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पाभ्युदय
इन्द्रनीलमणि को रमणीय लक्ष्मी का हरण करने वाला मेघ आम्रकूट पर्वत के निकुंज में क्षणभर बैठकर स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी में आये हर सूक्ष्म आकाशखंड के समान लगता हुआ ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेगा कि देव युगल भी उसे देखने की इच्छा करेंगे
अध्यासीनः वाणमिव भवानस्य शैलस्य कुछ, लक्ष्मीं रम्यां मुहुरुपहरमिन्द्रनीलोपलस्य । मन्मुक्तो भुवमिव गतः श्लक्ष्णनिर्मोकखण्डो,
नूनं यास्यत्यमरमिथुन प्रेक्षणीयामवस्या | पावर्थी ० १।७१. निर्विन्ध्या नदी को पार कर मेघ के मार्ग में वेणो के समान थोड़ा जल बाली, तीर में उगे हुए वृक्षों से गिरने वाले सूखे हुए पत्तों से पीले वणं वाली सिंधु नामक नदी अविनीत, शिथिल अथवा परित्यक्त वस्त्र वाली कामिनी के समान हंसों की पंक्तियों की गम्भीर आवाजों से मानों मेघ का बुलाती हुई दिखाई देगीहंस श्रेणी कलविरतिभिस्त्वामियोपालपन्ती, घुष्टा मार्गे शिथिलवसनेषाङ्गना दृश्यते ते । वेणीभूत प्रतनुसलिला सामतीतस्य सिन्धुः,
पाण्डुच्छायातरुतरुणिभिजणं गणः । पाद० १।१०७
उद्दीपनरूप यह रूप है जिसमें प्रकृति का भावों के उद्देोपक रूप में चित्रित किया गया है। पाश्वभ्युदय में मेष को वियोगियों की प्रेम भावनाओं का उद्दीपक बनाया है । जो कोई उसे देखता हूं उसका मन कुछ और ही हो जाता है । कालिदास ने कहा है कि क्षेत्र के दर्शन से सुखी व्यक्ति का भी मन जब कुछ और हो हो जाता है तो फिर दूरवर्ती (वियोगी) व्यक्ति की तो बात ही क्या है ? वायुमार्ग से उड़ता हुआ मेघ पथिक और उनकी वनिताओं के लिए उद्दीपक है । शम्बरासुर मंत्र से कहता है- तुम्हारे गमन के समय आकाश मार्ग में दिव्ययान पर देवाङ्गनाओं द्वारा अलिङ्गित सुन्दर माणिक्यों के आभूषणों की किरणों से घोषित अङ्ग वाले, स्वर्गभूमि पर जाते हुए तुम्हें भूमिप्रदेश पर स्थित पथिकों की स्त्रियों नए मंध को आशंका से उत्पन्न प्रियागमन के विश्वास से आमन्दित होती हुई अवश्य देखेंगी । ७ प्रकृति के विभिन्न रूपों में प्रियतमा ६६. मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्तिचेतः
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कण्ठास्य प्रणयिनि जने किं पुनरसंस्थे ( मेत्र १/३)
६७. दिव्ये याने त्रिश्चिवनितालिङ्गितं व्योममार्ग, सम्माणिक्याभरण किरणद्योतिताङ्ग
तवानीम् । गां गच्छन्तं नवजलधराशयाऽधः स्थितास्स्यां प्रेक्षिष्यन्ते पथिकच निताः प्रत्ययादाक्य सन्स्थः ॥ पार्श्व० ११३०