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पाश्र्वाभ्युष्य भी उसका अपने भाई के प्रति बैर शान्त नहीं होता है और वह भगवान पार्श्वनाय पर तरह-तरह के उपसर्ग करता है अतः कमठ के जन्म में किया गया तप उसकी आभत्राप्ति में कुछ भी सहायक नहीं होता है।
भारतवर्ष के साहित्य की एक प्रमुख विशेषता कर्म तथा उसके फल में विश्वास है । प्रत्येक पुरुष को अपने कर्म का शुभाशुभ फल भोगना ही पड़ता है। यहाँ के समस्त शास्त्र अन्धन से मुक्त होने का उपाय बतलाते हैं। पार्व पर किया गया दाम्बरार का उपसर्ग उनके पूर्वकुत कर्मों का फल था, जिसे खीर्थकर होने पर भी उन्हें भोगना अनिवार्य था। इनकी साधना बन्धन से मुक्त होने का उपाय थी । पाश्र्वाभ्युदय का मेष सांसारिक बाह्य आकर्षण का प्रतीक है । इस आकर्षण से सभी सांसारिक प्राणी आकर्षित होते हैं । शम्बरासुर चाहता है कि बाह्य आकर्षणों में पड़कर पावं अपनी तपः साधना को भूल जाय अतः मेघ के माध्यम से सांसारिक आकर्षणों, सृष्टि की उमंगों, तरङ्गों, कोमल संवेदनाओं और अभिलाषाओं को सामने रखता है। उज्जयिनी और अलका की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं, उद्यानों, दीपिकाओं, पण्यस्थलों, मनोहर अजनाओं, रास्ते के उद्दाम प्राकृतिक दृश्यों और लुभावनी वस्तुओं के ललित वर्णनों के बीच पाश्व के हृदय में शान्ति और मिरासक्ति की एक अपूर्व मालादमयी धारा है | आत्मा में निरन्तर जागरण का कार्य चल रहा है और इस जागरण का फल यह होता है कि उसकी शक्ति से अनुपम दिवम सुखों में लीन धरणेन्द्र जैसे देवों के आसन भी कंपायमान हो जाते हैं, शत्रु को पलायमान होना पड़ता है, उसे अपनी भूल मानकर हरम से क्षमा याचना करनी पड़ती है। इस प्रकार एक अपूर्व विजय की प्राप्ति होती है । अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग शत्रुओं का अब नाश हो गया है। जो कुछ भोगना था वह भोग लिया अब कुछ भोगना बाकी नहीं रहा, संसार के सारे आकर्षणों का अन्त आ गया और आस्मा में अपूर्व सुख की धारा बह रही है । संसार के प्राणी ऐसी महान् भात्मा के गुणानुवाद अथवा नाम मात्र लेने से भवोच्छेवन' की आशा बांध रहे है। भक्ति के रस का संचार हो रहा है । इस प्रकार पाम्युिदय के बाह्य रूप को अपेक्षा उसका अान्तरिक रूप करोड़ों गुना अधिक महत्त्व रखता है।
शम्बरासुर और पाश्र्व का संघर्षे इन्द्रियशान और असोन्द्रियज्ञान के बीच का संघर्ष है । शास्त्रकारों ने कहा है कि इन्द्रिय के द्वारा जो जानकारी प्राप्त होती है वह तुछ है, अतीन्द्रिय शान से जो जानकारी प्राप्त होती है वह विपुल है, पूर्ण है। एक में असमनता है, दूसरे में समानता है। असमग्र को सब कुछ ३७. स्वयंकृतं कर्मयबास्मनापुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।