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चतुर्थ सर्गः
३२५ हो । विशिष्ट होने पर भी कामिनियों के संसर्ग अपने विषय में ( चरित्र मोहनीय नामक ) पापकर्मों के वश मेरी अभिलाषा की वृद्धि करते हुए लक्षणों सहित प्रेषित बचनों से पर्याप्त हैं अर्थात् अनादि कर्म के वश पुनआकाङ्क्षा को बढ़ाते हुए कान्ताओं के संसर्ग आगेन हों। समस्त प्रकार के कल्याणों को करने वाली आपकी भक्ति ही मेरे अन्दर विद्यमान हो, ऐसी आपसे प्रार्थना है।
व्याख्या--कामिनी संसर्गों से क्या लाभ है तथा कामिनी संसर्ग के विषय से सम्बद्ध और चारित्रमोहनीय नामक पापकर्म के कारण मेरी अभिलाषा को बढ़ाने वाले प्रत्यभिज्ञान सहित प्रेषित वचनों से भी क्या लाभ ? अर्थात् कोई लाभ नहीं है।
भूयो याचे सुरनुत मुने त्वामुपारुढभक्ती, वेत्ये चास्मिन्प्रणयमधुरां देहि दृष्टि प्रसीव । 'चित्तोद्योगैरनुशयकृतश्चास्य गात्रात्प्रपित्सु, प्रातःकुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेवम् ॥५७॥
भूय इति । सुरनुत भो देवस्तुत । मुने मन्यते केवलज्ञानेन लोकालोकस्वरूपमिति मुनिः तत्सम्बोधन हे मोगीन्द्र । त्वां भवन्तम् । भूयः पुनः । याचे प्रार्थयामि । उपारूढभक्तौ सम्प्राप्तभजने शरण मते इत्यर्थः । अस्मिन् वैत्येच एतदसुरेऽपि । प्रणयमा प्रीतिकोमलाम् । बुष्टि वर्धानम् । हि देयाः । प्रसीद प्रसन्नो भव । अनुवायकृते: पश्चातापविहितः । चिसोवोगैः चित्तोद्वेगैरिति वा पाठः। चित्तोद्वेगः निजापराध स्मरणनितमनोभः । अस्प दैत्यस्य । गावात शरीरात् । प्रपित्सु प्रपतितुमि प्रपित्सु प्रयियासु । प्रातःगुण्यप्रसवशिपिलं प्रभातकुन्दकुमममित्र शिथिलं दुर्लभम् । वं जीवितम् एतज्जीवनम् । धारण स्थापम । निजापरधस्मरणानुशयात् पापभीतेश्च दैत्यस्य गात्राग्निर्यज्जीवित्तं प्रमन्नदृष्ट्या ममाश्यास्य पालयेति भावः ।।५७।।
अन्वय-भो सुग्नुत मुने त्वां भूयः याचे प्रसीद, अस्मिन् च उपारूतभक्ती र त्ये प्रणयमधुरा दृष्टि देहि; अनुशमकृतः चित्तोगः प्रातःकुन्द प्रसवशिथिल इदगावात् प्रपित्सुजीवितं धारय ।।
अर्थ-हे देवताओं के द्वारा स्तुति किए गए मुनि ! तुमसे पुनः याचना करता हूँ। प्रसन्न होओ और इस बढ़ी हुई भक्ति वाले दैत्य शम्बरासुर पर दया से मधुर दृष्टि डालो, पश्चाताप से किए गए चित्त के उद्वेगों १. चिसोरेगैः ।