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________________ २७० पार्श्वभ्युदय रन्ती, देदभावाभावात जन्मानले अगि अधिगति इतान् विरहदिवसस्थापितस्य अवधेः शेषान् मासान् स्मृल्यासवान स्वात्मनः मृत्युमधीन स्फुटयितु इच देहलीमुक्तपुष्पैः गणनया भुवि विन्यस्यन्ती या, स्वप्ने हृदयरचितारम्भं सम्भोगं बुद्ध्यध्यामात् त्वया अमा विस्पष्टभूयं इव आस्त्रादयन्ती वा अथवा मुसुप्ता सखीभिः सभयं आश्वास्यमाना पुरा ते आलोके निपतति । रमण विहरेषु अङ्गमानां प्रायेण एते विनोदाः। अर्थ-हे सौम्य ! देवपूजाओं में लगी हुई अथवा आपको पाने के लिए देवताओं को प्राप्त करके शास्त्रोक्त व्रतों का सेवन करती हुई अथवा मन में स्थित चिरपरिचित, पहले से ज्ञात आप सम्बन्धी वियोग के कारण दर्बल और अभिप्राय से जानने योग्य मेरी प्रतिकृति के समान तुम्हारी प्रतिकृति को बनाती हुई अथवा आपकी अनुकृति को बनाकर नेत्र खोलकर अश्रपूर्ण नेत्रों से देखती हई पिंजड़े में स्थित मैना को बसुन्धरा के समय की मानती हुई। हे रसिके ! क्या तू स्वामी का स्मरण करती है ? क्योंकि तू उनकी प्यारी थी । इस प्रकार मधुर वचन से पूछती हुई अथवा मलिन बस्त्रयुक्त अपनी गोद में वीणा को रखकर गाद उत्कण्ठा सहित करुण स्वर को करुण रस प्रधान गीत के समान बनाती हुई तुमको लक्ष्य कर ऊँचे स्वर से गाने की इच्छा करती हुई, मूर्छना (स्वरों के उतार और चढ़ाव के कम वाले गीत) को अलकों के चलन पूर्वक अन्दर ही अन्दर उच्चारण करती हुई, फूल के समान सुकोमल अपनी अँगुलियों के अग्रभागों से नेत्रों के जल से गीले वीणा तन्तुओं को जिस किसी प्रकार पोंछकर वीणा का कुछ स्पर्श करती हुई, तुम्हारे आगमन का निरन्तर ध्यान कर निस्सार मानसिक सन्ताप से युक्त कण्ठ स्वर वालो स्वयं रची हुई भी मन्छना को पुनः पुनः भुलती हुई, अथवा देवत्व से उत्पन्न माहात्म्य से अन्य जन्म में भी जाने गए वियोग के दिन निश्चित (स्थापित) अवधि के अवशिष्ट महीनों को, अपने शरीर के स्मृति में स्थित मरण काल को मानों प्रकट करने के लिए देहलो पर रखे हुए फूलों को गणना के लिए जमीन पर रखती हुई अथवा स्वप्न में मन के सङ्कल्प से प्रारम्भ किए हुए सम्भोग को बुद्धि से उत्पन्न भ्रान्ति के कारण आपके साथ मानों स्पष्टता के साथ अनुभव करती हुई अथवा मूर्छा से सोई हुई सखियों के द्वारा भयपूर्वक विश्वास दिलाई जाती हुई पहले तुम्हारे दृष्टि पथ को प्राप्त होगी, क्योंकि प्रियतम के वियोग में स्त्रियों के विरहनित दुःख को दूर करने के लिये ये उपाय हैं।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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