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________________ पाश्र्वाभ्युदय १९. आहार का त्याग को हुई । २०. अलङ्कार स्यागी। २१. औमुओं से गोले किए हुए पाण्डु वर्ण के गालों से युक्त। २२. अत्यधिक दुःख से शय्या की गोद में अनेक बार शरीर को धारण करती हुई। २३. अत्यधिक दुःख के कारण शय्या के पाश्य भाग में मछली के समान लोटती हुई। २४. जिसमें कंपकंपी उत्पन्न हुई है ऐसी स्वांस से विवश कामपात्र के समानः आचरण करती हुई। इस प्रकार की अवस्था वाली नायिका को देखकर कवि को विश्वास है कि मेघ अवश्य ही नूतन जल रूप आंसू बहायेगा, क्योंकि कोमल वृषय वाले सक लोग आई अन्तरात्मा वाले होते है । प्रियतम के वियोग में नायिकाओं के नेत्र की निम्नलिस्थित दशायें होती है१. अलकों ने कार अमाट पर जाता है। २. नेत्र स्तिन्य अंजन से शुम्य हो जाते है तथा भय का निराकरण करने के कारण भूविलास को भूल जाते हैं।" पाश्मिदय के कर्ता आचार्य जिमसन-जैसा कि कहा जा का है पापर्वाम्युदय पवल ग्रन्थ के कर्ता पंचस्तूपान्धमी स्वामी बौरसेन के पट्टशिष्य सेनसंघी. आचार्य जिनसेन स्वामी को अमर उपना है । बाचार्य जिनसेन के माता-पिता, जन्मस्थान आदि की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। जयपवला टीका की प्रदास्ति के अनुसार कर्णच्छेदन से भी पहले उन्होंने वीरसेन स्वामी के संघ में रहना प्रारम्भ कर दिया था। आसन्न भव्यता, मोजलक्ष्मी की समुत्सुकता और शानलक्ष्मी के वरण हेतु इन्होंने बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया था। उनका शारीरिक आकार अधिक सुम्पर नहीं पा और न थे अधिक चतुर थे। श्री, शम और विनय उनके नैसर्गिक गुण थे, जिसके कारण विद्वज्जन भी उनकी आराधना करते थे, क्योंकि गुणों के द्वारा कौन व्यक्ति आराधना को प्राप्त नहीं होता है। वे यद्यपि परीर से कुश थे, किन्तु तपोगुण से ऋश नहीं थे। शरीर से दुर्बल व्यक्ति दुर्घल नहीं होता है, जो व्यक्ति गुणों ८५. पार्वा० ३०५३ ८६. पा . ३१५६
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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