "विपर्यास विस्तरे च प्रपञ्चः" इत्ममरः । मन्ये जाने। पाश्वर्य वा पार्श्वपरिभागे वा | या शब्दः पक्षान्तरे । "उपमायां विकल्पे वा" इत्यमरः । स्वयि तदधित्यिकायामारूके रातीति पुनरन्वयः । मैच के स्यामले | "कालश्यामल मे चका" इत्यमरः । वार्सासि वस्त्रे । " वस्त्र माच्छादनं वासः" इत्यमरः । हलभृतः बलभद्रस्य । " मुसली हली" इत्यमरः । अंसन्यस्ते असे भुजशिरसि । न्यस्यते स्म तथोक्तं तस्मिन् । "स्कन्धे भुजनिरोंसोऽस्त्री' इत्यमरः । सति अस्तीति सन् तस्मिन् सति । इव यद्वत् तद्वत् । अद्रेः कैलामस्य । भवित्र भाविनीम् । स्तिमितनयन प्रेक्षणीय स्तिमिताभ्यां निर्निमिवाभ्यां नयनाभ्यां प्रेक्षणीयाम् दर्शनीयाम् अतिप्रकृष्टामित्यर्थः । सीला शोभामिति वा पाठ: । मन्ये जानामि । "बुद्धिमति ज्ञाने' । त्वयि अग्रभा ये बलभद्रभुजशिरः स्थितश्यामवस्त्रेणोत्प्रेक्ष्यते इत्यर्थः ॥ ७४ ॥
ト
अन्वय-तस्य शिखरं अभितः अधित्यकां त्वयि बारू (सति ) दशास्यादतारप्रपञ्चं मन्ये । पुनः अपि पाइने वा त्वयि आले) मेचके वाससि अंसन्यस्ते सति भृतः एव स्तिमितनय प्रेक्षणीयां बजे: लीलां भवित्री ( मन्ये ) |
अर्थ – कैलाश पर्वत के शिखर के चारों ओर पहाड़ के ऊपर की समतल भूमि में आपके आरूढ़ होने पर दशानन (रावण) के आकार का आविर्भाव मानता हूँ । तुम आरूढ़ होकर बगल में अथवा कन्धे पर काले रंग वाला वस्त्र रख लोगे तो कैलाश पर्वत की बलराम के समान निश्चल नेत्रों से दर्शनीय शोभा हो जायगी । एकान्तरितार्थवेष्टितम् ---
तस्मिन्हित्वा भुजगवलयं शम्भुता वत्तहस्ता, सम्प्राप्योन्चेविरचित इवानीलरत्नैस्त्वयीयम् ।
क्रीडाशैले यदि च विहरेत्पादचारेण गौरी
मा स्म स्फूर्जः सितिफणिभयान्मा स्म संक्लेदिनी भूत् ॥७५॥
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२०६
पाभ्युिदय नस्मिन्नित्ति । तस्मिन् वैलासे । भुजगवलयं भुजग एव वलयं तत् । "कटक वलयोऽस्त्रियाम्” इत्यमरः । हित्वा मुक्त्वा । शम्भुमा ईशातदिगोशेन । वत्तहस्ता दत्तो हस्तो यस्याः सावितीर्णकरालम्बा । इयं गोरी पार्वती । संप्राप्य समागत्य । आनोसरस्नेः इन्द्रनीलमणिभिः । विरचिते कल्पिते । उच्चैः महति । क्रोडाशैल इन क्रीडादाविव । त्वयि भवति । पादचारेण चरणगमनेन यानादि हित्वेत्यर्थः । यदि च बिहरेत् राचरेत्तहि | 1. मार: । "मास्का '' वननिर्घोष । लङ् सिसिफणिभयात् मितिश्चामी फणिन मिनिफणिः कालोग्गः । "सिति धबलमेचको" इत्यमरः । इति भयात् भीतेः। संघलेविनी मनः खेदवती । मास्म भूत् म भक्त । क्रीडाशैल इति त्वदपरि विहरणेत्वं गर्जयमि चेत् तस्याः कालोरग इति भीतिर्भवेत् छलि तात्पर्यम् ।।५।।
अन्वय---भुजगवलयं तस्मिन् हित्वा शम्भुना दत्तहस्ता इयं गौरी सम्प्राग्य आनीलरत्नः उच्चैः विरचिते क्रीडाशैले श्व त्वयि यदि च पादचारेण विहरेत् सितिफणभयात मलेदिनी मा स्म भूत (इति) मा स्म स्फूर्जः ।।
अर्य-सर्परूप कड़े को अथवा मण्डलाकार परिणमित अपने शरीर को कैलाश पर्वत पर छोड़ कर रुद्र के तुल्य ईशान दिशा के स्वामी द्वारा हाथ का सहारा दो हुई यह गौरी के सदश मौर अंग वाली स्त्री अथवा ईशान दिना के स्वामी की पत्नी आकर अत्यधिक नीलवर्ण वाले रत्नों से अत्यन्त ऊँचे रचे गए क्रीड़ा पर्वत के समान तुम्हारे ऊपर यदि पैदल विहार करे (तब) काले साँप के भय से (वह) मानसिक दुःख से युक्त न हो अतः गर्जना की ध्वनि मत करो। विशेष-योगिराट् पण्डिताचार्य ने गौरी का अर्थ पार्वती किया है।
इन्द्राणी चेदुपगतवतो जैनगेहानुपातं, तस्मिन्निज्यां रचयितुमना देवभवस्था तदास्याः । भङ्गीभवस्या विरचितवपस्तम्भितान्तर्जलौघः, सोशनत्वं कुरु मणितटारोहणायायचारी' ॥६॥
इन्द्राणोति ।। तस्मिन् कलासे । इन्प्राणी शची महादेवो "वरुणेन्द्रमृऽभवशर्वद्रान्" इत्यान् । 'नृदुग्" इति डो इज्यां जिनेन्द्र पूजाम्। रचयितुमना: कर्तुमनाः सनी । देवभक्त्या अर्हद्भक्त्या । जैनगेहानुपातं चैत्यालयममीपम् । उपगतवतीचेत् मागतानेत्' । तवा नरामये । त्वं भवाम् । मङ्गोभक्त्या मलीनां पर्वणां भक्त्या रचनया। विरचितमपुः कल्पिनशरीर- सन् । क्तिनिषेवणे भागे रचनायाम्" इति शब्दार्णवे। स्तम्भितारतर्जलोषः स्तम्भितो घनीभाव गभिनो१. अग्रयायीत्यपि पाठः ।
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द्वितीय सर्ग
२०७
न्तर्जलौघः प्रबाहो यस्य तथाभूत सन् । मणितटारोहणाय मणीना तटं तस्यारोहणाय । अप्रचारी पुरोगः सन् । अस्याः इन्द्राण्याः । सोपानत्वं' सोपानभावम् । कुरु विधेहि ।
T-वा', जाणं च भागः इन्द्राणो जैन गेहानुपात उपगतवती चेत् तदा स्तम्भितान्त लोधः भङ्गो भक्त्या विरचितवमुः अग्रचारो मणितटारोहणाय अस्याः मोपानत्वं कुरु । ____ अर्थ-देवभक्ति के कारण पूजा करने की इच्छुक इन्द्राणी प्रत्येक जैन मन्दिर अथवा एक के बाद दूसरे जैनमंदिर को आती हई प्राप्त हो तो (तम) भीतर जलप्रवाह को रोककर अपने शरीर को सोढ़ी के रूप में परिणत करते हुए आगे जाकर मणियों के तट पर आरोहण करने के लिए इसको ( इन्द्राणी को ) सीदो का काम करो। अनन्तरितार्थवेष्टितम्---
अन्तस्तोयोच्चलनसुभगा भाविनों तान वस्थामन्वानास्तास्सुनिभृततरं सानुदेशे निषण्णम् । तत्रावश्यं वलयफुलिशोट्टनोवगोणतोयं, नेष्यन्ति त्वां सुरयुक्तयो यन्त्रधारागृहत्वम् ।।७७॥ अन्तस्ताय इति । अन्तस्तोवोच्चलमसुभगाम् अन्तर्जलस्योद्गमनेन सुन्दराणाम् । भाविनी भवित्रीम् । तामवस्यां प्राक्कुर्व वृष्टिस्वरूपाम् । मन्यानाः मन्यते इति मन्धानाः जानन्त्यः । ताः सुरपुवतयः त्रिदिववनिताः । तत्र कैलासे । सामुदेशे तटप्रदेशो । सुनिभृततर सुनिश्चिलतरम् । निषण्णम् उपविष्टम् वलयकलिशोषवनोदगोर्णतोयं वलयकलि शानि कणकोटयः शतकोटिवारिना कुलिमाशब्देन कोटिमात्र लक्ष्यते। तमघटनानि प्रहा रास्तरुदीर्णमृत्सृष्टं तोयं येन तम् । स्वां भवन्तम् । यन्त्रधारागृहत्वम् कृत्रिमधारा गृहत्वम् । अवश्यं नूनम् । मेष्यन्ति प्रापमिष्यन्ति ।। ७७||
अन्वयः-अन्तम्तोयोज्चलन सुभगां तां भाविनी अवस्था मन्त्रानाः ताः मुरयुवत्यः सुनिभृकारं तत्र सानु देशे निषण्ण बलयकुलिशोद्मनोद्गीर्णतोयं त्वां यन्त्रधारागृहत्य अवश्यं नेष्यन्ति ।
अर्थ-अन्दर के जल के उछलने या बाहर निकलने से मनोहर उस आगे होने वाली अवस्था को विचार में लाती हुई बे देवाङ्गनायें कैलाश पर्वत के शिखर के ऊपरी भाग में निश्चल बैठे हुए बज्रमणि जड़े हुए कङ्कण के प्रहार से जल छोड़नेवाले तुम्हें अवश्य हो फुहारा बना डालेंगी।
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२०८
पारभ्युिदय
आकर्षस्यो वृतिमिव सरस्तोयपूर्णामधस्तात्, क्रीडिष्यन्ति त्रिदशवनितास्त्वामितश्चामुतश्च । ताभ्यो मोक्षो यदि तत्र सत्वे धर्मलब्धस्य न स्यात्, क्रोडालोला: श्रवणपरुषैर्गजितैर्भोषयेत्साः ॥७८॥
आकर्षन्त्य इति । सरस्तरेय पूर्णां कासाराम्भः सम्पुर्णाम् । वृतिभित्र चर्मपत्रमिव । " दृतिश्च घटे रुषे” इति विश्वः । अधस्तात्। अधोभागे । इतश्चासत्र अस्माच्चामुष्णाच्च । एषां भवन्तम् । आकर्षन्पः नयस्यः । त्रिवनिता: त्रिदिवमरण्यः । क्रीडिष्यन्ति क्रोष्ठां करियन्ति । " क्रीड" विहरणे । लुट् । झे भी मित्र । धर्मस्य धर्मे निदाघे "धर्मो निदाषः स्वेदः स्यात् " इत्यमरः । लब्धस्य प्राप्तस्य । तब भवतः । ताभ्यः सुरयुवतिभ्यः । मोक्षः चिनम् । स्क्रीडासकाः प्रमत्ता इत्यर्थः । ताः सुरयुक्त्तीः । भवणपत्रे श्रवणानां कर्णानां परुधैः निष्ठुरः । "निष्ठुरं परुषम्" इत्यमर । गजितैः स्तनितः । भीषयेः । "बिभीतेभिखि" इति भीषादेशः । तर्जयेत्यर्थः ||३८||
अन्वय---अधस्तात् सरस्तोयपूर्णा दृर्ति इव इतः च अमृतः च त्या आकर्षन्त्यः त्रिदशवनिता क्रीडियन्ति सखे ! ताभ्यः धर्मलघस्य तव मोक्षः यदि न स्यात् ताः क्रीडाकोला: श्रवणपरुषः गर्जितः भीषयेः ।
अर्थ - नीचे तालाब के जल से भरे हुए चमड़े के घट के समान इधरउधर से तुम्हें खींचती हुई देवाङ्गनायें क्रीड़ा करेंगी। हे मित्र ! घाम की अवस्था को प्राप्त तुम्हारा यदि उन देवाङ्गनाओं से छुटकारा न हो तो कीड़ा में आसक्त होने वालो उनके कानों को कठोर लगने वाली गर्जनाओं से डरा दी |
कृच्छ्रान्मुक्तो विविधकरणस्तत्र रंत्वाऽथ ताभि
भूयः शैले विहर गमितो वायुनाप्तव्रणाम् । हेमाम्भोजप्रसवि सलिलं मानसस्यावदानः, कुर्वन्कामं क्षणमुखपदप्रीतिमै रावणस्य ॥ ७९ ॥
कृच्छ्रादिति । अथ अनन्तरे । तत्र दशैले । ताभिः देवनारीभिः विविधकरणः विविधेन्द्रियः नानाक्रीडासाधनं । "करणं माधकत मक्षेत्रमा चेन्द्रियेष्वपि ” इत्यमरः । खाक्रीडित्वा । कृच्छ्रात् कष्टात् । मुक्तः त्यक्तः । "ङसिभ्यांभ्यस्तो - काल्पकतिपयकृच्छ्रादसत्वं" इति पञ्चमी । भूयः पुनः । वायुना वातेन । आप्तव्रणाङ्ग ं प्राप्तक्षणावयम् । "अङ्गं प्रतीकोऽवयवोपघनः " इत्यमरः । ग्रभितः ।
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द्वितीय सर्ग मानसस्य मानससरोवरस्य । हेमाम्भोजप्रसवि हेमाम्भोजानां प्रसव प्रसवनमस्यास्तीति प्रसघि 'स्पायुत्पादे फले पुष्पप्रसवे गर्भमोचने" इत्यमरः । सलिलम् जलम् । प्रावधानः स्वीकुर्वाणः । पिबन्नित्यर्थः । ऐरावणस्य इन्द्रगजस्य । "ऐरावतोऽभ्रमातङ्गरावणाऽभ्रम वल्लभाः" इत्यमरः । भणमुखपट प्रीति क्षणे मानसजलादानकाले मुखापटेन या प्रीतिस्ताम् । कुर्वन् वितन्वन् । मिनेन्द्रपूजामागत शक्रस्य राजेन्द्र मुखाग्रभागेपि क्षणं तिष्ठन्नित्यर्थः । कामं यथेच्छया "काम प्रकार्म पयप्ति निकामेष्टं यथेप्सितम्' इत्यमरः । शोले कैलामनगें । बिहर सञ्चर ।।७९॥
अन्वय-- अथ तब ताभिः विविधिकरणः रत्वा कृयात् मुक्तः वायुना आप्तवणाङ्ग गमितः, मानसस्य हेमाम्भोजप्रसवि सलिल आददानः ऐरावणस्य क्षणमुखघटप्रीति कामं कुर्वन् शैले भूयः विहर ।। ___ अर्थ-अनन्तर कैलाशपर्वत पर देवाङ्गनाओं के साथ ( ताली से ताल देना आदि) नाना प्रकार की क्रियाओं से क्रीड़ा कर ( उनके द्वारा कष्ट से मुक्त हुये या छोड़े गये वायु द्वारा शरीर में व्रण घाव) की अवस्था को प्राप्त मानसरोवर के स्वर्ग कमलों को उत्पन्न करने वाले जल को न ग्रहण करते हुए क्षणभर ऐरावत के मुख पर डाले गये वस्त्र के आनन्द को इच्छानुसार करते हुए कैलाशपर्वत पर पुनः विहार करो।
क्रीडाबीणां कनकशिखराण्यावसंस्सत्र पश्यन्, स्वर्गस्त्रीणां निधुवनलतागेहसम्भोगदेशान् । धुवकल्पमुमकिसलयान्यंशुकानि स्वयातनानाष्टलक्ष ललितनिविशेस्तं नगेन्सम् ।।८०॥ क्रीडाद्रीणामिति । जलद भो मेघ । तत्र फैलासे । कोखामीण क्रीडापर्वतानाम् । कामकशिखराणि स्वर्णकूटानि 'वसोनूपाध्याङ : इत्याधारे द्वितीया । आवसन् आस्थितवान् । स्वर्गस्त्रीर्णा देवस्त्रीणाम् । मिघुवनलतागेहसम्भोगदेशान सुरतलत्ताभयनसम्भोगप्रदेशान् । पश्यन् ईक्षमाणः । कल्पवमकिसलयानि कल्पगुमाणां किसलमानि पहलवभूतानि 'पल्लवोऽत्री किरालयम्” इत्यमरः । अंशुकानि सूक्ष्मवस्त्राणि | "अंशुकं वस्त्र मात्र स्यात्परिघानोसरीययोः। सूत्रे वस्त्रे सानु दीप्तौ" इति शब्दाणये । भानावेष्टेः नाना विविधाचेष्टा येषु तः 1 ललित: क्रीडितैः । “नाभावभेदे स्त्रीनृत्यं ललितं त्रिषु सुन्दरे । अस्त्रियां प्रमदारामे क्रीडिते जातपल्लवे'' इति शब्दार्णवे । स्ववातः निजवायुभिः । धुन्धकम्पयन् । तं नगेग्नं तं कलासम् । निविशेः उपभुक्ष्व । "निविंशो भृतिभोगयोः" इति विश्वः । मेघपर्वतयोरबिपन्द्रयोः शिखिजी मूतयोर्दष्टिरम्ययोः । स्वयदर्शनान्मित्रता भवेदिति भावः ॥८॥
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पार्श्वाभ्युदय
अम्बय – जलद ! क्रीष्टाद्रीणां कनकशिखराणि यावसन्, नत्र स्वर्गस्त्रीणां निघुवन लतागे हमम्भोगदेशान् पश्यन् नानाचेष्टैः ललितैः स्ववातैः अशुंकानि कल्पकिसान धुन्वन् तं नगेन्द्रं निविशेः ।
अर्थ – हे मेघ ! क्रीड़ा पर्वतों के स्वर्णशिखरों पर आरूढ़ होकर वहाँ स्वर्ग की स्त्रियों के सम्भोग के लिए रचे गये लतागृहरूप संभोग के स्थानों को देखते हुए नाना प्रकार की चेष्टा वाली और शरीर को प्रिय अपनी वायुओं द्वारा सुक्ष्म वस्त्रों के समान कल्पवृक्षों के कोमल पत्तों को कंपाते हुए उस पर्वतराज कैलाश का उपभोग करो ।
इतः पादवेष्टितानि -
२१०
विद्युद्दाम्ना बलयिततनुस्तत्र बध्येव' रुद्धो, दीर्घ स्थित्वा सरति पचने मन्दमन्दं दिनान्ते । तस्मादद्वेश्वतर पुरीं स्वेष्टकामो धनीशां तस्योत्सङ्ग प्रणयिन इव अस्तगङ्गानुकूलाम् ||८१ ॥
विद्युदिति । तत्र कैलासे । बया नद्या "बनी नम्री वस्त्रा स्यात्" इत्यमरः ॥ यच वृष आवृतवत् । विद्युद्दाम्ना तडिन्मालया । वलबिततनुः आवेष्टित शरीरः । दोघं चिरम् । स्थित्वा विश्वामं कृत्वा । विनाम्ले सायाह्ने । पवने वायो मन्यमन्वं शनैः शनैः । वीप्सायां द्विः । सरति नाति साति । प्रणयिन हव प्रियतमस्येव । लक्ष्य कैलासस्य जन्सङ्ग ऊर्ध्वतये | "उत्सङ्गो मुक्त संयोगे सक्थिन्यूर्ध्वतटेऽपि च" इति मालायाम् । अस्तगङ्गानुकूल विश्लिष्टं गङ्गा एव वुकूलं शुभ्रवस्त्रं यस्यास्ताम् । ‘“दुकूलं सूक्ष्मवस्त्रे स्यादुत्तरीये सितांशुके" इति शब्दार्णवे घनीशां धनिनामीशस्तेषां यक्षाणाम् । पुरीं अलफास्याम् । स्वेष्टकामः स्वष्टाभिलाबी । तस्मावत्र े : कैलासपर्वतात् । अवतर उपगच्छ ॥८१॥
अन्वय - विद्युद्दाम्ना वलयिततनुः वर्धया रुद्धः इव तत्र दीर्घं स्थित्या दिनान्ते पचने मन्दमन्द्रं सरति तस्मात् अद्रेः प्रणयिनः इव तस्य उत्सङ्गे स्त्रस्तगङ्गादुकूलां धनीशां पुरीं स्वेष्टकामः अवतर ।
अर्थ - बिजली की ( रज्जु के समान ) रेखा से आवेष्टित शरीर वाले, चमड़े की रस्सी से बांधे गए के समान उस कैलाश पर्वत पर बहुत देर तक ठहर कर दिन के अन्त समय में हवा के मन्द मन्द चलने पर प्रियतम के समान उसकी ( कैलादा पर्वत की ) गोद में ( कामिनी के समान } गङ्गारूप शुभ्र वस्त्र को शरीर से पृथक् करती हुई योश्वरों की नगरी
१. वर्धमेव ।
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नितीन
२११ { अलका ) में अपनी अभिलाषा को पूर्ण करने की इच्छा से उस पर्वत से जीने उतरो।
वृष्टाध्यात्मस्थितिरधिगताशेषवेद्यः सविद्यः, योगाभ्यासाद्भवनमखिलं सञ्चरन्दूरदर्शी। लक्षम्याः सूति भुवनविदितां तां पुरी तत्र साक्षा
न त्वं वृष्ट्या न पुनरलका शास्यसे कामचारिन् ॥८२।। दृष्टेति । कामचारिन् भो यथेष्टविहारिन् । स्वं भवान् । योगाभ्यासात् च्यानपरिचयात् । वृष्टाध्यात्मस्थितिः आत्मन्य भिकृत्यवर्तमानमध्यात्म दृष्टा अध्यात्मस्थितियेन सः। आत्मस्वरूपं दृष्ट्वानित्यर्थः । अषिगताशेषवेधः ज्ञाताखिलपदार्थः । सविद्यः विद्याभिः महितः । दूरदर्शी विद्वान् । “दूरदर्शी दीर्घदर्शी" इत्यमरः । खिलं निखिलम् । भुवनं जगत् । सञ्चरन् विहन् । लक्ष्म्याः सम्पत्तेः । सतिम् उत्पत्तिगृहम् । भुधनवियितां लोक प्रश्रिताम् । सामलकाम् अलकाभिषा पुरी पुरम् । दृष्ट्वा वीक्ष्य । पुनः पश्चात्' । पत्र पुर्याम् । साक्षात् प्रत्यक्षेण । म त्वं शास्यसि न वेत्स्यसि इति न किन्तु शास्यस्येवेत्यर्थः । कामचारिषस्ते पूर्वमपि बहुकृत्यो दर्शन सम्भवात् अज्ञानमसंभावितमेवेति निश्चयार्थ नम् द्वय प्रयोगः । तदुक्तम् । निश्चयसिद्धार्थेषु नद्धयप्रयोग इति ।।८।।
मन्बय-कामचारिन ! योगाभ्यासात दृष्टाध्यात्मस्थितिः अघिगताशेषवेद्यः मविश्नः अखिलं भुवनं सञ्चरन् दूरदर्शी तत्र लक्ष्म्याः सूति भूवनविदितां अलका पुरीं त्वं पुनः साक्षात् न दृष्ट्वा तां न ज्ञास्यसे न ।
अर्थ-हे इच्छानुसार दिहार करने वाले ! योग के अभ्यास से शुद्ध स्वभाव का अनुभव कर समस्त जानने योग्य वस्तुओं को जानकर केवलज्ञान से युक्त हो समस्त भूमण्डल पर विचरण करते हुए ( सूक्ष्म, अन्तरित और ) दूरवर्ती पदार्थों को देखने वाले आप हिमालय पर्वत के शिखर पर लक्ष्मो की उत्पत्ति स्थान भूमण्डल पर प्रसिद्ध अलका नगरी को साक्षात् न देखकर उसको नहीं जान सकोगे । अर्थात् साक्षात् दर्शन के बिना उसका शान नहीं हो सकता है।
निर्वाणार्थं तितपसिषयोऽमी स्वयं क्लेशयन्ति, व्यर्थोद्योगा मयि तु वितृषः किन्नु मत्तोऽधिकं तत् । इत्याकूताविहसितमिवाम्भोमुचामिन्दुशुभ्र, या वः काले वहति सलिलोगारमन्त्रविमाना ॥८३॥
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२१२
पाश्र्वाभ्युदय
निर्वाणार्थमिति । अमी इमं योगिनः । निर्वाणार्थ मोक्षार्थम् । "मुक्तिः कैवल्यनिर्वाणम्” इत्यमरः । तिसपसिषवः तपस्यितु मिच्छवः नितपसिपवः तपः कर्तुमिच्छिनः । ''साप सन्तापै" इति धातोः मन्नन्नादृत्यः । तु पुनः । मयि अलकापुयम् । बितष, विगता तद् अभिलाषो येषां ते विनुषः । "इच्छा काना स्पहेहा सड्वाञ्छा लिा सा मनोरथः' इत्यमरः । उपर्योद्योगाः निष्पलव्यापाराः सन्तः । स्वयम् आत्मानम् । बलेवार्याम्स अायालयन्ति । तत् निर्माणम् । मत्तः मत्सनाशात् । अधिकम् उत्कृष्टम् किं न भवेत् किंस्वित् । “म पृच्छायां वित्तक " इत्यमरः । इत्याकूतात् एबमभिप्रायात् । या पुरी । उच्च विमाना। उन्नतसप्तभूमिकभवना । "विमान पिदिवे याने गानभूमौ च मज्जने" इनि पादवः । मंघवाह स्थान सुचनार्थमि विशेषणाम् । अम्भोमचा मेघानाम् । बः पयोधरात्मना । युष्मार्क योगिनाम् । काले वकाल इत्यर्थः । बिहसितमिव बिहाममिव । मुपभ्रं चन्द्र यद् गौरम् । सलिलोद्गार परिललानाद्गिरणम् वति धरति ॥८३३
अन्वय-या उच्चविमाना निर्वाणाय तितमिषत्रः व्यर्थोद्योगाः अमी स्वयं फ्लेशयन्ति, मयि तु वितृषः, कि नु तत् मत्तः अधिकम् : इति आकृतात व अम्भोमचा काले इन्दुशुभं पलिलोद्गार वित्सितं एव वहति ।
अर्थ-सात मञ्जिल वाले ऊँचे भवनों से युक्त जो अलकानगरी निर्वाण के लिए तप करने के इच्छुक विफल प्रयत्न वाले ये पाव आदि योगी अपने को कष्ट पहुँचाते हैं, मेरे प्रति अभिलाषा से रहित हैं क्या वह निर्वाण मुझसे उत्कृष्ट है ? इस प्रकार के अभिप्राय से आपके ( मेघों के ) वर्षाकाल में चन्द्रमा के समान सफेद जलवर्षा को उपहास के समान धारण करती है।
भावार्थ-ये पाश्र्वादियोगी मुझसे भी अधिक उत्कृष्ट निर्वाण की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, इस प्रकार के अभिप्राय को मन में रखकर जो अलका चन्द्रमा के समान सफेद जल की वर्षा के बहाने मानों उन पर हँसती है।
सौधेयानगगनपरिषत्केतुमालावलाकं, रत्नोवप्रद्युतिविरचितेन्द्रायुधं प्रावृषेण्यम् । धत्ते पासौ सजलकणिकासारमभ्रंलिहः स्वैमुक्ताजालपथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम् ॥४४॥
सीधेयारिति । याइसौ 3 लकापुरी। अभंलिहे: आकाशस्पृष्टः । "वहाभाल्लिहः इति खच् । ''खित्युः" इसि मम् । स्वैः स्वकीयः। सौधेपा: सोधानामिमानि सौंधेयानि तानि च सानि अग्राणि च तैः । "अगं पुरः शिखामान
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द्वितीय सर्ग
२१३ श्रेष्टाधिकफलादिषु" इति भास्करः । गगनपरिपत्केतुमालावला गगने परितः सीदन्तीति गमनपरिषन्तः "षदल धातोर्गत्यर्थत्वात्' विचलन्तः ते च केतवश्च तथोक्तास्तेषाम् मालापङ्किरिव बलाकाः पक्षिविदोषाः यस्य तत् । रत्नोवप्रथतिः लिएचितेनायुषम् । रत्नानामुदप्रथा उन्निया खुल्या कान्त्या विरचितं निर्मितम् । इन्द्रायुषं सुरधनुर्यस्य नन् । “इन्द्रायुधं शक्रधनुः' इत्यमरः । सजलकणिकासार जलानां कणिकाः जलकणिकाः जलबिन्दवः जलकणिकानामास्तरेण वेगवद्ररेण सहित सजलकणिकासारम् । प्रावृषेश्य प्रावृषि भवं प्रावषेण्यं 'प्रावृषेण्यः इति पम प्रत्ययः । अभ्रवृन्दं मेघजालम् । कामिनी प्रमदा । मुक्तरजालग्रथितं मुनाजाले मौक्तिकबालकः प्रथितं प्रत्युप्तम् । "पुंश्चल्यां मौक्तिके मुक्ते इति यादवः । "अषित प्रन्थितं दृन्धम्' इत्यमरः । अलकमिव चूर्णकुन्तलमिव । जासाबेकवचनम् । “अलकाश्ठूर्णकुन्तला." इत्यमरः । पत्ते धरति । अत्र कालस्य अनुकूलनायकत्वमलकायाश्च स्वाधीनपतिकारुपानायिकात्वं च ध्वन्यते ॥८४||
अन्वय-या असी मुक्ताजालग्रथितं अलक कामिनी व स्वः अनलिह: सौधेयाः गगनपरिपत्केतुमालाबलार्क मधुतियरायरान्द्रावृषं पाक्षिण सजलकणिकासारं अभ्रवृन्दं घत्ते । ___अर्थ-जिस प्रकार कोई स्त्री मोतियों के समूह से प्रथित ( गुम्फित ) धुंघराले बालों को धारण करती है उसी प्रकार अलकापुरी आकाश को छूने वाले प्रासादों के अग्रभागों से आकाश में फहराने वाले ध्वजाओं को पंक्ति ही है बगुला जिसके तथा रत्नों की ऊपर जाती हुई कान्ति से जिसमें इन्द्रधनुष की रचना की गई है ऐसे रत्नों को वर्षाकालीन जलकणों को वर्षा वाले मेघसमूह को धारण करती है ।
भावार्थ-वर्षाकाल में बलाका तथा इन्द्र धनुष होता है। अलका में वर्षा के समय बलाका क्या हैं तथा इन्द्रधनुष किस प्रकार का है, यह बतलाया गया है।
पत्रानीलं हरिमणिमयाः क्षुद्रशलानभोग, प्रोद्यवद्रुमपरिसरखूपधूमानुबन्धाः ।
प्रासावाश्च प्रयितुमलं सर्वदा मेघकालं, विद्युत्वन्तं ललितबनिताः सेन्चापं सचित्राः ।।८।।
यत्रेति । यत्र पुर्याम् । हरिमणिमयाः इन्द्र नीलरत्नरूपाः । “यमाभिलेन्द्र चन्द्राः विष्णुमिहाशुवाजिषु । शुकाहिक पिभेकेषु हरिर्ना कपिले विषु" इत्यमरः । समशेला: क्रीडाद्रयः । प्रोग्रादेषहमपरिसरबूपधूमानुबयाः धूपस्य धूमः घूपधूमः
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पाश्र्वाभ्युदय
परितः सरतोति परिसरन् देवदारुमाारिसस तथोक्तः देवदारु द्रुमपरिसराती धूमघूमश्च तथोक्तः प्रोद्यन् प्रोद्गच्छंदशासौ म चेति पुनः कर्मधारयः । तस्यानुबन्धः सम्बन्धी येषां ते तथोक्ताः । ललित वनिता ललिता रम्या वनिताः स्त्रियाँ येषु ते । सचित्राः सहृचित्रैर्वर्तन्ते सचित्राः । प्रासादाइच हम्यश्चि । आनीलम् आसमन्तान्नीलवर्णम् | नभोगम् आकाशगतम् । "गमः खड्डा" इति उत्पः । विद्युत्वन्तं क्षणरुचिमन्तम् । " स्तं मत्वर्थे" इति पदत्वाभावान्न जश्त्वम् । सेन्द्र चापं सेन्द्रायुधम् । मेकाet वर्षाकालम् । सर्वया अनवरतम् । प्रथयितुं प्रकाशयितुम् । समर्था भवन्तीति शेषः । अत्र कर्तृकर्मविशेषणानां परस्परसम्यबिम्बप्रतिबिम्बभावेन तत्रोपमा दृश्यते ॥ ८५ ॥३
अन्वय-र
यणिमग
देवब्रुमपरिसरनुषनुमानुबन्धाः प्रासादः अनील, न भोगं, विद्युत्वन्तं सेन्द्राणं मेघकालं सर्वदा प्रथयितुं अलम् ।
अर्थ -- जिस अलका नगरी में नीलमणियों से रचित क्रीड़ा पर्वतों से युक्त, सुन्दर स्त्रियों सहित, चित्रकारी सहित देवदारु वृक्षों से ऊपर की ओर निकलते हुए धूप के धुयें से संयुक्त भवन चारों ओर से कृष्णवर्ण, आकाश में स्थित बिजली से युक्त तथा इन्द्रधनुष सहित वर्षा ऋतु को सदैव प्रकट करने में समर्थ हैं।
भावार्थ - अलका नगरी के भवन वर्षाऋतु को सदेव प्रकट करने में समर्थ हैं। जिस प्रकार वर्षाऋतु चारों ओर से कृष्णवर्ण होती है, उसी प्रकार भवन नीलमणियों से रत्रित है। जिस प्रकार मेघकाळ आकाश में स्थित होता है उसी प्रकार भवन भी कोड़ाशैलों से युक्त हैं, जैसे वर्षाकाल में बिजली होती है उसी प्रकार भवन में सुन्दर-सुन्दर स्त्रियाँ हैं, जैसे वर्षा - काल में इन्द्रधनुष दिखाई पड़ते हैं उसी प्रकार भवन भी सचित्र हैं । प्रोच्चैः केकारवमुखरितान्नर्तयन्तो मयूरान्, हंसानुद्यत्करुण विरुतान्मानसे भलानयन्तः । यत्राकाले विदधतितरां देवधिष्ण्येषु सन्ध्या, सङ्गीताय प्रहृतमुरजाः स्निग्धपर्जन्यधोषम् ॥८६॥ प्रोच्चैरिति । यत्र नगर्याम् । वेवधियेषु चैत्यालयेषु । "विपण्यं स्थाने गृहे भेऽग्नौ” इत्यमरः । सन्ध्यासङ्गीताय सन्ध्यासु यद्विधीयते सङ्गीतं तस्मै । प्रहृतमुरजाः ताडितमृदङ्गाः । केकारवमुखरितान के कारण मयूरध्वनिना सुखरितान् वाचादितान् । मयूरान् बर्हिणः । "भयूरो बहिणो बहीं" इत्यमरः । प्रोि
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द्वितीय सर्ग
नयन्तः नागन्तः । मानने ' शेयर । रणपिस्ताम् निगच्छत्करुणकृजितान । हंसान् मरालपक्षिणः म्लानयन्तः ग्लामवन्तः । अफाले अनियतावसरे । स्निग्यपर्जन्यघोष स्निग्धो मसृणः पर्जन्मघोषो मेघव्यनिस्तम् । “पर्जन्यौरसदब्देन्द्री" इत्यमरः । स्निग्धगम्भीर घोषमिति वा पाठः । विवधतितरां कुम्सितराम् ।।८।।
अन्वय-यत्र केकारवमुखरितान् मयूरान् प्रोन्चः नर्तयन्तः, उद्यत्करुणबिरुतान् हंसान् मानसे म्लानयन्तः देवषिष्प्येषु गन्ध्यासङ्गीताय, प्रहृतगुरजाः स्निग्धजन्यघोष अकाले विदधतिनराम् । ___मर्थ-जिस अलकानगरी में मयूर ध्वनि से वाचालित मयूरों को अत्यधिक रूप से नचाते हुए, करुणाजनक शब्दों को बोलते हुए हंसों को मानसरोवर में जाने के लिए दुःखी करते हुए, देवमन्दिरों में सन्ध्याकालीन संगीत के लिए बजाये गये मृदङ्ग मेघ की गम्भीरध्वनि के समान ध्वनि को वर्षाकाल से भिन्न काल में ( भी ) अत्यधिक रूप से करते हैं।
यत्राकीर्ण विततशिखराः सानका मन्त्रघोषं, विधुभासा विचिततनु रत्नदीपानुयाताः । सौधाभोगास्तुलयितुमलं शश्वदोघं घनाना
मन्तस्तोयं मणिमयभुवस्तुङ्गमभंलिहाग्राः॥८॥ यति । यत्र यक्षपुर्याम् । विततशिखराः विस्तृलशुङ्गाः । सानकाः आनकेन पटहेन सहितास्तथोक्ताः 'आनकः पटहोऽस्त्री स्यात्' इत्यमरः । रलदीपानुयाताः रत्नदीपैरनुगताः । मणिमयभुषः मणिमय्यः मणिविकाराः भुवो येषु ते । 'नाभक्ष्या
छावने मयट्' इति मयट् । अधलिहाप्राः अनं लिहायाः अ लिहन्तीति अभ्रलिहानि मनकषाणि । 'बहाभ्राक्लिहः' इति खच् । "खित्यरूः' इत्यादिना मम् अन लिहान्याणि येषां ते तथोक्ताः । सौषोभोगा: प्रासासर्वदेशाः । 'आभोगः परिपूर्णता' इत्यमरः । आकोगं प्राप्तम् । मन्त्रयोवं गम्भीरध्वनिम् । 'मन्द्रस्तु गम्भीरे' इत्यमरः । वियुपासा तहिल्कान्त्या। विरचिततनु विहितशरीरम् । अन्त. स्तोयं अन्तर्गतं तोयं यस्य तम् । तुङ्गम् उन्नतम् । घनानाम् मेघानाम् । ओर्घ समूहम् । 'स्तोभौधनिकरवातवारसङ्घातसञ्चयाः' इत्यमरः । शश्वत् घिरम् । तुलयितु समीकतुम् । अलं समर्था भवम्तांति शेषः । अत्र कर्तृकर्मणोः प्रतिपदं बिम्बप्रतिबिम्ब भावन साम्य लक्ष्यते ।। ८७ ॥
अन्वय-यत्र विततशिखराः सानकाः रत्नदीपानुपाताः, मणिमयभुवः, अभ्रलिहाना, सोधाभोगाः भाकीर्ण मन्द्रघोषं विद्युतभासा विरचिततनु अन्तस्तोयं तुझं घनाना बोघं शश्वत् तुलयितु अलम् ।
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पार्वाभ्युदय __ अर्थ-जिस अलका नगरी में विस्तृत अग्रभागों वाले, मृदङ्गकी ध्वनियों से युक्त, रत्नमय दीपकों सहित मणिमय भूमियों वाले तथा जिनके अग्रभाग आकाश को छूते हैं ऐसे बड़े विस्तृत प्रासाद वर्षाकाल में चारों ओर फैले हुए, गम्भीर गर्जना करने वाले, बिजली के प्रकाश से शरीर को अलंकृत किये हुए, अंदर जल के समूह को धारण करने वाले मेघों के समूह की निरन्तर बराबरी करने के लिए समर्थ हैं।
कूटोच्छायैस्तुहिनविशदैः शारदानम् दौघान्, मन्द्रातोद्मध्वनिभिरुवधीनुच्चत्नद्वारिवेलान् । रत्नोदंशुप्रसररुचिरैभितिभागः कुलाद्रीन्,
प्रासादास्त्वां तुलयितुमल यन्त्र तैविशेषः ।। ८८ ॥ बूटाच्छायरिति । यत्र धनवनगर्याम् । प्रासादाः सौधाः । तुहिनविशवः तुहिनं हिममिव मिमी। फूटोकापः शिखरानतिमिः । शारवान् शरत्कालभवान् । अम्बदौयान मेघसमहान् । मन्द्रासोनिभिः मन्द्रगम्भीररातोद्यानां वाद्यानां चनिभिः शब्दः । उसनलद्वारिलान् उच्चलरकम्पमानं वारि यस्याः सा उच्चलद्वारिः सा बेला येषां तानीति पुनर्वहुप्रीहिः । बहुमोहे राश्रयलिङ्गसारित्रलिङ्ग्यां रूपं नीयते । उदयोन् समुद्रान् । रनोवंशुमसररुचिरैः रत्लानामुदंशूनामुद्गफिरणानां प्रसरेण प्रवाहेण रुचिरैमनोहरैः । भित्तिभागः कृड्यपाच । 'भित्तिः स्त्रीकुड्यमेडूकम्' इत्यमरः । कुलातोन् कुलपर्वतान् । तेस्तैविशेषे. धर्मः । त्वां भवन्तम् । तुसपितुम् उपमां कतुंम् । अलं समर्था भवन्ति ।।८८॥ ___ अन्वय-तुहिनविशदः कूटोच्छायः शारदान् अम्बुदोघान मन्द्रातोरध्वमिभिः उच्चलद्वारिवेलान् उदघीन्, रत्लोदंश प्रसररुचिरः भित्तिभागः कुलाद्रौन्, तैः तः विशेषः त्वां तुलयितुप्रासादाः अलम् । ___ अर्थ-जिस अलका नगरी में हिम के समान सफेद शिखरों की ऊँचाई से शरत् कालीन मेघों के समूहों को बाद्य की गम्भीर ध्वनियों से जिनके तटों से पानी ऊपर की ओर उठ रहा है ऐसे समुद्रों को, रत्नों से निकली हुई किरणों के विस्तार से मनोहर भित्तिभागों से पर्वतों को तथा अनेक की विशेषताओं से तुम्हें अपने बराबर करने में प्रासाद समर्थ हैं ।
पलोभूताः श्रमजलकणेराद्वितप्रस्तरान्ता, बद्धोत्कण्ठस्तनतटपरामृष्टवर्णाविशीर्णाः । सम्भोगान्ते श्रममुपचितं सूचयन्स्यङ्गरागाः, यत्र स्त्रीणां प्रियतमभुजोच्छासितालिङ्गितानाम् ॥ ८९॥
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२१७ पलोभूता इति । यत्र अलकापुर्याम् । सम्भोगाग्से सुरतावसाने । मियतमभुजो. स्वासितालिजिताम् । प्रियतमामां प्राणमाधानां भुजैः उच्छवसितानि श्रान्त्या जलसे काय वा प्रशिथिलतान्यालिङ्गितानि यासा ता साम् । स्त्रीणां नारीणाम् । श्रमजलागैः सुरतभ्रमअनितजलबिधुभिः। परीभूताः प्रागपका इदानी पङ्का भवन्ति स्मेति तथोक्ता। 'कर्मक्रत म्यां प्रागतस्वेच्चिः' । च्ची चास्यानम्धय स्यः' इतीकारः । श्रावितप्रस्तरान्ताः भाद्रीभूतशय्यावसाना: 1 बसोकण्ठस्तन तटपरामुष्टवर्ग: रचिलरोमाञ्चितस्तनतटेम संघष्ट वर्णाः । विशोर्णाः शिथिलता । अगरगाः अङ्गवेषाः । 'समालम्भोगरामश्च प्रसादनविलेपनम्' इति धनन्जयः । उचित सञ्चितम् । श्रमम् आयासम् । सूचयन्ति प्रकाशयन्ति ॥ ८९॥
अन्वय-यत्र प्रियतमभुजोच्छ्वासितालिङ्गिताना स्त्रीणां श्रमजलकणेः पखीभूताः आदितप्रस्तरान्ताः बद्धोत्कण्ठस्तनतटपरामृष्ट्वर्णाविशोर्णाः अङ्गरागाः - सम्भोगान्ते उपचितं श्रम सूचना
अर्थ-जिस अलकापुरी में अपने प्रियतमों की बाहुपाश से जिनका गाढ़ आलिंगन किया गया है ऐसी स्त्रियों के ( रतिक्रीड़ा के ) परिश्रम से उत्पन्न जल कणों से पङ्कभाव को प्राप्त हुए, जिन्होंने शय्या प्रदेश को गीला कर दिया है, दबाने से पर आये हुए समीपवर्ती स्तन तटों से रगड खाए हए मोतियों के कारण चारों ओर विकीर्ण प्रसाधन के विलेपन ॥ अंगराग ) सम्भोग के अन्त में वृद्धिंगत थकावट को सूचित करते हैं।
यस्थामिन्दोरनतिचरितो नातिसान्ध्र पतन्तो, गौरीभविरचितजटामौलिभाजो मयूखाः । नेतुं सद्यो विलयममलाः शक्नुयुर्दम्पतीनामङ्गग्लानि सुरतजनिता तन्तुजालावलम्बाः ॥९० ।। यस्यामिति । यस्याम् अलकायाम् । गौरीभतु: ईशानस्य । विरचितजटामौलिभाजः । विरचिता प्रथिता जटव मौलिस्तं भजतीति विरचितजटामौलिभाक तस्य लाञ्छनात्मकस्मेत्यर्थः । अनतिधरता अतिचरतोत्पतिचरन् न अलिबरन अनतिचरन् तस्य अनतिषरत् तस्य अनतिकामन: । हन्योश्चन्द्रमसः । नातिसाम्ब्रम् । अनुक समासः । विरलं यथा तथा । पतन्तः पतन्तोति पतन्तः निर्गधद्वन्तः । अमलाः न विद्यते मल, कलङ्कः स्पर्शो येषां ते तथोक्ताः । तन्तुजालाबलम्बा: दिनालम्बि सूत्रपुजाधारा, । तुद्गुणगुम्फिता इत्यर्थः । मयूखाः । 'मयूख स्विट्करज्वालासु इत्यमरः । कम्पनीमा वयितवयितानाम् । सुरतअनितो निघुवनसंभूताम् । अनगलानि शरीर श्रमम् । सनः तस्काल एव । विलयं नाशम् । ने' प्रापयितुम् । समः समर्था भवेयुः ॥ ९० ।।
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पार्श्वभ्युदय अन्यय-यस्या गौरीभतु': विरचितजटामोलिभाजः अनतिपरतः इन्दोः नालिसान्दं पतन्तः अमला; सन्तुजालावलम्बाः मयूखाः दम्पतीनां सुरतजनिता अङ्गग्लानि सद्यः विलयं नेतु शक्नुयुः ।।
अर्थ-जिस अलकानगरी में जो निशा का नाथ है, जो विशेष रूप से रचित जटा के समान मुकुट को धारण किए हुए है अथवा वृक्षों को शास्ताओं के आकार नाले बिलों का मुहर को धारण किये हुए है तथा जो अपने मार्ग का अतिक्रमण नहीं करता है अथवा बहुत शीघ्र नहीं जाता है ऐसे चन्द्रमा की अत्यधिक धनी न पड़ती हुई निर्मल तन्तु समूह से विरचित आगमन द्वार से प्रवेश करती हुई किरणें दम्पसियों के सम्भोग. जनित शारीरिक थकान को शीघ्न ही नष्ट करने में समर्थ होंगी ।
एकाकिन्यो मदनविवशा नीलवासोऽवगुण्ठाः, प्राप्ताकल्पा रमणवसत्तीर्यातुकामास्तरुण्यः । यत्रापास्ते तमसि विपणीराश्रयन्त्युत्पथेभ्यस्त्वत्संरोधापगमविशदेरिन्युपानिशीथे ॥९१ ॥ एकाकिन्य इति । यत्र पक्षधामनि । निशीथे अर्द्धरात्रे। 'अर्धरात्रनिशीथों हो द्वौ यामप्रहरी' इत्यमरः । स्वरसंरोधापगमविशदैः । सरसरोषस्य मेघावरणस्यापमेन विशनिमल: इन्दुपायैः चन्द्ररश्मिभिः । 'पादा सम्पडि धतुर्याश' इत्यमरः । तमसि तिमिरे । 'तमिस्र तिमिरं तमः' इत्यमरः । अपारते निराकसे । एकाकिन्यः असहायाः । मदनविवा: मन्मथववागताः नीलवासोश्वगुण्ठाः नील
सोभिः वस्त्ररवगुण्टा अन्तहिताः । 'बस्त्रमाच्छादनं वासः' इत्यमरः । प्राप्ताकल्पाः लब्धभण्डनाः । 'आकल्पवेषौ नेपथ्यम्' इत्यमरः । रमणधसतीः प्रियावासान् पातुकामाः गन्सुकामाः । तवण्यः युवत्तमः। 'तरुणी युवतिसमे' इत्यमरः । उत्पथेन्या उद्गतमार्गेभ्यः। विपणीः पण्यः वीथिकाः । 'विणिः पण्यवीथिका' इत्यमरः ।। माश्रयन्ति प्राप्नुवन्ति ।। ९१ ।।
अन्वय-यत्र निशीथे स्वत्सरोषापगमविशदः इन्दुपादः तमसि अपास्ते एकाकिन्यः मदनविवक्षा: मीलमासोवगुण्ठाः प्राप्ताकल्पाः रमणवसतीः पातुकामः तरुण्यः उत्पश्रेभ्यः विपणीः आश्रयन्ति । ___ अर्थ-जिस अलका नगरी में आधी रात के समय तुम्हारे द्वारा कोई प्रतिबन्ध न रहने से निर्मल चन्द्रमा की किरणों से अन्धकार के दूर हो जाने पर अकेली, काम से विवश, नीलवस्त्र से शरीर को ढके हए और आभूषणों को पहिने हुए प्रियतम के निवासस्थान को जाने की इच्छुक
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युवतियाँ गलत मार्गों को छोड़कर पण्यवीथिकाओं ( बाजार की सड़कों ) को पाती हैं ।
भाषार्थ - मेघ के हट जाने से चन्द्रमा के द्वारा प्रकाश होने पर युवतियाँ गलत मार्ग को छोड़कर अपने इच्छित मार्ग को प्राप्त कर लेती हैं 1 उन्हें भटकना नहीं पड़ता है ।
तासां पाद्यं वितरितुमिवोपरे निष्कुटानी, धौतोपान्ता भवनवलभेरिन्दुपादाभिवर्षात् । यस्यां रात्रौ श्रममपथके प्रस्तुताः कामुकीनां पालुम्पन्ति स्फुटजललवस्यन्दिनश्चन्द्रकान्ताः ॥ ९२ ॥
तासामिति । यस्यामहकार्याम् । रात्री निशायाम् । तासां तरुणीनाम् । पार्थं पादोदकम् | पर वारिणि इत्यपर दिखा कु दार्मा गृहारामाणाम् । 'गृहारामास्तु निष्कुटा:' इत्यमरः । उपहरेः अन्तर्भागे समीपे वा । उपह्नरं समीपे स्वादेकान्ते वाप्युपह्वरम्' इति विषयः । 'अर विषाने समोपे चापि कथ्यते' इत्यभिधानात् । श्रौतोपान्ताः प्रक्षालितसमीपप्रदेशाः इन्दुपादाभिवर्षात् चन्द्ररश्म्यभिसे वनात् । स्फुटजललषस्यग्विनः उल्वणाम्बुकणास्राविणः । भवन वलभेः गृहवक्रदारुणः । ' गोपानसी तु वलभी छापने वक्रदारुणि' इत्यमरः । चन्द्रकान्ताः चन्द्रकान्त शिलाः । अपचके अभागें । 'अपत्यास्त्वषयं तुल्ये' इत्यमरः । प्रस्तुताः प्रकृताः । कामुकीनां कामिनीनाम् । वृषस्यन्ती तु कामकी' इत्यमरः । श्रमम् आयासम् । व्यालुम्पन्ति अपहरन्ति ||१२||
अन्वय-- मस्मा तासां उपह्नरे पाद्यं वितरितुं इव इन्दुनादाभिर्थात् स्फुटजललवस्यन्दिनः, निष्कुटाना बोसोपान्ताः भवनबलभेः प्रस्तुताः चन्द्रकान्ताः रात्रीअपथके कामुकीनां श्रमं भ्यालुम्पन्ति ।
P
अर्थ - जिस अलका नगरी में युवतियों को एकान्त में पादोदक देने के लिए ही चन्द्रमा की किरणों की वर्षा के कारण निर्मल जल बिन्दुओं को टपकाने वाली, जिनके द्वारा गृह उद्यानों के समीपवर्ती प्रदेशों का प्रक्षालन किया गया है ऐसो गृहोद्यान के भवनों के ऊपरी भाग की प्रशस्त चन्द्रकान्तमणियाँ रात्रि में राजमार्ग से भिन्न पथों में भी कामी स्त्रियों की मार्ग की थकान को दूर करती हैं।
संलक्ष्यन्ते चिरयति मनोवल्लभे कामिनीनां, गच्छन्तीनां स्खलितविषमं रात्रिसम्भोगहेतोः ।
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पार्वाभ्युदय सौभाग्यांकरिव विलसितैरातता राजमार्गा, गत्युत्कम्पादलकपतिसैर्यत्र मंदारपुष्पैः ॥ ९३॥
संलक्ष्यन्त इति । यत्र अलकानगर्याम् । मनोवल्लभे प्राणकान्ते । चिरपति विलम्बमति सति । रात्रिसम्भोगहेतोः रात्री सुरसक्रीडानिमित्तम् । स्खलितविषम स्वलितेन पादस्खलितेम विषमं यथा भवति तथा गल्छन्तीना यान्तीनाम् । कामिमोना मामलोचनानाम् । विशेषास्त्वङ्गनाभीरुः कामिनी वामलोचना' इत्यमरः । विससितैः रचितः सोभाग्यारिष सुभगत्वस्य चिह्न रिघ । 'कल खोकी लाग्नं च चिह्न लक्ष्य च लक्षणम्' इत्यमरः । गत्युस्कम्पात् गत्या गमनेनोल्कम्पश्चलन तस्मात् हेतोः । अलकपत्तितः अलकेम्यः पतितः । मन्बार पुष्पः सुरतस्कुसुमः । आतताः विकीर्णाः । राजमार्गाः जनपतिपथाः संलक्ष्यन्ते संदृश्यन्ते ॥ ९३ ॥
अन्वय-यत्र मनोवल्लभे चिरयति रात्रिसभोगहेतोः स्खलितविषम गच्छन्सीनां कामिनीनां गत्युरझम्पात् अलकपतितः, विलसितः सौभाग्याच इव मन्दार पुष्पैः राजमार्गाः आतताः संलक्ष्यन्ते ।
अर्थ-जिस अलकापुरी में प्रियतम के देर करने पर रात्रि संभोग के लिए जाते समय लड़खड़ाने के कारण विषम रूप से जाती हुई स्त्रियों के गमन में कम्पन होने के कारण अलकों (घुघराले बालों ) से गिरे हुए मानों शोभायमान सौभाग्य के चिह्न मन्दार के फूलों से राजमार्ग ( सड़कें ) व्याप्त दिखाई देते हैं।
यत्रोद्याने कुसुमितलतामण्डपेषु स्थिताना, शय्योपान्तविततमधुपैरातसम्भोगगन्धैः । नोलोत्तंसैनिधुवनपदं सूच्यते दम्पतीनां, क्लुप्तच्छेदैः कनककमलैः कर्णविभ्रंशिभिश्च ॥ १४ ॥ यति 1 यत्र नगर्याम् | उद्याने आक्रोष्टे । 'पुमानाक्रीस उद्यानम्' इत्यमरः । कुसुमितलसामण्डपेषु कुसुमानि सताम्या स्विति कुसुमिसाः 'सजात सारकादिभ्यः' इति इतत्यः । सारच सा लताच सासां मण्डपास्तेषु । स्थितानो बसताम् बम्पतीनाम् मिथुनानाम् । आत्तसम्भोगगन्धैः सम्भूतभोगगन्धैः । वितसमधुपैः आवृतमधुकरः । शय्योपान्ते शयनोपान्तप्रदेशः । पलप्तच्छेदैः रचितखण्डेः । नोलोत्तंसः नीलोत्पलललामः । कर्णनिशिभिः कर्णामा विभ्र श्यन्तीति कर्णविभ्रशीतितः। कनफकमलेः कनकवर्गः कमलेश्च । षष्ट्या विवक्षितार्याला सति मदिवग्रहेऽध्याहारः शेषः । एवमन्यत्राप्यनुसन्धेयम् । निषुवनपर्व सुस्तस्थानम् । सूच्यते ज्ञाप्यते ।। ९४ ।।
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अन्वय-या उद्याने कुसुमितलतामण्डपेषु स्थिताना दम्पतीनां आत्तसम्भोगगन्धः विततमघुपैः नीलोरांसः घट्योपान्तः कर्णविभ्रशिभिः यससम्छेवैः कनककमलैः च मिधुवनपद सूच्यते ।
अर्थ-जिस अलकानगरी में उद्यान में पुपित लतामण्डपों में स्थित दम्पतियों के मथुन सेवन का स्थान निम्न कारणों से जाना जाता है-- फेले हए भ्रमरों से, सम्भोग काल में प्रयुक्त गन्ध द्रव्यों के ग्रहण करने से, नील कमलों से रचित शिरोभूषण जहाँ है ऐसी शय्या के समीपवर्ती स्थानों से तथा कानों से गिरने के कारण खण्ड खण्ड हुए स्वर्णकमलों ( सोने के समान कमलों ) से।
मन्दाकिन्यास्तटवनमन कोडतां दम्पतीनां, पुष्पास्तीर्णाः पुलिनरचिता पत्र सम्भोगदेशाः । संसूच्यन्ते बहुतरफलैः कुङ्कुमारक्तशोभमुक्ताजालस्तनपरिसरच्छिन्नसत्रश्च हारैः ॥ ९५॥
मन्दाकिन्या इति 1 यत्र अलकायाम् । मन्दाकिन्याः गङ्गायाः । 'मन्दाकिनी वियद्गङ्गा' इत्यमरः । तटबममनु सीरवन प्रति । कोडतां विहरतां । बम्पतीनां मिथुनानाम् । पुष्पास्तो पुषिफोः पुलिनरधिता: सिकतानिमिताः । सम्भोगवेशाः कामकेलिप्रदेशाः । कुरूकुमारक्तशोभैः कुकुमेन लोहितमनोहरैः । बहुतरफलेः बदक्रमुकादिफलः । मुमताजाल: मौक्तिकसर । शिरोंनिवेशितरिति शेषः । स्तनपरिसरमियम सूत्रः स्तनयोः परिसरः प्रदेशस्तत्र छिम्मं सूत्र येषां तः । 'स्मृतः परिसरो मुत्यो देवोपास्तप्रदेशयोः' इति विश्वः । स्तनपरिचितच्छिन्नसूवरिति पाठे । स्तनयोः परिस्तेिनाम्यासेन छिन्न सूत्रं येषां तैः। मौक्तिकहारेरच मुक्ताहारयष्टिभिरपि । संलग्यन्ते सुष्ठ शाप्यन्ते ॥ ९५ ।।
अन्वय-यत्र कुङ्कुमारयतशोभैः बहुसरफलः मुक्ताजासैः, स्तनपरिसरमिछन्नसूत्रः हारैः च मन्दाकिन्याः सटवनं अनुक्रीडतां दम्पतीनां पुष्पास्तीर्णाः पुलिनरचिताः सम्भोगदेशाः संसूच्यन्ते ।
अर्थ-जिस अलका नगरो में कुङ्कुम के समान लाल शोभा से युक्त विपुलतर फलों से, मोतियों से निर्मित हारों से तथा कुचप्रदेश द्वारा टूटे हुए धागोंवाले हारों से गंगा के तटवर्ती वन के समीप क्रीड़ा करते हुए दम्पतियों के फूलों से आच्छादित रेत में निर्मित संभोग सेवन के स्थान अच्छी तरह जाने जाते हैं।
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पाश्र्वाभ्युदय गत्यायासाद्गलितकबरीबन्धमुक्तः सभी, कोणः पुष्पैः कुसुमधनुषो बाणपातायमानैः । लाक्षारानी चरणनिहितरयषिमा बस्या, नैशो मार्गः सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम् ॥९६ ॥ गत्यामासादिति । यस्याम् अलकायाम् । सवितुः सूर्यस्य । उवये उद्गमे सति । अधिक्षोणि शोणिमधिकृत्याधिक्षोणि तस्मिन् भूतले । कामिमीनाम् स्वीणाम् । गत्यायासात् गमनाज्जातश्रमात् । गलितकारोबन्धमुक्तः गलितात शिथिलात् कबरीबन्धात् केवामन्यात् मुक्तानि च्युतानि तः । 'कवरी केशवेशे' इत्यमरः । सभृङ्गः भृङ्गसहितः । कुसुमधनुषः कुसुमान्येव धनुर्यस्य तस्य कामस्य | बाणपाताअमानः धारपातसदृशैः । कीर्णैः आस्तीर्णः । पुष्पैः कुसुमैः । परनिहितः पादविलिप्तः । लाक्षारागैश्च लाक्षारजनैरपि । 'लाक्षाराक्षाजतुक्लीय भावोऽलक्तो द्रुमादयः' इत्यमरः । नेशः निशि भवो नेशः । मार्गः पन्थाः । सूच्यते ज्ञाप्यते । मार्गपसित मन्दारकुगुमादिलिङ्गरयमभिसारिकाणां पन्था इत्यनुमीयत इति भावः ।। ९६ ॥
अग्षय-तस्यां गत्यायासात् गलित कबरीवन्धमुस्तैः कीर्णैः सभृङ्गः कुसुमधनुषः बाणनातायमानः पुष्पैः अधिक्षोणि चरणनिहितः लाक्षारागैः अपि कामिनीनां नशः मार्गः सवितुः उदये सूच्यते ।
अर्थ-जिस अलका नगरी में गमन से उत्पन्न परिश्रम के कारण शिथिल केशवेश की रचना से गिरे हुए, भौरों से सहित, गिरते हुए काम के बाण के समान फूलों से तथा पृथ्वी पर पैर रखने से अंकित महावर के रंग से कामिनी स्त्रियों का रात्रिकालीन मार्ग सूर्योदय होने पर सूचित होता है।
भावार्थ-कामिनियों के गमनजन्य परिश्रम के कारण उनका कबरीबन्ध शिथिल हो जाने से उनसे गिरे हुए फूल मार्ग पर गिर पड़े थे। फूलों के साथ उन पर बैठे हुए भौंरे भी गिर पड़े थे। वे गिरे हुए फूल ऐसे लग रहे थे जैसे गिरते हुए काम को बाण हो । जहाँ जहाँ स्त्रियों ने पैर रखे थे वहाँ उसके महावर का रंग अंकित हो गया था। इन सब कारणों से सूर्योदय के समय स्त्रियों का रात्रिकालीन मार्ग सूचित हो रहा था ।
मन्ये यस्या जति सकले प्यास्ति नौपम्यमन्यस्सवौंपम्यप्रणिहितधिया वेधसा निर्मितायाः।
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यामध्यास्ते कमलनिलया सम्पवश्च प्रजानामानन्दोत्थं नयनसलिलं यत्र नात्यनिमितः ।। ९७ ॥ मन्य इति । सर्वोपम्पप्रणिहितषिया सर्वोपमानत्वसावधान धिषणेन । गेषसा ब्रह्मणा । निमिताया रजिताया: । गम्या असामाना: 'र' । मनोनि ई.प. न्नपि । अति लोके । अन्यत् अपरम् । औपम्यम् उपमेयवस्तु । नास्ति मन्ये न विद्यत इत्येवमह जाने । कमलनिलया लक्ष्मीः । 'लक्ष्मीः पद्मालया पद्मा' इत्यमरः । पाम् अलकाम् । अव्यास्ते अधिवसति । प्रजानां जनानाम् । सम्पदश्च धियश्च । पाम् अलकापुरम् । अध्यासते। अर्थवशाद्विभक्त्याधि परिणामः । 'शीस्थासोराधारः' इत्याधारे द्वितीया। मस्ये इति पदमात्र वा सम्बम्धनीयम् । यत्र अलकायाम् । मयतसलिलं नेत्राम्बु । आनन्दोत्यं आनन्दजन्यमेव । निमित्त अपरैः शोकाबिहेतुभिः न न भवति ।। ९७ ।।
मन्बय-सौंपन्य प्रणिहितधिया वैवसा निमितामाः यस्याः सकले अपि जगति औपम्यं नास्ति ( इति ) मन्ये । यां कमलनिलया अध्यास्त । ( यां) च प्रजानां सम्पदः ( अध्यासते ) यत्र नयन सलिल आनन्दोत्यं, न अन्यः निमित्तः । ___ अर्य-सभी उपमानों को ध्यान में रखकर ब्रह्मा से निर्मित जिस अलका नगरी का समस्त संसार में भी कोई अन्य उपमान नहीं है ऐसा में मानता हूँ। जिसमें लक्ष्मी निवास करती है तथा जिसमें प्रजाओं की सम्पत्ति निवास करती है, जहाँ पर आंसू आनन्द से ही मिरते हैं, अन्य निमित्तों से नहीं गिरते हैं।
पत्रस्यानां न परपरता चित्तभर्तुः परत्र, नान्यो भङ्गः प्रणयिनि जने मानभं विहाय । नान्यो बन्धः प्रियजनतया सलमाशानुबन्धान्नान्यस्तोपः कुसुमशरमाविष्टसंयोगसाध्यात् ॥ ९८ ॥
यत्रत्वानामिति । पत्रस्यानां यत्र भवा यत्रत्यास्तेषाम् अलकापुरजनानाम् । 'चित्तमः प्राणनाथात् । परत्र अन्यत्र । चित्तभर्तारं विहायान्यत्रेत्यर्थः परपरता परवशता । न नास्ति । प्रणयिनि जने प्रणयवज्जने । मानभङ्गम् अभिमानच्युतिम् । विहाय मुक्त्वा । अन्यो भङ्गः । मास्ति प्रियजनतया प्रियजनसमूहेन । संगभाशानुबंधात् संसर्गाभिलाषानुबन्धात् अन्यो बंधः अन्यबंधनं नास्ति इष्टसंयोगसाध्यात् इष्ट संयोगेन प्रियजनसमागमेन साध्यान्निवर्तनीयात् । तत्प्रतिकार्याबित्यर्थः । कुसुमशरजात् मदनेन अन्यात्तापात् । अन्यस्तारोऽपरस्तापः । नास्ति ॥ १८ ॥ १. तापो न कुसुमशरादिति पाठांतरं ।
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पाश्र्वाभ्युदय अन्षय-मत्रत्यानां चित्तभ: परत्र परपरता न, प्रणयिनि जने, मान भङ्गं बिहाय अन्या भगः न, प्रियजनतया सममाशानुबन्धात् अन्यः बन्धः ने, इष्ट संयोगसाध्यात कुसुमशरजात् अन्यः तापः न ! ____ अर्थ-जिस बलकापुरी में निवास करने वाले लोगों को मनोहर वस्तु के अतिरिक्त दूसरी जगह परवशता नहीं है अर्थात् मनोहर पुरुष और मनोहारिणी स्त्री को छोड़कर अन्यत्र परवशता नहीं है। प्रियतमों के प्रति मानभङ्ग के अतिरिक्त अन्य मान भंग नहीं है। प्रियजनों के मिलन को माशा के बन्ध से भिन्न बन्ध नहीं है। इष्ट व्यक्ति का संयोग सिद्ध न होने के कारण जो काम संताप होता है, उससे भिन्न कोई संताप नहीं है।
यत्राकल्पान्निधिषु सकलानेव सम्पावपस्सु, नार्थी कश्चिन्न खलु कृपणो नापि निःस्वो जनोस्ति । धर्मः साक्षान्निवसति सती यामलङ्कृत्य यस्माअन्नाप्यन्यत्र प्रणयकलहाद्विप्रयोगोपपत्तिः ॥ ९९ ॥ पति । यस्मात्कारणात् । एमः नीतिधर्मः । सतों या पुरीम् । बालकस्य विभूष्य । साक्षात् प्रत्यशेण । निवसति वर्तते । तस्मात्कारणात् । यत्र अलकापुर्याम् । निषिषु निधानेषु । सफलामेष आकल्पान् भूषणानि | 'आकल्पवेषौ नेपथ्यम्' इत्यमरः । सम्पावत्सु मानेषु । कविधवों याचकः । न नास्ति । कृपणः क्षुदः । 'कदर्ये कुपणशुद्रपिचानमितम्पचाः' इत्यमरः । न खान नास्ति हि । नि:स्वीपि अनो दरिद्रजनश्च । 'निःस्वस्तु दुविधो दीनो दरिद्रो दुर्मतोऽपि सः इत्यमरः । नास्ति प्रणयकलहात् प्रणयजात कलहात् । अन्यत्र परतः । विप्रयोगोपपत्तिरपि विरहमाप्तिरपि नास्ति ।। १९ ॥
अन्वय-चत्र निधिषु सकलान् एष माकल्पान सम्पादयत्सु कश्चित् जनः अर्थी नास्ति, न खलु ( कश्चित् ) कृपणः अस्ति, नाऽपि ( कश्चित् ) निःस्वः ( अस्ति ) यस्मात् पां सती अला कुस्म धर्मः साक्षात् निवसति ( तस्मात् तत्र) प्रणयकलहात् अन्यत्र विप्रयोगोपपत्तिः अपि नास्ति ।
अर्थ-जहाँ नवनिधियों से समस्त संकल्पों के पूरा हो जाने के कारण कोई भी व्यक्ति याचक नहीं है, न कोई दीन है और न कोई निर्धन है. क्योंकि उस शोभित अलका को अलेकृत कर धर्म प्रत्यक्ष रूप से निवास करता है अतः वहाँ प्रणय कलह से भिन्न किसी अवस्था में विरह की प्राप्ति भी नहीं है। १. नाप्यन्यस्मादित्यपि पाठः।
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२२५ यस्पै शमा स्पतिसरामिटसर्वशिभाजे, यत्रासीनाः शतमखपुरी विस्मरन्स्येव सद्यः । नान्यच्चिन्त्यं विहरणभयाद्यत्र मृत्युजयानां, वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनावन्यदस्ति ।। १०० ।।
यस्या इति । इष्टसडिभाने इष्टाः सर्लीः समस्तसम्पदो भजतीति तथोक्का सस्यं । यस्यै अलकाय । शक्रः इन्द्रः । 'शानः शतमन्युः' इत्यमरः । स्पहसित वाञ्छतिसराम् । 'स्पृहेर्वति' चतुर्थी । यत्र मस्माम् । आसीनाः स्थिताः जनाः। हातमखपुरीम् अमरावतीम् । सः सपदि । विस्मरन्येव न स्मरन्त्येव । ततोप्यमिति भावः । यत्र पुरि । विहरणभयात् । विहारभीतेः। अन्यश्चिात्यम् अपर चिन्तनीयम् । म-नास्ति । मृत्युन्जयानां मृत्यु जयन्तीप्ति मृत्युजयास्तेषाम् । वित शाला मक्षाणाम् । 'विसाधिपः कुबेरः स्यास्त्रभो निकयक्षयोः' इति शम्वाणवे । पौवनात् तारुण्यात् । अन्यायश्च वाक्य वयश्च । 'खगबाल्याविनोत्रयः' इत्यमरः मास्ति खलु न भवति हि ।। १००॥
अन्वय-३ष्टसखिभाजे यस्य शक्नः स्पयतितरां यत्र मासीनाः सद्यः एव शतमखपुरी विस्मरन्ति, मन्त्र विहरणभयात्, अन्यत न चिन्त्य, यत्र मृत्युंजयानो वित्तेशानां यौवनात अन्यत् पयः न खलु अस्ति । ___ अर्थ-अभिलषित समस्त ऐश्वर्य से मुक्त जिसके लिए इन्द्र अत्यधिक अभिलाषा करता है जहां पर ठहरने वाले शीघ्र ही इन्द्रपुरी को भूल जाते हैं । जहाँ अन्यत्र जाने के भय से अन्य कुछ भी चिन्ता योग्य नहीं है अर्थात् अलका को छोड़कर अन्यत्र जाने में दुःख का अमुभव होने से लोग दुसरी जगह जाने में डरते हैं, अलका को छोड़कर अन्य किसी की याद नहीं करते हैं। जहाँ मृत्यु को जीतने वाले यक्षों की यौवन से भिन्न बुढ़ापा आदि अवस्था नहीं है।
नूनं कल्पनुमसहचरास्तत्सधर्माण एते, सजाताः स्युः षऋतुकुसुमान्येक शो यत्प्रदधुः । अक्षीद्धि ध्रुवमुपगताः पल्लघोल्लासिता ये, यत्रोन्मत्तभ्रमरनिकराः पापा नित्यपुष्पाः ॥ १०१ ॥
नूनमिति । यत्र नगर्याम् । अक्षीणशि सम्पूर्णसम्पत्तिम् । तपोवैशिष्ट्यगुण विशेषणम् । प्रवं निश्चयेन । उपगताः उपयाताः । पल्लषोल्लासिता किसलयः १. भ्रमर मुखरा इत्यपि पाठः ।
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पाएभ्युिदय शोभिताः। उन्मत्तभ्रमनिकरा: जन्मताः सन्तुष्टाः अमरमिरा: भङ्गनिवहाः येषाम् ते 1 नित्यपुष्पाः नित्यं पुष्पाणि येषां ते तथोक्ताः । निवृत्तकानियमादित्यर्थः । ये पावपार वृक्षाः । पादपौगोवनस्पतीः' इति धनञ्जयः । पशकुसुमानि षट्स ऋतुषु आतानि कुसुमानि तथोक्तानि । यत् यस्मात् । एकशः एकदव । प्रकटुः वितरेयुः । तत् तस्मात्कारणात । एते वृक्षाः । कल्पमसहसराः सुरगुभसहकारिणः । तत्सघर्माण: 'धर्माः पुष्पयमन्यायस्वभावाचारसोमपाः' इत्यभिधा. नात् । 'सः समानस्म' इति समावः । 'धर्मावन्' इति बहुव्रीहापत्य र सरसमान स्वरूपाः । मून निश्चयेन सजासाः समुदभूताः । स्युः भवेयुः ।। १०१ ॥
मस्वय-यत्र अक्षी ध्रुव उपगता: पालयोहलासिताः उन्मत्सनमरमुखाः नित्यपुष्पाः ये पादपाः यत् षड्ऋतुकुसुमा नि एकशः प्रदधुः (तस् ) एते कल्पछुमसहचराः नूनं तत्समर्माणः सजाताः स्युः ।
अर्थ-जिस अलकापूरी में अक्षीणऋद्धि को निश्चम से प्राप्त हुए, कोमल पत्तों से उत्पन्न सौन्दयं से युक्त, भ्रमरों से वाचालित सदा फूलों से मुक्त जो वृक्ष यतः छह ऋतुओं के फूलों को एक ही समय में देते हैं अतः ये कल्पवृक्षों के साथ निवास करने वाले उनके ( कल्पवक्षों के) समान स्वभाव वाले होने चाहिए।
तत्सान्निध्यादिव बनलताः शिक्षितास्तन्नियोगं, मानाभेवं विवरितुमल ताश्व दिव्यं प्रसूनम् । ताभिः स्पर्धाभिध च गमिता यन्त्र भूगोपगीता, हंसश्रेणीरचितरचना नित्यपषमा नलिन्यः ॥ १०२ ॥ तरसान्निध्यादिति । यत्र अलकायाम् ! बमलताः विपिनवल्लयः तत्साग्निम्पात् सवृक्षसामीप्यात् । शिक्षिता इव अम्यासविशिष्टा इव । नानाभेर बहुविधम् । सम्मियोगं तत्कैम्यम् । विवरितुं विवरणाय कन्तुमित्यर्थः । अल समर्थाः । ताभिः बनलताभिः । स्पर्धा विवादम् । गमिता इव प्रापिता इव । ताश्त्र सलिम्पः पमिन्यः । विसिनीपश्मिनीमुखाः' इस्यमरः । भङ्गोपगीताः भूजलपकजिताः । हंसश्रेणीरचिसरचमाः हंसश्रेणीभिः मरालराजिभिः रचिता रकमा या सां ताः रचित रवाना इत्यपि पाठः श्रेयान् । तत्र हंसश्रेण्या रचिता रशना काञ्चोदाम गा ता: 'स्त्रोकदयां मेखला काञ्ची सप्तको रसमा तथा' इत्यमरः । नित्यहंसपरिवेष्टिता इत्यर्थः । नित्यपधाः नित्य पद्मानि या सां ताः । नित्या पद्मा लक्ष्मीर्या सां ना इति च तथोक्ताः । विवयं मनोहरम् । प्रसूनं कुसुमम् । विपरितुमलमित्यत्राप्यन्वयः ॥१०॥ १. वितरितुमर्ल । २. रशना ।
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अन्षय-यत्र तत्सानिध्यात् सन्नियोगं शिक्षिताः इव ताः च बनलला नानाभेदं दिव्यं प्रसून वितरितु अलम् । यत्र च मङ्गोपगीताः हंसश्रेणीरचित रशनाः नित्यपद्माः नलिन्यः ताभिः सर्दा इव गमिताः ।
अर्थ-जिस अलका नगरी में कल्पवृक्ष को समीपता से मानों अभिल'षित प्रदानरूप कर्तव्य की शिक्षा प्राप्त हुई वे ( कल्पवृक्षों से आलिङ्गित ) बन लताये अनेक प्रकार के दिव्य पुष्प प्रदान करने में समर्थ हैं तथा जहाँ भौरों की गुञ्जन से युक्त, हंसों की पक्तियों द्वारा जिनमें रशना ( मण्डलाकार रचना ) बनाई गई है ऐसी सदैव कमल से युक्त कमलिनियों वन लताओं के साथ मानों स्पर्धा को प्राप्त कराई गई।
भावार्थ-हंसों द्वारा बनाई गई मण्डलाकार रचना कमलिनियों की करधनी के समान प्रतीत होती थी।
यस्यां नित्यप्रतमुखाम्भोवमानः प्रोता, नृत्यन्त्युच्चेविरचितलयं ताण्डवंश्चित्रपिच्छाः । नानारत्नरिव च निधयो निमिता जनमास्ते, केको कण्ठाः भवनशिखिनो नित्यभास्वरकलापाः ॥ १०३ ।। यस्यामिति । यस्यां पुर्याम् । निस्याहतमुखाम्भोवनाव: नित्यप्रहताना मुखाणां पणत्रानाम् अम्भोदानामिव मादनिभिः । प्रतीता। प्रपिताः । 'प्रतीतेः प्रथितायात विसविज्ञातविश्रुताः' इत्यमरः । नानारल: विविषमणिभिः । निमिता: रचिताः। मझामाः सञ्चारिणः । निषय इव निधानयत् । 'निधि शेषधिः' इत्यमरः । चित्रपिटाः चित्रे पिच्छं रह येषां ते तथोक्ताः केकोरकष्ठाः केकाभिः उद्गतः कपड़ा येषां ते तथोक्ताः । नित्यशास्वकलापाः नित्यं भास्वन्तः फलापाः बाणि येषां ते तथोक्ताः । 'कलापी भूषणो बहें तूणीरे संहतो कचे' इत्यमरः । ते भवनशिक्षिमः क्रीडामयुराः ताण्ड: नर्तनः । 'ताण्डवं नटन नाट्यम्' इत्यमरः विरचितलयं विरचितो लपस्तालसाम्यं यस्मिन्कमणि तत् । सालः कालक्रियामानं लपः साम्यम्' इत्यमरः । उच्नः परम् । नृत्यन्ति नर्तन कुर्वन्ति ।। १०३ ।।
अन्वय-यस्यां नित्यप्रहत मुखाम्भोदनादैः प्रतीताः, विपिच्छाः, नानारत्नः निर्मिताः जङ्गमाः निधयः इव च ते नित्यभास्वरकलासः के कोल्कण्ठाः भवनशिस्विनः ताण्डवैः विरचितलयं उसः नृत्यन्ति ।
अर्थ-जिस अलकानगरी में नित्य बजाए गए मेघ के समान नाद वाले मृदङ्गों की ध्वनियों से आनन्दित अद्भुत अथवा अनेक रंगों के पिच्छों से युक्त अनेक प्रकार के रस्तों से निर्मित जङ्गम निधियों के समान
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पार्खाभ्युदय
सतत प्रकाशमान पंखों से शोभित तथा ध्वनि करने के लिए गर्दन को ऊँचा करने वाले गृहमयूर लय ( नृत्य, गीत आदि का साम्य ) उत्पन्न कर अत्यधिक रूप से नृत्य करते हैं ।
ज्योत्स्नंमन्येष्वमरवसति व्याहसत्सु स्वभूत्या, हाल भिषु सुधापङ्कधतेषु यस्याः । निर्विषयन्ते निधिभुराधिपैः स्त्रीसहाय वितन्त्रनित्य ज्योत्स्नाप्रतिहत तमोवृतिरम्याः प्रदोषाः । १०४ ||
ज्योत्स्नं मन्येष्विति । यस्याः अलकायाः । ज्योत्स्नंमन्येषु ज्योत्स्नां मन्यन्ते इति ज्योत्स्नं मन्यानि तेषु । 'कर्तुः स्वः' इति वत्यः । ज्योत्स्नापुञ्जायमानेष्वित्यर्थः । स्वभूत्या निजैश्चर्येण | अमरवसति देववासम् । व्याहसत्सु हासं कुर्वन्सु। उद्यलभिषु धनराष्षुि भूतेषु तन्वन्नित्यज्योत्स्ना प्रतिहतलमोवृतिरम्याः वित्तन्वन्नित्यज्योत्स्नया प्रसर्पन्त्या सार्वकालिक चन्द्रिया प्रतिहता तमसां वृत्तिर्व्याप्तिस्तया रम्याः सुभगाः । अत्र ज्योत्स्नाया नित्यत्वं महेशस्य तदाश्रयस्वादिति भावः । प्रघोषाः रात्रिप्रवेशकालाः । 'प्रदोषो रजनीमुखम्' इत्यमर: 1 स्त्रीसहायः वनितासहपरः । निधिपधिपैः निधीन भुजन्तीति निषिभुजस्तेषामधिपै: यक्षनायकः । निषिध्यन्ते अनुभूयन्ते ॥ १०४ ॥
अन्वय- सुधावर्षायेषु ज्योत्स्नमन्येषु स्वभूत्या अमरवसति व्याहसत्सु चलभिषु यस्याः येषु वितन्वन्नित्यज्योत्सना प्रतिततमोवृत्तिरम्याः प्रदोषाःस्त्रीसहायैः निधिभुराधिपैः निर्विश्यन्ते ।
अर्थ-चूना से सफेद पुते हुए, अपने आपको चाँदनी के समान मानने वाले, अपने ऐश्वर्य से देवों के निवास स्थान स्वर्गभूमि पर हँसते हुए, ऊँचे ऊपरी भागों से युक्त जिस अलकानगरी के भवनों में प्रसरणशील नित्य चाँदनी के द्वारा अन्धकार के नष्ट हो जाने से नारीरूप सहचरियों से युक्त यक्षपति करते हैं ।
रमणीय रातों का अनुभव
भावार्थ - रातों का अनुभव अपनी रमणियों के साथ यक्षों के अधिपतियों द्वारा किया जाता है ।
दृष्ट्वा यस्याः प्रकृतिचतुरामाकृति सुन्दरीणां, त्रैलोक्येऽपि प्रथमगणनामीयुषां जातलज्जा मन्ये लक्ष्मीः सपदि विसृजेदेव संलच्यकेशान्, हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्दानुविद्धम् ॥ १०५ ॥
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द्वितीय सर्ग दृष्ट्वति । यस्था पुर्यः । सुन्दरीणो रमणीनाम् । 'सुश्वरी रमणी रामा' इत्यमरः । त्रलोषयेऽपि त्रिलोका एव चैलोक्य तस्मिन्नपि मेषादि' इति टयम् । प्रथमगणना प्रथमोपनाम् । मुख्यतामित्यर्थः । ईपृर्षी गतवतीम् । 'लिटः क्वसुकानो' इति वसुः । 'नदुग्' इति डी । प्रकृतिचतुरां प्रकृत्या चतुरां निपुणाम् । आकृतिम् आकारम् । दृष्ट्वा बोक्ष्य। जातलज्जा उत्पन्नवीसा । 'मन्दाक्षं ह्रीस्त्रपा बीता' इत्यमरः । लक्ष्मी: श्रीः । सपवि शीघ्रण । 'द्राङ् मञ्जः सपदि द्रुते' इत्यमरः । केशान् शिरोरुहान् । संयुष्य उत्पाट्य । हस्ते पाणौ । लीलाकमल लोलार्थ कमलम् । लीलारविन्दं हस्ते स्थितमित्यर्थः । 'अलकाश्चूर्णकुन्तलाः' इत्यमरः । जातायेकवचनम् । बालकुन्वानुविख' बालकुन्दः प्रत्यग्रमान्न्यकुसुमैः अनुविद्धम् अनु. घेधो ग्रथनम् । नपुसके भावे क्तः । अलकमिति पाटे बालकुन्दानुविधम् अभिनवमाध्यकुसुमग्रथितम् । अलकाश्चूर्णकुन्तलम् । क्रमणि क्तः । विसृजेविय परिहरेदिव । मन्ये जाने ॥ १०५ ॥
अश्वय-यस्याः त्रैलोक्ये अपि प्रथमगणनां ईयुषी सुन्दरीणां प्रकृतिचतुरां आकृति दृष्ट्वा जासलज्जा लक्ष्मीः केशान् संलुच्य हस्ते लीलाकमल, अलके बालकुन्दानुविद्य सपदि विसृजेत् एव ( इति ) मन्ये ।
अर्थ-जिस अलकापुरी की तीनों लोकों में भी उत्कृष्ट गणना को प्राप्त हुई स्त्रियों की स्वभाव से मनोहर आकृति को देखकर जिसे लज्जा उत्पन्न हो गई है ऐसी लक्ष्मी केशों का लोंच कर हाथ में शोभायुक्त कमल तथा अलकों में अर्धविकसित कुन्दपुष्पों का गुम्फन अवश्य ही छोड़ देंगी, ऐसा मैं मानता हूँ।
यत्र स्त्रीणां स्मितरुचिलसज्ज्योस्नया बखशोभा, प्रालेयांशोः श्रियमुपहसत्यस्तदोषाऽकलङ्का । भूयो लक्ष्मी हिममहिमजा मानयन्तीभिराभि
भॊता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डतामाननश्रीः ॥ १०६ ॥ यति । यत्र अलकायाम् । स्त्रीणां वनितानाम् । स्मितचिलसयोस्नया स्मितस्य ईषताहमस्य रुचिः कान्तिः विलसन्ती चासौ ज्योत्स्ना च स्मितरुचिरिव विलसज्ज्योत्स्नातया । बशोभा रचितद्युतिः । अस्तरोषा अस्तो नष्टो दोपो अस्तगमनोपरागादिदूषणं यस्याः सा विनष्ट रात्रिश्च । 'सायं निशवयं दोषोऽस्त्रो वा ना दूषणाचयोः' इत्युभयत्रापि भास्करः । अकलप कलरहिता । एतद्विशेषणद्वर्य चन्द्राप्यधिकगुणवं साधयति । भूयः पुनः । हिममहिमजा हिमस्य हेमन्ततॊमहिम्मा १. नशोभा
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पार्खाभ्युदय सामध्येन जाताम् । सज्मीम् उद्यानशोभाम् । मानयन्तोभिः सत्कुर्वन्तीभिः । आभिः स्त्रीभिः । लोध्रप्रसवरजसा लोध्रप्रसपानां लोधपुष्पाणां रजमा परामेण | लोनप्रसवरजसा लोध्रप्रसवाना लोधपुष्पाणां रजसा परागण । 'गालवः शाबरो लोन।' स्यादुत्पादे फले पुष्पे प्रसवो गर्भमोचने 'पांगुर्ना न दया रजः' इत्यमरः । पाण्डता गोरत्वम् । नीता प्रापिता । आननश्री: मस्खलक्ष्मीः । प्रालेयांशी: चन्द्रमसः । 'हिमांशुश्चन्द्रमामचन्द्रः' इत्यमरः । षियं सम्पतिम् । उपहसति परिहरति ।।१०६॥
अन्वय-यत्र स्मिलरुचिलसज्ज्योस्नया आबद्धशोभा, अस्तदोषा, अकला, हिममहिमजां लक्ष्मी मानयन्तीभिः आभिः लोध्रप्रसवरजसा भूयः पाण्डुता नीता,. स्त्रीणां आननश्रीः प्रालेयांशोः श्रियं उपहसति ।
-जिस अलका मे मद हास्य की कान्तिरूप शोभायमाझ चांदनी से विरचित, सौन्दर्य से युक्त, दोष रहित, ( चन्द्रश्री रात्रि के सम्बन्ध से सहित है।), निष्कलङ्क (चन्द्रश्री सकलंक है), हेमन्त ऋतु की महिमा प्रकर्ष से उत्पन्न उद्यान की शोभा का सम्मान करती हुई उस नगरी में रहने वाली स्त्रियों के द्वारा लोन पूष्पों के पराग से पुनः पुनः श्वेतवर्ण को प्राप्त कराई गई ( स्त्रियों के) मुख की शोभा चन्द्रमा की शोभा ( चाँदनी ) पर हँसतो है।
यत्राकल्पे स्वरुचिरचिते कल्पवृक्षप्रसूते, सत्येव स्यात्प्रियमभिनवप्रीतिमादृत्य किञ्चित् । यक्षस्त्रीणां यदुपनिहितं ताभिरात्तानुरागं चूडापाशे नवपुरबकं चार कर्णे शिरीषम् ॥ १० ॥ यत्राकल्प इति । यत्र अलकापुरि । स्वचिरचिते स्वच्छन्तकृते । कल्पवृक्षप्रसूसे कल्पवृक्षेषु जाते । आकल्पे आभरणे । सत्येक विद्यमान एव । ताभिः यक्षस्त्रीभिः ।
दापाशे केशपाशे । नषकुरबर्फ इत्यप्रकुरखकप्रसूनम् । 'अम्लानस्तु महासहा' तत्र शोगे कुरबकम्' इत्यमरः । कर्णे श्रोत्रे। जातावेकवचनम् । घार पेशलम् । 'सुन्दर रुचिरं चार इत्यमरः । शिरीष पुष्पविदोषम् । शिरीषस्तु कपातनः । भण्डिलोऽपि इस्पमरः । आत्तानुरागं आत्तानुरागं आत्तः प्राप्तोऽनुरागो यस्मिन् कर्मणि तत् । यत् यस्मात् कारणात् । उपनिहितं संधृतम् । तस्मात् कारणात् । अभिनवप्रोतिम् अभिनवस्य प्रीतिस्ताम् । आवृत्य गृहीत्या । यक्षस्त्रीणां यक्षनारीणाम् । किञ्चित् ईचद्वस्तु तुच्छमित्यर्थः । प्रियं प्रीतिकरम् । यक्षस्त्रीणां कल्पवृक्ष दत्ताना भरणे सत्यपि लोकोभिनवप्रियः' इति वचनात् पुष्पाण्यपि प्रमोदकराणि भवेयुरिति भावः ।। १०७ ।।
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द्वित्तीय सर्ग
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अन्वय-पत्र स्वरुचिरचिते कल्पवृक्षप्रसूते आकलो सति एष ताभिः चूनापापो आत्तानुराग नवकुरबक, कणे चार शिरीषं यत् उपनिहितं तत् यक्षस्त्रीणां अभिनवप्रीति आवृत्य किञ्चित् प्रियं स्यात् । ____ अम.
मिमी में अपनी रुचि से रचित और कल्पवृक्ष से उत्पन्न आभूषण होने पर भी [अलकानगरी की ] स्त्रियों के द्वारा केशपाश में लालिमा को प्राप्त किया हुआ नया कुरबक का फूल है, कान में मनोहर शिरीष का फल स्थापित किया गया है अतः यक्षस्त्रियों को अभिनव पदार्थ में प्रीति की अपेक्षा से कोई शिरीष पुष्प आदि तुच्छ वस्तु भी प्रिय होती है।
भावार्थ-वहाँ की स्त्रियों की नूतन पदार्थ में प्रीति लक्षित होती है। सम्प्रति सर्वदा सर्वत् सम्पत्तिमाहपाणी पद्म कुरबकयुत स्वोचिते धाम्नि कुन्दं, लौधो रेणु स्तनपरिसरे हारि कर्णे शिरीषम् । व्यक्तिव्यक्तं व्यतिकरमहो तत्र पग्णामृतूना, सोभन्ते च त्वनुपगमजं यत्र नोपं बधूनाम् ।। १०८ ।।
पाणाविति । यत्र पुरि । वधूनां नारीणाम् । पाणी हस्ते । 'पञ्चशासः शयः पाणिः' इत्यमरः । पमं पशुजम् । शरल्लिङ्गमेतत् । स्वोचिते स्वयोग्ये । धान्ति स्याने केवापाश इत्यर्थः । कुरणकयुतं कुरबकपुष्पसहितम् । वसन्तलिङ्ग मेतत् । कुन्छ कुन्दकुसुमम् । कुन्दानां यद्यपि 'माध्यं कुन्दम्' इत्यभिधानात् । शिशिरखमस्ति तथापि हेमन्त प्रादुर्भावः । शिशिरे प्रौढत्वमित्यवस्थामेदेने हेमन्त कार्यत्वम् । कृन्दपुष्पमपि केशपाशे । स्तनपरिसरे पयोधरप्रदेशे । 'स्मतः परिसरी मृत्युदेवोपान्तप्रवेशयोः' इति विश्वः । लोध्रः लोधसम्बन्धी । रेणुः धुलिः 1 'रेणुद्धयोः स्त्रियां धूलिः' इत्यमरः । शिशिरलिङ्गमेतत् । कर्णे श्रोत्रे। हारि रम्यम् । शिरीष शिरीषकुसुमम् । ग्रीष्मलिङ्गमेतत् । सीमन्ते च शिरोरुहपद्धती। 'स्त्रीणां पुसि च सीमन्तः' इत्यमरः । त्वयुपगमजे तवोपगमनेन मेघागमनेन जायते इति तथोक्तम् । नीपं कदम्बप्रसूनम् । 'अथ स्थलकदम्बके । नीपः स्यात्पुलकः श्रीमान्प्रावृषेण्यो हलिप्रियः' इति शब्दार्णवे । वर्षालिङ्गमेतत् । तत्र अलकापुरि । षणां ऋतूनां षट्कालानाम् । व्यतिकरं परस्परस्यानुप्रवेशनम् । 'व्यत्तिकरः समाख्यातो असनव्यतिषङ्गयोः' इति विश्वः । व्यक्तिव्यक्तं प्रकाशेन प्रकटितम् । अहो आश्चर्य भवेदिति शेषः ॥ १०८ ।।
अन्धय-यत्र बघूनों पाणी पद्म, स्वोचित धाम्नि कुरमयुतं कुन्द, स्तन
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पाश्र्वाभ्युदय परिसरे लोधी रेणुः कर्णे हारि शिरीषं, सीमन्ते च त्वदुपगमजं नीपं, तत्र पण्णां ऋतूनां व्यतिकरमहा व्यक्तिव्यक्तम् । ___ अर्थ-जहाँ पर ( जिस अलकापुरी में ) स्त्रियों के हाथों में कमल है, अपने योग्य स्थान ( केशकलाप) में करबाक के फूलों से युक्त कुन्दपुष्प है, स्तनप्रदेश में लोध्र पुष्पों का पराग है, कान में मनोहर शिरीष का फूल है तथा मांग में तुम्हारे आगमन से उत्पन्न कदम्ब पुष्प है। उस अलका नगरी में छहों ऋतुओं का पारस्परिक मिलन उत्सव स्पष्ट रूप से व्यक्त हो गया।
शक्रमन्याः परिणतशरच्चन्द्रिकानिर्मलानि, प्रोसुकानि प्रणयविवशाः स्थापतेयोमवन्ति । आक्रीडन्ते प्रिययुवतिभिः सर्वकामाभितृप्ता, यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्येश्य हर्म्यस्थलानि ।।१०९॥ शक्रंमन्या इति यस्याम् अलकायाम् । शकमन्याः इन्द्रमन्याः शक्रमन्यते आत्मनः शक्र मन्याः । 'कतुः स्वः' इति खत्यः। प्रणयविवशाः प्रीतिवमगाः । सर्वकामाभितृप्ता सर्वाभिलास्तुप्ताः । यक्षाः वित्तेशाः । परिणतशरमिकानिर्मलागि सम्पूर्णशरत्काल ज्योत्स्नेव निर्मलानि । प्रोतुमि उन्नतानि । स्वापतेयोमवन्ति स्वापतेयस्य उष्मवन्ति उष्णवन्ति । 'द्रव्यं वित्तं स्वापतयं' इत्यमरः । सितमणि मयामि स्फटिकमयानि चन्द्रकान्तमणिमयानि च हयंस्थलानि एत्य गत्वा प्रिययवतिभिः स्त्रोभिः सह । आकोजन्ते रमन्ते ।। १०९।। ____ अन्वय-यस्यां शक्रममन्याः प्रणयविवशाः सर्वकामाभिसृप्ता यक्षाः प्रिययुवतिभिः परिणतशरचचिन्तकानिर्मलानि प्रोत्तनानि स्वापतेयोष्मवन्ति सितमणिमयानि हर्यस्थलानि एत्य संक्रीहन्ते ।।
अर्थ-जिस अलकानगरी में अपने आपको इन्द्र मानने वाले, प्रणय से विवक्ष तथा समस्त अभिलाषाओं को सफल करने वाले यक्ष प्रिय अङ्गनाओं के साथ, पूर्णता को प्राप्त शरत्कालीन चौदनी से निर्मल, अत्यधिक ऊँचे, धन की ऊष्मा ( गर्मी ) से सम्पन्न, स्फटिकमणियों से बनाए हुए भवनों में आकर कीड़ा करते हैं।
यत्र ज्योत्स्नाविमलिततलान्याश्रिताः कुट्टिमानि, प्रासादानां हरिमणिमयान्यासवामोवयन्ति । रंरम्यन्ते द्रविणपतयः पूर्णकामा निकाम, ज्योतिश्छायाकुसुमरचनाम्युत्तमस्त्रीसहायाः ॥ ११० ॥
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द्वितीय सर्ग
यत्रेति । यत्र अलकायाम् । प्रासादानां हर्ष्याणाम् । ज्योत्स्नाविमलानि पत्रिका हिरिनिर्धन नीलरत्न निर्मितानि । आसवापोषयन्ति आसेवन पुष्परसेन आमोदवन्त परिभवन्ति । ज्योतिछाया कुसुमरचनानि ज्योतिषां ज्योतिष्काणां छायाः प्रतिबिम्बात्येव कुसुमानि तं रचितानि परिष्कृतानि । ज्योतिष्काराग्निभाज्या पुत्रार्थाद्वशत्मसू' इति वैजयन्ती । कुट्टि माति अधिष्ठानि । आश्रिताः संश्रिताः । उत्तमस्त्रीसहायाः ललिताङ्गना सहचराः । पूर्णकाशः सम्पूर्णाभिलाषा: 'कामोऽभिलाषस्तर्षश्च' इत्यमरः । ब्रविणपतयः यक्षाः । निकामं यथेष्टम् । रम्यते भृशं रमन्ते ।। ११० ।।
अन्वय-यत्र ज्योत्स्नामिलिततलानि हरिमणिमयानि आसवामोदवन्ति ज्योतिषामा कुसुम रचितानि प्रासादानां कुट्टिमानि आश्रिता पूर्णकामाः उत्तमस्त्रीसहायाः द्रविणपतयः निकामं रम्यन्ते ।
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अर्थ - जिस अलका नगरी में चांदनी से निर्मल तलभाग वाले, इन्द्रनीलमणि से निर्मित, उत्तेजक सुगन्ध द्रव्यों से युक्त अथवा फूलों के रस से सुगन्धित ( या मद्य की गन्ध से युक्त ) ताराओं के प्रतिविम्ब रूप पुष्पों से अलंकृत भवनों के अगिनों का आश्रय लेकर बढ़ी हुई कामवासना से युक्त, यक्ष उत्तम स्त्रियों के साथ अपनी इच्छानुसार अत्यधिक रूप से रमण करते हैं ।
लोलापाङ्गाः सुरसरसिकाः प्रोन्नत भ्रूविकाराः, प्राणेशानां रहसि मदनाचार्यकं कर्तुमीशाः । स्वाचीनेऽर्येविफलमिति वा वामनेत्रा न यस्यामासेवन्ते मधु रतिफलं कल्पवृक्षप्रसूतम् ॥ १११ ॥
I
लोलापाङ्गा इति । यस्यां नगर्याम् । लोलापाङ्गाः चञ्चलापाङ्गा: । 'लोलपंच सतृष्णयो:' 'अपाङ्गनेनयोरन्ते' इत्यमरः । सुरसरसिकाः सुरसेन शुङ्गारादिरसेन रसिकाः । प्रोग्मम भूविकारा: प्रोञ्चलद्भ्रूभङ्गाः । प्रागेशाम प्राणनाथानाम् । रहसि रहस्ये । त्रिविजनच्छन्ननिःशलाकास्तथा रहः । रहावोमांशुचालिङ्गे' इश्यमरः । अर्षे प्रयोजने । स्वाधीने साधिते सति । विफलं न निष्फलं न भवति । इति वा एवमेव 'उमामां विकल्पे वा' इत्यमरः । मबना चाक महमथाचार्यश्वम् । 'यो गन्त्याद्गुरू गोत्तमावुञ्' इति वुञ् 'वोरकः' इत्यकः | काम रहस्योपदेशमित्यर्थः । कर्तुं विधातुम् । ईशाः समर्थाः । वामनेत्राः कामिन्यः । 'कामिनी वामलोचना' इत्यमरः । कल्पवृक्षप्रतं पानाङ्गसुरमसम्भूतम् । रतिफलं रतेः कामकेल्याः फलम् । मधुं वृक्षरसम् । प्रासेवन्ते आदृश्यानुभवन्तीत्यर्थः ॥ ११११
अन्वय-यस्यां लोलापाङ्गा सुरसरसिकाः प्रोन्नत विकाराः रहसि प्राणे
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पाश्र्वाभ्युदय शाना मदनाचार्यकं कतु ईशाः वामनेत्राः अर्थे स्वाधीने [ सति मदनाचार्यक' ] विफलं इति वा कल्पवृक्षप्रसूतं रतिफलं मत्रु न आसेवन्ले ।
अर्थ--जिस अलकानगरी में चंचल नेत्र प्रान्त वाली, संभोग शृंगार रस की ज्ञाता, उन्नति को प्राप्त भौंहों के विकार से युक्त, एकान्त में अथवा रतिक्रीड़ा के समय प्राणनाथों के कामशास्त्र के आचार्यों के कर्म को करने में समर्थ सुन्दर नेत्रों वाली स्त्रियाँ 'काम सेवन रूप फल में स्वाधीन होने का नामाचार्ग का काम
किया इस काल से ही कल्पवृक्ष से उत्पन्न और कामोत्तेजक मद्य का सेवन नहीं करती हैं।
गेहे गेहे धनवसचिवर्यत्र धर्मानुरागादिव्यर्गन्धैः सुरभिकुसुमैः साक्षतेधूपदीपैः । सङ्गीताचैरपि जिनमहो वय॑ते पुण्यकामरुत्वदगम्भीरध्वनिषु मधुरं पुष्करेष्याहतेषु ॥ ११२ ॥ गेहे गेहे इति । यत्र यक्षघामनि । गेहे गेहे गहे गहे । बीप्सायां द्विः । धर्मानुरागात् सद्धर्मभक्त्या । पुण्यकामैः पुण्याभिलाषिभिः । पनवसचिः कुबेरमग्निभिः । विग्यः दिवि भवः स्वर्गस्धरित्यर्थः । गन्धैः मलयजः । सामतः अक्षतसहितः । सुरभिकुसुमैः सुरभियुक्तः कुसुमैः । धूपदीपः धूपाश्च दीपाश्च तथोक्तास्तः । सङ्गोतारपि सङ्गीत प्रमुखश्च । स्वद्गम्भीरध्वनिषु । तव गम्भीरध्वनिरिक ध्वनिर्येषां तेषु पुष्करेषु वाद्यभाण्डमुखेषु । 'पुष्करं करिहस्ताने वाद्यभाण्डमुखे जले इत्यमरः । मधुरं श्रुतिसुभगं यथा तया । आहतेषु प्रहतेषु सत्सु । जिसमहः अहं. सूजा । वय॑ते विधीयते ।। ११२ ।।।
अन्वय-या गेहे गेहे धर्मानुरागात पुण्यकामैः धनबसचिवः स्वद्गम्भोरध्वनिषु पुष्करेषु मधुरं आहतेषु दिव्यैः गन्धः सुरभिकुसुमैः साक्षप्तः धूपदोप: सङ्गीताचं अपि जिनमहः वय॑ते । ___ अर्थ-जहाँ पर घर घर में धर्म के अनुराग के कारण पुण्य की अभिलाषा करने वाले कुबेर के सचिवों [ मन्त्रियों] अथवा भृत्यों द्वारा तुम्हारे समान गम्भीर शब्द बाले पुष्कर वाद्यों के कर्णप्रियरूप से बजाए जाने पर दिव्य गन्ध, सुगन्धित फूल, चावल, धूप, दीप तथा संगीत आदि ( नृत्य, गीत, वादित्र ) से जिनपूजा का उत्सव किया जाता है ।
वासः क्षौमं जिगलिषु शनैनमादेष्टुकामं,
यूनां कामप्रसयभवनं हारि नाभेरधस्तात् । १. शनकरित्यपि पाठः।
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द्वितीय स
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काञ्चीवाना किमपि विवृतं लक्ष्यते कामिनीनां, नीवीबन्धोच्छ्वसित शिथिलं यत्र विश्वाधराणाम् ॥१४३॥ वास इति 1 यत्र कुबेरपुरि । बिम्बाधराणां विम्बमिव अधरः श्रोष्ठो वासां ताः तासाम् । 'प्रतिबिम्बे प्रतिकृती प्रतिकृत्या च मण्डले । लाञ्छनेऽपि च बिम्बोस्त्रोन द्वयोबिम्ब काफले' इति भास्करः । कामिनीर्ना कान्तानाम् । नीवीबन्धोच्छ्व शिथिलं नीवीचन्त्रस्य उच्छ्वसितेन त्रुटितेन शिथिलं सस्तम् । 'नोवो पणे ग्रन्थिभेदे स्त्रोणां जघनवाससि' इति विश्वः । काञ्चीवाना रशनथा । किमपि कियत् । विघृतम् अवलम्बितम् । कौमं वासः दुकूलं वस्त्रम् । 'श्रीमं दुकूलम्' 'वस्त्रमाच्छादनं वासः' इत्युभयत्राप्यमरः । नाभेरधस्तात् नाभेरघोभागे । हारि सुभगम् 'दूध' हारि मनोहरं च दचिरम् । इति इलायुधः । कामप्रश्रभवनं कामोत्पत्तिस्थानम् । नूनं निश्वयेन यूनां तरुणानाम् | 'वयस्थतरुणी युवा' इत्यमरः । आवेष्टुकामम् उपदेष्टुकामम् । शनैः सन्दम् । जिगलिषु गलितुमिच्छु लक्ष्यतें विषयीक्रियते ।। ११३ ।।
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अन्वय-पत्र बिम्बाधराणां कामिनीनां नीवीबन्धोच्छ्वसितशिथिलं यूनां हारि काम प्रसव भवनं नूनं आदेष्टुकामं नाभेः अधस्तात् शनैः जिगलिषु क्षौमं वास: काञ्चीदान | किमपि विभूतं लक्ष्यसे ।
अर्थ --- जिस अलकानगरी में बिम्बाफल के समान लाल) अधर वाली स्त्रियों का नीवी की गांठ के टूटने से शिथिल तरुणों के मन को हरण करने वाला और काम के उत्पत्ति स्थान को निश्चित रूप से प्रदर्शन करने की इच्छा से नाभि के नीचे धीरे-धीरे गिरने का इच्छुक रेशमी वस्त्र करधनी के द्वारा किसी प्रकार धारण किया हुआ दिखाई देता है । यस्यां कार्माद्वपमुखपटच्छायमास्त्रस्तनीवि, श्रीमच्छ्रोणीपुलिनवरणं वारि काञ्चीविभङ्गम् । पूर्व लज्जा बिगलति ततो धर्मतोयं वधूनां क्षौमं रागादनिभूतकरेष्वाक्षिपत्सु प्रियेषु ॥ ११४ ॥ यस्यामिति । यस्यां राजराजपुर्याम् । वधूनां सोमन्तिनीनाम् । कामद्विपमुखपटच्छायं कामगजमुखवस्त्रसदृशम् । 'छाया प्रतिबिम्बमनाकान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः । इत्यमरः । शास्त्रस्तनीवि ईपछिपलिता नीवी यस्य तत् । 'नोवो परिपणे ग्रन्थो स्त्रीणा जघनवाससि' इति विश्वः । श्रीमणिपुलिनकरणं शोभावन्नितम्बमेव पुलिनं तस्याऽवरणम् । काशीविभङ्गं काञ्ची रशनैव विभङ्गस्तरो यस्य तत् । 'भङ्ग खङ्गे पराजये । तरगे रोगभेदे च' इति भास्करः । वारि वारीव वारि जलोपमम् । सोमं दुकूलम् । अनिभृतकरेषु भवनपारवश्येन चपलहस्तेषु
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पाश्र्वाभ्युदय प्रियेषु प्राणकान्तेषु । रागात् मोहात् । पाक्षिपत्सु माहरत्सु सस्सु । पूर्व प्राक । लज्जा श्रीडा । विगलति । तसः पश्चात् । षर्मतीय स्वेदाम्बु । विगलति निपतति ॥ ११४ ।।
अन्वय- यस्यां कामद्विपमुखपट छाय, आलस्तनीवि श्रीमत् श्रोणीपुलिनवरणं काञ्चीविभङ्गं बारि, भौम अनिभुतकरेषु प्रियेषु रागात् आक्षिपत्सु वधूनां लज्जापूर्व विगलति, ततः धर्मतोयम् ।।
अर्थ-जिस अलकानगरी में कामरूपी हाथी के मुख के ( अलंकार स्वरूप ) वस्त्र के समान कान्ति युक्त, खुली हुई गाँठ वाला, शोभायुक्त, (ऊँचा होने के कारण) जघन के समान तट का आवरक ( ढकने वाला) करधनी के आकार के समान व लाकार अनेक प्रकार की तरंगों से युक्त ( अथवा जहाँ पर करधनी की विशेष रचना है) जल के समान रेशमी वस्त्र चंचल हाथों वाले प्रियतमों के द्वारा अनुरागपूर्वक खींचे जाने पर स्त्रियों की लज्जा के पहले ही विलय को प्राप्त हो जाता है, अनन्तर पसीने का जल विलय को प्राप्त होता है।
आक्षिप्तेषु प्रियतमकरैरंशुकेषु प्रमोदादन्तीलातरलितवृशो यत्र नालं नवोढाः । शय्योत्थायं बदनमस्ताऽपासितुं धावमाना, अधिस्तुङ्गानभिमुखमपि प्राप्य रलप्रदीपान् ॥ ११५ ॥
आक्षिप्लेष्यिति । यत्र ऐलविल धामनि। प्रमोरात् प्रकृष्टो मोदः प्रमोबस्तस्मात् । प्रियतमकरैः प्राणेशपाणिभिः । अमुकेषु वस्त्रेषु । 'चैलं वसनमंशुकम्' इत्यमरः । आक्षिप्तेषु अवहृतेषु सस्सु । नबोताः नवपरिणीताः स्त्रियः । मन्तलीलातरलितशः अन्तक्लिासेन पञ्चला दशो यासा ताः । अधिस्तुमान अधिभिमंमूखस्तुङ गान् । 'अधिर्मयुतशिखयोः' इप्ति विश्वः । रलवीपान् रत्नान्येव प्रदीपान् । बायोस्थाय शव्याया। उत्थाय शय्योत्यायम् । यत्तूपावानेमेतिणमन्तस्वादव्ययम् । अभिमुखं सम्मुखम् यथा तथा । षाक्मानाः पलायमानाः । प्राध्यापि लध्यापि । वचनमस्ता मुखवायुना । अपासि' नाशयितुम् । नालं समर्या न भवन्ति । अत्राइ गानानां रत्नप्रदीप निर्यापणप्रवृत्या मोग्य व्यज्यते ।।११५॥ ___ अन्वय-यत्र प्रियतमकर: प्रमोहात् अंशुकेषु आक्षिप्तेषु अन्तलीलातरलितदृशः नबोला: शय्योत्यायं धावमाना: अचिस्तुङ गान् रत्नप्रवीपान अभिमुखं प्राप्य अपि ( तान् ) बदनमस्ता अपासितुन अलम् । १. प्रमोहात् ।
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द्वितीय सर्ग
२३७ अर्थ-जिस अलकानगरी में प्रियतमों के हाथों द्वारा मोह के कारण महीन रेशमी वस्त्र हटाए जाने पर लीला के कारण अन्दर जिनकी आँखें चंचल हो गई हैं ऐसी नववधुएं शय्या से उठकर दौड़ती हुई ऊँची लौ वाले रत्नदीजों को सामने कर भी (उन्हें । मुश को वायुसे बुझाने में समर्थ नहीं हैं।
वस्त्रापाये जघनमभितो दृष्टिपातं निरोद्ध, यूनां क्लुप्ता सुरभिरचिता यत्र मुग्धाङ्गनानाम् । कम्पायत्तात्करकिसलयावन्तराले निपत्य,
ह्रीमूढानां भवति विफलप्रेरणा चूर्णमुष्टिः ॥ ११६ ॥ वस्त्रापाय इति । मत्र घनश्नगर्याम् । वस्त्रापाये वसनापगमे सति । लोमूदाना लज्जया मूडानाम् । मुग्धाङ्गमानां मुम्चस्त्रीणाम् । जघनमभितः जघनस्य सर्वतः ! यूनां तरुणानाम् । दृष्टिपातं दूर व्यापुतिम् । मिरोखुम् आदरणाय । श्लूप्ता कस्पिता। सुरभिचरिता सुरभिनिर्मिता । चूर्णमुष्टिः चूर्णस्य कुकुमादेमुष्टिः । कम्पायत्तात्। 'अधीनो निम्न आयत्तः' इत्यमरः । ग्रीडावशादित्यर्थः । करकिसलयात् हस्तपल्लवात् । 'पल्लवोस्त्री किसलयम्' इत्यमरः । अन्सराले मध्ये । निपत्य पतित्वा । विफल प्रेरणा व्यर्थव्यापारा भवति ।। ११६ ।।
अन्यय-यत्र वस्त्रापार्य हीमूढानां मुग्घाङ्गनानां जघनं अभितः यूनां दृष्टिपातं निरोद्ध वलुप्ता सुरभिरचिता पूर्णमुष्टिः कम्पायत्तात् करकिसलयात् अन्तराले निपत्य विफलप्रेरणा भवति ।
अर्थ-जहाँ पर कटि वस्त्र के हटाए जाने पर लज्जा से किंकर्तव्यविमूढ़ भोली भाली स्त्रियों के कटि प्रदेश के चारों ओर युवकों का दृष्टिपात रोकने के लिए फेंके गये सुगन्धित द्रव्यों से निर्मित मुट्ठी भर चूर्ण कम्पनयुक्त किसलय के समान कोमल हाथ से बीच में ही पड़कर दृष्टिपात रोकने रूप काम में विफल हो जाता है।
प्रत्यासन्नैः शिखरखचितैरुन्मयूखैविचित्रश्चित्रा रत्नैर्नभसि वितताः शक्रचापानकारैः । विभ्रत्युच्चैः सजलजलवा सद्वितानस्य लीला,
नेत्रा नीता सततगतिना यद्विमानानभूमीः ।।११७।। प्रत्यासन्तरिति । प्रत्यासम्नः समीपस्थः । विक्षरचितः शृङ्गेषु सवितैः । उन्ममूझेः उद्गता मयूखा येषां तैः । उद्गतकिरणैः । विचित्रः बहुविधः । रत्नैः
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पावाभ्युदय मणिभिः । चित्राः आश्वयंभूताः । नभसि सुखयम नि । शापामृकारैः इन्द्रायधानुकरणैः । वितताः विस्तृताः । यद्विमानाप्रभूमिः यस्या अलकाया विमानानाम् अप्रभूमिः अरिभूतलानि । नेत्रा नपतोति नेता तेन प्रेरकेण । सततगतिमा सतत गतिर्यस्य तेन वायुना । 'मातरिश्वा सदागतिः' इत्यमरः । मेस्ता प्रापिताः । सजलजला: जलसाहितमेधाः । सबितानस्य समीचीनस्य उल्लोषस्य । 'अस्त्री वितानमुल्लोचः' इत्यमरः । लीला विलासम् । उच्चैः परम् । विमति घरन्ति ॥११७॥
अग्वय-नेत्रा सततगतिना यदिमानाप्रभूमीः नीताः, शिखरखचितः प्रत्या• सन्नः शक्रवापानकारः रत्नैः विचित्रः उन्मयो : बितताः पित्रा: सजलजलदाः नभसि सहितानस्य लीला विभ्रति ।
अर्थ-प्रेरक वायु के द्वारा जिस अलका नगरी के सात खण्डों वाले भवनों के अग्रभागों में पहुँचाए गए मेघ भवनों के अग्रभाग में निबद्ध, अग्रभाग में वर्तमान मेघ के समीप में स्थित इन्द्रधनुष का अनुकरण करने वाले, नाना रंग वाले और ऊपर की ओर जाने वाली किरणों से युक्त रत्नों द्वारा व्याप्त और विविध रंग वाले जल युक्त बादल आकाश में समीचीन वितान को शोभा को धारण करते हैं।
अध्यासोना भवनवलभि शारदी मेघमाला, यत्रामुक्तप्रतनुविसरच्छोकरासारधारा । भीत्वेवालं जति विलयं पश्यतामेव साक्षा
वालेख्यानां सजलकणिकाओषमुत्पाल सद्यः ॥११८|| इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरुत्रीजिमसेनाचार्यविरचितमेघदुतवेष्टितवेष्टिते पावाभ्युदये भगवत्कैवल्यवर्णननाम द्वितीय सर्गः ॥२॥ ___ अध्यासीना इति । यत्र अलकानगर्याम् । भगवान गहोपरिष्ठ बक्र दाणि । अध्यासोना अधिष्ठिता । 'शीस्थासोऽधेराधारः" इति आधारे द्वितीया । आमुक्तप्रतनुविसरलीकरासारवास विसरंलश्च से शीकरारच तेषामासारो वेमवर्ष तस्य धारा तथोक्ता आमुक्ता प्रतन्धी विसरच्छी करासारधारा यस्याः सा तथोक्ता । 'आसारः स्यात्प्रसरणे वेगवृष्टी सुहवले' इलि वैजयन्ती । शारवी सरवि भवा शरत्काल सम्बन्धिनो । मेघमाला जोमूतपद्धतिः । मालेपाना सचित्राणाम् । 'चित्रे लिखितरूपाद्यं स्यादालेख्यं प्रयत्नतः । निर्मितास्तस्य' इति शब्दार्णवे। सजलकणिकाबोषम् सजलजल कणिकाभिः। दोषं वर्णमिश्रवादिदोषम् । उत्पाप जन
१. अमावरणे पश्य॑स बनावटमेव इत्यर्थः ।
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द्वितीय सर्ग यित्वा । अलं परम् । भोत्येव भयमानित्येव । पश्यतामिव प्रेक्षतां जनानामिव । साक्षात् प्रत्यक्षतः 1 विलयं नाशम् । सधः तत्क्षण एव । अति गच्छति ।।११८॥
इस्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरुथोजिनसेनाचार्यविरचितमेघदुतवेष्टित वेष्टिते पाम्पुिदये तव्याख्यायां प मुबोधिम्याख्यायां द्वितीयः सर्गः ॥२॥
अन्वय-पत्र भवनवलभि अध्यासीना आमुक्त प्रतनुविसरसठीकरासारधारा शारदी मेघमाला साक्षात् पश्यतां एव आलेल्यानां स्वजलकणिका दोष उत्पाद्य अलं भीरवा इव सद्यः विलयं व्रजति । ___ अर्थ--जहाँ पर भवन की छत पर स्थित छोड़ने पर स्वल्पप्रमाण में फैलते हुए जल कणों को निरन्तर गिरती हुई धारा वाली शरत्कालीन मेघों की पंक्ति लोगों के द्वारा प्राय पसे रखे जाने की जनों की भित्तियों पर बने हुए चित्रों को अपने जल के बिन्दुओं से दूषित कर मानों अत्यधिक रकर शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होती है।
इति द्वितीय सर्ग:
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अथ तृतीयः सर्गः
इतोऽर्धवेष्टितानिवेगादन्तर्भवन वलभः सम्प्रविष्टाः कथञ्चित्, सूक्ष्मीभूताः सुरतरसिकौ दम्पती तत्र दृष्ट्वा ।
शङ्कास्पृष्टा इव जलमुचस्त्वादृशा यत्र जालधू मोद्गारानुकृतिनिपुणा जर्जरा निष्पतन्ति ॥ १ ॥ वेगादिति । यत्र राजपुर्याम् त्वादृशाः भवादृशाः । त्वमिव दृष्यन्ते ते त्वादृशाः । त्वत्सदृशा इत्यर्थः । जलमुखः मेघाः । भवमवलभे गृहवक्रदारुणः सकाशात् । अन्तः गृहान्तरम् । वेगात् क्षेत्र येण सूक्ष्मीभूताः स्तोकीभूताः । कथचित् केनापि प्रकारेण । संप्रविष्टः कृत प्रवेशास्सन्तः । तत्र गृहान्तरे । सुरतरसिक निधुवन्नप्रियो धम्पती स्त्रीपुरुषौ । वृष्ट्वा विलोक्य । शङ्कास्पृष्टा इत् भार्यावसयी इति शब्दार्णवे । भूमगारानुकृतिनिपुणाः धूमोद्गारस्य धूपधूमनिर्गतस्यानुकृतावनुकरणे निपुणाः कुशलाः । जर्जरा विशीर्णाः सन्तः । जालैः गवाक्षः । " जालं समूह आनायौ गवाक्षक्षारकावपि' इत्यमर: : निष्पतन्ति निष्क्रामन्ति ॥ १ ॥
अन्षय – वत्र वेगात् भवन वलभेः अन्तः सम्प्रविष्टाः कथञ्चित् सूक्ष्मीभूताः धूमोद्गारानुकृति निपुणाः तत्र ( भवनवलभौ ) सुरतरसिको दम्पती दृष्ट्वा शङ्कास्पृष्टाः इव त्यावृशः जलमुचः जालैः जर्जराः ( सन्तः ) निष्पतन्ति ।
अर्थ - जिस अलका नगरी में शीघ्रता से भवन की अटारी के अन्दर प्रविष्ट होकर जिस किसी प्रकार सूक्ष्म आकार धारण किए हुए जालमार्ग ( झरोखों) से निकलते हुए घुयें का अनुकरण करने में कुशल तुम्हारे समान मेघ वहाँ पर ( भवन की अटारी पर ) रति कीड़ा में मग्न दम्पति को देखकर मानों शङ्कित से होते हुए गवाक्षों से टुकड़े-टुकड़े होकर बाहर निकल जाते हैं।
स्त्रीभिः सार्धं कनकवलोष ण्डभाजामुपान्ते, क्रीडाद्रीणां निधिभुगधिया यत्र दोष्यन्त्यभीक्ष्णम् । मन्दाकिन्याः सलिलशिशिरैः सेव्यमाना मर्याৱिमन्दाराणां तटबनरां छायया वारितोष्णाः ॥ २ ॥
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तृतीय सर्ग
२४१ स्त्रीभिरिति । यत्र अलकायाम् । मन्दाकिन्याः गङ्गायाः । सलिलशिशिरैः उदकेन पीतः। मायः मारुतः । सेग्यमानाः सेव्यन्त इति सेव्यमानाः । तटवनकहाँ तटयनेषु रोहन्तीनि तटवन रूहास्तेषाम् । क्थिम् । मम्बाराणां सुरद्रुमाणां । छायया अनातपेन । दारितोष्णाः शमिततापाः । निषिभुगधिराः यक्षेन्द्राः । कनकदलोषण्डभाजो सुवर्णकदलीषण्ड मुतानाम् । क्रोडाद्रीणां कृतकाचलानाम् । उपान्ते समीपे । स्त्रीभिः स्वर्वनिताभिः । साधं साकम् । अभीक्ष शश्वत् । दीव्यन्ति क्रीडन्ति ।। २ ।।।
अन्यय-यत्र मन्दाकिन्याः सलिलशिशिरः मरुद्भिः सेव्यमानाः तटवनरुहां मन्दराणां छायया चारितोष्णाः निधिभुगधिपाः स्त्रीभिः सा कनककदलीषण्डभाजा क्रोडाद्रीणां उपान्ते अभीक्ष्णं दीव्यन्ति ।
अर्थ-जिस अलका नगरी में गंगा के जल से शीतल वायुओं द्वारा सेवित और तटवर्ती बन के मन्दार वृक्षों की छाया के द्वारा जिनका आतप दूर किया गया है ऐसी यक्ष स्त्रियों के साथ स्वर्ण के समान रंग वाली कदलियों के समूह से युक्त क्रीडापर्वतों के समीपवर्ती प्रदेश में निरन्तर कीड़ा करते हैं।
सौन्दर्यस्य प्रथमकलिका स्त्रीमयों सृष्टिमन्यां, व्यातन्वाना जयकदलिका मीनकेतोजिगीषोः । अन्वेष्टध्यैः कनकसिकतामुष्टिनिक्षेपगढ़ः, सङक्रीडन्ते मणिभिरमरप्राणिसा यन्त्र कन्याः ॥३॥ सौन्दर्यस्येति । पत्र अलकापूर्याम् । जिगोषोः जेतुमिच्छजिगीषुः तस्य जयशीलस्य । भीमफेती मकरध्वजस्य जयकलिका जयपताकिकाः । अमर प्रार्थिता अमरदिविजः प्रार्थिताः काङ्क्षिताः सुन्दर्य इत्यर्थ: । फम्या यशकुमार्यः । "कन्या कुमारिका नार्यः" इति विश्वः । सौन्वर्यस्य सुभगत्वस्य । प्रयभकलिका प्रथमकोरकभूसाम् । “कलिका कोरकः गुमान्" इत्यमरः । स्त्रीमपी रमणीरूपाम् । अन्याम् अपूर्वाम् । सष्टि सर्जनम् । ब्यातन्वानाः प्रकटीकुर्वन्त्यस्मत्यः । कनकसिकतामुष्टिनिक्षेप: कनकस्य मिकतासु मुष्टीनां विक्षेपणेन संवृतः । अथवा कनकसिकताना मुष्टिषु विक्षपेण गूढः । अतएव अन्वेष्टव्यः मुग्यैः ।। मणिभिः रस्नः। सड़कीडन्ते रमन्ते । 'क्रीङ्क्तोकूद्" इति तङ् । गूहमणिसञ्जया देशिकक्रीडया मम्यक् क्रीडन्त इत्पर्थः । "रत्नादिभिर्वालुकादी गुप्तिदृष्टव्यकर्मभिः । बालिकाभिः कृता क्रीडा नाके गुटमणिः स्मृता' कामक्रीडा गूठमणिगुप्तिकेलिस्तुलायनम् । पिण्ड कञ्चुक दण्डार्थः स्मृतादितिककेल्यः" इति शब्दार्णवे ॥३॥
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२४२
पार्श्वभ्युदय अन्यय-यत्र सौन्दर्यस्य प्रथमकलिका स्त्रीमयों अन्यां सृष्टि व्यातन्वानाः जिगीषोः मीनकेतोः जयकदलिकाः अमरप्रार्थिताः कन्याः कनकमिकतामुष्टिनिक्षेपगूढ़ः अन्वेष्टपः मणिभिः सङ्कीर्णन्ते । __ अर्म-जिस अलकापुरी में सौन्दर्य की अद्वितीयकली स्त्री रूप अपूर्व सृष्टि को प्रकट करते हुए, जीतने के इच्छुक कामदेव की जयपताकार्ने, देवताओं से प्रार्थित यक्ष कन्यायें स्वर्णमय बालुकाओं की मुट्टियों के निक्षेप ( फेंकने ) से गढ़ ( ढंके या छिपे ) होने के कारण दंढ़ने योग्य मणियों से शोझ करती हैं।
भावार्थ-पहले मणियों पर कई मुद्री भर बालू फेंक दी जाती थी, जिससे वे बैंक जाती थीं। तब उनको खोजा जाता था। इस प्रकार वे गुप्तमणि नामक कोड़ा किया करती थीं।
इष्टान्कामानुपनयति यः प्राक्तनं पुण्यपाकं, तं शंसन्ति स्फुटमनुचरा राजराजस्य तुप्ताः । अक्षय्यान्तर्भवननिषयः प्रत्यहं रक्तकण्ठैरुगायर्यावर्धनपतियशः किन्नरैर्यत्र सार्धम् ॥४॥
इष्टानिति । मत्र अलकायाम् । अक्षय्यातर्भवननिषयः भवनस्यान्तरन्तभवन अक्षम्याः क्षयरहिता. अन्तर्भवननिधयो येषां ते तथोक्ताः । यथेष्टभोग सम्भावनार्थमिदं विशेषणम् । प्रत्यहं प्रतिदिनम् । सप्ताः सर्वविषय सन्तप्ताः। राजराजस्य ऐलविलस्य । अनुचराः भृत्याः । "भृत्योनुजीव्यनुचरः" इति धनञ्जयः । धनपतियवाः एकपिङ्गस्य कीर्तिम् । जदगार्यान्द्रः उच्चैर्गामतिः । देवगानस्य गान्धारग्रामस्वात्तारतरं गायद्भिरित्यर्थः । रक्तकण्ठे रक्तो मधुरः कण्ठधनिर्येषां तैः । किन्नरैः देवविशेषैः । साधं सत्रा । "सायं तु साकं सत्रा सम सह' इत्यमरः । यः पुण्यपाक.। इष्टान् अभीष्टान् । कामान् कामभोगान् । जपनपत्ति प्रापमति । प्राक्तन प्रारभवम् । पुण्यपाकं सुकृतपरिपाकम् । स्मुद प्रस्फुटम् । शंसन्ति स्तुवन्ति ।। ४॥ ___अन्वय-यत्र' अक्षय्यान्तर्भवनिधयः तृप्ताः राबराजस्प अनुचरा: रक्तकण्ठ: धनपतियशः उद्गाद्भिः किन्नरैः नार्धं यः इष्टान् कामान् उपनपति तं प्राक्तनं पुण्यारा स्फुट शंसन्ति ।
अर्थ--जिस अलका नगरी में भवन के भीतर अक्षयनिधियों से सम्पन्न, सन्तोषयुक्त कुबेर के सेवक मधुर स्वर से कुबेर के यश को ऊँचे स्वर से गाते हुए किन्नरों के साथ जो इष्ट कामयोग प्राप्त कराता है उस पूर्व जन्म में उत्पन्न पुण्य के फल की स्पष्ट रूप से प्रशंसा करते हैं।
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तृतीय सर्ग
२४३ यस्यां मन्त्रानकपटुरवैर्बोधिता वित्तभर्तुमुंत्या भूल सममुपहितप्रोतयः कामदायि । वैधाजाख्यं विबुधवनिताबारमुख्यासहायाः, बद्धालापा बहित्पवनं कामिनो निर्विशन्ति ॥५॥ यस्यामिति । यस्याम् शरणम । मलानमः आरनानां परमाः सथोक्ता मन्द्रः गम्भीरैः आनकपदुरवैः बोषिता: ज्ञापिताः । उपहितप्रोतयः विधुत सन्तोषाः । विषुभवनिताधारमुख्या सहायाः विबुधवनिताः अप्सरमः ता एवं वारमुख्याः वेश्याविशेषाः महायाः येषां ते यथोक्ताः । "वारस्थी गणिका वेश्या रूपागोवाऽथ मा जनः । सत्कृता वारमुल्या स्यात्" इत्यमरः । अशासापाः सम्भावित संल्लापाः । ''बद्धापाङ्गाः" इति वा पाठः । कामिनः कामुकाः । वित्तभर्तुः धनपतेः । भृत्याः अनुचराः । कामवायि मनोरथप्रदम् । वाणास्पं चैवरथस्य नामान्तरम् । महिमवानं बाझोपबनम् । भुजः भ्रमरैः । समं मह । निविशन्ति प्रविशन्ति । सुगन्धदेहस्य भ्रमर मुहान्तीति भावः ।
__ अन्वय-यस्यां मन्दानकपटुरवः बोधिसाः, भृङ्गः समं अहित प्रीतयः विबुधवनितावारमख्यामहायाः, बद्धालापाः, कामिनः वित्तभर्तुः मृत्याः कामदापि बिनाजाख्यं बहिरुपवनं निर्विशन्ति ।।
अर्थ-जिस अलका नगरी में मृदङ्गों को गम्भीर और तीक्ष्ण ध्वनियों से जगाए गए, भौरों के साथ मित्रता को प्राप्त हए देवस्त्रियों रूप गणिकाओं को साथ लिए हुए और बातचीत करते हुए कामुक कुबेर के सेवक कामवासना को प्रकट करने बाले अथवा अभीष्ट वस्तु को प्रदान करने वाले वैभ्राज नामक बाह्य उद्यान का अनुभव करते हैं।
अन्वय-यस्याम् मन्द्रानकपटुरवः बोषिताः उपहितप्रीतयः विबुधवनितावारमख्यासहायाः वद्धालापाः कामिनः वित्तभर्तुः मृत्याः कामदीयि वैभ्राजाख्यं बहिरुपयनं भृङ्गः समम् निर्विशन्ति ।
अर्थ-जिस अलका नगरी में गम्भीर मृदङ्गों की समर्थ ध्वनियों से ज्ञापित सन्तोष को धारण किये हुए अप्सरा रूप वेश्यायें जिनकी सहायक हैं ऐसे बातचीत करते हुए कामी कुबेर के अनुचर चैत्ररथ नाम वाले बाहरी उद्यान में भौरों के साथ. प्रवेश करते हैं।
यस्मिन्कल्पद्रुमपरिकरः सर्वकालोपभोग्या
निष्टान्भोगान्सुकृतिनि जने शंफलान्पम्फुलोति । १. पम्फुलीति ।
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पार्वाभ्युदय वासश्चित्रं मधु नयनयोविभ्रमावेशवक्ष, पुष्पोद्भव सह किसलये भूषणानो विकल्पम् ॥ ६॥ यस्मिन्निति । यस्मिन् वित्ररधवनोद शे । कल्पा मारकरः मुरदुमनिनमः । "बन्द प्रामनग्रोवत्र पर्वपरिवारयोः। आगम्भे च परिस्तार भवे परिकरस्तथा" इत्यभिजाना । चित्रं नानावर्णम् । क्षौममिति वा पाठः । वासो वरानम् । नयमयोः अगोः । विभ्रमादेशरक्ष विभ्रमाणामादेो दक्ष ममर्थम् । विभ्रमदायकमित्यर्थः । पुष्पोद्भवं पुष्पोदभवम् । मधुवृष्यरसम्' । विभ्रमादान द्वारा मधुनो मण्डनत्वं किसलयः परुलचस्सह अमा भूपणानां विकल्प विशेषे इष्टान् एवं रूपानभिलषितान् । सर्वकालोपभोग्यान् सर्वकालेषूपभोक्तुं योग्यान् । शंफलान् शंसुखमेव फले येषां तान् । भोग्यान् इन्द्रियविषयान् । सुकृतिनि सुकृतमस्यास्तीति सुकृती तस्मिन् पुण्यवति । भने लोके । पम्फलीति भृशं फलनि "चला'' इति मम् ।।
अन्वय-यस्मिन् कल्पद्मारिकरः चित्रं बामः, नयनयोः विभ्रमादशदक्षं मधु, किमलयैः मह पुष्पोद्धद, भपणानां विकल्प, इष्टान् सर्व कालोपभोग्यान् सम्फलान् भोगान् सुकृतिनि जने पम्फुलोति ।
अर्थ--जिरा वैभ्राज नाम वाले वन प्रदेवा में कल्पवृक्षों का समूह मनोहर वस्त्र को, दोनों नेत्रों को विलास का उपदेश देने में चतुर मदिरा को, किसलयों के साथ पुष्पों के आविर्भाव को, अनेक अलङ्कारों को, अभिलषित, सब समयों में उपभोग के योग्य और सुखजनक भोगों को पुण्यवान् व्यक्ति के लिए अत्यधिक रूप से निष्पन्न करता है।
भावार्थ-जहाँ कल्पवृक्षों के द्वारा वस्त्र, अलंकार आदि समस्त वस्तुयें प्राप्त होती हैं।
रुच्याहारं रसमभिमतं स्त्रग्विकल्पं विपञ्चामाहायोणि स्वरूचिरचितान्यंशुकान्या रागम् । लाक्षारार्ग चरणकमलन्यासयोग्यं च यस्मिन्, एकः सूते सकलमबलामण्डन कल्पवृक्षः ॥७॥
रुच्याहारमिति । यस्मिन् वभ्राजबने । एक: कल्पवृक्षः एकः सुरद्रुमः । रुण्याहार स्वादमाहारम् । अभिमतं सम्मतम् । रसं रराविशेषम् । प्राणधार्यमेतत् । सम्विकल्प मालाप्रभेदम् । कण्ठ्यार्थमेतत् । विपन्नी वीणाम् । कर्ण श्राव्यमेतत् । स्वरुविरचितानि स्वेच्छाकानिपतानि । आहार्याणि मनोहराणि । अंशकामि वस्त्राणि कटिधार्य मेनत् । अङ्गराग लेपनम् अवधार्यमेनत् । चरणकमलन्यास योग्यं चरण१. वृष्यग्म इत्युक्ते मदजनकपानमित्यर्थः ।
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तृतीय सर्ग
२४५ कमलयोासस्य समर्पणस्य योग्यम् । लाक्षागं रज्यतेऽनेनेति रागो रञ्जनद्रव्य लाजैव रागस्तम् । इदं च पादानुलेपनमण्डनोपलक्षणमिति । सकल समस्तमपि । अबलामण्डनम् वनिताप्रसादनम् । सूते जनयति ॥७॥
अन्धय-यस्मिन् एकः कल्पवृक्षः रुज्याहारं, अभिमत रसं, सग्निकल्प, विपच्चीं स्वरुचिरचिनानि माहार्याणि अंशुकानि, अंगराग, चरणकमलन्यासयोग्य लाक्षारागं मकलं च अबलामण्डनं सूते ।
अर्थ-जिस वैभ्राज वन में एक कल्पवृक्ष स्वाद के योग्य आहार को, इष्ट रस को, अनेक प्रकार की मालाओं को, वीणा को, स्वेच्छा से निर्मित मनोहर वस्त्रों को, सुगन्धित विलेपन को, चरण कमलों में समर्पण करने के योग्य महावर को तथा स्त्रियों के समस्त अल कारों को उत्पन्न करता है।
भूमि स्प्रष्टुं ब्रुतमुखखुरा गल्लमाना इवामी, पत्रस्यामा बिनकरहयल्पधिनो यत्र बाहाः । मन्दाक्रान्तादिगिभविभुभिः स्पर्धमान होगा। शैलोवग्रास्त्वमिव करिणो वृष्टिमन्तः प्रभवात् ॥ ८॥ भूमिमिति । यत्र राजधान्याम् । पत्रयामाः पत्रमिव श्यामला हरिद्वर्णा इत्यर्थः । दिनकरहयस्पषिनः सूर्यस्य यरवः स्पधिनः सूर्यस्य हुपैरएवैः स्वर्षिनः स्पर्घाशीलाः । अमी बाहा अश्वाः । 'वाहोश्यस्तुरगो बाजी" इति धनजयः । भूमि भुवम् । स्पष्टू स्पर्शनाय । गहलमामा इव गलन्ते इति गलमामाः जुगुप्सावन्त इच । द्रुतमुखखुराः मुखं व खुराश्च मुखखुराः त्रुताः तस्य परस्य वेगिनो मुखखुरा मेषां ते तथोक्ताः । शीघ्रगामिनः भवन्तीति शेषः । त्वमिव भवामिव । पृष्टिमन्तः वर्षन्तः । शैलोवप्राः पर्वत इवोन्नताः । करिणः गणाः । प्रभेवात् प्रकृष्टोभेदः प्रभेदस्तस्मात् । महत्तोन्तरात् तेभ्योप्यसि शयात् इत्यर्थः । विगिभषिमुभिः दिग्गजेन्द्रः । उम्रषिकम् । स्पर्षमाना इस स्पर्धन्ते व समानाः स्पर्धा कुर्वन्त इव । मन्दाक्रान्ताः मन्दमाक्रमन्ति स्म तथोक्ताः मन्वगामिनः । भवन्तीति शेषः । 'वृत्तनामापि ध्वन्यते ।
अम्बय—यत्र द्रुतमुखखुराः भूमि स्पष्टु गलमानाः इव पत्रश्यामाः अमी वाहाः दिनकरयस्पधिनः, प्रभेदात् त्वं इव वृष्टिमन्तः शैलोदनाः मन्दाक्रान्ताः करिणः दिगिभविभुभिः उच्चः स्पर्धमानाः इव ।
अर्थ-जिस अलकानगरी में चंचल शारीर और वेगवान खुरों से युक्त, मानों भूमि को छूने की निन्दा करते हुए पत्तों के समान ध्यामवणं वाले ये सूर्य के घोड़ों के साथ स्पर्धा करने वाले घोड़े हैं। मद के उद्रेक के १. मुष्ट्रालंकारः ।
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पाश्र्वाभ्युदय कारण तुम्हारे समान वर्षा करने वाले ( परस्पर में एक दूसरे के प्रतिपात से मेघ वर्षा करते हैं ), पर्वत के समाग ऊँचे और मन्द गति वाले हाथी. दिग्गज या से स्पधा करते हुए विधमान है।
मन्ये तेपि स्मरपरवशाः कामिनोदृष्टिबाण
यिरन्ये त्वमिव मुनयो थोपना यत्र केऽमी । योधाग्नण्यः प्रतिदशमुखं संयुगे तस्थिवांसः, प्रत्याविष्टाभरणश्चयश्चन्द्रहासघणाङ कैः ॥९॥ मन्य इति । यत्र अलकायाम् । स्वमिव भवानिय । ये केचित् । धीपना. धीरेव धनं येषां ते तथोक्ताः । मनमः यत्यः । तेऽपि तादृशा अपि । कामिनीष्टिवाणः । कान्ताजननयतशरैः । स्मरपरवशाः मन्मधयमागताः । जायेम भनुः । मन्ये पति बुथ्ये । संयुगे राङ्नामे । प्रतिवशमुखं प्रतिदशग्रीवम् । तस्थिवांसः तस्थुरिति तस्थिवांसः । रावणस्य पुरस्तात स्थितवन्त इत्यर्थः । पहासवणाः चन्द्रायुधवणचिह्नः। "चन्द्रहासामिरिष्टयः' इत्पभरः । प्रत्यारिष्टाभरणरुचयः प्रत्याहतभूपणकान्तवः । अमी घोषानण्य: एते भटासरा । किं कियन्तः । इति कुत्सोक्तेः । स्मरपरवशाः कथं न भवेदुरित्यर्थः ।। ५॥
आवय-पत्र अन्ये मुनयः ये त्वं इच घीघनाः ते अमी कामिनीष्टिबाम: स्मरपरवशाः जायरन् (तंत्र ) चन्द्रहासनणारे प्रत्यादिष्टाभरणरुचयः संयुगे प्रसिदशमुख' तस्थिवांसः अमी योधागण्यः के ? ___ अर्थ-जिस अलकापुरी में दुसरे मुनि जो तुम्हारे समान ज्ञान सम्पत्ति से युक्त हैं, वे कामिनी स्त्रियों के दृष्टिबाणों से कामदेव के वशीभूत हो. जाते हैं। [वहाँ ] चन्द्रहास नामक ( रावण की ) तलवार के घावों के चिह्नों के कारण आभूषणों की इच्छा का स्थाग करने वाले तथा युद्ध में राषण के सम्मुख ठहरने वाले इन श्रोष्ठ योद्धाओं की तो बात ही क्या करना है?
भावार्थ--जब ज्ञानधन सम्पन्न मुनि भी कामवासना से ब्याकुल हो जाते हैं तब कषाययुक्त योद्धाओं की तो बात हो क्या है ?
कामस्येवं प्रजननभुवं तां पुरों पश्य गत्वा, मिथ्यालोको वदति जडधोनन्विदं लोकमूढम् । मत्वा घेवं धनपलिसखं यत्र साक्षावसन्तं, प्रायश्चापं न बहति भयान्मन्मथः षट्पदज्यम् ॥१०॥
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तृतीय सर्ग
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कामस्येति । यत्र राजधान्याम् । साक्षात्प्रत्यक्षेण । वसन्तं विद्यमानम् । पतिमुखं डुबेरस हा "राजन्सखेः" इत्यट् । वेषम् ईश्वरम् । मत्था अवबुध्य । मन्मथः कामः । भयात् भयोत्पातक्षणभीतेः । षट्पदज्यं षट्पदा एव ज्या मौर्यो यस्य लम्" । षट्पदभ्रमरालयः । "मौर्वोज्या सिख़िमी गुणः f" इत्युभयत्राप्यमरः । चाधनुर्दण्डम् | प्राय: बाहुल्येन । मवति न धरति । इति जी मन्दबुद्धिः । मिध्यालोक: मिथ्यादृष्टिजन: । मत तूने । इदं मिथ्या श्र्ग्वचः । लोकमूढं ननु लोकमूक एव हि । एवम् इति । कामस्य मन्मथस्य । प्रजननभुवं जन्मभूमिम् । "जनुर्जन नजन्मानि " इत्यमरः । स पुरीम् | अलकापुरीम् । गत्वा । पश्य प्रेक्षस्व ॥ ४० ॥
अन्वय-यत्र धनपतिसख' देवं साक्षात् वसन्तं मन्वा भयात् मन्मथः षट्पदज्यं चापं प्रायः न वहति ( इति ) जडघी: मिथ्यालोकः वदति । नमु इ लोकमूढम् । एवं कामस्य प्रजजनभुवं तां पुरीं गत्वा पश्य ।
अर्थ - जिस अलकापुरी में कुबेर के मित्र रुद्र को साक्षात् रह्ता हुआ जानकर कामदेव भय से भौरों की प्रत्यञ्चावाले अपने धनुष को प्रायः धारण नहीं करता है, ऐसा जड़बुद्धि मिथ्यादृष्टि व्यक्ति कहता है (अथवा लोक: मिथ्या वदति - लोग असत्य कहते हैं । निश्चित रूप से यह लोगों की मूढ़ता है। इस प्रकार काम की उत्पत्ति स्थळी उस अलकानगरी को प्राप्त कर ( जाकर ) प्रत्यक्ष देखो।
स्याद्वाऽसत्यं कुकविरचितं काव्यधर्मानुरोधात्,
सत्यप्येवं सकलमबितं जाघटी:येव यस्मात् । भहितनयनः कामिलक्ष्येष्व मोघे -
स्तस्यारम्भश्चतुरवनिताविभ्रमेरेव सिद्धः ॥११॥
स्यादिति । फुकविरचितं कुत्सितकविकल्पितम् । असत्यं वा भिष्या या स्याद्भवेत् । एवं सत्यपि तथा चेदपि । काव्यधर्मानुरोधात् काव्यधर्मस्य कवितासमयस्य अमृरोधानुकूल्यात् । सकलं सर्वम् । उतिम् उदयितम् वर्णनात्रिक मित्यर्थः । यस्मात् कारणात् । अयटीत्येच भृशं घटत एव । तस्मात् कारणात् । तस्य मन्मथस्य बारम्भः कामिजन विजय प्रारम्भः । सभ्रूभङ्ग प्रतिनमनैः सभ भ्रूभङ्गेण सहितं यथा तथा । प्रहितनयनः प्रहितानि प्रयुक्तानि नयनानि येषु तैः । कामिलक्येषु कामिन एव लक्ष्याणि तेषु । अभोषैः सफलः सार्थक प्रयोगेरित्यर्थः । चापं कदाचिन्मोधमपि स्यादिति भावः । चक्षुरवनिताविभ्रमेरिव चतुराच वनिता तास्नं त्रिभ्रमेरिकामैरेव । सिद्ध: निष्पन्नः । यदनर्थकरं चैहिकफल
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पाश्र्वाभ्युदय तदप्रयोगो वरम् निश्चित साधनप्रयोगः परं निश्चितसाधन प्रयोगः कर्तव्य इस्पर्थः ॥११॥
अन्वय-या सभङ्ग प्रहितनयनः कामिलक्ष्येषु अमोघः चतुरवनिताविभ्रमः एव तस्य आरम्भः सिद्धः इति एवं अपि यस्मान' कुकविरचितं सकलं उदितं काव्यधर्मानुरोधात् जावटीति एवं ( तस्मात् तत् ) मत्य स्पात् ।
अर्थ-अथवा भ्रूभङ्गों के साथ दृष्टिपातों से युक्त, और कामुक रूपी लक्ष्यों की प्राप्ति में सफल ऐसे विदग्ध सुन्दरियों के विलासों से ही उस काम का व्यापार सिद्ध है। ऐसा होने पर भी चकि कुकवि ( अल्पज्ञ कवि) के द्वारा रचित समस्त वर्णन काव्यशास्त्र के नियमों की अनुकूलता से अत्यधिक रूप से घटता ही है अतः काम के अभाव का प्रतिपादन कञ्चित् सत्य हो है ( सर्वथा सस्प नहीं है ।
भावार्थ- अलका में जो कामदेव का अभाव बतलाया है, वह काव्य. शास्त्र के सिद्धान्तों की अपेक्षा से ही है, परमार्थ से नहीं ।। काव्यशास्त्र में काम की सत्ता को सिद्ध करने वालो बातें अलका में नहीं हैं । जिन कवियों ने अलका में मदन का अभाव बतलाया है उनको इस बात का ज्ञान नहीं है कि काम के अभाव में पुरुषों में कामित्व केसे सम्भव है । अतः वहाँ वास्तव में मदन ही है।
स्थावारेका बहुनिगवितं कस्तवेवं प्रसीयात्, सद्वाऽसवा तदिति ननु भोः प्रत्ययं ते करोमि । तत्रागारं पनपतिगृहादुत्तरेणास्मदीयं, तूराल्लक्ष्यं सुरपतिषमुश्चारुमा तोरन ॥१२॥ स्याविति । तव भवतः । तवेदं पुरवर्णनमित्यर्थः । बहुनिमिर्त बहुना भाषितम् । सहाऽसदा सत्यं वा असत्यं वा । क: प्रतीयाविति । आरेका आशङ्का । स्या भवेत् । ननु भोः ननु भवन् | "वो शनोशन" इत्यादिना मवच्छन्दस्य भोरादेशः । से भवतः । प्रत्ययं विश्वासम् । प्रत्ययोऽधोन दापथनानविश्वासहेतेषु' इत्यमरः । करोमि विदधामि । तत्र अलकायाम् । धनपतिगृहात राजराजानिलमात् । उत्तरेण उत्तरस्मिन्नदूरप्रदेशे । “एनोऽदूरे" इति एनत्यः । अव्ययमिदम् । अस्मदोयम् अस्माकमिदम् अस्मदीमम् । "दोश्छः' इति छः । अगारं गृह्म । सुरपतिधनुश्वारुणा मणिमयत्वादभ्रंकषत्वाञ्चेन्द्र चापसुन्दरण त्वदमरस्वनिरिसि वा पाठः । तबेन्द्रधनुरिव सुन्दरेण । तौरगेन लम्बमानतोरणेन । रात् अतिदुरात् । लक्ष्यं प्रेक्ष्यम् । अनेनाभिज्ञानेन दूरत एव ज्ञात, शक्यमित्यर्थः ॥१२॥
अन्वय-'इदं तव बहुनिगदितं कः प्रतीयात् ? तत् सत् वा असत् वा ?
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तृतीय सर्ग
इति अरिका स्यात् । ननु भो ते प्रत्ययं करोमि । तत्र सुरपतिधनुष्चारुणा उत्तरेण तोरणेन धनपतिगृहात् दूरात् लक्ष्यं अस्मदीयं अगार ( वर्तते ) |
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अर्थ -- इस तुम्हारे बहुत कहे हुए पर कौन विश्वास करेगा ? वह सच है अथवा झूठ इस प्रकार का सन्देह आपके मन में उत्पन्न हो सकता है । निश्चय से हे मुनि ! तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ। उस अलकापुरी में इन्द्रधनुष के समान सुन्दर एवं अत्यधिक ऊँचे बाहरी द्वार के कारण कुबेर के घर से दूर से देखने योग्य हमारा घर है ।
पुष्पोद्नन्ध किसलयो भूतसङ्गीतहारी,
सान्खच्छायः सलिलधरणोपान्त पुस्तैणशावः । यस्योद्याने कृतकतमयो वद्धितः कान्तया मे, हस्तप्राप्यस्तवकनमितो बालमन्दार वृक्षः ॥१३॥ पुष्पोद्गन्धिरिति । यस्य अस्मदीयगृहस्य । उद्याने उपवने । पुष्योगन्धिः “पुष्पाणामुद्गतो गन्धो यस्य सः । भङ्ग सङ्गीतहारी । सान्द्रच्छायः । मृतुकिसलयः मृदूनि कोमलानि किसलयानि पल्लवानि यस्य सः । "धनं निरन्तरं सान्द्रम् " : इत्यमरः । सलिलधरणोपान्तपुस्सैन शावः सलिल धरणस्य जलाधारस्य उपान्ते स्थितः पुस्तैणशावः प्रतिमारूपो मृगशिशुर्यस्य सः । "पृस्सं लेप्यादिकर्मणि" इति । "पृथुकः शावकः शिशुः " इति चामरः । हस्तप्राप्यस्तवकशमितः हस्ते प्राप्यः हस्नापचेयः स्तबकैः गुरुः म्रितः नम्रीकृतः । " स्याद्गुच्छ्कस्तु स्तबकः" इत्यमरः । मे मम । कान्या कामिन्या । वधिसः पोषितः । कृतकतनयः कृत्रिमपुत्रः पुत्रत्वेनाभिमन्यमान इत्यर्थः । बालमन्दारवृक्षः बालकल्पवृक्षः । अस्तीति शेषः ।
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अन्वय-यस्य उद्याने पुष्पोद्गन्धिः, मृदुकिसलयः भृङ्गसङ्गतहारी सान्द्र च्छ्रायः सलिलधरणोपान्तपुस्तैणशावः मे कान्तया वद्धितः कृतकतनयः हस्तप्राप्यस्तबक नमितः बालमन्दारवृक्षः ( अस्ति ) ।
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अर्थ - जिस हमारे घर के उद्यान में फूलों की गन्ध से युक्त, कोमल किसलय वाला, भौरों के सङ्गीत से मनोहर, घनी छाया बाला क्यारी के समीपवर्ती प्रदेश में लेप्य कर्म से निर्मित (प्रतिभारूप ) मृग के शिशु से - युक्त मेरी प्रिया से पुत्र के समान बढ़ाया गया और हाथों से तोड़े जाने -वाले गुच्छों से झुका हुआ छोटा सा मन्दार का वृक्ष ( कल्पवृक्ष ) है । नाहं त्यो न खलु दिविजः किन्नरः पन्नगो या, वास्तव्योऽहं धनवनगरे गुह्यकोऽयं मदीया । बापो वास्मिन्मरकतशिलाबद्ध सोपानमार्गा, हैमैः स्फीता विकचकमलैर्धवैदूर्यनालेः ॥ १४॥
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पाश्र्वाभ्युदय नाहमिति । अहम वैत्यः राक्षराः । न न भवामि । विविक्षः स्वर्गजः । किलर: किन्नरदेवः । पनन्गो वा नागदेवो प्रा । न खलु न भवामि । बनगमगरे अलकापुरि । पास्तव्यः वस्तं योग्यो वास्तव्यः स्थातव्यः । अयमहम् एषोऽहम् । "स्वस्मिन्परोक्षनिर्देशोगमको मदर्दन्ययोः" इति वचनात् । यस्मिन्मदेनायमिति प्रयोगः । गुह्यकः यक्षदेवः । अस्मिन् गृहोपयने । मरकतशिलाबद्धसोपानमार्गा मरकतमणिभिः आबद्ध पानभागी यस्ताः सा थाना । वोपच ड्रयनाल: बिछरे भवो बंडूर्वइति साधुः । वडूयणा विकाराणि वैडूर्याणि । 'विकारे'' इत्यम् । दीर्घाणि स्निग्धानि वैडूर्याणि नालानि येषां तैः । हेम्नः हेम्नो विकाराणि हमानि तः कनकमयरित्यर्थः। विकवकमले: विकसितसरमिजः । स्फीता छन्ना वा । मबीया ममेदं मदीया । "दोश्छः' वापी च दीधिकापि । "वापी तु दीपिका" इत्यमरः ।। अस्तीति शेषः ॥१४॥
सवय--अहं न दत्सः, न खलु दिविजः, किन्नरः पन्नगः वा, अचं अह घनदनगरं वास्तव्यः गुह्यकः अस्मिन च मरकतशिलाबद्धसोपानमार्गा, दीर्घबड्यनाल: हमः विकचकमल: स्फीता मदीया वापी (अस्ति) । __अर्थ-मैं देत्य नहीं हूँ, न देव, किन्नर अथवा नागदेव । यह मैं कुबेर की राजधानी का निवासी यक्ष हूँ। हमारे घर के उद्यान में मरकतमणि के पत्थरों से बनाए गए सोपान वाली, दीर्घ वैदूर्यमणि (बिल्लौर) के नालों वाले विकसित स्वर्ण कमलों से व्याप्त मेरी वावड़ी है।
तां जानीयाः कमलरजसा ध्वस्ततापां ततापां, मत्पुण्यानां सृतिमिव सती वापिका विस्तृतोमिम् । यस्यास्तोंये कृतवसतयो मानसं सनिकृष्ट, न ध्यास्यन्ति ध्यपगतशुधस्त्वामपि प्रेक्षय हंसाः ॥१५॥
तामिति । अस्थाः बाप्याः । तोये सलिले । “अम्भोर्णस्तोयपानीयम्" इत्यमरः । कृसवसतयः कृतनिवासाः । त्वामपि मेघमपि । प्रेक्ष्य दृष्ट्वा । ध्यपगत शुकः न्यपगताः शुचः शोकाः येपा ते । “मन्युदोको तु शक् स्त्रियाम्" इत्यमरः । वर्षाकालेऽपि अकलपजलत्वादि राहायाद्विगतदुःखाः मन्तः । हंसाः मरालाः । सघिकृष्ट मन्निहित सुगममित्यर्थः । मानसं मानसरोवरम् । न ध्यास्यन्ति न स्मरिष्यन्ति । कमलरजसा पयरेणुना । व्यस्ततापाम्ततापा ध्वस्तो नष्टः तापान्तस्य ग्रीष्मस्य तापस्तपनं यस्यास्ताम् । विस्तृतमि विस्तृता ऊर्मयो यस्यास्नाम् । 'भालस्नर ऊमिर्छ'' इत्यमरः । सती समीचीनाम् । तां वापिको १. नाम्याश्यन्ति।
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ततीय सर्ग दीपिकाम् । मत्पुण्याना मम सुनानाम् । सुतिमिव मरणमिव ''सृतिस्तु गतिमार्गयोः" इति भास्करः । जानीयाः जानीहि ।।१५।।
अन्वर-पस्याः तोये कृतवसतयः व्यपगत शुचः हंगाः त्वां प्रेक्ष्य अपि सन्निकृष्टं मानसं न अध्यास्यन्ति ता कमलरममा ध्यस्ततापां विस्तृतोमि नतों धापिका मत्पुण्यानां सृति इव जानीयाः ।
अर्थ-जिस बावड़ी के जल में निवास करने वाले तथा शोक रहित हंस तुम्हें देखकर भी निकट स्थित मानसरोवर को याद नहीं करेंगे । कमल के पराग से ग्रीमातप को नष्ट करने वाली विस्तृत जल से युक्त, विशाल तरंगों के समूह से व्याप्त और शोभित उस वापिका को मेरे पुष्पों की परम्परा के समान जानो।
अन्यच्चास्मिन्नुपवनधने मद्गृहोपान्तदेशे, स्थावाख्येयं मय कि सुतरां प्रत्ययो थेन ते स्यात् । तस्यास्तीरे विहितांशखर: पेशलरधनीलः, क्रीडाशैलः कानक्रकवलीवेष्टनप्रेक्षणीयः ॥१६॥
अन्यच्चेति । अस्मिल्नेतस्मिन् । उपनपने उपवन निरन्तर मद्गृहोपान्तदेशे मम गृहपार्थप्रदेशे । येन केनचित् । मकि मय्येव मक्कि कुलिने मयि भयकि 1 तव । सुतराम् अत्यर्थम् । प्रत्ययः विश्वमः । स्याद्भवेत् । तत् अन्यच्च अपरमगि चिलम् । आस्येयं भाषणीयम् । स्याद्भवेत् । तस्याः वापिकायाः । तीरे तटे । पेशल: चारुभिः । मोल: रत्नः। विहितशिक्षरः कृतशृङ्गः। इन्द्रनीलमणि मय इत्यर्थः। कारककवलोवेष्टन प्रेक्षणीयः कनककदलीनांवेष्टनेन आवरणेन प्रेक्षणीयः दर्शनीयः मनोहर इत्यर्थः । क्रीडाशलः कृतकगिरिः । अस्तीति शेषः ॥१६॥
अन्धय-अस्मिन् उपक्मघने मद्गृहीपान्तदेशे अन्यत्' च प्राख्येयं स्यात् येन मर्याक ते सुतरां प्रत्ययः स्यात् । तस्याः तीरे पेशल: इन्द्रनीलः विहितशिखरः कनककदलीवेष्टनप्रेक्षणीयः क्रीडार्शलः (अस्ति)।
अर्थ-इस कृत्रिम वृक्ष समूहों से बने मेरे घर के समोप के प्रदेश के विषय में एक दूसरी बात भी कहने योग्य है जिससे अज्ञात मेरे विषय में तुम्हारा अत्यधिक विश्वास होगा। उस बावड़ी के किनारे सुन्दर इन्द्रनील मणियों से बनी हुई चोटियों से सम्पन्न और सुनहलो कदलियों के आवरण से दर्शनीय एक कोड़ा पर्वत है।
रत्याधारो रतिकर इबोत्तुङ्गमूतिविनोलः, शैलो मूले कनकपरिधि मनोऽधानुशासत् ।
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२५२
पाश्र्वाभ्युदय
महिन्या प्रिय इति सखे खेतसा कातरेण, प्रेक्ष्योपान्तस्फुटितर्ताडनं त्यां तमेव स्मरामि ॥१७॥
रत्माधार इति । सखे भो मित्र । रत्याधारः क्रीडाधारः । रतिकर व रतिकरपत एवं उत्तमूर्तिः उन्नतमूत्तिः । विनील: नीलवर्णः । मूले तले । कनकपरिधिः सुवर्णप्राकारः "परिधिर्यशियकाष्ठे स्यात्प्राकारपरिवेषणे" इति वैजयंती | शैलः क्रीडाद्रि । अथ इशनीम् । मे मम मनः चिसम् | अनुशासत् बोि तिल दृष्टः । इति हेतोः । कातरेण भ्रान्तेन । ससा मनमा । उपान्तस्फुटितततिम् उपान्तेषु स्फुटिता उज्ज्वलितास्तो यस्य तम् । त्वां मेघम् । प्रेश्य दृष्ट्वा । तमेव क्रीडाशैलमेव । स्मरामि चिन्तयामि । एवकाराद्विषयान्तरव्यवच्छेदः । सदृशस्त्वनुभवादिष्टार्थस्मृतिर्जायत इत्यर्थः । अत्र गिरेः कनकपरिधित्व विनीलमूत्तित्वाभ्यां स्फुटिततडितो मेघस्य साम्यमुत्प्रेक्षते ||१७||
अन्वय-- सखे ! उपान्तस्फुरितडितं खां प्रेक्ष्य (य) रत्याधारः रतिकरः इव उत्तुङ्गमूर्तिः, विनील: मूले कनक परिधिः मे मनः अद्य अनुशास्तु तं एव भ महिन्यः प्रियः इति कालरेण चेतसा स्मरामि |
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अर्थ - हे मित्र ! प्रान्त प्रदेश में चमकने वाली बिजली से युक्त तुम्हें देखकर (जो) रतिक्रीड़ा के स्थान रतिकर नामक पर्वत के समान अत्यन्त ऊँचा है, जिसके मूल में सोने को परिधि है, जो विशेष नीला है तथा मेरे मन को आज खींच रहा है वह क्रीड़ा पर्वत मेरी गृहिणी का प्रिय हैं इस कारण मैं कातरचित्त से उसी का स्मरण करता रहता हूँ । -अथ तस्याः साभिनं वक्तुमुपक्रमते-
तन्मे वाक्यादपगतभयस्त्वं व्यवस्यात्मनीनं,
तीर्थे ध्वाङ्क्षं स्थितमपनुदत्स्याः स्थिरात्मा मदुक्से । तत्रैवास्ते तव च वयिता लप्स्यते लब्धजन्मा, तन्वी श्वशमा शिलरिक्षशना पक्यबिम्बाधरोष्ठी ॥ १८॥
तदिति । सत् तस्मात् कारणात् । मे मम । वाक्यात् । त्वं भवान् । अवगतभयः रहितभीतिः सन् । आत्मनीनम् आत्माने हितमात्मनीनम् । "भोगोत्तरपदाभ्यां
IP
स्व:" । व्यवस्य निश्चित्य । मदुक्ते भयोवले मया प्रणीते । तीर्थे तीर्थस्थाने । "तोर्थ प्रवचने पात्रे स्नाये विदांवरे । पुण्यारण्ये जलोत्तारे महासत्यां महामुनी" इति धनञ्जयः । स्थितं तिष्ठति स्मस्थितस्तम् । ध्वाङ्क्षं वायसं बकं या । --" स्वाद क्षः काकबेको” इति नानार्थरत्नमालायाम् । अपनुक्न् तिरस्कुर्वन् ।
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तृतीय सर्ग
२५३ स्थिरास्मा निश्चलात्मा । स्थाः भवेः । सब ते । दयिता - वसुन्धरा नाम पूर्वभनकान्ताऽपि । तव अलकायामेव । सवजन्मा प्राप्तजनना । तन्वीकृशाङ्गी । "श्लक्ष्णं दभ्रं कृशं तनु" इत्यमरः । "अमन विद्यमानान्" इत्यादिना की । इयामा युवतिः । "श्यामा यौवनमध्यस्था" इल्युपालमालायाम् | शिखरिवाना शिखराण्येषां सन्तीति शिखरिणः कोटिमन्तः । "शिखर शैल वृक्षारकक्षापलिन कोरिषु' इत्यमरः । शिखरिणो दशना यस्याः सा शिखरिदशना । एतेनास्मा भाग्यवत्वं पत्त्युरायुष्मत्वं च सुच्यते । तदुक्तं सामुद्रिके "स्निग्धाः गमानरूपाः स्युः पहफायः शिखरिणः शिलाष्टाः । दन्ता भवन्ति यासा तासां पादे जगत्सर्वम् । ताम्बूलरसरक्तेणि स्फुटभासः समोदयाः । यस्माः शिखरिणो दन्ता दीर्घ जीवति तत्पतिः' इति । परमपिम्बाधरोष्ठो पक्वं परिणने बिम्बं बिम्बफलमिवा धरोष्टी अधस्तनोपरितनदाच्छदौ यस्याः सा तथोक्ता सती । "अमहनम्" इत्यादिना की। आस्ते विद्यते । लप्स्यते त्वया प्राप्स्यने । "डुलभष-प्राप्तौ” कर्मणि लुट् ।।१८।।
अन्यय-तत् मे वाक्यात अपगतभयः त्वं आस्मनीनं व्यवस्थ तीर्थे स्थित ध्यादं अपनुदन मदुक्ते स्थिरात्मा स्याः । तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिम्बाघरोष्ठी तव दयिता तत्र एव आस्ते । त्यया तत्र एवसा ) लप्स्यते च ।
अर्थ-इस कारण मेरे वाक्य से नाटभयवाले तुम अपना हित निश्चित कर तीर्थ रूपो मन में स्थित कौए के समान मंशय का निराकरण करते हुए मेरे वचनों में स्थिर मन वाले होओ। कृश शरीर वाली, युवती, पके हुए दाडिम के बीजों की आभा वाले माणिक्य के टुकड़ों जैसे अथवा नुकोले दाँत वाली, पके विम्बफल ( कुंदरू ) के समान लाल अधरोष्ठ से शोभित तुम्हारी प्रिया वहीं { अलकापुरी में ) तुम्हें प्राप्त होगी।
यस्या हेतोस्तव च मम ब प्राग्भवेऽभूविरोधस्तत्रोत्पन्ना निवसति सती साधुना किन्नराणाम् । दृष्टा सौम्यं सजलनयना स्वां स्मरन्तो स्मराता, मध्ये क्षामा चकितहरिणीप्रेक्षणा निम्ननाभिः ॥१९॥ यस्या इति । यस्याः वसुन्धराना मकान्तायाः । हेतोः कारणात् । प्रारभके कमठमरुभूति भवे । तव च भवतोऽपि । मम च ममापि । विरोष: विद्वेषः । अभूत अभवत् । सा वसुन्धरा । अषुमा इदानीम् । किन्नराणां यक्षाणाम् । तत्र निवासे अलकापुरि । उत्पाना सती जाता सती । निषति वर्तते । स्वां भवन्तम् । स्मरन्सी चिन्तयन्ती प्राप्तभव स्मरणेत्यर्थः । स्मरात कामात । मध्येशामा मध्ये कटयां क्षामा कृशीभूता तथोक्का । अलक्ममास: । कितहरिणीप्रेक्षणा भमकम्पितायाः हरियाः प्रेक्षणे इष प्रेक्षणे दृष्टी यस्याः सा तथोक्ता । एतेनास्याः
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पाश्र्वाभ्युदय पद्मिनीत्वं सृच्यते । तदुक्तं पद्मिनीलक्षण प्रस्तावे...'चकितमृगदृशामे प्रान्तरिक्ते च नेत्रे" इति । निम्नाभिः गम्भीरनाभिः अनेन नारीणां-'नामिर्गम्भीरः कामरगातिरेकः' इति कामसूत्रार्थः सूच्यते । सजलनयना साश्रुनेत्रा । सौम्य शान्तं यथा तथा । वृष्टा दृशेलट् (प्रेक्षिता ) भविष्यति ।।१९।।
अन्धय-प्राग्भवे यस्याः हेतोः तव च मम च विरोधः अभूत् । सा अधुना किन्नराणां सती उत्पन्ना तत्र निवसति । मध्ये शामा, चकितहरिणी प्रेक्षणा, निम्ननाभिः, स्मराता सौम्यं त्वां स्मरन्ती सा मजलनयना डाटा । ___ अर्थ-पूर्व जन्म में जिस ( वसुन्धरा ) के लिए तुम्हारा और मेरा विरोध हुआ था वह अब किन्नर देवों की जाति में उत्पन्न होकर अलकानगरी में निवास कर रही है। पतली कमरवाली, डरी हुई मगी के समान चंनल नेत्रों से शोपित मानि काजी, का से हित, तुम्हें स्मरण करती हुई वह सजल नयनों वाली मेरे द्वारा देखी गई है।
दृष्टा भूयः स्मरपरवशा चन्द्रकान्तोपलान्ते, ध्यायन्ती त्या सहसहचरं संदिदृक्षुलिखित्वा । यान्ती तस्मान्नयनसलिलैदृष्टिमार्गे निरुद्ध
च्छोणीभारावलसगमना स्ताकनम्रा सनाभ्याम् ॥२०॥ दृष्टेति । भूयः पुनः । स्मरपरवशा मन्मथपीडिता । र भवन्तम् । सहलाहचरं सहचरेण सहवर्तते इति सहसहचरस्तम् । 'वान्यासः" इति विकल्पितः सकारादेशः । संदिवृक्षः सम्यक् दृष्टिमिच्छुः । पत्रकारतोपलाते चन्द्रकान्तशिलातले । "अन्तोऽस्त्री निश्चये नाशे स्वरूपेगेन्तरेन्तकः" इति भास्करः । लिखित्या विलिरूप । ध्यायन्ती पश्यन्ती । नएनसलियोः नेत्राश्रुभिः । वृष्टिमार्ग दर्शनमार्गे । निच आवते सति । श्रोणीभारात नितम्बभारात् । अलसपममान सु जवादोषात् । स्तनाभ्यां पीनोत्तुङ्ग पयोधराभ्याम् । स्तोकनमा ईपदवनता । न तु अबलग्नदोपात् । तस्मात् चन्द्रशिलातलात् । यान्ती गच्छन्तो । वृष्टा दृशेलृट् । प्रेक्षिता भविष्यति ।।२०।। . __ अन्वय-श्रोणीभारात् अलसगमना, स्तनाभ्यां स्तोकनम्रा, स्मरपरक्शा सहसहलर खां सन्धिसः चन्द्रकान्तोपलान्ते लिखित्वा व्यावन्नो नयनसलिल: घृष्टि मार्ग निरुद्ध तस्मात यान्ती ( सा ) भूयः दृष्टा । ___ अर्थ-नितम्ब के भार से धीरे-धीरे चलने वाली, ( उन्नत ) स्तनों से कुछ झुकी हुई, कामसेवन के अधीन, सहचर ( मित्र ) के साथ तुम्हें देखने की इच्छुक और चन्द्रकान्त मणि के पृष्ठभाग पर तुम्हारे आकार को रचना कर ध्यान करती हई, नेत्रों के जल से नेत्रों का मार्ग एक आने
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तृतीय सर्ग पर वहाँ से ( चन्द्रकान्त पाषाण से ) निकलती हुई वह पुनः पुनः "देखी गई।
कामावस्थामिति बहुतिथीं धारयन्तो स्वयासौ, ज्ञेया साक्षादतिरिच मनोहारिणी तत्र गत्वा । नानावषे बहावलसित किन्नरस्त्रीसमाज, या तत्र स्थान वतिविषया सृष्टिराधेष धातुः ॥२१॥ कामावस्थामिति । तत्र निवासे । नानावेष नाना विविधाषा असतारा यस्य तस्मिन् । बहुविलसिसे बहुविलासे । किन्नरस्वोसमाजे किन्नरस्त्रीणां समूळे । या कामिनी । धातुः ब्रह्मणः । युवतिविषया युवत्य एव विषयो यस्या- सा। आधा आदौ भबा आधा प्रथमभूता । सृष्टिरिव. सर्जनमिय। स्वाभवेत् । प्रति उत्त वक्ष्यमाण प्रकारेण । बहुतियों बहुप्रकाराम् । "बहुगणपू: सङ्घात् प्तिर्थट्" . "टिटुल्ने" इति की । कामावस्था मन्मधादस्थाम् । शरयन्ती विभ्रती । साक्षात् • रतिरिव प्रत्यक्षता रतिदेवीय | मनोहारिणी मनोहरा । असौ एपा कन्या । वषा भवता । तत्र तत्पुरम् | गत्वा प्राप्य । सेया ज्ञातव्या ॥२१॥
अन्धय-तत्र नानावेघे बहुविलसिते किन्नरस्त्रीममाजे या धातुः युवक्ति विषया आया सृष्टिः इव स्यात् सा असौ इति बहुतिथी कामावस्थां धारयन्ती साक्षात् रतिः इव मनोहारिणी तब गत्वा त्वया ज्ञेया।
अर्थ-अलका नगरी में अनेक प्रकार की वेशभूषा से भूषित अनेक प्रकार के हावभावों से युक्त किन्नर स्त्रियों के समाज में जो (बसुन्धराचरी) ब्रह्मा की तरुणी सम्बन्धी प्रथम रचना के समान है, वह यह इस कारण अत्यधिक रूप से काम की अवस्था को धारण किए हुए साक्षात् रति के समान मनोहारिणी है, अलका नगरी में जाकर तुम्हें ( यह ) जानना चाहिए।
साध्वी चित्ते विधिनियमितामन्यपोस्ने निराशां, कन्यावस्था स्वचुपगमने बद्धकामां सखोनाम् । भ्रातुर्वाक्यात्प्रणयविवशां त्वं वितान्यथालं, ताजानीयाः परिमितको जोषितं मे द्वितीयम् ॥२२॥ सख्यानीतः सरसकदलीगर्भपत्रोपवीज्य -
लब्धापयासां किमपि किमपि शिलष्टेवणं लपन्तीम् । -१. म्लिष्टवर्ण ।
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ર૫
पार्वाभ्युदय शीर्णप्रायां विरहविषुरामाययोर्बद्धसाम्याइरीभूते मयि सहवरे चक्रवाकोमिवैकाम् ॥२३॥ युग्मम्।।
साध्वीमिति । साध्वी पतिव्रताम् । ''सती माध्वी पतिव्रता'' इत्यमरः । अन्यपोस्ने अन्यपुरुषममूहे । अन्य च ते पुमांसश्च अन्यपुमांसः तेषां समूहः अन्यपोस्न तस्मिन् । "स्त्रीपु सात् न स्नवतः” इति तद् व्यः । निराशाम आशारहिसाम् । कम्यावस्था कुमार्यवस्थाम् । सलोनां वयस्यानां मध्य इति शेषः । "आलिस्सस्त्री अयस्या च" इत्यमरः । त्वयुपगममे तवागमनं । मडकामा रचिताभिलाषाम् । प्रणयविवश प्रीत्यघीनां । चित्त अन्तरङ्ग । विधिमिमितां व्रतरूपविधाननिर्मिताम् । परिमितकयां स्तोकवामित्यर्थः । तो वसुन्धराम् । सलोना क्यस्यानाम् । बास्यथा अन्येन प्रकारेगा। विसाय विचार्य । यहां पर्याप्तम् । भ्रातुः सहोदरस्य कमठचरस्य । वाण्यात चन्चनप्रामाण्यात् । मे मम द्वितीयं विपूरणम् । जीवित प्रागान् । त्वं भवान् । जानीयाः जानीहि ॥२२॥ मख्यानीतरिति । आवयोः तत्र ममापि । पयसाम्यात विहितसमानत्वात् । सहचरे सहाये । मयि पक्षे । दूरीभूते दूरदेशस्थिते सति । विरहविधुरां विरहपीडिसाम् । शीर्णप्राय जर्जराङ्गयष्टिम् । संस्थानोतैः सखीभिर्वयस्याभिरानीतैः । सरसकवलीगर्भपत्रोपवौज्य: सरसरम्भान्तर्गत पत्ररचितव्यजनः । लावाय मासजीवितम् । किरा किया कि । शिलष्ट वर्ण स्लिष्टाक्षरं यथा तथा । लपन्ती युवतीम् । पक्रयाकोमिष सहबरचक्रवाके दुरीभूते चक्रयाकान्तामिव | "जातरस्त्रियशूद्रात्" इति डी । एकाम् एकाकिनीम् । ता त्वं जानीया इति कर्तृकर्मक्रियाणामत्राप्यन्वयः । युग्मम् ।।२३।। __ अन्वय-साध्वी चित्तें विधिनियमिता, अन्यपोस्ने निराशा सखीनां कन्यावस्थां, मदुपगमने बद्धकामी, प्रणयविवशा, परिमितकथा, सख्यानीतः सरसकदलीगर्भपत्रोपत्रीज्वः लब्धाश्वासा, किमपि किमपि म्लिष्ट वर्ण लपन्ती, शीर्णप्रायां, बावयोः श्वद्धसाम्यात्' सहवर दूरीभते एका चक्रवाकी इव मयि दूरीभूते विरहायधुरां एका तां त्वं जानीयाः । 'जीवितं मे द्वितीयं' इति भातुः वाक्यात अन्यथा वितयं अलम् !
अर्थ-साध्वी, मन में शास्त्रोक्त विधि से विकारों पर नियन्त्रण करने वाली, अपने पति से भिन्न पुरुष के प्रति निराश, सखियों में कुमारी अवस्था से युक्त, तुम्हारे आगमन पर अभिलाषा युक्त, प्रणय से विवश ( प्रीति के अधीन ) अल्पभाषिणी, सखियों के द्वारा लाए हुए नूतन कदली के गर्भ (भोत्तरी भाग) के पत्तों से हवा करने पर प्राप्त चैतन्य वाली, कुछ कुछ अव्यक्त वर्ण बोलती हुई, दुर्बलशरीर को धारण की हुई, तुम्हारे और मेरे आकार में सादृश्य होने से सहबर के दूरवर्ती होने पर अकेली चकवी
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तृतीय सर्ग
को तरह मुक्ष शम्बरासुर के दूर होने पर विरह से दुःखी अकेली तुम उसे जानो । ( वह ) मेरा दूसरा जीवन है । इस प्रकार के भाई के वाक्य से भिन्न प्रकार मत सोचो । अर्थात् उमे व्यभिचारिणी स्त्री मत मानो ।
मय्यायाते करकिसलयत्यस्तवक्रेन्युमुग्धा, स्वामेवाहनिशमभिमनाविचन्तयन्ती वियोगात् । याता नूनं बात तब माल हात पोषां, गाढोस्कण्ठा गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बाला ||२४||
मपीति । मयि यक्षे । आपाते आगते सति । तव भवतः । बियोगात् विरहात् । एषु विरहगुरुषु विरह्महस्सु । विवसेषु दिनेषु । गच्छत्सु अतीतेषु । गाला सा कामिनी । कर किसलपन्यस्तवानुमुग्धा पाणिपल्लवो परिन्यस्त मुस्वेन्दुः सा चासो मुग्धा च तथोक्ता । महानिशम् अहोराथम् । अभिमना: उन्मनाः। स्वामेव भवन्तमेय । चिन्तयन्तो ध्यायन्ती। गावोत्कण्ठा प्रबलबिरहवंदना। मतष्यशेषां मरणावशिष्टाम् । पशाम् अवस्थाम् । अनु शीघ्रण । नून निश्चयेन । यात गता। बत हन्स | "खेदानुकम्पामन्तोषविस्मयामन्त्रणे बत इत्यमरः ॥२४॥
अन्वर--ममि आयाते एषु गाढ़ोत्कण्ठागरुषु दिवसेषु गच्छत्सु करकिसलयन्यस्तवक्वेन्दुमुघा, अभिमनाः त्वां एव अनिशं चिन्तयन्ती बाला तव वियोगात् बत मर्तब्यशेषां दशां नूनं याता ( भवेत् )।
अर्थ-मेरे अलका को छोड़कर यहाँ आने पर गाढ़ उत्कण्ठा के कारण भारी ये दिन बीत जाने पर किसलय के समान कोमल हाथों में रखे हुए मुखरूपी चन्द्र के कारण मनोहर, उस्लाण्ठायुक्त मन वाली तुम्हारे विषय में ही सोचती हुई। वह ) युवती तुम्हारे वियोग के कारण खेद है कि जिसमें मरना ही शेष है ऐसी अवस्था को निश्चितरूप से प्राप्त हो जायमी।
लस्याः पीनस्तनतटभरास्सामिनम्राग्रभागा, निश्वासोष्णप्रदवितमुखाम्भोजकान्तिविरुक्षा । चिन्तावेशात्तनुरपचिता सालसापासवीक्षा, जाता माये शिशिरमथिला पविभनीवान्यरूपा ॥२५॥
तस्या इति । पीनस्तनटभरात् पौनयोः स्तनयोस्तटस्य भरात् भारात् । "भरोतिबाय भारयोः'' इति भास्करः । सामिननाप्रभागा मामि ईषत "सामि वर्ष जुगुप्सिते' इत्यमरः । ननः नमनशील: "नम्कम्पजस्कभ्यः' इत्यादिना रः । अग्रभागे यस्याः राा तथोक्ता । विश्वासोष्ण प्रदषितमुखाम्भोजकान्तिः निश्वास
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पार्वाभ्युदय स्योष्णेन अविना लामा मन्त्रक्रगलस्य कान्तिर्वस्याः सा तथोक्ता । विरक्षा अप्रगन्ना । "मनस्त्वम्प्यचिक्कणे" इत्यमरः । चिन्तामा चिन्ताक्रान्तेः । अपचिता विशिष्टा कशीभूतेत्यर्थः । सालसापानबीमा अलससहिता सोपेक्षा अपाङ्गस्य वीक्षा वीक्षणं यस्याः सा तथोक्ता । सस्याः यनितायाः। तनुः भूतिः । शिशिरमयिता शिशिरेग शिशिरकालेन मथिता पोडिता । पद्मिनोव नलिनीव । अन्यल्पा पूर्वाकाररहिता । जाता जायते स्म । मन्ये एनमहं बुध्ये । हिमन पद्मिनीव विरहेण सस्यास्तनिर्विलासेति तर्कयामीति भावः ॥२५॥
अन्वय-पोनस्तनतटभरात् रामिनमाग्रभागा, निश्वामोष्णप्रदवित मुखाम्भोजकान्तिः चिन्तावशात् अपचिता लालगाङ्गवीक्षा रिक्षा तस्याः तनः शिशिरमथिता पश्मिनी इव अन्यरूपा जाता ( भवेत् इति ) मन्ये ।
अर्थ-पूष्ट स्तन रूप तट के भार से कुछ झुके हुए ऊर्ध्व भाप वाला, लम्बी साँस की गर्मी से जिसके मुखकमल की शोभा दाह से युक्त है, चिन्ता में मग्न होने के कारण दुर्बल, आलस्य से युक्त कटाक्षनिक्षेप युक्त नष्ट सौन्दर्य वाला उसका शरीर वाले से पीड़ित कमलिनी के समान दुसरे ही रूप को प्राप्त हो गया होगा, ऐसा मैं तक करता हूँ।
इतोऽर्धवेष्टितानिनिद्रापायावनिषु मुहुस्तावकं सम्प्रयोग, दिध्यासोः स्याद्वदनमपरं विन्दुबिम्बानुकारि । नूनं तस्याः प्रबलरुदितोच्छूनने बहूनां, निश्वासानाशिशिरतया भिन्नवर्णाधरोष्ठम् ॥२६॥ निद्रेति । रजनिषु रात्रिषु । मित्रापापात् निद्राविरहात् । महः पुनः पुनः । सायकल वायं तावकस्तं नव भम्बन्धम् । “पुणदस्मदोऽवो वाकक स्मिस्तवकममकम्” इत्यञ् तबकादेशश्च । सम्प्रयो । सङ्गमम् । विध्यासोः श्यातुमिच्छोः । तस्याः वनितायाः । इन्दुबिम्बानकारि वन्द्रमण्डल सदृशम् । वदनं लानम् । प्रबलरुदितोच्छूननेत्रं प्रबलरुदितेन बहुसरोदनेन बन्ने स्थाष्टिते नेो यस्य तत् नयोक्तम् । लोचट्टतेनिश्वयतेः" कर्तरि कनः । 'रदाद्योः' इति तस्य नः । 'पश्यादिति' यज़ इक् | "भुवोनुनागिके चेत्या व।" बहूनांनिश्वासानाम अघिकानां अशिशिरतया अन्तस्तापोष्णत्वेन भिन्नवर्गाधरोष्ठं भिन्नवणी विच्छार्यो अघरोष्ठी ऊर्याघोदन्तवासमी यस्य तत् लथोक्तम् । नूनं निश्चयेन । अपरम् अन्यरूपम् । स्यात् ।
अन्वय-रजनिषु मुहुः ताव सम्प्रयोग दिध्यासोः निद्रापायात् इन्दुबिम्बा
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तृतीय सर्ग
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नुकारि, प्रबल रुदितोच्छूननेत्रं बहूनां निश्वासानां अशिशिरतया भिन्नवर्णा
सु तस्या'
r
मूर्त
-A
अर्थ - - रात्रियों में पुनः पुनः तुम्हारे संयोग को ध्यान करने का इच्छुक निद्रा विलीन हो जाने के कारण चन्द्रबिम्ब का अनुकरण करने वाला, अधिक रोने से सूजे हुए नेत्रों से युक्त और निःश्वासों की उष्णता से कान्तिहीन अधर और ओठ बाला अथवा भिन्न वर्ण के अधर और ओष्ठ वाला उस किन्नरी का मुख निश्चित रूप से दूसरा हो गया होगा ।
ध्यायन्त्या विरहशयनाभोगमुक्ताखिलाङ्ग्याः, शके तस्या मृवुतलमवष्टभ्य गण्डोपधानम् ।
हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लंबालकत्वादिन्बोर्वैन्यं स्वदुपसरण विलष्टकान्तेविर्भात ॥२आ
स्व
भवन्तम् । ध्यायन्त्याः
मुकुतलं कोमल्तलम् ।
स्वामिति । विरह्शयनाभोगमुक्ताखिलायाः विरह्ायनाभोगात् विरहांषित शयनस्थानात् मुक्तमखिलाङ्गं यस्यास्तस्याः । स्मरन्त्यः । तस्याः कामिन्याः । " अमहनन्" इति श्री राधा गण्डपबर्हम् । "उपघानं तुपबर्हम्" इत्यमरः । हस्तन्यस्तं हस्ते करे न्यस्यते स्म तथोक्तम् । लम्बालकत्वात् संकाराभावेन लम्ब मानकुन्तलत्वात् । असकलव्यक्ति असंपूर्णा व्यक्तिः यस्य तत् । मुखं वदनम् ।
वभ्य अबलम्ध्य |
पसरणक्लिष्टकान्ते तवानुसरणेन मेघाश्रयेण क्लिष्टाऽतीक्ष्णा कान्तिः यस्य तस्य । इन्दोः चन्द्रस्य | वैन्यं शोच्यताम् । विर्भात । शङ्क एवं शङ्कयामि ||२७|
अन्वय --- विरहणमनाभोगमुक्ताखिलाङ्ग्या मुदुतले गण्डोपधानं अवष्टभ्य त्वां ध्यायन्त्याः तस्याः लम्बालकल्यात् असकलव्यक्ति हस्तन्यस्तं मुखं रखदुपसरणक्लिष्टकान्तेः इन्दोः दैन्यं विर्भात [ इति ] श
अर्थ - बिरह ( से उत्पन्न दुःख ) के कारण शय्या पर शरीर के समस्त अंगों को रखने वालो कोमल तल वाले तकिये का गाढ़ आलिङ्गन कर तुम्हारा ध्यान करती हुई उसका लम्बे बाल होने के कारण अपूर्ण दर्शन वाला हथेली पर रखा हुआ मुख तुम्हारे आवरण से क्षोण कान्ति वाले चन्द्रमा की दीनता को धारण कर रहा होगा, ऐसी मैं सम्भावना करता हूँ ।
तस्याः पीडां रहमितुमलं तौ च मन्ये मुगाश्या, मद्गेहिन्याः सह सहचरी सेवते यो द्वितीया ।
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पाइर्वाभ्युदय रताशोकाचालकिसलयः केसरचात्र कान्तः, प्रत्यासन्नी कुरबकवृतेर्माधवीमण्डपस्य ॥२८॥ तस्या इति । अत्र गृहोपवने । सहसहचरी विकल्पितः ममात्रः । "वयस्याली महचरी" इति धनञ्जयः । द्वितीया द्वयोः पूरणा द्वितीया । यो वृक्षौ । सेवते भजते । कुरबकवृतेः कुरबक एव वृतिरावरणं यस्य तस्य । 'सरेयकस्तु शिटी स्थात्तस्मिन्कुरबकोरुणे'' इत्यमरः । माष्त्रीमण्डपस्य मधौ कमन्ते भवा माधवी नस्याः मण्डपस्तस्य अनिमुक्तलतागहस्य । "अतिमुक्तः पुण्डकः स्यादपासन्नी माधवीलता' इत्यमरः । प्रत्यासन्नी सन्निकृष्टौ । चलफिसलयः बलानि कित्तलयानि यस्य यः । अनेन वृक्षस्य पानलाइनेषु प्राञ्चलिन्वं व्यज्यते । रक्ताशोक: रफ्तारवासावशोकश्च मः। रक्तविशेषणमस्य स्मरोद्दीपकत्वात्कृतम् | "अन्यूनकरशोकस्तु वितरक्त इनि विषा । बहुमिद्धिकरः श्वतो रक्तः स्मरविवर्धनः ।' इत्यशोककल्पे दर्शनात् । कान्तः कमनीयः । "काम्सं मनोहरं रुच्यं मनोशम्" इत्यमरः । केसरम बकुलश्च । “अथ केसरे बकुलः" इत्यमरः । तो च वृक्षौ च। मगेहिम्याः । "कलत्रं गहिनी गृहम् इति धनञ्जयः । मृगाक्ष्या. मृगस्येवः अक्षिणी यस्माः सा तथोक्तायाः । तस्याः वनितायाः | पोशा दुःखम् । "पोडा बाधा व्यथा दुःखम्" इत्यमरः । रयित निवारयितुम् । "रह-त्यागे'। अल शक्ती भवत पति मन्ये जाने ।
अन्वय--अत्र चलकिसलयः रक्ताशोकः कान्तः केगरः प [इति ] यो कुरबकवृतेः माधवीमण्डपस्य प्रत्यासन्नी मगहिन्याः महधरी [ तव च ] द्वितीया. सह सेवते ती घ तस्याः मुगाक्ष्याः पीड़ा रहयितुं अल [ इमि ] मन्ये ।
अर्य-यहाँ ( घर के उद्यान में ) चञ्चल पल्लवों से युक्त लाल अशोक और सुन्दर बकुल ( मौलसिरी ) ये दो वृक्ष हैं। जिन्हें कुरबक. वृक्षों के आवरण से युक्त वासन्ती लतागृह के समीप मेरी गृहिणी की सहचरी ( सखी ) और तुम्हारे पूर्वजन्म की स्त्री वसुन्धरा ( जो कि इस समय किन्नरी रूप में है), के साथ सेवन करती है। वे दोनों अशोक. और बकुल मृगनयनी के दुःख का परिहार करने में समर्थ हैं । ऐसी मैं संभावना करता हूँ।
कामस्यैकं प्रसवभवनं विद्धि तौ मन्निवेशे, मद्ाहिन्या विरचिततलौ सेवनीयो प्रियायाः । एकः सध्यास्तव सह मया घामपावाभिलाषी, काङ्क्षस्यन्यो वयनमविरा बोहवसवमनास्याः ॥२९॥
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तृतीय सर्ग
२६१ कामस्येति । मनिवेशे मम मदने । महिन्या भदभार्यया। विरक्षिततली संस्कृताधिष्ठानौ । प्रियायाः भार्यायाः। सेवभोयौ श्रयणीयौ। तो रक्ताशोककुरबको । कामस्य मन्मथस्म । एक मुख्यम् । "एके मुख्यान्यकेवलाः" इत्यमरः। प्रसवभवनम् उत्पत्तिसदनम् । 'प्रसत्रो जननानुज्ञापुत्रेषु फनामुष्पयोः" इति वैजयन्ती । विधि जानीहि । "विद ज्ञाने" लट् । एका नयोरन्यतरः अशोकः । मया सह तब सख्याः कान्तायाः । वामपादाभिलाषी वामपादमभिलपति इत्येवशीलः तथोन्ह . महइच्छहो : प नाम तो गाभिषामित्यर्थः । अन्य केमरः । बौहबछाना दौहुई वृक्षादीनां प्रसवकारणं संस्कारद्रवयं तरुगुल्भादीनामकाले । “पुष्पायुत्पादक द्रव्यं द्रौद स्पात्तनः क्रिया' इति शब्दार्णवात् । तस्य छाना व्याजेन । “कपटोऽस्त्री ज्याजवम्भोपधयश्छपकैतवे" इत्यमरः । अस्याः सख्याः । बदनमदिरा गण्डूषवृषरसम् । कामति वाञ्छति । मया महत्यत्रापि सम्बन्धनीयम् । अशोक बकुलयोः स्त्री पादताडनगण्यमदिरे दौहद इति प्रसिद्धम् ।।२९॥ ___ अन्वय-मन्निवेशे मया मह मद्गहिन्या विरचिततलौ, तव प्रियायाः सख्या सेवनीयों तो कामस्य एकं प्रसवभवनं विद्धि । [ तयोः ] एकः दौहृदच्छष्यना अम्याः वामपादाभिलाषीः, अन्यः [ अस्याः ] बदन मदिरा कामति । ___ अर्थ मेरे घर के उपबन में मेरे साथ मेरी स्त्री के द्वारा जिनके तलभाग ( वेदिका) की रचना की गई है और जो तुम्हारी प्रिया को सखी के द्वारा सेवनीय हैं ऐसे उन अशोक और बकूल के वक्षों को काम का एकमात्र उत्पत्तिस्थल जानो। उनमें से एक ( लाल अशोक ) दोहद ( वृक्ष आदि में पुष्पों की उत्पत्ति का कारण संस्कारक द्रव्य ) के बहाने इस किन्नर कन्या के बायें पैर के ताड़न का अभिलाषी है। दूसरा बकुल का वृक्ष इसके मुख की मदिरा को चाहता है।
व्याख्या-अशोक दो प्रकार का होता है-एक सफेद फूल वाला और दूसरा लाल फूल वाला। इनमें से सफेद फूल वाला बहुत सिद्धि करने वाला और लाल फूल वाला कामवर्द्धक होता है। निम्नलिखित श्लोक से इस बात की पुष्टि होती है
प्रसुनकरशोकस्त श्वेतो रक्त इति द्विधा ।
बहुसिद्धिकरः श्वेतो रक्तोऽत्र स्मरबर्द्धनः ।। असमय में वृक्षों के पुष्प विकास के विषय में काष्य जगत् में ऐसी प्रसिद्धि है
स्त्रीणां स्पर्शास्त्रियङगुर्विकसति, बकुलः सीधुगण्डूषसेकात्, पादाचातादशोकस्सिलकपूरचक्री बीरणालिमायाम् ।।
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पार्वाभ्युदय मन्दारोनर्मवाक्यात्, पटुमृदुहसनाच्चम्पको वक्त्रवाता
च्छूतो गीतान्नमेरुविकसति च पुरो नर्तनाकगिकारः । __ अर्थात् प्रियङ्गु वृक्ष सुन्दरी स्त्रियों के स्पर्श से चकूल (भौलसिरी) सुन्दरी के मुख स्थित मद्य के सेवन से, अशोत्र वृक्ष । बायें । चरण के आघात से, तिलक सुन्दरी के देखने, कुरबा आलिङ्गन से, मन्दार हँसीमजाक के बाक्य से, चम्पक सुन्दर तथा कोमल हास्य से, आम का पेड़ मुख की हवा से, नमेरु गाना से और कणिकार वृक्ष सामने सुन्दरी स्त्री के नृत्य करने से विकसित होता है।
मूलं वोच्चैर्मनसि निहितं लक्ष्यते स्ववियोगातस्या साधाध्यसितमतेर्बहिणाधिष्ठिताना। तन्मय कलिका कामली नाराज-ले बद्धा मणिभिरनतिमौलवंशप्रकाशैः ॥३०॥ मूलमिति । किच तामध्ये तयोवृक्षयोमध्ये । बहिणा मयूरण । अपिष्टिताया अधिष्ठितमग्रं यस्याः मा । स्फटिकफलका स्फटिकमयं फलक पीठं यस्याः सा तथोक्ता । मनसिप्रोडवंशाप्रकाशः अनतिप्रौढानाम् अनतिकठोराणां वंशानां प्रकाश इव प्रकाशो येषां तैः । तरुण वेणुममच्चाय: 1 मणिभिः मरकतशिलाभिः । मले बडा कृत. वेदिकेत्यर्थः । कामचनो काञ्चनस्य विकारः काञ्चनी मौवर्णा । सा प्रसिद्धा। बासपष्टि: निवापदण्डः । “यलिंदर्दण्डे हारभेद मृदुकयाचुधान्नर" इति भास्करः । साथ इदानीम् । तस्याः कामिन्याः । मनसि चित्तं । त्ववियोगात् तव विरहात् । अध्यवसितमतः अध्यवसिना निश्चिता मृतिमरण यया तस्याः । निहितं प्रतिष्ठिनम् । उच्च: महत् । मूलं वा मूलमिव लक्ष्यते दृश्यते ॥३०॥
अन्वय-तन्मध्ये च [ या ] त्वद्वियोगात् तस्याः मनसि अद्य उच्चैः निहित अध्ययसितमृतेः मूलं वा सा अनतिप्रीत वंशप्रकाशः मणिभिः मूले बद्धा, बहिणा अषिष्ठिताम्रा स्फटिकफलका काञ्चनी वासयष्टिः लक्ष्यते ।
अर्थ-अशोक और बकुलवृक्ष के मध्यभाग में तुम्हारे वियोग के कारण उस किन्नरी के मन में आज मरने के निश्चय के मूल (जड़ या वेदिका) के समान स्थापित की गई या गाड़ा गई कोमल बाँस के समान कान्ति से युक्त ( पन्ना नामक ) मगियों की वेदिका बालो, मोर के द्वारा अधिष्ठित ऊर्श्वभागों से युक्त और स्फटिक मणिमय पोठ सहित स्वर्णमयी बासयष्टि ( निवासस्थान का दण्ड ) दिखती है।
तां कामिन्यः कुसुमधनुषो वैजयन्तीमिका, मस्थार्चन्ति प्रबलरुविता सापि साध्वी तदापत्य ।
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तृतीय सर्ग
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साले शिज्जाव लयसुभगः कान्तया नर्तिसो मे, यामध्यास्ते दिवसविगमे नीलकण्ठः सुहृदः ॥३३॥
तामिति । मे मम | कान्तया भार्यया । शिजायलयसुभगैः शिक्षा भूषणध्वनिः ''भषणानां तु शिक्षितम्" इत्यमरः । "भि दादयः क्वचित्' इत्यङ् । शिक्षाप्रदानि वलयानि तैः सुभगाः रम्यास्तः । तालः करतालः करतलताडनः । "तालः काल क्रियामानम्' इत्यमरः । नतित: नाटितः । ब युष्माकम् । सुहद् सखा । नीलकण्ठो मयूरः। 'नीलकण्ठो भुजङ्गभक" इत्यमरः । विवसपिगमे सायंकाले । यां या सष्टम् । अध्यास्ते वासयष्टमा मध्यास्त इत्यर्थः । शीट्स्यासोधेराधारः' इत्याधारे द्वितीया। तां निवासयष्टिम् । कुसुमधनुषः कामस्य । एकां मुख्याम् । बंजयन्तीमित्र पताकामिब | मत्वा बुद्ध्वा । कामिन्यः वनिताः । अर्चन्ति पूजयन्ति । प्रचलरुविता प्रबलदुःखिता। साध्वी सती । ''सती माध्वी पतित्रता'' इत्यमरः । सापि निमापि । त्वावाप्ये तव प्राप्त्यं । चर्चति अपिशब्देन अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः इति न्यायादर्यतीति क्रियाव्याहारः ॥३१॥
अन्यय-मे कान्तया शिजावलयसुभगैः नाले, नतितः वः सुहृदनीलकण्टः दिवसविगमे याम् अध्यास्त तां कुसुमधनुषः एका वैजयन्ती इन मल्वा कामिन्यः अर्चन्ति । प्रबलरुदिता सा साध्वी अपि त्वदाप्य ( तां अर्चति )। ____ अर्थ-मेरी कान्ता के द्वारा शब्द करने वाले कङ्कणों से मनोहर करताल बजाकर नचाया हुआ तुम्हारा मित्र मयूर सायंकाल जहाँ बैठता है, उस वासयष्टि को कामदेव की अद्वितीय पताका के समान मानकर कामाकुल स्त्रियाँ अर्चना करती हैं । बहुत रोने वाली यह [ वसुन्धरा के जीव को धारण करने वाली किन्नरकन्या ] साध्वी [ पतिव्रता ] भी तुम्हें पाने के लिए उस वासयष्टि को पूजती है।
प्रीतिस्तस्या मम च युवतेनिविवेका ततोऽहं, जानाम्येनां व्यसनपतितां मद्गृहे तच्चरोहम् । एभिः साभो हृदयनिहितलक्षणेलक्षयेयाः, द्वारोपान्ते लिखितबपुषौ शङ्खपदमौ च दृष्ट्या |॥३२॥ प्रीतिरिति । तस्याः युधतेः यौवनस्त्रियः । "यूनस्तित्" इति तित्यः । मम व ममापि । प्रीति: स्नेहः । निविवेका निविभिन्ना विवेकशून्येति वन्मते । तस्याः मम युदतेश्च । निविवेका प्रीतिरिति वा सम्बध्यते । तत् तस्मात् । एनाम् एताम् । अन्वादेशे 'इदमः" इत्येनादेशः" | माहे मम सदने । व्यसनपतिताम् दुःखेन निपतिताम् । अहं जानामि अहममि । अहं तच्चरः अहं तस्याः भृत्यः । अतिस्नेहित इति यावत् । भो साचो हे निपुण । "साधुः समर्थे निपुणे च" इति
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पाश्र्वाभ्युदय
काशिकायाम् । हे भुने इति वा । “तपस्वी संयमी योगी अणी साधुश्च" इति धनञ्जयः । हवयनिहितैः अतिस्मृतरियर्थः । एभिः लक्षणे: पूर्वोक्तलक्षणः । तोरणादिभिरभिज्ञान: । द्वारोपान्ते । एकवचनमविवक्षितम् । द्वारोपान्लयोरित्यर्थः । लिखिलबषी लिखतं वी आकृता ययोरतो तथोक्तो । शङ्करप्रौ शङ्खदच पद्मश्च ती तन्नामनिधिविशेषौ । "निधिर्वा शेवधिर्भेदाः पद्मशङ्खादयो निधेः' इत्यमरः । वृष्ट वा लाये थाः निश्चिनुयाः । तत्रागारमित्यादि ष्वतिसमृद्ध वस्तुवर्णनाददातासकारः ॥३२॥
अन्वय-तस्याः मम च युयते: निविवेका प्रीतिः [ अस्ति ]. तसः अहं एनां मद्गृहे व्यसन्न पतितां जानामि तच्चरः अहम् [ ततः भो] साघो एभिः हृदयमिहितः लक्षणः, द्वारोपान्ते लिखित्वयुषो शलपयौ च दृष्ट्वा ( मदगृहं ) लक्षयेयाः ।
अर्थ---वसुन्धरा के जीव को धारण करने वाली उस किन्नर कन्या की और मेरी भायों को अभिन्न प्रीति ( मित्रता ) है । अतः मैं इस किन्नर कन्या को अपने ( मेरे ) में दुःख निमग्न जानता हूँ। मैं उस घर का निवासी हूँ (अतः) अपनी पत्नी के कहने के अनुसार में उसकी दुःखी अवस्था को जानता हूँ । अतः हे मेघ के माकार को धारण करने वाले मुनि ! चित्त में रखे गए उपयुक्त तोरण आदि लक्षणों से और द्वार के दोनों ओर लिखे गए दाल और पद्म नाम वाली निधियों को देखकर मेरे घर को पहचान लोगे।
तस्या दुःखप्रशमनविधौ व्यापते मत्कलन, मूकीभूतेऽप्यनुचरजने मन्वमन्दायमाने। मामस छायं भवनमधुना मद्वियोगेन नुन, सूर्यापाये न खलु कमलं पुण्यति स्शमभिख्याम् ||३३! तस्या इति । तस्याः प्रियायाः । दुःसप्रशममविषो दुःखोपशमनकार्ये । मत्कृने । मम प्रियायां धापुसायो सल्याम् । अनुचरजनेपि परिबारकजनेपि । मूकीभूते मलापरहिले । भन्धमन्यमाने मन्द व्यापारयति सति । अधुना इदानीम् । “एतर्हि सम्प्रतीदानीमधुना साम्प्रतं तथा" इत्यमरः । मनियोगेन मम प्रयासेन । भवनं गृहम् । मामछायम् उत्सवोपरमात् क्षीणकान्ति । नूनं निश्चयेन स्यादिति शेषः । तथाहि । सूर्यापाये अरुणविगमे । कमल पमम् । स्वाम् आत्मीयाम् । अभिल्यां शोभाम् । "उपसर्गापातः" इत्यङ । म पुष्यति खल नोपचिनोति द्वि । सूर्यविरहित पअभिव । गृहपतिरहितं गृभपि न शोभते इति तात्पर्य्यम् ॥३३॥
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तृतीय सर्ग
२६५ अबन्य-मत्कलो तस्याः दुःखप्रशमनी व्यापते, मन्दमन्दायमाने अनुचरजने अपि मूकीभूते अधुनाभवन मद्वियोगेन नूनं शामच्छायं [ स्यात् ], सूर्यापाये कमल स्वां अभिस्यां न खलु पुष्यति ।
अर्थ-मेरी स्त्री के उस किन्नरो की दुःस्त्र को शान्ति के व्यापार में लगे रहने पर ( तथा ) अत्यधिक मन्द के समान आचरण करने वाले अर्थात् अति मन्द गति से काम करने वाले अनुचर जनों के मोन हो जाने पर इस समय ( मेरा) भवन मेरे खियोग से क्षीग कान्तिवाला होगा क्योंकि सुर्य के अस्त हो जाने पर कमल भी अपनी शोभा को नहीं बढ़ाता है ।
पश्यामुष्यामुपवनभुवि प्रेयसी तां दधानामाधि त्वत्तो विरहविधुरां मनुचः प्रत्ययेन । गत्वा सनः कालमतनुतां शीघ्र सम्पातहेतो., क्रीडापोले प्रथमकथिते रम्यसानौ निषण्णः ।।३४॥ पश्येति । शीघ्रसरूपास हेतोः शीत्रसम्पात एव हेतुस्तस्य शीघ्रप्रवेशार्थमित्यर्थः । "हती श्लेत्वार्थः सर्वाः प्रायः" इति एण्ठी। 'सम्पानिनः पतिते योगेप्रवेशे वेदसंविदो." इति शब्दार्णवे । सधः सपदि । फलभतनुतां कलभस्य करिपोतस्य तनुखि तनुर्यस्यतस्य भावस्तनुता ताम् अल्पशरीरताम् । गत्त्रा गमित्रा । प्रथमकथित तस्यास्तीर इत्यादिना पूर्वोपदिष्टे । रम्यसानी निषदनयोग्य इत्यर्थः । क्रीडाशले कृतकगिरी । निषण्णः उपविष्टः सन् । अमुष्याम् अस्पाम् । उपवनभूवि उद्यानभूमौ । स्वतः भवतः । विरहविधुरी वियोगदुःखिताम् । आधि मनःपीडाम् 1 "पुस्याधिमनिसी 'यथा" इत्यमरः । पाना धारयन्तीम् । तो प्रेयसी प्रकृष्टप्रियाम् । माचःप्रस्थयेन मम वचनविश्वासेन । पश्य प्रेक्षस्व ।। ३४।।
अश्वय-शीघसम्पातहलोः सद्यः कलभतनुतां गत्वा प्रथमकथिते रम्यमानी क्रीडाले निषणः विरहविघुरां त्वत्तः आधि दधानां तां प्रेयसो मद्वचः प्रत्ययेन अमुष्यां उपवनभुवि पश्य ।
अर्थ-शोन्न गमन करने के लिए तत्क्षम हाथी के बच्चे के समान शरीर को धारण कर पूर्वोक्त रमणोय शिखर वाले क्रीड़ापर्वत पर बैठे हए, विरह से दुःखी तुम्हारे कारण मानसिक पीड़ा को धारण करतो हुई उस किन्नर कन्या रूप प्रेयसी को मेरे वचनों पर विश्वास कर इस उद्यानभूमि में देखो।
नो चेवन्तर्गहमधिवसेत्सा दशामुवहन्ती, गूढ़ दष्टु समभिलषितां तां तदा तत्स्थ एव ।
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२६६
पाश्वभ्युदय
महंस्यन्तयनपतितः कर्त्तुं महणाल्पभासं, लोसालीविलसितनिभां विद्युन्मेष वृष्टिम् ॥३५॥
नोचेदिति । नो चेत् अथवा उपदने नास्ति चेदित्यर्थः । सा प्रिया । दश विरहावस्थता | अधिवसेत् लिष्ठेत् । "वसोनू पाध्याङ्" इति द्वितीया । तस तहि । तत्स्य एवक्रीडाशैलस्थ एव । समभिलषिताम् अभिकाङ्क्षिताम् । तो प्रियाम् । गूढं गुप्तं यथा तथा । सृष्टु ं दर्शनाय । अल्पाल्पभासम् अल्पाल्पा अल्पप्रकाश भाः प्रकाशोयस्यास्ताम् । तद्गुणसदृशेनेति द्विरुतिः । साविलसितमभां खद्योतानामालिस्तस्या विलसितेन स्फुरितेन निभां सदृशाम् । विदुन्मेषवृष्टि विद्युदुन्मेषस्तडित्प्रकाशः स एव दृष्टिस्ताम् | अन्तर्भवनपतितां भवतस्यान्तरन्तर्भवनं तत्र पतितां प्रविष्टाम् । करणाय । अहंसि योग्यो भवसि । विद्युदृष्टि गुहान्तरव्यापारयेत्यर्थः । यथा कश्चित् किचिदन्विष्यन् क्वचिदुन्नते स्थित्वा शनैः शनैः दृष्टिमिष्टदेशे पातयति. तद्वदित्यर्थः ॥ ३५ ॥
अन्वय--नो चेत् तदा दशां उद्वहन्ती मा अन्तर्गृहं अधिवसेत् । समभिलषिता तां गृहं दृष्टु' तत्स्थः एव अल्पाल्पभासं खद्योतालीविलसितानिभां विद्यदुन्मेषदृष्टिम् अन्तर्भुवनपतितां तु अहींस ।
अर्थ - यदि वह उद्यानभूमि में न हो तो विरह को अवस्था को धारण करती हुई वह किन्नरकन्या घर के भीतर स्थित होगी। अभिलषित ( अभीष्ट) उसे प्रच्छन्नरूप देखने के लिए वहीं क्रीड़ापर्वत पर ठहकर अल्पप्रकाश वाली तथा जुगनुओं की पंक्ति के प्रकाश के समान बिजली की विलास रूप- चमकने रूप दृष्टि को भवन के अन्दर डालो |
इतः षड्भिः कुलकम् द्वयन्तरितार्थवेष्टितम् - आलोके से निपतति पुरा सा बलिव्याकुला वा त्वत्सम्प्राप्त्ये विहितनियमान्देवताभ्यो भजन्ती । बुद्ध्यारूढं चिरपरिचितं स्वद्गतं ज्ञातपूर्व, मत्सादृश्यं विरहृततु वा भावगम्यं लिखन्ती ॥ ३६ ॥ अर्धवेष्टितम्
आलिख्यातो भवदनुकृति चक्षुरुन्मील्य कृच्छ्रापश्यन्ती वा सजल नयनं प्राक्तनों मन्यमाना । पृच्छन्ती वा मधुरवचन सारिका पजरस्था, कच्चिद्भः स्मरसि रसिके त्वं हिसस्य प्रियेसि ॥३७॥
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२६७.
तृतीय सर्ग एकान्तरितम्
उत्सङ्गे वा मलिन बसने सौम्य निक्षिप्यवीणां, गाढोत्कण्ठं करुणविरुतं विप्रलापायमानम् । मदगोत्राङ्क विरचितपद गेयमुद्गातुकामा,
स्वामुद्दिश्य प्रचलदलकं मूर्छनां भावयन्तो ॥३॥ द्वघन्तरितम्
तन्त्रीराज्ञः नयनसलिले: सारयित्वा कञ्चित्, स्वामुल्यनैः कुसुमभूभिर्वल्लकोमास्पृशन्ती । ध्यायं ध्यायं त्वदुपगमनं शून्यचित्तानुकण्ठी
भूयो भूयः स्वयमपि कृता मूर्छनां विस्मरन्ती ॥३९॥ एकान्तरितम्
शेषान्मासान् विरह विवसस्थापितस्यावधेर्वा, जन्मान्यत्वेऽप्यधिगतिमितान्देवभावानुभावात् । विन्यस्यन्ती भुवि गणनया बेहलीमुक्तपुष्पैः, स्मृत्यारूढान्स्फुटयितुभिध स्वात्मनो मृत्युसन्धीन् ॥४०॥ बुद्ध्यध्यासात्स्वपन इव विस्पष्टभूयं त्वं यामा, संभोग वा हक्यरचितारम्ममास्वावयन्ती । मुसुप्ता समयमयनाश्वास्यमाना सखीभिः, प्रायेणंते रमणविरहेष्वागनानां विनोवाः ॥४१॥ सर्वविरहिणी साधारण लक्षणानि सम्भावयन्ति-आलोक इति । वर अथवा । "उपमायां विकल्पे वा'' इत्यमरः । त्वरसम्प्रापमं तव सम्प्राप्तिनिमित्तम् । विहितमियमान् विशिष्टतविशेषान् । "नियमस्तु स यत्कर्म नित्यम् गन्तुसाधनम्" इत्यमरः । भवन्ती सेनमाना । देवताभ्यः बलियाकुला बलिष नित्यं प्रोषितागमनेषु च देवताराधनेषु च व्याकुला अापता। बा अथवा वृष्यारूई चित्तारुतम् । परिचितं चिराभ्यस्तम् । ज्ञातपूर्व पूर्व ज्ञातं तथोक्तम् । का इति बहुनाही पूर्वनिपातः । विरहतनु विरहेणतनू कृतम् । भावगम्यं ज्ञानज्ञेयम् । तरकार्यस्यादृष्टतरत्वादस्य भावनवावगम्यत इत्यर्थः । स्वगतं त्वां गतम् । स्वयि विद्यमानमित्यर्थः । मस्सादृश्य मदाकारसाम्यम् मत्प्रतिकृतिमित्यर्थः । लिखम्ती फलकादौ रचयन्नी । सा वनिता । तथ सालोंके वर्शने । पूरा पूर्वम् अग्रं वा । "स्यात्प्रबन्ध चिरातीते निकटागामिके पुरा" इत्यमरः । मिपतति दृष्टिगोचरा भविष्यतीत्यर्थःयन्तरिता. वेष्टितमिदम् ॥३॥
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२६८
पाश्र्वाभ्युदय आलिख्येति । वा अथवा । अतः अनन्तरम् । भववनुकृतिम् तदानुकृतिम् क्वचित् फलवादी। आलिहप लिखित्श । प्रायती प्रागन भूतविषयाम् । मन्यमामा मन्पने इति मन्यमाना बुध्यमाना । कुष्यात कष्टात् । चतुः नयनम् । जात्यकवचनम् । उन्मील्य उत्पाट्य | सजालनयनं साश्रुनेत्रम् । पश्यन्ती अवलोकयन्सी । वा अथवा । रसिके भो भरने । त्वं भवनो । तस्य भर्तुः । प्रवासिनः स्वामिनः । प्रिया हि इष्टा खल स्मरसि कच्चित् ध्यसे । कच्चित्कामप्रवंदने" इत्यमरः । “स्मृत्यर्थ दयेशां कर्म" ति कर्मणि षष्ठी। भरि स्मरसि क्रिमित्यर्थः । इति एवम् । एक्जरस्था हिनेभ्याविहितरक्षणामित्यर्थः। सारिको स्त्री पक्षिविशेषाम् । मधुरवचनं मञ्जुलभाषणं यथा तथा । पृयन्ती वाजयन्ती सति । आलेवेपुरा निपततीत्यत्रोत्तरत्राप्यन्वीयते ॥३७॥
उत्सङ्ग इति । वा अथवा । हे सौम्य हे साधो। मलिनवलने मलीममत्रस्त्र । "प्रोषिते मलिनाकृतिः' इति शास्त्रादित्यर्थः उत्सझे करी । वीणा निक्षिण | त्वां भवन्तम् । उद्दिश्य सङ्घीयं । विरचितपर्व विरचितानि पदानि यस्म तत्तथोकम् । मगोवा मम गोनाम अडूः चिह्न यस्मिन् तन्मदगोत्रांकं मन्नामाक्षरचित्र मदच्याङ्क वा । “गोत्रं तु नाम्नि ' इत्यमरः । गेयं गोताह प्रबन्धम् । गीतमिति वा पाठः । गाढोत्कण्ठं गाठा उत्कण्टा यस्मिन्कर्मणि तत् । करणविहतं करुणस्वरं यथा नधा । विप्रसापायमान प्रलाप समानम् । उद्गातुकामा उच्नैर्गातुं कामोऽभिलाषो यस्याः मा तथोक्ता। देवयोनित्वाद्गान्धारग्रामम् । गातुकामेत्यर्थः । तदुताम्... षड्जमध्यमनामानी ग्रामी गायन्ति मानुषाः। न तु गाग्वारनामावै स लभ्यो देवयोनिभिः इति । प्रचलबलक प्रचलन्तोलका यस्मिन्कमणि तत् । मनहाना क्रमविशेषविशिष्टस्यरस्थापनाम् । "नमगेषु दिलोमेन स्वाक्ष्यस्वरपूर्वगाः । पुराणास्थापनौ स्त्रातामूर्टनाः सप्त सप्तहि' इति गीतरत्नाकरे । भावती ध्यायन्ती । अन्यान्वयः प्राग्ववेध । एकान्तरितमिदम् ॥३८॥
तन्त्रीरिति । अथथा। नयनसलिलः प्रियतमस्मुतिजनितः नेत्राश्रुभिः । आर्ग: साः। "मआई क्लिन्नम्" इत्यर्थः । सौर्षीणातन्तून् । कुसुममृयुभिः पुष्पवन्मृदुभिः । स्वावगुल्यगः निजाङ्गुलीनामग्रतलः । कथयित् कृचक्रेण । सारपित्का प्रमृज्य अन्यथा क्वणितासम्भवादित्ययः । बरुलकों घीणाम् । अस्पृशन्ती स्पर्शन कुर्वन्तो । स्वयुपगमनं तवागमनम् । ध्यायं ध्यायं ध्यात्वा ध्यात्वा । ''पूर्वाग्र प्रश्रमाभीक्ष्ण्ये छमुन्" इत्याभीक्ष्ण्ये खमुन् । शून्यबिन्तानुकष्ठी नष्टचिन्तया अनुकूल फण्टो यस्याः सा । भूयो भूयः पुनः पुनः । स्वयमधिकृतो स्वयम् आत्मनाऽधिकृतामारब्धाम् । ममीनां क्रमधिशेषविशिष्ट स्वरस्थापनाम । विस्मरम्सी स्थल सी अन्योन्वयः प्राग्बत् । विस्मरणं मात्र दयितगुणस्मृतिजनिसमूर्छापदेदाादेव । तथा रसाकरे "वियोगायोग योरिष्ट गुणानां सदा कीर्तनात्स्मृतिः । साक्षात्कारोज्यवा
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तलीय सर्ग भूछा जायते दशा" इति । मरसादृश्यमित्यादिना मनःसङ्गवृत्तिः सूचिता । त्यन्तरितमिदम् ॥३९॥
शेषानिति । वा अथवा । जन्माम्यत्वेपि । अतीसवर्तमानभाषिभर्वपि । विरहदिवसस्थापितस्य बिरहस्य प्रथमदिवसात् दिवसे या स्थापिलस्य निश्चितस्व । अवधे; प्रमाणकालस्य । देवभावानुभावात् देवभावो देवत्वं तस्य अनुभावः प्रभावस्तस्मात् । "अनुभागः प्रभावे च सतां च मतिनिश्चयः” इत्यमरः। अधिगतिमितानप्रमितान् । शंषान् मासान् गतावशिष्टान । सर्वान्मायान् । देहलीमुक्तपुष्पैः देहली हार शास्त्रायाः दारु "ग्रहावग्रहणी देहली" इत्यमरः । तत्र दत्तानि राशित्वेन निहितानि ते: पुष्पैः कुसुमः । स्मृत्याल्वान् स्मरणद्वान् । स्थात्मनः स्वजीयस्य । मृत्युसन्धान मरणस्य सन्थीन् । "रन्धसंश्लेषयोः सन्धिः" इति धनञ्जयः । स्कुटयितुमिव व्यक्तीकमिय गणल्या एको नावित्यादिसायानेन । भुवि भूमितले । विम्यस्यन्ती विक्षिपन्ती । कुमुमत्रिन्यासविरहावधेर्मामान गणयन्तीत्यर्थः ।।४।।
बद्धयध्यासादिति । वा एवं नास्ति चेत् । स्वपने स्वप्ने । विस्पष्टभूयमिव स्पष्टसरस्वमिद । 'हत्याभयं भावे" इति माधुः । बुध्यध्यासात् मतिनिश्चयात । त्वयामा त्वया राह । ''अमा सह समीपे च' इत्यमरः । हृदय रचितारम्भ हृदये मनमि निहितः मङ्कल्पितः आरम्भः उपक्रमः यस्य नम् । यदा हृदये निहिताश्चुम्बनालिङ्गनादयो व्यापारा यस्मिन् तम् । सम्भोग रतिम् । आस्वावयम्तो अनुभवन्ती । अथवा वा। मूछ सुस्ता मूच्र्छया शयिता । सोभिः वयस्याभिः सभयं भयरहितं यथा तथा । आश्वास्यमाना विषेभ्यमाणा सा वनिता। ते तव । आलोके दर्शने । निपतति मोचरा भवतीति पूर्वेणान्वयः । अर्थान्तरन्यासेन परिहरति । प्रापेणेति । मङ्गनाना स्त्रियाम् । रमणविरहेषु । एते कथितार्थाः । प्रायेण प्राचुर्यण । विनोवा: कालयाफ्नोपामाः। एतेन सङ्कल्पायस्थोक्ता। तथोक्तम्-सङ्कल्पोनाथविषयों मनोरथ उदाहतः ।" इति षद्धिः कुलकम् ।।४।।
अन्यय-सौम्य ! बलियाकुला, त्वत्मम्प्राप्य देवताभ्यः विहितनियमान भजन्ती वा, वृध्यारूढ़ चिरपरिचितं ज्ञातपूर्व त्वद्गतं विरहतनु भावगम्य मत्सादृश्यं लिखिन्ती था, अनः भवदनुकृति आलिख्य चक्षुः उम्मील्य सजलनयनं पश्यन्ती वा, पारस्था मारिका प्राक्तनीं मन्यमाना रसिके ! भर्तुः कवित स्मरसि, त्वं हि तस्य प्रिया' इति मधुरवचनं प्रच्छन्ती बा, मलिनवसने उत्मले वीणां निक्षिप्य गाढ़ोत्कष्ठ ऋणविस्तं विप्रलापायमानं विरचितपदं गैवं मद्रगोत्रात त्या उद्दिश्य उद्गासकामा मूर्च्छनां प्रचलदलकं भावयन्ती, कुसुममदुभिः स्त्रागुल्यमे नयनसलिले: आर्द्राः तन्त्रीः कथञ्चित् मारयित्वा बल्लकी आस्पृशन्सी, त्वदुपगमनं ध्यायं ध्यायं शून्यचित्तानुकण्टी स्वयं कृतां अपि मूर्च्छना भूयः भूयः विस्म
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पार्श्वभ्युदय रन्ती, देदभावाभावात जन्मानले अगि अधिगति इतान् विरहदिवसस्थापितस्य अवधेः शेषान् मासान् स्मृल्यासवान स्वात्मनः मृत्युमधीन स्फुटयितु इच देहलीमुक्तपुष्पैः गणनया भुवि विन्यस्यन्ती या, स्वप्ने हृदयरचितारम्भं सम्भोगं बुद्ध्यध्यामात् त्वया अमा विस्पष्टभूयं इव आस्त्रादयन्ती वा अथवा मुसुप्ता सखीभिः सभयं आश्वास्यमाना पुरा ते आलोके निपतति । रमण विहरेषु अङ्गमानां प्रायेण एते विनोदाः।
अर्थ-हे सौम्य ! देवपूजाओं में लगी हुई अथवा आपको पाने के लिए देवताओं को प्राप्त करके शास्त्रोक्त व्रतों का सेवन करती हुई अथवा मन में स्थित चिरपरिचित, पहले से ज्ञात आप सम्बन्धी वियोग के कारण दर्बल और अभिप्राय से जानने योग्य मेरी प्रतिकृति के समान तुम्हारी प्रतिकृति को बनाती हुई अथवा आपकी अनुकृति को बनाकर नेत्र खोलकर अश्रपूर्ण नेत्रों से देखती हई पिंजड़े में स्थित मैना को बसुन्धरा के समय की मानती हुई। हे रसिके ! क्या तू स्वामी का स्मरण करती है ? क्योंकि तू उनकी प्यारी थी । इस प्रकार मधुर वचन से पूछती हुई अथवा मलिन बस्त्रयुक्त अपनी गोद में वीणा को रखकर गाद उत्कण्ठा सहित करुण स्वर को करुण रस प्रधान गीत के समान बनाती हुई तुमको लक्ष्य कर ऊँचे स्वर से गाने की इच्छा करती हुई, मूर्छना (स्वरों के उतार और चढ़ाव के कम वाले गीत) को अलकों के चलन पूर्वक अन्दर ही अन्दर उच्चारण करती हुई, फूल के समान सुकोमल अपनी अँगुलियों के अग्रभागों से नेत्रों के जल से गीले वीणा तन्तुओं को जिस किसी प्रकार पोंछकर वीणा का कुछ स्पर्श करती हुई, तुम्हारे आगमन का निरन्तर ध्यान कर निस्सार मानसिक सन्ताप से युक्त कण्ठ स्वर वालो स्वयं रची हुई भी मन्छना को पुनः पुनः भुलती हुई, अथवा देवत्व से उत्पन्न माहात्म्य से अन्य जन्म में भी जाने गए वियोग के दिन निश्चित (स्थापित) अवधि के अवशिष्ट महीनों को, अपने शरीर के स्मृति में स्थित मरण काल को मानों प्रकट करने के लिए देहलो पर रखे हुए फूलों को गणना के लिए जमीन पर रखती हुई अथवा स्वप्न में मन के सङ्कल्प से प्रारम्भ किए हुए सम्भोग को बुद्धि से उत्पन्न भ्रान्ति के कारण आपके साथ मानों स्पष्टता के साथ अनुभव करती हुई अथवा मूर्छा से सोई हुई सखियों के द्वारा भयपूर्वक विश्वास दिलाई जाती हुई पहले तुम्हारे दृष्टि पथ को प्राप्त होगी, क्योंकि प्रियतम के वियोग में स्त्रियों के विरहनित दुःख को दूर करने के लिये ये उपाय हैं।
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तृतीय सर्ग सख्यालापैः सुखविरुतिभिस्तद्विनोदैस्तथाऽन्यैः, सम्यापारामहनि न तथा पीडयद्विप्रयोगः ।। स्वापापायादहृदयनिहितं त्वामजस्रं स्मरन्तों, शङ्क रात्री गुरुतराचं निविनोवां सखीं ते ॥ ४२ ॥
सध्यालापैरिति । राम्रो निशायाम् । स्वापापायात निद्राया आयात् अभावात् । हवयनिहित हृदये स्मृतम् । त्यो भवन्तम् । प्रजाम् अनवरतम् । 'नित्यानवरताजनम्' इत्यमरः । स्मरम्तीम् । ते तव । सखी प्रियाम् । गुगतरशुधं गुरुत शुक यस्याः सा ता बहुशो काम् । निर्विनोवां निर्यापाराम् । शङ्के तर्कयामि । 'शङ्काभवितर्कयोः' इति शब्दावे । अहन्नि दिवा । सस्थालापैः सख्या भाषणः । सुखवितिमिः सुखकथाभिः । अग्विनोदें: मालाविनोदः । तथा अन्यैः विलासः । सव्यापारां पूर्वोक्तचित्रलेखनादिव्यापार सहिताम् । विप्रयोगः विरहः । तथा राधा. विव न पीडयेन् न बाचेत् ॥ ४२ ॥ ___ अन्वय--[ यथा ] रात्री स्वापापायात् हृदयनिहितं स्वां अजल स्मरन्ती गुरुत्तरशुचं निविनोदां ते सर: वियोगः पीत तथा बहनि सुखविरुतिभिः सरूपालामः तथा अन्यः तद्विनोदैः सम्यागरां विप्रयोगः न पीडयेत् [इति शङ्क।
अर्थ-जैसा रात में नींद के न आने से हृदय में स्थापित तुमको निरन्तर स्मरण करती हुई दुःसह शोकवाली और विरहजनित दुःख को दूर करने के विनोद से रहित तुम्हारी सखी को त्रियोग पीड़ित करेगा वैसा दिन में सुखोत्पादक शब्दों से युक्त सखियों की बातचीत से तथा अन्य विनोदों से विरहजनित दुःख को दूर करने के काम में व्यस्त उसको वियोग पीड़ित नहीं करेगा, मैं ऐसो सम्भावना करता हूँ।
एवं प्रायैस्त्वयि सुभगतां पज्जयद्भिर्यथार्थमत्सन्देशैः सुखयितुमतः पश्य साध्वी निशीथे। पर्यस्ताङ्गों कुसुमायने निस्सुखामाधिरुद्धा, तामुन्निद्रामवनिशयनां सदमवातायनस्थः ॥ ४३।। चित्रन्यस्तामिव सवपुष मन्मथीयामवस्थामाषिक्षामा विरह शयने सन्निषण्णकपाश्र्शम् । तापापास्त्यै हृदयनिहितां हारयष्टि दधानां,
प्राचीमले तनुमिव कालामात्रशेषां हिमांशोः ॥ ४४ ॥ .१. स्मरन्ती ।
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पार्वाभ्युदय मत्कामिन्या प्रणयरसिकैः सन्निधौ त्यत्प्रियाया, नीता रात्रिः क्षणमिव मया सार्धमिच्छारतैर्या । निद्राद्विभिमुहुरुपचितैः पक्ष्मरुद्भिर्गलङ्गि, स्तामेवोषणविरह्महतोमश्रुभिर्यापयन्तीम् ॥ ४५ ॥ अन्तस्तापं प्रपिशुनयता स्वं कवोष्णेन भूयो, निःश्वासेनाधकिसलयलेशिता विक्षिपन्तीम् । शद्धस्नानास्पानलमागदलप्नं विश्लिष्ट वा हरिणरचित लाभ तान्दोः ॥ ४६॥ मश्लेिषादुपहितशुचो दूरदेशस्थितस्य, प्राणेशस्य स्वयमनुचिताऽनङ्गबाधस्य जातु । मत्संयोगः कथमुपनयेत्स्वप्नजोऽपीति निवामाकाङ्क्षन्ती नयनसलिलोत्पीडरुद्धावकाशाम् ॥४॥ आय अद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा, जन्मन्यस्माद्व्यवहिततरे वेणिका स्मर्यमाणा । शापस्यान्ते विगलितशुचा तो भगोष्टनीयां स्वां निन्दन्ती विरहवपुषां सङ्गम वा विधाय ॥४॥ तां वक्रन्दुग्रसनरसिकां राहुमूति श्रितां वा, व्योमच्छायां मदनशिखिनो धूमयष्टीयमानां । स्पर्शक्लिष्टामयभितनखेनासकरसारयन्ती, गण्डाभोगास्कठिन विषमामेकवेणी करेण ।३.९॥ पाबानिन्दोरमृतशिशिराजालमागंप्रविष्टानिष्टान्बन्धूनिव मृगयितु संश्रितान् संग्रहीतुम् । पूर्वप्रोत्या गतमभिमुखं सन्निवृत्त तथैव, प्रत्याहृत्य स्वनयनयुगं चेतसा धूयमानाम् ॥५०॥ भूयोभूयः शिशिरकिरणे स्वान्कराज्जालमार्गरातन्वाने पुनरपि गताभ्यागतैः क्लिश्यमानम् । खेदाच्यक्षुः सलिलगुरुभिः पक्षमभिश्छान्तयन्ती, साने ह्रीव स्थलकमलिनी नप्रबुद्धां नसुप्साम् ॥ ५१ ।।
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तृतीय सर्ग
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एवमिति । अत: कारणात् । त्वपि भवति । सुभगतां रम्यताम् । व्यजभिः प्रकयभिः । एवं कथितरीत्या । प्रायेबहुभिः । यथार्थः तथ्यभूतैः । महसन्देशैः मम वाचिकैः । सुतश्विम् आनन्दयितुम् । निशीथे अर्धरात्रे । 'अर्धरात्रनिशीथौ द्वौ इत्यमरः । सभवातायनस्थ: सौव गवाक्षान् । कुसुमशधने पुष्पशय्याम् । पर्यस्तागीम् पातितशरीशम् । निःसुखां सुखरहिताम् । आधिरां मनः पीडार्ताम् । पुस्यचि मनिसो व्यथा' इत्यमर: । उग्निद्राम् उत्सृष्टस्वानाम् | अवनिशयनाम् अवनिरेव शयनं यस्यास्तां नियमार्थ भूशायिनीम् । सा पतिव्रताम् । तां त्वत्सखीम् । पश्य प्रेक्षस्व । तदुक्तं रमाकरे- सुखायने च पितरीको मित्रदूत शुकादयः । सुखयन्तो कनसुखोपवियोगिनाम्' इति । अनेन जागरात्रस्थोना ॥ ४३ ॥
चित्रयस्ताभिति । चित्रन्यस्तां चित्रलिखिताम् । स्ववपुषं शरीरमहिताम् । मन्मथीयां मदनसम्मन्याम् । अवस्थानिष दशाभिव | अधिक्षा मनोकथाम् कृशीभूताम् । ख्यातेः कर्त्तरिक्तः । अः इति क्वस्य मः । विरशयने विरहोचित शथ्याम् । गल्लवादिरचित तल्प इत्यर्थः । सन्निषपणैकपाइर्षाम् सन्निषण्णणं न्यस्तम् एक पाद यस्यास्ताम् । अतएव तापापास्यं तापनिवारणाय वयमिहितां हृदये निक्षिप्तां । हारयष्टिं हारताम् ' यष्टिर्दण्डे हारभेदे मधुकेप्यादुधान्तरे' इति भास्करः । वानां वहन्तीम् । प्राश्रीमूले प्राच्याः पूर्वदिशो मूले । उदयगिरिप्राय इत्यर्थः । प्राचीग्रहणं श्रीणात्रस्याद्योतनार्थम् । मूलग्रहणं दृध्यत्वार्थं । कलामात्रशेषां कलैवशेषो यस्यास्ताम् । सुषशोरचन्द्रस्य । तनुभिक मूर्तिमिव स्थिताम् । तो पति पूर्वेणैवान्वयः । अनेन कास्मत्रिस्थोक्ता ॥। ४४ ।।
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मरकामिन्या इति । त्वप्रियायाः तव भार्यायाः । समिधो ममीपे । मया सार्धम् । मत्कामिन्या मद्वल्लभया । प्रणवर सिकैः प्रीतिरसविशेषः । इच्छार अभीष्टनिधुवनैः । या रात्रिः निशा क्षणमिव समयभित्र | नीता यापिता । तामेष तात्रिमेव विरहमतों विरहेण पृथुभूताम् । महत्वेन प्रतीयमानामित्यर्थः । मित्राभिः निद्राविरोधिभिः । म्हः पुनः पुनः । उपचितैः अवतीर्णेः । पक्ष्मरुभिः मरोधमभिः । पथमा सिरोणि किञ्जल्के तत्वाच शेपणीयमि' इत्यमरः । गरूद्भिः स्रवद्भिः । उष्णैः शिशिरं । मश्रुभिः अनं । 'नेत्राम्बुरोदने चालमनु 'च' इत्यमरः । यापयन्तीं गमयन्तीम् । यातेर्ण्यन्ताच्छनृत्यः ह्रीम्ली रिक्नापि ' इत्यादिनाम् । तां पश्यैत्यन्वयः । स एव कालः सुखिनामलाः प्रतीयते दुःखितां तु किस इति भावः । एतेन लज्जात्यागी व्यते ।। ४५ ।।
अन्तस्तापमिति । एवं स्वोयम् । अन्तस्तापम् विरहृताम् । प्रविशुनयता प्रकर्षेण सूचयता | कोन मन्दोध्यो । 'कोष्णं कवोष्णं मन्दोष्णम्' इत्यमरः ॥ वर किसलय कलेशिनादान निवाधिना । भूयः मुहुः । मिश्वासेन
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पाश्र्वाभ्युदय निश्वसनैन । तन्मुखेन्दोः तस्माः बदनचन्द्रमसः । हरिणचरितं मृगविहितम् । विहिलष्ट शिथिलितम् । लाञ्छनं वा चिल्लमिव । शुखस्नानात् विरहिणीखाद्गम्धस्नेहादिरहितम्नानात् । पचषं झर्कशम् । गंडलंयम् 'सुप्सुपा' इति समासः । गण्डपर्यस्तावलम्बि । अलर्फ चूर्णकुन्तलम् । नूनम् अवश्यम् । विक्षिपन्ती चालयन्तीम् । तां पश्येत्यन्वयः ॥ ४६ ॥
मविश्लेषाविति । मटिया मम किया । पहशुषः प्राप्त पुस । वरदेशस्थितस्य दविष्ठदेशस्थस्य । अनुचितामा बाषस्य अनुचिता अयोग्या अनङ्गस्य मदनस्य बाधा यस्य तस्य । प्राभेशस्य वयितस्य । स्वप्नजोपि स्वप्नावस्था. जन्योऽपि साक्षासम्भोगासम्भवादिति भावः । मसंयोगः मम सम्मोगः । स्वयं जातस्वकीयम् । कथं केन प्रकारेण । उपनदिति भागन्छेदिति आशयति शेष । 'प्रार्थनाय लिङ् 1 नयनसलिलोत्पीडरुदावकाशा नयनसलिलोत्पीउनान् अधुवत्या सद्भावकाशाम् आक्रान्तावस्थां दुर्लभामित्यर्थः । निद्रां स्वापम् । 'स्मानिद्राशयनं स्थापः' इत्यमरः । आकाङ क्षन्तीम् अभिलषन्तीम् । स्वप्नहेतुस्त्रादिति भावः तां पश्य || ४७ ॥ ____ आद्य इति । आये प्राक्तने । विरहषिवसे वियोगदिने । वाम पुष्पमाल्यम् । हिरवा त्यक्त्वा या शिस्ला न्। 'शिखा वहा केशपाशः' इत्यमरः । बसा ग्रथिता 1 अस्मातस्माज्यन्मनः । वयवहितप्तरे अन्तरिततरे । नम्मनि भवे ! स्मयंमागा चिस्यमाना। या वेगिका प्रवेणी । वणिः प्रवेणो शीर्षण्यशिरस्यो विशदे कचे' इत्यमरः । शापस्य अरविन्दराजकृतधिकारस्य । मते अवसाने । विगलितशुचा व्यपगतशुचेति वा पाठः । शतशोफेम मया । अष्टनीयाम् उष्टुयोग्याम् । तो शिला णिकां च । वा अथवा विरहषपुषां वियोगमूर्तीनाम् । सङ्गाम संसर्गम् । विषाय कृत्वा । स्वाम् भात्मानम् । निन्दन्ती कुत्सयम्तीम् । तां पश्य !४८ ॥
तामिति । बन्दुप्रसमरसिका वक्त्रमिवेन्दुस्तस्य प्रसने स्वीकारे रसिका प्रीताम् । श्रिताम् मागताम् । राति राइदेहम् । पा इव व्योमाछायाम् आकाश
छविम् श्यामलामित्यर्थः । मदनशिशिनः मन्मयज्वलनस्य । “शिखिनो बलिहिगो' इत्यमरः । मयष्टोयमामा घूमयष्टीयतेऽसौ तथोक्ताम् धूम दण्डोपमामित्यर्थः । स्पर्शविलष्ट स्नेहनव्यायोगात् स्पर्श सति बलेशमूलेषु सत्पयामित्यर्थः । कठिनाविषमां कठिना चासो विषमा च' निम्ने नसा ताम् । 'खाकुनादिवदन्यसरम्प प्राधान्य. विवक्षायाँ' विशेषणं यभिचार्येकार्थ कर्मधारयश्च' इति ममासः । ताम् एकवेणीम् एकीभूतप्रवेणीम् । 'पूर्वकाले' इत्यादिना तत्पुरुषः । तयाभूतां शिवाम् । अमितमलेन 'यम जपरमें' यम्यन्ते स्म यमिता शमिता इत्यर्थः । न यमिताः इति नन् समासः । अयमिताः प्रतकिलोपान्ता नखा यस्य तेम । करेग हस्तेन : गाभोगात्
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तृतीय सगं
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कपोपदेशात् । 'गण्डौ कोलविस्फोटौ' इत्यमरः । असकृत् मुहुर्मुहुः । सारश्लीम् अपसारयन्तीम् । तां पश्य । असकृत्सारणेन सिविभ्रमदशा सुध्यते ॥ ४९ ॥
पादानिति । इष्टान् अभिमतान् । बन्धून् बान्धवान् । मृयितुम् अन्वेषयितुम् ! संस्थितानिय आश्रितानिव । जालमार्गप्रविष्टाम् गवाक्षविवशयताम् । अमृतशि'शिरान् अमृतमिव शिशिरान् । • सावदतिहितस्पर्शान् । इग्योः सुषांशोः । पादात् रश्मीन् । पादा रम्यङि प्रम शाः इत्यमरः । पूर्वप्रीत्या पूर्ववदानवकरा भविष्यन्तीत्यर्थः । सग्रहीतु सङग्रहणाय । अभिमुखं सम्मुखं यथा तथा ग यातम् । तथैव तत्प्रकारेणैव सन्निवृत प्रत्यागतम् स्वनयनयुगं निजनेत्रद्वयम् । अस्यास्य अपहृत्य | खेतसा मनसा धूपमाभां कम्पमानाम् । तां पश्य । चन्द्ररमिस्पर्श विरहिणां दुःखमेवेति भावः ।। ५० ।।
भूय इति । शिशिरकिरणे शिशिराः तुषाराः किरणाः यस्य तस्मिन् चन्द्रे | भूयो भूयः पुनः पुनः । स्वान् स्वकीमात् । कान् किरणान् । जलमार्गः गवाक्षविवरेः । पुनरपि आतत्वाने पुनरपि विस्तार्यमाणे सति । गताभ्यागतैः याताभ्यायातः । विवश्यमानं विवाध्यमानम् । चक्षुः दृष्टिः । लेात् विषादात् । सलिलगुरुभिः अभिरतः । पश्मभिः नेत्र लोमभिः । छायपरसों वारयन्तीम् । अतएव । सामेवसहिते । अह्न दिसे । दुविन इत्यर्थः । न प्रबुद्ध न विकसिताम् न सु न मुकुलिताम् । उभयत्रापि नत्र । न शब्दस्य 'सुप्सुपा' इति समासः । स्वलकमfontम स्थलपद्मनीमिव । स्थिताम् । तो स्वरसखीम् । पश्य प्रेक्षस्येति पूर्वेणाम्ययः । एतेन विषयद्वेषाख्यं सूचितम् । नवभिः कुलकम् ॥ ५१ ॥
अन्वय - अतः पर्यस्ताङ्गों, कुसुमशयने निःसुखां, बधिरुद्धां अवनिशयनां चित्रन्यस्तां इव, मम्मीयां सवपुषं अवस्था, अविक्षायां विरहand after प्राचीमूले हिमांशोः कलामात्रशेषां तनुं द्दष, तापापास्त्ये हृदयनिहितो हारयष्टि दधानो त्वत्प्रियायाः सन्निश्री मया सार्द्धं प्रणयरसिक: इच्छातः या रात्रि मत्कामिन्या क्षणं इव नीता स एव विरहमती' [ शत्र ] निद्राहिद्भिः मुहुः उपचितः पक्ष्मरुद्भिः गलद्भिः कणैः अश्रुभिः यापयन्ती, स्त्र अन्तस्ताप प्रपिशुनतया कोष्णेन अधर किसलयबलेशिना निःश्वासेन तन्मुखेन्योः हरिणरचितं विश्लिष्टं लाञ्छनं वा शुद्धस्नानात् परुपं आगण्डलम्बं अलकं नूनं भूयः विक्षिपन्स, मद्विश्लेषात् उपहितशुचः दुरदेशास्थितस्य अनुचितान गबाधस्य प्राणेशस्य स्वप्ननः अपि मत्संयोगः कथं जातु स्वयं उपनमेत् इति नयनसलिलोपीडावकाशां निद्रां आकाङ्क्षन्ती, या अस्मात् व्यवहिततरे जन्मनि आये विह दिवसे दामहित्वा वेणिका शिखा बद्धा ( इति) मया स्मर्यमाणा तां स्वां शापस्य असे विषहवपुषा वः सङ्गमे विधाय विगलितयुचा ( स्वया) उद्वेष्टनीयां निन्दन्ती दुग्रसमरसिकां श्रिता राहुमूर्ति था, व्योमच्छायां मदनशिखिनः धूमयष्ट्रीय
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पाश्र्वाभ्युदय
मानां, स्पशंक्लिष्टां कठिनविषमां तां एकवेणीम् अयमितनखेन करेण गण्डाभोगा असकृत् सारयन्तीं संश्रितान् इष्टान् बन्धून मृगयितुं इव जालमार्गप्रविष्टान् अमृतशिशिरान् इन्दोः पादान् पूर्व प्रोत्मा सङग्रहीतु अभिमुखं गतं तथैव निवृत्तं सत् स्वनयनयुगं प्रत्याहृश्य चेतसा धूयमाना शिशिरकिरणे स्वान् करान् जालमार्गः भूयोभूयः आश्वाने गताभ्यागतैः खेदात् पुनः अपि क्लिश्यमानं चक्षुः सलिलगुरुभिः पश्यभिः छादयन्तीं [ अतएव ] अनि स्थलकमलिनी इव नमबुद्ध न तां साध्वी एवम्प्रायः त्वयि मुभगतां व्यजयद्भिः यदार्थः मस्संदेशः सुखयितुं निश| सद्मवातायनस्थः पश्य ।
अर्थ -- अतः फैले हुए ( अव्यवस्थित रूप से रखे गए ) अंग वाली फूलों को शय्या पर सुख रहित दुःखी मन से युक्त हो भूमि पर सोने बालो, चित्रलिखित के समान कामदेव को सारीरी अवस्था को [ अर्थात् साक्षात् शरीर धारण करने वाला काम की अवस्था की ] धारण करने वालो, मन को वंदना से क्षीन, विरह को शय्या पर एक ही करवट से लेटने वालो, उदय पर्वत के समीप में चन्द्रमा के अवशिष्ट एक कला वाले शरोर के सदृश, विरहजनित देह के दाह को दूर करने के लिए वक्षस्थल में स्थापित हार को धारण करती हुई तुम्हारी ( मरुभूति के जीब पार्श्व को) प्रिया के समीप में मुझ शम्बरासुर के साथ प्रेम के रस से युक्त इच्छानुसार रति सेवन से जो रात्रि मेरी ( कानाकुलचिस ) भार्या के द्वारा क्षण भर के समान बिताई गई थी, उसी विरह के कारण दीर्घ रात्रि को निद्रा के द्वेवी, बार बार वृद्धि को प्राप्त नेत्र की बरोनियों को रोकने वाले, गिरते हुए गर्म आँसुओं से युक्त होकर बिताती हुई, अपने हृदयगत संताप की सूचना देने वाले कुछ गरम अधर पल्लवों को क्लेश पहुंचाने बाले निःश्वास से उस किन्नरी के मुखचन्द्र को हरिण के शरीर के आकार वाली रचना विशेष से युक्त पृथक् रूप से अवस्थित लाञ्छन (चिह्न) के समान शुद्ध स्नान (तैलादि से रहित स्नान ) के कारण कठोर स वाले तथा कपोलों पर फैले हुए अलकों को अवश्य ही पुनः पुनः दूर करली हुई, मुझसे वियोग होने के कारण बढ़े हुए दुःख से युक्त दूरदेश में स्थित अप्रशस्त कामवासना के उदेक से उत्पन्न पीड़ा वाले प्राणनाथ का स्वप्न में होने वाला भी मेरे साथ संयोग से सम्पन्न होगा, इस कारण आँसुओं के निकलने से अवरुद्ध ( रोकी गई ) निद्रा को चाहती हुई, जो इस दिन से दूरवर्ती पूर्वजन्म में वियोग के प्रथम दिन पुष्पमाला को उतार कर एक श्रेणी के आकार की चोटी बांधी गई थी तथा मुझ कमल के जीवधारी शम्बरासुर के द्वारा स्मरण करायी गई, बाप के अन्त में वियोग की मूर्ति
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तृतीय सर्ग
२७७ तुम्हारे साथ मंयोग कर शोक दूर होने के कारण तुम्हारे द्वारा खोली जाने वाली, उस अपनी शिस्त्रा की निन्दा करती हुई, मुख चन्द्र को ग्रसने के रसिक प्रमुख चन्द्र के समीप में आए हए) राह के समान, आकाश की कान्ति के समान ( श्यामल ) कान्ति बालो, कामाग्नि की दण्डाकार धूमरेवा के समान, बार बार छने से अव्यवस्थित कठोर और विषम ( नीची, ऊँची) एक ही चोटी के रूप में विद्यमान उस वेणी को बिना कटे नाखून से युक्त हाथ से कपोल स्पर्श से बार बार हटाती हई, आधित इष्ट बन्धुओं को मानों खोजने के लिए खिड़कियों से प्रवेश करती हुई अमृत के सदृश ठण्डी चन्द्रमा की किरणों का पहले को प्रीति से स्वागत करने के लिए सामने गये हए किन्तु तत्क्षण हो लौटे हुए अपने दोनों नेत्रों को हटाकर मन से काँपती हुई, चन्द्रमा के द्वारा अपनी किरणें झरोखों के मार्गों से पुनः पुनः विस्तार करने पर गमनागमन के दुःख से पुनः पोसित होते हुए नेत्र को अश्ररूपी जल से भारी बरी नियों से हँकती हई, मेघों से ढंके हए दिन में स्यलकमलिनी के समान न जागती हुई और न सोती हुई उस साध्वी ( शीलवती) को इस प्रकार के आपके विषय में सौभाग्य को प्रकट करने वाले यथार्थ मेरे सन्देशों से सुख पहुँचाने के लिए आधी रात्रि में प्रासाद की खिड़की पर रहकर देखो।
सा संन्यस्ताभरणमबला पेलवं धारयन्ती, चीताहारा नयनसलिलैराप्लुतापाण्डुगण्डम् । शय्योत्सनो निहितमसःखदुःखेन गात्र, स्वामप्यन्तर्विचलितति तां दशां नेतुमर्हेत् ॥५२॥
सेति । अबला न विद्यते बलं यस्याः सा दुर्बला । पीताहारा त्यक्तजेमना । 'जेमनं लेह आहारः' इत्यमरः । संन्यस्ताभरणं त्यक्ताभरणम् । पेलब कृशम् । 'पेलवं विल तनु' इत्यमरः । पेशालमिति वा पाठः । पेशालं कोमलम् | 'कोमल मृदु पेशसम' इति धनञ्जयः। नयनसलिल: अश्रूषकः । झाप्लुतापायुगण्डम् आप्लुतावाद्रिती आराण्ड ईषसाण्डू गण्डो यस्य तत् तथोक्तम् । 'आप्लतः स्नातके स्नाने' इति विश्वः । शय्योत्सङ्ग शयनतले । दुःखदुःखेन दःखप्रकारेण । "रिदगुणस्सदृशः' इत्यादिना द्विभक्तिः । असकृत् बनेकशः I निहित विन्यस्तम् । गात्रं शरीग्म् । धारयन्ती वहन्ती । सा स्वरसखी। अन्तपिचलिततिम् अन्तः प्रकम्पित धर्यम् 'धतिर्धारणधैर्ययोः' इत्यमरः । त्वामपि भवातमपि । ता बशा तदवस्थाम् । ने प्रापयितुम् । अत योग्या भवेत् । तां दृष्ट्वा त्वमपि दु:खितो भवसीत्यर्थः ।।५२॥
अम्बय वाताहारा, सन्यस्ताभरणं पेशवं नयनसलिलेः आप्लुतापाण्डगई,
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पादर्वाभ्युदय
दुःखदुःखेन शय्योत्सङ्ग असकृत् निहितं गात्रं पारयन्ती सा अबला अन्तविचलितमूर्ति त्वां अपि तां दशां नेतुम् अर्हेत् ।
अर्थ - आहार का त्याग करने वाली, अलङ्कारों से रहित, कृश, आँसुओं से गीले तथा कुछ पाण्डुवर्ण के गालों से युक्त, अत्यधिक दुःख में शा के ऊपर अनेक बार रस्ते हुए शरीर को धारण करती हुई वहु अबला अंदर से विचलित धेवाले तुम्हे भी उसी ( किन्नर कन्या के समान दार को प्राप्त कराने में समर्थ होगी ।
अनात्यन्ताशक्तया मूच्र्छावस्था सूच्यते
शय्योपान्ते भृशमपसुखा मत्स्यलोलं लुलन्ती, बद्धोत्कम्पश्वसितविवशा कामपात्रायिता सा ।
स्वामप्यलं नवजलमयं मोर्चायेष्यत्यवश्यं, प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिरार्द्रान्तरात्मा ॥५३॥ शय्योपान्त इदि ! शोषान्। रुलिमायखेडी मत्स्यानां लोणच ं यथा तथा । 'लोलवलसतृष्णयोः' इत्यमरः । भृवास् अत्यन्तम् । सुती लुठन्ती । बद्धोरसम्पश्यसि तबिया सम्बद्धात्कम्पना समोर बीमा । कामपारथिता कामपत्रायते स्म तथोक्ता मन्मथावस्थास्पदा । सा दयिता | स्वमपि भवन्तमपि । नवजलमयं नवाम्बुरूपम् । यत्रं वाष्पम् । 'असं' यात्रश्च पुल्लिङ्गौ क्लेशे च रुधिरेश्रुणि इति वैजयन्ती । अवश्यम् सर्वदा । मोषयिष्यति मुयिष्यति। मुचेः द्विकर्मकत्वम् । तथाहि । प्रायः प्रायेण 'प्रायो भूम्नि' इत्यभरः । यावन्तिरात्मा मृदुहृदयः । मेषस्तु द्रवान्तः शरीरः सर्वः सर्वजनोऽ करुणावृत्तिः करुणामया वृत्तिरन्तःकरणवर्तनं यस्य सः । भवति । अस्मिन्नवसरे सर्वांचा स्वया शीघ्रमनन्तरा परिहाराय गन्तव्यमित्यभिप्रायः । सम्भोगो विप्रयोगदसि श्रृंगारी द्विधा । विप्रलम्भे स्त्रीणामवस्था दश । तदुक्तं शृंगार सञ्जयम्दृक् प्रीतिश्च मनस्पतिः सङ्कल्पो जागरस्तथा । अरतिर्लज्जात्यागो मोहो मूर्च्छा मृतिदेश' इति । अत्र चित्रलेखनतवीक्षणाद्यभिप्रायेषु चक्षुः प्रीत्याद्यवस्थाभेदो बुद्धिमद्भिरवसेयः ॥५३॥
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अन्वय- भृशं अपसुखा शम्मोपान्ते मत्स्यलोल लुमन्ती बद्धीत्कम्पश्वसितविक्शा कामपात्रायिता स नवजलमयं अस' त्वां अपि अवश्यं मोचयिष्यति । करुणावृत्ति सर्वः प्रायः अन्तरात्मा भवति ।
अर्थ - अत्यधिक दुःखी, शय्या के पार्श्वभाग में मछली के समान लोटतो हुई, जिसमें कंपकपी उत्पन्न हुई है ऐसी इवांस से विवश और कामपात्र के
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तृतीय सगं
આર.
समान आचरण करने वाली वह नये जल से युक्त आँसुओं को तुमसे भी अवश्य छुड़ाएगी अर्थात् उसे देखकर तुम भी नूतन जलरूप आँसू अवश्य गिराओगे क्योंकि दयालुचित्त वाले प्रत्येक जन का अन्तःकरण प्रायः आई ( सजल ) होता है अर्थात् करुणा सहित होने के कारण उसकी वैसी अवस्था को देखकर तुम्हारी आँखों से अश्रुधारा निकलेगी । मन्त्रीदृशीं दशां प्राप्तेति कथं खया निर्णीतमित्याशयेनाह -
बन्धुप्रोति गुरुजन इवादृत्य कान्ताद्वितीये, जाने सल्यास्तव मयि मनः सम्भूतस्नेहमस्मात् । संवासाच्च व्यतिकरमिमं तत्त्वतो वेद्मि तस्माबित्यंभूतां प्रथम विरहे तामहं तर्कयामि || १४ ||
बन्धुप्रीतिमिति । गुरुजन इव । मात्र पित्रादाविव । कान्ताद्वितीये द्वितयकान्ताजने । अस्य स्त्रीजने इत्यर्थः । बन्धुत्रीति बान्धवानुरागम् । जाने जानामि । अस्मात् कारणात् । सेासाच्च संबसनं संत्रासस्तस्मादपि । इम व्यतिकरं व्यसनमिदम् । व्यतिकरः समाख्यातो व्यसनव्यतिषङ्गयोः' इति विश्वः । तत्त्वतः परमार्थतः वेधि जाने स्वात् कारणात् अहम् प्रथमंहेि आद्य विप्रलम्भे । प्रथमग्रहणं दुःखातिशय द्योतनार्थम् । तां त्वत्सखोम् । इत्यंभूत पूर्वोक्तरपन्नावस्थाम् । तर्कयामि निश्चिनोमि ॥५४॥
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अन्ययान्ताद्वितीये मयि गुरुजने बन्धुप्रीति इव आदृत्य तक सख्या मनः सम्भृतस्नेहं जाने | अस्मात् संवासात् स इमं व्यतिकरं तत्त्वत: वेधि; तस्मात् प्रथमविरहे तो अहं इत्थम्भूतां तर्कयामि ।
अर्थ – कान्ता के साथ मुझ ज्येष्ठ जन के प्रति बन्धु की प्रीति की भाँति आदर करके तुम्हारी सखी (प्रेयसी ) का मन ( मेरे प्रति ) स्नेह से भरा हुआ है, ऐसा मैं जानता हूँ। इस कारण ( स्नेह की जानकारी के कारण ) तथा साथ में रहने से ( मैं ) इस विपत्ति को यथार्थ रूप से जानता हैं अतः अद्वितीय विरह में उस किन्नर कन्या को ऐसी (पूर्वोक्त ) अवस्था वाली मानता हूँ ।
ननु सुभगमानिनामेष स्वभावः यदात्मनि स्त्रीणामनुरागप्रकटनं तत्राह --- तन्मे सत्यं सकलमुदितं निश्चिनु स्वार्थसिद्ध्यै, स्निग्वां वृत्ति मनसि घटयन् येन साध्यानुविद्धम् ।
वाचाल मा न खलु सुभगं मन्यभावः करोति, प्रत्यक्षं ते निखिलमचिराद् भ्रातरुक्तं मया यत् ॥५५॥
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पादभ्युदय
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तति । भ्रतः भो महोदर । यत् यस्मात् कारणात् मया यक्षेण उनसे कथितम् । निखिलम् । अचिरात् क्षिप्रक्षेत्र । प्रत्यक्षं दृष्टिविषयम् । भविष्य निशेषाः सुभमन्यभावः सुभगमात्मानं मन्यते इति सुभगं मन्यः । 'ऋतु स्वः' इति द्रश्यः । खित्यय' इत्यादिना मम् । तस्य भावः तथोक्तः । सुन्दरमानित्वम् । साध्यानुषिद्धम् साध्यानुस्यूतम् । मां क्षम् । वाचालं बहुभाषिणम् । 'बागालापी' इत्पालस्यः । 'स्याज्जल्पाकस्तु वाचालो बाचाटो बहु वाकू' इत्यमरः । न करोति खलु न विदधाति हि । वृषासौन्दर्याभिमानाः प्रलापिनं न करोतीत्यर्थः । तस्माद्धं ताः स्वायंसिदृष्य स्वार्थस्य दिव्य भोगानुभवस्य सिदृष्य साधनाय । मनसि चित्तं स्निग्धां विश्वस्ताम् । भूति वर्त्तनाम् । घटयन् रचयन् । मे मम सफलमुदितं समस्तं वचनम् । 'उक्तं भाषितमुदितम्' इत्यमरः । मध्यम् । निश्चिनु निश्विनुयाः ॥५५॥
अन्वय---[हे] भ्रातः यत् साध्यानुविद्धं निखिलं मया ते प्रत्यक्ष स्वार्थसिद्धये अचिरात् उक्तं तत् में सकल उदितं मनसि स्तिषां पूर्ति घटयम् सत्यं निविध येन सुभगम्यन्यभावः मां वाचालं न करोति ।
अर्थ- हे भाई! जो साध्य से ओतप्रोत सम्पूर्ण मेरे ( मुझ यक्ष के ) द्वारा तुम्हारे समक्ष अपने इष्ट प्रयोजन ( दिव्य भोगों के अनुभव ) की सिद्धि के लिए अभी-अभी कहा है उस मेरे समस्त कथन को मन में स्नेहमयी प्रवृत्ति रचते हुए सत्य का निश्चय करो; जिससे कि निश्चित रूप से अपने को सौभाग्यशाली मानने का भाव मुझे वाचाल नहीं बनाता है। अर्थात् मैं महान हैं, ऐसा भाव मुझे वाचाल ( अधिक बोलने वाला ) बनने से रोक रहा है। अधिक बोलने से मेरे माहात्म्य की हानि संभव है । भूमः प्रीत्ये भवतु सुदती सा मदाज्ञाकृतस्ते, स्निग्धं चक्षुस्त्वयि निबधतो दृष्टमा पुरा यत् ।
दद्वापाङ्गप्रसरमलकै रज्जम स्नेहाभ्यं,
प्रत्यादेशादपि च मधुनो विस्मृत भ्रूविलासम् ॥ २६ ॥
भूय इति । यत् यस्मात् पुरा पूर्वम् । वृष्टमात्रे आलोकितमात्रे । स्वयि भवति । अलकेचूर्णकुन्तलः । वामाङ्गप्रसर रुद्धाङ्गो प्रमरो विस्तारी मह सः तथोक्तम् | अध्जनस्नेहशून्यम् अञ्जनस्य स्नेहः स्निग्धत्यम् तेन शून्य किलम् । अपि च किञ्च । मधून वृष्य रमस्य । प्रत्यादेशात् प्रतिषेधात् । " प्रत्मादेशो निराकृतिः" इत्यमरः । विस्मृतभूविलासं विस्मृतो मोविलासो येन तथोक्तम् । स्निग्धं स्नेहयुतम् । चक्षुः नयनम् । निवती निक्षिपन्ती । सा सुमती शोभनादन्ता यस्याः सा सुदती "वयति दन्तस्य दत्" इति पत्रादेशः । माताकृतः मदाशां
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तृतीय सर्ग
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करोतीति मदाज्ञाकृत् तस्य सन्देशहरस्येत्यर्थः । ते तव भूयः पुनः । प्रीत्ये -सन्तोषाय । भवतु अस्तु इत्याशीः ॥५६॥
अन्वय-स्वयि दृष्टिमात्रे पुरा यत् अलकः घापाङ्गप्रसरं, अञ्जनस्नेहशून्यं अपि च, मधुनः प्रत्यादेशात् विस्मृत विकास [तत् स्निग्बं] चक्षुः निदधती सा सुदती मदाशाकृतः ते भूयः प्रीत्यं भवतु ।
अर्थ - मरुभूति के जीव को धारण करने वाले तुम पार्श्व को देखने मात्र से ही पहले जिसका चूर्ण कुन्तलों से कटाक्ष व्यापार रुक गया है, अजन की स्निग्धता से शून्य मद्य का त्याग करने के कारण विलास को भूलने वाला ऐसे प्रेम से युक्त नेत्र की निश्चल करती हुई वह सुन्दर दाँतों को धारण करने वाली किन्नरी ( सन्देश ले जाने रूप ) मेरी आज्ञा को (पुरी) करने वाले तुम्हारे पुनः प्रेम था आनन्द के लिए होवे ।
मत्प्रामाण्यावसुनिरसने निश्चितात्मा त्वमेना, भोक्तुं याया धनदनगरों तत्प्रमाणाय सज्जे । श्वस्यासन्ने नयनमुपरिपन्थि शङ्के मृगाक्ष्या, मनक्षोभाचल कुवलीला मेध्यतीति ॥५७॥
इत्यमोघवर्ष परमेश्वर परमगुरु श्री जिनसेनाचार्यविरचिते मेघदूतवेष्टितवेष्टिते श्रीपादभ्युदये शठकमठकृत भगवदुपसर्गवर्णनं नाम तृतीयः सर्गः ॥ ३ ॥
मप्रामाण्यादिति । श्रप्रामाण्यात् अहमेव प्रामाण्यं तस्मात् मद्वचन प्राधान्या दित्यर्थः । असुमिरने प्राणनिराकृतौ । “पुंसि भून्यसवः प्राणाः " । " प्रत्याख्यानं निरसनम्" इत्युभयत्राप्यमरः । निश्चितात्मा निर्णीतस्वरूपः । एवं भवान् । एन प्रियाम् । भोष अनुभवनाय । धनवनगरौं अलकापुरीम् । यायाः गच्छेः । स्वय भवति । तत्प्रमाणातस्य वचनस्य निश्वयनिमित्तम् । सम्मे मन्नद । "सघ्रद्धो वर्मितः सज्जः” इत्यमरः । आसन्ने समीपगते सति । स्वकुशलवार्तामिति सतीतिशेषः । उपरिस्पदि उपरि ऊर्ध्वभागे स्पन्दते स्फुरतीत्युपरिस्पन्दि तथा च निमित्त निधाने । "स्पन्दान्मूनि च्छत्रलाभः" सातिपदुशुभं भूयिष्ठ प्राप्तिः । दृशोरूर्ध्वमपाङ्गे हानिमादिशेत् इति । मृगाक्षाः एणलोचनायाः । नयनं लोचनम् । वामनिति शेषः । वामभागश्च नारीणां श्रेष्ठः पुंसश्च दक्षिणः । दाने देवादिपूजायां -स्पन्देऽलङ्करणेऽपि च" इति वामभाग प्रशंसनात् । मीनक्षोभात् शफराघट्ट नात् । चलकुवलयश्रीलांचलस्य कुत्रलयस्ये श्रिया शोभया तुलां सादृश्यम् । एव्यति गमिष्यत्येव शङ्ख शङ्खमामि । तुलार्थो हि तुलो पमानाभ्यामित्यत्र सहापर्य्यायस्यैव - सुलावञ्चस्य प्रतिषेधात् । असादृश्यवावित्वात्तद्योगेऽपि तृतीयासमासः ॥ ५७ ॥
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२८२
पाश्वभ्युदय
इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरु
श्री जिनसेनाचार्यविरचिते मेघदूतवेष्टित
वेष्टितं पादभ्युदयें तद्व्याख्यायां च सुबोधिकाख्याया शठकम कृतभगवदुपसर्ग नाम तृतीयः सर्गः 11३||
अवध-असुनिरसने निश्चितात्मा त्वं एनां भोक्तुं मत्प्रामाण्यात् घमदनगरीयायाः तत्प्रमाणाय सज्जे त्वयि आसन्ने [ सति ] मृगाक्ष्याः उपरिस्पन्दनयनं मीनक्षोभात् चलकुवलयतुलां एष्यति इति शङ्क ।
अर्थ - अपने प्राणों का वियोग करने का निश्चय किए हुए तुम इस किन्नर कन्या का भोग करने के लिए मेरे वचनों को प्रमाण मानकर कुबेर की नगरी अलका को जाओ। मेरे बचनों की सत्यता का निर्णय करने के लिए तैयार तुमको समीप में पाकर मृगनयनी का ऊपर की ओर फड़कता हुआ नेत्र मछलियों के द्वारा किए गए क्षोभ के कारण चंचल नीलकमल की शोभा की समानता प्राप्त कर लेगा, में ऐसी सम्भावना करता हूँ ।
इति तृतीयः सर्गः
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अथ चतुर्थः सनः
इतः पादवेष्टितानि
संदिष्टं च प्रणयमधुरं कान्तया मे द्वितीयैः, प्राणः प्राणा नवनववरः सन्निति त्वां प्रसीदम् । तत्कर्तुं स्व त्वरय लघु नः किं किमेवं न कुर्या, वामश्चास्याः करवपदैमुच्यमानो मदीयैः ।।१।।
संदिष्टमिति ! ये मम । विसीयैः द्वयोः पूरणः । प्राणः असुभिः नियतलिङ्गत्वात्प्राणभूतयेत्यर्थः । कान्तया च प्रिययापि । प्राणाः अगवः । प्राणा इति सर्वत्र पुस्त्वं बहुत्वं प्राणभूत इत्यर्थः । नवनववरः अभिनवप्रियः । बीमायां द्विः । सम्मिति सत्पुरुष इति । त्वां प्रति । एवम् एतन् । प्रणयामधुरं प्रीतिसुभगं यथा नया | संविष्ट संदिश्यते स्म संदिष्टं भाषितम् । न केवलमहमंच प्रवीमि कान्तयापि इवं संदिष्टमिति भावः । तत् कार्यम् । कतु विधातुम् । स्यम् आत्मानम् । लघुनः शीघ्रात् । "लघुक्षिप्रमरे द्रुतम्' इत्यमरः । इति नपुंसकत्वात् । पञ्चम्येकवचनरूपमिदम् । स्वरय सम्भ्रमय । मदीय : मत्सम्बद्धः। कररहपर्वः नखपदैः । "पुनर्भवः कररुहा नखोऽस्त्री नखरोऽस्त्रियाम्' पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्मानिवस्नुषु" इत्पुभयबा यमरः । मुच्यमानः परिहिपमाणः युद्धे अध्यापन्नः इत्यर्थः । मस्याः प्रियामाः । वामाच मनोहरोपि सन् । "यामो वनं मनोहरे" इति धनञ्जयः । तामपि प्राप्येत्यर्थः । एवम् उक्तरीत्या । कि किन कुर्या: कि कि कार्य न कुर्वीथाः । सर्वं कुर्या एवेति यावत् ।।१।।
अन्वय-में द्वितीयः प्राणः कान्तया (त्वं अस्याः ) प्राणाः नवनववरः मन् इति त्वां प्रति इदं प्रणयमधुरं मन्दिष्टं । तत् कतु" स्वं त्वरय । मदीयैः कररुहपदः मुच्यमानः बामः [ त्वं ] नः अस्याः किं किं एवं लघु न कुर्याः । ___ अर्थ-मेरे दूसरे प्राणों के तुल्य कान्ता के द्वारा [ तुम इस बसुन्धरा के जीव को धारण करने वालो किन्नरी के ] प्राण [के रूप में माने गये ] हो, तुम्हें नई-नई वस्तु प्रिय है तथा तुम सज्जन हो, अतः तुम्हें यह प्रणय से युक्त होने के कारण मधुर सन्देश कहा गया था। उसे तुम करने की शोचता करो। मेरे नख पदों से शारीर से रहित किए गए अथवा तलवार के द्वारा किए गए घावों के द्वारा शरीर से पृथक् किये गये मेघ का शरीर धारण किये हुए मरुभूति के जीव तुम हमारा हमारी सम्बन्धी इसका
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पार्वाभ्युदय ( वसुन्धरावरौ का ! क्या-क्या कार्य उक्त प्रकार से शीघ्र नहीं करोगे अर्थात् सभी कार्य अवश्य ही करोगे । एताव जल्पमानो प ध्यानकतानं योगिनं प्रति पुनारटति--
भो भो भिक्षो मयि सहरुषि क्व प्रयास्यस्यवश्यं, त्वामुखेतिप्रणिपतनकैः सारयिष्ये तदनम् । न प्राणान्स्वान्धयितुमल सापको निर्णयो मा, मुक्ताजालं चिरपरिचितं त्याअितो देवगत्या ॥२॥
भो भो इति । भो भो: भिक्षो हैं यते । “भाभीक्ष्ण्ये' इति द्विः। मयि यक्षे। सहषि रोषस हिते सति । "धान्यार्थ" इति विकल्पेन सहस्य सभावः । क्व कुत्र । प्रयास्यसि एण्यसि । त्वां भवन्तम् । उखेतिप्रणिपतनके: उद्गतखड्गपातनः । तदनम् खड्गाग्रम् । अवश्यं निश्चयेन । सारमिष्पे यापयिष्यामि | चिरपरिचित चिराभ्यस्तम् । मुमताजालं मौनिकभूषणम् । देवगत्या देबवशेन । त्याजितः । त्वजधातोयन्तात्कर्मणि कः । परिहारितः । तावकः तब सम्बन्धी । युष्मदस्मदे अम् तबकादेशश्च । निर्णयो का निश्चयो वा । अहं मुक्काजालादिविभूषण रहित इत्यर्थः । स्थान् निजान् । प्राणान् असून् । घटयितु सम्बन्धयितुम् । नालं न शक्तः ॥२॥
अन्वय-भो भो भिक्षो मयि सहरुषि [ सति ] क्व प्रयास्यसि सद्धेनि प्रणिपतनक: तदम्र त्वा अवर्य सारयिष्ये । चिरपरिचित मुक्ताजाल देवगत्या श्याजितः तावकः निर्णयः स्थान प्राणान् घटयितुं न वा अलम् ।
अर्थ-हे भिक्षु ! मेरे साथ कोप होने पर कहाँ जाओगे? उठाये हुए शस्त्र के प्रहारों से उन शस्त्रों के अग्रभाग को तुम्हारे पास अवश्य भेजूंगा अर्थात् सुम्हारे अन्दर शस्त्रों का प्रवेश अवश्य ही कराऊँगा। चिरपरिचित मोतियों से रचे गये आभूषण को भाग्य की अवस्था विशेष से त्यागने का तुम्हारा निर्णय (तुम्हारे) अपने प्राणों को शरीर में एक जगह स्थापित करने में समर्थ नहीं है।
व्याख्या हे भिक्षु ! मेरे ऋद्ध होने पर तुम कहाँ जाओगे ? मैं तुम्हें अपनी तलवार की नोंक का शिकार अवश्य बनाऊँगा । चिरकाल से अभ्यस्त मौक्तिक आभूषणों को देववश छोड़ देने का तुम्हारा निर्णय भी तुम्हारे प्राणों को बनाए नहीं रख सकता।
कि ते वैरिद्विरदनघटाकुम्भसम्भेदनेषु, प्राप्तस्थेमा समरविजयी वीरलक्षम्याः करोऽयम् ।
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चतुर्थ सर्ग
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नास्मल्खड्गः श्रुतिपथमगावक्तपानोत्सवाना,
सम्भोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहनानाम् ॥३॥ किमिति । वरिति रखनघटाकुम्भसम्भेदनेषु रिंगजानां समूहस्य कुम्भ स्थलविदारणेषु । प्राप्ताथेमा रुघस्थिरभावः । “वर्ण टाटिम्यष्ट्याण बाण च” इति भावे इ मन । "प्रियस्थिर" इत्यादिना स्थादशः । साबिजयी विनाशीलः । 'अस्त्रियां समरानीकरणाः” इत्यमरः । सम्भोगान्त अनुभवनावमाने । मम यक्षस्य । हस्तसंवाहनानां करमर्दनानां । ''संशाहनं मर्दनं स्यात्'' इत्यमरः । समुचितः सुयोग्यः। वीरस्वतम्या कर: जयलक्ष्मीहस्तभृतः । अयमस्मःखहंगा एषोऽस्मत्करवाल: । से तुव । श्रुतिपर्थ श्रुतिरन्ध्रम् । नागास्किम नायामीस्किम् । तन्महिमानं नाऽशृणोः क्रिमिति प्रश्नः ||३|| ___ अन्धय--वैरिद्विरदनघटाकुम्भमम्भेदनेष प्राप्तस्थेमा, ममरविजयी वीरलक्ष्म्याः करः, रक्तपानोत्सवानां सम्भोगान्ने गम हस्त संवाहनानां गचितः अयं अस्मल्खड्गा- ते श्रुतिगथं न अगात किम् । ___ अर्थ-वैरियों के हामित्रों के गण्डस्थलों के भेदने में स्थिरता को प्राप्त, युद्ध विजयी, वीर लक्ष्मी के हाथ रूप, रक्तार के इच्छुक लोगों के शरीर का नारा होने पर ( मरने पर ) मेरे हाथों म मर्दन के योग्य यह मेरी तलवार क्या तुम्हारे कर्णपथ में नहीं आई अर्थात् उपर्युक्त गुणों से युक्त मेरी तलवार के विषय में क्या तुमने नहीं सुना।
भावार्थ-हे भिक्षो ! वैरियों के हाथियों के कुम्भस्थल को विदीर्ण करने में अभ्यस्त, समरविजयी, युद्धकार्य करने के उपरान्त मेरे हाथों द्वारा संवहन करने योग्य तथा वीर लक्ष्मी की बाहुस्वरूप इस खड्ग का तुमने नाम नहीं सुना है ?
अस्युद्गीर्णे मयि सुरभटास्तेऽपि बिभ्यत्यसभ्यः, कस्त्वं स्थातुं भण मम पुरः किं न जिहषि भिक्षो। भावत्कोऽयं मसिवितताखणजनात्तत्पुरस्ताचास्यत्यूरः सररुकवलीस्तम्भगौरश्चलत्वम् ॥ ४ ॥ अस्युद्गीर्ण इति । मयि यो । अस्यद्गीणे उद्गीर्णः निकोशीकृतः उद्गीर्णोऽसिर्यस्य येन सोस्युद्गीणस्तस्मिन् । "प्रहरणात्मप्तमी” इति विकल्पित पूर्व निपातः । अस्यद्गीर्णः उद्गीर्णासिरित्यपि भवतीत्यर्थः । खड्गे मयि नीते सति । ते सुरभटा अपि प्रसिद्धा- देश्योधाश्च । बिभ्यति भयस्था भवन्ति । असम्मः सभायामसाधुः मभाभीरित्यर्थः । मम पुरः ममाग्रे । स्थातुं स्थानाय । कः किया
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पाचभ्युिदय नित्यर्थः । स्वं भवान् । भण भूहि । भिक्षो भो मुमुक्षो। "भिक्षुः परित्राट्" इत्यमरः । किन जिल्लषि लज्जा किन चेपमि । "ह्री लज्जायो" सन्नन्ताल्लट् । मवसिविततरखण्डमात् मम खड्गविस्तृतानि धारणात् । सरसकवलोस्तंभगौरः परिपक्वो न शुकश्च म विवक्षितः तव पाण्टिममद्भावात् स चासो कदली . स्तम्भश्च स इन गौरः । "गौरः शरीरे सिद्धार्थे शुक्लपोते सिनेरुणे" इति मालायाम् । भावस्कः भवदीयः । “भवतष्ठपछसि" इति ठण् । "दोसिसुस्' इत्यादिना कादेशः । अरु: । "सक्थि क्लीवे पुमानुरुः" इत्यमरः । तत्पुरस्तात् तस्य खड्गस्य पुरस्तात् अग्रतः । बलरवं कम्पनम् । यास्पति एष्यति ।। ४ ।।
अन्वय-अस्पुद्गीणे मयि ते सुरभटाः अपि बिभ्यतिः असभ्यः कः भिक्षो ! भण. मम पुरः स्थातुं त्वं न जिह्वेसि किम् ? मद सिविताखण्डनात् अयं सरमकदलीस्तम्भगौरः भावत्कः ऊरः तत्पुरस्तात् चलत्वं यास्यसि ।
अर्थ-मेरो तलवार के द्वारा किए गए विदोरण से वे देवयोद्धा भी भयभीत होते हैं, निर्वीर्यों की तो बात ही क्या है ? हे भिक्षु | कहो मेरे . सामने ठहरने पर क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती है ? मेरी तलवार के द्वारा किए जाने वाले खण्डन से यह रस से आई केले के स्तम्भ के समान सफेद तुम्हारी तलवार के आगे कम्पन को प्राप्त होगो या फड़क उठेगी।
यस्मिन्पुंसा परिभवकलङ्कानं स्याद्विपक्षाद्वीरालापे सति मदवतो वीरगोष्ठीसु वक्रम् । विद्वन्मन्यो भणतु स भवानेव मानोन्नताना, तस्मिन्काले जलव यदि सा लम्पनिद्रासुला स्यात् ॥ ५ ॥
यस्मिन्निति । जलद भी मेघ । यस्मिन् पस्मिन्काले । पौरगोष्ठीषु शूरगोष्ठीषु । वीरालापे सति वीरकथाभाषणे मति । 'स्यादाभाषणमालापः" इत्यमरः । मववतः गर्वयुतार । विपक्षात् प्रतिपक्षजनात् । स पुरुषाणाम् । यकत्रे मुखम् । परिभवकलवान तिरस्कारकलङ्ग चिह्नम् । स्याद्भवेत् । तस्मिन्काले तदवसारे । सा लनिद्रा लब्धा निद्रा ययेति बहुव्रीहिः । प्राप्त स्वापां । असुखा अहिता। यदि स्यात् भवेच्चत्तहि । मानोन्नतानां मानेन अभिमानेन उन्नतानां उत्कृष्टानाम् । 'मानश्चित समुन्नतिः' इत्यमरः । मध्ये इति शेषः । विन्मायः विद्वांसमात्मानं मन्यते इति तथोक्तः । स भवानेव त्वमेव । भणतु बृहीत्यर्थः । भवच्छन्दप्रयोगे प्रथमपुरुषः ।
अन्वय-- यस्मिन् बीरगोष्ठीषु वीरालापे सति मदवतः बिपक्षात पंसां वक्त्रं परिभयकलसानं स्थान तस्मिन् काले जलद । विदुन्मन्य: भवान एव भणतु पदि मानोन्नताना सा लब्धनिता सुखा स्यात् ।
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चतुर्थ सर्ग
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अर्थ - जिस समय बोर गोष्ठियों में वीर विषयक कथायें होने पर मदयुक्त शत्रु से पुरुषों का मुख तिरस्कार के कल से चिह्नित हो उस समय हे मेघ ! अपने आपको विद्वान् मानने वाले आप ही कहिए, यदि अभिनान से उन्नत वित्त वाले ( घमण्डी ) लोगों की वह बीर लक्ष्मी निद्रासुख को प्राप्त हो। [ तो इसमें क्या आश्चर्य है ] ।
भावार्थ -- जो बीर वार्तालाप में तिरस्कृत हो जाय उसे युद्ध करके अपनी साम दिलाना चहिए। मैंने की है। मेरे साथ युद्ध करने के लिए तुम्हें तैयार हो जाना चाहिए ।
या से बुद्धिमंदुपचरिताद्विभ्यती लुप्तसज्ञा, मूकावस्था त्वयि विदधती रुन्धती सत्त्ववृत्तिम् । सावष्टम्भं भव भटतरो वार्धयुद्धेस्थिरः स अन्यास्यैनां नितत्रिमुखो याममा सहस्व ॥ ६ ॥
येति । ते तव । या बुद्धिः यज्ज्ञानम् मदुपचरितात् ममेववरणात् । कर्तरिक्तः । बिभ्यती भयमाप्नुवन्ती । लुप्तसमा नष्टचैतन्या । "सञ्जा स्याच्चेतना नाम हस्ताद्यैश्चार्य सूचने" त्यमरः । त्वयि भवति । मुकावस्थाम् अत्राददम् । "अवाचि मूकः" इत्यमरः । विषती विदधातीति तथोक्ता । शतृत्यः । "नुदुक्" इति ङी । सत्ववृति बलवद्वर्सनम् । रुन्धती आवारयन्ती । स्यादितिशेषः । एन बुद्धिम् । स्तनित विमुखः गर्जितपराङ्मुख सन् भयादकूजन्निति ध्वन्यते । याममा प्रहरमात्रम् | " यामप्रहरी सम" इत्यमरः । सहस्व क्षमस्व । प्रार्थनायां लोट् । याममात्रादेव युद्धपूर्तिर्भविष्यतीति भावः । अवा असा वा । स्थिरः सन् दृढो भवन् । ष्टम् अवष्टम्भेन सहवर्तनं यस्मिन्कर्मणि तत् । अन्धास्य स्थित्वा । भटतरः प्रकृष्टभेटः । भव रणभीरुर्माभूरित्यर्थः ॥ ६ ॥
अन्वय- मदुपचरितात् विभ्यती, लुप्तरांज्ञा त्वयि मूकायस्थां विदधती, सत्त्ववृत्ति रुवती या ते बुद्धि [ तां ] एनां सावष्टम्भ अन्वास्य स्तनितविमुखः अर्धशुद्ध स्थिरः सन् भटतरः भव, वा याममात्रं सहस्त्र |
अर्थ- तुम्हारे समीप में मेरे आने से डरती हुई, नष्ट चेतना, तुम्हारी मौनावस्था को करती हुई प्राणों के व्यापार को रोकती हुई जो तुम्हारी बुद्धि है उस बुद्धि को धैर्य से त्यागकर गर्जना को छोड़कर संग्राम के मध्यवर्ती काल में निश्चल होते हुए उत्कृष्ट वीर होओ अथवा एक प्रहर - तक प्रतीक्षा करो।
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पाश्र्वाभ्युदय मा भूड्रोतिस्तक सुरभटत्रासिगोजितेऽसि, प्राप्ते योद्धुमयि किमभियाने मृति:रलक्ष्म्याः । वीरंमन्ये स्वयि मयि तथाऽन्यत्र वा प्रेमभङ्गो, मा भूवस्याः प्रणयिनिजने स्वप्नलब्ध कथञ्चित् ॥७॥ मा भूदिति । सुरभटत्रासिंगोंग्जिते देवभटानां भीतिकरगर्जनेन जिते बलिठं मयि । योवर्ष ग्रोवनाय । असिप्राप्से प्राप्तोऽमिः मेन मोऽमिप्राप्तस्तस्मिन् । अत्रापि वा पूर्वनिपातः । म निधान महिमा गमम् । मगर मा स्म जनि । बोरलक्ष्याः जयश्चियः । अभियाने अभिगमने राति । मतिः मरणम् किम् । मरणं सम्भवतीत्यर्थः । वोरंमन्ये वीरमात्मानं मन्यते तस्मिन् स्वयि मेघे | मयि यक्ष तथा । अन्यत्र वा पुरुषान्तर वा। कथञ्चित् कृच्छ्रेण | स्वप्नालले स्वप्नप्राप्ते । प्रणयिनि प्रेमवनि । जने लोके । अस्था: वीरलक्ष्म्याः । प्रेमभङ्गः प्रीतिभञ्जनम् । मा भूत् । 'माङि लुङ" इति माङ योगे लुङ् ॥७||
अन्वय–सुरभटत्रासिंगोजिते मयि योद्धम् असिप्राप्ते तव भीतिः मा भूत । अभियाने वीरलक्ष्म्याः मृतिः किम् । वीरम्मन्ये दति तथा मयि अन्यत्र वा प्रणयिनि जने स्वप्नलचे अस्या प्रेमभष्टग कश्चित् मा भूत् ।
अर्थ- देव योद्धाओं को डराने वाली गर्जनाओं के दल से युक्त मेरे युद्ध करने के लिए तलवार ले लेने पर तुम्हें भय न हो । आक्रमण के समय क्या वीरलक्ष्मी की मृत्यु होती है ? अपने आपको वीर मानने वाले तुम्हारे तथा मेरे अथवा अन्य किसी प्रेमी व्यक्ति के स्वप्न में आ जाने पर वीरलक्ष्मी को प्रीति का विनाश किसी भी प्रकार न हो ।
निस्सशस्त्वं नहि भुवि भयस्याङ्गमनाङ्ग सनात, किं वा जीवन्मतक भवतोऽप्यस्ति भीरक्ष नानाम् । कृत्वा युद्ध विवधति मति नन्विमे योधमुख्याः, सद्यः कच्छच्युतभुजलतानन्धि गाढोपगृहम् ॥८॥ निस्मङ्ग इति ! जीवन्मन्यत इति जीवन्मतः अज्ञातो जीवन्मतो जीवन्मतकः तत्सम्बोधन हे अस्पस्टचैतन्य । "कुत्सिताल्पा ज्ञातें" इति कपप्रत्यमः । स्वं भवान् । मिस्सनः संसर्गरहितः । भुषि भूमौ । भयस्य भीनेः । अङ्गम् अवयवः । महिन भवसि । महासङ्गात् परस्सराङ गसंसगति । भीः भीतिः । बङ्गनानां स्त्रीणाम् । अस्ति विद्यने । भवतोऽपि तघाऽपि । अस्ति किं वा विद्यते किमु । यतत्स्त्रीणां सङ्गभीनिर्भवति तवत् । इमे प्रत्यक्षभूताः । योषमुष्पाः भटापण्यः । "भटा योधाश्च योद्धारः" इत्यमरः । युधे पायोधने । मसि बुद्धिम् । हुवा विधाय ।
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चतुर्थ सर्ग
सद्यः तदेव | कठयुतभुजलताग्रन्थि कण्ठाच्युतः स्रस्तो भुजलतयोग्रन्थिमन्त्री यस्य तथोक्तम् । गोपगूढं गाढालिङ्गनम् । “नपुंसके भावे क्तः ।" नमु निश्चयेन
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कुर्वन्ति ||८||
अन्वय - अङ्ग ! त्यं निमङ्गः । भुवि (ते ) भयस्य अगं न हि । वा जीवरमतक! अगनानां अङगसङ्गात् भवतः अपि भीः अस्ति किम् ? इमे योधमुख्याः युद्ध मति कृत्वा कष्ठच्युतभुजलताग्रन्थि गाढ़ोपगृहं सचः ननु विदति ।
अर्थ - अच्छा श्रीमान् जी तुम आसक्ति रहित हो । पृथ्वी में तुम्हारे भय का उपाय नहीं है । अथवा हे प्राणियों के द्वारा आदर को प्राप्त ! स्त्रियों के शरीर स्पर्श से भी क्या तुम्हें भय है ? ये श्रेष्ठवीर युद्ध में विजय प्राप्त करने का निर्णय कर अपनी प्रियाओं के ) कण्ठ में बाहु लता के बन्धन से युक्त श्रम हो रहे हैं।
भावार्थ - युद्ध करने का निश्चय करने वाले श्रेष्ठ योद्धा युद्ध में मरणभय को छोड़कर भी स्त्रियों के आलिंगनादि से युक्त मानसिक भाव रूपी तरंगों में आसक्त रहते हैं। हे पार्श्व ! यदि आप मृत्यु को प्राप्त करते हैं तो मरणोत्तरकाल में सुन्दर स्त्रियों के आलिंगन की प्राप्ति अवश्य होगी, अतः मरणभय का परिहार हो गया। यदि आप ऐसा नहीं करते है तो निरासक्त होने पर भी आपको अङ्गनाओं के अद्धों के प्रति आसक्ति का भय है, इस प्रकार का दोष प्राप्त होगा। अतः आपको अवश्य ही युद्ध के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
लक्ष्मों क्षीणां स्वयपुषि सतोमुद्यमाख्येन दोषा, प्रोत्थाप्यालं भव युधि सतामाश्रितानुग्रहोर्थः । शंसन्तीव ननु नवधना धर्मसप्तशतां क्ष्मां प्रोस्थानां स्वजलकणिकाशीस लेनानिलेन ॥ ॥
लक्ष्मीमिति । स्वपुषि स्वशरीरे । सतौं विद्यमानां साध्वीं वा । कीगां कृशाम् । तां लक्ष्मीं श्रियम् । उद्यमाध्येत उद्यम एव आख्या यस्य तेन प्रयत्लायेन । बोबा भुजेन । "भुजबाहू प्रवेष्टो दो" इत्यमरः । प्रत्याप्य प्रबोध्य । पुधि युद्ध | "समित्या जिसमिवः" इत्यमरः । अलं समर्थः । भव तथाहि । सतां सत्पुरुषाणाम् । आश्रितामुग्रहः आश्रितजनरक्षणम् | अर्थः प्रयोजनम् । स्यादिति शेषः । " अथोभिधेयरैवस्तु प्रयोजननिवृत्तिषु" इत्यमरः । नवघनाः नवीन मेघाः । धर्मततक्ष धर्मेण तप्ता सा चासौ क्षता च ताम् । एन क्ष्मां तां भूमिम् । “धमाव निर्मेदिनी मही" इत्यमरः । स्वकणिकाशीसलेन स्वजलबिन्दु
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पाश्र्धाभ्युदय शीतलेन । अमिलेन वायुना । प्रोस्थाप्य आलाद्य । वं मयुक्त कार्यम् । मनु स्फुटम् | शंसन्ति सूचयन्ति ।
अन्वय- स्ववपृथि सती क्षीणां लक्ष्मी उद्यमाख्येन दोषा प्रोत्थाप्य युधि अल भष । नवधनाः धर्मतप्तक्षतां एनां मां स्वजलकणिका शीतलेन अनिलेन प्रोत्थाप्य 'आश्रितानुग्रहः सता अर्थः । [ इति ] इदं ननु शंसन्ति ।
अर्थ-अपने शरीर में विद्यमान अथवा समीचीन क्षीण लक्ष्मी को उद्यम नामक बाह से जगाकर युद्ध में समर्थ होओ। नए मेघ घाम से तपने के कारण सन्त्रस्त इस पृथ्वी को अपने जलकणों से शीतल वायु के द्वारा आनन्दित कर "आश्रित व्यक्तियों पर अनुग्रह करना सम्जनों का कर्तव्य है" यही सूचित करते हैं।
कोति च स्वां कुरु कुसमिता स्त्रोद्यमाम्बुप्रसेकेः, सहल्लों वा प्रधनविषयैरुन्नतानां क्रमोऽयम् । कुर्यात्किन्लो नवजलमुखां कुं क्षतान्तामनेहा, प्रत्याश्वस्तां सममभिनवैलिकर्मालतीनाम् ॥१०॥ कोतिमिति । प्रपनविषयः मप्रामविषयः । “युद्धमायोधन जन्यं प्रधन प्रविदारणाम" अत्यमरः । स्वोधमाम्बुप्रसेके: स्वप्रयत्नजलसेचनैः । स्वां निजाम् । कीसि मशः । सल्ली वा सल्लतामिव । कुसुमिता कुसुमानि सञ्जातानि अस्यामिति कुलुमिता साम् । 'सञ्जातं तारकादिभ्यः" इतीतत्यः । कुछ विहि । अयम् एषः । उन्नतानो महताम् । कामः परिपाटी । स्यादिप्ति शेषः । नमजलमुखां नूतननीरदानाम् । अनेहा कालः । 'कालो दिष्टोप्यनेहाऽपि" इत्यमरः । ससाता शान्तस्वभाषाम् । 'अन्तोऽस्त्री निश्चये नाशे स्वरूपेऽग्नसरेऽस्तिके" इति वैजयन्ती । कु. भुवम् । आमा धरित्री क्षितिएच कुः" इति धनञ्जयः । मालतोमा जातीनाम् । "सुमना मालती जातिः" इत्यमरः । अभिनवे प्रत्यक्षः। 'प्रत्यग्रोऽभिनवो नत्यः'' इत्यमरः । मालक: मुकुल: । 'क्षारको जालझं क्लोधे कलिका कोरकः पुमान्' इत्यमरः । सार्क समम् । प्रत्यारवस्तो स्वशिरानिलमम्पत्पुनरुज्जीविताम् । वसेः करितः । ननु निश्चयेन । आपसे धरति । फुत्कि नो इति वा पाठः । कि न करोति ॥१०॥
अन्वय-स्वा कौति च सद्रल्ली वा प्रबनविपः स्याबमा बुनमेकैः कुसुमित कुरु उन्नतानां नमः । नत्रजलमयां अनेहा क्षतान्तों के मालतीनां अभिनवैः जाल: समें प्रत्याश्वस्तां नो कुर्यात् किम् ?
अर्थ-अपनी कोति को सभीवोन ला के समान युव सम्बन्धो असे
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चतुर्थ सर्ग
२९१ प्रयत्न रूपी जल से सींचकर पुष्पित करो। "यह ऊर्ध्वगामियों की परिपाटी है। नए मेघों का समय अर्थात् वर्षा ऋतु का प्रारम्भिक काल जिसका मनोहर रूप नष्ट हो गया है ऐसी पृथ्वी को चमेली की नवीन कलियों के साथ क्या पुनरुज्जीवित नहीं करता है ? मत्प्रातीयं समशिरसि प्राप्य दृष्टावधानः, क्षीणायुस्त्वं कुरु सुरवधू काञ्चिदापूर्णकामां । थामारोहन्सहज मणिभाभूषितोम्भोद याने. विद्युद्गर्भे स्तिमितनयनां त्वत्सनाये गवाक्षे ॥११॥ मत्प्रातीप्यमिति । समशिरसि सङ्ग्रामे । मध्यातीप्यं मम प्रतिकूल्यम् । प्राप्य लना । वृष्टावधानः आलोकितमाहसः । "अवधानं तु साहसम्" इति धनञ्जयः । स्वं क्षीणायुः क्षीणमायुर्यस्य स मृतः सन्नित्यर्थः । विद्युद्गर्भे विधुदेव गर्भोऽन्तःस्थो यस्य तस्मिन्नन्तर्लोन विद्युतीत्यर्थः । " गर्भोपवरकेऽन्तस्थे नौकुक्षिस्थार्भकोत्तमें" इति शब्दार्णवे । अम्भोदयाने जलवाहने । ह्यां दिवम् । "द्योदिनी द्वे स्त्रियामन्त्रम्" इत्यमरः । आरोहन् उद्गच्छन् । सहजमणिभाभूषित: सहजमणीनां भाभिः कान्तिभिः भूषितो मण्डितः सन् । स्वसनाचे त्वया सहिते " सानाकप्रभमित्याहुः सहिने चित्तवापिनि" इति शब्दार्थवे । गवाक्षे वातायने । स्तिमितनयनां कोमाविति विस्मितनेत्राम् । काचित् सुरवधूम् । काञ्चन देव स्त्रियम् । अपूर्णकाम सम्पूर्णाभिलाषाम् । कुरु विधेहि । वृणीष्वेत्यर्थः || ११||
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अन्वय-अम्भोद ! समशिरसि मत्प्रतीप्यं दृष्टावदानः क्षीणायुः यां आरोहन् सहजमपिभाभूषितः त्वं विद्युद्गर्भे याने त्वत्सनाये गवाक्षे स्तिमित्रनयनां काञ्चित् सुरवधूं पूर्णकामां कुरु ।
अर्थ - हे मेघ ! रण के अग्रभाग में मेरी प्रतिकूलता पाकर मेरी तलवार द्वारा किए जाने वाले खण्डन करने के कार्य का अनुभव कर (मेरा साहस देखकर) क्षीण आयु वाले अर्थात् मृत स्वर्गारोहण करते हुए, जन्म के समय में ही मणियों की आभा से भूषित तुम (पाव) बिजली है गर्भ में जिसके ऐसे विमान में तुम्हारे होने पर, खिड़की में निश्चल नेत्रों (को लगाने) बाली किसी देवाङ्गना को सब प्रकार से सफल इच्छा बाली करो |
यद्येतत्तेऽध्यवसतिसतिप्रौढमानोद्धुरस्य,
ध्यानाभ्यासं शिथिलय ततो योद्धुकामो निकामम् ।
१. दृष्टावदानः ॥
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पवयुदा अस्युत्खातः पटुतरगिरं प्रोज्मय वावंयमत्वं, वक्तुं धोरं स्तनितवचनो मानिनी प्रक्रमेथाः ॥१२॥ यदीति । अतिप्रौढमानोबुरस्य अतिचतुरेण मानेन प्रबृद्धस्य ते भक्तः । एतत् इदं वचः । यदि चेत् । अध्ययसितं निश्चिनं स्यात् । ततः तस्मात् । निकामं यथेष्टम् । घोबुकामः योधनाय योद्ध' कामयत इति तथोकः । ध्यानाभ्यास ध्यानपरिचयम् । शिथिलय शमनं कुरु | पानयमित्व मौनित्यम् । 'नाचं यमोब्रतो" इति खजन्तो निपातः । प्रोजस्य व्यत्सृज्य । अस्युत्त्रातः उत्स्वन्यते । स्म उत्खाता उदगीणाः उत्स्नातोऽमिर्यस्यासावस्युत्खातः । विकल्पितः पूर्वनिपातः । घोरस्तनितबचन धीरं स्सनिलमेव पचनं यस्य स तपोकः सन् । मानिनी मानोऽस्यास्तीति मानिनी तां गवंशालिनीम् । पटुतरगिरम् असिषटुवाचम् । पातु भापितुम् । प्रक्रमेषाः उपक्रमस्व । "प्रोपाभ्यां नमभ्याम्” इति त ।।१२।।
अवय-यदि असितौलमानोद्धरस्य ते एतत् अध्यबसिनं ततः निकाम यो - कामः अस्युत्खातः ध्यानाभ्यासं शिथिलय; पाचंयमत्वं प्रोज्य स्तनितवचनः मानिनी पटुतरगिरं धीरं वक्तं प्रक्रमेथाः । ___ अर्थ-यदि अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त मान से निर्भय तुम्हारा यह निश्चय है तो पर्याप्त युद्ध करने के इच्छुक (तुम) तलवार म्यान से बाहर निकालकर ध्यान शिथिल करो। मौन को छोड़कर गर्जना रूप वचन से युक्त (तुम) प्रणय के कारण कोप करने वाली स्त्रो से चतुर भाषण निर्भयता से आरम्भ करो।
भीते शस्त्र यदि भटमते वावहोम्यस्त्रशून्ये, स्त्रीमन्ये वा चरणपतिते क्षोणके वा स कश्चित् । पादस्पृष्टया शपथपति वा जातु हिंसा भुजिष्यं, भमित्र प्रियमभिवये विद्धि माम युवाहम् ॥१३॥ भोत इति । भटमर्स भट श्रेष्ठे । भीते जिभेति स्म भोतः तस्मिन् भयमाप्त । अस्त्रशून्ये शस्त्रहीने । "आयुधं तु प्रहरणं शस्त्रमस्त्रम्" इत्यमरः । स्त्रीमन्ये स्त्रियमात्मानं मन्यते तयोचस्तस्मिन् वा अयत्रा । चरणपतिते पादयोः पतिते । भोणके क्षीणकान्तः । धा अथवा । पावस्पृष्टधा पादस्पर्शेन | शपथयति प्रतिज्ञा कुर्वति । स कश्चित् कश्चिदहम् । जातु कदाचित् । वैश्यं करोनीत्यर्थः । वा अथवा 1 "कदाचिज्जातु इत्यमरः । यदि चेत् शास्त्रम् अस्य दाबहोमि भृशं यहामोनि तथोक्तः श्लगन्तः । तर्हि । हिंसां प्रागिहिसादोपम् । अभिवथे प्रवीमि । केवल जीवहिंसधन शूरत्वमिति अत्रः । मां यक्षम् । भत: राजराजस्म । अधाहम्
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चतुर्थ सर्ग
अम्बुवहतीत्यं दाहस्तम् कम्बुवानामानम् । भुजिष्यं भूत्यम् । "नियोज्यकिङ्किरप्रेष्यभुजिष्य परिचारकाः" इत्यमरः । प्रियं हितम् । मिश्र सचायम् । विशि जानीहि | अम्बुवाहा धनदानुचरोऽहम् । तत्रापि प्रियमित्र मिति निश्चिन्विति
भावः ॥ १३॥
अन्वय-भीते अस्त्रधून्ये भटमने स्त्रीम्मन्ये वा चरणपति, क्षीणके बा पादस्सृष्ट्या पापयति वा यदि जातु शस्त्रं स कश्चित् (अहं) वादहीमि भर्तुः त्रि मित्र मां हिंसा भुजिष्यं विद्धि इति अभिदधे ।
अर्थ - भय से व्याकुल, अस्त्रशून्य होते हुए भी योद्धा के रूप में माने गए अथवा अपने आपको स्त्री मानने वाले, चरणों में पड़े हुए, क्षीण तेज वाले अथवा पैरों को छूकर शपथ खाने वाले के प्रति यदि में कदाचित् क्षुद्र मैं शस्त्र को पुनः पुनः धारण करता हूं तो स्वामी (कुबेर) के प्यारे मेघाकार के धारण करने वाले मुझको हिंसा के दोष का भाजन जानो, मैं ऐसा कहता हूँ अर्थात् शस्त्र रहित मैं तुम्हारे ऊपर प्रहार नहीं करूँगा; क्योंकि मुझे हिंसा का दोष लगेगा, अतः तुम युद्ध के लिए तैयार हो जाओ ।
तन्मा मेषीवितगरिमा हस्तमुत्क्षिप्य पादावाश्लिष्य एवं मम यदि च ते जीवनेस्त्युत्सुकत्वम् । fest प्रयुवतितो मान्यथा त्वं गृहीम तसन्देशे मनसि निहितैरागतं त्वत्समीपम् ||१४||
तदिति । तत् तस्माच तो मा भैषीः मा विभीहि । ते तव । शोषने जीविते । उत्सुकत्वं तत्परत्वम् । यदिचास्ति विद्यते चेतहि । एवं भवान् । वितगरिमा रहितगुरुस्वभावः सन् । “वर्णदृढादिभ्यः" इत्यादिना इमन्त्यः | "प्रियस्थिर" इत्यादिना गुरोर्गरादेशः । हस्तं पाणिम् । उत्क्षिप्य उद्धृत्य । मम मे । पाव चरणी । शाक्लिष्य आलिङ्ग्य । प्रिययुबतितः प्राणकान्तायाः सकाशात् । किवि ईषत् । प्रीप्रे । मन चित्ते । निहितैः स्थापितः । तत्सम्बेशः मुषतिवाच्चिकैः ।
समीपं । भवन्निकटं प्रति । आगतम् आगच्छति स्म आगतस्तम् । मां यक्षम् । स्वं भवान् । अन्यथा अपरप्रकारेण मा गृही: मा गृहाण ! तस्याः मन्देशहरत्वात् न विरोधीति विभावयेत्यर्थः ||१४||
अन्वय - प्रिय युवतिसः प्रीत्यै यदि जीवने ने किचित् उत्सुकत्वं अस्ति तत् त्वं हस्तं उत्क्षिप्य मम पादी आलिष्य वितगरिमा मा भैषीः । मनसि निहितः तत्सन्देश: स्वामी आगतं मां त्वं अन्यथा मां गृहीः ।
अर्थ-प्रिय युवती की प्रीति के लिए यदि जीवन के प्रति तुम्हारी कुछ
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पाश्र्वाभ्युदय उत्सुकता है तो हाथ उठाकर मेरे चरणों का आलिङ्गन कर विनष्ट माहात्म्य वाले तुम मत डरो | मन में स्थित उन सन्देशों के साथ तुम्हारे समीप में आए हुए मुझे तुम अन्यथा मत समझो।
सशः क्लुप्तो जलवसमयो यो मघा कालमेघेराबद्धान्ग्रवधि सहसा सोप्यनेनात्मशक्त्या । ध्वान्तस्यैव प्रतिनिधिरहो योषितां जीवनार्थ, यो वृन्यानि त्वरयति पथि प्राम्यतां प्रोषितानाम् ॥१५॥ सद्य इति । मया यक्षेण । कालमेघः कुष्णजलदैः। आरवधु आरक्षा द्यौर्नभो यस्मिन्कर्मणि तत् । यः जलदगमयः । पथि मागें । प्राम्यतां विद्यमानानाम् । प्रोषितानां प्रवामिनाम् । वृन्दानि निकुरम्बानि "स्त्रियां तु मंहतिवृन्दै निकुरम्बं कदम्बकम्" इत्यमरः । जीवनाथ प्राणधारणार्थम् । स्वरयति मात्रमयति । ध्यानस्थव अन्धकारस्व । प्रतिनिधिः प्रतिकृतिः । "प्रतिकृनिरर्चा पगि प्रतिनिधिसपमोपमानं स्यात्" इत्यमरः । सोऽपि तादृशोऽगि जलवसमयः । अनेन मनिना । भामाशारया निजमामध्येन । सहसा शीण । "अतकिले तु नहा" इत्यमरः । महो आश्चर्यम् । व्यषि अच्छेदि । “विपूर्वस्य बघू हिंसाया' घातोढुंछ ॥१५॥
अन्वय--अहो ! म योषितां जीनार्थ यि माता प्रोपितानां सुन्दानि वरयात, यः ( च ) ध्वान्तस्य एब प्रतिनिधिः आरूढद्युः जलदममयः मया कालमेघः सधः क्लुप्तः सः अपि अनेन आत्मशक्त्या महसा व्यवधि ।
अर्थ-महान् आश्चर्य है कि जो वर्षाकाल स्त्रियों के प्राणधारण के लिए रास्ते में थके हुऐ प्रवासियों के समूह को ( घर जाने के लिए ) जल्दी कराता है तथा जो अन्धकार का ही प्रतिनिधि है, मेघों के द्वारा जिसने आकाश को व्याप्त कर दिया है और मुझ शम्बरासुर के द्वारा काले वर्ण वाले मेघों से सत्क्षण रचा गया है वह वर्षाकाल ध्यान में लोन इस मुनि के द्वारा अपनी सामर्थ्य से अचानक विलय को प्राप्त हो गया।
सोऽयं योगी प्रकटमहिमा लक्ष्यते विभेवो, विद्यासिद्धो ध्रुवमभिमना यन्ममाप्यात्तनाशा । कत्तुं शक्ता नवधनघटा या मनांस्यध्वगानां, मन्द्रस्निग्धैध्यनिभिरबलावेणिमोक्षोत्सुकानि ॥१६॥ स' इति । या अध्यगानां पथिकानाम् । मासि चित्तानि । मन्दस्निग्धैः मन्द्राश्च ते स्निग्धाश्चतः । खमकुम्जादिवत् अन्यतरप्राधान्येन विशेषणमित्यादिना. फर्मधारयः । ध्वनिभिः शब्दः । अबलावेणिमोक्षोत्सुकानि अबलानां स्त्रीणां वेणयः
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तांना मोक्ष मोक्षगे मोचन इत्यर्थः । उत्सुकानि तु विधातुम् । शक्ता समर्थ | मम मत्सम्बन्धिनी । नवधनघटा प्रत्यग्रमेघमाला । यत् यस्मात्कारणात् । आत्तमाशा प्राप्तलियाभृत् । तस्मात् 1 सोऽयं योगी स एष मुनिः प्रकटमहिमा प्रथितप्रभावः । सुविभेदः अभेद्यः । विद्यासिद्ध: विद्यया सिध्यति स्मत्तथोक्तः । अभिमनाः काचिदत्या मक्तताः । निवचलम् । लक्ष्यते दृश्यते ॥ १६ ॥
अन्वय-या अध्वगानां मनांसि मन्द्रस्निग्धः श्रनिभिः अबलावेणिमोक्षोकानि कर्तुं शक्ता (सा) मम अपि नवधनघटा यत् आसनाशा ( तत् ) अयं गः महिमा विद्या सिद्धः ध्रुवं अभिमनाः योगी दुर्विभेदः लक्ष्यते ।
अर्थ- जो नूतनमेघ की घटा पश्चिकों के मन में गम्भीर और श्रुतिमधुर ध्वनियों से ( विरहिणी ) स्त्रियों की चोटी को खोलने के लिए उत्कण्ठित करने में समर्थ है, वह मेरे द्वारा रचित धनघटा भी कि विनाश को प्राप्त हुई है, अतः यह वह प्रकटमहिमा वाला, ज्ञानस्वरूप, मोक्ष को प्राप्त करने का इच्छुक योगी कठिनाई से विचलित करने योग्य मालूम पड़ता है।
इत्याध्यायन्पुनरपि मुनि सोभणीयुद्धशौण्डो, वीरश्रीस्वामिह यनतरौ मन्मथाक्लेशमुक्ता । पश्यन्त्यास्ते दशमुखपुरोद्यानवृक्षे सति स्थाविश्वासपाते पवनतनयं मैथिलीयोन्मुखी सा ॥१७॥
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इतीति । स दैत्यः । युद्ध शौण्डः युद्ध मत्तः । "मत्तं शौण्डोत्कटक्षीवा" इत्यमरः । इति एवंप्रकारेण । आध्यायन् चिन्तयन् । पुनरपि । मूनि मोगिनम् । अभणीत् अब्रवीत् । इति कथितरीत्या | आध्याते आभाषिते सति स्मादिति arrained भवेदिति । वाखपुरोधानवृक्षे दशमुखस्य रावणस्य पुरोधानस्य वनस्य वृक्षे पादपे । विषयसप्तमी “ वटे गावः सुशेरते" इतिवत्। मेथिली सीना | पवनतनय मित्र हनुमन्तभित्र छह वनसरौ वनवृक्षे । मन्मया क्लेवामुक्ता मदन स्यामलेशेन रहिता । सा वीरश्री: जयलक्ष्मीः । उन्मुखो उद्गतमुखी सती । स्वा॑ भवन्तम् । यश्यन्त प्रेक्षमाणा । ग्रास्ते वर्तते । वीरश्रीप्रेक्षाभिधानात् युद्धसो भवेति ध्वन्यते ॥ १७॥ ॥
अन्वय --- ( या ] मन्मथक्लेशमुक्ता त्वां पश्यन्ती इट्ट वचनरी आस्ने सा वीरश्रीः आख्यानं दशमुखपुरोधानवृक्षे पवनतनयं ( पश्यन्ती) उन्मुखीसती मैथिली इय स्वात् इति अध्यायन युद्ध शौण्डः सः पुनरपि मुनिं अमणीत् ।
अर्थ-जा ( वोरलक्ष्मी ) मन की स्थिरता को नष्ट करने वाले दुःख से रहित होकर तुम्हें देखती हुई इस वन के वृक्ष के नीचे स्थित है, वह
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पाश्वभ्युदय
वीरलक्ष्मी लौकिक पुराणों में प्रसिद्ध लानगरी के उद्यान के वृक्ष के नीचे हनुमान को देखकर ऊँकी दुई सहीरोदा के समान हो जायगो इस प्रकार सोबता हुआ युद्ध में प्रवीन बहु शम्बरासुर पुनः मुनि (पार्श्व ) से बोला ।
सङ्ख्ये सङ्ख्यां सुभटविषयां पूरयन्नस्मदीये, हित्वा भीति स्वमशियितो वीरशय्यां यदा स्याः । प्रत्यासीदत्यपिहितरसा वीरलक्ष्मीस्तवेषा,
त्वामुत्कण्ठोच्छ्वसितवया वीक्य संभाव्य चैव ॥ १ ॥
सस्य इति । अस्मदीये अस्माकमिदमस्मदीयं तस्मिन् । सख्ये युद्ध े । " मृधमास्कन्दनं संरूपम्" इत्यमरः । सुभवविषर्या सुयोधृगोचराम् । स गणनाम् । पूरयन् सम्पूर्ण वितन्वन् । श्वं भवान् । भीति भयम् । "भीतिभीः साध्वसं भयम्” हिरवा मुक्त्वा । थथा यदवसरं । बीरशय्यां बीरशयनम् । अघिशयितः सुप्तः । स्याः भवेः । तदा तत्समये । एषा वीरलक्ष्मी असो वीरश्रीः । अपहितरसा प्रकटितवङ्गाररसां । उत्कण्ठोष्छ्वसितवया उत्कण्ठया औत्सुक्येन उच्छ्वसितं विकसितं हृदयं यस्याः सा तथोक्ता "उत्कण्ठोत्कलिके समे" इत्यमरः । त्वां भवन्तम् । वीक्य दृष्ट्वा । सम्भाव्य चैव सत्कृत्यापि । प्रत्यासीवति आसन्न मागच्छति ॥ १८॥
अम्बय - - अस्मदीये सङ्ख्ये सुभटविषयां सङ्ख्या पूरयन् त्वं यदा भीति हित्वा वीरशय्यां अधिशयितः स्याः तदात्वां वीक्ष्य सम्भाष्य च उत्कण्ठोव'सितहृदमा अपिहितरमा एषा प्रत्यासीदति ।
अर्थ --- हमारे युद्ध में शूर सैनिकों सम्बन्धी गणना को पूरी करते हुए तुम जब भय छोड़कर वीरशय्या पर सोओगे तब तुम्हें देखकर और सत्कार कर उत्कण्ठा से विकसित चित्त बाली तथा अनुराग को प्रकट करने वाली यह वोरलक्ष्मी अवश्य ही ( तुम्हारे ) समीप में आएगी । अथ मायामयी स्त्रीसंहति कल्पयन् गानमाविभवियति-मन्ये श्रोत्र परुषपचनेदूषितं ते मदुक्तां,
व्यक्ताकूतां समरविषयां संकथां नो शृणोति । तत्पारुष्यप्रहरणमिदं भेषजं विद्धि गेयं, श्रोष्पत्यस्मात्परमवहितं सौम्य सीमन्तिनीनाम् ॥ १९ ॥
मन्य इति । ते तय श्रोत्रं श्रवणम् । पदवपवनैः निष्ठुरानिलः । "निष्ठुरं परुषम्" इत्यमरः । डूषितं निन्दितं सत् । "ऊद्दुषो णों" इत्यूत् । व्याकू
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चतुर्थ सर्ग
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प्रकटिताभि प्रायाम् । समरविश्यां सङ्ग्रामगोचराम् । “अस्त्रियां समरानीकरणाः " इत्यमरः । मयुक्त भयोक्ता
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मन्ये जाने । सोम्ब भो साघो । अथवा सोम्यसो मन्तिनीनां सौम्याच ताः सीमन्तिन्या तासां सुन्दर स्त्रीणाम् । सोम्यं तु सुन्दरे सौम्यदेवते" "नारी सीमन्तिनी वधूः" इत्यमरः । इयं श्रममाणमेतत्। श्रेयं गानम् । तत्पादप्रहरणं पवनपरुषत्व दोषनिवारणम् । भेषजम् औषधम्। "भेषजोपधभैषज्यानि” इत्यमरः । विद्धि जानीहि । अस्पावेतद् गानात् । अहितम् प्रशस्तं सत् । परं - स्फुटम् । मोष्पति आकर्णमिष्यति ॥ १९॥
अन्वय--सोम्य! ते श्रोत्रं मदुक्तां व्यक्तततां समरविपयां सङ्क्रांनो शृणोति ( इति ) परुषपवनः दूषितं मन्ये । सीमन्तिनीनां अवहितं इदं गेयं - पाण्यप्रहरणं परं भेषजं विद्धिः अस्मात् तत् श्रोष्यति ।
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अर्थ- हे सौम्य ! तुम्हारा कान मेरे द्वारा कहे गए, विशद अभिप्राय वाले युद्ध सम्बन्धी समीचीन भाषण को नहीं सुनता है, अतः ( उसे ) निष्ठुर वायुओं से दूषित मानता हूँ। यह स्त्रियों का गान सुनने पर कठोर वायु के आघात से उत्पन्न कानों के पारुष्य (निष्ठुरता ) को दूर करने - वाली उत्कृष्ट औषधि जानो । इस औषधि से तुम्हारा कान सुनेगा ।
श्रव्यं गेयं नयनसुभगं रूपमालोकनीयं,
पेयस्तासां वदनसुरभिः स्पृश्यमाप्रायमङ्गम् । कामाङ्गं ते समुचितमिवं सङ्क्रमं सानुबन्धं, कान्तोपान्तात्सुहृदुपगमः सङ्गमात्किञ्चिदूनः ॥२०॥ श्रव्यमिति तासां सीमन्तिनी नाम् । मं गीतम् । ते तद । श्रध्यं श्रवणीयम् । सामुन्धं सम्बन्धसहितम् । नयमसुभगं नेत्ररमणीयम् । रूपं देहसौरूप्यम् । आलोकनीयम् दर्शनीयम् । ववनसुरभिः मुखसुगन्धः । पेयं पातु योग्यः । अङ्गम् अवयवः । स्पृश्यं स्प्रष्टु योग्यम् । अनाय अघानुं योग्यम् । कामाङ्ग कामावयवभूतम् । सानुबन्धं सम्बन्धसहितम् । अनुकूलमित्यर्थः । हृदभेतत् । “सङ्गमं शतमाना संबलाव्ययताण्डवम् ।" इत्यमरः पुन्नपुंसक शेषः । ते तव समुचित सुयोग्यम् । भवतीति शेषः । तथाहि कान्तोपान्तात् । कान्तया उपान्तस्तस्मात् । सुहृदुपगमः मित्रत्गमनम् । "कान्तोदन्तः सुहृदुपनतः" इति वा पाठः सुहृदुपनतः सुहृन्मुखेन उपनतः प्राप्तः । काम्तोवन्त कान्ताया उदन्तो - वृत्तान्तस्तयोक्तः । वार्ताप्रवृत्ति वृत्तान्त उदन्तः स्यात्" इत्यमरः । सङ्गमात् सम्पर्क | चिडूनः किमन्यूनः । तद्वदेवानन्दकर इति भावः ॥
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अम्बध -- तासां श्रयं गेर्थ, नयनसुभगं आलोकनीयं रूपं पेयः वदनसुरभिः,
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पाश्वभ्युदय
आनाय अङ्ग ते समुचितं कामाङ्ग इ सानुबन्धं सङ्गमं कान्तोवान्तात् सुहृदुपगमः सङ्गमात् किञ्चित् कनः ।
अर्थ - तुम्हारी कान्ता को समीपवर्ती स्त्रियों का सुनने योग्य गान, नेत्रों को सुन्दर लगने वाला दर्शनीय रूप पान करने के योग्य मुख की सुगन्ध, स्पर्शन करने और सूंघने के योग्य शरीर, तुम्हारा अत्यधिक योग्य कामोत्पत्ति का साधन है । यह गेवादि रूप निरन्तराय परस्पर में मिलन कान्ता के पास मित्रों के आगम रूप है जो कि साक्षात् मिलन से कुछ ही कम है। तात्पर्य यह है कि कान्ता के पास मित्रों के आगम स्वरूप यह जो. गेयादि का सुनना आदि है वह साक्षात् मिलन जैसा ही है ।
तस्माद्वासः किल
दिव्यं ताम्बूलं च प्रणयमचिराद्योषितां मानयोच्चैः । व्यर्थक्लेशां विसृज विरसामार्यवृत्ति मुनीनां, तामायुष्मन्मम च वचनादात्मनश्वोपकर्तुम् ॥ २१ ॥
तस्मादिति । तस्मात् कारणात् । आर्य भी पूज्य | आयुष्मन् प्रशंसाय मनुः । है परोपकारश्लाध्य जीवन इत्यर्थः । मभवचनाच्च मे प्रार्थनायाश्व । अरमन स्वस्य । उपतु च परोपकारेणात्मानं कृतादिसुमपीत्यर्थः । उपकारक्रियायां प्रतिकर्मत्वेऽपि रोत्यादिवत् । सम्बन्धमात्रविवक्षायामात्मेति षष्ठीवचनं न विरुध्यते । क्लेशा निष्कला यासाम् fereet रसरहिताम् । स मुनिनां वृत्ति तद्यतिवर्तनम् । विसृज त्यज । किसलयमुकु पerest | वास वस्त्रम् । 'वस्त्र माच्छादनं वास: ' इत्यमरः । मुखस्वाणि वदनस्यायि । सुखें स्थाप्यते इत्येवं शीलम् । किम् अनर्धम् । ताम्बूलं वीटिकाम् । पोषितां स्त्रीणाम् । प्रणयं च प्रीतिमपि । अचिरात् शीघ्रण स्वं भवान् । उच्चैरधिकम् 1 मा
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सम्भावय ।। २१ ॥
अन्वय-- आयुष्मन् ! मम वचनात् च आत्मनः उपकसु च तस्मात् योषित किसलयमृदु वासः मुखस्थायि दिव्यताम्बूलं प्रणयं च अचिरात् उच्चैः मामय, मुनीनां व्यर्थ क्लेशां तां विरसां आर्यवृत्ति विसूज |
अर्थ - हे आयुष्मन् ! मेरे वचन के कारण तथा अपना उपकार करने के कारण ( कान्ता के समीप मित्रों के आगमन रूप साक्षात् समागम से कुछ कम होने के कारण ) स्त्रियों का किसलय के समान कोमल वस्त्र, मुख में सतत विद्यमान दिव्य ताम्बूल तथा प्रणय का शीघ्र ही अत्यधिक रूप से.
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२९९.
चतुर्थ सर्ग आदर करो । मुनियों को उस लोक प्रसिद्ध व्यर्थ के क्लेश से युक्त आनन्दरहित आर्यवृत्ति ( सदाचरग-तपस्या आदि ) को छोड़ दो।
श्रेयोमार्गः किल मुनिवरैः सेव्यते सौख्यहेतोः, सौख्यं द्वधा सुरयुबतिजं मुक्तिलक्ष्म्याश्रयं च । दूरे मुक्तिः सुलभमितरत्सेव्यमन्योऽपि विद्वान्, खू यादेयं तव सहचरो रामपिर्याश्रमस्थः ।। २२ ॥
श्रेय इति । मुनिवरैः यतिष्ठः । सौख्यहेतोः सुखनिमित्तम् । मेयोमार्गः मोक्षमार्गः । श्रेयो निःश्रेयमामुलम्' इत्यमरः । सेव्यते आगध्यते । किल 'वार्तासम्भाव्ययोः किल' इत्यमरः । तथाहि । मौल्यं मुखमेव सौख्यम् । सुरसुसिज देववमिताजनितम् । मुक्तिलस्म्याश्रयं च मोक्षलक्ष्मी समाश्रयं पति । विषा द्विविध भवतोति शेषः । मुक्षि से दूरे विसर। प्रसं। इति शेषः । पार अन्यत् । सुत्युवतिर्ज सुखम् । मुल सुखेन लम्यते तत् । सेव्यमाराध्यम् । एवम् इत्यम् । तव भवतः । सहयरः सहायः मुनीन्द्र इत्यर्थः । रामगिश्रिमस्य. रामगिरेः चित्रकूटस्य आश्रमे निवास तिष्ठतीति तथोवतः । अन्योपि अपरोऽनि । न केवल अहमेवेत्यपि शब्दार्थः । विज्ञान विपरिवत् । अयात वदेत् ।। २२ ।।
अन्वय-श्रेयोमार्ग: मुनिवरैः सौख्य हेतोः किल सेव्यते । सौख्यं सुरवासिज मुक्तिलम्याश्रय च ( इति ) द्विधा । टूरे मुक्तिः इतरत् सुलभं सव्यं ( च ) अन्यः अपि रामगिर्याश्रमस्थः तव विद्वान् सहचरः एवं धूवास् ।
अर्थ-श्रेयोमार्ग का श्रेष्ठ मुनि सुख के लिए सेवन करते हैं। सुख देवाङ्गनाओं ( के साथ सम्भोग ) से उत्पन्न तथा मोक्षलक्ष्मी के आश्रय से उत्पन्न ( इस तरह ) दो प्रकार का होता है । मुक्ति दूर है । दूसरा देवाङ्गनाओं के सम्भोग से उत्पन्न सुख सुलभ और सेवनीय है। रामगिरि पर्वत पर स्थित आश्रम का निवासी तुम्हारा दूसरा विद्वान् मित्र( मुनि ) भी यही कहेगा।
विद्युद्धल्लोविलसितनिभाः सम्पवरचञ्चलत्वात्, लब्धाभोगाः नियतविपदस्तक्षणादेव भोगाः । तस्माल्लोकः प्रणयिनि जने स्थास्नुभावव्यपायावष्यापन्नः कुशलमबले पछति त्वां वियुक्तः ॥ २३ ॥ विधुदिति । सम्पनः श्रियः । चञ्चलस्यात् । विद्युहरुलीविलसितमिभा: तहिएलता दिलासमानाः । लग्याभोगाः लब्धः आभोगो मेषां ते। 'आभोगः परिपूर्णता'
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पाश्म्यु दय इत्यमरः । भोपः इन्द्रियविषयाः । तत्समावेष तत्समयादेव । निपतविपनः नियता विप द्विपत्तिर्येषां ते सथाक्ताः भवन्ति । तस्मात् कारणात् । ममले न विद्यते बलं यस्य तस्मिन् दुर्बल । प्रथिनि प्रणयोऽस्यास्तीति प्रणसी तरिमन प्रेमबति । जने लोके । स्यास्नुभाव व्यपायात स्थिरतरभावस्थ व्यपगमात् । तिष्ठतीत्येवंशीलः स्थाम्नुः । 'ग्लास्ग्रस्तुः' इति स्तुत्यः । 'स्थास्नुः स्थिरतरः स्यान्' इत्यमरः । अव्यापम: अप्राप्मविपत्तिः । 'आपम्ल आपत्याप्तः स्यात्' इत्यमरः । त्रियुक्तः वियोगदुःखी। नियुक्त इति वा पाठ: । लोकः जनः । स्वाम् । सुशलं क्षेमम् । 'कुशल क्षेममस्त्रियाम्' इत्यमरः । पृच्छति शृणोति । 'दहि याचि कपि प्रन्छि' इत्यादिना पृच्छतेदिकर्मकत्वम् ॥ २३ ॥ __अन्वय-( यस्मात् ) चञ्चललात् सम्पदः बिद्युदल्लीविलसितनिभाः, सन्धामोगाः भोगाः तरक्षणात् एव नियतविपदः, तस्मात् अबले प्रणयिनि बने स्थास्नुभाव ज्यपायात अमापन्नः वियुक्तः लोकः खां कुशलं पृच्छति । ___ अर्थ-[ चूंकि ] चंचल होने के कारण सम्पदायें विद्युल्लता के स्फुरण के सदृश हैं, प्राप्त अनुभव वाले भोग उसी क्षण से हो निश्चित विनाश को प्राप्त होते हैं, अतः बलरहित और वसुन्धरा से प्रेम करने वाले आपके चित्त की स्थिरता न होने के कारण ( तुम्हारे नाश की आशंका से) अत्यधिक दुःखी, वियोगी व्यक्ति अर्थात् पूर्वजन्म की पत्नी आपसे कुशल पूछती रही है।
तभोक्तव्ये स्वयमुपनते शीतकरवं समुजोमृत्युाघ्रो द्रुतमनुपवी वाममन्विच्छत्तीतः । आयुष्मत्वं कुशलकलितं नन्विहाशाधि नित्यं, पूर्वाशास्यं सुलभविपदा प्राणिनामेतवेव ।। २४ ॥ तदिति । इतः एतस्मात् । मृत्युम्यानः मृत्युरेव व्याघ्रः । मृतं शोघ्रम् । अनृपवी अनुपद्यते इत्येवंशीलस्तथोक्तः अनुगामी । वाम प्रतिकूलम् । 'वाम प्रतिकूलेऽपि' इति हलायुधः । 'वामो वक्र मनोहरे' इति धनजयः । अविस्छति अभिलषति । तत् तस्मात । स्वयभूपनते स्वयमेवाप्ने भोक्तव्ये अनुभवनीये वस्तुनि । स्रोतकत्वम् औदासीन्यम् । समजले व्युत्सृज । ननु भो साधो । वह अस्मिन्नवसरे । कुमालकलितं क्षेमयुतम् । नित्यं स्थिरं । सायुज्मरवं दीर्घ जीवित्वम् । माशाषि प्रार्थय । तथाहि सुलभविपर्व सुलभाविपदो येषां तेषां चलसम्पदाम् इत्यर्थः । प्राणिमाम् मसुभृताम् । एतदेव आयुष्मस्वमेव पूर्वाशाय पूर्वमभिलषगीयम् । स्यामिति शेषः ।
अन्वयन्यत् मोक्तव्ये स्वयं उपनते शीतकस्य समुजोः । द्रुत अनुपवी मृत्यू
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चतुर्थ सर्ग
३०१ ध्यानः वामं अधिन्छति । इतः कुलकलितं आयुष्मत्वं इह ननु आपाधि । मुलभबिपदां प्राणिनां एतदेव नित्यम् पूर्वाशास्यम् । ____ अर्थ कि भोगने योग्य वस्तु ( किन्नरो) स्वयं समीप आ गयी है, अतः आलस्य को छोड़ो। शीघ्न ही पदानुसरण करने वाला मृत्यु रूपी व्याघ्र विपरीत अभिलापा कर रहा है। इस कारण कुशलता से युक्त दीर्घजीवन की यहाँ निश्चित आशा करो। सुलभ विपत्ति वाले लोगों को नित्य यही सर्वप्रथम आशा करना चाहिए | मा यया नारीरूपं दर्शयति-इतोऽर्धवेष्टितानि
संवा बाला प्रथमकथिता पूर्वजन्मप्रिया ते, पश्यायाता रहसि परिरस्वानुमाई नयस्वाथ् । अङ्गनाङ्ग तनु च तनुना गाढतप्तेन तप्तं, सारेणास्त्रद्रवमधिरतोत्कण्ठमुत्कण्ठितेन ॥२५।।
सेति । ते तव । पूर्वजन्मप्रिया प्राम्भवकान्ता । प्रथमपिता प्रामाषिता । सैषा सेयम् । वाला युवतिः । 'नितम्बिन्यबला बाला' इति धनजयः । आपाता आगता । पश्य प्रेक्षस्व । 'पानामा' इत्यादिना दृशे: पश्यादेशः । समुना कृशेन । मगेन देहेन । तनु च कृशं च । मग देहम् । गावतप्तेन भुशं संतप्तेन शस्त्रेण बापाम्बुनाः । तप्तं विरहदुः खोऽगाम् । अस्मनवम् अश्रुषाराम् । 'रोदनं चासमय च' इत्यमरः । उत्कण्ठितेन उत्कृष्टवेदनया 1 अविरतोत्कण्ठम् अविच्छिन्नवेदनाम् । अन्यथान्त्रयो पायः । तनुना कृशेन । गायतप्तेन उष्णनरेण । सालेग अनेण सहितं सासं तेन । उस्कण्ठितेन सजातोत्कण्टेन । अङ्गेन निजदेहेन । तनु च कुश च । तप्त विरहदग्धम् । मनावम् अश्रुक्लिन्नम् । अविरतोत्कण्ठम् अविच्छिन्नसेवनम् । अङ्ग त्वत्देहम् । एहसि एकान्ते । परिरम्य आलिङ्ग्य । त्वा भवन्तम् । अनुमोदं आनुकूल्यम् । नयेत् प्रापयेत् । अत्र समानानुरागिरवज्ञापनात् नायके नायिकाया: स्वसमानावस्थात्वम् ।। २५ ॥
अन्वय-[या] प्रथमकविता [मा] ते पूर्वअन्मप्रिया सा एषा वाला आयाताः पश्य (सा) तनुना गाळतप्तेन साम्रण उत्कण्ठितेन (स्वेन) अन तनुतप्त अनएवं अविरतोत्कण्ठं [त] अङ्ग रहसि परिरम्य त्वां अनुमोदं नयेत् । ___ अर्थ-जिसके विषय में पहले कह चुके हैं तथा जो तुम्हारी पूर्वजन्म की स्त्री है, वह यह नवयौवनवती स्त्री आयी है, देखो ! ( वह दुर्बल ) गाढ़ सन्तप्त, अश्रुसहित, उत्कण्ठित अपने शरीर द्वारा दुर्बल, तपे हुए, आँसुओं से गीले, निरन्तर तीन अभिलाषा से व्याप्त आपके शरीर का एकान्त में आलिङ्गन कर तुम्हें आनन्दित करेगी।
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पाश्र्वाभ्युदय बूरागाढप्रणयदिवसो मन्मथेनातिभूमि, नीतो बिभ्यत्त्वदभिसरणावुत्सुकः स्त्रीजनस्त्वाम् । उष्णोच्छ्वासं समधिकतरोच्छ्वासिना दूरवर्ती, सगुल्पैस्तविंशति विभिना वैरिणा रुद्धमार्गः ॥२६॥ दुरेति । दूरागाहप्रणदिवसः दूरागाढो पुनः प्रणयस्य विश्वासस्य दिवसो यस्य तथोक्तः । मन्मथेन मदनेन । अतिभूमि विपत्तिम् । मीतः प्रापितः । विम्यत् स्वदभिसरणात् तयाभिगमनात् । उत्सुक: लालसः । दूरषती दूरस्थः नवागन्तुं शक्यत इत्यर्थः । वैरिणा विरोधिना । विधिता देवन । 'विधिविधाने देवपि' इत्यमरः । रुद्धमार्गः प्रतिबद्धबा । स्त्रीजन: अबलालोकः । समधिकतरोच्छवासिना दीनिश्वासयता । ताच्छीलिको गीज । उष्णोम्पास तीनविरहवासम् । "तिग्म तीक्ष्णं खरं तौ चण्डमुणवशस्मृतिः' इति हलायुधः । त्वा भवन्तम् । तैः सङ्कल्पैः स्वसंवेद्यमनोरथः । विशति एकीभवतीत्यर्थः ।। २६ ।।
अन्वय-दूरागाहप्रणवदिवसः समधिकतरोच्छ्वासिना मन्मथेन अनिभूमि नीतः स्वदभिसरणात् बिभ्यत्, उत्सुकः, दूरवतों वैरिणा रुद्धमार्गः स्त्रोजनः उष्णो च्छ्वासं त्वां तः सङ्कल्पः विशति ।।
अर्थ-जिसका प्रणयदिवस सुदूर अतीत में निमग्न है, अत्यधिक रूप से वृद्धि को प्राप्त काम के द्वारा जो मर्यादा के अतिक्रमण रूप निर्लज्ज अवस्था को पहुंचाया गया है, तुम्हारे प्रति अभिसरण ( गमन ) करने से डरता हुआ, उत्सुक ( विलम्ब को न सहने वाला ), दूर विद्यमान तथा वैरी भाग्य के द्वारा जिसका मार्ग रोक दिया गया है ऐसा स्त्रीजन विरहज्वर से सन्तप्त होने के कारण उष्ण श्वास बाले तुमको (तुम्हारे अन्दर) उन अनुभूत मनोरथों से प्रवेश करता है ।
सोऽयं त्वत्तः प्रणयकलिकामायलब्ध्वा विलक्षा, वरात्सेवां तब वितनुते पश्य सार्थों वधूनाम् । शब्दाख्येयं यदपि किलते यः सखीनां पुरस्तात, कणे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात् ॥ २७ ॥ स इति । य: सखीनाम वयस्यानां । पुरस्तादगे । आमनस्पर्शलोभात लन्मुखसम्पर्क लोभात मदनि । शम्दास्पेयं शब्देन क्षेणाख्येयम् उच्चयिमगि । यत्तद्वचनमपीति शेषः । ते तय । कर्णे श्रोत्रे । कथयितुं वक्तुम् । लोस: अलसः । अमृत फिल अभवत् खस्नु । 'लोलुपे लोलुभी लोलो लम्पटे घालसेऽपि च' इति यादवः ।। सोऽयं बधूना स्त्रीणाम् । सार्भः समूहः । 'सङ्घसार्यों तु अन्तुभिः' इत्यमर
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चतुर्थ सर्ग
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· त्वत्तः स्वत्सकाशात् । प्रणयकणिकामपि प्रेमलेशमपि । अलब्ध्वा अमवाप्य । विलक्ष विस्मयोपेतः । 'विलक्षो विस्मयान्वित:' इत्यमरः । तव भवतः । सेवां सेवनम् । दूरात् दविष्ठात् । वितनुते कुरुते । पश्य प्रेक्षस्त्र ॥ २७ ॥
अन्यध-- यत् किल सखीनां पुरस्तात् शब्दाख्येये अपि ( तत् ) आनन स्पर्शलोभात् ते कर्णे कथयितुं यः लोलः अभूत् सः अयं वधूनां सार्थः त्वत्तः प्रणयकणिकां अपि अलवा विलक्षः दूरात् एव सेवा वितन्ते पश्य ।
अर्थ---जो सखियों के द्वारा शब्दों से कहने योग्य भी है वह मुखस्पर्श के लोभ से तुम्हारे कान में कहने के लिए जो चंचल हुआ वह यह स्त्रियों · का समूह तुमसे प्रेम का लेशमात्र भो न पाकर विस्मय से युक्त हो कुछ दूर से तुम्हारी सेवा कर रहा है, देखो ।
योऽसौ स्त्रीणां प्रणयमधुरो भावगम्योऽधिकारः, कामाभिख्यां दधदविरतं लोकरूढा प्रसिद्धिः । सोऽतिक्रांत अणविषयं लोचनाभ्यामदृष्टस्यामुस्कण्ठाविरचितपवं मन्मुखेनेदमाह ॥ २८ ॥
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य इति । योऽसी । स्त्रीणां वनितानाम् । प्रणयमधुरः प्रणयेन प्रेम्णा मधुरः मनोहरः । कामाभियां मन्मथाभिधानम् | अविरतं सन्ततम् | 'सततानारताचान्तसन्तताविरतातिगम्' इत्यमरः । वर्षात् घरत् । भावगम्यः चित्तमः । अधिकार: नियोगः | लोकरूडा लौकिकी प्रसिद्धिः । प्रथा स्त्रीपुंसयोर्भावविशेषस्यैव कामसम्झेति लोकरूविरित्यर्थः । श्रवणविषयं श्रोत्रगोचरम् । अतिकान्तः अतीतः | लोचना नयनाम्याम् । अष्ट अवलोकितः । अतिदूरत्वान्तु विलोकितु वा अशक्य इत्यर्थः । सः अधिकारः । खाम् । उत्कण्ठाविरचितपवम् उत्कण्ठाविरचितानि पदानि सुप्तिङन्तशब्दानि वाक्यानि वा यस्य तथोक्तम् । पदं शब्दे च वाक्ये ' इति विश्वः । इवं वध्यमाणं योगिनीत्यादिकम् । सम्मुखेन मम मुखेन । आह ब्रवीति । स एष व्यवधाने बूत इत्यर्थः ॥ २८ ॥
अन्वय-यः असी स्त्रीणां कामाभिस्यां दधत् श्रवणविषयं अतिक्रान्तः, लोचनाभ्यां दृष्टः प्रणयमधुरः अधिकारः ( यस्य च ) भावगम्यः ( इति ) अविरतं लोकरूता प्रसिद्धिः मः मन्मुखेन उत्कण्ठाविरचित दं इदं आह ।
अर्थ - स्त्रियों में जो यह कामदेव इस संज्ञा को धारण करने वाला, कान के विषय से दूर, नेत्रों से नहीं देखा गया और प्रेम से मधुर मानसिक परिणाम है, और जिसके विषय में सदा ऐसी लोकप्रचलित प्रसिद्धि है कि वह कामिनियों के अभिनयों से गम्य ( जानने योग्य ) है वह मानसिक
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पार्वाभ्युदय समाम मेरे मुखद्वारा उत्कण्ठा से रचे गए पदों से युक्त वक्ष्यमाण वाक्यसमूह को कहता है।
योगिन्योगप्रणिहितमनाः किंतरां ध्येयशून्यं, ध्यायस्येवं स्मर ननु धियाध्यक्षवेद्यं मतं नः । श्यामास्वंगं चकितहरिणीप्रेक्षिते दृष्टिपातं, यवत्रछायां शशिनि शिखिना बहंभारेषु केशान् ॥ २९ ।। योगिन्निति । पोगिन् भा मुने । योगिप्रणिहितमनाः ध्यानकतानमनाः सन् । एवम् एवंविधम् । ध्येयान्यं ध्यानविषयशन्यम् । विज्ञानाद्वैतमित्यर्थः । किंतराम ईषदसमाप्त किं किंतराम् । 'अग्यबस्किलिङ्ः' इति तिजाम् । तस्वन्नित्यादिना:व्ययम् | ध्यायसि स्मरसि । सवावस्तुदर्शनमाह । श्यामास्विति श्यामातु प्रियमुतासु । 'श्यामामहिलपालमा । लसागोबिन्दिनीगुन्द्राप्रियङ्गः फलिनी फली' इत्यमरः । अङ्ग वारीम् । तथा च । चकितहरिणीप्रेक्षित भीतणीप्रेक्षणे । दृष्टिपातं नयनब्यापारम् । 'पातस्तु एरिनेतुना' इति भास्करः । वाशिनि चन्द्र । पकाच्छायां मुखवान्निम् । तथा शिखिमां बहंभारेपिच्छसमूहेषु । केशान् कचान् । पिया दृष्या । ननु निश्चयेन । अध्यक्षवेधं प्रत्यक्ष विषयम् । नः अस्माकम् । मतं पाकिमतमित्यर्थः । स्मरः चिन्तय । सौकुमार्यादिक स्त्रीविषयं ध्यायेत्यर्थः ।
अन्वय-योगिन् ! योगिणिहिस मनाः एवं किंतरां ध्येयशून्यं ध्यायसि ? ननु नः मतं अध्यक्षवेद्यं अङ्ग श्यामासु, दृष्टिपात पतिसहरिणीक्षिते, वाच्छायां शशिनि, केशान शिखिनां वहभारेषु धिया स्मर । ____ अर्थ है योगी ! ध्यान की एकाग्रता से चित्त को क्या में करने वाले तुम इस प्रकार कौन सी ध्येयशभ्य वस्तु का ध्यान कर रहे हो ? हे योगी ! हम दोनों के द्वारा बहुत आदर को प्राप्त और प्रत्यक्ष से जानने योग्य (सुन्दर स्त्री के ) शरीर को प्रियङ्गुलताओं में, दृष्टिपात को उरी हुई मगियों के नेत्र व्यापार में, मुख की कान्ति को चन्द्रमा में और केशों को मयूरों के पंखों में मन से याद करो, ध्यान करो। इतः पादवेष्टितानि
पश्यामुष्मिन्नवकिसलये पाणिशोभा नखाना, छायामस्मिन् कुरबकवने सप्रसूने स्मितानाम् । लीलामुद्यत्कुसुमितलतामंजरीष्वस्मदीयामुत्पश्यामि प्रतनुषु नवीधीचिषु भ्रूविलासान् ॥३०॥ पश्येति । अमुष्मिन् एतस्मिन् । कुरयकवने । भवकिसलये प्रत्यग्रपरलवे ।
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चतुर्थ सर्ग
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'पल्लवोऽस्त्री किसलयम्' इत्यमरः । पाणिशोभा इस्तकाम्तिम् । अस्मिान् सासूने । एतस्मिन् पुष्पसहिते । 'प्रसून कुसुमं सुमम्' इत्यमरः । कुरखकरने करण्टकवने । नखामा कर रहाणाम् । छायो द्युतिम् । उपकुसुमितलतामन्जरीषु उद्गच्छत्पुष्पितक्लोरयु । 'वल्लरिमम्बरी स्त्रियो' इत्यमरः । अस्मवोयाम् अस्माकं सम्बद्धाम् । स्मितानाम् ईषज्ञहिसतानाम् । लीसां बिलासम् । प्रतनुष स्वल्पा । नीषीचिष नदीतरङ्गष । भूविलासान् अभङ्गविधीन् । अत्र वाचीनां विशेषणोपादाने अयुक्तगुणग्रहण दोषः । भू साम्यनिर्वाहायमहत्वदोषनिवारणार्थत्वात्तस्य । तमुफ्ते रसाकरे। "ध्वन्युत्पादे घ सोत्कर्षे भावोक्ता दोषवारणाः ।' विशेषणादिषट्य नाग मुक्तगुणग्रहः' इति । ध्र पताकानीति पाठे। भ्रषः पताका हवेत्युपमितपमासः । उत्प. श्यामि तयामि । पश्य त्वमपि प्रेक्षस्वेत्यर्थः ॥ ३० ।।
अम्बय-अस्मदीयो पाणिशोभां अमुग्मिन् नवकिसलये ( पक्ष्य ), नखाना छायां अस्मिन् सप्रसूने नवकुरबक्रवने ( पश्य ) स्मितानां लीला उद्यत्कुसुमितलतामजरोषु ( पश्य ) 5 बिलासान् प्रतनुषु नदीवीचिषु पश्य, उत्पश्यामि ।
अर्थ-हमारे हाथ को शोभा को इस नए पल्लव में, नखों को कान्ति को इस पुष्पित नये कुरबक के वन में, मुस्कुराहट की शोभा को उगते हुए फूलों से युक्त लता मंजरियों में और भौहों के विलास को नदो को स्वल्प तरङ्गों में देखो, ऐसा मैं समझता हूँ।
सादृश्यं नः स्फुटमिति यथा दृश्यते सर्वगामि, ध्येयं साक्षात्सुखफलमिदं योगिनां कामदायि । मिथ्याध्यातेर्मुनिषु विषये हे तपोलक्ष्मि तद्वसकस्थं क्वचिदपि न ते चण्डि सावृश्यमस्ति ।। ३१ ।। सादृश्यमिति । चण्डि कोपने । गौरादित्वात् डो। 'चण्डी प्रणयिनी सथा' इति धनन्जयः । 'चण्डी कात्यायनी हिना कोपना स्त्रीषु सम्मता' इति विश्वः । उपमानकथनमात्रेण न कोपितत्यमित्यर्थः । है तपोलक्ष्मि तप एवं लक्ष्मीस्तत्सम्वृद्धि योगिनां मुनीनां । कामवायि अभीष्टप्रदम् । साक्षात्मुखफलं प्रत्यक्षसुखफलम् । इसम् एतत । ध्येयं ध्यानाहम् । सर्वगामि मयंजीवगमनशीलम् । इति एवम् । नः अस्माकम् । सावश्यम् एतद्दाष्टान्तिकस्वम् । स्फुट व्यक्तम् । यषा यवत् । दृश्यते सदत तदिव । मुनिषु मिथ्याध्याते: अतत्त्वष्मानस्य । विषये विधानाय । विधिविधाने देवे च' इत्यमरः । क्वविपि वस्तुनि । एकस्थम् एकत्रस्थितम् । ते तब । युष्मदस्मदोलिङ्गत्वास्त्रिलिङ्गषु समानत्वम् । सादृश्यं साम्यम् । नास्ति हन्त । 'हन हर्षेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः' इत्यमरः । अतो न त्रिवृणोमोत्यर्षः । एतावदन ध्यानविनकरणेऽपि तद् ध्यानस्य भङ्गो नास्तीति वन्यन्तरेणाहेति भावः ॥३॥
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पाश्र्वाभ्युदय अन्वय - हे चण्डि तयोलभिम ! इति ध्येयं साक्षात्सुखफले योगिनां कामदायि इदं नः सादृश्यं यथा स्फुटं सर्वगामि दृश्यते तद्वत् मुनिषु मिथ्याध्याते: विधये ते सादृश्यं क्वचित् एकस्थम् अपि हन्त न अस्ति ।
अर्थ-हे सन्तापनिका तपोलक्ष्मी ! (पूर्ववर्ती श्लोक में कहा हुआ) ध्यान के योग्य, साक्षात् सुखरूप फल से युक्त, योगियों को अभीष्ट वस्तु देने वाला यह हमारा सादश्य जिस प्रकार स्पष्ट रूप से सब जगह (समस्त बाह्य पदार्थों में) दिखाई देता है । वैसा मुनिविषयक ध्यान की विफलता को बतलाने वाला तुम्हारा (तपोलक्ष्मी का) सादृश्य किसी एक भी बाह्य वस्तु में नहीं है।
हा धिम्मूढि यदयमृषिपः त्वमसाध्योमजानन्, त्वय्यासक्ति मुहरुपगतोऽस्मास्वनादर्यभूच्छ । चेतोमय्यां यदनुकमितां ध्यायति प्रेयसी वा, त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलायाम् ॥ ३२ ।।
हेति । यत् अस्मात् । अयम् एषः । ऋषिपः मुनीन्द्रः । 'ऋषियंतिम निर्मोक्षुः' इति धनजयः । त्वां भवन्ती । असाधीम् असतीम् । अजानन् अनवबुध्यमानः । स्वयि भवत्याम् । आसरिल काझाम् । महः पुनः पुनः ! उपगतः उपपातः सन् । अल्मासु इष्ट सम्बन्धिषु । बनासरी अप्रेमवान् । अभूत् आसीत् । च पुनः यत् यस्मात् । प्रणयकुपिता प्रणयकोपिनीम् । सो भवन्तीम् । सपोलक्ष्मी प्रेयसी वा । प्रकृष्टप्रियामिव ! अनुमिता अनुवाञ्छितां सन् । 'वुतम्' इति तत्यान्तः । घेतोमध्यां खेतोविकारामाम् । शिलायो शिलापट्टे । धातुरागैः धातब एव वाटवादय एवं रामा रम्जनद्रव्याणि । 'घातुर्वातादि शब्दादि गरिफादित्वगादिषु' इति यादयः । चित्रादिरजकद्रव्ये लाक्षादी प्रणयेच्छयोः। सारङ्गादो व रागं स्यादरुणे रकजने पुमान्' इति शब्दार्णवे । तः । आलिक्ष्य निर्माय । ध्यायलि चिन्तयति । तस्मादतोः । मूहि मौढ़यम् । हा भिक हा विषाद्शुगतिषु' कु घिगभर्त्सननिन्दयोः' इत्युभयत्राप्यमरः । चेतः शिलायो कुपितावस्थायुक्ता तपोलक्ष्मी प्रकृति प्राणघातुभिविरिय ध्यायतीति भावः ।। ३२॥
अन्वय-हा | भूहिं धिक् ! यत् अचं ऋषिपः त्वां असाध्वी अजानन् त्वयि मुहुः शासक्ति उगगतः अस्मासुः च अनादरी अभूत, यत् (प) अनुकमितां प्रणयकुपितो प्रेयसी वा त्या धातुरागः चेतोमय्यां आलिख्य ध्यायति ।
अर्थ-हाय ! मूर्खता को धिक्कार हो ! जो कि यह ऋषि तुम (तपोलक्ष्मी) को असाध्वी (होन आचरण वाली) न जानकर तुम्हारे प्रति पुनः
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चतुर्थ सर्ग
३०७ पुनः आसक्ति को प्राप्त हुआ है तथा हम लोगों (स्त्रियों के समूहों के प्रति आदर से रहित हो गया है, क्योंकि प्रेम में बँधी, प्रणयपित प्रेयसी के समान तुम्हारा धानुराग के समान अनुरागयुक्त मानसिक परिणामों द्वारा मनोनिर्मित शिला सदृश मनोभूमिका पर चित्रित कर पान कर रहा है । इतः कतिचिद्भिः पौविग्हपरवशायाः स्त्रिया दैन्यं प्रादुर्भावयति---
भो भो साधो मम कुरु बयां देहि दृष्टि प्रसीद, प्रायस्साधुर्भवति करुणार्दोकृतस्वान्तवृत्तिः। योग तावच्छिथिलय मनाक् प्रार्थनाचाटुकार
रात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कतुम् ।।३३।। भो भो इप्ति । भो भो साधो भो भो मुने । 'मशाभीक्ष्ण्याः ' इत्यादिनादिः । मम में । बयां कारुण्मा । कन, विधेहि : f दाम् ।. : *दमानो भव । साघुः मुनि: सज्जनी वा । प्रायः प्राचुर्येण । करणार्याकृत स्वान्तवृत्तिः प्रागना इदानीमा क्रियते स्म आद्रीकृता करुणया कृपया प्राकृता मदुभूता स्वान्तस्य चित्तस्य वृत्तिर्वर्तनं यस्य सः । कारुण्योपशान्तचित्तवृत्तिरित्यर्थः । भवति यावत् यत्पर्यन्तम् । प्रार्थनाचाटुकार: प्रियवचनकरणः । आत्मानं मामबलाम् । ते मुनेः पूर्वबन्धोः । चरणपतितं पादयोविनितम् । कतु करणाय । इच्छामि वाञ्छामि । तावत् तावर कालपर्यन्तम् । मनाक ईषत् । योग ध्यानम् । शिथिलय विश्लेषय ॥३३॥
अन्वय-भो भो साधो ! प्रसीद, मम देयां कुरु, दृष्टि देहि । साघुः प्रायः करुणाद्रीकृतस्वान्तवृत्तिः भवति । यावत् प्रार्थनाचाटुकारैः आस्मानं ते चरणपतितं कतु इच्छामि तावत् योगं मनाक् शिथिलय ।
अर्थ-हे साधु ! प्रसन्न होओ, मेरे ऊपर दया करो, मेरे ऊपर दृष्टि 'डालो। साधु प्रायः करुणा से कोमल अन्तःकरण के व्यापारों वाला होता है । जब तक ( सुरत कार्य के लिए किए जाने वाले ) प्रिय बचन के प्रयोगों से अपने आपको तुम्हारे चरणों में प्रणत करने की इच्छा करती हूँ तब तक ध्यान को थोड़ा शिथिल करो।
स्वत्सादृश्यं मनसि गुणितं कामुकोनां मनोहत्, कामाबाधां लघयितुमथो द्रष्टकामा विलिख्य । यावत्प्रोत्या किल बहुरसं नाथ पश्यामि कोणरस्त्रस्तावन्मुहरुपचितैष्टिरालुप्यते मे ॥ ३४ ॥ त्वदिति । अयो अनन्तरे । नाथ भो प्रिय । पावत् यदवसरे। यावत्तायञ्च साकल्येऽवधी मानेऽवधारणे' इत्यमरः । बहरस बहवो रसाः शृङ्गाराइयो यस्मिन्
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पार्वाभ्युदय तत् । कामुकीनां कामिनीनाम् । 'वृषस्यन्ती तु कामुको' इत्यमरः । मनोहर मनोहरम् । मनसि चिते। गुणितम् अभ्यस्तम् । 'अभ्यस्ते गुणिताहते' इत्यमरः ।) स्वत्सावृष्यं भवत्साम्यम् । ष्टुकामा आलोकितुकामा नतो । कामयाधी कामगोडाम् । लपयितु लघुकतुम् । बिलिण्य लिखित्वा । प्रीत्या सम्हाषेण । पश्यामि प्रेक्ष्य । तावत् तदषम । चितः पुन: पुनः प्रध:। कोह: ईपष्ण । 'कोणं कनोज्यां मन्दोणं कदुष्णं त्रिषु तद्वति' इत्यमरः । अत्रे: अधुभिः । अत्रमणि शोणित' इति विश्वः । मे मम | दृष्टि: चक्षुः । आलुज्यते किल नियते किक । ततो दृष्टि प्रतिबन्धास्वपदर्शनं प्रतिबध्यत इति भावः ।।३४॥
अन्वय--अश्रो नाथ ! कामुकोनां मनोहत् मनभि गुणितं त्वत्पादृश्यं कामाबाबा लघयिनदष्ट्रकामा विलिख्य यावत् प्रोत्मा बहरसं पश्यामि तावत् मुहुः उपचितः कोष्णः अस्र मे दृष्टि: किल आलुप्यते ।
अर्थ-अनन्तर हे नाथ ! कामिनियों की मनाहारो मन में चिन्तित ( अभ्यस्त ) तुम्हारी प्रतिकृति को कामपीड़ा को कम करने के लिए देखने की इच्छा से चित्रित कर जब प्रीतिपूर्वक बहुत आनन्द सं देखती हूँ, तब तक बार बार वृद्धि का प्राप्त गरम आँसुओं से मेरी आँखें ढक जाती हैं।
तोत्रावस्ये तपति मदने पुरुषबाणैर्मदङ्ग, तल्पेनल्पं दहति च मुहः पुष्पभेदैः प्रक्लप्ते । तीवापाया त्वदुपगमनं स्वप्नमात्रेपि नापं,
रस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गम भौ कृतान्तः ॥३५।। तोश्रेति ।। तीवावस्थे। तीवावस्यायुक्ते । मकने मन्मथे । मबर्ग मम शरीरम् । पुष्पवाणः कुसुमशरैः । तपति सन्तापयति सति । पुष्पभेवः कुपुमच्छेदैः । प्रलप्से रनित । तत्पे शयनतले । मुहः शश्वत् । अमल्पं बहुलं यथा तथा । बहति च प्रतपति सति । तोषापाया तीन: अगायो यस्याः सा तपोक्ता सती। स्वप्नमान्ने स्वप्ने एव स्वप्नमा तस्मिन्नपि । जायदवस्थायां तु न चेपपीति शेषः । स्वपगमनं तब सङ्गमम् । मापं नागमम् । आप्ल व्याप्ती' इति घातोलीड मतिशास्ति' इत्यादिना अङ् । ऋरो चातुकः । 'नृशंसो घातुकः क्रूरः' इत्यमरः । कृतातो दैवम् । 'कृतान्तो यमसिद्धान्तदेवाकुशलफर्मस्' इत्यमरः । तस्मिन्नपि स्वप्नमात्रेऽपि नो आषयोः । 'वाम्नावौ हित्व' इत्यस्मदो नावादेशः: । सङ्गम संयोगम् ।। सहते न मर्षति । स्वप्नसङ्गनिरप्यान्नयोरसहमानं देवं माक्षात् सङ्गति न सहत एवेति अनि शब्दार्थः ।। ३५ ।।
अन्यय-तीवावस्थे मदने मदन पुष्पमाः तपति पुष्पभेदैः च प्रक्लासे
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चतुर्थ सर्ग
३०९ तली अनल्पं मुहुः दहति ( सति ) तीब्रापाया ( अहं ) स्वप्नमा अपि त्वयुपगमन न आपं । क्रूरः कृतान्तः नौ सङ्गमं तस्मिन् अपि न सहते ।।
अर्थ-तीन अवस्थावाले । मर्मभेदी ) कामदेव के द्वारा मेरे शारीर को पुष्पबाणों से तपाने पर और नाना प्रकार के फूलों से रचित काय्या पर बारबार अत्यधिक जलाने पर मर्मव्यथा जनक बियोग वालो मैंने स्वप्नमाग ने भी तुम्हारे समीप ने जागमन प्राप्त नहीं किया। क्रूर भाग्य हमारा स्वप्न में भी मिलन सहन नहीं करता है । इतः पूर्वाधपादबेष्टित पश्चाधंवेष्टितानिमामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दयाश्लेषहेतोत्तिष्ठासु स्वदुपगमनप्रत्ययास्थप्नजातात् । सख्यो दृष्ट्वा सफरुणमृदुव्यावहासों वधानाः, कामोन्मुग्धाः स्मरयितुमहो संश्रयन्ते विबुद्धां ॥३६॥ मामिति । स्वप्नजातात् स्वप्नसम्भतात् । त्वयुपगमनप्रत्ययात् तवागमनविश्वासात् । निर्वयाश्लेषहेतोः निर्दयाश्लेषो गाहालिङ्ग स एव हेतुस्तस्य दृढसंप्लेषार्थमित्यर्थः । 'हेतौ हेत्वथैरः' इति षष्ठी । आकाशप्रणिहितभुजम् आकाशे निविषये प्रणिहिती प्रसारितौ भुजो यस्मिन्कमणि तत् । उत्तिष्ठासुम् उत्यातुमिच्छम् । मो कामिनीम् । दृष्ट्या प्रेक्ष्य । सकराणमध्यावहासी करुणासहित मृदु घ्यावहासि हास्यम् | बघानाः दधतीति वधानाः। कामोन्मुग्षा: कामेन मूढाः । सल्या वयस्थः । विबुद्धा प्रबुद्धवतीम् । स्मयितु स्वप्नावस्थां शापयितुम् । संश्रयम्ते समीपमागच्छन्ति । अहो आश्चर्यम् ॥ ३६ ।।
मन्वय–स्वप्नजातात् सदुपगमनप्रत्ययात् निर्दयाश्लेषहेतोः आकाशप्रणिहितभुजं उत्तिष्ठासु मां दृष्ट्वा कामोन्मुग्धाः सकरुणमृदुव्यावहासीं दधानाः सख्यः स्मरयितु अहो मां थिबुद्धी संश्रयन्ते ।
अर्थ--स्वप्न में उत्पन्न तुम्हारे समीप में आने के विश्वास से गाढ आलिङ्गन के लिए आकाश में हाथों को 'फैलाए हुए, उठने की इच्छुक मुझे देखकर अत्यधिक विमूढ़, करुणा से युक्त मृदु उपहास करने वाली सखियाँ आश्चर्य है कि स्मरण दिलाने के लिए जागी हुई मेरा आश्चय लेती हैं अर्थात् मेरे समीप में आ जाती हैं |
निद्रासनादुपहितरतेर्गाढमाश्लेषवृत्तेलंब्घायास्ते कथमपि मथा स्वप्नसंवर्शनेषु ।
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पाश्वभ्युदय
विश्लेषरस्याद्विहितरुदितै राधिजैराशुबोधैः, कामोsसह्य घटयतितरां विप्रलंभावतारम् ॥३७॥
निवासङ्गादिति । निद्रासङ्गात् निद्रासम्बन्धात् । स्वप्नसन्दर्शनेषु सुप्तस्य विज्ञानं स्वप्नः । सुप्तस्य विज्ञाने । 'दर्शनं सममे शास्त्रे दृष्टी स्वप्नेक्षणे सवित्' इति शब्दार्णवे । स्वप्न इति दर्शनानि विज्ञानानि तथोक्तानि । खूतवृक्षवत् सामान्य विशेषभावेन सहप्रयोगः । तेषु । मया कान्तमा । कथमपि महतवि यत्नेन । लब्धायाः गृहीतायाः दृष्टाया इति यावत् । उपहितरतेः प्रवृद्धप्रीतेः । से तव । गाढं दृढम् । आश्लेषसे आलिंगनवृत्तेः । माषजेः पुनः पीडाप्रभः । 'पु'स्याधिर्मानसीव्यथा' इत्यमरः । विहितरुवितैः विहितरोदनैः । लाशुबोधैः शी प्रबोधः क्षणनिद्राभङ्गैरित्यर्थः । वोषः प्रबोधे जागरणैरित्यर्थः । आशु शीघ्रम् | विश्लेषः बिगमनम् । स्यादुद्भवेत् । तथाहि । कामः मन्ययः रु तीन विप्रलम्भावतारं विप्रयोगावतरणम् । घटयतितराम उत्कृष्टं सन्दर्भमति । आशुप्रबोधवशात्स्वप्नजो म्याश्लेषी दृढं न प्राप्यत इति भावः ।। ३७ ।।
अन्वय - निद्रासंगात् स्वप्नसंदर्शनेषु कथं अपि लायाः उपरि ते गा विश्लेषः स्यात् इति विहितरुदितः बाधिजैः कामः विप्रलम्भावतारं घटयतितराम् ।
अर्थ- नींद के सम्पर्क से स्वप्न दर्शन में बड़े कष्ट से प्राप्त, प्रेमयुक्त तुम्हारे गाढ़ आलिङ्गन व्यापार का बियोग होगा, इस कारण से किए गये रोदन से तथा मानसिक पीड़ाजन्य शीघ्र जागने से कामदेव बियोग की अनुभूति को अत्यधिक असा करता है ।
तां तां चेष्टां रहसि निहितां मन्मथेनाऽस्मदङ्गे, त्वत्संपर्कस्थिरपरिचयावाप्तये भाव्यमानाम् ।
पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलीदेवतानाम्, मुक्तास्थूलास्तर किसलयेध्वथुलेशाः पतन्ति ॥ ३८ ॥ .
तामिति । रहसि एकान्ते । अस्मदङ्ग अस्माकं शरीरं । मन्मथेन कामेन निहिता स्थापिताम् कृतामित्यर्थः । त्वत्सम्पर्कस्थिरपरिचय प्राप्तये । तत्र संसर्गस्य विराभ्यासप्राप्तये । भाव्यमानां तो ताम् वीप्सायां द्विः । चेष्टां व्यावृत्तिम् । पश्यन्तीनां साक्षात्कुलीनाम् । स्पत्रोवेवतानां स्थलदेवतानाम् | 'वावप्यन्यलिङ्गी स्थलं स्थळी' इत्यमरः | वनदेवतानामित्यर्थः । मुक्तास्थूलाः मौक्तिकानांव स्थूलाः
भूलेशाः वाष्पविग्दवः । तदकिसलयेषु वृक्षवल्लवेषु । आनन चलाचलम् | अश्रु धारणसमाधिष्यते । बहुशो भूरिशः । न पतन्तौति न खलु किन्तु पतन्त्येवेत्यर्थः । निश्चयेनद्रयप्रयोगः । तथा च स्मृतिनिश्वयसिद्धार्थेनन् द्वयप्रयोगः इति । 'महात्म
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चतुर्थ सर्ग गुरुदेवानामग्रुपातः क्षितौ यदि । देवभ्रंशो महादुःखं मरणं च भवेद् ध्रुवं' इति ।। ८।।
अन्वय-मन्मयेन अस्मदल्ने न्हसि निहितां त्वत्सम्पर्क स्थिरपरिचयावाप्तये भाग्यमानां तां तां चेष्टां पश्यन्तीना स्थली देवतानां मुफ्तारथाला: अशुले शाः तरुकिराल में पु स्खलु बहुशः न पतन्ति ( इति ) न ।
अर्थ--काम के द्वारा हमारे शरीर में एकान्त में प्रस्थापित तथा तुम्हारे सम्पर्क से मिथर परित' की प्राप्ति में लिए की गई उस उस ( समस्त ) चेष्टा को देखती हई वनदेबियों की मोलियों के समान स्थल आँसुओं की बदें वृक्षों के पल्लवों में कई बार नहीं गिरती हैं, ऐसा नहीं है अर्थात् गिरती ही है।
भावार्थ-वृक्षों के पल्लनों में अश्रुबिन्दु के गिरने से कामुकी का मरणाभाव सूचित होता है । अश्रुओं के पृथ्वी पर गिरने से मरणसूचित होता है।
संक्षिप्येत क्षणमिव कथं दोघंयामा त्रियामा, प्राणाधीशे विधिविघटिते दूरवर्तिन्यभीष्ट । इत्यं कामाकुलितहृवया चिन्तयन्तो भवन्तम्, प्राणारखं श्वसिमि बहुशश्चक्रवाकीव तप्ता ॥३९॥ संक्षिप्येतति । विधिविटिसे विधिषियोजिते । अभीष्टे समोहिते । प्राणाधीयो प्राणनायके । वरवत्तिनि सति । दीर्घयामा दीर्घायामाः प्रहाः यस्याः मा बिरहवेवनया तथा प्रतोयमानेत्यर्थः । त्रियामा रात्रिः । त्रियामा क्षणवा क्षपा' इत्यमरः । आझुसरयोरयामयोदिनन्यवहारात्क्षपायास्त्रियामता । समिव क्षणकालपरिमाण मिव । कर्य फेन वा प्रकारेण । संमिप्येत लघुक्रियेत् । प्रत्यम् अनेन प्रकारेण । कामाकुलितहश्या कामेन आकुलितं भान्तं हृवयं चित्तं यस्याः सा । पक्रयाकोष प्पकवाकवानिलेव । तप्ता विरहदग्धा । प्ररणारक्षास्तम् असुपालकम् । भवन्त स्वाम् । चिन्तयन्सी स्मरन्ती सती । बहुशः बहुवारम् । अवसिमि उच्छ्वासं विदधामि ।।३९।। __ अन्यय-विषिविघटिते अभीष्टे प्राणाधीशे दूरवतिनी दीर्घयामा त्रिपामा क्षणं च कथं सक्षिप्येत ? इत्य कामाकुलितहृदया प्राणरक्ष भवन्तं चिन्तयन्ती तप्ता चक्रवाकी इन बहुशः स्वसिमि । ___ अर्थ-दैव से अलग किए गए अभीष्ट प्राणनाथ के दूरदेश में स्थित होने पर लम्बे पहरों वाली रात क्षणमात्र की तरह कैसे छोटी की जाय ? इस प्रकार काम से आकूलित हृदयवाली प्राणरक्षक आपका ध्यान करतो हुई विरहाग्नि से तप्त चकवी की तरह बार बार श्वाँस ले रही हूँ।
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पाश्वभ्युदय
ज्योत्स्नापातं मम विषहितुं नोतरां शक्नुवस्या:,
सर्वावस्थास्वहरपि कथं मन्दमन्दात्तः स्यात् । आचित्तेशप्रथमपरिरम्भोदयादित्य भीक्ष्णम्,
ध्यायामीवं मदनपरतासर्वचिन्ता निदानम् ॥४०॥
ज्योत्स्नापातमिति । आणि ते प्रथमपरिरम्भोवयात् प्राणेशस्य प्रथमस्य परिरम्भस्यालिङ्गन्स्योदय उद्भवस्तस्य पर्यन्तम् । 'अभिविधौ वाड्या गादाङ' इति पम्मी । 'आङीषदर्थेऽभिव्याप्ती सोमार्थे धातुयोगजे ।' 'परिरम्भः परिष्वङ्गः संश्लेष उपगूहनम्' इत्युभयत्राप्यमरः । पोरनापातं चन्द्रिकापत्तनम् । विषहितु सोकुम । नोतरी : अत्यर्थमासे । मायाम् निखिलदशासु सर्वदेत्यर्थः । अहरपि दिनमपि मन्दमन्दातपं मन्दमन्दो मन्दप्रकारः आप यस्मिन् तत् । 'रीद्गुणः सदृशे वा' शति द्विरुक्तिः । 'कर्मधारयवदुत्तरेषु' कति कर्मधारयवद्भावात् सुपो लुक् । मश्वमभ्वातपम् अत्यत्यसन्तापम् कस्यापिति केन चोपायेन भवेदिति । अभीक्ष्णं शश्वत् । नवमपरता सर्व चिन्तानिधानं मदनपरतायाः मन्मथपरतायाः सर्वाश्च तारिखम्ताश्च तासां निधानं प्रथमं कारणम् । 'निदानं स्वादिकारणम्' इत्यमरः । हृदमेतत् । ध्यायामि मन्मयस्याशे स्मरामि ॥ ४० ॥
अन्वय- ज्योत्स्नापातं विषहितुं नोतरां शक्नुवन्त्याः मम अहः अपि सर्वावस्था मन्दमन्दातपं कथं स्यात् इति इदं भवन परता सर्वविता निदान आवित्तेषप्रथमपरिरम्भोदयात् अभीक्ष्णं व्यायामि ।
अर्थ- चाँदनी का प्रसार सहने में अत्यधिक असमर्थ मेरे लिए दिन भी ( कामजनित ) सब अवस्थाओं में मन्द मन्द प्रकाश वाला कैसे हो, इस प्रकार इस कामवासना से जनित समस्तचित्त के उद्वेग के कारण इसको ( दिन मन्द मन्द प्रकाश वाला कैसे हो इस बात को ) प्राणनाथ द्वारा किए गए प्रथम आलिंगन के काल से लेकर अब तक निरन्तर सोच रही हूँ ।
कामावेशो महति विहितो कण्ठमाबाधमाने, त्वयासति गतमनुगतप्राणमेतद्द्वयं च ।
इत्थं चेतश्चलनयने दुर्लभप्रार्थनं मे, गाठोष्माभिः कृतमशरणं त्वद्वियोगव्ययाभिः ॥ ४१ ॥
कामावेश इति । महति अनल्पे कामावेशे मन्मथस्थावेशे तदवस्थाप्रवेश सत्यर्थः । विहितोहक बिहितमुत्कण्ठं यथा तथा आबावमाने आभाषत इत्या
बाधमान् स्तस्मिन् सति यथर्यात सति । चनपने चञ्चलदृशि अनासक्त दृष्टा
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चतुर्थ सर्ग
विस्यर्थः । त्वयि भवति । आसक्तं प्रीतिगतं प्राप्तम् । मे मम । चेतः चिसम् । घटुलनयने स्वयि । अनुगसप्राणम् अनुगता अनुकललां गताः प्राप्ताः प्राणा यस्य तत् । में अतश्च । दुर्लभार्थमं प्राप्यवाचनम अलभ्यमानमनोरयमित्यर्थः । एतवयं च एतयोर्द्वयमपि । गाडोमाभि अतितीवाभिः स्वद्वियोगध्याभिः भवद्वियोग पीलाभिः । इत्यम् एवम् । अवारणम् अनाथम् । कृतं विहितम् । "शरणं गृहरभित्रोः" इत्यमरः ॥ ४१ ॥
अवय-महति कामोवेशे विहितोकाई आनाप्रमाने चटुलनयने त्वयि आसक्ति गत अनुगत प्राणं च । इत्यं एतदद्रयं दुर्लभ प्रार्थनं मे चेतः माढोष्माभिः त्वनियोगव्यापाभिः अशरणं कृतम् ।
अर्थ-अत्यधिक काम की प्रबलता द्वारा उत्कण्ठापूर्वक काम की पीड़ा को उत्पन्न किये जाने पर मनोहर नेत्र बाले तुममें ( मेरा मन ) आसक्त हो गया है तथा उसमें विचारने की शक्ति क्षीण हो गई है अथवा तुम्हारे चिन्तन में लीन हो गया है। इस प्रकार इन दो याचनाओं वाला मेरा मन अत्यधिक दारुण तुम्हारे विरह के दुःखों से निराश्रय किया गया है।
तानप्राक्ष मदनविवशा युष्मदीयप्रवृत्तिम्, प्रत्यासान् हिमवदनिलान् कातरा मत्समीपम् । भिस्वा सद्यः किसलयपुटान्देववारदमाणाम, ये तस्वीरस्तुतिसुरमयो दक्षिणेन प्रवृत्ताः ॥ ४२ ॥ तानिति ।। ये वायवः । वेषवातमागां देवदारुबमाणाम् । किसलपपुरान् पल्ल. मपुरान् । समः तत्क्षणमेव । भिस्वा विभिद्य । तरक्षीरजतिसुश्मयः तत्पलवानां कोरसूतिभि रसत्यम्वनैः सुरभयः सुगन्धाः । दक्षिणेन अवाचीनमार्गेण । प्रवृत्ताः निर्गताः । तान् मत्समीपं मम निकटदेशम् । प्रत्यावासान् प्रत्यागतान् । हिमवनिलान् हिमवत्सर्वस सम्बन्धिनो वातान् हिमवदचलतः प्रस्थायिनो दक्षिणस्थमलयाचलस्य देवदारुद्रुमाणां गन्धमवाप्य पुनरागतान वायूनित्यर्थः । मवनविवज्ञा मन्मथाक्रान्ता । कातरा अपीरवत्यहम् । “अधीरे कातरसस्ते भीरुभीकभीलुकाः इत्यमरः । युष्मदोषप्रति भवरसम्बन्धिक्षेमवार्ताम् । “दोश्छः' इति इत्यः । "वार्ता प्रवृत्तितान्त उदन्तः स्यात्" इत्यमरः । अप्राक्षम् अपृच्छम् । “पृच्छ जीप्सायोलुङ् ।। तव कुशलोदन्तं तानशुणवमिति भावः ॥ ४२ ।। __ अन्वय-देवदारुनुमागां किसलय पुटान् सद्यः भित्त्वा तत्क्षीर स तिसुरभयः ये बक्षिणेन प्रवृसाः तान् मस्समोप प्रत्यावृत्तान् हिमवतिलान् मदनविवशा कातरा ( अहं ) युष्मघीय प्रवृत्ति अप्राक्षम् ।
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३१४
पाश्वभ्युदय
अर्थ - देवदारु के वृक्षों के कोमलपत्तों की पर्तों को तत्क्षण विदीर्ण कर उनके बहने वाले दूध से सुगन्धित जो ( हिमालय की वायु ) दक्षिण मार्ग से बहते हैं उन मेरे पास लौटी हुई हिमालय पर्वत की वायुओं से काम से विवश तथा अधीर मैंने आपका समाचार पूछा ।
इष्टे वस्तुन्यति परिचितं यत्तदप्यङ्गनानाम्, प्रीतेतुर्भवति नियतं यस्वदङ्गानुरोधात् । आलिङ्ग्यन्ते गुणयति मया ये तुषाराद्रियाताः, पूर्व स्पष्टं यदि किल भवेदङ्गमेभिस्तवेति ॥ ४३ ॥
इष्ट इति । यत् यस्माद्धेतोः । गुणवति गुणोस्यास्तीति गुणवान् तस्मिन् गुणविशिष्टे । इष्ठे अभिमते यस्तुनि । अतिपरिचितम् अत्यभ्यस्तम् । तत् तबपि इष्टवस्तुनि परिचितवस्तुध्वपि । अङ्गनानां वरिताताम् । प्रीते प्रेम्णः । नियर्स निश्वितम् । हेतुः कारणम् । भवति । तस्माद्ध ेतोः । एभिः एतैः । पूर्वं प्राक् तब ते । अङ्गं शरीरम् । स्पृष्टं भवेद्यवि संविलष्टं स्माध्चेत् । किलेति सम्भाव्यमेतदिति बुद्धिरित्यर्थः । "वार्तासम्भाभ्ययोः किल" इत्यमरः । ते तुषारात्रियाताः ते हिमवद'चलानिलाः । स्ववङ्गानुरोषात् नवशरीरानुवर्तनात् "अनुरोषोऽनुवर्तनम्" हृत्यमरः । तव शरीरं यथा तथेत्यर्थः । मया कान्तया । आलियन्ते आश्लिष्यन्ते ।। ४३ ।।
अभ्यय इष्टे गुणवति वस्तुनि यत् अति परिचित तदपि मङ्गनानां यत् नियतं प्रीतेः हेतुः भवति ( तत् ) एभिः तब अङ्ग यदि किल पूर्व स्पृष्टं भवेत् इति स्वदङ्गानुरोधात् ते तुषारादि वाताः मया आलिङ्ग्यन्ते ।
अर्थ --- कामिनियों को इष्ट गुण वाली वस्तु में जो अतिपरिचित है वह भी यतः निश्चित प्रीति का कारण होती है अतः इन्होंने तुम्हारे अंग का पहले स्पर्श किया होगा इस प्रकार तुम्हारे शरीर के प्रति अनुराग के कारण वे हिमालय की वायु मृक्ष कामिनी के द्वारा आलिङ्गित की जाती हैं।
तन्मे वोर प्रतिवचनकं देहि युक्तं वृयाशाम्,
मा कार्बोम यदि च रुचितं ते तदाभाष्यमेतत् ।
नात्मानं बहुविगणयन्नात्मनैवावलम्बे, तत्कल्याणि त्वमपि तितरां मा गमः कातरत्वम् ॥ ४४ ॥
तदिति । तत् तस्मात् । वीर भो दानवोर ! 'शूरो वीरश्च विक्रान्तः ' इयमरः । मे मम कान्नायाः । युक्तं युक्तियुक्तम् । प्रतिवचनकं प्रत्युत्तरम् । देहि देयाः । माम् । वृथाशां व्यर्थाभिलाषवतीम् । मा कार्षीः मा कृथाः । ननु भो प्रिये ।
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३१५.
चतुर्थ सर्ग अहम् । विगणयन् योगाने सत्यऽमय विहरिष्यामीति मनस्यावर्तयन् । आत्मानं माम् । आत्मनेव स्वनेन । प्रकृत्यादिम्य उपसा रूपानात्तृतीया। अबलम्ब धारयामि यथाकचिम्नीमाभीत्यर्थः । तत् तस्मात् कारणात् । ल्याणि भो सौभाग्यवति । 'बहादेः' इति डो। अनेन सौभाग्यनाहं जीवामीत्याशमः । त्वमपि अहमिव भन्नस्थगि निनाम् सत्याना शाम वा सासरस्पर अधीरत्वम् । 'अधीरे कातरसस्ते' इत्यमरः । मा गम: मा गण्छ । गमेलुङ । इत्येताचः । ते तव । यदि । रचितं त्रेस् तहि 1 तवा तत्समये । भाष्यं वक्तव्यम् । एवं वक्तुमभिलाषा चेत्ब्रहीति भावः ।। ४४ ।। ____ अन्धय-तत् वीर मे युक्त प्रतिवचनकं दहि, मां पृषाशा मा कार्कः, यदि च ते रुपितं तदा ननु बहुविगणयन् आत्मानं आत्मना एव अवलम्बै, तत् कल्याणि त्वमपि नितरां कातरत्वं मा गमः 1 ( इति ) एतस् ते आभाष्पम् । ___ अर्थ-अतः हे वीर ! मुझे योग्य उत्तर दो, मुझे विफल आशा वाली मत करो तथा यदि तुम्हें रुचिकर हो तो 'हे प्रिये ! बहुत विचार करता हुआ अपने को आप ही सँभालता हूँ, इसलिए हे कल्याणी ! तुम भी ज्यादा अधीर मत होओ ऐसा तुम्हें कहना चाहिए।
एवं प्रायां निकृतिमसुरः स्त्रीमयोमाशु कुर्वन्, व्यर्थोद्योगः समजनि मुनौ प्रत्युतागात्स दुःखम् । कस्यैकान्तं सुलमुपनसं दुःखमेकान्ततोवा, नीचंर्गच्छत्युपरिव वशा चक्रनेमिक्रमेण ॥४५॥
एवमिति । मुनी पावनायें । असुरः दैत्यः । एवम् । प्राय बहुलाम् । 'प्रायो भूम्न्यन्तगमने' इत्यमरः । स्त्रीमयी स्त्रीविकाराम् स्त्रीप्रकृति वा । निकृति पाठ्मम् । 'कुसृप्तिमि कृतिः शाट्यम्' इत्यमरः । प्राशु शीघ्रम् । फुर्वन् वितन्यन् । भ्यर्थोद्योगः निष्फलप्रयत्नः । सममनि समजायत । प्रत्युत किं पुनः सः दैत्यः । दुःखं व्यथाम् । अंगात् अगमत् । तथाहि एकान्त केवलम् । अत्यन्तमिति वा पाठः । अत्यन्तं नियतम् । मुखं सौख्यम् । पुरुपस्य उपनतं प्राप्तमिति प्रश्नः । एकान्ततः नियमेन । दुःखं वा दुःख माग । कस्योपनतम् । किन्तु | दशा सुख-दुःस्खयोरवस्था । चक्रनेमिक्रमेण चक्रस्य रथाङ्गस्य नेमिरतदन्तश्चक्रम् । 'चक्रं रथाङ्ग तस्मान्त नमिः स्त्रो स्थात्प्रधीः पुमान्' इत्यमरः । तस्याः क्रमण फ्रभाः । नीचरधस्तात् । उपरिध ऊबपि। गच्छति प्रवर्तते । जन्तोः सुखदुःख पर्यावर्तते । न ध्रुव भूते इत्यर्थः ॥ ४५ ॥
अन्वय-असुरः मुनी एव प्रायां स्त्रीमयों निकृति कुर्वन् आशुयर्थोधोगः
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पाश्र्वाभ्युदय समजनि प्रत्युत् सः दुःख अगात् । कस्य एकान्तं सुख उपनतं एकान्ततः दुख वा? चक्रनेमिक्रमेण दशा नीचः उपरि व गच्छत्ति ।
अर्थ-असुर मुनि के विषय में इस प्रकार की स्त्री विषयक भत्सना ( अपकार ) करता हुआ सोम विल प्रमाबाला हो गया, किन्तु यह दुःखी हो गया । किसे लगातार सुख हो सुख अथदा दुःख ही दुःख प्राप्त हुआ है। सुख और दुःख को अवस्था पहिए की धुरी के समान क्रम से नीचे और ऊपर की ओर जाती है । इतः पूर्वार्धपाहवेष्टितेन पश्चादर्धपादर्वेष्टितम्--
यस्मिन्काले समज नि मुनेः केवलज्ञानसम्पधस्मिन्बत्यो गिरिमुदहरनमूनि चिक्षेप्सुरस्य । तत्काल सा शरवुदभवक्तु कामेतिवोच्चैः, शापान्तो मे भुजगशयमास्थिते शाङ्गपाणी ॥४६॥ यस्मिन्निति । यस्मिन् काले । दैत्यः असुरः । अस्प पावतीर्थनाथस्य । मूर्टिन मस्तके । 'भूर्घा ना मस्तकोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः । विशेप्सुः क्षेप्तुमिच्छुः । गिरि पर्वतम् । उवहरत् घरति स्म । तत्काले तस्मिन् काले । मुनेः पाश्बनावस्य । कैवलझानसम्पत् कैवल्यबोधसम्पत्तिः । समजनि जायते स्म । बागपाणी शार्ज पाणी यस्य तस्मिन् विष्णो । 'प्रहरणारसप्तमी च' इति पाणिशब्दस्य विकल्पतः पूर्वनिपातः। भुजगशयनात् भुजगः मोषः एव शमनं तस्मात् । उस्थिते उत्तिष्ठते स्म उत्थितः तस्मिन्सति । मे मम शापान्त इति । शपनावसानमिति । सा शरत शरदृतः । तत्कालं शापकालम । उच्च अधिकम् । वासुकामा वा वक्तुकामा तथोक्ता वस्तुमिच्छन्तीव । वा शब्द श्वार्थे । उन्भवत् उद्बभूव । शरत्कालाविरेव हरिप्रबोधनकालः तस्मिन् शरत्कालाबौ स्वामिनः केवलशानं समजायतेति भाषः ॥ ४६ ।।
अन्वय-पस्मिन् काले मुनेः केवलज्ञानसम्पर समनि, यस्मिन् दैत्यः अस्य मूनि चिक्षेप्सुः गिरि उबहरत् तत्काले शाङ्गराणो भुजगशयनात् जस्थिते में शायान्तः इति उच्चैः वक्तृकाभावासा शरत् उद्भवत् ।
अर्थ-जिस समय मुनि की केवलज्ञान रूपी सम्पत्ति उत्पन्न हुई और जिस समय दैत्य ने इनके सिर पर पटकने की इच्छा से पहाड़ उठाया उसी समय "विष्णु के शेष शय्या से उठने पर मेरे । शरद् ऋतु के ) शाप का { प्रतिबन्ध का ) अन्त होगा' इस प्रकार मानों ऊँचे स्वर से कहने की इच्छुक वह शरद् ऋतु उन्नति को प्राप्त हुई अर्थात् प्रकट हुई।
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चतुर्थ सर्ग
३१७ व्याख्या-जिस समय भगवान् को केवलज्ञान हुआ उस चैत्र मास के समय में शरत्काल का प्रादुर्भाव हुआ । भगवान् पाश्र्व विष्णु के समान श्यामवर्ण थे अतः यह विष्णु हो हैं, इस प्रकार लोगों को भ्रान्ति हुई। विष्णु चुंकि शरत्काल में शेष शय्या से उठते हैं अतः लोगों ने रागझा कि यह कार्तिक मास है । इस प्रकार चंद्रमास में भी दशरद्काल प्रकट हुआ ।
ज्योत्स्नाहासं दिशि दिशि शरत्तन्वती प्रादुरासीइत्यस्थाऽस्य प्रहसितुमियाज्ञानवृत्ति दुरन्ताम् । वैमल्यन स्फुटमिति दिशां रुन्धतीवोष्णकालं, मासानत्यानगमग जो लोग्ने भोलमिया ॥ ४५ ॥ ज्योत्स्नेति । शारत् शरत्कालः । तस्य कमटचरासुरस्य दुरन्ता टुष्टोऽन्तोषस्पास्ताम् दुःखफलाम् । अज्ञानवृत्तिम् अबोघवर्तनाम् । प्रहसितुमिव अपहमितुमित्र । विशिक्षिशि ककुभिककुभि । वांग्लायां दिः । सस्विपि दिशास्वित्यर्थः । ज्योत्स्नाहासं ज्योत्स्नं बहासस्तम् । तन्वती तनोतीति तन्त्रता शतृत्यः । 'मृदुक्' इति हो । लोचने नयने । मोलयित्वा निमील्य । अन्यान् कोषान् । चनुरो मासान् मासचतुष्टयम् । गमय यापय । इति पत्रम् । विशाम् आशानाम् । वैमत्येन नमत्येन । उज्यकाल निदाघम् । 'निदाघ उष्णोपयम उष्णत ऊष्मागमस्तपः' इत्यमरः । स्फुट व्यक्तम् ।
धतीव आवश्चतीव । प्रावुरासोत् प्रादु बंभूव । प्रकाशमाना बभूवेत्यर्थः । 'प्राकाश्ये प्रादूराविः स्यात्' इत्यमरः । षष्णाम् ऋतूनाम् त्रिकालत्वेनाभिननात् वार्षाकालासर्भूतकारदृतोः सकाशात् अन्यान् हिमशिविरात्मकस्य हेमन्तस्य चतुरो मातानतोत्य बसन्तग्रीष्मात्मको निदाघकालो भविष्यतीति भावः ।। ४७ ।।
अन्वय-अस्य देतस्य दुरन्ततां अज्ञानवृत्ति प्रसितुमिव ज्योत्स्नाहासं दिशि दिशि तन्वती दिशा यमल्येन 'चतुरः ( त्वं ) मीयित्वा लोचने अन्यान् मालान् गमय' इति उष्णकाल स्फुट रुन्धती इव शरद् प्रादुरासोत् । ___ अर्थ--इस शम्बरासुर दैत्य की दुष्परिणाम युक्त ज्ञानशून्य क्रिया का मानों उपहास करने के लिए चांदनी रूप हास्य को प्रत्येक दिशा में फैलाती हुई दिशाओं को निर्मलता से चतुर ( तुम उष्णकाल ) आँखें मूद कर अन्य चार मासों को बिताओ।' इस प्रकार गर्मी के समय को मानों स्पष्ट रूप से रोकती हुई पारद् ऋतु आ गई ।
व्याख्या-चैत्रमास में सूर्य के उत्तरायण होने से उष्णकाल होने पर भी धरणेन्द्र के द्वारा निर्मित मण्डलाकार शरीर रूपी शय्या के ऊर्श्वभाग में उत्थित भगवान् को शरत् ने देखा तो उसने समझा कि यह विष्णु ही
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३१८
पार्वाभ्युदय शेष शरया से उठे हैं, अतः यह कातिकमास ही है, ऐसा समझकर वह गर्मी के समय से कहने लगी कि अभी तुम्हारे आने में चार माह और बाकी हैं, इन अवशिष्ट मासों को तुम आँख मूदकर बिताओ ।
जाताकम्पासननियमितः सावधिर्नागराजः, कान्तां स्माह प्रथममधिपं पूजयावोऽद्य गत्वा । पश्चावायां विरह गुणितं तं तमेवाभिलाषं, निर्वेश्यायः परिणतशरच्चन्द्रिकासु क्षपासु ॥४८॥
जातति । जाताकम्पासननियमित: जात आकम्पो यस्य ताताकम्प तय तदासनं च तेन निमितः नियुक्त: । साधिः अवधिज्ञामसहितः । मागराजः धरणेन्द्रः । कागा मावापीम् मा म उलामा र नीम् : पात्वं चाहं चावाम् । त्यदादिरित्येक शेष समासः । गत्वा यात्वा । प्रथम पूर्वम् । अषिपं सर्वशम् । पूजयायः महयावः पश्चावनन्तरम् । परिणतरसम्रद्रिकासु परिणता प्रौढा शरकत्र न्द्रिका शरदिन्दुकौमुदी यासां तासु । 'चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना' इत्यमरः । क्षपासु निशासु । 'त्रियामा क्षणवा अपग' इत्यमरः । विरहगुणितं विरहे गुणितम् एवमेवं करिष्यात इति मनस्यावत्तित मिति भावः । तंतम् । वीप्सायां दिः । सर्वमित्यर्थः । अभिलाषं तर्षम् । 'कामोऽभिलाषस्तषश्च' इत्यमरः । एवं नियमेन । निर्वेश्याष: भोश्यावः । 'निवेशो भृति गयोः' इत्यमरः ॥ ४८॥
अन्यय-जाताकम्पासननिमितः सावधिः नागराजः कारतां आह स्म 'अध्र गत्वा प्रथम अत्रियं पूजयावः, पश्चात् परिणतशर चन्द्रिकासु पासु विरह. -गुणित तं एष अभिलाषं निर्येक्ष्यावः । ___ अर्थ-आसन के कम्पायमान होने से प्रेरित अवधिज्ञान युक्त नागराज ( धरणेन्द्र ) ने ( अपनी ) स्त्री से कहा-आज जाकर पहले स्वामी पाच जिनेन्द्र की पूजा करें, अनन्तर शरद् ऋतु की प्रौढ चाँदनी से मुक्त रात्रियों में विरह से बढ़ी हुई समस्त अभिलाषाओं का हम दोनों भोग करें। पूर्वपश्चार्धयोरवर्धवेष्टितमेवप्रस्थानेऽस्य प्रहतपटहे दिव्ययानावकोणे, कश्चित्कान्तां तदनुगजन: सस्मितं वीक्षते स्म । भूयश्चाह त्वमसि शयने कण्ठलग्ना पुरा मे, निवां गत्या किमपि यवती सस्वरं विप्रबुवा ॥ ४९ ॥ प्रस्थान इति । प्रहसपटहे प्रहतास्ताडिताः पटहा पस्मिन् सस्मिन् । विम्योमाष
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पतुर्थं सग की दिव्ययानविमानैरवकीर्णे | अस्य नागराजस्य । प्रस्याने गमने । 'प्रस्थान गमनं गमः' इत्यमरः । पातीर्थनाथस्य केवलज्ञानकल्याणयात्रामित्यर्थः । कञ्चिस्कोपि । तदनुगमनः तस्य अनुगच्छतीति तदनुगः स चासो जनश्च तथोक्तः नागेन्द्रानुचरः । 'भृत्योथ भूतकः पत्तिः पदातिः पदनाऽनुगः' इति धनम्जयः । कान्ता निजपरनोम् । सस्मितं स्मितेन सहितं यथा तथा ईक्षते स्म ईशाञ्चक्र । भूयश्च पुनरपि । माह बमोति । पुरा पुराशब्दश्चिरातीते । 'स्यात्प्रबन्ध चिरातीते निकदागामिके पुरा' इत्यमरः । पुरा पूर्वम् । शयने शय्यायाम । ये मम । कण्ठलग्ना गलाश्लिष्टा । वं भवती । गलबक्षस्य कममन्यगमनं न सम्भवेदित्यर्थः । निद्रा गस्था प्राप्य । किमपि केन वा निमित्तेनेत्यर्थः । सस्वर सशब्दम् । उच्चरित्यर्थः । रुदती रोदनं कुर्वती । विप्रयता प्रबोधवसी । असि भवसि ||४९।।
यत्तवृत्तं स्मरसि सुभगे मामुपालन्धुकामा, मन्ये स्वोषकुपितमिव में दर्शयन्ती प्रपासि । सान्तहाँसं कथितमसकृत्पच्छतोसि स्वया मे, दृष्टः स्वप्ने कितव रमयन्कामपि त्वं मयेति ॥ ५० ।। यत्तदिति ।। सुभगे मो सौभाग्यवति । असकृत् बहुशः । पृष्ठतः शृण्वतः । में भम । कितब भी धूर्त । त्वं भवान् । कामपि कामपि प्रियाम् । रमयन क्रीज्यम् । मया स्वप्ने दृष्टोसि ईक्षितोऽसीति । त्वया कामिन्या । सातहसिम् अन्तहाँसेन सहितम् यथा तथा । कधितं भाषितम् । यकृत पढ़तनम् । माम् उपालन्युकामा मा हन्तुकामा । स्मरसि ध्यायसि । तु पुनः । ईषस्कुपितम् प्रणयकोफ्म । मे मम । यिन्तीव प्रकाशयन्तोव | प्रपासि पालयसि । जाने मन्ये । इति पूर्वेगान्वयः ॥ ५०।।
अन्वय--विधयानावकोणे अस्य प्रस्थाने प्रवृत्तपटहे । ससि ) कश्चित् तदनु• गजनः कान्तां सस्मितं बीक्षते स्म, भूयः च आह-सुभगे ! त्वं पुरा शयने मे कण्ठसाना निद्रा गत्वा किमपि सस्करं रुदती विप्रबुद्धा असि, यत् वृत्तं तत् स्मरसि, मां उपालम्वुकामा सु में ईपत् कुपितं इव दर्शयन्ती प्रपासि ( इति । मन्ये, बसकृत् पृच्छतः मेहे कितव कामापि रमयन् त्वं मया स्वप्ने दृष्टः असि । इति स्त्रया सान्तहसिं कथित ॥४९-५०॥ ____ अर्थ-दिव्य बान से प्राप्त इस धरणेन्द्र के प्रस्थान के समय मृदंग बजते पर किसी उनके नेवक ने मुस्कराकार कान्ता को देखा पुनश्च कहाहे सन्दरी ! पहले शय्या पर मेरे गले से लगकर सोई हुई तम किसी कारण से ऊंचे स्वर मे रोती हुई जाग उठी हो, स्वप्न में जो घटना हुई उसका तुम्हें स्मरण है, मुझे उलाहना देने की इच्छा से मानों मेरे ऊपर कुछ कोप सा दर्शाती हुई प्राप्त हुई थी ऐसा में मानता हूँ। बार-बार मेरे पूछने पर
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पाश्वभ्युदय
तुमने मन्द हास्य कर 'हे धर्त ! मैंने स्वप्न में किसी स्त्री से रमण करते हुए तुमको देखा', ऐसा कहा था ।
दृष्ट्वाहीन्द्र स्थितमधिजिनं सत्पर्य सजानि, प्रारभेऽसौ सभयमसुरो मुक्त शैलोपयातुम् । रुद्धश्चैव धरणपतिना भो भवान्माऽपयासी,
तस्मानां कुशलिनमभिज्ञानदानाद्विवित्वा ॥ ५१ ॥ दृष्ट्वेति । अधिजितं जनाधिकृत्य प्रवर्तमानं तथोक्तं तस्मिन् । 'लब्धप्रय' इत्यादिनाव्ययीभावः । जिनेन्द्राभिमुखमित्यर्थः । स्थितं तिष्ठतिस्म स्थितस्तम् । सत्यं सती मर्या यस्य तम् । 'सपर्या 'बार्हणा सभा' सजन सह जायया बस इति सजा निस्तम् | 'जायाया जानिः' इति बहुव्रीहावादेशः । महीन्द्रं घरणीधरेन्द्रम् दृष्ट्वा प्रेक्ष्य | सासुरः एष देश्यः । सभयं भयसहितं यथा तथा । मुक्तशैल: त्यक्तवंतः सन् । तन्मुनीन्द्रस्योपरिक्षेप्तुमुद्धृतं गिरि मुविनिक्षिप्येत्यः । अपयातुम् अपगन्तुम् । प्रारंभ उपचक्रमे । च पुनः । श्री भवान् है दैत्य स्वम् । एतस्मात् अस्मात् | अभिज्ञानदानात् अभिज्ञायत इति अभिज्ञानं लक्षणं तस्य मादानं वितरणं तस्मात् । मां नागेन्द्रम् । कुशलिनं क्षेमवन्तम् । विविया ज्ञात्वा । भाग्यासीत् भवच्छन्दयोगात् शेषमच्छेत्यर्थः । एवम् इत्यभयदानेन | धरणपतिमा धरणेशेन । रुद्धः व्यवस्थापितः ।। ५१ ।।
अन्वय-सत्सप सजानि अहीन्द्र अधिनिगं स्थितं दृष्ट्वा मृतशैलः असुरः सभयं अपयातु प्रारंभ; एतस्मात् अभिज्ञानदानात् मां कुशलिनं विदित्वा भो भवान् अयासीत् [ इति ] एवं घरणपतिता रुद्धः च ।
अर्थ- समीचीन पुजन के द्रव्य से युक्त पत्नी सहित धरणेन्द्र को जिनेन्द्र भगवान् के सामने खड़ा हुआ देखकर पर्वत को छोड़ देनेवाले असुर ने भव सहित भागना प्रारम्भ किया। इस ( आगे के श्लोक में वर्णित ) पहिचान के साधनभूत वृत्तान्त के प्रतिपादन से मुझे ( नागराज को ) कल्याणकारी जानकर हे शम्बरासुर तुम मत भागो, इस प्रकार ( अभिज्ञानदान वचन से ) धरणेन्द्र के द्वारा वह रोक लिया गया । पूर्वार्धपादवेष्टितं पश्चार्द्धार्धिवेष्टितम्-
देवस्यास्य प्रियसहजकः पूर्वजन्मन्यभूस्त्वं, स्त्रीकाम्यंस्तं प्रसभमवधीर्वेरकाम्यंस्तदैनम् । तत्ते मौद्यात्कृतमनुचितं मषितं न त्वयापि मा कौलीनावसितनधने मय्यविश्वासनी भूः ॥ ५२ ॥
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चतुर्थ सर्गः
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देवस्येति । पूर्णजन्मनि कमठचरमरुभूतिभते । अस्य देव । मणि पाश्वतीर्थ नाथस्य । त्वं भवान् । प्रियसहजकः सह जायत इति सहजः स एव सहकः प्रियवासी सहजकपच तथोक्तः । कमदसामा प्रियभ्रातुकः । अभूः अभवः तवा तत्काले । स्त्रीकाम्यन् स्त्रोमिच्छत्यात्मन इति । वैराग्यन् सन् । तमेनं स्वामिनम् । प्रसभं सहसा । 'प्रसभस्तु बलात्कारो हठः इत्यमरः । अषषीः जबनिथ । 'वश्व हिंसायां लुङ् । तत् तस्कार्थम् । ते तषः । मोठ्यात् अज्ञानातृ । व्यनुचितम् अयुक्तम् । कृतमपि विहितमपि । श्वया भवता । न मर्षितं न शमितम् । निरपराधिनं न वषामीति न निश्चितमित्यर्थः । मयि नागेन्द्रे । असितनयने असते रक्ते नयने यस्य तस्मिन् सति । कोलीनात् कुले भवात् कोलोनात् लोकवादात् । 'स्यात्कौलीनं | लोकजादे युद्धे पवहिपक्षिणाम्' इत्यमरः । मध्यविश्वासनी भूः प्रागनविश्वासनः इदानीम्म विशासनो मा भूरिति तथोक्तम् । अविश्वासवान्मा भूरित्यर्थः ॥५२॥
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अन्वय -- पूर्वजन्मनि स्वं अस्य देवस्य प्रियसहजकः अभूः । तथा स्त्रीकाम्यन् वैकाम्यन् [ त्वं ] एनं तं प्रसभं अवधीः । मीयात् अनुचितं तत् कृतं स्वया अपि न मर्षितम् | [ अतः ] असितनयने मयि कोलीनात् अविश्वासनी मा भूः ।
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अर्थ - पूर्व जन्म में तुम इस देव के प्रिय भाई थे। उस समय ( भाई की ) स्त्री की कामना से बैर करने की इच्छा करते हुए तुमने इस पार्श्वनाथ जिनेन्द्र को जो उस समय मरुभूति था हठ से मार डाला। मूढ़ता के कारण औचित्य से रहित वसुन्धरा की अभिलाषा कर्म को भी तुमने नहीं सहा । इस अभिज्ञान के दान से लाल नेत्रवाले मुझ नागराज के प्रति (लाल नेत्र वाले नाग विश्वास योग्य नहीं हैं) इस लोकनिन्दा के कारण अविश्वासी मत होओ।
धिक्कृत्यैनं महुरथ सजूकृत्य तं सोऽहिराजो, भक्त्या भर्तुश्चरणयुगले प्राणमत्स्नेहनिधनः । स्नेहानाः किमपि विरहे हासिनस्तेप्यभोगाविष्टे वस्तुत्युपचित रसाः प्रेमराशी भवन्ति ॥ ५३ ॥
चीकृत्येति । अथ अनन्तरे । धिक्कृत्येति पाठे । स अहिराजः नागेन्द्रः । तं एवं दैत्यम् । सुहः पुनः पुनः । धिक्कृत्य तदपराधोद्भावनेन निर्भत्स्य । अथ तमसुरम् । सकृत्य सम्बन्धी नृत्य । भक्त्या गुणानुरागेण । भतुः अहंस्वामिनः । चरणयुपले पादारविन्दद्वये । स्नेहनिध्मः स्नेहाचीनः । 'अधीनो निघ्न आयतः' इत्यमरः । प्राणमत् प्रणति स्म । अत्र स्नेहनिधन इत्यनेन नागेन्द्र पक्षमावत्योः प्राग्भवेदा२१
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पावभ्युिदय मानकाष्ठान्तर्गतस्य सर्पयुगलस्य पावनायेन कृतोपकारो व्यन्यते । म च दीर्घ. कालविप्रकर्षात् पूर्णमोहलियाहाहानिति । नमपि किंवा निमित्तम् । अन्योन्य विपकर्षे मति । ह्वासिनः ध्वंसिनः नवरानिस्यर्थः । स्नेहान् प्रेम्णः । आहुः झुन्ति । तत्तथान भवतीत्यभिप्रायः । तेऽपि तेऽपि स्नेहाः । मभोगात् विरहभोगात् हेतोः 1 प्रसज्यप्रतिषेधे नसमास इष्यते । इष्टे समीहिते वस्तुनि । ये उपचितरसाः उपषितो रसः स्वादो येषां ते तथोक्ताः प्रवृद्धतष्णास्सम्त इत्यर्थः । 'रसो गन्धर सास्वादे तिस्तादौ विषरागयोः' इति विश्वः । प्रेमराशी भवन्ति स्नेहाऽसिशयी भवति । वियोगसहिष्णुस्वभाबन्ते इत्यर्थः । स्नेहप्रेम्णो रवस्थामेदाभेदः । तदुक्तम् 'आलोके नाभिलाषो रागस्नेही ततः प्रेम । परिक्षारयोगवियोगविप्रसम्भाश्य' इति । एतदेव स्फुटोकृतं रसाकरे 'प्रेमाविदृक्षोरम्येषु तत्रिचन्ताभिलाषः तत्सङ्ग बुद्धि, स्यास्नेहः तत्प्रवणक्रियाः तद्धियोगासह प्रम अतीव तत्सबर्तनं शृङ्गारः तत्समक्रीडासयोगः सप्तधा क्रमः इति ॥ ५३ ।।
अन्याय-अथ एनं तं मुहः विकल्प सजूकृत्य सः अहिराजः भतु चरणयुगले स्नेहनिमः मक्त्या प्राणमत् ! ( यत् ) विरहे स्नेहान् हासिनः आहु (तत्) किमपि । ते अभोगात् इष्टे वस्तुनि उपषितरता ( सन्तः)। प्रेमराशी भवन्ति ।
अर्थ-अनन्तर पूर्व भव के देरी इस शम्बरासुर को बार-बार धिक्कार कर सहायक बनाकर उस नागराज ने भगवान पाय जिनेन्द्र के दोनों चरणों में स्नेह के अधीन होकर प्रणाम किया [ जो लोग ] विरह में स्नेहों को नाशशील कहते हैं वह नहीं कहना चाहिए। ये ( स्नेह ) उपभोगन होने के कारण अभीष्ट पदार्थ में अभिलाष बढ़ने के कारण प्रेम के राशि रूप हो जाते हैं।
संक्षेपाच्च स्तुतिमुरगराट फर्तुमारब्ध भतुंः, श्रेयस्सूते भवति भगवन्भक्तिरल्पाप्यनल्पम् । श्रेयस्कामा धयमत इतो भोगिनी नोऽनुकूला
माश्वास्यैनां प्रपमविरहें शोकष्टां सखी ते ॥ ५४॥ संक्षेपादिति । उरगराट् नागराजः । भतु: तीर्थेशस्य । स्तुति व स्तोत्रमणि । 'स्तवः स्तोत्रं स्तुतिर्नुतिः' इत्यमरः । संक्षेपात् समासात् । काँकरणाय । आरव्य उपचक्रमे । भगवन् भो स्वामिन् । भवति त्वयि । भक्तिः गुणानुरागः । अल्पापि महीयस्यपि । अमल्पं महत् । श्रेयः भद्रम् । सूते विदधाति । अतः अस्मानारसत् । अंक्स्कामाः श्रेयोभिलाषिणः । वयं भाक्तिकाः । ते तव । प्रममनिरहे माद्यकिप्रलम्मे । शोहदष्टां दु:साकारताम् । प्रथमबिरहोवयोममिति वा पाठः । प्रथमबिरहादुनः सग्नतः शोको यस्पास्ताम् । पूना समोम् स्वमति प्रियाम् ।
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चतुर्थ सर्गः
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बाश्यास्य उज्जीव्य । नः अस्माकम् । अनुकूलाम् अनुरूपाम् । भोगिभी भोगवती नागस्त्रीम् । प्राप्ता इति भाषः ॥ ५४ ।।
अन्वय-उरग राट् सक्षेपात् भतु': स्तुति च कतु आरम-भगवन् ! भवति अल्पा अपि भक्सिा अनरूपं श्रेयः सूते । अतः प्रथमविरहे शोकदष्टां नः अनुकूलां एना सली भोगिनी आश्वास्य ते वयं श्रेयस्कामाः (सन्तः) इतः (प्राप्ताः) ।
अर्थ-नागराज ने संक्षेप में भगवान जिनेन्द्र की स्तुति करना आरम्भ किया--हे भगवन् । आपके विषय में थोड़ी भी भक्ति विपुल पुण्य को उत्पन्न करती है । अतःप्राथमिक विरह में शोक से अत्यन्त पीड़ित हमारी अनुकूल इस सखी नागिन पली को आश्वासन देकर बे ( जिनका शरीर जल गया था ) हम लोग कल्याण के अभिलाषी होकर यहां आये हैं।
भावार्थ-धरणेन्द्र ने स्तुति की कि हे भगवन् ! पूर्वजन्म में कमठ के जीवधारी तापस के द्वारा जलाए जाने पर आपके द्वारा सम्बोधित होकर हम देवयोनि को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार थोड़ी भी भक्ति अधिक फल को देती है | हम लोगों का और भी अधिक कल्याण हो, ऐसी भावना से हम लोग पुनः आपके चरणों में नम्र होकर पूजा के लिए आये हैं । कमठ के जीवधारी तापस द्वारा जला देने पर नाग-नागिनी का पहले विरह हो गया था । अनन्तर देवगति में पुनर्मिलन हुआ। दोनों भगवान पार्श्व को यूजा करने के लिए आए ।
तमेवार्थ स्पष्टयतिसैषा सेवां त्वयि विवधति श्रेयसे में दुरापं, यन्माहात्म्यात्पदमधिगतं कान्तयामा मयेदम् । यस्माच्चैनं तदनुचरणेनाहमुमन्विहारं, तस्मादस्त्रिनयनवृषोरखासकटानिवृत्तः ॥ ५५ ॥
सेति । यामाहास्यात् यस्याः भक्तेः सामथ्र्यात् । कान्तयामा वनितया सह । 'अमा सह समीपे व' इत्यमरः । मया फणी शेन । दुरापं दुदु: खेन माप्यत इति दुरापं प्राप्तुमशक्यम् । इवं पबम् एतन्नागेन्द्र पदम् । 'पदं व्यत्रसितत्राणस्थानलक्ष्मानि वस्तुषु' इत्यमरः । अधिगतं प्राप्तम् । यस्माउच कारणात् । अहम् अहीशः । सवनुपरणेन तस्याः भमरनुकूलाचरणेन । एमं प्रकृतम् । विहारं लीलाविहरणम् । उपमन् स्यजन् । त्रिनयनकोस्वातकूटात् त्रिनयनस्य विमेवदिगीशस्य वृषेण वृषभेन 'सुकृते वृषभे वृषः इत्यमरः । उत्खाता भवतारिताः कूटाः शिखराणि यस्य तस्मात् । 'कूटोऽस्त्री शिखरं शम्" इत्यमरः । तस्मारनेः कैलासात् । निवृत्तः घ्यावृत्तो
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पाश्र्वाभ्युदय
स्मि । स्वद्भमत्यैव प्रकृतं बिहार श्ययस्वा निवस इत्यर्थः । संषा त्वक्तिः । के मम । श्रेयसे सुखाय । स्वयि जिनेन्द्र । सेबा सेवनम् । जिवषते बिति ।। ५५ ।।
अन्वय-यन्माहात्म्यात मया कान्तया अमा इवं दुराप पदं अधिगतं, यस्मात व तदनुचरणेन अहं बिहारं उज्मन् विनमवषोरखानकटात्तस्मात् अद्रे: निवृत्तः सा एषा त्वयि सेवा विघयतः मे श्रेयसे ।
अर्थ-जिस भक्ति के प्रभाव से मुझे पत्नी के साथ यह कठिनाई से प्राप्त करने योग्य ( दुर्लभ ) नागेन्द्र पद प्राप्त हुआ और जिसके माहात्म्य से भक्ति के अनुकूल आचरण करने के कारण मैं बिहार ( क्रीड़ा के लिए भ्रमण ) को छोड़कर रत्नत्रय के धारी ऋषभदेव के लिए निर्मित शिखर से युक्त मन्दिर वाले उस कैलाशपर्वत से लौटा हूँ। वह ( धरणेन्द्र के पद को प्रदान करने वाली ) भक्ति आपकी सेवा ( भक्ति ) करती हुई मेरे कल्याण के लिए हो।
तन्मे वेव श्रियमुपरिमां तन्वतीयं त्वदङ्घयोभक्तिभूयान्निखिलसुखदा जन्मनोहाप्यमुत्र । कान्तासीरलमघवशाद्ग़ध्नुसां वर्धयद्भिः, साभिज्ञानं प्रहितवचनस्तत्र युक्तर्ममापि ॥५६॥
तदिति । तत् तस्माद्ध तो। देव भो स्वामिन् । उपरिमाम् उत्तरफलरूपाम् । त्रिय सम्पदम् । तन्वती कुर्वती । इह अस्मिन् । अमत्रापि परत्रापि । अनि भवे । निखिलसुखवा निखिलानि सुखानि दवातीति तथोक्ता । स्ववा प्रमोः तम पादयोः । पदविवरणोऽस्त्रियाम्" इत्यमरः । इयं भक्तिः गुणानुरागः । मे मम । भूयात् भवतु । अपयशास् मोहनीयाख्यपापवशात् । गहनताम् अभिलापुकस्वम् । "गृहनुस्तु गर्धनः । लुब्धोऽभिलाषुकः" इत्यमरः । बर्खयद्भिः एषद्भिः । साभिमानं सलक्षणं यथा तथा । प्रहितवचनः प्रहितकुशलैरिति वा पाठः । प्रहितं प्रेषित बर्न कुशल वा येषु तैः । तत्र सस्कार्य । युक्तरपि विशिष्टरपि । कान्तासगै बनितासंसर्गः । मम भुजगराजस्य । भलं पर्याप्तम् । अनादिकर्मविशात पुनः कांक्षां वर्धयन्तः । कान्तासंसर्गा मा भूषन् । निखिलश्रेयस्करी त्वद्भक्तिरेव भूयादिति प्रार्थना 1३५६।।
अन्यय-तत देव ! उपरिमां श्रियं तन्वती इर्य त्या घयोः भक्तिः इह जन्मनि अमुत्र मपि में निश्चिलसुखदा भूयात् । युक्त रनि कान्तासङ्गता अघनशात् मम गृहनुतां वर्धयद्भिः साभिज्ञान प्रहितवचनैः अलम् ।
अर्थ-~-अतः हे देव ! उत्तम सम्पदा को देती हुई यह आपके चरणों को भक्ति इस जन्म और परलोक में भी मेरे लिए सब प्रकार से सबदायो
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चतुर्थ सर्गः
३२५ हो । विशिष्ट होने पर भी कामिनियों के संसर्ग अपने विषय में ( चरित्र मोहनीय नामक ) पापकर्मों के वश मेरी अभिलाषा की वृद्धि करते हुए लक्षणों सहित प्रेषित बचनों से पर्याप्त हैं अर्थात् अनादि कर्म के वश पुनआकाङ्क्षा को बढ़ाते हुए कान्ताओं के संसर्ग आगेन हों। समस्त प्रकार के कल्याणों को करने वाली आपकी भक्ति ही मेरे अन्दर विद्यमान हो, ऐसी आपसे प्रार्थना है।
व्याख्या--कामिनी संसर्गों से क्या लाभ है तथा कामिनी संसर्ग के विषय से सम्बद्ध और चारित्रमोहनीय नामक पापकर्म के कारण मेरी अभिलाषा को बढ़ाने वाले प्रत्यभिज्ञान सहित प्रेषित वचनों से भी क्या लाभ ? अर्थात् कोई लाभ नहीं है।
भूयो याचे सुरनुत मुने त्वामुपारुढभक्ती, वेत्ये चास्मिन्प्रणयमधुरां देहि दृष्टि प्रसीव । 'चित्तोद्योगैरनुशयकृतश्चास्य गात्रात्प्रपित्सु, प्रातःकुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेवम् ॥५७॥
भूय इति । सुरनुत भो देवस्तुत । मुने मन्यते केवलज्ञानेन लोकालोकस्वरूपमिति मुनिः तत्सम्बोधन हे मोगीन्द्र । त्वां भवन्तम् । भूयः पुनः । याचे प्रार्थयामि । उपारूढभक्तौ सम्प्राप्तभजने शरण मते इत्यर्थः । अस्मिन् वैत्येच एतदसुरेऽपि । प्रणयमा प्रीतिकोमलाम् । बुष्टि वर्धानम् । हि देयाः । प्रसीद प्रसन्नो भव । अनुवायकृते: पश्चातापविहितः । चिसोवोगैः चित्तोद्वेगैरिति वा पाठः। चित्तोद्वेगः निजापराध स्मरणनितमनोभः । अस्प दैत्यस्य । गावात शरीरात् । प्रपित्सु प्रपतितुमि प्रपित्सु प्रयियासु । प्रातःगुण्यप्रसवशिपिलं प्रभातकुन्दकुमममित्र शिथिलं दुर्लभम् । वं जीवितम् एतज्जीवनम् । धारण स्थापम । निजापरधस्मरणानुशयात् पापभीतेश्च दैत्यस्य गात्राग्निर्यज्जीवित्तं प्रमन्नदृष्ट्या ममाश्यास्य पालयेति भावः ।।५७।।
अन्वय-भो सुग्नुत मुने त्वां भूयः याचे प्रसीद, अस्मिन् च उपारूतभक्ती र त्ये प्रणयमधुरा दृष्टि देहि; अनुशमकृतः चित्तोगः प्रातःकुन्द प्रसवशिथिल इदगावात् प्रपित्सुजीवितं धारय ।।
अर्थ-हे देवताओं के द्वारा स्तुति किए गए मुनि ! तुमसे पुनः याचना करता हूँ। प्रसन्न होओ और इस बढ़ी हुई भक्ति वाले दैत्य शम्बरासुर पर दया से मधुर दृष्टि डालो, पश्चाताप से किए गए चित्त के उद्वेगों १. चिसोरेगैः ।
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पार्श्वभ्युदय
( किए गए अपराधों की स्मृति से उत्पन्न मानसिक भयों) से प्रातःकालीन कुन्द के फूल के समान शिथिल और शरीर से को चाहने वाले ) इस जीवन को तुम ( पार्श्व निवारण करो, बचाओ ।
गिरने के इच्छुक (मृर घु धारण कराओ ( पतन से
स्तुत्यन्तेऽसौ व्ययवदिवः कर्णाल भर्तुर्भवत्या वदधिशिरः स्वां वितत्य प्रमोदात् । व्याववमिति मुनिं वक्तुकामस्तदानीं, कच्चित्सौम्य व्यवसितमिदं बभ्रुकृत्यं स्वया मे ॥५८॥ स्तुत्यन्त इति । स्वपन्ते स्तोत्रावसाने तवानों तत्समये । असौ नागेन्द्रः सौम्य भो मनोहरा । "सौम्यं तु सुन्दरे मोमदेवते" इत्यमरः । मे मम वा भवतां सह । मम्बु बान्धवकार्यम् । इचम् एतत् पयसितम् निश्चितम् । कच्चित् 1 "कच्चित्कामप्रवेदने" इत्यमरः । इति एवं व्यात्त: विदारितैः । वः सुखं । मुनि पार्श्वनाथं प्रति । प्रमोवात् प्रहर्षात् । भवं निश्चयेन वक्तुकामः भाषितुमिच्छुस्स । स्वां स्वकीयाम् फणालि फणानामावलिम् । स्फटायां तु फणाद्वयोः " "वीभ्यालिरावलिः पङ्क्तिः" इत्यमरः । वितस्य विस्तृत्य | भक्त्या अनुरागेण । भर्तुः तीर्थनाथस्य । अधिशिरः शिरोऽधिकृस्याधिशिरः तस्मिन् । "शब्द प्रथा" इत्यव्ययीभावः । वषत् धरन् । उचैः महत् । छत्रमिच आतपत्रमिव । यश्चत् विरराज । कमठकृतोपसर्गव्यपोहनाय नागेन्द्रः स्वविक्रियया भुजगफणालि तन्मस्तकस्योपरि विततानेति भावः ॥ ५८॥
अम्ब - सौम्य ! कच्चित् इदं में बन्धुकृत्यं त्वया व्यवसितं इति व्यात्तः मन्त्रः तदानी मूर्ति वं वक्तुकामः असौ स्तुत्यन्ते भक्त्या स्वां फणालि उच्चैः प्रमोश भर्तुः विशिः दधत् छत्र इव व्यरचयत् ।
अर्थ - हे सौम्य ! मेरे इस कार्य को करने के लिए क्या तुमने निश्चय किया है ? इस प्रकार खुले मुखों से उस समय मुनि भगवान् जिनेन्द्र से कहने के इच्छुक नागराज ने स्तुति के अन्त में भक्ति से अपने फणों की पंक्ति को अत्यधिक रूप में फैलाकार हर्ष से भगवान् पार्श्व के सिर पर धारण करते हुए मानों छत्र रच दिया ।
इतः पादवेष्टितान्येव
',
देवी चास्य प्रचलदलका लोकनेत्र दुवक्त्रा, दिव्यं छत्र व्यरचयदहो धैर्यमित्यालपन्ती ।
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चतुर्थ सर्ग दैत्यस्यात्रेयवभिदलने शक्तियोगेऽपि कत्तुं, प्रत्यावेंशन खलु भवतो घोरता कल्पयामि ॥५॥ देवीति । प्रबलवलका प्रचलन्तः अलकापचूर्णकुन्तालाः यस्याः सा तथोक्ता । लोलनेत्रा कोले चच्चले नेत्रे यस्माः सा । "लोलश्चलसतृष्णोः " इत्यमरः । इन्दुधवा इन्दुरिय बक्त्रं यस्याः मा इन्दुवयत्रा । अस्य नागेन्द्रस्य । वेवी कान्माऽपि । यत् यस्मात् । दैत्यस्य असुरस्य । अः पर्वतस्म । तेन पातित. स्येति भावः। अभिवलन विदारणम् । कत्तु विधानाय । शक्तियोगेऽपि मामयसम्भवेऽपि । प्रत्यादेशात् प्रतिवचनात् । करिष्यामोति प्रतिभाषणादित्यर्थः । "उक्तिराभाषणं वाक्यमोदशो वचनं वचः" इति शब्दार्णवे । भवतः अनन्त शनि मस्तव । धीरतां धीरत्वम् । न कल्पयामि खलु न ममर्थयामि । कि तहि । प्रत्युक्त्याऽभावेऽपि निश्चिनोम्येवेति भावः । तस्माद्ध तोः अहो धैर्यमिति । आश्चर्य धीरत्वमिति । मालपम्ती ब्रुवन्ती । पिव्यं दिवि भवम् । छत्रम् आतपवारणं ध्यरचयत् असृजत् ।।५९|| __ अन्वय--अहो धमम् ! यत दैत्यस्य अद्रे: अभिदलनं कर्तुं शक्तियोगे अपि प्रत्पादेशात् भवत- धीरतां न खलु कल्पयामि इति आलपन्ती प्रबलवका लोलनेत्रा इन्दुवक्त्रा अस्य देवी च दिव्यं छत्रं व्यरचयत् ।।
अर्थ-ओह ! कितना बड़ा धैर्य है ? जो कि दैत्य शम्बरासुर द्वारा उठाए हुए पर्वत के खण्ड-खण्ड करने की शक्ति होने पर भो दैत्य के पर्वत के टुकड़े करने का निराकरण करने के कारण आपके धैर्य के विषय में मन से भी नहीं सोचती है। ऐसा कहती हई चंचल केश तथा नेत्रों बाली चन्द्रमाली इस धरणेन्द्र की देवी ने दिव्यछत्र की रचना कर दी। ____ भावार्य-भगवान में इतनी सामर्थ्य विद्यमान थी कि वह दैत्य द्वारा अपने अपर फेंके गए पर्वत के खण्ड-खण्ड कर सकते थे, किन्तु भगवान् ने यह नहीं किया। धरणेन्द्र की देवी ने भगवान् इतने अधिक धैर्यवान है, इसकी मन से भी कल्पना नहीं की थी अतः श्रद्धा से उसने भगवान् के ऊपर दिव्यछा की रचना कर दी।
तम्छायायां समधिकरच देवमुत्पन्नबोधं, बद्धास्थानं शरणमकृत त्यक्तरः स दैत्यः । श्रेयोऽस्मभ्यं समभिलषितं वारिवाहो यथा त्वं, निःशवोऽपि प्रधिवासि जलं याचितश्चातकेभ्यः ॥६॥
सदिति । सच्छाथायो तपोर्नागेन्द्र करणतच्छत्रयोः छायायामनात । समषिकगषि समधिकाप्रवृद्धारुचिः कान्तिर्यस्य तम् । उत्पन्नवोष सञ्जातकेवलज्ञानम् ।
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पाश्वभ्युदय
अनेन तदुपसर्गाविर एवं नागेन्द्र पद्मावतीभ्यां फणावलिच्छत्रद्वयं विरचितमिति पुराणार्थः सूच्यते । चास्यामं बद्धं शक्राविष्ठेन धनदेन विरचितम् आस्थानं समवशरणं यस्य तं देवं पार्श्वतीर्थनाथम् । स दैत्यः कमठचरोऽसुरः । त्यक्तः मुक्तविरोधः सन् । शरणं रक्षितारम् । "शरणं गृहरक्षित्रोः" इत्यमरः । अकूत अकरोत् । 'डुकृञ् करणे' लुङि तङ । वारिवाहः मेघः । याचितः प्रार्थितः सन् । निशोऽपि निर्गजितोऽपि । चातकेभ्यः पक्षिविदोषेभ्यः । अभिलषितं वाञ्छितम् । जलम् उदकम् । यथा यद्वत् प्रविशति तद्वदित्यर्थः एवं तीर्थनाथो भवान् । अस्मभ्यं नः । श्रमः अभ्युदयनिः श्रेयससम्पत्तिम् । प्रदिशसि प्रदाता भवति । इह् पर जन्मनि सुखदाता भवसीति भावः ॥ ६० ।।
प्रत्युत्कीर्णो यदि च भगवन्भव्यलोकैकमित्रात्,
स्वतः श्रेयः फलमभिमतं प्राप्नुयादेव भक्तः । प्रत्युक्तैः कि फलति जगते कल्पवृक्षः फलानि, प्रत्युक्तं हि प्रणमिसु सतामीप्सितार्थक्रियैव ॥ ६१॥
प्रत्युत्कीर्ण इति ॥ भगवन् भो पार्श्वनाथ । भवतः माक्तिकजनः । त्वां प्रत्युत्कीर्णः अभ्युदयादि सुख मम देहीति प्रतिवाक्यत्कीर्णः । यदि च चेतहि भब्लोकैकमित्रात् भव्यलोकानां भाषितुकजनानाम्। एक मुख्य मित्र श्रेयसुख तस्मात् । "लोकस्तु भुषने जने" "एके मुख्यान्यकेवलाः" इत्युभयत्राप्यमरः । त्वत्तः भवत्सकाशात् । अभिमतं वाञ्छितम् । षेयः फलं सौख्यफलम् । प्राप्नुयादेष उपलभेतैवेति निश्चयः । तथाहि । करवक्षः सुरद्रुमः । जगते सुकृतिने लोकाय । फलाम अभीष्टवस्तूनि । प्रत्युक्तेः दिशामीति प्रत्युत्तरैः । फलति कि निष्पादयति किम् । किं तर्हि तो सत्पुरुषाणाम् । प्रणयिषु विनयवत्सु जनेषु । ईप्सितार्थक्रिय अभिमतार्थप्रदानमेव । प्रत्युक्तं हि प्रतिवचनं हि क्रिया केवलमुप्तरमित्यर्थः 1 "नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजनः करोत्येव ।" इति तात्पर्यम् ॥ ६१॥
अन्वय- सः त्यक्तवैरः दैत्यः तच्छायायां समधिक रुचि उत्पन्नबोधं बद्धास्थानं देवं शरणं भकृत । हे भगवन् ! [ यदि प्रत्युत्कीर्णः वारिवाहः चातकेभ्यः जलं यथा याचित ( सत् ) निःशब्दः अपि अस्मभ्यं समभिलषितं श्रेयः प्रदिशमि यदि च भव्य लोकमित्रात् त्वत्तः भक्तः अभिमतं फलं प्राप्नुयात् एव ( हि ) श्रेयः । कल्पवृक्षः फलानि जगते किं प्रत्युक्तः फलति ? प्रणयिषु ईप्सितार्थं क्रिया एव हि सतां प्रत्युक्तम् ।
अर्थ-वेर को छोड़कर उस दैत्य ने फग रूप छत्रों की छाया में अधिक कान्तियुक्त, केवलज्ञान को प्रकट करने वाले, समवशरण से युक्त
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चतुर्थ सर्ग भगवान पार्श्वनाथ तीर्थंकर की शरण ली। हे भगवन् ! यदि राशीभूत अथवा विनश्वर मेघ (जिनपक्ष में केवलज्ञान से युक्त) चातकों को जैसे शब्द नहीं करके जल देता है, उसो प्रकार प्रार्थना किए जाने पर मौन को धारण किए हए भी आप हमलोगों को अभीष्ट कल्याण प्रदान करते हो । यदि भब्ध जीवों के एकमात्र मित्र आपसे भक्त इन्टफल निश्चित रूप से प्राप्त करता ही है तो श्रेयस्कर है अर्थात् यदि आप मौन होकर भी कुछ देते हैं और भक्त इष्टफल प्राप्त करता ही हैं तो आपका मौन श्रेयस्कर है । क्या कल्पवृक्ष संसार के लिए फलों को प्रत्युक्तियों से ( शब्दों से-उतरों से ) देते हैं ? सविनय याचकों के अभीष्ट प्रयोजन का सम्पादन करना ही सज्जनों का प्रत्युत्तर है ।
भावार्य-कल्पवृक्ष बिना कुछ बोले चुपचाप ही संसार के प्राणियों को फल ६ा है। इसी प्रकार सम्जन पुरुष बिना बोल हो अभिलषित अर्थ को देते हैं।
सह्रीकरते कथमपि पुरो वत्ति सङ्घटेऽहं, दूराद्वक्तु निकृतिबहुलः पापकृढ़ रदग्धः । सौजन्यस्य प्रकटय परां कोटिमात्मन्यसादेतस्कृत्वा प्रियमविसमापनावात्मनो मे ॥६॥ सहीकः इति । मिकृतिबललः तिरस्कारप्रधुरः । पाठत्वभरितो वा। "कुसृतिनिकृतिः शाठ्यम्" इत्यमरः । पापकृत् पापं करोतीति तथोक्तः । दुष्कर्मासवान। "हस्वस्य तक पिति कृति" इति तगागमः । वेवग्यः वरेण चिरानुबविरोधेन बन्धः सन्तप्तः । पापकरदाघ इत्येकपदं था । पापकृच्चासी वैरश्चत्तेन दाधः । महं दैत्यपाशः । सलोकः लज्जा सहितः सन् । दुरात् विप्रकृष्टात् । पातु भाषितुम् । ते भवतस्तव । पुरः अग्रतः । वप्सितु स्यातुम् | कमिव किमिव । सटे उद्युक्तोऽस्मि में । अमुचितप्रार्थनात् अयोग्य याचनात् असङ्गात् निःसङ्गात् । आत्मन' स्वस्य । अप्रियम् उपेक्षात्मकम् । एतत् वक्ष्यमाणकार्यम् । कृत्वा निवर्य । प्रारमि स्वस्मिन् । सौजन्यस्य साश्रुत्वस्य । परी कोटिम् अत्यन्तप्रकर्षम् । "फोटो सङ्ल्याप्रकर्षयोः" इत्यमरः । प्रकटय प्रादुर्भावय । "उपकारिषु यः साधुः साधुत्वं तस्य को गुणः। अपकारिषु यः माधुः स साधुः सबिरुच्यते" इति वचनबलात् । अपकारिणि मय्युपकारं विधाय सुजनत्वं यजति भाव: ।। ६२॥
अन्वय-सहीकः निकृतिबहलः पापकृत् वैरदग्धः अहं ते पुरः वत्ति कथ
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पाश्र्वाभ्युदय भपि साटे । वक्त दूरात् । आत्मनि असङ्गात् (ते) अनुचितं (मे) प्रियं एतत् के प्रार्थनान् कृत्वा आत्मनः सौजन्यस्य परां कोटिं प्रकटय । ____ अर्थ-लज्जायुक्त, अपकारबहुल, पापकारी, वैर से जले हुए हृदय वाला मैं (शम्बरासुर) आपके सामने जिस किसी प्रकार (बड़े कष्ट से) बैठने का यत्न कर रहा हूँ। (आपसे कुछ) कहना दूर रहे | अपने शरीर के प्रति निरासक्त होने के कारण आपके अयोग्य और मेरे योग्य इस कार्य को मेरी प्रार्थना के कारण करके अपने सौजन्य के उत्कृष्ट प्रकर्ष कों (तुम-पाव) प्रकट करो।
अत्राणं मामपघृणमतिप्रौढमायं दुरीहं, पश्चात्तापाचरणपतिसं सर्वसत्त्वानुकम्प । पापापेतं कुरु सकरुणं स्वाय याचे विनम्रः, सोहाद्विा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुध्या ॥३॥ अत्राणमिति । सर्वसारकामुकम्प सर्वेषु सत्त्वेषु अनुकम्पा यस्य तस्य सम्बोघनम् । “नव्यासन्यनमामेषु मत्वमस्त्री त जन्तुष" इत्यमरः । अब इदानीम् । विनम्रः नमनशीलः सन् । "नम् कम्यज" इत्यादिना रत्यः । त्वा भवन्तम् । "स्वामी द्वितीयायाः" इनि त्वादेशः । याचे प्रार्थये । सौहार्वात सुहद्भावात् ।। विधुर इति वा विधुर । वियुक्त इति हैतोर्वा । "विधुरस्तु प्रविरिलष्टः ।" "इति हेतु प्रकरणे" इत्युभयत्राप्यमरः । मयि विषये । मनुक्रोशपुरमा का अनुकम्पा मत्या घा! "कृपा दयाऽनुकम्पा स्यादमुक्रोशोऽषि" इत्यमरः । अपवृणं झ्यारहितम् । “कारुण्यं करुणा घृणा" इत्यमरः । कारुण्यः करमा पला' त्यमरः। अतिप्रोतमाये प्रबुद्धमायम् । कुरोहं सुचेष्टाभिप्रापम् । "इम्स काक्षा स्पृहा तुइ वाम्छा लिप्सामनोरथः" इत्यमरः । एकचात्तापात अनुसापात् । प्रकृतदोषस्मरणोद्भूतचित्त सन्तापादित्यर्थः । चरणपतितं पादयोरानतम् । अत्राणम् अवारणम् | "प्राप्त त्राणं रक्षितमवितं गोपायित व गुप्तं च" इत्यमरः । माम् असुरपाशम् । पापापेत दुष्कर्मरहितम् । सकरुणं करुणया महितम् । र विहि ॥६३|| ___अन्वय-मसत्त्वानुकम्प ! विनम्रः अहे त्या अद्य सकरुणं याचे । सौहार्दात या, विधुर इति भव्यनुकोशबुद्ध्या या अत्राणं अपघृणं अति प्रौढमाय दुरीह पश्चात्तापास् घरणपतितं मां पापापेनं कुरु ।
अर्थ--हे प्राणिमात्र के प्रति दया रखने वाले ! विनम्र होकर मैं ( कमठ का जीव ) तुमसे आज दीनता सहित याचना करता हूँ। सौहार्द्र
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चतुर्थ सगं
३३१ से अथवा यह विधुर ( पाप से भयभीत या दुःखाकुल ) है, ऐसा विचार कर मेरे प्रति अनुकम्पा भाव रखकर अशरण, निर्दय, अत्यन्त प्रौइमाया युक्त, दुष्टाभिलारी ( एवं ) पश्चाताप के कारण चरगों में गिरे हुए मुझे पाप रहित करो।
इत्थशारं कमठमनुजः स्वापकारं प्रमार्जन, भूयः स्माह प्रकटितमहाभोगभोगोन्द्रगूढः । लोकालावी नव इव घनो देव धर्माम्बुवर्षम्निष्टान्देशान्धिचर जलप प्रावृषा सम्भृतश्रीः ॥६४।। इत्यकारमिति । इत्यंकारम् इत्यमेव इत्यङ्कारम् । "वर्णात्कारः" इति स्वार्थे कार त्यः । अनेन प्रकारेण । कमठवनुजः कमटचरासुरः । स्वापकारं स्वनकृतापकृतिम् । प्रमार्जन शालयन् । भूयः पुनः। आह स्म वीति स्म । ''अगस्तिपञ्च" इत्यादिना णश्प्रत्ययः । आहादेशश्च । देव भो सर्वज्ञ । जला हे सद्धर्मामृताम्भोद । प्रावृषा वर्षाभिः । “स्त्रियां प्रावुद स्त्रियां भूम्नि वर्षाः'' इत्यमरः । सम्भूतश्रोः प्राप्त शोभः । नषः नवीनः । घन इव मेघो यद्वन् तत् । प्रकटितमहाभोगभोनोरखपून: प्रकाशितो महाभोगों नागशरीर पस्य तथोकः । चा सी भोगीन्द्र श्री तेन गूटः संकृतः । लोकलामी जगत्सन्तोषकारी। धर्माम्बु वर्मामृतम् । वर्षन सिञ्चन । इष्ठान समीहितान् धेशाम् जनपदान् । विचर विहर श्रीविहारोघतो भवेत्यर्थः अत्र भोगीन्द्र गुरुत्वेन प्रावृतंजलदीपमा धर्माम्बुवपितन जलदसम्बुद्धिश्च निश्चीयते । लोक लादित्वम् इष्टदेशविहारश्च उभयत्र समावेव ।
अन्वयकमठदनुजः इत्यनारं स्वापकार प्रमार्जन भूयः आह स्म-'देव जलद प्राखूषा सम्भृतश्री नवः धनः इव धर्माम्बुवर्षन लोकालादी प्रकटितमहाभोगभोगीन्द्रगूढः इष्टान् देशान् विचर।
अर्थ-कमठ के जीवधारी शम्बरासुर ने इस प्रकार अपने अपकार का प्रक्षालन करते हुए पुनः कहा--हे देव ! ( सद्धर्म रूपी अमृत के लिए) मेघ ( के समान ) वर्षा ऋतु के कारण समृद्ध शोभा से सम्पन्न होते हुए नए मेध के समान धर्मरूप जल की वर्षा करते हुए लोक को आलादित करने वाले, जिसने विस्तृत फणों के समूह का प्रकट किया है ऐसे धरणेन्द्र से शरीर को ढके हुए आप इष्ट देशों में विचरण करें ।
यत्तन्मौतयादबहुबिलासतं न्यायमुल्लध्य वाचां, तन्मे मिथ्या भवतु च मुने दुष्कृतं निन्दितस्वम् ।
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पावाभ्युदय भक्त्या जिनविनमसः पापर्यतत्प्रसाक्षत्,
मा भूवेवं क्षणमपि सखे विधता विप्रयोगः ॥६५।। यदिति । सत्तस्मात् कारणात् । मुने भो सर्वज्ञ । मौढपात अशानात् । ग्यार्य नसनमार्गम् । उल्लङ्घ्य मे मम । वाचो वचसां यत् यह बिलसितं बहुलं विहितम् । तत् निन्दित सं निन्दित स्थो यस्य तत् तथोक्तम् । "स्वी झातावात्मनि स्वं त्रिवल्पीवे स्वोऽस्त्रियां धने' इत्यमरः । दुष्कृतं च पापमपि । उपसर्गाजित मिति पोषः । 'अहो दुरितदुष्कृतम्' इत्यमरः । मिथ्या असत् अभावरूपमित्यर्थः । भवतु अस्तु । जिन भो विजयिन् । त्रयोविंशति तीर्थकर परमदेव । सखे भो मित्र । पाश्वं भो पावजिन । भक्त्या गुणानुरागण । पादौ चरणाम्भो रहे । विषमतः विनमतीति विनमस्तस्य नमस्कुर्वतः नमस्यतो वा। ये मम । सासापात् तयोः पादयोः प्रसादात् प्रसन्नत्वात् । "प्रसादस्तु प्रसन्नता" इत्यमरः । एवम् इत्यम् । विचुता विदोबोधस्य । विद्धाने ज्ञातरित्रिषु" इत्यमरः । “छुत' दीप्तौ" त्रिवन्तः । सया सम्यग्ज्ञानेनेत्यर्थः । विप्रयोगः विश्लेषः । क्षणमपि अल्पकालमपि । मा भूत मा जनि ॥६५॥ पादवेष्टितानि समाप्तानि ।।
अन्यय-मुने जिन पार्श्व सखे ! यत् मौळयात' न्यायं उल्लङ्घ्य मे वाचां बहुविलसितं भक्त्या पादौ विनमतः मे तत्प्रसादात् तत् मिथ्या भवतु, निन्दित स्वं (में) दुष्कृतं च (मिथ्या भवतु) । एवं क्षणं अपि वियता विप्रयोगः मा भूत् ।। ___ अर्थ है मुनि, मित्र पार्श्व जिनेन्द्र ! मूढ़ता के कारण न्याय का उल्लंघन किए हुए मैंने जो वाणी से अनेक प्रकार की चेष्टा की, अनुराग से आपके दोनों चरणों में झुके हुए मुझ शम्बरासुर की आपके दोनों चरणों के प्रसाद से वह चेष्टा मिथ्या हो। जो स्वयं गहित (निन्दित) है, ऐसा मेरा पापकर्म भी मिथ्या हो। इस प्रकार क्षणभर भी मेरा आत्मस्वभावरूप सम्यग्ज्ञान से वियोग न हो ।
इतः कतिपयानि चूलिकापद्यान्याह-- अनुनयति सतीत्थं भक्तिनम्रण मृर्जा, कमठदनुजनाथे नागराजन्यसाक्षात् । ध्रुवमनुशयतप्ताद्वैरबन्धश्चिरातः, स्म गलति निजचित्तात्सन्तताश्रुच्छलेन ॥६६॥ अनुनयसीति । नागराजम्मसाक्षात् नागानां राजानः खरगेन्द्राः तेषामपत्यानि नागराजन्याः । “जातौ राज्ञः" इति यः । "येनोऽयें" इति इत्पनोलुक । तेषां मागकुमाराणां । साझात् प्रत्यक्षतः । मूभिषितो राजन्यः । "साक्षात्प्रत्यक्षतु
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चतुर्थ सर्ग
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ल्ययोः” इत्यमरः । कमठवजनाचे कमञ्चरासुरनायके । भक्तिन भक्त्या नमनशीलेन इत्थम् अनेन प्रकारेण । अनुनयति सति अनुनीयत्यनुनयन् तस्मिन् राति प्रणामादिविनयशीले सति । अनुशयतप्तात् पश्चातापेन सन्तसात् । निजचित्तात् स्वहृदयात् । विशतः चिरात्प्राप्तः वैरबन्धः विरोधसम्बन्धः । सन्ततालेन प्रवृद्धवामाम्बुव्याजेन । " पदं व्यतिकरं लम्" इति धनञ्जयः । ध्रुवं निश्चयेन गलति स्म चव्यति स्म ॥ ६६ ॥
अन्वय – नागराजन्यसाक्षात् कमठदनुजनायें भक्तिनम्रण मूर्ध्ना इत्थं अनुनयति सति अनुशय तप्तात् निजचित्तात् चिरात्तः बरबन्धः मन्तनाश्रुच्छलेन वं गलति स्म ।
अर्थ- सर्पाधिराज के समक्ष कमठ के जीवधारी दैत्यनाथ के भक्ति से नम्रीभूत सिर से इस प्रकार प्रार्थना करने पर पश्चाताप से सन्तप्त उसके चित्त से चिरकाल से चला आया वैरभाव निरन्तर ( गिरते हुए ) आँसुओं के बहाने निश्चित रूप से गल गया । केवलज्ञानान्तरमुद्भूतानतिशयानभिधातुमुपक्रमते
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अथ सुरभिसमीरान्दोलितैः कल्पवृक्षैः, समममरनिकायाः पुष्पवृष्टि वितेनुः । अविरलनिपतद्भिः स्थविमानैनिरुद्धा,
नव जलद विलिप्ते वैक्ष्य तासौ तदाद्यौः ॥ ६७॥
अथेति । अब अनन्तरे । अमरतिकाया देवसमूहाः । सुरभिसमोरम्न्दोलितैः सुरभिणा प्राणतर्पणयुक्तेन समीरेण वायुना आन्दोलिले कम्पितः । कल्पवृक्षः सुरनुमैः । समं साकम् | पुष्पवृष्टि प्रसूनवर्षणम् । वितेनुः वर्षुः । तवा तदवसरे । अविरलनिपतद्भिः अविरल निरन्तरं निपतन्त्यवतरन्तीति तयोक्तास्तः । स्थेविमानः स्वर्व्योमयानेः । " स्वर्गे पुरे च लोके स्वः" इत्यमरः । निवद्धा व्याप्ता । असो द्यौः । एतन्नभः । "द्योदियो द्वे स्त्रियामत्रम्" इत्यमरः । नवजल विलिप्तेव प्रत्यग्रमेघेन लेषिते । ऐक्यत दृश्यत ॥६७॥
अर्थ -- अथ सुरभिसमीरान्दोलितैः कल्पवृक्षः समं निकरनिकायाः पुष्पवृष्टि वितेनुः । तदा अविरल निपत ि- स्वैर्विमानः निरुद्धा असो द्यो: नवजलदनिलिमा
इक्ष्यत ।
अर्थ - अनन्तर सुगन्धित वायुओं के कँपाए गए कल्पवृक्षों के साथ देव समूहों ने फूलों की वर्षा की। तब निरन्तर उड़ते हुए दिव्यविमानों से रोका गया यह आकाश नये मेघ से लीला गया सा दिखाई देने लगा । १. विलिप्तवेक्ष्यता ।
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पाश्वभ्युदय
विशेष - योगिराद् पण्डिताचार्य ने अविरल निपतद्भिः का अर्थ निरन्तर उत्तरते हुए किया है।
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सपदि जलदमुक्तैः सान्द्र गन्धाम्बुपातेमंधुपगणविकीर्णे राश्वसत्क्ष्मा क्षतोष्मा । वियति मधुरमुच्चैर्दुन्दुभीनां च नादः, सुरकरतलगूढास्फालितानां जजुम्भे ॥ ६८ ॥
सपदीति । जलवमुक्तः वारिवाहेण वृष्टः मधुपर्णविकर्णः मधुपानां अमराणां गणैः श्विःत्रिकीर्णैः व्याप्तं । सामान्यान्युपातः निरन्तरैः गन्धेन युक्तानामम्बूनां पालैः सेकैः । सतोष्मा क्षतः कष्मा यस्याः सा शान्तोष्णा व भूमिः | 'क्ष्मानिर्मेदिनी मही' इत्यमरः । सपदि शीघ्रम् । भववसत् उदजीवत् । सस्यादिशोभावती बभूवेत्यर्थः । विथति आकाशे । सुरकरतलगूढा स्फालितानां सुरकरतल: निर्जरपाणितले: गूढं । गुप्तम् अस्फाखितानां ताडितानाम् कुन्दुभीनां भेरीणां 'मेरी स्त्री दुन्दुभिः पुमान् । इत्यमरः । नाश्च निनदोऽपि । मधुरं श्रुतिसुखं यथा तथा । उच्चैरधिकं । बजु जु भते स्म ॥ ६८ ॥
अन्वय-- जलदमुक्तैः मधुधगण विकीर्णेः सान्द्रगन्धाम्बुपात: क्ष्मा सत् वियति सुरकरतलगूढास्फालितामां दुन्दुभोनां ताः मधुरं उ
अर्थ -- मेघों से छोड़े गए, फैले हुए भौरों के समुदाय से युक्त, घने, · सुगन्धित जल की दृष्टि से विनष्ट ताप वाली पृथ्वी शीघ्र ही सुखी हो गई तथा आकाश में देवताओं के हाथों से एकान्त में ताडित दुन्दुभियों का मधुर शब्द अत्यधिक रूप से बढ़ गया 1
विशेष – पोगिराट् पण्डिताचार्य ने आश्वसत् का अर्थ उद्जीवत् किया है और इसका तात्पर्य यह बतलाया है कि पृथ्वी धान्यादि की शोभा से - युक्स हो गई।
सविद आश्व जजृम्भे ।
इति विदितमहद्धिं धर्मसाम्राज्यमिन्द्राः, जिनमवनतिभाजो भेजिरे नाकभाजाम् । शिथिलित वनवासाः प्राक्तनों प्रोज्झ्य वृति, शरणमुपययुस्तं तापसा भक्तिनम्राः ॥ ६९ ॥
इतीति । कथितोपलक्षणात् चतुस्त्रिंशदतिशयेः । विदितमद्धिं विदिता प्रतीता · महती ऋद्धिः सम्पदा यस्य तम् । धर्मसाम्राज्यं संसारसमुद्रे मग्नान् जन्सून् उत्य
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चतुर्थ सर्गः
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उत्तममोक्ष सुखे धरतीति स्थापयतीति धर्मस्तस्य साम्राज्यं समाभावो यस्त जिनं पावतीर्णेपवरम् 1 नाकभाजां नाकं स्वर्ग भजन्तीति नाकमाजस्तेषामभ राणाम् इन्द्रावर्याः । अवनतिभाजः अवनति प्रणमतं भजन्तीति तथोक्ताः सन्तः । मेजिरे सिषेविरे । तापसाः जटिलादयः कुलिङ्गिनः । प्रक्तिम प्राग्जाताम् । श्रुतिम् आपरणम् । प्रोक्य विहाय । शिथिकित वनवासा: विक्लिष्टविपिन विलयाः । भक्तिसनाः भक्त्या नमनशीलाः । तं तीर्थेशिनम् । शरणंरक्षणम् | उपप्रमुः श्रयन्ति स्म । जटिलाबय: कुतामसाः निजका मनले निष्फलस्व' निश्चिन्वन्तः । तपोमहिम्ना प्राप्तोदयं पार्श्वतोर्थरं ततपोलमधुकामाः शरणं ययुरिति भावः । तदुक्तं समन्तभवस्वामिभिः । 'वनीकसः स्वयमवरूप बुद्धयः । शमोपदेशं पारणं प्रपेदिरे ।
पति प्रणायकः समग्रमोय फुलांबरांशुमान ॥ ६९ ॥
अन्वय इति विदितमद्धि धर्मसाम्राज्य जिनं अनति माम. नाकनामां इन्दाः भेजिरे । शिथिलितवनवासाः सापसाः प्राक्तनों वृद्धि प्रोजस्य भक्तिनम्राः ( सन्तः ) ते शरणं ययुः ।
अर्थ - इस प्रकार जिनके ऐश्वर्य का सभी लोगों को ज्ञान है, जो धर्मसाम्राज्य से युक्त हैं ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को प्रणाम करते हुए देवेन्द्रों ने सेवा की। वनवास को शिथिलकर तापस अपने ( पंचाग्नितपरूप ) पूर्व आचरण का परित्याग कर भक्ति से नम्र हो उनकी शरण में आ गए।
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व्याख्या - जटिलादि कुनापस मुनि शरीर को कष्ट देने वाले तप को व्यर्थ जानकर जिस तप की महिमा से जिनका उदय हुआ था ऐसे पाच तीर्थंकर से उनकी तपोलब्धि की प्राप्ति के इच्छुक होकर उनकी शरण में
आ गए ।
अथ भगवानाचार्यः स्वाभिप्रायप्रकाशपुरःसरं कृतिमुपसंहरन् भङ्गलाशिषमाह
इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्ट्य मेघं, बहुगुणमपदोषं कालिदासस्य काव्यम् । मलिनितपरकाव्यं तिष्ठता वाशशा भुवनमवतु वेवस्सर्वदाऽमोघवर्षः ॥ ७० ॥
इतीति । कालिदासस्य कालिदासनाम्नः कवे । मेघं कार्य मेघदुतावबन्धम् । आष्ट्य वेष्टयित्वा । इति एवम् । विरचितं विहितम् । बहुगुणं बहवो माधुर्यादयः गुणा यस्मिन् तत् । अपवोचम् अपगता अलक्षणादयो दोपा यस्मात्तत् । एतत्का - पाव दियाभिधानं काव्यम् । आशाकुम् आचन्द्रावधिनिस्यमित्यर्थः । मस्तिमित
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________________ 336 पार्वाभ्युदय परका मलिनिलं कस्तिं परकाम्यं भेघसन्देशो यथा तथा / तिष्ठतात निवसतु / अमोघवर्ष: काव्यकस्तु' प्रियशिष्यः बंकापुराधिपः / पक्षे अमोघं सफलं वर्ष पृष्टिः यस्य सः / वेवः प्रभुः / पक्ष मेषः / 'देवो राशि सुरे अम्बुदे' इति नानापरनमालायाम् | भुवनं जगत् / सर्वदा सर्वस्मिन् काले ! अवसु पातु / 'अब रक्षणे लोट् / / 70 // अन्वय-इति बहुगुणं अपदोषं मलिनितपरकाव्यं कालिदासस्य काव्य आवेष्ट्य विरचित्त एतत् ( मलिनितपरकाव्यं ) काष्यं मापामा तिष्ठतु / अमीषवर्षः देवः सर्वदा भुवनं अवतु / / ____ अर्थ-इस प्रकार बहुत गुणवाले, दोषों से रहित, जिसने दूसरे काव्यों को मलिन कर दिया है ऐसे कालिदास के मेघदूत नामक काव्य को ( आदि में, मध्य में अथवा अन्त में एक या दो पंक्ति से ) वेष्टित कर रचा गया यह पावभ्युिदय नामका काय अब तक चन्द्रमा है तब तक रहे / अमाधवर्ष महाराज सदैव पृथ्वी की रक्षा करें। एतत्काव्यप्रभवमेव सप्रपञ्चमाह--- श्रीवीरसेनमुनिपादपयोजभृक्षः, श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् / तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण, काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघबूतम् // 7 // इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरु श्रीजिनसेनाचार्यविरचितमेघदूतदेष्टितवेष्टिते पापर्वाभ्युदये भगवर्कवल्यवर्णनो नामः चतुर्थः सर्गः / / 4 // श्रीवीरसेनेसि / मोवी रसेममनिपावपपोजमा वीरसेमस्वासो मुनिश्च वीरसेनमुमिः थियोपलक्षितस्तथोक्तः पादावेव पयोजे पादपोजे श्रीवीरसेनमुमः पादपयोजे तथोषते भृङ्ग इव मृगः श्रीषीरसैनमूनिपावपयोगयोः भङ्गस्तथोक्तः / गरीयान् गुरुतरः / श्रीमान्तपोलक्ष्मीवान् / धिनयसेनमुनिः / नियसेननामा यतिः / अभूत बभूव / सम्मोहितेन तेन सधर्मणा विनयसेन मुनिना बोक्तिः प्रेरितस्तेन / जिनसेनमुनीश्वरेण मुनीनामीश्वरस्तयोक्तः जिनसेनएघासो जिनसेन इति वा मुनी. पवरस्तेन / परिवेण्टिसमेषतं परिवेष्टितम् आक्रान्त मेषदूतं तम्नामकाध्यं पेन यसयोमतम् / काम्यं एतत्पापम्पदयस काव्यम् / म्यषापि मकारि / / 71 / / अन्वय-इत्यमोघवर्ष परमेश्वर परमगुष श्री जिनसेनाचार्यविरचितमेषदूत रेष्टिते पाश्र्वाम्मुखये तव्याख्यायां च सुबोषिकापायां भगवरवल्यवर्णनो नामः चतुर्थः सर्गः / / 4 / / शुभम्