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प्रस्तावना मानने वाला संसार की ऊपरी पाकविषय में ही रमण करता है, उसे चाहिए बाह्य प्रकृति का मनोरम वातावरण, काम का उद्दाम वेग और उसकी पूर्ति का साधन सुन्दर ललनायें और पुरुष । दूसरी ओर समग्रता की आराधना करने वाला इन वस्तुओं को वैराग्यशील भिक्षु की निगाहों से देखता है, उसकी दृष्टि में ये सब वस्तुयें और मनोभावनायें बाह्य है, शारीरिक है, मूर्तिमान हैं, क्षण भंगुर है, इन सबके बीच में जो अमूर्तिक आरमा विद्यमान है वह उसको खोष करता है । काम, क्रोध, मद आदि के आदेश से उस आरमत्व की उपलब्धि नहीं हो सकती है । कहा भी है
मदेन मानेम मनोभवन क्रोधेन लोभेन ससम्मदेन ।
पराजिताना प्रसभ सुराणां वृधंत्र सामाग्रजापरवाम् ।। काम्बरासुर काम, क्रोध और मद से युक्त है, उसकी दृष्टि सरागी है अत: इन्द्रिय प्रत्यक्ष से उसे जो कुछ दोल रहा है वहीं उसके लिए लोभनीय और अलोभनीय है। जो लोभनीय है वह वस्तु उसके लिए राग का कारण है और जो अलोभनीय है वह वस्तु उसके लिए वेष का कारण है। राग और द्वेष ये दोनों संसार छोड़ने के लिए विसर्जित करने पड़ते है, वीतरागी बनना पड़ता है, निश्छल समाधि की ओर बढ़ना पड़ता है। पार्श्व इसी वीतरागता और निकाल समाधि की ओर बढ़ रहे है अतः इन्द्रियों के माध्यम से जो कुछ देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है उसकी तरफ उनका लक्ष्य नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति राग और द्वेष की जनक है। वीतरागता के पथ के पथिक को इष्ट वस्तु के प्रति न राग है और न अनिष्ट वस्तु के प्रति देष है । जहाँ राग और द्वेष है वहाँ संसार है । संसार छोड़ने के लिए आत्मतत्व का सहारा लेना पड़ेगा और अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि करनी होगी। अतीन्द्रिय ज्ञान जिसके पास है वही सच्चा योगी है। शिशपाल वश में माघ ने नारद को 'अती. न्द्रियशान निधि' कहा है । कालिदास ने पूर्व मेघ के ५५वें श्लोक में कहा है कि शिव के चरणों में भक्ति रखने वाले करणविगम के अनम्तर शिव के गणों का स्थिर पद प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । इस करणविगम शब्द का प्रयोग पायाभ्युदय में भी हुआ है। वहीं कहा गया है कि अर्हन्त भगवान के घरण चिह्नों को देखने पर जिनके पाप नष्ट हो गए है ऐसे भक्ति का सेवन करने वाले
३८. निवत्यं सोऽनुन्नजतः कृप्तानतीनतीन्द्रियज्ञाननिधिर्नभस्सदः । समासदत्सादितदैत्यसम्पद. पदमहेन्द्रालयचारुचक्रिणः।।
शिशुपालवध ११