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________________ प्रथम सर्ग १२१ प्रियमित्र के समान मस्तक पर धारण किए हुए आप ( बाह्य और आभ्य. न्तर परिग्रह का त्याग करने के कारण ) निरासक्त होने पर भी आगे बढ़ने में समर्थ नहीं होंगे। तस्योत्कण्ठाविरुतिमुखरस्योत्पतिष्णोः कथञ्चित्, प्रत्यासन्नत्वयुपगमनस्यान्सरा स्वभावे । स्नेहव्यक्ति स्वयि घनयत: केफिवृन्दस्य मन्ये, प्रत्युचातः कथमपि भवानास्तुमाशु व्यस्येत् ॥ ८८॥ तस्येति । अन्तराई स्वभावे अन्तर्भावस्वभावे । अन्तमादस्वभावे इति वा स्वयि भवति । स्नेहयषित प्रेमव्यक्तिम् । घायसः घन करोतीति बनयन सस्य एडयसः । सामावं बद्धपत इत्यर्थः । उरकण्ठाविरुतिमुखारस्प दुःखारवेण वाघाटस्म । जत्पतिष्मो- उत्ततितु मिश्छुः उत्पत्तिष्णुः उत्सतनशीलस्य । कथंचित् केनचित्प्रकारेण । प्रत्यासम्मस्वरूपगमनस्य तव उपगमनं तथोक्तम् । प्रत्यासन्न समीप त्वदुपगमन यस्य तस्य । फेकिवस्य मनिकायस्य । प्रत्युद्यातः प्रत्यागतः । भवान् खम् । कयमपि नेनापि प्रयुक्तेन । आना शीघ्रण । 'अषिलम्बितमाशु प' इत्यमरः । गन्तुगमनाम । व्यवस्थेत निश्चिनुपात । भवछन्दप्रयोगात् प्रथमपुरुष इति । मये जाने । अन्वय-उत्कण्ठाविरुतिमुखरस्य कश्चित् उत्पतिष्णोः प्रत्यासन्न त्वक्षगमनस्य तस्म केकिधुन्दस्य आस्वभावे त्वधि स्नेहयमित चनयत: प्रत्युद्यात: • ( सतः ) अपि भवान् आशु गन्तु व्यवस्पेत् ( इति ) कथं मन्ये । मर्थ-- उत्सुकता से उत्पन्न ध्वनि से वाचालित जिस किसी प्रकार ऊपर उड़ने का इच्छुक मोरों का समूह तुम्हारे समीप में पहुंचने पर मृदुस्वभाव वाले तुम्हारे प्रति प्रेम के आविर्भाव को घना करता हुआ स्वागत के लिए जब तुम्हारे समीप में आयगा, उस समय भी आप शीघ्र ही जाने का निश्चय करेंगे, यह में कैसे मान लूँ ? __व्याख्या-हे मेघ ! जब तुम समीप में पहुँचोगे तो मोरों का समूह ध्वनि करता हुआ कोमल स्वभाव वाले तुम्हारे प्रति प्रेम को गाढ़ करता हुआ स्वागत के लिए आयगा । उसका अनादर करके तुम शीघ्र ही जाने का निश्चय करोगे, यह मैं नहीं मान सकता हूँ। विध्योपान्तासब गतवतो नाऽतिदूरे दशार्णाः, रम्यारामा नयनविषये संपतिष्यन्ति सद्यः ।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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