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पार्वाभ्युदय कैलाश पर्वत के अंक में अलकानगरी बसी हुई है। इस अलकानगरी का वर्णन कषि ने मुक्त के से किया है। मार्ग का उपयुक्त क्रम मेघदूत के अनुसार ही है। हो सकता है कि जिनसेन कोई अन्य मार्ग चुनते, किन्तु उन्हें मेघदूत के श्लोकों के सारे घरणों को अपने काव्य में समाहित करना था अत: मार्ग का यही क्रम उन्होंने चुना।
अनुशीलन-पाव भ्युदय विश्व के समस्त काव्यों में अप्रतिम है । आत्र्यात्मिक शक्ति के सामने संसार की सारी भौतिक शक्तियां तुच्छ है, वे उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती है, यह दर्शाना यहाँ कन्नि का अभिप्रेत है। पावं के प्रति दग्पनर शम्बरासुर सोचता है कि मेघ का दर्शन होने पर सूखी व्यक्ति का भो चित्त अन्य प्रकार की प्रवृत्ति वाला हो जाता है, अतः तिरस्कार करता हुआ मैं गर्जनाओं से भरकर ध्वनि गुन हित को न्यो: भी रामा शरीर वाले मेघों से इसके चिप्स में क्षोभ उत्पन्न करूंगा। मनन्तर प्रकल्पित धर्म वाले इस विचित्र उपाय से मार डालूंगा।' ऐसा सोचकर उसने उपद्रव प्रारम्भ कर दिया । जिनसेन उसकी मूढता का परिहास करते हुए कहते हैं
क्वाऽयं योगी भुक्नमहिते धुर्विलध्यस्वशायिनः, क्वाऽसौ क्षुद्रः कमठदनुजः क्वेभराजः क्व दशः । क्वाऽऽसद्ध्यान चिरपरिचितध्येयमाकालिकोऽसी,
घूमज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेषः । पाश्वा० १।१७ अर्थात् जिसकी आत्म शक्ति का उल्लंघन करना कठिन है ऐसा यह योगी कहां और अधम कमठ का जीव देस्य कहाँ ? कहाँ तो गजराज और कहाँ बनमक्खी, जिसका ध्येय चिरपरिचित है और पूर्णरूप से जिसका ध्यान शोभन हैं
ब्रह्मावर्त जनपदमथच्छायया गाहमानः । क्षेत्र क्षवप्रधनपिशन कौरवं तद्भजेथाः ॥ पार्वा० २१४५, ४६ तस्माद्गच्छेरनुकनखल शंकराजावतीर्णाम् । जह्नो फन्यां सगरतनयस्वगंसोपानपंक्तिम् । २।५१, ५२ इंसद्वार भगपतियशोवस्मै यत्कौञ्चरन्धम् ॥ मेघदूत ११६०, पा. २०६९ तस्योत्सङ्ग प्रणायिन इद सस्तगङ्गादुकूला
न्न त्वं दृष्ट्वा न पुनरलका ज्ञास्यसे कामचारिन् ।। पा० २१८१,८२ ८. मेघस्तावत्स्तनितमुखरविचक्षुद्योतहासः, . चित्तक्षोभान्द्विरदसौरस्य कुर्वे निकुर्वन् ।
पश्चाच्चैन प्रचलिमति ही हनिष्यामि चित्रं, मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्ति चेतः ॥-पार्खा १।११