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पार्थ्याभ्युदय शतृत्यः । नागायिष्यन् । उगसगंविधानादिति यावत् । वृष्टिपात वर्षपतनम् । झटिति शीघ्रम् । 'साझटित्यजसालाय' इत्यमरः । ससर्ज निमिमीते स्म । 'सज विसर्गे ।' लिट् । किल यातायाम् । 'वातासम्भाव्ययोः किल' इत्यमरः ॥१४॥
अन्न-जन्तुमाला रिलमिरे र वजारे नशे सती जीमूतेन स्वकुशलमयी प्रवृत्ति हारयिष्यन् सं जलभृतां कालेन किल योगिनं वितन्वन् असो कमठः रिति वृष्टिपातं ससर्ज ।
अर्म विद्युत् समूह के प्रकाश से दीप्तिमान् तथा वन जिसमें गर्जना कर रहे थे ऐसे मेघों के समूह द्वारा दिशायें व्याप्त कर लेने पर मेध के द्वारा अपनी कुशलवार्ता भेजने की इच्छा से उन मुनि को मेघों के कृष्णवर्ण से सम्बन्धित करते हुए उस कमठ के जीवधारी दैत्य ने शीघ्र वृष्टिपात की सृष्टि की थी।
व्याख्या-कमठ के जीवधारी दैत्य ने शीन वर्षा प्रारम्भ की। उस समय विद्युत् समूह के चमकने से वज जिसमें गर्जना कर रहे थे, ऐसे मेघों से दिशायें व्याप्त हो गई। अपना कुशल समाचार भेजने के लिए उन मुनि को मेघों के कृष्णवर्ण से सम्बन्धित करते हुए कमठ के जीवधारी दैत्य ने शीघ्र ही वृष्टिपात की, सृष्टि कर दी।
'स्वकुशलमयो प्रवृत्ति हारयिष्यन्' का दूसरा अर्थ होगा-अपना कल्याण करने वाले पार्श्व के प्रयत्न अथवा व्यापार को छुड़ाने का इच्छुक ।
एवं प्रायां निकृतिमधमः कर्तुमारब्ध भूयो, मायाशोलश्चिरपरिचिताद्वैरबन्धारप्रकुप्यन् । सिद्धस्तन्निष्क्रमणसमये योगिने भक्ति नः,
स प्रत्य. फुटाकुसुमैः कल्पिताय तस्मै ।। १५ ।। एवमित्यादि । भूयः पुनः। चिरपरिचितात चिरं बहुकालं परिरित्यते स्मेति परिचितः तस्मात् । बहुकालमभ्यस्तात् । वैरवयात् विरोषानुबन्धात् । प्रकुप्थन् प्रकोपितः सन् । मापासोमः मायया कपटेनयुक्स शील स्वभायो यस्य सः। 'शोलं स्वभावे सबुत्ते' इत्यमरः । अषमः निकृष्टः । निकृष्ट प्रतिकृष्टावरेफ याप्यावमाषमाः' इत्यमरः । स कमतः । तलिजक्रमणसारये तस्य मुनेः निष्कामणस्य परिनिष्क्रमणस्य समय काले। 'कालो दिष्टोप्यनेहापि समयोऽपि' इत्यमरः । भक्सिनः नमन्तीत्येवं शोला नम्रा: भक्त्या गुणानुरागेण नम्रास्तैः । सिद्ध देवविशेषः। 'पिशायी गुहाकः सिद्धो भूतोऽभीदेवयोममः' इत्यमरः । प्रत्य: म. 'प्रत्यग्रोऽभिनको नभ्यः' इत्यमरः । बुटकुसुमैः कुटजानां बममल्लिकानां