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काभ्युदय
अर्थ -- पुनश्च नवीन मेघ के द्वारा जिसके शिखर का भूभाग धोया गया है, नाचते हुए मोरों की ध्वनि से वाचालित मानों स्वागत करते हुए, पैर धोने के लिए झरने के जल को शिर पर धारण किए हुए, अर्जुन के फूलों से सुगन्धित ऐसे प्रत्येक पर्वत पर आप समय बितायेंगे, इस प्रकार की मैं शंका करता हूँ ।
भावार्थ - हे मेव ! जब नए-नए जलधरों के द्वारा पर्वतों के शिखर धोए जायेंगे तब तुम्हारे पहुँचने पर प्रत्येक पर्वत पर आपका स्वागत होगा । पर्वत मोरों की ध्वनि से स्वागत करेंगे। पैर धोने के लिए झरने के जल को मानों सिर पर धारण कर पर्वत तुम्हारा स्वागत करेंगे। इस प्रकार अर्जुन के फूलों से सुगन्धित प्रत्येक पर्वत पर आप कुछ न कुछ देर अवश्य करेंगे, ऐसी मैं सम्भावना करता हूँ ।
निःसङ्गोऽपि व्रजितुमनलं तत्र तत्र क्षिति, लब्धातिथ्यः प्रिय इव भवानुद्यमानः शिरोभिः | अभ्युद्यातैस्त्वदुपगमनादुन्मनीभूय भूयः,
शुक्लापाङ्ग सजल नयनैः स्वागतीकृत्य केकाः ॥ ८७ ॥
निःसङ्ग इति । भूयः पुनरपि । स्वदुपगमनात् तब समोपगतात्। अभ्युद्यातेः प्रत्यागतैः । सजलनयनैः वाorter सहित लोचनः शुक्लापाङ्गः शुक्लोऽपाङ्ग कटाक्षो येषां तैः मयूरेः । केकाः तद्वनीन स्वागतीकृत्य सुक्षेमागमन प्रदन कृत्वा । उन्मतींभूय उत्क्रीभूय । 'स्यादुरक उन्मनाः' इत्यमरः । शिरोभिः मस्लकैः । उद्यमानः उद्यत इति उह्यमानः अहेरानश् । त्रियमाणः । भवान् त्वम् - सङ्गरेऽपि निर्धारिग्रहोऽपि । प्रिय इव सुहृदिव । तत्र तत्र क्षिसिधे क्षितिं प्रतीति क्षितिस्तस्मिन् पर्वते । 'महीघ्रः शिखरिक्ष्माभृत्' इत्यमरः । लम्बातिय्यः प्रातिथ्यर्थमातिथ्यं लब्धमातिथ्यं येन सः 'थ्यो तियेः' इति ध्यः । प्राप्तातिथिकार्यः सन् । 'अतिथिर्ना गृहागते' 'क्रमादातिथ्यातिथेये अतिथ्यर्थेऽत्र साधुनि ' इत्यमरः । श्रजितु ं गन्तुम् । अनलम् असमर्थः । श्योपचारत्वात् तत्र तत्र कालक्षेपो भविष्यतीति सात्पर्यम् ॥ ८७ ॥
अन्वय-- भूयः तत्र तत्र क्षिति लधातिष्यः त्वदुपगमात् उन्मनोभूम केकाः स्वागतीकृत्य अभ्युद्यातैः सजलनयनः शुक्लापाज प्रियः इव शिरोभिः उद्यमानः भवान् निःसङ्ग सन् वजितु अनलम् ।
अर्थ - पुनः प्रत्येक पर्वत पर आतिथ्य प्राप्त कर तुम्हारे समीप में आने से उत्कण्ठित होकर जिनकी आँखों से अश्रु निकल रहे हैं ऐसे मोरों द्वारा