SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय सर्ग अन्यय-अस्याः सिन्धोः शशघरकरस्पधिन तस्प्रवाहं कुवलयश्यामभासि स्त्रयि क्षणं वा अध्यासीने स्थूलमध्येन्द्रनीलम् भुवः एक मुक्तागुणम् इव अनिमिषाः दृष्टोः दरं आवर्य अनात् ध्रुवं द्रक्ष्यन्ति । अर्थ-इस चर्मण्वती नदी के चन्द्रमा की किरणों से स्पर्धा करने वाले उस प्रवाह में नीलकमल के समान स्वामकान्ति बाले तुम क्षणमात्र के लिए बैठने पर मध्य में स्थूल इन्द्रनीलमणि से युक्त पृथ्वी की एक लड़ी वाली मोतियों से बनाई गई माला के समान ( तुमको ) देव दृष्टि को दूर से डालकर ऊँचे आकाश प्रदेश से निश्चित रूप से देखेंगे। ___ व्याख्या-नीलकमल के समान कान्ति वाले हे मेघ ! जब तुम उस चर्मण्वती नदो के प्रवाह के मध्य कुछ क्षण के लिए बैठोगे तो उस समय नदी एक लड़ी वाली मोतियों की माला के समान दिखाई देगी और तुम स्थूल इन्द्रनीलमणि के समान मालम पड़ोगे । ऐसी स्थिति होने पर आकाश से देव अवश्य ही तुम्हें इस रूप में देखेंगे । एवम्प्रायां सलिलविह्नति तत्र कृत्वा मुहूर्त, वारां पुण्यां सुरगज इव व्योममार्गानुसारी। लीलां पश्यन्प्रजविपवनोद्धृतवीचीचयानां, तामुत्तीर्य व्रज परिचितभूललाविभ्रमाणाम् ॥ ४१ ॥ एवमपि । तत्र नद्याम् । एवं रोस्पा । प्रायां बटुलाम । वारामुक्कानाम् । "वारि जलम्' इति धनञ्जयः । पुण्या पुण्यमिव पुण्या ताम् । तीर्य विशेषत्वात्सुकृतरूपाम् । सलिलावाति विहरणं विहतिः सलिलाना वितिस्तां जलक्रीडाम् । सुरगज इस ऐरावत इ । मतं स्वल्पकालपर्यन्तम् । कृत्वा विरच्य । व्योममार्मानुसारी आकाशमार्गानुसारी। परिचित भूलताविभ्रमाणां अबोलता इव 5 रूताः उपमित समासः । तासो विभ्रमाः विलासाः परिचिताः क्लत्ताः ध्र विलासाः पेषु तेषाम् । प्रजविपयनोबतधीचीचयानां प्रजाविमा प्रवेगवता पवनेन वायुना उलूताः उत्कम्पिता: 'प्रजवीजबनो जवः' इत्यमरः । धीचीनां च्याः बीचीचयाः ते च ते वीसीचयाश्च तेषाम् । लोला विलासम् । पश्यन् अवलोकयन् । तां धर्मपत्रतीम् । उत्तीयं उल्लङ्य । बज गच्छ || ४१ ।। अन्वय–सत्र एवम्प्रायां सुरगज इव सलिल विहति मुहूर्त कृत्वा व्योममार्गानु-सारी प्रजाविपवनोमृतबोपीचयानो परिचित लताबिभ्रमाणां पारा पुण्यां लीला पश्यन् तां उसीय अज। अर्थ-चर्मण्वती नदी में इस प्रकार ऐरावत हाथी के समान जलकोड़ा
SR No.090345
Book TitleParshvabhyudayam
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy