SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाभ्युदय पलायमानः शिल: दृषत् पति सोयोधरि करवातबारसवातसम्भया: इति चामरः । पब अस्य कमठवरस्य । उद्योगों व्यापारः । क्व 'न' विभेवाः भेत्तुमशक्त्याः । मुनिगुणाः योभिगुणाः । एव 'नु पृच्छायां वितर्के चइत्यमरः । मूक: अज्ञः। घक्तुं श्रीतुमशिक्षित इत्यर्थः। 'मुग्धोमूखोजकोऽनशेमूको मूर्खरच कद्वदः' इति धनञ्जयः । पर्व पटुकरण: पनि स्फुटानि करणानीन्द्रियाणि येषां तः विशदेन्द्रियरित्यर्थः। 'करणं साधकतम क्षेत्रगानेन्द्रियेष्वपि ।' 'वहार्मदा गदेषु च । पदुद्वी वाच्यलिङ्गो च' इत्युभयत्राप्यमरः । प्राणिभि प्राणाः सन्ति येषां तेजींवैः । 'प्राणा नु चेतनो जन्मी' इत्यमरः। प्रापणीयाः प्रापयितव्याः । 'भाल प्राप्ती' इति धातोरनी प्रत्यः । सम्वेशार्थाः सन्दिश्यम्त इति सन्देशाः । 'सन्देशः प्रिययोति" इति धनम्जयः । तेषाम् अस्ति व ॥१८॥ अन्वय-विलसणिमाटभेदस्थिसद्धिः अयं देवः बब अल्पद्धित्वात गुबसुरपशुः य? मव अद्रिराट् एव उपोषः ? अस्य उद्योगः क्व दुविभेदाः मुनिगुणाः नु पव ? मूकः क्व पटुकरणः प्राणिभिः प्रापणायाः सन्देशार्थाः क्य? अर्थ-शोभायमान अणिमादि आठ प्रकार के ऋद्धि से जो युक्त है ऐसा यह देव ( भगवान् पार्श्व ) कहाँ और अल्पऋद्धि वाला होने से महा पशु के समान यह दैत्य कहाँ ? कहाँ तो सुमेरु और कहाँ पत्थरों ( ओलों) का समूह ? इसका उद्योग कहाँ और कष्ट से भेदन करने योग्य मुनियों के गुण कहाँ ? कहाँ तो मौनी और कहाँ समर्थ इन्द्रियों वाले प्राणियों द्वारा प्राप्त करने योग्य सन्देश के वचन ? व्याख्या-अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति,प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ ऋजियो कही गई हैं। ये किसी श्रेष्ठतम योगी को उपलब्ध होती हैं। भगवान पार्श्वनाथ इन ऋद्धियों से युक्त थे। कमठ के पास ऋद्धियाँ अल्पमात्रा में थीं; क्योंकि देवताओं में ये आंशिक रूप से होती हैं। कमठ देवताओं में भी अत्यधिक नीची श्रेणी के देव के तुल्य था। जिनसेन ने इसीलिए उसे गुरुसुरपशुः कहा है। यहाँ पर गुरु शब्द से कमठ में पशता का आधिक्य व्यजित होता है। भगवान् पाश्च के सामने कमठ वैसा ही था जैसे मेरु के सामने छोटे-छोटे पत्थरों का समूह होता है । मूक पद देने का अभिप्राय यह है कि भगवान् चूंकि ध्यानमग्न थे, अतः उनकी इन्द्रियाँ अपना कार्य करने में असमर्थ थीं । यद्यपि दैत्य जोर से बोल रहा था, किन्तु भगवान् के कान उन शब्दों को ग्रहण नहीं कर रहे थे, देत्य के सन्देश का पाश्वं द्वारा ग्रहण सम्भव न था। सत्यप्येवं परिभवपथे योजयन्स्वं दुरात्मा, मत्यौद्धस्यास्थयमुपवहन्वारिवाहच्छलेन ।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy