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पाश्वभ्युदय
भीजाक्षर मन्त्र का उच्चारण करता हुआ शूल लेकर भ्रमण कर रहा है ।१७ देवगिरि पर्वत पर गूलर के वृक्ष हैं। वहीं स्कन्ददेव का निवास है ।' ५९ से जाकर गिरने वाले भरनों के कारण चर्मण्वती नदी का जल मलीन हो जाता देवगिरि है। वहीं पर गायों का आलभन होने के कारण वह रतिदेव की अकीर्ति के तुल्य है ६० हिमालय पर्वत पर सरल (बीड़ के ) वृक्ष है ।" उसके शिखरों का अग्रभाग हिमसमूह से ढका हुआ है। इससे उसकी शोभा कवच से ढके हुए शरीर के समान होती है । वहाँ पर अष्टापद हैं जो मेघ को लाँघने की चेष्टा कर सकते हैं, उन्हें मेष घने ओलों की वर्षा कर तितर बितर कर देगा। क्योंकि निष्फल आरम्भ करने वाले कौन हैं जो तिरस्कार के पात्र न होते हों । 3 के तट के समीप में ही क्रौञ्चपर्वत का छिद्र है जो कि (चक्रवर्ती के) दण्ड से हिमालय खोले गये विजयार्धपर्वत के गुहावार के समान है। कोच पर्वत के गृहाद्वार से मेघ कैलाापवंत की ओर जायगा । कैलाशपर्यंत स्वच्छ स्फटिक के समान कान्ति से युक्त, चारों ओर बहने वाले जल प्रवाह सहित तथा कुन्द के समान शुभ कान्ति बाला है । कैलाश पर्वत की गोत्र में अलका बसी हुई हैं। पाश्वस्युदय में पद पद पर प्रकृति के विभिन्न रूप प्राप्त होते हैं, जिनमें से मुख्य रूप निम्नलिखित हैं-
१. विशुद्ध रूप यह यह रूप है, जिसमें स्वतन्त्र रूप से प्रकृति को ही भावमयी दृष्टि का मुख्य आलम्बन बनाया गया है और साथ ही उसका अनालङ्कारिक वर्णन करते हुए उस पर किसी प्रकार का आरोप नहीं किया गया है । जैसे - जंगली हाथियों की सूड़ों के प्रतान से जो मदित है, जामुन के कुजों से जिसका वेग अवरुद्ध है तथा पत्थरों पर गिरते हुए भरने के जल के कारण प्रकट रूप से जन्तु रहित होने से जो मुनिजनों के द्वारा प्रार्थनीय है । हे मेघ ! उस नर्मदा के स्वादयुक्त, सुमन्धित और शीतल जल को तुम लेकर जाना
५७. पाश्र्वाम्युदय २७
५८. वही २२३०
५९. वही २३१
६०. वही २०३६
६९. वही २१६०
६२. वही २/६१
६३. वही २/६३-६४ ६४. वही २०६७ ६५. वही २७२