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पाश्र्वाभ्युदय वर्ष जिनसेन की परणवन्दना मे माने पडले किन गाना EME वीरसेन जिनसेन के गुरु पे
अभवदिवहिमायसिन्धुप्रवाहो ध्वनिखिसकलामात्सर्वशास्त्रकमूर्तिः । उदयगिरितटाद्वा भास्करो भासमानो मुनिसुजिनसेनो वीरसेनादभुष्मात् ।। यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरतारान्तराविर्भय पादाम्भोजरजः पिशक मुकट प्रत्यारस्ततिः संस्मर्ता स्वममोघवर्षनुपतिः पूतोहमय स्पलं स श्रीमान् जिनसेन पूण्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ।।
(उ०पु० प्रशस्ति ८-९) अर्थात् जिस प्रकार हिमवान् पर्वत से गंगानदी का प्रवाह प्रकट होता है अथवा सर्वशदेव से समस्त शास्त्रों की मूर्तिस्वरूप दिव्यध्वनि प्रकट होती है अथवा उदयाचल के तट से देदीप्यमान सूर्य प्रकट होता है, उसी प्रकार उन वीरसेन स्वामी से जिनसेन मुनि प्रकट हुए। श्री जिनसेन स्वामी के देदीप्यमान नखों के किरण समूह धारा के ममान फलते थे और उसके बीच उनके चरण कमल के समान जान पाते थे । उनके अचरण कमलों की रज से जब राजा अमोघवर्ष के मुकूट में लगे हुए नवीन रत्नों को कान्ति पीली पड़ जाती थी, तब वह अपने आपको ऐसा स्मरण करता था कि मैं आज अत्यन्त पवित्र हुवा हूँ। उन पूजनीय भगवान् जिनसेनाचार्य के चरण संसार के लिए मंगल रूप हों।
जिनसेन को काव्य और कवि विषयक मान्यता-कवि के भाव अथवा कार्य को काव्य कहते हैं । कवि काव्य में निम्नलिखित गुण होने चाहिए"--
(१) वह प्रतीतार्य { सर्वसम्मत अर्थ सहित ) हो। (२) ग्राम दोष से रहित हो । (३) अलंकारों से युक्त हो। (४) रस और अलंकारों से सजीर्ण ( अस्पष्ट ) न हो।
कवि ने बतलाया है कि कितने ही विद्वान् अर्थ को सुन्दरता को वाणी का अलक्षार कहते हैं और कितने ही पदों को सुन्दरता को, किन्तु कत्रि के अनुसार
९७. कवर्भावोऽथवा फर्म काव्य तज्ज्ञ निरुच्यते ॥ आदि--१४ ९८. आपिपुराण १२९४