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प्रस्तावना
(३) भक्ति का फल स्वतः प्राप्त होती है। (४) भक्ति जीवों को पापरहित करती है । (५) भगवान से प्रार्थना करते समय व्यक्ति यह भाषना करता है कि क्षण
__ भर के लिए भी उसका आत्मस्वरूप ज्ञान से वियोग न हो 1 पार्वाभ्युदय में दो प्रकार के तपों का चित्रण प्राप्त होता है-(१) सांसारिक आकांक्षा की पूर्ति के लिए किया गया तप। (२) कर्म के क्षय के लिए किया गया तप । इन दो तपों में से जैनधर्म में दूसरे प्रकार के तप को स्वीकार किया गया है कि पहले पापमोजन संसार है और दूसरे तप का प्रयोजन मोक्ष है । आचार्य समन्तभद्र ने कहा है
अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया,
तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान् पुनः जन्म जरा जिहासया,
त्रयों प्रवृत्ति समधीरनारुणत् ।। हे भगवन् ! कितने ही लोग सम्मान प्राप्त करने के लिए, कितने ही धन प्राप्त करने के लिए तथा कितने ही मरणोसरकाल में प्राप्त होने वाले स्वर्गादि की तृष्णा से तपश्चरण करते है, परन्तु आप जन्म और जरा की बाधा का परित्याग करने की इच्छा से इष्टानिष्ट पदार्थों में मध्यस्थ हो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकते हैं । पाश्वम्युिदय में इस प्रकार के तप का आचरण करने वाले भगवान् पार्ष है, जिनके सामने कठिनाई के पहाड़ उपस्थित होते है, फिर भी जो जरा भी विचलित नहीं होते हैं। फलतः दाम्परासुर को विफल प्रयास वाला होना पड़ता है !३४ इसके विपरीत कमठ ऋपट मन से" तपस्या करता है। अपने भाई की पत्नी इत्वरिकातुल्य बसुन्धरा से अलग हुआ वह शुष्क वैराग्य के कारण, जिसके पत्थरों के तल भाग ऊँचे नीचे थे, जिसके प्रदेश धाबाग्नि से दग्ध थे, जहाँ वृक्ष शुष्क होने के कारण उपभोग के योग्य नहीं थे, अनेक प्रकार के कांटों से वेष्टित होने के कारण जो गमन करने योग्य नहीं था ऐसे पर्वत के शिखर पर गर्मी के दिन बिताता है। इतना सब करने के बाद ३४. एवंप्रायां निकृतिमसुरः स्त्रीमयीमाशु कुर्वन्,
व्यर्थोद्योगः समजनि मुनी प्रत्युताऽगात्स दुःखम् ॥ ४॥४५ ३५. वही ११३ ३६. यस्मिन् प्राया स्थपुटिततलो दावदग्धाः प्रदेशाः,
शुष्कर वृक्षा बिबिधवृतयो नोपभोग्या गम्याः। यः स्म श्रेष्मान् नयति दिवसशुल्कवैराग्यहेतोः, तस्मिन्नही ऋतिविश्वाविप्रयुक्तः स कामी ।। पापा. १६५