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पाश्र्वाभ्युदय
मानां, स्पशंक्लिष्टां कठिनविषमां तां एकवेणीम् अयमितनखेन करेण गण्डाभोगा असकृत् सारयन्तीं संश्रितान् इष्टान् बन्धून मृगयितुं इव जालमार्गप्रविष्टान् अमृतशिशिरान् इन्दोः पादान् पूर्व प्रोत्मा सङग्रहीतु अभिमुखं गतं तथैव निवृत्तं सत् स्वनयनयुगं प्रत्याहृश्य चेतसा धूयमाना शिशिरकिरणे स्वान् करान् जालमार्गः भूयोभूयः आश्वाने गताभ्यागतैः खेदात् पुनः अपि क्लिश्यमानं चक्षुः सलिलगुरुभिः पश्यभिः छादयन्तीं [ अतएव ] अनि स्थलकमलिनी इव नमबुद्ध न तां साध्वी एवम्प्रायः त्वयि मुभगतां व्यजयद्भिः यदार्थः मस्संदेशः सुखयितुं निश| सद्मवातायनस्थः पश्य ।
अर्थ -- अतः फैले हुए ( अव्यवस्थित रूप से रखे गए ) अंग वाली फूलों को शय्या पर सुख रहित दुःखी मन से युक्त हो भूमि पर सोने बालो, चित्रलिखित के समान कामदेव को सारीरी अवस्था को [ अर्थात् साक्षात् शरीर धारण करने वाला काम की अवस्था की ] धारण करने वालो, मन को वंदना से क्षीन, विरह को शय्या पर एक ही करवट से लेटने वालो, उदय पर्वत के समीप में चन्द्रमा के अवशिष्ट एक कला वाले शरोर के सदृश, विरहजनित देह के दाह को दूर करने के लिए वक्षस्थल में स्थापित हार को धारण करती हुई तुम्हारी ( मरुभूति के जीब पार्श्व को) प्रिया के समीप में मुझ शम्बरासुर के साथ प्रेम के रस से युक्त इच्छानुसार रति सेवन से जो रात्रि मेरी ( कानाकुलचिस ) भार्या के द्वारा क्षण भर के समान बिताई गई थी, उसी विरह के कारण दीर्घ रात्रि को निद्रा के द्वेवी, बार बार वृद्धि को प्राप्त नेत्र की बरोनियों को रोकने वाले, गिरते हुए गर्म आँसुओं से युक्त होकर बिताती हुई, अपने हृदयगत संताप की सूचना देने वाले कुछ गरम अधर पल्लवों को क्लेश पहुंचाने बाले निःश्वास से उस किन्नरी के मुखचन्द्र को हरिण के शरीर के आकार वाली रचना विशेष से युक्त पृथक् रूप से अवस्थित लाञ्छन (चिह्न) के समान शुद्ध स्नान (तैलादि से रहित स्नान ) के कारण कठोर स वाले तथा कपोलों पर फैले हुए अलकों को अवश्य ही पुनः पुनः दूर करली हुई, मुझसे वियोग होने के कारण बढ़े हुए दुःख से युक्त दूरदेश में स्थित अप्रशस्त कामवासना के उदेक से उत्पन्न पीड़ा वाले प्राणनाथ का स्वप्न में होने वाला भी मेरे साथ संयोग से सम्पन्न होगा, इस कारण आँसुओं के निकलने से अवरुद्ध ( रोकी गई ) निद्रा को चाहती हुई, जो इस दिन से दूरवर्ती पूर्वजन्म में वियोग के प्रथम दिन पुष्पमाला को उतार कर एक श्रेणी के आकार की चोटी बांधी गई थी तथा मुझ कमल के जीवधारी शम्बरासुर के द्वारा स्मरण करायी गई, बाप के अन्त में वियोग की मूर्ति