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पार्श्वाभ्युदय
अमोघवर्ष के प्रताप और वैभव तथा साम्राज्य की शक्ति एवं समृति की भरपूर प्रशंसा की है। उसका शासन भी सुचारु रूप से व्यवस्थित था। इसके अतिरिक्त यह नरंश विद्वानों और गुणियों का प्रेमी, स्वयं भी भारी बिद्वान् और कवि था । संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़ एवं तमिल के विविधविषयक साहित्य के सृजन में उसने भारी प्रोत्साहन दिया था, उसकी राजसभा विद्वानों से भरी रहती थी कुछ इतिहासकों के अनुसार आचार्य जिनसेन की मृत्यु ८४३ ई० में हो गयी थी । उस समय राजा अमोघवर्षं सिंहासनारूढ़ था । अन्त में उसे संसार से विरक्ति हो गयी और ८७८ ई० में उसने राज्य का परित्याग कर मुनि दीक्षा ले ली ।"
हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन मे पायुक्ष्य के रचयिता जिनसेन की स्तुति निम्नलिखित " शब्दों में को है
जिनसेन स्वामी ने पाश्वस्युक्ष्य की रचना की है- श्री पार्श्वनाथ भगवान् के गुणों की स्तुति बनाई है, वही उनकी कीर्ति का वर्णन कर रही हैं। इन जिनसेन के वर्धमान पुराण रूपी उदित होते हुए सूर्य की उक्ति रूपी रश्मियाँ विद्वत्पुरुषों के अन्तःकरणरूपी स्फटिक भूमि में प्रकाशमान हो रही हूँ ।
डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार उपर्युक्त सन्दर्भ में प्रयुक्त अवभासते १२, संकीर्तयति, प्रस्फुरन्ति जैसे वर्तमान कालिक क्रियापद हरिवंशपुराण के रचयिता जिनसेन का इनको समकालीन सिद्ध करते हैं। हरिवंशपुराण की रचना शक सं० ७०५ ( ई० ७८३ ) में पूर्ण हुई है । अतः जिनसेन स्वामी का समय ई० सन् की आठवीं पाती हैं। जयधवला टीका को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसकी समाप्ति जिनसेन ने शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमी के पूर्वाह्न में की थी। इस टीका को वीरसेन स्वामी ने पूरा किया था, पर वे चालीस हजार श्लोक प्रमाण ही लिख सके थे। अपने गुरु के इस अपूर्ण कार्य को जिनसेन ने पूर्ण किया था। जिनसेन ने आदि पुराण का प्रारम्भ अपनो वृद्धावस्था में किया होगा, इसी कारण वे इसके ४२ पर्व ही लिख सके। अतः जयपवला टीका के
८९. डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास एक दृष्टि पृ० ३०१ ९०. M. G. Kothari, पाश्वभ्युदय -- Introduction पृ० २३ ९१. यामिताभ्युदये पार्श्वे जिनेन्द्र गुणसंस्तुतिः | स्वामितो जिनसेनस्य कौसि सङ्कीर्तयत्यसो ११४०
मानपुराणोद्यदादित्योषितगभस्तयः प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिक भित्तिषु १।४१ ९२. हरिण ११५९