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________________ प्रथम सर्ग अर्थ-अतः प्रोक्त सुयोग्य दिव्य मेघरूप आकार बनाकर बिजली की उत्पत्ति के समय ( कान्ता की इच्छुक ) वधुओं के सङ्केताभिप्रापण रूप कार्य को निष्पत्ति कराकर दिव्यांगों का भोग करने के लिए इच्छानुसार विहार के भिवर्ष तुम जहा वेल फेहरे पड़ वाले इन स्थान से उत्तर को ओर मुख करके आकाश में शीघ्न हो उड़ जाओ। भावार्थ-दिव्यरूप मेघ बनकर तुम बिजली के द्वारा अभिसारिकाओं को उनके प्रेमियों के मिलने का स्थान दिखलाओ। पश्चात् दिव्यभोगों का भोग करने के लिए अपनी इच्छानुसार विहार करने की अभिलाषा वाले तुम उत्तर दिशा की ओर आकाश में उड़ जाओ। दिग्भ्योऽबिभ्यत्कथमिव पुमान्भीलुफस्तत्र गच्छेदुल्लध्याद्रोन्विषमसरितो दुर्गमांश्च प्रदेशान् । तन्मारोवीन ज सुनिपुणं व्योममार्गानुसारी, विङ्नागानां पथि परिहरन्स्थूलहस्तावलेपान् ॥ ५६ ॥ दिम्य इति । तत्र मागें । भोलुक: 'मः क्रुक्रुकवालुकत्यः 'मीरुभीरुक मोलुकाः इत्यमरः । पुमान् पुरुषः । दिग्भ्यः ककुम्भ्यः । बिभ्यत भीतिममच्छस् । प्रोन पर्वतान् । विषमसरितः वैषम्ययुपता नदीः । दुर्गमान गन्तुमवाक्यान् । प्रवेशाश्व कान्तारादिस्थानान्धपि । उरलाध्य अतीत्य । कमिव वेन प्रकारेण । इव साम्दो वाक्यालङ्कारे । गच्छेत् प्रजेत् । तत् तस्मात्कारणात् । मा रोबी: रोदनं मा कुरु । पथि मार्गे। विङ्नागानां विगजानाम् । स्थूलहस्तावलेपान् पीवराणां शुण्डानां दर्यान् । 'अबलेषस्तु गर्व: स्याललेपने दूषणेऽपि च' इति विश्वः । परिहरन् दुरीकुर्वन् । योममार्गानुसारी आकाशमार्गानुयायी सन् । सुनिपुर्ण सुष्ठुचतुरो यथा भवति तथा । बज गच्छ । तन्मार्गे पुमान्भोरुपचेद्गन्तुन समर्थः । तस्मासोरों भवन् युक्त्या बजेति तात्पर्यम् ॥५६॥ __ अन्वय-दिग्भ्यः बिभ्पत् भीलुकः पुमान् अद्रीन् विषमसरितः दुगंमान् च प्रदेशान् उल्ला घ्य तत्र कथमिव गच्छेत् : तत् मा रोक्षोः । व्योममार्गानुसारी ( त्वं ) पयि दिङ नागानां स्थूलहस्तावलेपान् परिहरन् सुनिपुणं धज । ____ अर्थ-दिशाओं से डरता हुआ भीरु मनुष्य पर्वतीय विषम नदियों और दुर्गम प्रदेशों का उल्लङ्घन कर वहां जाने में किसी प्रकार समर्थ होता है ? अर्थात् किसी भी प्रकार समर्थ नहीं होता है अतः मत रोओ । आकाश मार्ग का अनुसरण करते हुए तुम रास्ते में दिग्गओं की बड़ी-बड़ी सूड़ों के आक्रमण से बचते हुए निपुणता पूर्वक गमन करो।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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