________________
प्रस्तावना
अनन्तर आदिपुराण की रचना मानने से जिनसेन का अस्तित्व ई० सन् की मबम शती के उत्तरार्ध तक माना जा सकता है ।३।।
भिमसेन की रचनाये--जिनसेन महुश्रुत विद्वान् थे। इनको चार रचनाओं (१) पाम्युिदय (२) जयघबला टीका (३) आदिपुराण (४) वर्धमान चरित की जानकारी प्राप्त होती है। इनमें से वर्धमान परित की प्रति सम्प्रति अनुपलब्ध है । अन्य तीन रचनाओं का परिचय निम्नलिखित है
1) पाश्वभ्युदय-कालिदास के मेन दूत के लोकों के एक चरण अथवा दो चरणों को लेकर शेष अपनी ओर से जोड़कर तीर्थकर पाश्वनाथ भगवान और उनके
जन्म के पत्र कह के जोद सम्सारामुर थे. हारा किये गये उपसर्ग को आधार बनाकर प्रस्तुत काव्य की रचना की गई है। इस प्रकार यह एक समस्यापूर्व्यात्मक काव्य है । इस काम्य की रचना को प्रेरणा प्राचार्य जिमसेन को श्री बीरसेन मनि के शिष्य विनयसेन नामक मुनिराज से प्राप्त हुई थी। जैसा कि निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट है
श्रीवीरसेनमुभिपादपयोजभृङ्गः श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरोमान् । तच्चोवितेन जिनसेनमनीवरेण,
काव्यं व्यधायि परिवेष्टित्तमेघदूतम् ।। पाश्र्वा० ४।७१ इस काव्य में चार सग हैं जिनमें क्रमपाः ११८,११८, ५७ और ७१ श्लोक है
(२) जयषवला ठोका-आचार्य वीरसेन कपायपाहुष्ठ के प्रथम स्कन्ध की चार विभक्तियों पर जयघवला नामक बीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखने के दाद स्वर्गवासो हो गए अतः उनके शिष्य जिनसेन ने शेषभाग पर चालीस हजार फ्लोक प्रमाण टीका लिखी । यह टीका जिनसेन ने राष्ट्रकूट राजधानी के निकट ही वाटनगर (वारमामपुर) में, जो कि पंचस्तूपान्वयो स्वामी वीरसेन का शानकेन्द्र था, पूर्ण हुई। शक संवत् ७५९ में लिस्लो हुई जयपबला टीका में स्वामी वीरसेन, जिनसेन तथा गजा अमोघवर्ष का नाम निर्देश किया गया है..
इति वीरसेनीया टीका सूत्रादशिनी मटग्रामपुरे श्रीमद्गुजरार्यानुपालिते ॥ फाल्गुनिमासि पूर्वाह्र वशम्यां शुक्लपक्षके प्रवर्धमानपूजायां नन्दीश्वरमहोत्सवे ॥ अमोघवर्षराजेन्द्र प्राज्य राज्य गुणोवया ।
निष्ठितप्रचयं यायायाकल्पान्तमनस्पिका ॥ ९३.० मिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित मारत पृ. ३१