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पार्वाभ्युदय याचे देवं मदसिहतिभिः प्राप्य मृत्यु निकारान्मुक्तो वोरश्रिपमनुभव स्वर्गलोकेऽप्सरोभिः । नैवं दाक्ष्यं यदि तव ततः प्रेष्यतामेत्य तूष्णी,
सन्देश में हर धनपतिकोषविश्लेषितस्य ॥२६॥ पाच इनि । देवं त्वाम् । याचे प्रार्थये । मसिहस्तिभिः मम चन्द्रहासपातः । 'चन्द्रहासालिरिष्टयः' इत्यमरः । मृत्यु मरणम् । प्राय गत्वा । निकारात् तिरस्कारात् । 'निकारो विप्रकारः स्पान्' इत्यमरः । मुक्तः त्यतत्सन् । स्वर्गलोके देवलोके । अप्सरोभिर्देवस्त्रोभिः सह । 'स्त्रियां बहुचप्सरसः' इत्यमरः । वीरधिम वीरवीग । तुम तुम किसी मई: म्यवा तक ते । एवम् इति । वाक्ष्य समर्थता । यवि न न भवति चेत् । ततः तस्मात् धनपतिकोवियतेविप्तस्य धनपतेः बेरस्य क्रोधेन कोपेन विश्लेषितस्य वनितया वियोजितस्य । मे मम । प्रेष्यतां भृत्यस्वम् । 'नियोज्पकिङ्करप्रेष्यभुजिष्यपरिचारकः' इत्यमरः । सूष्णी जोषम् । एश्य प्राप्य । सन्देश वार्ताम् । हर नय । प्रियां प्रतिप्रापयेत्ययः ॥२६॥
अस्वय-मदसिहतिभिः मृत्यं प्राप्य निकारात् मुक्तः (त्वं ) स्वर्गलोके अप्स. रोभिः वीरश्रियं अनुभव ( इति ) देवं याचे । यदि तक एन दाक्ष्यं न ततः तुष्णी प्रेष्यता एत्य धनपत्तिको विश्लेषितस्य मे सन्देश हर ।
मर्थ-मेरी तलवार के आघातों से मृत्यु को प्राप्त कर तिरस्कार में मुक्त हए तुम स्वर्गलोक में अप्सराओं के साथ वीर लक्ष्मो का अनुभव करो, ऐसी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। यदि तुममें इस प्रकार की सामर्थ्य नहीं है तो चुपचाप सेवकपने को प्राप्त होकर कुबेर सदृश अरबिन्द महाराज के क्रोध से वियोग को प्राप्त मा यक्ष के सन्देश को । मेरी प्रिया के पास ) ले आओ।
व्याख्या-दुमरे मत वाले यह मानते हैं कि युद्धस्थल में मरने पर मुक्ति होती है । यक्ष को सम्यनत्य उत्पन्न नहीं था, अतः पार्श्वनाथ भगवान् को प्रलोभन देता हुआ वह कह रहा है कि मेरी तलवार के प्रहार से मृत्यु हो जाने पर अप्सराओं के साथ वीरलक्ष्मी का उपभोग करोगे । यदि इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त करने की तुम्हारे अन्दर सामथ्र्य नहीं है तो मेरे मेवकपने को प्राप्त होओ, ताकि कुबेर के समान अरविन्द महाराज के क्रोध के कारण अलग हुआ मैं अपनी प्रिया के पास सन्देश भेज सकें ।
आद्यः कल्पः सव न सुकरो दुर्घटत्वान्नचान्त्यः, श्लाघ्यो दैन्यान्मुनिमत ततो मध्यकल्पाश्रयस्ते ।