SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय सर्ग १५७. अर्थ - अनन्तर उस कलकल नामक जिनालय में इस प्रकार भक्ति को प्रकट करने में समर्थ बीणा आदि चार प्रकार के वादित्रों के संलाप को करके गम्भीर गर्जना बाली मृदंग की ध्वनि को प्रकट करते हुए ऊँची डालों से युक्त वृक्षों के जंगल को मण्डलाकार व्याप्त करते हुए वन्दना करने वाले मुनियों के स्तुति पाठ को चुपचाप तुनों तस्मिन्काले जलधरपथे स्वं वितत्य प्रहर्षा, द्विद्युद्दीपजिनमुपहरन्भक्तिभारावन त्रः द्रष्टासे त्वं दधदिव मुहुः स्वामिसेवानुरागं, सान्ध्ये सेजः प्रतिनवजपापुष्प रक्तं वधानः ॥ १४ ॥ जिने तस्मिन्निति । तस्मिन्काले स्तोत्र अत्रणसमये । जलधरपथे आकागे । प्रहर्षात् सन्तोषात् । स्वं स्वरूपम् । वितर विस्तृत्व | भक्तिभारावनः भक्त्यतिशयेनावनम्रः नमनशीलः | नमकम्यजस्कन इति रः । विद्युदीपैः विद्युत् एव दीवास्तः । एनं प्रत्यग्रजपाकुसूमारुणम् । सान्ध्यं संध्यायां भवं सान्ध्यम् । तेजो दीप्तिम् । 'तेजः प्रभावं दीप्ती च बले शुक्तस्त्रिषु' इत्यमरः । वघानः वहन् । मुहुः पुनः । स्वामिसेवानुरागं स्वामिनः जिनेश्वरस्य सेवानुरागं प्रीतिम् । दधविव दधातोति दधतु दधान इव । त्वं भवान् वृष्टासे दक्षिन्यसे । कर्मणि लुट् ॥ १४ ॥ 1 अन्वय - तस्मिन् काले जलधरपथे स्वं वितत्य भक्तिभारावनम्रः प्रत् विद्युद्दीपैः जिनं उपहरन् प्रतिनवजपापुष्परक्तं सान्यं तेजः दधानः स्वामिसेवानुरागं दधत् इव मुहुः दृष्टासि | अर्थ-स्तोत्र सुनते समय अपने आपको आकाशमार्ग में फैलाकर, भक्ति के भार से नम्र होकर अत्यधिक हर्म के कारण विद्युत् रूपी दीपकों द्वारा जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करते हुए नए जपाकुसुम के समान लाल सन्ध्याकाल के तेज को धारण करते हुए मानों भगवान् जिनेन्द्र के प्रति सेवा के अनुराग को धारण किए हुए के समान तुम पुनः पुनः दिखाई दोगे । भक्ति कुर्वऽशतमख इवाविर्भवाद्दव्यरूपचित्रां वृत्ति स्वरसरचितां शैखिनों वा मनोज्ञाम् । कण्ठच्छायां स्ववपुषि वन्मास्मयन् साधुवाद, नुतारम्भे हर पशुपतेराईनागाजिनेच्छाम् ॥ १५ ॥ १. दृष्टासि ।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy