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________________ पाश्र्वाभ्यदाः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोद सम्मदात्यमरः । विषसे करोति । पनदस्य त्र्यम्बकसखत्यात् चैत्ररथमामबालोद्यानस्यातिरमणीय त्वेन क्रोडाहेतोरागतस्य शशिशेखरस्य परमदिक्पालकस्य तत्र वसतिरूपपन्नब सल्लाष्ठनात्मकस्य चन्द्रस्य चन्द्रिकया कोकदम्पतीविरहादिरुच्यते ॥२८॥ अन्धय-दुर्घटत्वात् आद्यः कल्पः तव सुकरः न, दन्यात् च अन्त्यः श्लाघ्यः न । ततः हे मुनिमत ! मध्यकल्पाश्रयः ते श्रेयान । तस्मिन् अप्सरोभिः उमचैः सुख अनुमत्रः । तत् यस्यां ( या ) रात्रै विगमे अपि दम्पतीनां प्रातस्तन निधुवनग्लानि उच्चः हरम्तो प्रीति विधत्ते सा घौतहा वाद्योद्यानस्थितहरशिररुचन्द्रिका सततविरहोस्कण्ठितः चक्रवाकः सान दृष्टा यक्षेश्वराणां अलका नाम वसति. ते गन्तव्या। अर्थ- कठिनाई से सम्पन्न होने के कारण पहला प्रस्ताव तुम्हारे लिए आसानी से करने योग्य नहीं है। दीनता के कारण अन्त का प्रस्ताव भी प्रतिनाव नहीं है। अत है मुनियों के द्वारा माने गए ! तुम्हारे लिए मध्य के प्रस्ताव का आश्रय लेना कल्याणकर है। मध्य के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने पर अप्सराओं के साथ अत्यधिक सुख का अनुभव करोगे। अतः जिस अलका नगरी में रात्रि के व्यतीत होने पर भी दम्पतियों की प्रातःकालीन मुरत क्रीड़ा के परिश्रम को अत्यधिक रूप से हरती हुई प्रीति उत्पन्न की जाती है, वह प्रासादों को धवल करने वाली और बाहरी उद्यान में स्थित शिव के सिर की चाँदनी निरन्तर बिरह से उस्कण्ठित चक्रवाकों के द्वारा अश्रपूर्ण नयनों से देखी गई है। ऐसी उस यक्षेश्वरों की उस अलका नामक वसति ( निवास स्थान ) को तुम्हें जाना चाहिए । ध्याख्या हे पाव ! तुम मुझे मार सको यह कार्य तो कठिनाई से सम्पन्न हो सकने के कारण तुम्हारे लिए सुगम नहीं है | आप हमारे सेवक भी नहीं बन सकते हैं। क्योंकि उसमें आपको दीन होना पड़ेगा अत: मेरी तलवार से मृत्यु का वरण करने रूप जो मध्यवर्ती प्रस्ताव हैं वह आपके लिए श्रेयस्कर है; क्योंकि इससे तुम अलका नामक नगरी में देवामानाओं के साथ अत्यधिक सुख का अनुभव करोगे। अलका के बाहरी उद्यान में स्थित शिब के सिर के चन्द्रमा की चाँदनी जब प्रातःकालीन सुरतक्रीडा से थके हुये दम्पतियों पर पड़ती है तो वह उनके सम्भोगजन्य परिश्रम को नष्ट कर प्रीति को उत्पन्न करती है । रात्रि भर चकवियों से बिछुड़े हुए चकवाक आँखों में आँसू भरकर उस चाँदनी को देखते रहते हैं । मत्तोमृत्यु समधिगतवान्यास्यसोष्टा गति तां, यस्मिन्काले विधुतसकलोपप्लवस्त्वं सुखेन ।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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