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________________ पाश्र्वाभ्युदय प्रमाण है। उन्होंने जो कालिदास के काव्य को प्रशंसा की है, उससे तो उनका ग्यक्तित्व और मी ऊँचा उठ जाता है। महान कवि हो अपनी कविता में दूसरे कवि की प्रशंसा कर सकता है। इस काव्य के सम्बन्ध में प्रो० के० बो० पाठक का मत है कि पाम्युिदय संस्कृत साहित्य की एक अद्भुत रचना है । वह अपने युग की साहित्यिक रुचि की उपज और आदर्श है। भारतीय कवियों में सर्वोच्च स्थान सर्वसम्मति से कालिदास को मिला है, तथापि मेषदत के कर्ता की अपेक्षा जिनसेन अधिक प्रतिभाशाली कवि माने जाने योग्य है । पारभ्युिदय की कथावस्तु जम्बुद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में सुरम्य नामक देश में पोदनपुर नगर था। वहाँ राणा अरविन्द राज्य करता था। उस नगर में विश्वभूति ब्राह्मण के दो पुष कमठ और मरुभूति रहते थे। ये दोनों राजा के मन्त्री थे। एक बार जब मरुभृति बाहर रामा के कार्य से गया हुआ था नन्न कमल ने उसकी स्त्री वसुन्धरा को बलात् अपनी पत्नी बना लिया। राजा को जन यह ज्ञात हुआ तो उसने कमठ को अपने राज्य से निष्कासित कर दिया। कमठ सिन्धु नदी के किनारे सपस्या करने लगा | बड़े भाई के निष्कासन से दुःखी छोटा भाई माभूति तलाप करते करते भाई के पास पहुँचा । उसे आया देखकर कमठ को बहुत क्रोध आया । उसने नमस्कार करते हुए मरुभूति पर पाषाण शिला गिरा दी । इस प्रकार कई जन्मों तक उन दोनों का आपस में बैर चलता रहा । अन्त में मरुभूति का जीव वाराणसी के काश्यप गोत्री राजा विश्वसेन की रानी ब्राह्मी के गर्भ में पारवनाथ के रूप में आया। देवों ने उसके यथासमप गर्भ, जन्म आदि महोत्सव फिए । अन्स में वैराग्य के कारण उन्होंने समस्त परिग्रहों का त्याग कर दीक्षा ले ली। एक बार जब वे तपश्चरण में लवलीन थे तो आकाशमार्ग से जाते हुए क्रमठ के जीव वाम्बरासुर का विमान छा गया। उसने निभंगावधि से सब वृत्तान्त जाना तो अपने बैरी को देखकर उसकी क्रोधाग्नि बढ़ गई। क्रोधवश उसने महागर्जना को और महावृष्टि करना शुरू कर दी। इस पर जब पाश्वनाथ अपमे धर्य से विचलित नहीं हुए तो वह उन्हें युद्ध करने की प्रेरणा देते हुए कहने लगा कि युद्ध में तुम मेरे हाथ मृत्यु प्राप्त कर अलकानगरी को प्राप्त करोगे वहाँ पर स्त्री आदि भोग सम्पदायें सुलभ होगी। अलका नगरी आदि के वैभव का १. उत्तरपुराण (प्रस्ताविक ), पृ० ११ ( ज्ञानपीठ प्रकाशन ) २, जनल बॉम्बे ब्रांच, रॉयल एशियाटिक सोसायटो, संख्या ४९, बा० १८, (१८९२ ) तथा पाठक द्वारा सम्पादित मेषत द्वि., सं० पूना, १९६६ भूमिका, पृ. २३ आदि
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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