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प्रथम सर्ग
अप्रेम यथा भवति तथा शब्दप्रद इत्यादिनाऽञ्चयोभानः । सक्षस्वप्रेमध्यचिकणे' इत्यमरः । न वर्श नाऽपश्यन् । विमुखोऽभवति तात्पर्यम् ।।८।।
अन्वय–यटन आबद्धकुटिटिलभ्र तटः जिनववत्रः क्रोधावेशात् ज्वलदपधनः अपदृष्टि: विरूक्षं स्नेहोतकात् चरणपतिनं वप्रकी ड़ापरिणत गजप्रेक्षणीयंत भातरं तदानों न ददर्श ।
अर्थ-बँधी हुई भ्रकुटि से कुटिल भ्रूतट वाले, कुटिलमुख, क्रोध के आवेश से जलते हुए अङ्ग युक्त तथा अन्यत्र मुड़े हुए नेत्र वाले अथवा बुरी दृष्टि वाले जिस कमठ ने प्रेमयुक्त स्नेह के उद्रेक से चरणों में पड़े हुए वप्रक्रीड़ा में तिरछा दन्तप्रहार करने वाले हाथी के सदृश दर्शनीय उस भाई मरभूति को उस समय नहीं देखा।
व्याख्या-जिस समय मरुभूति कमठ के निकट आया, उस समय कमठ की भौंहें चढ़ गई, मुख कुटिल हो गया, क्रोध के आवेश से शरीर जलने लगा तथा उसने नेत्रों को दूसरी तरफ घुमा लिया । भरुभूति उसके चरणों में पड़ गया। उस समय उसकी शोभा वप्रक्रीड़ा में तिरछा दन्तप्रहार करने वाले हाथी के समान हो गई। कमठ ने ऐसी स्थिति में भी उसकी ओर नहीं देखा ! वाकोदर हाशी एवं साड़ सादि पशओं द्वारा को जाने वाली उस क्रीड़ा को कहते हैं, जिसमें ये पशु दाँत या मींगों से टीले आदि को मिट्टी को उखाड़ते हैं।
सोऽसौ जाल्मः कपटहृदयो दैत्यपाशो हताशः, स्मृत्वा वैरं मुनिमपघृणो हन्तुकामो निकामम् । क्रोधात्स्फूर्जन्नवजलमुत्रः कालिमानं दधान, स्तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतोः ॥ ९ ॥
सोऽसावित्यादि । सोऽसो स एग कमठचरः । सोऽसावित्युभयप्रयोगो भूप्त. वर्तमानभवेष्वात्म्कन साधकः । जाल्म, गुणदोषविचारशुन्यः । 'जाल्मोऽसमीप्यकारी स्यात्' इत्यमरः । कपटहुक्यः कपटेन युक्त हृदयं यस्यति बहुप्रीहिः । टिलताः । बैत्यपाशः निन्द्यदेवः । निन्द्ये पाशप्' इति पाशप्त्यः । हताशः हता दुष्टा आशा अभिलाषो यस्येति बहुमोहिः । 'आशा तृष्णापि पायता' इत्यमरः । वैरं प्राम्भव विरोधम् । स्मरवा ध्यात्वा ! अपघृगः अपगता घृणा यस्य सः । कारुण्यं करुणा घृणा इत्यमरः । क्रोषात् कोपात् । मुनि मन्यते केवलशामेन लोकालोकस्वरूपमिति मुनिस्तम् । भाविनि भूतवटुपचारः । पार्श्वनाथम् । मिकामं यथेष्टम् निकामेष्टा यपेप्सितम्' इत्यमरः । हन्तुकामः हन्तु कामयते