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पाश्वभ्युदय
स्फटिक के समान कान्ति वाले चारों ओर बहते हुए फेन से युक्त जल प्रवाहों तथा कुमुद के समान शुभ्र कान्तिवाली ऊँची चोटियों द्वारा (जो कैलाश पर्वत) आदि जिनेश्वर की मूर्ति के आगे प्रतिदिन नृत्य के आरम्भ में पुजीभूत होकर ईशान दिशा के रुद्र के अट्टहास के समान आकाश को व्याप्त कर जो स्थित है उस रावण की भुजाओं से वियोजित प्रस्थसन्धियों से युक्त शुभ्र वर्ण और स्थूल स्फटिक के संसर्ग से शोभित स्थूल पत्थरों वाले और देवस्त्रियों के दांण के समान कैलाश पर्वत के आंतथि हो जाओ।
उत्पश्यामि त्वयि तटग स्निग्धभिन्नामनाभे, शोभामनेटतरुमतो मण्डलभाजितस्य । सधः सहिरवस्तमम्वरस्थ तस्य, प्रालयांशोग्रंसितुमनसा राहणेवानितस्य ॥७३॥ उत्पश्यामीति । लिभिन्नाम्जमा स्निग्धं मसृणं भिन्नं मदितं च यदञ्जन नस्य आभेव आभा यस्य तस्मिन् । त्वपि भवति । सहगते सानुगते सति । बटतकमतः वटवृक्षवतः । मलभ्राजितस्प बिम्बेन वृत्तेन राजितस्य । "बिम्बोऽस्त्री मण्डल विषु" इत्यमरः । स द्यः नत्मणे । तिरिवरवमगारस्य कृत्तस्य शिवस्य विरदरदनस्य गजदन्तस्य छंदवत् भागवत्गौरस्य शुभ्रस्य । “अवदातः मितो गौरोवलक्षो धवलोऽर्जुनः इत्यमरः । इदं विशेषणत्रयमुभयत्राप्यन्वीयते । प्रसिमनसा ग्रसितुं मनो यस्य तेन राणा स्वर्भानुना । बामितस्य संयुक्तस्य । प्रासयाशोनि चन्द्रस्येव । तस्याः बलाशस्य । बोमा द्युतिम् । उत्पश्यामि उत्प्रेक्षे । शोभा भविष्यतीति तर्कयामीत्यर्थः ।।७३।।
अन्धय-स्निग्धभिन्नाञ्जनाभ त्वयि तटगते (मति) वटतरुमतः मण्डलभाजितस्य, सद्यः कृतद्विरदनच्छेदगौरस्य, प्रसितु मनसा राहुणा आथितस्य प्रालेयांशोः इव तस्य अः शोभा उत्पश्यामि ।
अर्थ-सुधम और पीसे गए काजल के समान तुम जब हिमालय के तट प्रदेश में पहुंचोगे तो वटवृक्ष से युक्त परिधिमत भूप्रदेश से शोभित (पक्ष में प्रभामण्डल से शोभित) उसी क्षण काटे हुए हाथी दाँत के टुकड़े के समान सफेद और ग्रसने के इच्छुक राहु द्वारा आश्रित (संयोग वाले) चन्द्रमा के समान उस हिमालय की शोभा हो जायगी, ऐसी में सम्भावना करता हैं।
भावार्थ-मेघ राहु के समान है और हिमालय चन्द्रमा के समान है । जब मेघ हिमालय पर पहुँचेगा तब वह ऐसा प्रतीत होगा जैसे राहु ने चन्द्रमा को ग्रस लिया हो।