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प्रस्तावना
है कि एक बार कवि कालिदास बंकापुर के राजा अमोघवर्ष की सभा में आए और उन्होंने बड़े गर्व के साथ अपना मेघदूत सुनाना सीपमा में जिम स्वामी भी अपमे सघर्मा विनयसेन मुनि के साथ विद्यमान थे। विनयसेन ने जिनसेन से प्रेरणा की इस कालिदास का गर्व नष्ट करना चाहिए | विनयसेन की प्रेरणा पाकर जिनसेन ने कहा यह रचना प्राचीन है, इसकी स्वतन्त्र रचना नहीं है, किन्तु चोरी को हुई है। कालिदास ने कहा कि यदि यह कृति पुरानी है तो सुनाइये । जिनसेन स्वामी को एक बार सुनने पर कोई लोक पाद हो जाता था अतः उन्हें कालिदास का मेघदूत याद हो गया । उन्होंने कहा कि यह प्राचीन अन्य किसी ग्राम में विद्यमान है अतः आठ दिन बाद लाया जायेगा। अमोघवर्ष ने आठ दिन बाब उक्त ग्रन्थ को लाने का आदेश दिया। जिनसेन ने अपने स्थान पर आकर ७ दिन में पाश्चाभ्युदय की रचना की और आठवें दिन लाकर उसे राजसभा में उपस्थित कर दिया। इस काथ्य को सुनकर सभी प्रसन्न हुए और कालिदास का मान भंग हो गया। बाद में जिनसेन स्वामी ने सब बात स्पष्ट कर दी।
पण्डिताचार्य का उपयुक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अनेक प्रमाणों के आधार पर कालिदास का समय जिनसेन से बहुत पहले का निर्धारित हो चुका है। ऐहोल आदि के शिलालेख तथा अन्य साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं । अत: उपयुक्त कथन विश्वसनीय नहीं है। पण्डिताचार्य जो का यह कथन वास्तव में सही है कि श्री पाश्र्वनाथ से बढ़कर कोई साधु, कमठ से बढ़कर कोई खल और पाश्चाभ्युदय से बढ़कर कोई काव्य नहीं है
श्रीवारिसावतः साधुः कमठारखलतः खलः ।
पाश्र्वाभ्युदयतः काव्यं न क्वचिदपोष्यते ।। पाम्युिदय को दूसरी संस्कृत टोका कुछ वर्ष पहले जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से प्रकाशित हुई है। इसके लेखक मो. गो. कोठारी है, जिन्होंने प्रस्तावना में समय १ अगस्त १९६५ दिया है। योगिराट् पण्डिताचार्य को अपेक्षा यह टीका अधिक विशद् और सुबोष है। इस टीका पर पण्डिताचार्य जी के प्रभाव के साथ-साथ लेखक ने भावों को अभिव्यक्त करने में स्वतन्त्र रूप से अच्छा प्रयास किया है और हर प्रकार से इसे उपयोगी बनाया है।
-रमेशचन्द्र जैन