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प्रस्तावना
२१ और अलङ्कारों से परिपूर्ण है। आदि पुराण के द्वारा जो भाषा और जो विचार व्यक्त किए गए हैं वे बड़े सुहावने हैं। भाषा का प्रवाह अप्रतिरुद्ध जलप्रवाह को भौति बहुत शान्त अश्यना मौसम है । कृति के देखा में मार्गाननक कसना. पाक्ति स्वाभाविक है ।" आदिपुराण की कथावस्तु के प्रधाननायक तीर्थकर ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत हैं।
प्रायः विद्वान् यह मानते हैं कि आदिपुराण और पाश्र्वाभ्युदय में पार्वाभ्युदय प्राचार्य को प्रपम रखना और आदिपुराण असिम रखना है। किन्तु थी मो० गौ० कोठारो आविपुराण को कवि को प्रथम, अयपबला को द्वितीय और पाम्थिवय को तृतीय रचना मानते हैं। उन्होंने पाम्युिदय को भूमिका में वीरसेन से लेकर हरिवंशपुराणकार जिनसेन तक की रपमाओं को कालक्रमानुसार निम्नलिखित सूची दी ५- (१) पवल ग्रन्थ की पूर्णता का काल शक सं०६०३ (६८१ ई.) (२) आदिपुराण
प , ६१० (१६८०) (३) जयबदला
६२४ (७०२ ई.) (४) पापर्वाभ्युदय (४) उत्तर पुराण
, , ६६७ (७३५ ई.) (६) महापुराण (पुष्पदंत कृत),
६८० (७५८ ई.) (७) हरिवंशपुराण
७०५ (७८३ ई०) ___ उपर्युक्त मन्तग्य को पुष्टि में उन्होंने अपने तर्क पाश्र्वाभ्युदय की भूमिका में दिए है, जो दृष्टव्य है। जिनसेन ने पाश्र्वाभ्युदय और महापुराण की रचना मान्यखेट में की। जिनसेन का चित्रकूट से भी सम्बन्ध रहा है, क्योंकि इसी चित्रकूट में एलाचायं निवास करते थे, जिनके पास जाकर बोरसेनस्वामी ने सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था। चित्रकूट को पहचान लोगों ने चित्तौड़ से की हैं।
जिनसेन के शिष्य गुणभन्न-जिनमेन के पट्टशिष्य आचार्य गुणभद्र थे, जिनका अमोघवर्ष तथा उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय दोनों ही सम्मान करते थे। इन्हें अमोघवर्ष ने अपने पुत्र का शिक्षक नियुक्त किया था। इन्होंने गुरु द्वारा प्रारम्भ किए गए महापुराण को संक्षेप में पूरा किया। इनके द्वारा लिखा गया भाग उत्तरसुराण कहलाता है। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासन, जिनदत्तचरित आदि मन्थ भी उन्होंने रघे । उत्तरपुराण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अमोध९५. पाश्र्वाभ्युदय भूमिका पृ. २१ ९६.० ज्योतिरसाद जैन, भारतोप इतिहास : एक दृष्टि द्वि० सं० पु० ३०२