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पाभियुक्ष्य मेघ के मार्ग में सर्वप्रथम संयोग प्रकार के दर्शन तब होते हैं अब भौहों के विलास से अनभिज्ञ कृषक स्त्रियों मेघ को देख रही हैं---
जीमूतत्वं पदनुगतः क्षेत्रिणां दृष्टिपातः ।
स्खय्यायत्तं कृषिफलमिति अविनापानभिः ।। पावा० १६१ विद्युत्समूह के सम्बन्धो, दैदीप्यमान इन्द्र धनुष की शोभा के समान शोभा युक्त, प्रकट होती हुई गम्भीर गर्जना से मनोहर, तेल से आद्रीकृत अजन के समान कृष्ण वर्ण की प्रभा वाले मैध को गांव को स्त्रियां भी आदरपूर्वक देखती है। क्योंकि मेष ने वर्षा की है अतः जनपवधुओं को उसके साय प्रोति हो गई
विद्युन्मालाकृतपरिकरो भास्वदिन्द्रायुभश्रीयन्नन्मन्द्रस्तनितसुभगः स्निग्धनीलाञ्जनाभः । विषं थायाः कृतकजलदत्वपयोबिन्दुपात,
प्रीतिस्निग्वैननपदयधूलोचनः पीयमानः ।। पाश्चसि ॥६२ मेष को प्राणयात्रा के निमिस वेत्रवती नदी के चञ्चल तर युक्त जल के रूप में उसके भ्रूभङ्गयुक्त मुख का पान करने का उपदेश दिया जाता है
पातम्यं ते रसिक सुरमं प्राणयात्रानिमित, ती सासुस्तिशफरापट्टनरातपतम् । रोषः प्रान्ते विहङ्गकलभडिण्डोरपिण्र्ड,
सभ्रूभङ्ग मुखमिव पयो वेत्रकत्याचलोमि । पा. १३९६ मेघ को उस नीच पर्वत के सेवन का उपदेश दिया जाता है जिसको अषिस्यका सिद्ध स्त्रियों की रतिक्रीड़ा के समय उत्पन्न मालादि के गन्धों से सुगन्धित है।" वह पर्वत वेश्याबों से रतिक्रीड़ा में विदित पुष आदि को सुगनिन को प्रकट करने बाले ( पुष्प आदि ) उपहारों से मुक्त लताओं से निर्मित एमाकार मणपों ( लता गृहों ) से नागरिकों के भोगों की अधिकता को कहता है । मैथुन सेवन के समय जिन पर मालायें गिर गयी है तथा जिनके मध्य भाग फूलों को शय्या से च्याप्त हैं ऐसे विलागृह ( नागरिकों के ) उत्कट यौवन को प्रकट करते है ।" ६८. सिद्धस्त्रीणां रतिपरिमलीसितापित्यकान्तं ।। पा. १९८ ६९. भोगोद्रेक कथयति लसावेश्मक: सोपहारः
यः पश्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिगिरायाम् || पाना० २९९ ७०. मोमोत्सङ्ग परिमृजति वा पुष्पशय्याचितान्तीः ।
खस्तनभिनिधुवन विषो कोहतां दम्पतीनां उहामानि प्रथसि शिलावेश्मभिर्यावनानि ॥ पा० ॥१००