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प्रस्तावना
२७ से बुर्बल है वही वास्तव में दुर्बल है। शाम की आराधना में उनका समय निरन्तर व्यतीत होता था अतः तत्वदर्शी उन्हें ज्ञानमय पिण्ड काहा करते थे।
जिनसेन का समय-आचार्य जिनसेन ने अपने पाश्वर्याभ्यूदप के निम्नलिखित लोक में सम्राट् अमोघवर्ष का स्मरण किया है -
पति विरचितमेतस्काध्यमानेष्ट्य मेध, बहगुणमयदोष कालिदासस्य काव्यम् । मलिमितपरकाव्य तिष्ठतादाशशा',
भुवनमवतुदेवस्सर्वेवामोषवर्षः ॥ पाश्वा ४७० अमोघवर्ष का समय ८१४ ई० से ८७८ ई० तक का माना जाता है। अमोघवर्ष पराक्रमी राष्ट्र मुट राजा थे और जिनसेन के उपदेश से जैनधर्म में दीक्षित हो गये थे। ८५१ ई० में अरक सौदागर सुलेमान भारत आया था और उसने दीर्घायु बलहरा (वल्लभराय) नाम से अमोघवर्ष का वर्णन किया है और लिखा है कि उस समम संसार भर में जो सर्वमहान् चार सम्राट थे वे भारत का बल्लभराय (अमोषवई), चीन का मनाद, बगवाव का खलीफा और कम (कुस्तुस्तुनिया) का सम्राट् थे । अलइद्रिसि, मसूदी, इमहीकल आदि अरब सौदागरों ने ८७. तस्य शिष्योऽभवच्छूिमाजिनसेनः समिद्घधीः ।
अविद्यावपि पकणी विही जानशलाकया ।। २७ ।। यस्मिन्नासन्न भव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मी समुत्सुका । स्वयं वरीतुकामेव श्रौती मालामयूयजत् ।। २८ ।। येनानुबरिस बाल्यावह्मवतमखण्डितम् । स्वयंवर विधानेन चित्रमहा सरस्वती ॥ २९॥ यो नाऽतिसुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः । तथाऽप्यनन्यशरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ।। ३०॥ श्री शमो विनयश्चेति यस्य नैसर्गिका गुणाः। सूरीनाराधयन्ति स्म, गुर्ण राराध्यते न कः ।। ३१ ॥ यः कृशोऽपि शरीरेण न कृशोऽभूत्तपोगुणः । न कृशत्वं हि शारीरं गुणरेवकृशः कृशः ॥ ३२ ॥ घोनाग्रहीकपिलिकानाऽप्यचित्तयदजसा तथाऽप्यध्यात्म विद्याब्धेः परं पारशिश्रियत् ।। ३३ ।। जानाराषनया यस्य मातः कालो निरन्तरम् ।
ततो साममयं पिण्ड यमाहुस्तस्यविनिः ॥ ३४ ॥ ८८.डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास : एक दृष्टि पृ. २९५