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पाश्र्वाभ्युदय अन्षय-मत्रत्यानां चित्तभ: परत्र परपरता न, प्रणयिनि जने, मान भङ्गं बिहाय अन्या भगः न, प्रियजनतया सममाशानुबन्धात् अन्यः बन्धः ने, इष्ट संयोगसाध्यात कुसुमशरजात् अन्यः तापः न ! ____ अर्थ-जिस बलकापुरी में निवास करने वाले लोगों को मनोहर वस्तु के अतिरिक्त दूसरी जगह परवशता नहीं है अर्थात् मनोहर पुरुष और मनोहारिणी स्त्री को छोड़कर अन्यत्र परवशता नहीं है। प्रियतमों के प्रति मानभङ्ग के अतिरिक्त अन्य मान भंग नहीं है। प्रियजनों के मिलन को माशा के बन्ध से भिन्न बन्ध नहीं है। इष्ट व्यक्ति का संयोग सिद्ध न होने के कारण जो काम संताप होता है, उससे भिन्न कोई संताप नहीं है।
यत्राकल्पान्निधिषु सकलानेव सम्पावपस्सु, नार्थी कश्चिन्न खलु कृपणो नापि निःस्वो जनोस्ति । धर्मः साक्षान्निवसति सती यामलङ्कृत्य यस्माअन्नाप्यन्यत्र प्रणयकलहाद्विप्रयोगोपपत्तिः ॥ ९९ ॥ पति । यस्मात्कारणात् । एमः नीतिधर्मः । सतों या पुरीम् । बालकस्य विभूष्य । साक्षात् प्रत्यशेण । निवसति वर्तते । तस्मात्कारणात् । यत्र अलकापुर्याम् । निषिषु निधानेषु । सफलामेष आकल्पान् भूषणानि | 'आकल्पवेषौ नेपथ्यम्' इत्यमरः । सम्पावत्सु मानेषु । कविधवों याचकः । न नास्ति । कृपणः क्षुदः । 'कदर्ये कुपणशुद्रपिचानमितम्पचाः' इत्यमरः । न खान नास्ति हि । नि:स्वीपि अनो दरिद्रजनश्च । 'निःस्वस्तु दुविधो दीनो दरिद्रो दुर्मतोऽपि सः इत्यमरः । नास्ति प्रणयकलहात् प्रणयजात कलहात् । अन्यत्र परतः । विप्रयोगोपपत्तिरपि विरहमाप्तिरपि नास्ति ।। १९ ॥
अन्वय-चत्र निधिषु सकलान् एष माकल्पान सम्पादयत्सु कश्चित् जनः अर्थी नास्ति, न खलु ( कश्चित् ) कृपणः अस्ति, नाऽपि ( कश्चित् ) निःस्वः ( अस्ति ) यस्मात् पां सती अला कुस्म धर्मः साक्षात् निवसति ( तस्मात् तत्र) प्रणयकलहात् अन्यत्र विप्रयोगोपपत्तिः अपि नास्ति ।
अर्थ-जहाँ नवनिधियों से समस्त संकल्पों के पूरा हो जाने के कारण कोई भी व्यक्ति याचक नहीं है, न कोई दीन है और न कोई निर्धन है. क्योंकि उस शोभित अलका को अलेकृत कर धर्म प्रत्यक्ष रूप से निवास करता है अतः वहाँ प्रणय कलह से भिन्न किसी अवस्था में विरह की प्राप्ति भी नहीं है। १. नाप्यन्यस्मादित्यपि पाठः।