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________________ प्रस्तावना ऐसा वह योगी कहां और घुऔ, अग्नि, जल तथा वायु का समुदाय यह मेष असामयिक ( शीघ्र नष्ट हो जाने वाला ) कहाँ ? ____वायु में धुमें के रूप में मृक्ष्मातिसूक्ष्म रजकण छाए रहते हैं। मात के संघर्ष से ये कण विद्युत् से परिगहीत हो जाते हैं। सप वाष्प रूप में अन्तरिक्ष में व्याप्त जल को वे अपने कार आकृष्ट कर लेते हैं। इस प्रकार मेध बनकर जलवृष्टि के योग्य हो जाते है। वास्तविक रूप में ऐसा मेष सन्देशादि के कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ नहीं है। किन्तु कालिदास यक्ष को कामुक के रूप में चित्रित करते है और कामुक व्यक्ति अपनी उत्कष्ठा के कारण चेतन अघेतान के विवेक में दीन हो जाते हैं अतः यक्ष उसी अचेतन मेघ से याचना करने लगता है। जिनसेन ने आत्मिक शक्ति के सामने मेंघरूप अचेतन पदार्थ की तुच्छता को पूरी तरह स्वीकार किया है अतः पार्श्वनाथ उसको शक्ति को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते । भौतिक शक्ति का आश्रय लेकर दूसरे को पराभूत करने की चेष्टा करने वाले को जिनसैन क्षुद्र कहने से नहीं चूकते। कालिदास अचेतन प्रकृति को भी मनोभावों के सम्पर्क से तन बनाने का कौशल व्यस्त करते हैं, जिनसेन आत्मिक शक्ति के सामने जड़ प्रकृति की तुच्छता के यथार्थ को स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचकते। सम्बर के माध्यम से मेव के रूपों तथा उसके प्रतिफलों को जिनसेन ने अत्यधिक विस्तार से कहलाया है किन्तु वे सारे रूप में सारे फल पाश्र्व को निस्सार दिखाई देते हैं। इस प्रकार पार्श्व का यापक रूप नहीं, समर्थ रूप सामने आता है । अपेतन को वेतन मानने का भाव बन्धन का भाव है और इसो मिथ्यापरिणति के कारण जीव इस संसारचक्र में भ्रमण कर रहा है । अचेतन को अचेतन और चेतन को चेतन मानने का विक जिसके अन्दर जाग्रत होता है, वह रत्नत्रय मार्ग के द्वारा मोक्ष के सम्मुख पहुँचता है । इस प्रकार की साधना का पथिक अनुपमेय है, दुर्जेय है, इस बात का विचार न कर दुष्ट पुरुष बुद्धि की उद्धप्तता से उससे माया युद्ध की याचना करता है। ऐसा व्यक्ति यदि देव भी है तो भी पशु के तुल्य है, जिसे जिनसेन ने 'गुरुसुरपशु' कहा है। संसार में लोग वस्तुओं और घटनाओं को अपने अपने अभिप्राय और सामध्यं के अनुसार देखते हैं। शंबरासुर पावं के तप के अभिप्राय को समाम १. वासुदेव शरण अग्रवाल, मेघदूत एक दृष्टि, पृ०६ १०. मायायुस मुनिपमुष्माक्षीणको दुर्जयोऽये, योसुक्याव-रिगणयन् गुह्यकस्तं यया ॥ पार्खा० ११९ ११. वही ११८
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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