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________________ द्वितीय सर्ग यित्वा । अलं परम् । भोत्येव भयमानित्येव । पश्यतामिव प्रेक्षतां जनानामिव । साक्षात् प्रत्यक्षतः 1 विलयं नाशम् । सधः तत्क्षण एव । अति गच्छति ।।११८॥ इस्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरुथोजिनसेनाचार्यविरचितमेघदुतवेष्टित वेष्टिते पाम्पुिदये तव्याख्यायां प मुबोधिम्याख्यायां द्वितीयः सर्गः ॥२॥ अन्वय-पत्र भवनवलभि अध्यासीना आमुक्त प्रतनुविसरसठीकरासारधारा शारदी मेघमाला साक्षात् पश्यतां एव आलेल्यानां स्वजलकणिका दोष उत्पाद्य अलं भीरवा इव सद्यः विलयं व्रजति । ___ अर्थ--जहाँ पर भवन की छत पर स्थित छोड़ने पर स्वल्पप्रमाण में फैलते हुए जल कणों को निरन्तर गिरती हुई धारा वाली शरत्कालीन मेघों की पंक्ति लोगों के द्वारा प्राय पसे रखे जाने की जनों की भित्तियों पर बने हुए चित्रों को अपने जल के बिन्दुओं से दूषित कर मानों अत्यधिक रकर शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होती है। इति द्वितीय सर्ग:
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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