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________________ पायाभ्युदय व्याख्या-इस समय पार्श्व और हंसों की स्थिति एक सी है । हंस वृद्धि को प्राप्त उत्कण्ठाओं से नष्ट आनन्द वाले हैं और भगवान् पाश्वं भी मोक्ष की प्राप्ति हेतु उत्कापठत होने के कारण काम क्रोधादि मदों को नष्ट कर चुके हैं। भगवान् ने मोक्ष के लिए मुनिव्रत धारण कर रखा है अतः वे सांसारिक क्रियाओं के प्रति अत्यधिक मन्द उद्यम वाले हैं। हंस भी कामोन्माद के कारण मन्द मन्द गति वाले हैं। ध्याननिमग्न होने के कारण भगवान् वचनव्यापार से विरत हो चुके हैं अथवा उन्होंने इन्द्रियव्यापार का त्याग कर दिया है और राजहंस काम सन्तप्त होने के कारण शब्दों को व्यक्त नहीं कर रहे हैं। भगवान् मोक्षसमीप होने के कारण नारकादि गतियों को नष्ट कर चुके हैं, उसी प्रकार राजहंस कामोन्माद के कारण स्खलिल गति वाले हैं। भगवान ध्यान में लवलीन होने के कारण ऊपर की ओर मुख नहीं किए हैं। राजहंस हतवीर्य होने के कारण नीचे का ओर मुख किए हुए हैं। भगवान् ने परिग्रह को छोड़ दिया है। अतः उन्होंने आशा तृष्णा का त्याग कर दिया है। इस राजहंसों ने दिमण्डल को व्याप्त कर दिया है। जैसे भगवान् ने रत्नत्रयरूप शुद्ध मोक्षमार्ग का आश्रय लिया है, उसी प्रकार इन राजहंसों ने भी आकाश का आश्रय लिया है। इस प्रकार कवि ने श्लेप के माध्यम से राजहंस और भगवान् में समता दिखलाई है । तुल्यगुणवाले होने के कारण अनुरूप राजहंस आकाश में भगवान के सहायक हो जायेंगे, यक्ष के कहने का यह अभिप्राय है । भोक्तुं दिव्यश्रियमभिमतां यातुकामो शुलोक, कालक्षेपाबुपरम रणे माक्षु सन्ना भिक्षो । पेनामुत्र स्पहसि दिवे यश्च संरक्षति त्वा, मापृच्छस्व प्रियसखममुं तुङ्गमालिङ्गय शैलम् ॥४५॥ मोक्तुमिति : भिलो हे वाचयम् । अभिमताम् अभिलषिताम् । विव्यभियं देवसम्पत्तिम् । 'सम्पत्तिः श्रीश्चलक्ष्मीश्च' इत्यमरः । भोक्तुम् अनुभवनाय । धुलोक विदितम् । यातुकाम: पासुगन्तु' कामयते इति तथोक्तः सन् । मेन अमुत्र भवासरे। 'प्रेत्यामुत्र भवान्तरे' इत्यमरः । विवे स्वर्गाय । 'सुरलोको गोदिवी द्वे' इत्य. मरः । स्पृहयसि बाञ्छति । यसदोनित्यसम्बन्वादिति । तस्मिन रणे । मंग्रामनिमित्त हतो । 'हत्वर्थे सर्वाः प्रायः' इति सप्तमी । मभु शीघ्रण । सम्बाह्य सञ्जीकृत्य । मालपात् समययापनात् । उपरम अहि कालविलम्बनं मा कुवित्यर्थः । यः स्वा भवन्तम् । सरलति पालयति पाश्रयो भवतीत्यर्थः । सं सुङ्गम् उन्नतम् । प्रियसखं प्रियमित्रम् । 'राजन् सम्नेः' इत्यद समासान्तः । अमुंशलम् एतचित्रकूटाबयं पर्वतम् ।
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
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