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प्रस्तावना
अयं और पद दोनों की सुन्दरता ही वाणी का अलंकार है ।१५ कवि भारवि भी शब्द और अर्थ दोनों को महत्व देना सत्कवि के लिए आवश्यक मानते हैं । जिनसेन का कहना है कि जो काव्य अलङ्कार सहित, रसयुक्त, सौष्ठ युक्त तथा मौलिक ( अनुच्छिष्ट ) होता है यह सरस्वती देवी के मुख के समान शोभायमान होता है ।१०१ काव्य में निम्नलिखित दोष नहीं होना चाहिए
(१) अस्पृष्ट बन्ध... रीति को रमणीयता न होना ! (२) पदों का विन्यास ठीक न होना । (३) रसहित गिः
उपयुक्त दोषों से युक्त काव्य जिनसेन की मान्यतानुसार काम्य नहीं, अपितु कानों को दुःख देने वाली ग्रामीण भाषा है |10 जो प्राचीन इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला हो, जिसमें महापुरुषों का परित्र असित हो तथा जो धर्म, और काम के फल को दिखाने वाला हो, उसे महाकाव्य कहते है । किसी एक प्रकीर्णक विषय को लेकर कुछ इलोकों की रचना तो कवि कर सकते है, किन्तु पूर्वापर का सम्बन्ध दिखलाते हुए काग्य की रचना करना कठिन है।०३।
जो अनेक अयों को सूचित करने वाले पदविन्यास से सहित, मनोहर रीतियों से युक्त एवं स्पष्ट अयं से उद्भासित प्रगषकाव्यों की रचना करते है, ये महाकवि कहलाते है। सच्चे कवि को कविता करने में दरिद्रता नहीं करना चाहिए। इस संसार में शब्दों को राशि अपरिमेय है, वर्णनीय विषय अपनी इच्छा के साधीन है, रस स्पष्ट है और उत्तमोत्तम छन्द सुलभ है तब कविता करने में परिद्रता क्या है ? विशाल बाद मार्ग में अमण करता हुआ जो कवि अर्थरूपी सघन वनों में घूमने से खेदखिन्नता को प्राप्त हुआ है उसे बिनाम के लिए महाकविरूप वृक्षों की छाया का आश्रम लेना चाहिए । प्रज्ञा जिसकी जड़ है, माधुर्य, ओज, प्रसाद आदि गुण जिसकी उन्नत शालाएं है और उत्तम शब्द हो जिसके उज्जवल पत्ते हैं ऐसा यह महाकविरूपी वृक्ष यवारूपी पुष्पमाजरी को धारण करता है। प्रज्ञा ही जिसका किनारा है, प्रसाद आदि गुण ९९, वही १९९५ १००. शब्दार्थो सत्कबिरित्यं विद्वानपेक्षते ॥ किरातार्जुनीयम् १०१. वही १२९६ १०२. वही १९६ १०३. आदि. १/९९.१०० १०४, आदि. १/९८ १०५. वही १/१०१