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प्रस्तावना
सन्देश काव्यों में पाश्र्वाभ्युदय का स्थान सन्देश काव्यों की परम्परा और पार्वाभ्युदय ___सन्देश मा दुतकाव्य लिखने की परम्परा बहुत प्राचीन है । उपलध सन्देश कायों में कालिदास का मेघदूत सबसे प्राचीन माना जाता है। उसी के आधार पर बाद में अनेक कवियों ने सन्देश काव्यों का प्रणयन किया । ८वीं-९वीं शताब्दी ईसवी के आचार्य जिनसेन ने अमोचवर्ष के शासनकाल में पायमियचय नामक काव्य की रचना की । यह काम्प ३६४ मन्दाक्रान्ता वृत्तों में मेघदूत के प्लोकों के चरणों की समस्या पूर्ति के लिए लिखा गया है। विक्रम का नेमिदूत ( ई० १३ वीं शती का अन्तिम चरण), मेस्तुग का जैनमेघदुत ( सन् १३४६. १४१४ ई.), परित्रसुन्दर गणिका शोलदूत ( १५वीं पाती), वादिचन्द्रसूरि का पवनदूत ( १७वीं शती ), विनयविजय गणिका इन्दुत ( १८वीं शती), मेघविजय का मेघदूत समस्या लेस ( १८वीं शतो) एवं अज्ञात नाम वाले कवि का चेतो दूस जैन परम्परा के प्रमुख दूत काव्य है । संस्कृत साहित्य में अब तक ५१ दूत काव्यों की रचना मानी गई है। इनमें बारहवीं शताब्दी के घोयो कवि का पवनदुत, तेरहवीं शताब्दी के वेदान्तदेशिक का हंससन्देश, पन्द्रहवीं पातान्दो के रूप गोस्वामी का हसत और सत्रहवीं शताब्दी के कृष्णानन्द सार्वभौम का पदाछूदुल अधिक प्रसिद्ध है। इनमें से भी बहुत से काव्य तो मेघदूत के श्लोकों अथवा उसके चरणों की समस्यापूर्ति के रूम में लिखे गए हैं तथा अन्य बहुत से काव्यों का प्रणयन्न स्वतन्त्र रूप में हुआ है, फिर भी इन पर कालिदास का गहन प्रभाव लक्षित होता है। जिनसेन का पारभ्युिदय इस परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है ।
पाभ्युदय में समस्मा पूर्ति के काव्य कौशल द्वारा समस्त मेघदूत को प्रथित कर लिया गया है। यद्यपि दोनों काव्यों का कथा भाग सर्वथा भिन्न है, तथापि मेघदूत को पंक्तियाँ पाश्र्वाभ्युदय में बड़े ही सुन्दर और स्वाभाविक ग से बैठ गई है। समस्या पूर्ति की कला कवि पर अनेक नियन्त्रण लगा देती है, तथापि जिनसेन ने अपनी रचना को ऐसी कुशलता और बहराई से संभाला है कि पाम्युिवम के पाठक को कहीं भी यह सन्देह नहीं हो पाता कि उसमें अन्य विषय व भिन्म प्रसङ्गात्मक एक पृथक काव्य का समावेश है । इस प्रकार पापाम्युदय जिनसेन के संस्कृत भाषा पर अधिकार तथा काव्यकौशल का एक सुन्दर