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द्वितीय सर्ग
अन्वय--उच्चरत्यक्षिमालाभास्वरकाम्चीमपुराणितात् उच्च: पुलिनजधनात् यस्याः कामसेवाप्रकर्ष ज्ञास्यसि । सखे! मुफ्तरोधोनितम्ब प्राप्तवानीरशाख किञ्चित् करत इव नीलं सलिलवसन हुत्या बहुरसां कामावस्यां इति दर्शयन्ती उत्फुल्लप्रतसलतिकागृतपर्यो सनिषद्य भबमानस्य से प्रस्थान कथपि भावि ? कः शासास्वादः विवृतजघनां बिहातु समर्थः ? ___ अर्थ-ऊपर उड़ते हुए अथवा ध्वनि करते हुए पक्षि समूह के रूप में तेज से स्फुरण करती हुई करधनी की मधुर ध्वनि से ( तथा ) ऊंचे रेताले तट रूप कटिभाग (पक्ष में-ऊँचे तट के तुल्य कटि प्रदेश से युक्त) गम्भीरा नदी के संभोग क्रीड़ा के प्रकर्ष को जानोगे। हे मित्र ! तट रूप नितम्ब को छोड़ने वाले, बेत की शाखा तक पहुँचे हुए और हाथ से कुछ पकड़े गए के समान नीले जलरूप बस्त्र को हटाकर विपुल अनुराग से युक्त काम की अवस्था को इस प्रकार प्रकट करती हुई, फली हुई विस्तृत लताओं से जिसका पर्यन्त भाग ढका हुआ है ऐसी गम्भीरा नदी का आश्रय पाकर जल को ग्रहण करने के लिए अपने शरीर को लम्बा बनाने वाले ( पक्ष में-विषय सुख का अनुभव करने के लिए अपने शरीर को बड़ा बनाने वाले ) तुम्हारा प्रस्थान किसी प्रकार होगा ? संभोग श्रृंगार रस का अनुभव किया हुआ कॉन पुरुष जघन को प्रकट करने वाली स्त्री का त्याग करने में समर्थ है ?
भावार्थ-यहाँ गम्भीरा नदी की नायिका के रूप में कल्पना की गई है। जिस प्रकार किसी नायिका के प्रेम में अनुरक्त व्यक्ति वस्त्र को छोड़कर अपने नितम्बों का प्रदर्शन कर काम की अवस्था को व्यक्त करने वाली उस नायिका को नहीं छोड़ सकता है, उसी प्रकार मेघ भी जलरूप वस्त्र को छोड़ती हुई, तटरूप नितम्ब का प्रदर्शन करने वाली गम्भीरा नदी को छोड़ने में समर्थ नहीं होगा।
उत्तीर्या कथमपि ततो गन्तुमुद्यच्छमानं, स्वामुन्नेष्यत्यनुवनमसौ गन्धवाहः सुगन्धः । त्वनिष्पन्दोच्छवसितबसुधागन्धसम्पर्करम्यः,
स्रोतोरन्ध्रध्वनितमधुरं दन्तिभिः पीयमानः ॥२९॥ उत्तासि । त्वग्निव्यन्योछ्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः तव निष्पन्दो निष्पन्दन तन वर्षणेन उच्छ्वसितायाः उज्जृम्भितायाः वसुधायाः भूमेर्गन्धस्य परिमलस्य सम्पर्कण संगेन रम्मः मनोहरः । पन्तिभिः गजैः । स्रोतोरन्ध्रध्यमितमधुरं स्रोत
शब्देनेन्द्रियवाधिनातद्विशिष्टं घ्राणं लक्ष्यते । 'स्रोतोम्वुवैगेन्द्रिययोः' इति विश्वः । सोसोल्नेषु नासाकुहरेषु । यद्यनित शल्यः तेन सुभगं रुधिरं यथा भवति तथा ।