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प्रस्तावना के विभिन्न मङ्गों एवं व्यापारों का दर्शन करने में भी प्रकृति उहोपन का कार्य करती है
योगिन् ! योगिप्रणिहितमनाः किंतरां ध्येयशून्य, ध्यायस्येवं स्मर ननु घियाध्यमवर्ष मतं नः । श्यामास्वङ्ग' चकितहरिणीप्रेक्षित्ते दृष्टिपातं,
पत्रच्छायां शशिनि, शिक्षिनो बहभारेषु फेशान् ।। पावा. १२१ पश्यामुष्मिन्नवकिसलये पाणिशोभा नखाना,
iयास्मिन् कुरमाने समस्ने स्मिkilip . लीलामुचकुसुमितलतामअरीध्वस्मदीया
मुत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु चूदिलासान् ॥ पावा. ४।३० अर्थात् हे योगी! ध्यान की एकाग्रता से चित्त को वश में करने वाले, इस प्रकार कौन सी ध्येयशून्य वस्तु का ध्यान कर रहे हो ? हे योगी! हम दोनों के द्वारा बहुत आवर को प्राप्त प्रत्यक्ष से जानने योग्य (सुन्दर स्त्री के) पारीर को प्रिमगुलताओं में, दुष्टिपातको गरी हई ममियों के नेत्रव्यापार में, मुख की कांति को चन्द्रमा में, केशों को मयूरों के पंखों में मन से यार करो, व्यामो हमारे (द्वारा जामने योग्य) हाथ की शोभा को इस नये पल्लव में, मौकी कान्ति इस पुष्पित मये कुरबक के बन में, मुस्कुराहट की शोभा उगते हुए फूलों से युक्त लतामारियों में, भौरों के विलास को नदी की पसली तरङ्गों में देखो, ( इस प्रकार ) में तर्कना कर रहा है।
संवेदनशील या मानवीय भावनाओं से युक्त रूप में इस वर्ग में ऐसे वर्णन आते हैं, जिनमें जड़ प्रकृति को भी संवेदनशील प्रदर्शित किया जाता है । इस प्रकार के वर्णन में प्रकृति मानव के सुख-दुःख से सुख-दुःख युक्त होती है या भावनामय मानव के समान व्यापार करती है। प्रियादर्शन के अवसर पर प्रेमी वारा की गई चेष्टाओं को देखकर वनदेविमों आँसू गिराती है
तां तां चेष्टां रहसि निहितां मन्मनाऽस्मदने, त्वत्सम्पर्क स्थिरपरिचयावाप्तये भाग्यमानाम् । पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थलोदेवताना,
मुक्तास्थूलास्तरुकिसलये बथुलेशाः पतन्ति ।। पाश्च० ४।३८ मर्यात काम के द्वारा हमारे शरीर में एकान्त में प्रस्थापित, तुम्हारे सम्पर्क से स्थिर परिचय की प्राप्ति के लिए प्रकट की गई उस उस ( समस्त ) चेष्टा को देखती हई अनदेवियों की मोतियों के समान स्थूल आंसुओं को डू वृक्षों के पल्लवों में कई बार नहीं गिरती है, ऐसा नहीं है।
पाश्चभ्युिदय में श्रृंगार पापर्वाभ्युदय में संयोग और वियोग दोनों प्रकार का प्रकार मिलता है।